सत्य हरिश्चन्द्र
भारतेंदु हरिश्चंद्र
तीसरा अंक
काशी में विक्रय
स्थान वाराणसी का बाहरी प्रान्त तालाब।
(पाप1 आता है)
पाप : (इधर उधर दौड़ता और हांफता हुआ) मरे रे मरे, जले रे जले, कहां जायं, सारी पृथ्वी तो हरिश्चन्द्र के पुन्य से ऐसी पवित्र हो रही है कि कहीं हम ठहर ही नहीं सकते। सुना है कि राजा हरिश्चन्द्र काशी गए हैं क्योंकि दक्षिणा के वास्ते विश्वामित्र ने कहा कि सारी पृथ्वी तो हमको तुमने दान दे दी है, इससे पृथ्वी में जितना धन है सब हमारा हो चुका और तुम पृथ्वी में कहीं भी अपने को बेचकर हमसे उरिन नहीं हो सकते। यह बात जब हरिश्चन्द्र ने सुनी तो बहुत ही घबड़ाए और सोच विचार कर कहा कि बहुत अच्छा महाराज हम काशी में अपना शरीर बेचेंगे क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि काशी पृथ्वी के बाहर शिव के त्रिशूल पर है। यह सुनकर हम भी दौड़े कि चलो हम भी काशी चलें क्योंकि जहाँ हरिश्चन्द्र का राज्य न होगा वहाँ हमारे प्राण बचेंगे, सो यहाँ और भी उत्पात हो रहा है। जहाँ देखो वहाँ स्नान, पूजा, जप, पाठ, दान, धर्म, होम इत्यादि में लोग ऐसे लगे रहते हैं कि हमारी मानो जड़ ही खोद डालेंगे। रात दिन शंख घंटा की घनघोर के साथ वेद की धूनि मानो ललकार के हमारे शत्रा धम्र्म की जय मनाती है और हमारे ताप से कैसा भी मनुष्य क्यों न तपा हो भगवती भागीरथी के जलकण मिले वायु से उस का हृदय एक साथ शीतल हो जाता है। इसके उपरान्त शि शि शि........ ध्वनि अलग मारे डालती है। हाय कहाँ जायं क्या करें। हमारी तो संसार से मानो जड़ ही कट जाती है, भला और जगह तो कुछ हमारी चलती भी है पर यहाँ तो मानो हमारा राज ही नहीं, कैसा भी बड़ा पापी क्यों न हो यहाँ आया कि गति हुई।
(नेपथ्य में)
येषांक्वापिगतिर्नास्ति तेषांवाराणसीगतिः
पाप : सच है, अरे! यह कौन महा भयंकर भेस, अंग में भभूत पोते; एड़ी तक जटा लटकाए, लाल लाल आँख निकाले साक्षात् काल की भांति त्रिशूल घुमाता हुआ चला आता है। प्राण! तुम्हें जो अपनी रक्षा करनी हो तो भागो पाताल में, अब इस समय भूमंडल में तुम्हारा ठिकाना लगना कठिन ही है।
(भागता हुआ जाता है)
(भैरव1 आते हैं)
भैर. : सच है। येषां क्वापि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गतिः। देखो इतना बड़ा पुन्यशील राजा हरिश्चन्द्र भी अपनी आत्मा और स्त्री पुत्र बेचने को यहीं आया है। अहा! धन्य है सत्य। आज जब भगवान भूतनाथ राजा हरिश्चन्द्र का वृतांत भवानी से कहने लगे तो उनके तीनों नेत्रा अश्रु से पूर्ण हो गए और रोमांच होने से सब शरीर के भस्मकण अलग अलग हो गए। मुझको आज्ञा भी दी हुई है कि अलक्ष रूप से तुम सर्वदा राजा हरिश्चन्द्र की अंगरक्षा करना। इससे चलूं। मैं भी भेस बदलकर भगवान की आज्ञा पालन में प्रवत्र्त हूँ।
(जाते हैं। जवनिका गिरती है)
तीसरे अंक में यह अंकावतार समाप्त हुआ
तीसरा अंक
(स्थान काशी के घाट किनारे की सड़क)
महाराज हरिश्चन्द्र घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं
ह.: देखो काशी भी पहुंच गए। अहा! धन्य है काशी। भगवति बाराणसि तुम्हें अनेक प्रणाम है। अहा! काशी की कैसी अनुपम शोभा है।
‘चारहु आश्रम बर्न बसै मनि कंचन धाम अकास बिभासिका। सोभा नहीं कहि जाइ कछू बिधि नै रची मनो पुरीन की नासिका। आपु बसैं गिरि धारनजू तट देवनदी बर बारि बिलासिका। पुन्यप्रकासिका पापबिनासिका हीयहुलासिका सोहत कासिका’ ।। 1 ।।
‘बसैं बिंदुमाधव बिसेसरादि देव सबै दरसन ही तें लागै जम मुख मसी है। तीरथ अनादि पंचगंगा मनिकर्निकादि सात आवरन मध्य पुन्य रूप धंसी है। गिरिधरदास पास भागीरथी सोभा देत जाकी धार तोरै आसु कम्र्म रूप रसी है। समी सम जसी असी बरना में बसी पाप खसी हेतु असी ऐसी लसी बारानसी है’ ।। 2 ।।
‘रचित प्रभासी भासी अवलि मकानन की जिनमें अकासी फबै रतन नकासी है। फिरैं दास दासी बिप्रगृही औ संन्यासी लसै बर गुनरासी देवपुरी हूं न जासी है। गिरिधरदास बिश्वकीरति बिलासी रमा हासी लौं उजासी जाकी जगत हुलासी है। खासी परकासी पुनवांसी चंदिक्रा सी जाके वासी अबिनासी अघनासी ऐसी कासी है’ ।। 3 ।।
देखो। जैसा ईश्वर ने यह सुंदर अंगूठी के नगीने सा नगर बनाया है वैसी ही नदी भी इसके लिये दी है। धन्य गंगे!
‘जम की सब त्रास बिनास करी मुख तें निज नाम उचारन में। सब पाप प्रतापहि दूर दरîौ तुम आपन आप निहारन में। अहो गंग अनंग के शत्राु करे बहु नेकु जलै मुख डारन में। गिरिधारनजू कितने बिरचे गिरिधारन धारन धारन में’ ।। 4 ।।1
कुछ महात्म ही पर नहीं गंगा जी का जल भी ऐसा ही उत्तम और मनोहर है। आहा!
नव उज्जल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच बिच छहरति बूंद मध्यमुक्ता मनि पोहति ।।
लोल लहर लहि पवन एक पैं इक इमि आवत।
जिमि नरगन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत ।।
सुभग स्वर्ग सोपान सरिस सब के मन भावत।
दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत ।।
श्री हरिपदनख चन्द्रकान्त मनि द्रवित सुधारस।
ब्रह्म कमंडल मंडन भव खंडन सुर सरबस ।।
शिव सिर मालति माल भगीरथ नृपति पुन्य फल।
ऐरावत गज गिरि पति हिम नग कंठहार कल ।।
सगर सुअन सठ सह्स परम जल मात्रा उधारन।
अगिनित धारारूप धारि सागर संचारन ।।
कासी कहं प्रिय जानि ललकि भेंट्यौ जब धाई।
सपनेहूं नहिं तजी रहीं अंकन लपटाई ।।
कहूं बंधे नव घाट उच्च गिरिवर सम सोहत।
कहुं छतरी कहुं मढ़ी बढ़ी मन मोहत जोहत ।।
धवल धाम चहुं ओर फरहरत धुजा पताका।
घहरत घंटा धुनि धमकत धौंसा करि साका ।।
मधुरी नौबत बजब कहूं नारि नर गावत।
बेद पढ़त कहुं द्विज कहुं जोगी ध्यान लगावत।
कहूं सुंदरी नहात नीर कर जुगल उछारत।
जुग अंबुज मिलि मुक्त गुच्छ मनु सुच्छ निकारत ।।
धोअत सुंदरि बदन करन अति ही छबि पावत।
‘बारिधि नाते ससि कलंक मनु कमल मिटावत’ ।।
सुंदरि ससि मुख नीर मध्य इमि सुंदर सोहत।
कमल बेलि लहलही नवल कुसमन मन मोहत ।।
दीठि जहीं जहं जात रहत तितही ठहराई।
गंगा छबि हरिचन्द्र कछू बरनी नहीं जाई ।।
(कुछ सोचकर) पर हां! जो अपना जी दुखी होता है तो संसार सून जान पड़ता है।
असनं वसनं वासो येषां चैवाविधानतः।
मगधेनसमाकाशी गंगाप्यंगारवाहिनी ।।1
विश्वामित्र को पृथ्वी दान करके जितना चित्त प्रसन्न नहीं हुआ उतना अब बिना दक्षिणा दिये दुखी होता है। हा! कैसे कष्ट की बात है राजपाट धनधाम सब छूटा अब दक्षिणा कहाँ से देंगे! क्या करें! हम सत्य धर्म कभी छोड़ेंहीगे नहीं और मुनि ऐसे क्रोधी हैं कि बिना दक्षिणा मिले शाप देने को तैयार होंगे, और जो वह शाप न भी देंगे तो क्या? हम ब्राह्मण का ऋण चुकाए बिना शरीर भी तो नहीं त्याग कर सकते। क्या करें? कुबेर को जीतकर धन लावें? पर कोई शस्त्रा भी तो नहीं है। तो क्या किसी से मांग कर दें? पर क्षत्रिय का तो धर्म नहीं कि किसी के आगे हाथ पसारे। फिर ऋण काढ़ें? पर देंगे कहां से। हा! देखो काशी में आकर लोग संसार के बंधन से छूटते हैं पर हमको यहाँ भी हाय हाय मची है। हा! पृथ्वी! तू फट क्यों नहीं जाती कि मैं अपना कलंकित मंुह फिर किसी को न दिखाऊं। (आतंक से) पर यह क्या? सूर्यवंश में उत्पन्न होकर हमारे यह कर्म हैं कि ब्राह्मण का ऋण दिए बिना पृथ्वी में समा जाना सोचें। (कुछ सोच कर) हमारी तो इस समय कुछ बुद्धि ही नहीं काम करती। क्या करें? हमें तो संसार सूना देख पड़ता है। (चिंता करके। एक साथ हर्ष से) वाह, अभी तो स्त्री पुत्र और हम तीन-तीन मनुष्य तैयार हैं। क्या हम लोगों के बिकने से सहस्र स्वर्ण मुद्रा भी न मिलेंगी? तब फिर किस बात का इतना शोच? न जाने बुद्धि इतनी देर तक कहाँ सोई थी। हमने तो पहले ही विश्वामित्र से कहा था;
बेचि देह दारा सुअन होय दास हूं मंद।
रखि हैं निज बच सत्य करि अभिमानी हरिश्चन्द ।।
(नेपथ्य में) तो क्यों नहीं जल्दी अपने को बेचता? क्या हमें और काम नहीं है कि तेरे पीछे-पीछे दक्षिणा के वास्ते लगे फिरें?
ह.: अरे मुनि तो आ पहुंचे। क्या हुआ आज उनसे एक दो दिन की अवधि और लेंगे।
विश्वामित्र आते हैं
वि.: (आप ही आप) हमारी विद्या सिद्ध हुई भी इसी दुष्ट के कारण फिर बहक गई कुछ इन्द्र के कहने ही पर नहीं हमारा इस पर स्वतः भी क्रोध है पर क्या करें इसके सत्य, धैर्य और विनय के आगे हमारा क्रोध कुछ काम नहीं करता। यद्यपि यह राज्यभ्रष्ट हो चुका पर जब तक इसे सत्यभ्रष्ट न कर लूंगा तब तक मेरा संतोष न होगा (आगे देखकर) अरे यही दुरात्मा (कुछ रुककर) वा महात्मा हरिश्चंद्र है। (प्रगट) क्यों रे आज महीने में कै दिन बाकी है। बोल कब दक्षिणा देगा?
ह.: (घबड़ाकर) अहा! महात्मा कौशिक। भगवान् प्रणाम करता हूं। (दंडवत करता है)।
वि.: हुई प्रणाम, बोल तैं ने दक्षिणा देने का क्या उपाय किया? आज महीना पूरा हुआ अब मैं एक क्षण भर भी न मानूंगा। दे अभी नहीं तो-(शाप के वास्ते कमंडल से जल हाथ में लेते हैं।)
ह.: (पैरों पर गिरकर) भगवन् क्षमा कीजिए; क्षमा कीजिए। यदि आज सूर्यास्त के पहिले न दूं तो जो चाहे कीजिएगा। मैं अभी अपने को बेचकर मुद्रा ले आता हूं।
वि.: (आप ही आप) वाह रे महानुभावता! (प्रगट) अच्छा आज सांझ तक और सही। सांझ को न देगा तो मैं शाप ही न दूंगा बरंच त्रौलोक्य में आज ही विदित कर दूंगा कि हरिश्चन्द्र सत्य भ्रष्ट हुआ। (जाते हैं)
ह.: भला किसी तरह मुनी से प्राण बचे। अब चलें अपना शरीर बेच कर दक्षिणा देने का उपाय सोचें। हा! ऋण भी कैसी बुरी वस्तु है, इस लोक में वही मनुष्य कृतार्थ है जिस ने ऋण चुका देने को कभी क्रोधी और क्रूर लहनदार की लाल आँखें नहीं देखी हैं। (आगे चल कर) अरे क्या बाजार में आ गए, अच्छा, (सिर पर तृण रखकर)1 अरे सुनो भाई सेठ, साहूकार, महाजन, दुकानदार, हम किसी कारण से अपने को हजार मोहर पर बेचते हैं किसी को लेना हो तो लो। (इसी तरह कहता हुआ इधर उधर फिरता है) देखो कोई दिन वह था कि इसी मनुष्य विक्रय को अनुचित जानकर हम दूसरों को दंड देते थे पर आज वही कर्म हम आप करते हैं। दैव बली है। (अरे सुनो भाई इत्यादि कहता हुआ इधर उधर फिरता है। ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘क्यों तुम ऐसा दुष्कर कर्म करते हो?’ आर्य यह मत पूछो, यह सब कर्म की गति है। (ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘तुम क्या क्या कर सकते हो; क्या समझते हो और किस तरह रहोगे?’ इस का क्या पूछना है। स्वामी जो कहेगा वही करेंगे; समझते सब कुछ हैं पर इस अवसर पर कुछ समझना काम नहीं आता; और जैसे स्वामी रक्खेगा वैसे रहेंगे। जब अपने को बेच ही दिया तब इसका क्या विचार है। (ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘कुछ दाम कम करो।’ आर्य हम लोग तो क्षत्रिय हैं, हम दो बात कहां से जाने। जो कुछ ठीक था कह दिया।
(नेपथ्य में से)
आर्यपुत्र! ऐसे समय में हम को छोड़े जाते हो। तुम दास होगे तो मैं स्वाधीन रहके क्या करूंगी। स्त्री को अद्र्धांगिनी कहते हैं, इससे पहिले बायां अंग बेच लो तब दाहिना अंग बेचो।
ह.: (सुनकर बड़े शोक से) हा! रानी की यह दशा इन आँखों से कैसे देखी जायेगी!
(सड़क पर शैव्या और बालक फिरते हुए दिखाई पड़ते हैं)
शै.: कोई महात्मा कृपा करके हम को मोल ले तो बड़ा उपकार हो।
बा.: अम को बी कोई मोल ले लो बला उपकाल ओ।
शै.: (आँखों में आंसू भरकर) पुत्र! चन्द्रकुलभूषण महाराज वीरसेन का नाती और सूर्यकुल की शोभा महाराज हरिश्चन्द्र का पुत्र होकर तू क्यों ऐसे कातर बचन कहता है। मैं अभी जीती हूँ! (रोती है)
बा.: (माँ का अंचल पकड़ के) माँ! तुमको कोई मोल लेगा तो अम को भी मोल लेगा। आं आं मा लोती काए को औ। (कुछ रोना सा मुंह बना के शैव्या का आंचल पकड़ के झूलने लगता है।)
शै.: (आंसू पोंछकर) पुत्र! मेरे भाग्य से पूछ।
ह.: अहह! भाग्य! यह भी तुम्हें देखना था। हा! अयोध्या की प्रजा रोती रह गई हम उनको कुछ धीरज भी न दे आए। उनकी अब कौन गति होगी। हा! यह नहीं कि राज छूटने पर भी छुटकारा हो अब यह देखना पड़ा। हृदय तुम इस चक्रवर्ती की सेवा योग्य बालक और स्त्री को बिकता देखकर टुकड़े-टुकड़े क्यों नहीं हो जाते? (बारंबार लंबी सांसें लेकर आंसू बहाता है)।
शै.: (कोई महात्मा इत्यादि कहती हुई ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘क्या क्या करोगी?’ पर पुरुष से संभाषण और उच्छिष्ट भोजन छोड़कर और सब सेवा करूंगी। (ऊपर देखकर) क्या कहा? ‘पर इतने मोल पर कौन लेगा?’ आर्य कोई साधु ब्राह्मण महात्मा कृपा करके ले ही लेंगे।
(उपाध्याय और बटुक आते हैं)
उ.: क्यों रे कौंडिन्य! सच ही दासी बिकती है?
ब.: हाँ गुरुजी क्या मैं झूठ कहूंगा। आप ही देख लीजिएगा।
उ.: तो चल, आगे भीड़ हटाता चल। देख धाराप्रवाही भांति कैसे सब काम काजी लोग अधर से उधर फिर रहे हैं। भीड़ के मारे पैर धरने की जगह नहीं है, और मारे कोलाहल के कान नहीं दिया जाता।
ब.: (आगे आगे चलता हुआ) हटो भाई हटो (कुछ आगे बढ़कर) गुरुजी यह जहाँ भीड़ लगी है वहीं होगी।
उ.: (शैव्या को देखकर) अरे यही दासी बिकती है?
शै.: (अरे कोई हम को मोल ले इत्यादि कहती और रोती है)
बा.: (माता की भांति तोतली बोली से कहता है)
उ.: पुत्री। कहो तुम कौन-कौन सेवा करोगी?
शै.: पर पुरुष से सम्भाषण और उच्छिष्ट भोजन छोड़कर और जो-जो कहिएगा सब सेवा करूंगी।
उ.: वाह! ठीक है। अच्छा लो यह सुबर्ण। हमारी ब्राह्मणी अग्निहोत्रा के अग्नि की सेवा से घर से काम काज नहीं कर सकती सो तुम सम्हालना।
शै.: (हाथ फैलाकर) महाराज आप ने बड़ा उपकार किया।
उ.: (शैव्या को भली भांति देखकर आप ही आप) आहा! यह निस्संदेह किसी बडे़ कुल की है। इसका मुख सहज लज्जा से ऊँचा नहीं होता, और दृष्टि बराबर पैर ही पर है। जो बोलती है वह धीरे-धीरे बहुत सम्हाल के बोलती है। हा! इसकी यह गति क्यों हुई! (प्रगट) पुत्री तुम्हारे पति है न?
श.: (राजा की ओर देखती)
ह.: (आप ही आप दुख से) अब नहीं। पति के होते भी ऐसी स्त्री की यह दशा हो।
उ.: (राजा को देखकर आश्चर्य से) अरे यह विशाल नेत्रा, प्रशस्त वक्षस्थल, और संसार की रक्षा करने के योग्य लंबी-लंबी भुजा वाला कौन मनुष्य है, और मुकुट के योग्य सिर पर तृण क्यों रक्खा है? (प्रगट) महात्मा तुम हम को अपने दुख का भागी समझो और कृपा पूर्वक अपना सब वृत्तांत कहो।
ह.: भगवान्! और तो विदित करने का अवसर नहीं है इतना ही कह सकता हूँ कि ब्राह्मण के ऋण के कारण यह दशा हुई।
उ.: तो हम से धन लेकर आप शीघ्र ही ऋणमुक्त हूजिए।
ह.: (दोनों कानों पर हाथ रखकर) राम राम! यह तो ब्राह्मण की बृत्ति है। आप से धन लेकर हमारी कौन गति होगी?
उ.: तो पाँच हजार पर आप दोनों में से जो चाहे सो हमारे संग चले।
शै.: (राजा से हाथा जोड़र) नाथ हमारे आछत आप मत बिकिए, जिस में हम को अपनी आँख से यह न देखना पड़े हमारी इतनी बिनती मानिए। (रोती है)
ह.: (आँसू रोक कर) अच्छा! तुम्ही जाओे। (आप ही आप) हा! यह बज्र हृदय हरिश्चन्द्र ही का है कि अब भी नहीं बिदीर्ण होता।
शै.: (राजा के कपड़े में सोना बांधती हुई) नाथ! अब तो दर्शन भी दुर्लभ होंगे। (रोती हुई उपाध्याय से) आर्य आप क्षण भर क्षमा करें तो मैं आर्यपुत्र का भली भांति दर्शन कर लूं। फिर यह मुख कहाँ और मैं कहाँ।
उ.: हाँ हाँ मैं जाता हूं। कौडिन्य यहाँ है तुम उसके साथ आना। (जाता है)
शै.: (रोकर) नाथ मेरे अपराधों को क्षमा करना।
ह.: (अत्यन्त घबड़ाकर) अरे अरे विधाता तुझे यही करना था। (आप ही आप) हा! पहिले महारानी बनाकर अब दैव ने इसे दासी बनाया। यह भी देखना बदा था। हमारी इस दुर्गति से आज कुलगुरु भगवान सूर्य का भी मुख मलिन हो रहा है। (रोता हुआ प्रगट रानी से) प्रिये सर्वभाव से उपाध्याय को प्रसन्न रखना और सेवा करना।
शै.: (रोकर) नाथ! जो आज्ञा।
बटु. : उपाध्याय जी गए अब चलो जल्दी करो।
ह.: (आँखों में आँसू भर के) देवी (फिर रुक कर अत्यंत सोच में आप ही आप) हाय! अब मैं देवी क्यों कहता हूं अब तो विधाता ने इसे दासी बनाया। (धैर्य से) देवी! उपाध्याय की आराधना भली भांति करना और इनके सब शिष्यों से भी सुहृत भाव रखना, ब्राह्मण के स्त्री की प्रीति पूर्वक सेवा करना, बालक का यथासंभव पालन करना, और अपने धर्म और प्राण की रक्षा करना। विशेष हम क्या समझावें जो जो दैव दिखावे उसे धीरज से देखना। (आंसू बहते हैं)
शै.: जो आज्ञा (राजा के पैरों पर गिर के रोती है)।
ह.: (धैर्य पूव्र्वक) प्रिये! देर मत करो बटुक घबड़ा रहे हैं।
श.: (उठ कर रोती और राजा की ओर देखती हुई धीरे-धीरे चलती है)
वा.: (राजा से) पिता माँ कआँ जाती ऐं।
ह.: (धैर्य से आंसू रोककर) जहाँ हमारे भाग्य ने उसे दासी बनाया है।
बा.: (बटुक से) अले मां को मत लेजा। (माँ का आँचल पकड़ के खींचता है)
बटु. : (बालक को ढकेल कर) चल चल देर होती है।
बा.: (ढकेलने से गिर कर रोता हुआ उठकर अत्यंत क्रोध और करुणा से माता पिता की ओर देखता है)
ह.: ब्राह्मण, देवता! बालकों के अपराध से नहीं रुष्ट होना (बालक को उठाकर धूर पोंछ के मुंह चूमता हुआ) पुत्र मुझ चांडाल का मुख इस समय ऐसे क्रोध से क्यों देखता है? ब्राह्मण का क्रोध तो सभी दशा में सहना चाहिए। जाओ माता के संग मुझ भाग्यहीन के साथ रह कर क्या करोगे। (रानी से) प्रिये धैर्य धरो। अपना कुल और जाति स्मरण करो। अब जाओ, देर होती है।
(रानी और बालक रोते हुए बटुक के साथ जाते हैं)
ह.: धन्य हरिश्चन्द्र! तुम्हारे सिवाय और ऐसा कठोर हृदय किस का होगा। संसार में धन और जन छोड़कर लोग स्त्री की रक्षा करते हैं पर तुमने उसका भी त्याग किया।
(विश्वामित्र आते हैं)
ह.: (पैर पर गिर के प्रणाम करता है)
बि.: ला दे दक्षिणा। अब सांझ होने में कुछ देर नहीं है।
ह.: (हाथ जोड़कर) महाराज आधी लीजिए आधी अभी देता हूं। (सोना देता है)
बि.: हम आधी दक्षिणा लेके क्या करें! दे चाहे जहाँ से सब दक्षिणा। (नेपथ्य में) धिक् तपो धिक् व्रतमिदं ध्कि ज्ञानं धिक् बहुश्रुतम्। नीतंवान सियब्रह्मन् हरिश्चंद्रमिमां दशां।
बि.: (बड़े क्रोध से) आः हमको धिक्कार देने वाला यह कौन दुष्ट है? (ऊपर देखकर) अरे बिश्वेदेवा (क्रोध से जल हाथ में लेकर) अरे क्षत्रिय के पक्षपातियो! तुम अभी विमान से गिरो और क्षत्रिय के कुल में तुम्हारा जन्म हो और वहाँ भी लड़कपन ही में ब्राह्मण के हाथ से मारे जाओ1। ख्जल छोड़ते हैं,
(नेपथ्य में हाहाकार के साथ बड़ा शब्द होता है)
(सुनकर और ऊपर देखकर आनंद से) हहहह! अच्छा हुआ! यह देखो किरीट कुंडल बिना मेरे क्रोध से बिमान से छूट कर विश्वेदेवा उलटे हो-हो कर नीचे गिरते हैं। और हमको धिक्कार दें।
ह.: (ऊपर देखकर भय से) बाह रे तप का प्रभाव। (आप ही आप) तब तो हरिश्चन्द्र को अब तक शाप नहीं दिया है यही बड़ा अनुग्रह है। (प्रगट) भगवन् यह स्त्री बेचकर आधा धन पाया है सो लें और आधा हम अपने को बेचकर अभी देते हैं। (नेपथ्य में) अरे अब तो नहीं सही जाती।
बि.: हम आधा न लेंगे चाहे जहाँ से अभी सब दे।
ह.: (अरे सुनो भाई सेठ साहूकार इत्यादि पुकारता हुआ घूमता है)
(चांडाल के भेष में धर्म और सत्य आते हैं)2
धर्म : (आप ही आप)
हम प्रत्तच्छ हरिरूप जगत हमरे बल चालत।
जल थल नभ थिर मो प्रभाव मरजाद न टालत ।।
हमहीं नर के मीत सदा सांचे हितकारी।
इक हमहीं संग जात तजत जब पितु सुत नारी ।।
सो हम नित थित इक सत्य मैं जाके बल सब जियो।
सोइ सत्य परिच्छन नृपति को आजु भेस हम यह कियो ।।
(आश्चर्य से आप ही आप) सचमुच इस राजर्षि के समान दूसरा आज त्रिभुवन में नहीं है। (आगे बढ़कर प्रत्यक्ष) अरे हरजनवाँ! मोहर का संदूख ले आवा है न?
सत्य. : क चैधरी मोहर ले के का करबो?
धर्म. : तों हमे का काम पूछै से?
(दोनों आगे बढ़ते हुए फिरते हैं)
ह.: (अरे सुनो भाई सेठ साहुकार इत्यादि दो तीन बेर पुकार के इधर उधर घूमकर) हाय! कोई नहीं बोलता और कुलगुरु भगवान् सूर्य भी आज हमसे रुष्ट हो कर शीघ्र ही अस्ताचल जाया चाहते हैं। (घबराहट दिखाता है)।
धर्म : (आप ही आप) हाय हाय! इस समय इस महात्मा को बड़ा ही कष्ट है। तो अब चलें आगे। (आगे बढ़ कर) अरे अरे हम तुम को मोल लेंगे। लेव यह पचास सै मोहर लेव।
ह.: (आनन्द से आगे बढ़कर) वाह कृपानिधान! बड़े अवसर पर आए। लाइये। (उसको पहिचान कर) आप मोल लोगे?
धर्म : हाँ हम मोल लेंगे। (सोना देना चाहता है)।
ह.: आप कौन हैं?
धर्म : हम चैधरी डोम सरदार।
अमल हमारा दोनों पार ।।
सब मसान पर हमारा राज।
कफन मांगने का है काज ।।
फूलमती देवी1 के दास।
पूजैं सती मसान निवास ।।
धनतेरस औ रात दिवाली।
बल चढ़ाय के पूजैं काली ।।
सो हम तुमको लेंगे मोल।
देंगे मुहर गांठ के खोल ।।
(मत्त की भांति चेष्टा करता है)
ह.: (बड़े दुःख से) अहह! बड़ा दारुण व्यसन उपस्थित हुआ है। (विश्वामित्र से) भगवान् मैं पैर पड़ता हूँ, मैं जन्म भर आप का दास होकर रहूंगा, मुझे चांडाल होने से बचाइए ।।
वि.: छिः मूर्ख! भला हम दास लेके क्या करेंगे।
‘स्वयंदासास्तपस्विनः’
ह.: (हाथ जोड़कर) जो आज्ञा कीजियेगा हम सब करेंगे।
वि.: सब करेगा न? (ऊपर हाथ उठाकर) कर्म के साक्षी देवता लोग सुनें, यह कहता है कि जो आप कहेंगे मैं सब करूंगा।
ह.: हाँ हाँ जो आप आज्ञा कीजिएगा सब करूंगा।
बि.: तो इसी गाहक के हाथ अपने को बेचकर अभी हमारी शेष दक्षिणा चुका दे।
ह.: जो आज्ञा। (आप ही आप) अब कौन सोच है। (प्रगट धर्म से) तो हम एक नियम पर बिकेंगे।
धर्म : वह कौन?
ह.: भीख असन कम्मल बसन रखिहैं दूर निवास।
जो प्रभु आज्ञा होइ है करि हैं सब ह्नै दास ।।
धर्म : ठीक है लेव सोना (दूर से राजा के आंचल में मोहर देता है)
ह.: (लेकर हर्ष से आप ही आप)
ऋण छूट्यो पूरîो बचन द्विजहु न दीनो शाप।
सत्य पालि चंडालहू होइ आजु मोहि दाप ।।
(प्रगट विश्वामित्र से) भगवन्! लीजिए यह मोहर।
बि.: (मुँह चिढ़ाकर) सचमुच देता है?
ह.: हाँ हाँ यह लीजिए। (मोहर देते हैं)
बि.: (लेकर) स्वस्ति। (आप ही आप) बस अब चलो बहुत परीक्षा हो चुकी। (जाना चाहते हैं)
ह.: (हाथ जोड़कर) भगवन् दक्षिणा देने में देर होने का अपराध क्षमा हुआ न?
बि.: हाँ क्षमा हुआ। अब हम जाते हैं।
ह.: भगवन् प्रणाम करता हूँ।
(बिश्वामित्र आशीर्वाद देकर जाते हैं)
ह.: अब चैधरी जी (लज्जा से रुककर) स्वामी की जो आज्ञा हो वह करें।
धर्म : (मत्त की भांति नाचता हुआ)
जाओ अभी दक्खिनी मसान।
लेओ वहाँ कफ्फन का दान ।।
जो कर तुमको नहीं चुकावै।
सो किरिया करने नहिं पावै ।।
चलो घाट पर करो निवास।
भए आज से मेरे दास ।।
ह.: जो आज्ञा। (जवनिका गिरती है)
सत्यहरिश्चन्द्र का तीसरा अंक समाप्त हुआ।
***