हल्दी घाटी की लड़ाई Vrishali Gotkhindikar द्वारा जासूसी कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

हल्दी घाटी की लड़ाई

हल्दी घाटी की लड़ाई

Vrishali Gotkhindikar

जो लड़ाइया जानी मानी कही जाती है

उनमेसे एक है “हल्दी घाटी की लड़ाई ..

सुनते है इसीकी कहानी ..

महाराणा प्रताप सिंह उदयपुर, मेवाड में शिशोदिया राजवंश के राजा थे।

उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने कई सालों तक मुगल सम्राट अकबर के साथ संघर्ष किया। उनका जन्म कुम्भलगढ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की माता का नाम जैवन्ताबाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ।

उदयसिंह जब मेवाड़ के राणा हुए थे, तबसे कुछ ही दिनों के बाद अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की। मुग़ल सेना ने आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया था, लेकिन राणा उदयसिंह ने अकबर अधीनता स्वीकार नहीं की। हज़ारों मेवाड़ियों की मृत्यु के बाद जब उन्हें लगा कि चित्तौड़गढ़ अब नहीं बचेगा, तब उदयसिंह ने चित्तौड़ को 'जयमल' और 'पत्ता' आदि वीरों के हाथ में छोड़ दिया और स्वयं अरावली के घने जंगलों में चले गए। वहाँ उन्होंने नदी की बाढ़ रोक 'उदयसागर' नामक सरोवर का निर्माण किया था।

वहीं उदयसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई।

चित्तौड़ के विध्वंस के चार वर्ष बाद ही उदयसिंह का देहांत हो गया। उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी युद्ध जारी रखा और मुग़ल अधीनता स्वीकार नहीं की।

लेकिम तबतक पूर्व उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशो में विद्रोह होने लगे थे ओर महाराणा भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे |

अतः परिणामस्वरूप अकबर उस विद्रोह को दबाने मे उल्जा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया। इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने ई.पू. 1585 में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को ओर भी तेज कर लिया। महाराणा की सेना ने मुगल चौकियां पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरंत ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया।

महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया, उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी।

बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लंबी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने मे सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ।

अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु था, पर उनकी यह लड़ाई कोई व्यक्तिगत द्वेष का परिणाम नहीं था, हालांकि अपने सिद्धांतो और मूल्यो की लड़ाई थी। एक वह था जो अपने क्रूर साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था, जब की एक तरफ यह था जो अपनी भारत माँ की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहा था।

अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा।

दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के मध्य युद्ध हुआ।

इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे -हकीम खाँ सूरी।

इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया।

हल्दीघाटी के इस प्रवेश द्वार पर अपने चुने हुए सैनिकों के साथ राणा प्रताप शत्रु की प्रतीक्षा करने लगे। दोनों ओर की सेनाओं का सामना होते ही भीषण रूप से युद्ध शुरू हो गया और दोनों तरफ़ के शूरवीर योद्धा घायल होकर ज़मीन पर गिरने लगे। प्रताप अपने घोड़े पर सवार होकर द्रुतगति से शत्रु की सेना के भीतर पहुँच गये और राजपूतों के शत्रु मानसिंह को खोजने लगे।

वह तो नहीं मिला, परन्तु राणा प्रताप उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ पर अकबर बादशाह के बेटा 'सलीम' (जहाँगीर) अपने हाथी पर बैठा हुआ था।

प्रताप की तलवार से सलीम के कई अंगरक्षक मारे गए और यदि प्रताप के भाले और सलीम के बीच में लोहे की मोटी चादर वाला हौदा नहीं होता तो अकबर अपने उत्तराधिकारी से हाथ धो बैठता।

प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने स्वामी की इच्छा को भाँपकर पूरा प्रयास किया। तमाम ऐतिहासिक चित्रों में सलीम के हाथी की सूँड़ पर चेतक का एक उठा हुआ पैर और प्रताप के भाले द्वारा महावत की छाती का छलनी होना अंकित किया गया है|

महावत के मारे जाने पर घायल हाथी सलीम सहित युद्ध भूमि से भाग खड़ा हुआ।

इस समय युद्ध अत्यन्त भयानक हो उठा था।

सलीम पर राणा प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से प्रहार करने लगे।

राणा प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था।

इसलिए मुग़ल सैनिक उन्हीं को निशाना बनाकर वार कर रहे थे। राजपूत सैनिक भी प्रताप को बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष कर रहे थे। परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसते जा रहे थे। स्थिति की गम्भीरता को परखकर राणा प्रताप झाला सरदार ने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया।

झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के साथ आगे बढ़ा और प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगा। मुग़ल सैनिक उसे ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े और प्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया।

उनका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा।

राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा।

युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये।

अकबर की सेना में लड़ाके ज्यादा थे, तोपें थी और हाथियों की अधिकता भी थी। जबकी महाराणा प्रताप की सेना, अकबर की सेना की तुलना में कम थी।

लेकिन महाराणा प्रताप का घोड़ा ‘चेतक’ दुश्मनों की सेना पर भारी था। महाराणा प्रताप अपने वीर घोड़े चेतक पर सवार होकर रणभूमि में आए थे, जो बिजली की तरह दौड़ता था और पल भर में एक जगह से दूसरी जगह पहुंच जाता था।

अकबर की विशाल सेना बलशाली हाथियों से सुसज्जित थी लेकिन महाराणा प्रताप का वीर घोड़ा चेतक उन सभी हाथियों पर अकेला भारी था। युद्ध के दौरान चेतक के सिर पर हाथी का मुखौटा बांधा गया था ताकि हाथियों को भरमाया जा सके।

माना जाता है कि चेतक पर सवार महाराणा प्रताप दुश्मनों के लिए “काल बन गये थे। दोनो के धैर्य और साहस के आगे सेनापति मानसिंह की सेना असहाय सी लग रही थी।

युद्ध में एक ऐसा भी समय आया जब महाराणा प्रताप का मानसिंह से सामना हुआ। बस महाराणा प्रताप को चेतक के एक एड़ लगाने की ज़रूरत पड़ी और चेतक सीधा मानसिंह के हाथी के मस्तक पर चढ़ गया।

चेतक के इस वार से मानसिंह हौदे में छिप गया लेकिन राणा के वार से महावत मारा गया। हालांकि हाथी से उतरते समय चेतक का एक पैर हाथी की सूंड में बंधी तलवार से कट गया।

अद्वितीय स्वामिभक्ति, बुद्धिमत्ता एवं वीरता का दूसरा नाम ‘चेतक था |

हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक की भूमिका सिर्फ़ एक योद्धा अश्व की नही थी, बल्कि वह महाराणा प्रताप का दोस्त और बेमिसाल सहयोगी था।

उसकी अतुलनीय स्वामिभक्ति कि वजह से ही उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ अश्व का दर्ज़ा दिया गया। स्वामी भक्ति ऐसी कि मुगल सेना भी उसकी वीरता के सामने नतमस्तक थी। चेतक रणभूमि में बिजली बन कर कूद पड़ा|

चौकड़ी भर-भर चेतक बन गया निराला था,

राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा को पाला था,

जो बाग हवा से ज़रा हिली लेकर सवार उड़ जाता था,

राणा की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड़ जाता था”

चेतक अपने स्वामी महाराणा प्रताप की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, अपने एक पैर कटे होने के बावजूद महाराणा को सुरक्षित स्थान पर लाने के लिए, बिना रुके पांच किलोमीटर तक दौड़ा। यहां तक कि उसने रास्ते में पड़ने वाले 100 मीटर के बरसाती नाले को भी एक छलांग में पार कर लिया। जिसे मुगल की सेना पार ना कर सकी।

राणा प्रताप को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के बाद ही चेतक ने अपने प्राण छोड़े|

युद्ध में अपने इतने प्रियजनों, मित्रों, सैनिकों और घोड़े चेतक को खोने के बाद महाराणा प्रताप ने प्रण किया था कि वो जब तक मेवाड़ वापस प्राप्त नहीं कर लेते घास की रोटी खाएंगे और ज़मीन पर सोएंगे।

आज भी चित्तौड़ की हल्दी घाटी में चेतक की समाधि बनी हुई है, जहाँ स्वयं प्रताप और उनके भाई शक्तिसिंह ने अपने हाथों से इस अश्व का दाह-संस्कार किया था।

चेतक की स्वामिभक्ति पर बने कुछ लोकगीत मेवाड़ में आज भी गाये जाते हैं।

इतिहासकार मानते हे कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए अकबर के विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितने देर तक टिक पाते पर ऐसा कुछ नहीं हुआ |

ये युद्ध पूरे एक दिन चला और राजपूतों ने मुग़लो के छक्के छुड़ा दिये थे ओर सबसे बड़ी बात यहा हे की युद्ध आमने सामने लड़ा गया था! महाराणा कि सेना ने मुगल कि सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था ओर मुगल सेना भागने लग गयी थी।

महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलो को कही बार युद्ध में भी हराया।

शक्ति सिंह ने आपना अशव दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें 17,000 लोग मारे गएँ। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिंतीत हुई।

25,000 राजपूतों को 12 साल तक चले उतना अनुदान देकर भामा शाह भी अमर हुआ।

इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे|

इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी।

उन्होंने आखिरी समय तक अकबर से सन्धि की बात स्वीकार नहीं की और मान-सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करते हुए लड़ाइयाँ लड़ते रहे।

'हल्दीघाटी का युद्ध' भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है।

इस युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुए। लड़ाई के दौरान अकबर ने युद्ध राणा प्रताप के पक्ष में निर्णायक नहीं हो सका।

खुला युद्ध समाप्त हो गया था, किंतु संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। भविष्य में संघर्षो को अंजाम देने के लिए प्रताप एवं उसकी सेना युद्ध स्थल से हट कर पहाड़ी प्रदेश में आ गयी थी। मुग़लों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो वहीं ग्वालियर नरेश ‘राजा रामशाह तोमर’ भी अपने तीन पुत्रों ‘कुँवर शालीवाहन’, ‘कुँवर भवानी सिंह ‘कुँवर प्रताप सिंह’ और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैंकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया।

उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा मे जुट गए, परंतु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावंड मे उनकी मृत्यु हो गई।

महाराणा प्रताप के मृत्यु पर अकबर को बहुत ही दुःख हुआ क्योंकि ह्रदय से वो महाराणा प्रताप के गुणों का प्रशंसक था ओर अकबर जनता था कि महाराणा जैसा वीर कोई नहीं हे इस धरती पर। यह समाचार सुन अकबर रहस्यमय तरीके से मौन हो गया और उसकी आँख में आंसू आ गए।

***