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हौसलों की उड़ान

हौसलों की उड़ान

: हरीश कुमार ‘अमित’

कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मुझ जैसी अनपढ़ स्त्री को भी देश के राष्ट्रपति महोदय के हाथों पुरस्कार पाने का गौरव मिल सकता है, लेकिन ऐसा हुआ. मुझे यानी कि कृष्णा को राष्ट्रपति महोदय ने नारी शक्ति पुरस्कार प्रदान किया.

अपनी पिछली ज़िन्दगी के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि मैं तो कुछ भी नहीं थी, पर मेरी कोशिशों ने, मेरे आत्मबल ने और मेरी कभी हार न मानने की प्रवृत्ति ने ही मुझे इस मुकाम तक पहुँचाने में मदद की.

नहीं तो उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर में पैदा हुई वह लड़की जिसे स्कूल जाने का मौका तक नहीं मिला था और जो नितांत अनपढ़ थी, वह कैसे इस लायक बन पाती. आज मैं चार-चार फेक्ट्रियों की मालकिन हूँ. इन फेक्ट्रियों में 152 तरह के अचार, चटनी, जैम, जैली, मुरब्बे, जूस आदि बनते हैं. हमारा एक साल का उत्पादन क़रीब 200 टन है और बिक्री क़रीब तीन करोड़ रुपए.

मेरे पिता एक ग़रीब किसान थे. घर बड़ी मुश्किल से जैसे-तैसे चलता था. जब मेरी उम्र पाँच साल की हुई, तो में पिता के संग खेतों में मजदूरी का काम करने लगी ताकि घर की आमदनी में कुछ बढ़ोतरी हो सके.

फिर माँ ने घर का कामकाज करना भी सिखाना शुरू कर दिया और ज़िन्दगी ऐसे ही चलती रही.

बड़ी कम उम्र में ही मेरी शादी भी कर दी गई. ससुराल में परिवार के सब लोगों का जीवन खेती पर ही निर्भर था, मगर मेरे पति, गोवर्धन, का मन तो खेती के कामों में लगता ही नहीं था.

इसी कारण मेरे पति ने शादी के कुछ दिनों बाद ड्राइवरी सीख ली और फिर वे ट्रक चलाने का काम करने लगे. ट्रक में सामान लेकर उन्हें दूर-दूर की जगहों पर जाना पड़ता था, इसलिए वे कई-कई दिनों बाद घर वापिस आते.

ससुराल में मैं घर का कामकाज तो करती ही थी, मैंने खेती के काम में भी हाथ बटाँना शुरू कर दिया. ससुराल में सब लोग मेरी बड़ी तारीफ़ किया करते कि मैं बड़ी मेहनत करती हूँ. मगर सच पूछिए तो मैं ख़ुश नहीं थी. वजह इसकी यही थी कि इतनी मेहनत करने के बावजूद खेती से कोई बहुत ज़्यादा आमदनी हो नहीं पाती थी जिससे घर का खर्च आराम से चल सके. हम लोगों की बहुत-सी ज़रूरतें पूरी ही नहीं हो पाती थीं. कभी इस चीज़ के लिए तरसना पड़ता था तो कभी उस चीज़ के लिए.

ऐसे में मेरे मन में बार-बार यही बात आया करती थी कि काश अगर मैं पढ़ी-लिखी होती तो कोई और काम करके घर के लिए कुछ और कमा पाती. मगर जो सच था वह यही था कि मैं अनपढ़ थी.

इस बीच मैं एक-एक करके तीन बच्चों की माँ बन गई. परिवार के बढ़ने के साथ-साथ घर की ज़रूरतें और घर के खर्चे भी बढ़ने लगे, मगर हम लोगों की आमदनी में तो कोई बढ़ोतरी हो नहीं रही थी न. वह तो उतनी की उतनी ही थी. घर चलाने में पैसों की तंगी और अधिक होने लगी.

ऐसे में मेरे पति, गोवर्धन, ने सोचा कि दूसरों का ट्रक चलाने से बेहतर है कि अपना ख़ुद का ट्रक चलाया जाए. इसके लिए ट्रक खरीदना ज़रूरी था. ख़ैर, किसी तरह जोड़-तोड़ करके और कर्ज़ लेकर एक ट्रक खरीदा गया, लेकिन ख़ुद अपना ट्रक चलाने पर भी उम्मीद के मुताबिक आमदनी होनी शुरू नहीं हुई. आख़िरकार काफी सोच-विचार के बाद यही तय किया गया कि ट्रक चलाने के इस काम को बन्द कर दिया जाए.

इसके बाद ट्रक को बेच दिया गया, पर यह उससे काफ़ी कम दामों में बिका जितने में ख़रीदा गया था. ट्रक ख़रीदने के लिए लिया गया कर्ज़ तो पूरा ही चुकाना था, इसलिए मजबूरी में हमको अपना खेत भी बेचना पड़ा और मकान भी. क्या बुरे दिन आ गए थे ज़िन्दगी के.

फिर काम की तलाश में मेरे पति दिल्ली चले गए और काम ढूँढने लगे, मगर पाँच-छह सालों तक अनगिनत कोशिशें कर-करके भी कोई ढंग का काम उनको मिल ही नहीं पाया.

लेकिन मैं इस तरह हार माननेवाली नहीं थी. सन् 1988 में मैंने एक रिश्तेदार की मदद से दिल्ली के नजफगढ़ में बटाई पर एक खेत ले लिया. मेरे पति का मन तो खेती के काम में लगता नहीं था, इसलिए उस खेत में सब्ज़ियाँ उगाने का काम मैं ख़ुद करने लगी. उन सब्ज़ियों को ख़ुद ही बेचने का काम भी मैंने शुरू कर दिया. खेत में उगी सब्ज़ियों को मैं फुटपाथ पर बेचा करती थी. इस तरह घर का गुजर-बसर करने के लिए कुछ आमदनी होने लगी.

उसके बाद हमने एक छोटा-सा घर किराए पर ले लिया. बच्चों को भी पास के एक सरकारी स्कूल में दाखिल करवा दिया. हालत कुछ और अच्छी हुई तो हमने एक गाय भी खरीद ली. गाय की सेवा टहल और उसका दूध दुहने के लिए मैं हर रोज़ सुबह चार बजे उठ जाती थी. वे सब काम करने के बाद घर का नाश्ता बनाती थी. फिर बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद खेत पर काम करने निकल जाती.

खेत से मेरा वापिस आना दोपहर तक होता. घर आकर खाना बनाती. फिर बच्चों को खाना खिलाने के बाद मैं सब्ज़ियाँ बेचने बाज़ार की तरफ़ निकल जाती.

हर रोज़ मेरी सारी सब्ज़ियाँ बिक नहीं पाती थीं. कुछ सब्ज़ियाँ बच जातीं. ऐसी बची हुई सब्ज़ियाँ मुरझा जातीं और ख़राब भी हो जातीं. सब्ज़ियों के ख़राब हो जाने पर मन बड़ा दुःखी होता. इतनी मेहनत से उगाई हुई सब्ज़ियाँ फेंकनी पड़तीं.

तब अचानक एक दिन मेरे मन में ख़याल आया कि क्यों न उन सब्ज़ियों का अचार बना लिया जाया करे जो हर रोज़ बच जाती हैं. यह विचार आते ही मैंने तुरन्त इस योजना पर अमल करना शुरू कर दिया. बची हुई सब्ज़ियों को पहले धूप में अच्छी तरह सुखाकर मैं उनका अचार बनाने लगी. अब फुटपाथ पर मैं फल और सब्ज़ियों के साथ अचार भी बेचने लगी.

मगर अचार की बिक्री कोई विशेष उत्साहजनक नहीं थी. ग्राहक अचार खरीदने में बहुत आनाकानी करते थे. अचार बेचने के धंधे में कोई ख़ास फायदा भी नहीं था, क्योंकि अचार की बिक्री से मिला पैसा लागत से थोड़ा-सा ही ज़्यादा होता था.

तभी एक दिन किसी ने बताया कि कृषि विज्ञान केन्द्र में महिलाओं को अचार और जूस बनाने की ट्रेनिंग दी जाती है. यह सुनकर मैं हैरान रह गई कि इन चीजों को बनाने की भी कोई ट्रेनिंग होती है. मैं तो समझती थी कि माँ ने अचार बनाने का जो तरीक़ा मुझे सिखा दिया था, बस वही सब कुछ था. उसके आगे और कोई ट्रेनिंग वगैरह कुछ नहीं होती.

ख़ैर, मैं पहुँच गई दिल्ली के ऊज्वा स्थित कृषि विज्ञान केन्द्र पर. उस केन्द्र पर जाकर मुझे पता चला कि वे लोग सिर्फ़ अचार और जूस बनाने की ही नहीं, बल्कि चटनी, जैम, जैली आदि बनाने की ट्रेनिंग भी देते हैं.

उसके बाद कृषि विज्ञान केन्द्र में मेरी ट्रेनिंग शुरू हुई. ट्रेनिंग से पहले मैं सिर्फ़ दो-तीन तरह के अचार ही बनाना जानती थी, पर ट्रेनिंग के बाद तो मैं हर तरह की सब्ज़ी का अचार बनाना सीख गई. उसी ट्रेनिंग के दौरान मैंने जूस और जैली बनाना भी सीखा.

ट्रेनिंग के बाद मैं कई तरह के अचार बनाने लगी. अपने बनाए अचार को दुकानदारों को बेचने के लिए मैंने अपने पति को कहा. वे दुकानदारों के पास अचार लेकर जाते थे, पर ज़्यादातर दुकानदार मेरा बनाया अचार लेने से मना कर देते थे. वजह इसकी यह थी कि वे दुकानदार मशहूर कंपनियों के अचार ही बेचा करते थे.

लेकिन इस बात से मैं निराश नहीं हुई. दुकानदारों के मेरा अचार न ख़रीदने की बात ने उल्टे मेरा हौंसला ही बढ़ाया.

मैं सड़क के किनारे एक मेज़ लगाकर अपने अचार बेचने लगी. लोगों को अपने अचार का ग्राहक बनाने के लिए मैं उन्हें मुफ़्त में अचार का नमूना देती थी. साथ में यह भी कहती थी कि अगर पसन्द आए तो ख़रीदना नहीं तो मत ख़रीदना. मेरे बनाए अचार लोगों को पसन्द आने लगे और धीरे-धीरे मेरा अचार बिकने लगा.

वक्त बीतने के साथ-साथ मेरे अचार की माँग बढ़ने लगी. मैं भी हर रोज़ ज़्यादा अचार बनाने लगी. करते-करते ऐसी स्थिति आ गई कि मैं हर रोज़ पाँच किलो अचार बनाने लगी. मेरे अचार की बढ़ती लोकप्रियता देखकर अब दुकानदार भी मेरा बनाया अचार ख़रीदने को राज़ी हो गए थे.

धीरे-धीरे मेरे बनाए अचार की माँग इतनी बढ़ गई कि मुझ अकेले के लिए इतना अचार बनाना बड़ा मुश्किल लगने लगा तब मैंने अड़ोस-पड़ोस की कुछ महिलाओं को अचार बनाने के अपने काम में शामिल कर लिया.

मेरा काम और-और बढ़ता गया. हमारे बनाए अचार की सबसे बड़ी ख़ासियत यह होती थी कि इसमें घर जैसा स्वाद होता था. हम लोग साफ़-सफ़ाई का पूरा ध्यान रखते थे. साथ ही अचार बनाने के लिए हमेशा अच्छी किस्म की सामग्री प्रयोग में लाते थे.

अगले पाँच सालों में हमारे बनाए अचार की माँग इतनी ज़्यादा हो गई कि अचार बनाने के लिए घर छोटा पड़ने लगा. ऐसे में मैंने हरियाणा के गुड़गाँव में एक फैक्ट्री शुरू की. इस फैक्ट्री में मैं अचार के साथ-साथ जूस भी बनाने लगी.

वक्त बीतने के साथ-साथ अब मैं चार फेक्ट्रियों की मालकिन हूँ. जैसा कि मैने पहले भी बताया है इन फेक्ट्रियों में 152 तरह के अचार, जूस, चटनी, जैली, जैम और मुरब्बे बनते हैं. हमारा एक साल का उत्पादन क़रीब 200 टन है और बिक्री क़रीब तीन करोड़ रुपए. इस काम में मैंने 500 महिलाओं को रोज़गार दिया हुआ है.

मैं ग्रामीण महिलाओं को स्वरोज़गार के लिए ट्रेनिंग भी देती हूँ.

वक्त बीतने के साथ-साथ मेरा नाम और-से-और मशहूर होता गया. मेरी कामयाबी की कहानी पूरी दिल्ली और एन.सी.आर. में प्रसिद्ध हो गई.

सन् 2014 में मुझे हरियाणा सरकार ने इनोवेटिव आइडिया के लिए चैम्पियन किसान महिला पुरस्कार दिया.

सन् 2015 का नारी शक्ति पुरस्कार भी मुझे प्राप्त हुआ. 8 मार्च 2016 को महिला दिवस के दिन भारत के राष्ट्रपति महोदय के हाथों यह पुरस्कार प्राप्त करना मेरे जीवन की एक महान उपलब्धि है. इस पुरस्कार के अन्तर्गत मुझे एक लाख रुपए व प्रमाणपत्र प्राप्त हुआ.

मेरा मानना यह है कि अचार बनाने का काम एक उद्योग के रूप में आगे बढ़े. मैं चाहती हूँ कि मेरे बाद भी मेरा यह कारोबार इसी तरह चलता रहे ताकि मेहनतकश महिलाओं को रोजगार की कमी न रहे. महिलाएँ आगे बढ़ेंगी, तभी तो अपना यह भारत देश भी आगे बढ़ेगा.

इस सब के बावजूद यह बात मेरे दिमाग़ में अक्सर आती है कि पढ़ी-लिखी न होने के कारण मुझे अपने काम में अनेक दिक्कतें, अनेक परेशानियाँ झेलनी पड़ीं, मगर मैंने अपनी इच्छाशक्ति और अपने हौंसले से हर मुश्किल, हर दिक्कत और हर बाधा को पार किया.

मैं ख़ुद बेशक अनपढ़ हूँ, मगर मैंने अपने बच्चों को स्कूल भेजा और उन्हें पढ़ाया-लिखाया. मेरे बच्चों ने ही मुझे हिसाब-किताब करना सिखाया.

मेरे हौंसलों की उड़ान जारी है. और-और ऊंचाइयाँ छू पाने की तमन्ना मेरे दिल में हमेशा ठाठें मारती रहती है.

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: हरीश कुमार ‘अमित’,

304, एम.एस.4,

केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56,

गुरुग्राम-122011 (हरियाणा)

दूरभाष : 9899221107

ई-मेल: harishkumaramit@yahoo.co.in

संदर्भ सूची

1. ‘दैनिक हिन्दुस्तान’, नई दिल्ली के 26 जून, 2016 अंक में पृष्ठ 12 पर प्रकाशित लेख ‘कभी सड़क किनारे अचार बेचती थी’

2. www.icar.org.in/en/node/10263

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