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फ्रंट

फ्रंट

श्वेता बालकनी में पौधों से बात कर रही थी। ये सारे पौधे उसने ही लगाए थे। बड़े प्यार से उनकी देखभाल करती थी। वह रोज़ ही पौधों को पानी देती थी। लेकिन जब कभी उदास होती थी तो उनसे बातें करने लगती थी। आज शाम से ही मन कुछ व्याकुल था। वह पौधों के साथ वक्त बिता कर मन हल्का करने की कोशिश कर रही थी।

कुछ देर में जब वह भीतर आई तो देखा कि उसका बेटा भास्कर बिस्तर पर लेटा हुआ छत को ताक रहा था। वह उसके पास जाकर बैठ गई। प्यार से सर पर हाथ फेरा। भास्कर ने उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में उसका दर्द साफ झलक रहा था। उसकी पीड़ा से श्वेता का दिल भर आया।

'हे ईश्वर आठ साल की इस छोटी सी उम्र में जीने के लिए इतना संघर्ष'

किंतु अपने मन के भावों को दबाते हुए उसने भास्कर को ढांढस बंधाया।

"तुम तो बहादुर पापा के बहादुर बेटे हो। हर बार की तरह इस बार भी सब सही होगा।"

अपनी मम्मी की बात से शक्ति पाकर भास्कर उठ कर बैठ गया। उसकी तरफ देख कर उसने पूँछा।

"मम्मी कब तक यह सब चलेगा ? क्या मैं कभी ठीक नहीं होऊँगा ?"

श्वेता कोई जवाब नहीं दे पाई। जीवन में कुछ सवालों के जवाब आसान नहीं होते। उसने भास्कर को गले से लगा लिया। भास्कर भी अपनी मम्मी की मजबूरी समझ गया। भास्कर के सोने के बाद वह अगले दिन की तैयारी करने लगी। कल ब्लड ट्रांसफ्यूज़न के लिए भास्कर को अस्पताल में भर्ती होना था। हर पंद्रह दिन में एक बार उसके शरीर का खून बदला जाता था।

अपनी सारी तैयारी कर लेने के बाद श्वेता भी सोने के लिए लेट गई। लेकिन नींद ने जैसे आज की रात उसे जगाए रखने का निश्चय किया था। भास्कर का सवाल उसे परेशान कर रहा था।

"मम्मी कब तक यह सब चलेगा ? क्या मैं कभी ठीक नहीं होऊँगा ?"

अभी भास्कर साल भर का भी नहीं हुआ था कि श्वेता को उसकी बीमारी का पता चला। उसे थैलासीमिया था। जीवित रहने के लिए आवश्यक था कि हर थोड़े समय के बाद उसके शरीर का रक्त बदला जाए। छोटी उम्र से ही वह यह सब झेल रहा था।

पहली बार जब उसे भास्कर की बीमारी का पता चला तब वह एकदम अकेली थी। उसके फौजी पति सुयश की पोस्टिंग किसी दुर्गम इलाके में थी। जल्दी बात भी नहीं हो पाती थी। श्वेता सुयश से बात करके उसे सारी बात बताना चाहती थी। लेकिन बात हो नहीं सकी। उसके लिए एक एक पल कठिन हो रहा था। वह किसी के साथ अपना दर्द बांटना चाहती थी। अगले दिन जब उसकी बात सुयश से हुई तो जैसे बांध टूट गया। सुयश फोन पर उसे सांत्वना देने का प्रयास करता रहा। श्वेता उससे अपना दुख बयां करती रही।

पर बाद में जब वह शांती से बैठी तो उसे खयाल आया कि अपने दुख में वह सुयश के बारे में तो भूल ही गई। उसने एक बार भी नहीं सोंचा कि सुयश पर क्या बीती होगी। वह भी तो भास्कर का पिता है। अपनी संतान के बारे में इतनी बड़ी बात पता चलने पर उसके लिए अपनी भावनाओं पर काबू रख पाना कितना कठिन रहा होगा। वह केवल अपनी ही बात कर रही थी। सुयश धैर्य से उसे समझा रहा था। अपनी इस नासमझी पर श्वेता को बहुत अफसोस हुआ। वह तो भास्कर के पास थी। उसे सीने से लगा कर अपना दिल हल्का कर सकती थी। लेकिन घर से इतनी दूर उन कठिम परिस्थितियों में सुयश पर क्या बीत रही होगी यह सोंच कर उसका मन द्रवित हो रहा था। उस दिन उसने तय कर लिया था कि अब वह अपनी लड़ाई खुद ही लड़ेगी। जब तक बहुत ज़रूरी ना हो सुयश को परेशान नहीं करेगी।

लेटे हुए श्वेता सुयश को याद करने लगी। उन दोनों को साथ रहने का मौका बहुत कम मिल पाता था। जब कभी सुयश की पोस्टिंग ऐसी जगह हुई जहाँ वह परिवार को साथ रख सकता था। तब भी भास्कर के इलाज के चलते दोनों साथ नहीं रह पाते थे। वह इस बात का पूरा प्रयत्न करती थी कि जब भी सुयश से बात हो वह उसे इस बात का एहसास कराए कि सब कुछ सही तरह से चल रहा है। लेकिन फिर भी सुयश को उसकी तकलीफों का एहसास था। वह अक्सर इस बात का अफसोस जताता था कि चाह कर भी वह उसकी कोई मदद नहीं कर पा रहा है। जब भी उन दोनों की बात होती थी तब वह श्वेता को हिम्मत बंधाता था। कौन सी चीज़ कैसे करनी है इस बात का सुझाव देता था। दूर रह कर भी अपने दोस्तों के ज़रिए जो मदद पहुँचा सकता था वह पहुँचाता था।

श्वेता सारी ज़िम्मेदारियां अकेले ही निभा रही थी। लेकिन इसका हौंसला उसे सुयश से ही मिलता था। उसके कारण ही वह स्वावलंबी बन पाई थी। अन्यथा वह जिस माहौल में पली थी वहाँ हर चीज़ के लिए वह अपने पिता या भाई पर ही निर्भर रहती थी। अगर एक रजिस्टर भी लेना होता था तो खुद बाजार ना जाकर भाई को ही भेजती थी। उसके पिता का आगरा में एक छोटा सा होटल था। वह अपने पिता और भाई की लाडली थी। इसलिए उसका हर काम वह खुशी खुशी करते थे। श्वेता की ख्वाहिश थी कि बारहवीं के बाद वह दिल्ली के किसी बड़े कॉलेज से ग्रैजुएशन करे। इसके लिए उसने बारहवीं में अच्छे अंक प्राप्त किए थे। उसने दिल्ली के एक कॉलेज में बीए ऑनर्स में दाखिला ले लिया। हलांकि उसके पिता यथासंभव उसकी मदद करते थे। लेकिन बहुत सी चीज़े अब श्वेता को अपने दम पर करनी पड़ती थीं। इस तरह उसे आत्मनिर्भरता की कुछ आदत पड़ी थी। पर अभी भी उसमें यह यकीन नहीं आया था कि वह अकेले ज़िम्मेदारियां निभा सकती है।

जब श्वेता बीए के दूसरे साल में थी तब उसकी एक बंगाली सहेली ने उसे दुर्गा पूजा के उत्सव के लिए अपने घर आमंत्रित किया। उसके पिता सेना से अवकाश प्राप्त थे और एक प्राइवेट सिक्योरिटी एजेंसी चलाते थे। उन्होंने अपने बंगले के लॉन में पूजा मंडप बनाया था। श्वेता हॉस्टल से छुट्टी लेकर उसके घर रहने चली गई। यहीं श्वेता की मुलाकात सुयश बैनर्जी से हुई जो उसकी सहेली का मौसेरा भाई था। पूजा उत्सव के दौरान ही सुयश और श्वेता एकदूसरे को पसंद करने लगे। सुयश उस समय सेना में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्त था। छुट्टियों के बाद वह वापस अपनी पोस्टिंग पर चला गया। श्वेता भी अपने हॉस्टल वापस आ गई।

श्वेता के पिता ने उसके हालचाल लेने के लिए उसे एक नोकिया का फोन दिया था। एक दिन श्वेता के पास सुयश का फोन आया। उसने अपनी बहन से श्वेता का नंबर लिया था। उसके बाद अक्सर ही दोनों की बातचीत होने लगी। एक दिन सुयश ने फोन पर ही अपने प्यार का इज़हार कर दिया। श्वेता भी उसकी तरफ आकर्षित थी। फिर भी उसने सोंचने के लिए कुछ समय मांगा। उस दौरान सुयश ने उसे फोन नहीं किया। अपने मन को पक्का करके श्वेता ने स्वयं उसे फोन कर कहा कि अपना निर्णय सुनाने से पहले वह एक बार उससे मिलना चाहती है। उस समय सुयश को छुट्टी नहीं मिल सकती थी। अतः उन्हें कुछ प्रतीक्षा करनी पड़ी। इस बीच जब भी दोनों की बातचीत होती थी तब सुयश उसे अपने आगे के कैरियर पर ध्यान देने की सलाह देता था। बीए के अंतिम साल की शुरुआत में ही दोनों का मिलना संभव हो सका। इस समय में श्वेता इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हो चुकी थी कि सुयश ही उसका जीवनसाथी बनने के लायक है। सुयश से मिलकर श्वेता ने उसे अपनी रज़ामंदी सुना दी। दोनों के बीच तय हुआ कि जब तक श्वेता पढ़ाई पूरी नहीं कर लेती है वह लोग किसी को कुछ नहीं बताएंगे।

बीए के बाद श्वेता अर्थशास्त्र में एम ए करने लगी। जब वह दूसरे वर्ष के अंतिम सेमेस्टर में थी तब ही उसके पिता ने बताया कि वह एक जगह उसके रिश्ते की बात चला रहे हैं। इसलिए श्वेता को घर में सारी बात बतानी पड़ी। उसके निर्णय से माता पिता खुश नहीं थे। वह नहीं चाहते थे कि श्वेता एक फौजी से शादी करे। उनका तर्क था कि एक फौजी अपने परिवार के साथ बहुत कम समय बिता पाता है। यदि श्वेता सुयश से शादी करेगी तो उसे सारी ज़िम्मेदारियां अकेले ही उठानी पड़ेंगी। जिसकी उसे आदत नहीं है। लेकिन श्वेता अपने निर्णय पर अडिग रही। अंत में उसके माता पिता को झुकना पड़ा। उसका ब्याह सुयश के साथ हो गया।

विवाह के बाद श्वेता और सुयश बहुत कम समय एक साथ बिता पाए। सुयश की पोस्टिंग नार्थ ईस्ट में हो गई। श्वेता वापस दिल्ली आ गई। वह एक स्कूल में अर्थशास्त्र पढ़ाने लगी। साथ ही नेट की तैयारी करने लगी। इस बीच जब छुट्टी मिलती थी तब सुयश उसके पास आ जाता था या संभव हुआ तो उसे बुला लेता था। नेट की परीक्षा पास कर श्वेता पी एच डी के विषय में सोंच रही थी तभी उसे अपने गर्भवती होने का पता चला। अपनी गर्भावस्था के दौरान उसने सारी चीज़ें खुद ही संभालीं। वह अपने घरवालों को यह कहने का मौका नहीं देना चाहती थी कि देखो हम इसी के बारे में बात कर रहे थे। सुयश भास्कर के जन्म के समय ही उसके पास आ सका था।

श्वेता ने पास सोए हुए भास्कर की तरफ देखा। वह उसके मन के दर्द को समझती थी। इस छोटी सी उम्र में ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा अस्पताल में ही बीता था। उसे याद है कि जब सुयश ने उसे मेजर बनने की खबर दी थी तब भी वह भास्कर को लेकर अस्पताल में ही थी। भास्कर की बीमारी का पता चलने पर उसने तय कर लिया कि अब वह दिल्ली में ही रहेगी। उसने दिल्ली के एक कॉलेज में नौकरी कर ली। उसके बाद नौकरी, भास्कर की पढ़ाई और इलाज की ज़िम्मेदारी वह अकेले संभालने लगी। ऐसा नहीं था कि माता पिता से उसका कोई ताल्लुक नहीं था। समय समय पर वह उनके पास जाती रहती थी। वह भी उससे मिलने आते थे। लेकिन जब कभी भी उन्होंने कोई मदद करनी चाही तो उसने यही कहा कि वह अपनी लड़ाई खुद लड़ना चाहती है। उसके लिए उनका आशीर्वाद ही बहुत है।

श्वेता अपनी लड़ाई अपने दम पर लड़ रही थी। कई बार उसे खुद ही इस बात का अचरज होता था कि उसमें इतनी शक्ति आती कहाँ से है। पर वह जानती थी कि उसकी शक्ति का स्रोत सुयश ही था। दो साल पहले भले ही वह एक ऑपरेशन में शहीद हो गया था। लेकिन आज भी वह उसे हौंसला दे रहा था।

सुबह होने को थी। श्वेता उठ कर कबर्ड के पास आई। उसने कबर्ड से सुयश की वर्दी निकाली। उसकी अंतिम निशानी जो फौज ने उसे दी थी। जब भी वह कमज़ोर महसूस करती थी तो इस वर्दी को छूकर सुयश को महसूस करती थी। उसने सुयश के वॉलेट से वह पत्र निकाला जो कभी सुयश ने उसके लिए लिख कर रखा था। कई बार पढ़े हुए उस पत्र को वह फिर पढ़ने लगी।

प्यारी श्वेता

मैं तुमसे दूर इतनी ऊँचाई पर तैनात हूँ। इन कठिन परिस्थितियों में तुम ही मेरी ताकत हो। मैं सोंचता हूँ कि कितनी कुशलता से धैर्य व साहस के साथ तुम अपने फ्रंट पर डटी हो। यह एहसास मेरी भी ताकत बन जाता है। हम दोनों ही एक दूसरे से दूर हैं। पर एक दूसरे की ताकत हैं। एक पिता होने के नाते मुझे भास्कर के लिए कुछ ना कर पाने का दुख होता है। किंतु मैं एक बात से निश्चिंत हूँ कि अगर किसी दिन मैं शहीद हो जाऊँ तब भी तुम भास्कर को कोई कमी महसूस नहीं होने देगी। इसी तरह बहादुरी से अपने फ्रंट पर डटी रहेगी।

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