ख़ुवाब-ए-ख़रगोश Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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ख़ुवाब-ए-ख़रगोश

ख़ुवाब-ए-ख़रगोश

सुरय्या हंस रही थी। बे-तरह हंस रही थी। उस की नन्ही सी कमर इस के बाइस दुहरी होगई थी। उस की बड़ी बहन को बड़ा ग़ुस्सा आया। आगे बढ़ी तो सुरय्या पीछे हट गई। और कहा “जा मेरी बहन, बड़े ताक़ में से मेरी चूड़ियों का बक्स उठाला। पर ऐसे कि अम्मी जान को ख़बर न हो।“”

सुरय्या अपनी बड़ी बहन से पाँच बरस छोटी थी। बिलक़ीस उन्निस की थी। सुरय्या ने झुंझलाहट से हंसते हुए कहा। “और जो मैं न लाऊं तो?”

बिलक़ीस ने जल कर उसे कहा। “एक फ़क़त तो मुझ अल्लाह मारी का काम नहीं करेगी नगोड़ियां हम-साईआं चाहे तुम से उपले तक थपवालें”

सुरय्या को अपनी बहन पर प्यार आगया। इस के गले से चिमट गई.............. “नहीं बाजी, हमसाईआं जाएं जहन्नम में। मैं तो तुम्हारी ख़िदमत के लिए भी तैय्यार हूँ............ में चूड़ियों का बक्स अभी लाती हूँ।”

सुरय्या यूं चुटकियों में बक्स उठा लाई और बिलक़ीस से बड़े जासूसाना अंदाज़ में कहा। “आप ज़रूर सिनेमा देखने जा रही हैं।”

“सुरय्या तू अब ज़्यादा बकबक न कर..........तेरी क़सम में सिनेमा नहीं जा रही।”

सुरय्या ने बचपने के से अंदाज़ से पूछा। “तो फिर ये तैय्यारियां क्यों हो रही हैं?”

“ये तू मेरा इम्तिहान लेने क्या बैठ गई है। और मैं बेवक़ूफ़ नहीं जो तेरी हर बात का जवाब दिए चली जाऊं। सुन साढे़ आठ बजे वहां पहुंच जाना चाहिए। नई चूड़ियां जाएं जहन्नम में, नहीं पहनूंगी तो कौन सा आफ़त का पहाड़ टूट पड़ेगा। तेरी बेहस तो फिर ख़त्म नहीं होगी कम-बख़्त।”

सुरय्या बे-हद अफ़्सुर्दा होगई। नन्ही जान थी। उस का दिल धक धक करने लगा। उस ने अपनी बहन का हाथ पकड़ लिया “आप नाराज़ होगईं मुझ से।?”

“चल दूर हो……………… बिलक़ीस अपने आप से बल्कि हर चीज़ से बे-ज़ार हो रही थी। “आज मुझे ज़रूरी एक काम से बाहर जाना है। पर मुसीबत ये है कि अम्मी जान इजाज़त नहीं देंगी। कहेंगी मुतवातिर तीन शामों से तू बाहर जा रही है। और मैं उन से वाअदा करचुकी हूँ कि ठीक साढ़े आठ बजे पहुंच जाऊंगी।”

सुरय्या ने “पूछा किस से?”

बिलक़ीस ने ग़ैर इरादी तौर पर जवाब दिया। “लतीफ़ साहब से” ये कह कर वो एक दम ख़ामोश होगई। सुरय्या सोचने लगी कि ये लतीफ़ साहिब कौन हैं........... उन के हाँ तो कभी इस नाम का आदमी नहीं आया था। सुरय्या ने इस शश-ओ-पंज में अपनी बहन से पूछा “ये लतीफ़ साहब कौन हैं बाजी।?”

“लतीफ़ साहब.............. मुझे क्या मालूम............. कौन हैं अर... अर... सचमुच ये कौन हैं।”

एक दम संजीदा होकर “सुरय्या .............. तू ने आज का सबक़ याद किया? तो बहुत वो ............ होगई है। इस लिए तो ऊटपटांग सवाल करती रहती है।”

सुरय्या की मासूमियत को ठेस पहुंची। “बाजी मैंने कभी कोई वाहियात बात नहीं की। आप ने किस लतीफ़ साहब से मिलने का वाअदा क्या हुआ है।”

बिलक़ीस उस की मासूमियत से तंग आगई। झुँझला कर बोली। “ख़ामोश रह........ इतने में अंदर सेहन से बिलक़ीस की माँ की आवाज़ सुनाई दी “बिलक़ीस। बिलक़ीस।”

बिलक़ीस की आवाज़ दब गई। उस ने हौले लहजे में अपनी बहन से कहा ले “ये इकन्नी” पर्स में से उस ने एक इकन्नी निकाल कर उस को दी “इमली ले लेना। हर रोज़ एक आना दिया करूंगी तुझे इमली के लिए। और देख आधी आज मेरे लिए रख छोड़ना। अम्मी मुझे बुला रही हैं। और देख जो बातें हुई हैं। उन को न बताना, ले वो ख़ुद ही आरही हैं” सेहन के आगे जहां बरामदा के फ़र्श पर बिलक़ीस अपनी माँ के क़दमों की चाप सुनती है और सुरय्या से कहती है..... “ले भाग अब यहां से।”

बिलक़ीस की माँ आती है। एक उधेड़ उम्र की औरत बहुत ग़ुस्सैली। उस के चेहरे के ख़द्द-ओ-ख़ाल से साफ़ अयाँ है कि वो एक जाबिर माँ है। आते ही बिलक़ीस को डांटती है।

“ये जो मैं दो घंटे से तुझे बुला रही हूँ तू ने कानों में रूई ठोंस रखी है क्या?”

बिलक़ीस मिस्कीन बिल्ली की सी आवाज़ में जवाब देती है।

“नहीं तो...........”

बिलक़ीस की माँ की आवाज़ और ज़्यादा बुलनद होजाती है।

“और ये मैंने क्या सुना है।”

“क्या अम्मी जान?”

“कि तू फिर आज बाहर जाना चाहती है.......... शरीफ़ बहू बेटियों की तरह तेरा घर में जी ही नहीं लगता......... दीदे का पानी ही ढल गया है।”

बिलक़ीस ने आँखें झुका कर बड़ी नरम-ओ-नाज़ुक आवाज़ में कहा।

“आप तो ना-हक़ बिगड़ रही हैं।”

बिलक़ीस की माँ जहांआरा ग़ज़ब-नाक होगई और कहा “अभी अभी एक आदमी तुम्हारी किसी सहेली के यहां से आया था। कहता था कि बीबी तैय्यार रहें। कॉलिज के जलसे में जाना है।”

बिलक़ीस ने यूं झूट मूट का इज़हार किया। “हाय.............. जलसे में?....... मैं तो बिलकुल भूल ही गई थी......... ये जलसा बहुत ज़रूरी है अम्मी जान। मैं न गई तो प्रिंसिपल साहिबा बहुत बुरा मानेंगी। मेरा ख़याल है मुझे फ़ौरन तैय्यार होजाना चाहिए।”

माँ को उस से काम कराना था। उसे कॉलिज के जलसे जलूसों से कोई दिलचस्पी नहीं थी...... “तू चल मेरे साथ और बैठ के मेरे साथ आटा गूँध।”

बिलक़ीस ने अपनी सजावट एक नज़र देखी और बड़ी पुर-दर्द लहजे में कहा। “लेकिन अम्मी जान”

माँ का लहजा कड़ा होगया। “नहीं आज मेरे साथ कोई बहाना नहीं चलेगा..... समझीं।?”

बिलक़ीस ने हार मान कर अपनी माँ से कहा। “आटा गूँधने के बाद तो मुझे इजाज़त मिल जाएगी।?”

माँ ज़ेर-ए-लब मुस्कुराई। “देखूंगी........... चल बैठ जा मेरे सामने।”

बिलक़ीस वहीं कमरे में बैठने लगी। मगर उसे एक दम ख़याल आया कि बावर्ची-ख़ाना और सेहन बाहर हैं। यहां वो अपनी माँ का सर आटा गूँधेगी। “चलिए अम्मी जान।”

दोनों बावर्ची-ख़ाने में दाख़िल हुईं......... कुछ इस तरह जैसे आगे आगे पुलिस का सिपाही और पीछे हथकड़ी लगा मुल्ज़िम। उस की माँ एक पीढ़ी पर अपना भारी भरकम जिस्म ढीला छोड़ कर बैठ गईं कि पीढ़ी को ज़र्ब न पहुंचे। फिर उस ने बिलक़ीस की तरफ़ देखा और कहा। “टुकुर टुकुर मेरा मुँह क्या देखती है, बैठ जा यहां मेरे सामने!”

बिलक़ीस गंदे फ़र्श पर ही पैरों के बल बैठ गई और मुँह बना कर पूछा। “पानी कहाँ है?”

पानी पास ही पड़ा था। अस्ल में उसे सुझाई कम देने लगा था....... सामने प्रात में आटे की छोटी सी ढेरी पड़ी थी। उस ने ढेरी में पास पड़ी गड़वी से थोड़ा सा पानी बादिल-ए-नाख़्वास्ता डाला और आटे पानी को मिला कर जल्दी जल्दी मुक्कियां माने लगी....... लेकिन उस ने देखा कि सामने सहन में लगे क्लाक की सूईयां बता रही थी कि आठ बजने वाले हैं। चाहिए तो ये था कि उस की मुक्कियां तेज़ हो जाएं मगर वो इस सोच में ग़र्क़ थी कि जहां उसे साढे़ आठ बजे पहुंचना है क्या वो ये आटा गूँधने के बाद पहुंच सकेगी।

उस की माँ उस के सर पर खड़ी थी। एक दम चिल्लाई। “बिलक़ीस ये मुक्कियां मार रही है या किसी का सर सहला रही है।”

बिलक़ीस अभी सोच ही रही थी क्या कहे अस्ल में वो ये चाहती थी कि अपना गीले आटे से भरा हाथ मुक्का बना कर या अपनी माँ के सर पर दे मारे या अपने सर पर। ख़ुद को इतना पीटे कि बेहोश हो जाये...... लेकिन उसे ठीक साढे़ आठ बजे वहां पहुंचना था। इस लिए उस ने जल्दी जल्दी आटा गूँधा और फ़ारिग़ होगई।

हाथ धो कर उस ने सुरय्या से कहा.......... “जाओ एक टांगा ले आओ।”

सुरय्या चली गई।

बिलक़ीस ने आईने में ख़ुद को देखा। लिप स्टिक दुबारा लगाई। किसी क़दर बिखरे हुए बालों को दुरस्त किया और कुर्सी पर बैठ कर बड़े इज़्तिराब में टांग हिलाने लगी।

थोड़ी देर बाद सुरय्या आगई। उस ने अपनी बड़ी बहन से कहा। “बाजी टांगा आगया है।”

बिलक़ीस की टांग हिलना बंद होगई। वो उठ खड़ी हुई। बुर्क़ा उठाया ही था कि बाहर सहन से इस के भाई की आवाज़ आई...... “बिल्ली ....... बिल्ली।”

बिलक़ीस ने कहा। “क्या है भाई जान?”

उस का भाई ख़ुद इन्दर तशरीफ़ ले आया और उस के हाथों में अपनी क़मीस दे कर कहा। “धोबी कमबख़्त ने फिर दो बटन ग़ारत कर दिए। मेहरबानी कर के ....... ”

बिलक़ीस को ऐसा महसूस हुआ कि दो बटन उस के सर पर दो पहाड़ बन कर टूट पड़े हैं। “नहीं भाई जान मुझे ठीक साढे़ आठ बजे कॉलिज के जलसे में पहुंचना है।”

उस के भाई ने बड़े इत्मिनान और बिरादराना मुहब्बत से कहा। “तुम वक़्त पर पहुंच जाओगी...... लो ये दो बटन हैं...... तुम तो यूँ चुटकियों में टांग दोगी।”

“नहीं भाई जान.......... वक़्त हो गया है ........... सवा आठ हो चुके हैं।”

“अम्मी जान ने तुम्हें इजाज़त दे दी है।”

“नहीं।”

“तो बटन टाँक दो..... इजाज़त मैं ले दूँगा।”

“सच्च.......?”

“मैंने आज तक तुम से कोई झूटी बात कही है।”

“लाईए........... ”

बिलक़ीस ने बटन लिए और सोई में धागा पिरो कर बटन टाँकने शुरू करदिए। उस की उंगलियों में बला की फुर्ती थी। दो मिनट से कम अर्से में उस ने अपने भाई की क़मीस में दो बटन लगा दिए। वो बहुत ममनून वो मुतशक़्क़िर हुआ। बाहर जा कर उस ने अपनी माँ से सिफ़ारिश की कि वो बिलक़ीस को कॉलिज के जल्से में जाने की इजाज़त दे दे। उस की ये सिफ़ारिश सुन कर उस की माँ उस पर बरस पड़ी.............. “तुम दोनों आवारागर्द हो............ घर में तुम्हारा जी ही नहीं लगता..................... तुम कहाँ जाने की तैय्यारियां कर रहे हो?............... देखो मैं तुम से कहे देती हूँ कि न बिलक़ीस कहीं जाएगी न तुम। घर में बैठो और काम करो।”

“लेकिन अम्मी जान, मैं तो आप ही के लिए बाहर जा रहा हूँ।”

“मुझे क्या तकलीफ़ है कि तुम मेरे लिए बाहर जा रहे हो...... मेरे लिए जब भी तुम गए डाक्टर बुलाने के लिए गए।”

“लेकिन अम्मी जान .......... आप के ज़ेवरों का भी तो पता लेना है......... जिस सुनार को आप ने बनने के लिए दिए थे, वो चार रोज़ से ग़ायब है।”

“हाए....... तुम ने मुझे पहले क्यों न कहा........ कहाँ ग़ायब होगया है?”

“अब जाऊंगा तो मालूम करूंगा।”

“जाओ जल्दी जाओ........ और मुझे इत्तिला दो कि वो वापिस आगया है कि नहीं....... मेरा सोना उस से वापिस ले आना............ साढे़ चार तोले दो माशे और चार रत्तियां है।”

“बहुत बेहतर........ बिलक़ीस को अब आप इजाज़त दीजिए।”

उस की माँ ने बादल-ए-नाख़्वास्ता कहा कि “चली जाये। मगर मुझे उस का ये हर रोज़ शाम का घर से बाहर रहना पसंद नहीं।”

बिलक़ीस का भाई ज़ेरे लब मुस्कुराया और अंदर जाकर अपनी बहन को ख़ुशख़बरी सुनाई के अम्मी जान से जो उस ने फ़राड क्या वो चल गया और उस को इजाज़त मिल गई। बिलक़ीस बहुत ख़ुश हुई। आठ बज कर बीस मिनट हुए थे।

उस ने अपना बुर्क़ा पहना। बाहर निकलने ही वाली थी कि उस की माँ ने उसे बुलाया और उस से कहा। “देखो बिलक़ीस तुम जा तो रही हो, लेकिन मेरा एक काम करती जाओ।”

बिलक़ीस को ऐसा महसूस हुआ कि उस का रेशमी बुर्क़ा लोहे की चादर बन गया है। “बताईए अम्मी जान।

एक ख़त लिखवाना था तुम से”

बिलक़ीस ने एक शिकस्त-ख़ूर्दा और ग़ुलाम के मानिंद ब-दर्जा-ए-मजबूरी ठंडी सांस भर के कहा।

“लाईए लिख देती हूँ।”

बिलक़ीस की आँखें तो नहीं बल्कि उस के जिस्म का रुवां रुवां रो रहा था। उस ने ख़त मुकम्मल किया। बाहर ताँगा खड़ा था। उस में बैठी और उसे जहां पहुंचना था पहुंची।

उस ने दरवाज़े पर दस्तक दी। मगर कोई जवाब न मिला............ किवाड़ों को ग़ुस्से में आकर ज़ोर से धकेला......! वो खुले थे, बिलक़ीस गिरते गिरते बची....... अंदर उस का दोस्त जिस से वो मिलने आई थी। ख़्वाब-ए-ख़रगोश में था। उस ने उस को जगाने की कोशिश की मगर वह बेदार न हुआ.......... आख़िरी वह जली भुनी, बड़बड़ाती वहां से चली गई “मेरी जूती को क्या ग़र्ज़ पड़ी है कि यहां ठहरूँ मैं इतनी मुसीबत से यहां आई और जनाब मालूम नहीं भंग पी कर सो रहे हैं।”