सिद्धार्थ - सम्पूर्ण उपन्यास Herman Hesse द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सिद्धार्थ - सम्पूर्ण उपन्यास

सिद्धार्थ

हरमन हेस

जर्मन लेखक हरमन हेस (1877-1962) ने अपना जीवन पुस्तक-विक्रेता के रूप में प्रारम्भ किया। फिर उन्होंने कविताएँ और उपन्यास लिखे। उन्हें 1946 में अपनी साहित्यिक कृतियों के लिए नोबल पुरस्कार मिला। सिद्धार्थ उनकी भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के प्रति आस्था व्यक्त करने वाली महत्त्वपूर्ण कृति है। यहाँ सिद्धार्थ का संक्षिप्त रूपान्तर प्रस्तुत किया जा रहा है।

घर की छाँव में, नदी-तट के पास की नौकाओं और धूप में, जंगल की छाया और अंजीर के पेड़ के नीचे ब्राह्मण-पुत्र सिद्धार्थ बड़ा हुआ था। साथ मिला था उसे गोविन्द का। सिद्धार्थ विद्वानों की संगत में पला था और गोविन्द के साथ उसने शास्त्रार्थ करने का अभ्यास भी कर लिया था। ओउम् के उच्चारण और समाधि में भी उसने महारत हासिल कर ली थी और उसे अपने अस्तित्व की गहराई में बसी अमर आत्मा का ज्ञान भी हो चुका था।

बेटे की बुद्धिमत्ता और ज्ञान की पिपासा को देखकर पिता का मन हर्षित था। उसे विश्वास था - एक दिन बेटा जरूर बहुत बड़ा धर्माचार्य बनेगा। माँ भी हर्षित थी। नगर के बीच से जब भी सिद्धार्थ गुजर जाता तो युवा ब्राह्मण-पुत्रियों के हृदयों के तार झनझना उठते। गोविन्द को उससे सर्वाधिक प्यार था। वह जानता था, सिद्धार्थ कोई मामूली ब्राह्मण नहीं है। वह सिद्धार्थ के पीछे-पीछे चलना चाहता था। यदि कभी वह देवता बन सका, तब भी गोविन्द की इच्छा थी कि वह उसके साथी और उसकी परछाईं की तरह उसके साथ-साथ रहे लेकिन सिद्धार्थ स्वयं खुश नहीं था। समाधि लगाते समय, स्नान-पूजा करते समय, उपवन में घूमते समय वह हमेशा प्रशान्त बना रहता। नदी, और सितारों के स्वर उसे बेचैन बनाते रहते। यहाँ तक कि ऋग्वेद के श्लोक भी उसे शान्ति न दे पाते।

असन्तोष के बीज उसे अपने भीतर दिखाई देने लगे थे। उसे यह एहसास होने लगा था कि माँ-बाप, गोविन्द और सब लोगों का स्नेह भी उसे सन्तोष नहीं दे पाएगा, शान्ति उसे नहीं मिल सकेगी। उसे लगने लगा था कि उसके गुरु और उसके बुजुर्ग अपना ज्ञान उसे दे चुके हैं, किन्तु फिर भी उसका घट भरा नहीं है। उसकी आत्मा अब भी प्रशान्त है, उसका हृदय अभी भी अस्थिर है। स्नान-पूजा पापों को धो नहीं पाते, दुखी हृदय की पीड़ा को नहीं काटते। भगवान को बलि चढ़ाना और पूजा करना ही क्या सबकुछ है। और देवता! क्या आत्मा ही सर्वोच्च शक्ति नहीं है? फिर उसी को क्यों नहीं सब कुछ समर्पित किया जाता! क्या उस तक पहुँचने का भी कोई मार्ग है। कोई भी तो वह रास्ता नहीं दिखाता! विद्वान सब कुछ जानते हैं...पवित्र पुस्तकों में बहुत कुछ लिखा है, लेकिन उस सबका कोई लाभ है, जबकि वे एक ही चीज के बारे में कुछ नहीं बता पातीं। सामवेद में लिखा है-‘आपकी आत्मा सम्पूर्ण विश्व है!’ बड़े-बड़े विद्वानों और ऋषि-मुनियों ने अत्यन्त आकर्षक भाषा में अपने ज्ञान का भण्डार उसमें उँड़ेला है। उनके अनुसार मनुष्य निद्रा के समय आत्मा में विलीन हो जाता है, लेकिन ऐसे ऋषि-मुनि कहाँ हैं जो जाग्रतावस्था में भी अपने कार्य-कलापों में आत्मा का निरूपण करने में सफल हो सके हैं?

उसके पिता भी अत्यन्त पवित्र और निष्कलुष व्यक्ति हैं, लेकिन फिर भी अपने पापों को धोने के लिए उन्हें नित्यप्रति तीर्थ-व्रत करने और साधु-संन्यासियों के पास जाने की जरूरत क्यों पड़ती है? क्या आत्मा उनके भीतर नहीं है? मानव को आत्मा के स्रोत को अपने अन्तर में ही खोजना चाहिए। अन्य सबकुछ भ्रान्ति है, मार्ग-विच्युति है। यह सिद्धार्थ के विचार थे। यह उसकी पिपासा थी और था उसका सन्ताप!

एक बार सिद्धार्थ ने गोविन्द से वट-वृक्ष के नीचे चलकर समाधि का अभ्यास करने को कहा। दोनों वट-वृक्ष के नीचे पहुँचे और समाधि लगाकर बैठे। सिद्धार्थ ने एक श्लोक पढ़ा - ‘ओउम् धनुष है, आत्मा बाण है, ब्रह्म उस बाण का लक्ष्य है। जिसके लिए वह निरन्तर प्रयत्नशील रहता है।’

समाधि का समय समाप्त होने पर जब गोविन्द ने सिद्धार्थ को पुकारा, तो कोई उत्तर न मिला। लगता था, वह दूर कहीं अपने लक्ष्य पर दृष्टि गड़ाये अपने में तल्लीन है। साँस नहीं चल रही थी और उसकी आत्मा ब्रह्म में लीन थी।

एक दिन घूमते-फिरते तीन दुबले-पतले, रक्त रंजित कन्धे, धूप में झुलसे और लगभग नग्न शरीर वाले धूल-धूसरित संन्यासी सिद्धार्थ के नगर में पहुँचे। उनके चारों ओर एक विचित्र-सा सतत उत्कण्ठा और निर्दय आत्म अस्वीकृति का वातावरण फैला हुआ था।

सन्ध्या समय सिद्धार्थ ने गोविन्द से कहा, ‘मित्र, कल सुबह मैं भी संन्यासियों के साथ जा रहा हूँ। कल मैं भी संन्यास ले रहा हूँ।’

सिद्धार्थ पिता के कमरे में गया और अपने निश्चय से उन्हें अवगत करा दिया - कल सुबह मैं घर छोड़कर जा रहा हूँ। मैं संन्यास लूँगा। पिता मौन रहे।

सुबह हुई, सिद्धार्थ निद्रा में डूबे नगर को छोड़कर आगे बढ़ा। एक झोंपड़े से एक छाया निकली और उसके साथ चल दी। यह गोविन्द था।

शाम होते-होते वे संन्यासियों से जा मिले। सिद्धार्थ ने अपने वस्त्र एक गरीब ब्राह्मण को दे दिये। उसने लंगोट और भगवा वस्त्र धारण कर लिये। अब वह संन्यासी था। वह दिन में एक बार भोजन करता था। लगातार उपवास के कारण उसका शरीर शिथिल हो गया। सुखी संसारियों को देखकर उसे लगता, यह सब असत्य है। यह भ्रम है। सब कुछ नश्वर है। संसार कटु है और जीवन पीड़ा है। उसका केवल एक ही लक्ष्य था-तृष्णा, कामना, स्वप्न, हर्ष और विषाद के प्रति शून्य हो जाना। इसकी प्राप्ति के लिए वह इतनी शारीरिक पीड़ा सहता कि सीमा से निकलकर वह पीड़ा की अनुभूति नष्ट हो जाती।

उसने साँस रोकने और समाधिस्थ होने का भी अच्छा अभ्यास कर लिया। किसी भी जीवित या मृत के अन्दर अपनी आत्मा को प्रविष्ट करके उसे वापस लौटा लेने की विद्या भी उसने सीख ली। अपने स्व, अनुभूतियों और स्मरणशक्ति को समाप्त करके उसने उन्हें अनेक रूप दिये लेकिन हर बार पुनर्जागृति के बाद फिर वही पिपासा, वही तृष्णा उत्पन्न हो जाती और यह चक्र निरन्तर चलता रहता। उसे सन्तोष और शान्ति नहीं मिलती। उसे लगता, स्व को भूलने का यह काम तो एक शराबी भी कर लेता है फिर उसमें क्या विशेषता है?

एक दिन गोविन्द और सिद्धार्थ के कानों में उड़ती-उड़ती एक खबर पड़ी कि गौतम बुद्ध नाम का कोई यशस्वी व्यक्ति प्रकट हुआ है, जिसने संसार के सब दुख तथा क्लेशों पर विजय प्राप्त कर ली है और जीवन-मृत्यु के कालचक्र को स्थिर कर दिया है अर्थात् उसे निर्वाण-प्राप्ति हो गयी है। देश के कोने-कोने में घूमकर वह लोगों में ज्ञान का प्रसार-प्रचार कर रहा है। कुछ ने इस पर विश्वास प्रकट किया तो कुछ ने शंकाएँ भी कीं।

इस खबर में जादू जैसा आकर्षण था। आशा की किरण चमकी और गोविन्द तथा सिद्धार्थ ने संन्यासिनों का साथ छोड़कर गौतम बुद्ध को देखने और उनके उपदेश सुनने का निश्चय कर लिया।

खोजबीन करते हुए दोनों युवक उस नगर में जा पहुँचे, जिसके पास ही जेतवन में गौतम बुद्ध विहार कर रहे थे। जेतवन का रास्ता भी उन्हें किसी से पूछना नहीं पड़ा अनेक तीर्थयात्रियों, भिक्षुओं और बुद्ध के अनुयायियों के पीछे-पीछे वे भी जेतवन पहुँच गये।

अगली सुबह जब भिक्षा-पात्र लेकर सब भिक्षु भिक्षा लेने के लिए निकले तो गौतम बुद्ध को उनके बीच पहचानने में सिद्धार्थ को देर नहीं लगी। पीला चीवर धारण किये बुद्ध के अंग-प्रत्यंग से एक तृप्ति, शान्ति और सम्पूर्णता प्रभासित हो रही थी। कहीं कोई कृत्रिमता, कोई तृषा, कोई चाहना या उद्वेग नहीं था। उसका पोर-पोर मानो एक मूक भाषा में पूर्ण तृप्ति, ज्ञान और सत्य का अक्षय प्रकाश बिखेर रहा था।

सन्ध्या को सिद्धार्थ और गोविन्द ने बुद्ध का प्रवचन सुना। उनका स्वर बहुत ही मधुर, शान्त और स्पष्ट था। उन्होंने कहा कि विश्व दुखों का सागर है और जीवन कष्टमय है। लेकिन दुखों से मुक्ति पाने का रास्ता मिल चुका है। और तब उन्होंने मोक्ष-प्राप्ति के लिए अपने अष्टमार्ग का उदाहरण दे-देकर सरल व्याख्या प्रस्तुत की। गोविन्द तो इतना प्रभावित हुआ कि उसने तत्काल ही बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और भिक्षु बन गया, लेकिन सिद्धार्थ की जिज्ञासा अभी भी पूरी तरह शान्त नहीं हुई थी। उसे लगा कि लक्ष्य अभी बहुत दूर है।

अगली सुबह जब फिर बुद्ध भिक्षुकों के साथ भिक्षा के लिए जाने लगे, तो सिद्धार्थ ने उनसे अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए थोड़ा-सा समय माँगा। बुद्ध के स्वीकार करने पर वह बोला-ओ तेजस्वी पुरुष, कल मैंने आपका उपदेश सुना था और आपके विचारों से मैं इतना प्रभावित हुआ, जितना आज तक न कभी हुआ और न शायद हो सकूँगा। क्योंकि आपकी हर बात बिलकुल स्पष्ट और प्रामाणिक थी। आपने अखिल विश्व को एक श्रृंखला के समान बताया, जो कारण तथा परिणाम की कड़ियों से जुड़ी हुई है। निश्चय ही आपके उपदेशों के प्रकाश में प्रत्येक व्यक्ति विश्व को संश्लिष्ट रूप में देखेगा, पूर्णतः रन्ध्रहीन, और जो अवसर अथवा देवताओं पर निर्भर नहीं है। चाहे यह अच्छा है या बुरा, जीवन दुखमय है अथवा आनन्दमय, भले ही वह अनिश्चित है... और शायद है भी... पर यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। विश्व की समरूपता और तमाम घटित व्यापारों की संश्लिष्टता, एक ही धारा में छोटों और बड़ों का सम्मिलन किसी भी वस्तु का प्रारम्भ और अवसान आपके उपदेशों का मुख्य विषय है। आपके अनुसार यह समरूपता और सभी वस्तुओं के तार्किक परिणाम एक स्थिति में आकर बिखर जाते हैं और यही मुक्ति का, जीवन से ऊपर उठने का आपका सिद्धान्त है। आपने यह सब तो बताया लेकिन वह रहस्य नहीं बताया जो आपने निर्वाण-प्राप्ति के समय अनुभव किया। और सबसे बड़ी बात यह है कि आपने भी किसी मार्ग का अनुगमन करके नहीं, अपितु अपने ही प्रयासों द्वारा, चिन्तन और ज्ञान-बोध द्वारा निर्वाण प्राप्त किया। मेरे विचार से कोई भी व्यक्ति किसी के उपदेश सुनकर या किसी भी मार्ग का अनुकरण करके निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए मुझे लगता है कि स्वयं ही मुझे अपने रास्ते का निर्माण करना पड़ेगा। या तो मैं अपने लक्ष्य पर पहुँचूँगा या मर जाऊँगा।

बुद्ध अपनी शुभकामनाएँ देकर आगे बढ़ गये। उनकी दृष्टि और मुस्कान सिद्धार्थ के स्मृति-पटल पर सदैव के लिए अंकित हो गयी और उसने निश्चय किया कि वह भी बुद्ध की तरह अपने ‘स्व’ को जीतेगा और जैसे भी हो, निर्वाण प्राप्त करने की कोशिश करेगा।

गौतम बुद्ध के विहार को छोड़कर जब सिद्धार्थ चला तो उसे लगा कि जैसे कोई चीज, जो अब तक उसके साथ थी, पीछे छूट गयी है। साँप की केंचुल की तरह उससे अलग हो गयी है। उसका मस्तिष्क तरह-तरह के विचारों से भरा हुआ था। गुरु बनाने और उनके उपदेश सुनने की आकांक्षाएँ उसके भीतर से समाप्त हो गयी थीं। उसे लगा कि वह आज तक अपने आपको छलता रहा है। स्व से दूर भागता रहा है। आत्मा और ब्रह्म को पाने के लिए उसने अपने ‘स्व’ को खत्म करना चाहा था। एक अज्ञात को जानने के लिए वह अपने आप से भी दूर हो गया था, अपने को ही खो दिया था।

उसके चेहरे पर एक मुस्कान उभरी और उसे एक लम्बे स्वप्न से जाग जाने जैसी अनुभूति हुई। वह जान गया था कि अब उसे क्या करना है। अब वह यजुर्वेद, अथर्ववेद और साधु-संन्यासियों से कुछ नहीं सीखेगा, बल्कि सब कुछ अपने भीतर से जानेगा। खुद अपना शिष्य बनेगा और अपने स्व का रहस्य जानने की कोशिश करेगा।

यकायक उसे लगा कि आज पहली बार वह संसार को देख रहा है। एक सुन्दर अजीब और रहस्यमय संसार उसके चारों ओर फैला हुआ था। रंग बिखरे हुए थे। आकाश और नदी, जंगल और पहाड़, सारी प्रकृति अपने पूर्ण सौन्दर्य के साथ विद्यमान थी। सिद्धार्थ की आँखों से माया का पर्दा उठ गया। उसे महसूस हुआ कि अर्थ और यथार्थ किसी वस्तु के पीछे छिपे हुए नहीं, वरन् उसमें सन्निहित होते हैं। वह आज तक प्रत्यक्ष संसार को भ्रम समझता था, लेकिन अब सबकुछ समाप्त हो चुका है। जागृति आ चुकी है, मानो आज उसका नया जन्म हुआ है।

इस प्रकाश के आते ही उसके मन में एक और विचार आया कि अब वह घर लौट जाए, लेकिन क्या वह फिर अपने पिता के साथ तीर्थ-व्रत, चिन्तन-मनन और बलिदान में सहयोगी हो सकेगा? नहीं, वह सब नहीं हो सकेगा। उसे एक एकाकीपन ने घेर लिया। निराशा की अनुभूति ने उसे दबोच लिया, पर उसने शीघ्र ही अपने को नियन्त्रित कर लिया। अब वह पहले से अधिक दृढ़, और जाग्रत था और वह आगे बढ़ चला कभी पीछे मुड़कर न देखने के लिए।

सिद्धार्थ के लिए अब संसार बदल चुका था और वह उसकी ओर आकर्षित हो चुका था। हर कदम पर उसे अब कुछ नया सीखने को मिलता। चाँद-सितारे, पेड़, नदी-झरने, बादल और इन्द्रधनुष, पक्षियों का कलरव और हवा की साँय-साँय अब उसे भ्रम नहीं दिखता था, क्योंकि उसकी आँखों से भ्रम का पर्दा उठ चुका था, वह प्रत्यक्ष को पहचानने लगा था और संसार में अपनी जगह चाहता था। बाल सुलभ भोलेपन के साथ वह सभी चीजों को देखता और उनमें रस लेता था। उसने निश्चय किया कि अब वह सदैव अपनी अन्तरात्मा के अनुसार ही कार्य करेगा और इधर-उधर नहीं भटकेगा।

रात होने पर जब वह एक मल्लाह की झोंपड़ी में सोया तो उसने एक स्वप्न देखा। देखा कि सामने गोविन्द खड़ा है। सिद्धार्थ ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और छाती से लगाकर उसका चुम्बन लिया। चुम्बन लेते ही गोविन्द न रहकर वह एक स्त्री में बदल गया। सिद्धार्थ उसके पास लेट गया और उसने जीभरकर उसके सुडौल स्तनों का पान किया। उसमें स्त्री, पुरुष, सूर्य, जंगल, पशु-पक्षी, फल और फूल तथा सभी सुखों का स्वाद था।

अगली सुबह मल्लाह ने उसे नदी पार पहुँचा दिया। चलते-चलते दोपहर तक वह एक गाँव में जा पहुँचा। उसने देखा कि नदी किनारे बैठी एक युवती कपड़े धो रही है। सिद्धार्थ ने उससे महानगर जानेवाले रास्ते के बारे में पूछा तो उठकर वह उसके पास आ गयी। उसकी आँखों में एक अनोखी चमक थी और उसके आकर्षक होठों पर मुस्कान थिरक रही थी। उसने सिद्धार्थ से पूछा कि क्या यह सच है कि संन्यासी रात को जंगल में अकेले सोते हैं और उन्हें स्त्री का संग करना निषिद्ध है? इसके साथ ही उसने अपने हाव-भाव से मानो सिद्धार्थ को प्यार का निमन्त्रण दिया। सिद्धार्थ के भीतर कुछ कसमसाने लगा। रक्त में आवेश का अनुभव हुआ और उसे रातवाला सपना याद आ गया। वह थोड़ा-सा आगे झुका और उसने स्त्री के उरोजों पर चुम्बन अंकित कर दिया। स्त्री का कामोद्दीप्त चेहरा देखकर सिद्धार्थ के मन की इच्छा जोर पकड़ने लगी। आज तक उसने कभी स्त्री का स्पर्श तक नहीं किया था। एक क्षण के लिए उसे संकोच हुआ लेकिन फिर उसके हाथ स्त्री के आलिंगन के लिए आगे बढ़ गये; पर तभी उसकी अन्तरात्मा से आवाज आयी - ‘नहीं’। तत्काल ही युवती के चेहरे का जादू अदृश्य हो गया। शेष रह गयी केवल एक कामोत्तेजक युवती की उत्तप्त दृष्टि। सिद्धार्थ ने उसके गाल धीरे से थपथपाये और आगे बढ़ गया।

सन्ध्या से पहले ही वह एक महानगर में पहुँच गया। उसने देखा कि अपने दास-दासियों से घिरी एक बहुत ही सुन्दर युवती सोलह शृंगार किये पालकी में बैठी हुई जा रही है। वह उसे अपलक देखता रह गया। भीतर ही भीतर एक इच्छा फिर बलवती हो उठी, पर फिर सोचा कि इस वेश में उसे कौन अपने पास फटकने देगा। उसने राह चलते एक व्यक्ति से उस महिला के सम्बन्ध में पूछताछ की तो पता चला कि वह नगर की सुप्रसिद्ध गणिका कमला है और उपवन के समीप ही उसका अपना विशाल भवन है।

अगले दिन सुबह होते ही उसने अपनी दाढ़ी कटवा ली। नदी में स्नान कर बालों में सुगन्धित तेल डाला और उसी उपवन के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। जब कमला फिर पालकी में बैठकर अपने दास-दासियों के साथ वाटिका में आयी, तो वह भी उसके पीछे लग लिया और एक नौकर के द्वारा कमला से मिलने की इच्छा प्रकट की। कमला की अनुमति से जब वह उसके पास पहुँचाया गया तो वह बोला - बहुत समय पहले संन्यासी बनने के लिए मैंने घर छोड़ दिया था। अब मैं उस पन्थ को भी छोड़ चुका हूँ। आपके नगर में आने पर सबसे पहले मैंने आपको ही देखा था और आप ही मेरे जीवन में वह पहली महिला हैं जिससे मैंने बिना नीची नजर किये बात की है।

मैं आपसे वह कला सीखना चाहता हूँ, जिसकी आप स्वामिनी हैं। आप

कृपा करके मेरी मित्र और गुरु बन जाएँ और मुझे प्यार का पाठ पढ़ाएँ। सिद्धार्थ ने कहा।

“सचमुच यह एक नया अनुभव है”, कमला ने हँसकर कहा - “जब कि जंगल से कोई संन्यासी मुझे गुरु बनाने के लिए यहाँ आया हो। यों तो अनेक ब्राह्मण-पुत्र भी मेरे पास आते हैं, लेकिन वे ऐसे फटेहाल नहीं होते। तुम्हारे जैसे संन्यासियों की यह जगह नहीं है। यह जगह है बड़े-बड़े धनी और राजकुमारों की, जिनकी जेबें हमेशा नोटों से भरी रहती हैं। जो मूल्यवान वस्त्र धारण किये रहते हैं और सुगन्धित इत्रों से महकते रहते हैं। कमला को पाने के लिए इन सब चीजों की आवश्यकता है। यदि कभी तुम इन्हें पा सको तो मेरे पास आ सकते हो।”

“आप ठीक कहती हैं,” सिद्धार्थ ने कहा, “मैं निश्चय ही दुबारा आपके पास आऊँगा, लेकिन आप मुझे यह भी बताएँ कि कैसे मैं धन प्राप्त करूँ?”

“गरीब आदमी कभी धन नहीं कमा सकते। तुम यह बताओ कि तुम्हें कुछ आता-जाता भी है?” कमला ने पूछा।

“हाँ, मैं सोच सकता हूँ, प्रतीक्षा कर सकता हूँ, उपवास कर सकता हूँ और कविता बना सकता हूँ।” सिद्धार्थ बोला।

“लेकिन आज के जमाने में इन चीजों से धन नहीं मिलता। धन कमाने के लिए कुछ और गुण होने चाहिए... यदि तुम पढ़ना-लिखना भी जानते होते...” कमला ने कहा।

“हाँ, मैं पढ़-लिख भी सकता हूँ।” सिद्धार्थ बोला।

“तब ठीक है,” कमला ने कहा, “तुम नगर के सबसे बड़े व्यापारी कामास्वामी के पास जाओ। वह तुम्हें काम देगा। लेकिन याद रखना, कभी उसके नौकर की तरह मत रहना। उससे बराबर का व्यवहार करना। यदि तुम अपने व्यवहार से उसे खुश कर सके तो तुम बहुत आगे बढ़ सकोगे।”

अगले दिन सिद्धार्थ कामास्वामी से मिला और उनके यहाँ नौकरी करने लगा। उसे काफी पैसे मिलने लगे। अब वह नियमित रूप से हर सन्ध्या को कमला के पास जाने लगा। अब उसके पास भी धन था। बेशकीमती कपड़े थे और कमला को देने के लिए अनेक उपहार की वस्तुएँ थीं। उनकी मित्रता दिन पर दिन बढ़ रही थी। सिद्धार्थ का नौकरी करने का ध्येय भी यही था। कमला उसे प्यार का सबक सिखा रही थी। और इस मामले में वह अभी तक निरा बच्चा ही था, कोरा घड़ा। कमला की आँखें, उसके होठ, हाथों के सहलाने से वह बहुत कुछ सीख चुका था। उस सुन्दरी गणिका के पास बीतनेवाला उसका समय अनमोल था और वह उसका शिष्य, उसका मित्र और उसका प्रेमी बन चुका था।

एक बार कमला से उसने कहा, “तुम ठीक मेरे जैसी हो। केवल कमला। दूसरों से बिलकुल भिन्न। अधिकतर लोग गिरते हुए पत्तों की भाँति होते हैं जो इत्र के झोंके से इधर-उधर, ऊपर-नीचे हिचकोले खाते हैं और फिर जमीन पर आ गिरते हैं। लेकिन कुछ लोग सितारों की तरह चमकदार भी होते हैं, जो अपने नियत मार्ग पर चलते हैं और उनका मार्गदर्शक उनके अपने ही भीतर होता है। ऐसे ही एक व्यक्ति को मैं जानता हूँ। वह हैं गौतमबुद्ध। हजारों मनुष्य रोज उनका उपदेश सुनते हैं और उनके अनुयायी बन जाते हैं, लेकिन वे सब गिरते हुए पत्तों की तरह हैं, क्योंकि उनके अपने भीतर अपनी कोई बुद्धि, कोई चेतना नहीं है।”

कमला मुस्करायी और बोली, “तुम फिर साधु-संन्यासियों जैसी बातें कर रहे हो सिद्धार्थ। कभी-कभी मुझे भय लगता है तुम मेरे सबसे अच्छे प्रेमी हो और इस कला की हर चीज तुम सीख चुके हो, लेकिन कभी मैं बूढ़ी हो जाऊँगी और तुम्हारे बच्चे की माँ हूँगी, लेकिन मुझे लगता है कि तुम तब भी संन्यासी ही रहोगे। तुम मुझे सच्चा प्रेम नहीं करते, शायद तुम कर भी नहीं सकते। क्या यह सच नहीं है?”

“हो सकता है,” सिद्धार्थ ने कहा, “लेकिन तुम भी मेरी तरह ही हो। अन्यथा तुम प्रणय-व्यापार को कला न मानतीं। हम जैसे लोग शायद प्यार कर ही नहीं सकते। हममें और दूसरे लोगों में बस यही अन्तर है।”

कुछ समय तक सिद्धार्थ दुनिया में रहते हुए भी उससे अलग-थलग रहा लेकिन धीरे-धीरे उसकी अन्तरात्मा की आवाज पर धूल की परतें जमती गयीं और उसका स्वर कुम्हार के पहिये की तरह धीमा पड़ते-पड़ते बिलकुल शान्त हो गया। अब सिद्धार्थ का जीवन एक धनी व्यक्ति जैसा हो गया, वही ठाठ, वही रौब-दाब, और वही शान-शौकत। व्यापार को अब वह व्यापार की तरह ही देखने लगा। हानि होने पर उसे भी अफसोस की अनुभूति होने लगी। अपनी शक्ति और सामर्थ्य का भी उसे अभिमान हो गया। वह औरतों से दिल बहलाना सीख गया। नृत्य देखने, शराब पीने और जुआ खेलने लगा। धीरे-धीरे उसका जीवन एक आम खानदानी रईस की तरह बन गया। जहाँ उसकी आत्मा अब एक भारीपन, एक थकान महसूस करती वहाँ उसकी सांसारिक अनुभूतियाँ बल पकड़ती गयीं, एक साधारण मनुष्य की तरह ही जीवन-यापन करते भी उसे लोगों से ईर्ष्या होती क्योंकि उसे लगता कि एक दिन उसने एक अजीब-सा सपना देखा। कमला ने एक सुनहरे पिंजरे में एक बुलबुल पाल रखी थी। सपने में उसने देखा कि बुलबुल पिंजरे में मरी पड़ी है। वह उसके पास गयी और उसने उसे पिंजरे से निकालकर सड़क पर फेंक दिया। तभी उसे ऐसा अनुभव हुआ कि उस मृत बुलबुल के साथ-साथ उसने अपनी सारी अच्छाइयों और जीवन-मूल्यों को भी फेंक दिया है। और अचानक वह जाग गया।

अगले दिन जब वह जागा, तो वह बहुत उदास था। उसके अन्तर में एक आतंक और मृत्यु का भय समा गया। वह अपने पिछले जीवन पर विचार करने लगा। बचपन में और बाद में भी खुशी के अनेक क्षण ऐसे आये जब उसे लगता कि उसके सामने एक निश्चित और पावन मार्ग है, जिस पर उसे चलना है। देवता उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उसके जीवन का एक विशिष्ट लक्ष्य था, लेकिन अब उसे क्या मिला। अस्थायी और क्षणिक सुख उसे अवश्य मिले लेकिन तृप्ति का अनुभव उसे कभी नहीं हुआ। अन्य लोगों की तरह बनने की उसकी कोशिश व्यर्थ थी, क्योंकि उनके ध्येय उसके ध्येय से सर्वथा भिन्न थे और उनके दुख सिद्धार्थ के दुख से अलग।

सिद्धार्थ को लगा कि यह तो एक खेल था, जो अब आगे नहीं चल सकता। उसके हृदय में एक कम्पन-सा हुआ। उसे लगा कि जैसे भीतर-ही-भीतर कुछ मर गया है। उसने घर-बार छोड़ा, गोविन्द को छोड़ दिया फिर गौतम बुद्ध को छोड़ा तो क्या एक कामास्वामी बनने के लिए!

बैठे-बैठे और यही सबकुछ सोचते-सोचते रात हो गयी। तारे झिलमिलाने लगे और तभी एक निर्णय लेकर वह उठ खड़ा हुआ और अपना घर, उपवन, अपना शहर, सभी कुछ छोड़कर कभी न लौटने के लिए वहाँ से चला गया।

कमला को उसके इस प्रकार अदृश्य हो जाने पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि उसे पहले से ही ऐसी उम्मीद थी। हाँ, उस दिन के बाद उसने अपने घर में किसी भी मेहमान का स्वागत नहीं किया और कुछ ही दिन बाद उसे मालूम हुआ कि सिद्धार्थ के उसके अन्तिम मिलन की निशानी उसके गर्भ में है और यही उसकी एकमात्र अभिलाषा थी।

सिद्धार्थ ने सोचा, अब मैं उसी मल्लाह के पास जाऊँगा जिसने मुझे नदी के पार पहुँचाया था। उसकी झोंपड़ी से निकलने के बाद ही मैंने एक नयी जिन्दगी में कदम रखा था। वह जीवन अब समाप्त हो गया है और अब जीवन का नया अध्याय भी मुझे उसी की झोंपड़ी से शुरू करना चाहिए। उसकी अन्तरात्मा में एक आवाज सुनाई दी-इस नदी को प्यार करो, यहीं रहो और उससे कुछ सीखो। तभी उसे लगा कि उसने नदी का एक रहस्य जान लिया है-नदी का पानी निरन्तर बहता रहता है, फिर भी वह वहीं होता है। और वहीं होते हुए भी हर पल नया होता है। कौन इसे समझ सकता है।

किनारे पर ही नौका और वही मल्लाह, जिसने उसे बीस वर्ष पहले संन्यासी के रूप में पार उतारा था, मौजूद था। उसने मल्लाह से कहा, “तुमने अपने लिए कितनी शानदार जिन्दगी चुनी है। इस नदी के पास रहना और रोज इसके ऊपर नौका खेना कितना आनन्ददायक है?”

“आप ठीक कहते हैं,” मल्लाह बोला, “लेकिन क्या हर जिन्दगी और हर काम अच्छा नहीं होता?”

“हो सकता है, लेकिन मुझे तुम्हारे कार्य से ईर्ष्या होती है।” सिद्धार्थ ने कहा, “तुम मेरे ये मूल्यवान वस्त्र ले लो और मुझे कोई पुराने कपड़े दे दो। मुझे अब यहीं रहना है। यदि तुम मुझे अपने सहायक की तरह रख लो और नाव चलाना सिखा दो, तो मुझे बड़ी खुशी होगी।”

मल्लाह ने उसे पहचान लिया और बोला, “सिद्धार्थ, आओ तुम मेरे मेहमान बनो और मुझे बताओ कि तुम इन बेशकीमती कपड़ों से क्यों ऊब गये हो?”

कुटिया में पहुँचकर मल्लाह ने उसे भोजन कराया। सिद्धार्थ ने अपनी पूरी कहानी सुनायी। मल्लाह पूरे ध्यान से रुचि लेकर सुनता रहा। अन्त में सिद्धार्थ ने कहा, “तुमने बहुत ध्यान से सबकुछ सुना। इतने धैर्य से और रुचि लेकर सुननेवाला मैंने अभी तक और कोई दूसरा नहीं देखा। इस सम्बन्ध में मैं तुमसे कुछ सीखूँगा।”

“सिद्धार्थ, मुझसे नहीं, यह नदी ही तुम्हें सबकुछ सिखा देगी,” मल्लाह ने कहा, और इतना तो तुम सीख ही चुके हो कि व्यक्ति में नीचे की ओर जाने, डूबने और गहराई तक पहुँचने की उत्कण्ठा होनी चाहिए। यही कारण है कि अब एक प्रतिष्ठित धनी और ज्ञानी सिद्धार्थ एक मल्लाह बनेगा।”

सिद्धार्थ वहीं रहकर नौका चलाना सीखने लगा। जल्दी ही उसने सब कुछ सीख लिया। नदी से भी उसने बहुत कुछ सीखा। उसने जाना कि समय जैसी कोई चीज नहीं। नदी का पानी एक ही समय में उसके उद्गम, बीच धारा, झरने और समुद्र-सभी जगह रहता है। उसके लिए वर्तमान ही महत्त्वपूर्ण है। भूत या भविष्य की छाया उस पर नहीं पड़ती।

धीरे-धीरे सिद्धार्थ भी एक कुशल मल्लाह बन गया। लोग उन्हें भाई-भाई समझते थे। दोनों नदी को प्यार करते थे। उसकी आवाज सुनते और घण्टों बैठे विचार और बहस करते थे। अक्सर यात्री उनकी बातों से प्रभावित होकर उनके संसर्ग में रहना चाहते थे, इसलिए कोई उन्हें जादूगर बताता था तो कोई महात्मा।

इसी तरह वर्ष पर वर्ष बीतते चले गये। एक दिन बुद्ध के कुछ अनुयायी भिक्षु वहाँ आये और उनसे नदी पार उतारने के लिए कहा। उन्होंने बताया कि बुद्ध बहुत बीमार हैं और शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। एक के बाद एक भिक्षुओं की टोली आती गयी। लगता था जैसे बुद्ध के अन्तिम दर्शन करने के लिए जनसमुद्र उमड़ पड़ा है।

सिद्धार्थ को भी गौतमबुद्ध से अपनी भेंट याद आयी और अपने वे दम्भी शब्द भी। उसे लगा कि भले ही वह बुद्ध की शिक्षाओं को ग्रहण नहीं कर सका, फिर भी वह कहीं-न-कहीं उनसे जुड़ा हुआ है।

एक दिन अपने जमाने की सबसे सुन्दर गणिका कमला भी अपने पुत्र के साथ साधारण वेशभूषा में बुद्ध के दर्शन के लिए नदी पार जाने के लिए आयी। वह कभी की अपनी पुरानी जिन्दगी को छोड़ चुकी थी और उसने अपना उपवन भिक्षुओं को दान कर दिया था। उसका पुत्र अब तक थक चुका था, और भूखा भी था, इसलिए वह घर लौटना चाहता था। कमला कभी उसे दिलासा देती तो कभी डाँटती। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यदि कोई अनजान महात्मा मरने वाला है तो उसे देखने जाने की क्या तुक है! कमला खुद भी काफी थकी हुई थी। वह जमीन पर बैठकर सुस्ताने और ऊँघने लगी। तभी एक जोर की चीख उसके मुख से निकली। उसके बेटे ने देखा कि एक काला साँप उसके कपड़ों से निकलकर चला जा रहा है।

बच्चे की पुकार सुनकर मल्लाह उसकी सहायता के लिए दौड़ा और उन्हें अपनी कुटिया में ले आया। वहाँ सिद्धार्थ आग जला रहा था। कमला को देखते ही वह पहचान गया और अपने पुत्र को भी। कमला के घाव को धोया गया पर शरीर जहर के कारण नीला पड़ गया था। मृत्युशैया पर पड़ी कमला की आँख कुछ क्षणों के लिए खुली तो उसने सिद्धार्थ को वहाँ देखकर कहा, “सिद्धार्थ तुम तो अब बूढ़े से हो गये हो, फिर भी तुम मुझे ऐसे लग रहे हो जैसे युवावस्था में पहली बार तुम मुझसे उपवन में मिले थे। बताओ, क्या तुम्हें शान्ति मिली?”

सिद्धार्थ ने मुस्कराकर अपना हाथ उसके हाथ पर रखा तो वह बोली, “हाँ, मैं देख रही हूँ... और अब मुझे भी शान्ति मिल जाएगी।” इतना कहकर उसने शान्ति के साथ आँखें मूँद लीं।

माँ के बिछोह में रोते-बिलखते बालक को सिद्धार्थ ने हर तरह से यह समझाना चाहा कि वह उसका पिता है, लेकिन ठाट-बाट से रहने वाला, बिगड़े स्वभाव का वह हठी बालक एक गरीब मल्लाह को कैसे प्यार कर सकता था! उसने तो आज तक हुक्म ही चलाया था। बढ़िया से बढ़िया खाया, अच्छे से अच्छा पहना, आलीशान भवन में पला, वह इस वातावरण को कैसे अपना पाता। बहुत ही जिद्दी और अभिमानी बालक था वह। सिद्धार्थ जितना ही उसकी बेहूदगियों और बदतमीजी का जवाब प्यार से देता, वह उतना ही झल्ला पड़ता।

एक दिन मल्लाह ने सिद्धार्थ को समझाया, “देखो सिद्धार्थ, मैं जानता हूँ, तुम अपने बेटे को अपने से अलग नहीं करना चाहते, लेकिन यह तो सोचो कि वह इस वातावरण के अनुरूप अपने को कैसे ढाल सकेगा? उसे अपने हमजोलियों की, सांसारिक सुखों की जरूरत है, वह तुम उसे नहीं दे सकते, उसे शहर जाने दो और किसी स्कूल में भेज दो।”

सिद्धार्थ ने धीमे से उत्तर दिया, “मैं उसे कैसे अपने से अलग कर दूँ...! मैं उसके हृदय तक पहुँचने का प्रयत्न कर रहा हूँ। सम्भवतः अपनी सहनशक्ति से मैं उसे जीत सकूँ! यह नदी कभी उससे भी तो कुछ कहेगी, ऐसा मुझे विश्वास है। मैं उसे सांसारिक कष्ट और दुखों से, बुराइयों से दूर रखना चाहता हूँ।”

“लेकिन सिद्धार्थ, तुम यह तो बताओ कि तुम्हें सांसारिक दुष्कर्मों से, लोभ से और अज्ञानता से किसने बचाया था! क्या तुम्हारे पिता और तुम्हारे गुरु उनसे तुम्हारी रक्षा कर सके? सिद्धार्थ, उसे जाने दो, तुम भी उसकी नियति को लेशमात्र भी बदल नहीं सकते।” मल्लाह ने कहा।

सिद्धार्थ को लगता था कि उसने आज तक हृदय से शायद किसी को प्यार नहीं किया है। और यह लड़का ही वह पहला व्यक्ति है, जिसे वह हृदय से प्यार कर सका था, बिलकुल सांसारिक लोगों की तरह। लेकिन उसका पुत्र उसकी सहनशीलता, नम्रता और विनम्रता से और भी चिढ़ उठता। अगर सिद्धार्थ उसे सजा दे सकता, तो शायद वह उसे पसन्द करता।

एक दिन उसने साफ-साफ कह भी दिया, “मैं तुम्हारा नौकर नहीं हूँ कि जो तुम चाहो, वही करूँ, मैं तुम्हारे जैसा कदापि नहीं बनना चाहता। मुझे इन सबसे घृणा है। तुम्हारे जैसा बनने से अच्छा तो मैं चोर-डाकू और हत्यारा बनना पसन्द करूँगा।” उस दिन वह शाम तक घर से गायब रहा।

और एक दिन प्रातः वह लड़का कुछ रुपये चुराकर और उनकी नौका लेकर भाग गया।

सिद्धार्थ का मन बहुत दुखी था कि ग्यारह-बारह वर्ष का बालक कहाँ जंगल में अकेला जाएगा। कहाँ भटकेगा! मल्लाह ने उसे समझाया, “तुम चिन्ता न करो सिद्धार्थ, वह नगर में खुद ही पहुँच जाएगा। जिस कार्य की तुम उपेक्षा कर रहे थे, वह उसने स्वयं कर लिया। अब उसे अपने रास्ते जाने दो।”

लेकिन सिद्धार्थ को इन शब्दों से धैर्य न बँधाया जा सका। वह उसे खोजना चाहता था। अतएव दोनों ने एक बेड़ा बनाकर नदी पार की। किनारे पर पहुँच सिद्धार्थ मल्लाह से विदा लेकर बेटे की खोज में आगे बढ़ गया।

चलते-चलते वह नगर में कमला के उपवन के पास जा पहुँचा। अन्दर कई भिक्षु इधर-उधर घूम रहे थे। वहीं खड़े-खड़े वह बीती स्मृतियों में खो गया। उसे कमला के साथ अपनी प्रथम भेंट और अपना प्रणय याद हो गया। उदास-सा, रीता-सा वह वहीं बैठ गया। उसे लगा, अन्दर कुछ भर रहा है, जैसे कोई खुशी, कोई लक्ष्य उसके सामने न रह गया हो। उसे पता भी न चला कि कब एक भिक्षु आकर उसके सामने दो केले रख गया। होश उसे तब आया जब मल्लाह ने उसके कन्धे पर हाथ रखकर हिलाया। सिद्धार्थ चुपचाप उठा और उसके साथ हो लिया।

बहुत समय तक घाव रिसता रहा। उसे सन्तान के साथ किसी भी माता-पिता को देखकर एक ईर्ष्या-सी अनुभव होती - यह खुशी उसके भाग्य में क्यों नहीं? और तो और पापी और दुष्कर्मी लोगों को भी सन्तान हैं। कितना साधारण व्यक्ति की तरह हो गया था वह। लोगों के प्रति उसका दृष्टिकोण भी बदल चुका था। अब उसे वे सब अपने भाई प्रतीत होते। उसे उनसे प्यार-सा हो गया था। उनके प्रयोजनों में, उनकी आकांक्षाओं में उसे एक जीवन, एक चेतना, एक अनश्वर ब्रह्म के दर्शन होते।

एक दिन उसे एक चेहरा याद आया - वह था उसके अपने पिता का। उसके पिता ने भी तो उसके लिए ऐसी पीड़ा, ऐसे मानसिक क्लेश का अनुभव किया होगा, लेकिन तब भी वह घर छोड़कर चला आया। शायद यह चक्र निरन्तर चलता रहता है।

एक दिन जब वे नदी-किनारे बैठे थे। उसने अपना दुख मल्लाह से कह सुनाया। दत्तचित्त होकर मल्लाह सुनता रहा, फिर बोला, “सिद्धार्थ, तुम नदी के स्वर को ध्यान से सुनो। देखो वह क्या कह रही है?” एकाग्रचित्त होकर, केवल अपने में तल्लीन होकर सिद्धार्थ ने सुना तो उसे वह एक शब्द सुनाई दिया - ‘ओउम्’।

उसे सुनकर सिद्धार्थ को अपना घाव भरता-सा लगा। उसकी पीड़ा तिरोहित हो गयी और उसी घड़ी से सिद्धार्थ ने अपने भाग्य से लड़ना छोड़ दिया। उसके चेहरे पर निर्वाण-प्राप्ति की-सी एक गरिमा, शान्ति और प्रकाश आभासित हो गया। उसे देख मल्लाह ने कहा-सिद्धार्थ, बस, मुझे इसी घड़ी की प्रतीक्षा थी। वह समय अब आ पहुँचा। अब अलविदा! और वह सिद्धार्थ को वहीं छोड़ जंगल में विलीन हो गया।

कमला द्वारा बौद्ध भिक्षुओं को दान किये गये उपवन में गोविन्द आराम का जीवन बिता रहा था। एक दिन उसने सुना कि नदी किनारे एक मल्लाह रहता है, जिसे लोग महात्मा बताते हैं। बौद्ध भिक्षु होते हुए भी उसके भीतर एक बेचैनी शेष थी। लगता था कि उसकी तलाश अभी तक अधूरी है।

एक दिन वह नदी किनारे गया और सिद्धार्थ से मिला। उसने पूछा, “ओ बूढ़े नाविक, मैंने तुम्हारे बारे में बहुत-कुछ सुना है। तुम यात्रियों और भिक्षुओं पर काफी कृपालु हो। क्या तुम भी सही मार्ग की खोज में हो?”

उत्तर में सिद्धार्थ ने पूछा, “ओ भिक्षु, तुम तो काफी बूढ़े हो चुके हो। क्या अभी भी तुम्हारी तलाश जारी है?”

“हाँ, बूढ़ा तो हो गया हूँ, लेकिन मेरे प्रयत्न हमेशा चलते रहेंगे, शायद यही मेरी नियति है।” गोविन्द ने कहा।

“तुम बहुत ज्यादा खोज रहे हो”, सिद्धार्थ बोला, “इसलिए तुम कुछ नहीं पा सकते। क्योंकि तुम्हारा एक ही लक्ष्य है। तुम्हारा ध्यान केवल लक्ष्य पर लगा रहता है। यहाँ तक कि आसपास की, सामने की चीजों पर भी तुम्हारी नजर नहीं जाती।”

भिक्षु ने आश्चर्य से उसे देखा, “अरे, तुम सिद्धार्थ हो!” सिद्धार्थ को पहचान कर गोविन्द बहुत खुश हुआ और रात को उसकी झोंपड़ी में ही उसका मेहमान बन कर रहा।

अगले दिन जब चलने का समय होने लगा, तो मन में घुमड़ते प्रश्नों को गोविन्द छिपा न सका। कुछ संकोच से बोला - “सिद्धार्थ, जाने से पहले एक प्रश्न करना चाहता हूँ। क्या तुम्हें ज्ञान मिला?”

सिद्धार्थ मुस्कराया और बोला, “मित्र, तुम जानते हो कि यौवनकाल से ही मुझे सिद्धान्तों पर कभी विश्वास नहीं रहा। यद्यपि मेरे जीवन में बहुत से गुरु आये। उनमें एक सुन्दर गणिका भी थी। लेकिन मैंने अधिकांश इस नदी और वासुदेव नामक मल्लाह से ही सीखा है। वह बहुत ही पवित्र व्यक्ति था।”

“सिद्धार्थ, भले ही तुम्हारा कोई सिद्धान्त न हो, लेकिन क्या तुम्हारे अपने कुछ विचार भी नहीं हैं?” गोविन्द ने पूछा।

“हाँ, समय-समय पर मुझे ज्ञान मिला है लेकिन ज्ञान प्रेषणीय नहीं, अर्थात्, उसे किसी दूसरे तक नहीं पहुँचा सकते। विद्या प्रेषित की जा सकती है, पर ज्ञान नहीं। उसे प्राप्त कर सकते हैं, भोग सकते हैं, उससे अद्भुत कार्य भी किये जा सकते हैं, लेकिन उसे किसी को सिखा नहीं सकते।” सिद्धार्थ ने कहा। थोड़ी देर रुककर वह फिर बोला, “मेरा एक विचार और है गोविन्द। संसार और निर्वाण दो अलग चीजें हैं। यह भ्रम हमें इसलिए होता है क्योंकि हम समझते हैं कि समय एक सत्य पीड़ा है। मैंने शरीर और आत्मा से यह सीखा है कि मुझे दुष्कर्म करने चाहिए, भोग-विलास करना चाहिए, भौतिक सुख-दुखों की चाह करनी चाहिए। उनका विरोध करने के लिए नहीं, बल्कि संसार को प्यार करना सीखने के लिए। मैं एक पत्थर से, पेड़-पौधों से और नदी-नालों से प्रेम कर सकता हूँ, लेकिन मनुष्य के शब्दों से प्रेम नहीं कर सकता। इसीलिए मुझे कभी उपदेशों पर विश्वास नहीं हुआ।”

चलने से पहले गोविन्द ने कहा, “मित्र, तुम्हारे विचारों को शायद मैं एकदम आत्मसात न कर सकूँ, फिर भी मैं तुम्हारा आभारी हूँ। मुझे लगता है, तुम्हें शान्ति मिल गयी है, लेकिन मैं अभी तक उसे प्राप्त नहीं कर सका हूँ। मेरा मार्ग काफी कठिन और अन्धकारमय रहा है। कुछ मुझे भी ऐसा बताओ, जो मेरे मार्ग में सहायक हो सके!”

सिद्धार्थ ने उसे पास बुलाकर अपने माथे का चुम्बन लेने को कहा। गोविन्द ने झुककर उसके माथे से अपने होठ छुआये। लेकिन यह क्या! कुछ विचित्र-सा घटित हुआ। सिद्धार्थ का चेहरा अदृश्य हो गया और उसके स्थान पर लाखों-करोड़ों चेहरे प्रकट हो उठे। वे आते और चले जाते, फिर भी लगता, सब वहीं हैं। एक ही समय में निरन्तर परिवर्तित होते हुए भी वे सब सिद्धार्थ ही दीख रहे थे।

प्रफुल्लचित्त, ठगा हुआ-सा गोविन्द वहाँ खड़ा हुआ देखता रहा। उसे समय का भी आभास नहीं रहा, न यही एहसास रहा कि वहाँ सिद्धार्थ है, गोविन्द है या अन्य पीड़ित लोग मौजूद हैं। ठीक गौतम बुद्ध जैसी सहज, शान्त, व्यंग्यपूर्ण मुस्कान सिद्धार्थ के होठों पर थिरक रही थी, जिस मुस्कान को गोविन्द ने जीवन भर महत्त्व दिया था, प्यार किया था।