चंद कवितायें
निमेष दास गुरु
पेशे से मैं लॉयड लॉ कॉलेज ग्रेटर नॉएडा में विधिशास्त्र (लॉ) का शिक्षक हूँ। कवितायें यूँ हीं फेसबुक वगैरह में लिखा है, एक दो लोगो ने तारीफ की तो हिम्मत बढ़ी कि छपने के लिए भेज के देखूं। ये कुछ कवितायें भेज रहा हूँ। अगर छप गयी तो और हिम्मत बढ़ जायेगी। आप चाहे तो कविताओं का शीर्षक बदल सकते हैं, संपादन करने के लिए भी आप स्वतंत्र है, अगर बिलकुल बेतुकी तुकबंदी लगे तो बताने में झिझकिये गा नही।
हम इंतजार करेंगे
एक घूँट पीने के बाद जैसे और बढ़ जाती है प्यास,चैत के महीनों में जैसे रहती है बारिश की आस,हिरण को रहती है जैसे कस्तूरी की तालाश,आपकी नजरों को रहता है जैसे हर वक्त अब उनका इंतजार,कभी हम भी थे किसी के लिए कुछ ऐसे ही बेकरार।
सब कुछ जल जाने के बाद जैसे बस बच जाती है राख,गोधूलि के बाद जैसे हमेशा आ जाती है रात,कब्र में जैसे कोई आता नही है साथ,उनके कंधों पे सर रखकर जैसे अब सो जाती हैं आप,एक दिन बस यू हीं ऐसे ही खत्म हो गयी हमारी बात।
पर लकड़ी के अंदर जैसे हमेशा रहती है आग,खुशी से गाते वक्त जैसे सभी को मिल जाता है राग,नही दिख रहा है फिर भी अभी भी आसमान में ही है चाँद,आपके दिल में जैसे है अब उनके मोहब्बत का राज,मेरी कविताओं के अंत में हमेशा रहेंगी आप।।
आपके लिए
फिर एक कविता लिखी मैंने,फिर एक बात बोली मैंने।
कुछ रह गया पर बाकी अब भीपता नहीं तुमने पढ़ा भी कि नही ।।
चंद शब्दों मे अब कहूँ भी क्या,अल्फाजो में दम नहीं करु भी क्या।
आँखें थोड़ी देर में अब बोलने लगेगी,एक नज़र और देखा तो ये रोने लगेगी।।
इतनी आसानी से तो खुलती नहीं थी ये किताब,पढ़ने वाले भी समझ नहीं पाते थे ये किताब।
ये तो आपकी आँखें थी कि खुल गयी ये किताब,आपको जो आया समझ में वही हो गयी ये किताब ।।
तुम
आँखें बंद करता हूँ तो तुम दिख जाती हो,ख्वाबों में मेरे साथ तुम दूर तक चलती हो।
ढूंढता नही हूँ फिर भी तुम मिल जाती हो,तकदीर की तरह हमेशा सामने खड़ी हो जाती हो।।
छुप जाती हो ऐसे जैसे चाँद छुप जाता है दिन में,और जब आती हो तो ऐसे जैसे बारिश हो सावन में।
कई बार सोचा कि मुड़ जाऊँ मैं फिर उस रास्ते में,शायद अब भी वही हो आप उस छोटे से आशियाने में।।
अहंकार
तेरे प्रवचनों को सुनने के बाद, मेरे दिल में जो बवाल उठता है।वो फिर किसी मदिरालय की गोद में हीं निढाल होता है।।
राम के मूर्ति से जब अपना साक्षात्कार होता है।रावण के अहंकार से वो फिर तार तार होता है।।
और आपकी भावनाओं का बड़ा खयाल है मुझे ।पर क्या करु मेरे लिए भी तो जिंदगी का सवाल है ये।।
मतलब से मतलब
क्या हमारी कोई भाषा है।क्या ये भाषा यहाँ पर मेरी होनी चाहिए थी।क्या हमरी लिखने से उसका मतलब मेरी हो जाता।क्या आँखों की भाषा होती हैऔर अगर होती हैतो क्या उसका भी व्याकरण होता है।उसका पाणिनि कौन है ?
क्या बकवास है और क्या नहींइसका अंतर क्या मतलब से निकलता है।क्या मतलब के दो मतलब नहीं होते ।जब हम किसी बात का मतलब निकालते हैंतो उस वक़्त मतलब का क्या मतलब होता है।क्या यह एक कविता है जो हम गुनगुना नहीं सकते।
"य पश्यति सः पश्यति"
"य पश्यति सः पश्यति"जो ये देखता है वह देखता है ।
देखने का मतलब क्या होता है ।तुम कुर्सी देखते होया तख्ते-ताउस देखते हो।
तुम राम देखते होया राजा राम देखते हो ।तुम राम का नाम देखते होया उसका काम भी देखते हो ।
टीवी में भी हम देखते हैंऔर टीवी को भी देखते हैं।अगर तुम आँखों से देखते हो तो हम पैरो से चलते हैं।
फिर कहीं पहुँचने का क्या मतलब हुआगाडी खरीदने का फिर क्या मतलब हुआ ।
देख लो
पहले बारिश होती थीऔर हम बहती हुई नालियों में कागज की कश्ती चलाते थेअब ग्रीन हो गए हैंऔर रेनी डे में एनएफएस की सड़को में फेरारी चलाते हैं.
पहले हम बच्चे थेऔर बोर हो जाने पर बैठकर ला मिजरेबल पढ़ते थेअब हम बड़े हो गए हैंऔर बोर होकर फेसबुक में बैठकर कविता लिखते हैं.
कोई बात नहीं यह किजो मैं ये कहता रहता हूँ कि सब बदल गया हैकहने से होता क्या हैजो बदलना है वो तो वैसे भी बदल हीं जाता है.
देखो मैंने बोल हीं दियाऔर अपने सोंच को ज़माने के सामने खोल हीं दियातुम समझो या नासमझोतुम्हारे एक सवाल का जवाब तो मैंने दे हीं दिया
सोंच या सपना
किसी ने किसी से पूछा कि बताओसोच और सपने में अन्तर क्या हैअन्त में इन दोनों मे आखिर अपना कौन है।तो उसने कहा......बिना सोच के सोच को हम सपना कहते हैंऔर सोचें हुए सपने को मैं सोच कहता हूँकि आँखें बंद करके सोचों तो सपना हैऔर खुली आँखों के सपने सोच हैं ।और तुम्हारा दुसरा जो सवाल है वो कमाल हैऔर उसके जवाब में लो एक और सवाल हैबताओ तो कभी सोचा है कि कहाँ से आता हैतुम्हारे दिल का जो ये मजाल है.....
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