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किताब का ख़ुलासा

किताब का ख़ुलासा

सर्दियों में अनवर ममटी पर पतंग उड़ा रहा था। उस का छोटा भानजा उस के साथ था। चूँकि अनवर के वालिद कहीं बाहर गए हुए थे और वो देर से वापस आने वाले थे इस लिए वो पूरी आज़ादी और बड़ी बेपर्वाई से पतंग बाज़ी में मशग़ूल था। पेच ढील का था। अनवर बड़े ज़ोरों से अपनी मांग पाई पतंग को डोर पिला रहा था। इस के भानजे ने जिस का छोटा सा दिल धक धक कर रहा था और जिस की आँखें आसमान पर जमी हुई थीं अनवर से कहा। “मामूं जान खींच के पेट काट लीजीए।” मगर वो धड़ा धड़ डोर पिलाता रहा।

नीचे खुले कोठे पर अनवर की बहन सहेलीयों के साथ धूप सैन्क रही थी। सब कशीदाकारी में मसरूफ़ थीं। साथ साथ बातें भी करती जाती थीं। अनवर की बहन शमीम अनवर से दो बरस बड़ी थी। कशीदाकारी और सीने पिरोने के काम में माहिर। इसी लिए गली की अक्सर लड़कीयां उस के पास आती थीं और घंटों बैठी काम सीखती रहती थीं। एक हिंदू लड़की जिस का नाम बिमला था बहुत दूर से आती थी। उस का घर क़रीबन दो मेल परे था। लेकिन वो हर रोज़ बड़ी बाक़ायदगी से आती और बड़े इन्हिमाक से कशीदाकारी के नए नए डिज़ाइन सीखा करती थी।

बिमला का बाप स्कूल मास्टर था। बिमला अभी छोटी बच्ची ही थी कि उस की माँ का देहांत होगया। बिमला का बाप लाला हरी चरण चाहता तो बड़ी आसानी से दूसरी शादी कर सकता था मगर उस को बिमला का ख़्याल था, चुनांचे वो रंडुवा ही रहा और बड़े प्यार मोहब्बत से अपनी बच्ची को पाल पोस कर बड़ा किया। अब बिमला सोला बरस की थी। साँवले रंग की दुबली पतली लड़की। ख़ामोश ख़ामोश बहुत कम बातें करने वाली। बड़ी शर्मीली। सुबह दस बजे आती। आपा शमीम को परिणाम करती और अपना थैला खोल कर काम में मशग़ूल हो जाती।

अनवर अठारह बरस का था। उस को तमाम लड़कीयों में से सिर्फ़ सईदा से हल्की सी दिलचस्पी थी, लेकिन ये हल्की सी दिलचस्पी कोई और सूरत इख़्तियार नहीं कर सकी थी इस लिए कि उस की बहन उस को लड़कीयों में बैठने की इजाज़त नहीं देती थी। अगर वो कभी एक लहज़े के लिए उन के पास आ बैठता तो आपा शमीम फ़ौरन ही उस को हुक्म देतीं, “अनवर उठो, तुम्हारा यहां कोई काम नहीं” और अनवर को इस हुक्म की फ़ौरी तामील करनी पड़ती।

बिमला अलबत्ता कभी कभी अनवर को बुलाती थी, नॉवेल लेने के लिए। उस ने शमीम से कहा था। “घर में मेरा जी नहीं लगता। पिता जी बाहर शतरंज खेलने चले जाते हैं। मैं अकेली पड़ी रहती हूँ। अनवर भाई से कहिए, मुझे नॉवेल दे दिया करें पढ़ने के लिए।”

पहले तो बिमला, शमीम के ज़रीये से नॉवेल लेती रही फिर कुछ अर्से के बाद उस ने बराह-ए-रास्त अनवर से मांगने शुरू कर दिए। अनवर को बिमला बड़ी अजीब-ओ-ग़रीब लड़की लगती थी। यानी ऐसी जो बड़े ग़ौर से देखने पर दिखाई देती थी। लड़कीयों के झुरमुट में तो वो बिलकुल ग़ायब हो जाती थी। बैठक में जब वो अनवर से नया नॉवेल मांगने आती तो उस को उस की आमद का उस वक़्त पता चलता जब वो इस के पास आकर धीमी आवाज़ में कहती। “अनवर साहब........ ये लीजिए अपना नॉवेल.... शुक्रिया।”

अनवर उस की तरफ़ देखता। उस के दिमाग़ में अजीब-ओ-ग़रीब तशबीहा फुदक उठती। “ये लड़की तो ऐसी है जैसे किताब का ख़ुलासा।”

बिमला और कोई बात न करती। पुराना नॉवेल वापिस करके नया नॉवेल लेती और नमस्ते करके चली जाती। अनवर उस के मुतअल्लिक़ चंद लमहात सोचता, इस के बाद वो उसके दिमाग़ से निकल जाती। लेकिन अनवर ने एक बात ज़रूर महसूस की थी कि बिमला ने एक दो बार उस से कुछ कहना चाहा था मगर कहते कहते रुक गई थी। अनवर सोचता। “क्या कहना चाहती थी मुझ से?” इस का जवाब उस का दिमाग़ यूं देता। “कुछ भी नहीं........ मुझ से वो क्या कहना चाहती होगी भला?”

अनवर ममटी पर पतंग अड़ा रहा था। पेच ढील का था, ख़ूब डोर पिला रहा था। दफ़अतन उस की बहन शमीम की घबराई हुई आवाज़। “अनवर.... अनवर.... अब्बा जी आगए!”

अनवर को और कुछ न सूझा। हाथ से डोर तोड़ी और ममटी पर से नीचे कूद पड़ा। “वो काटा, वो काटा” का शोर बुलंद हुआ। अनवर का घटना बड़े ज़ोरों से छिल गया था। एक उस को इस का दुख था इस पर उस के हरीफ़ फ़ातिहाना नारे लगा रहे थे। लंगड़ाता लंगड़ाता चारपाई पर बैठ गया। घुटने को देखा तो उस में से ख़ून बह रहा था। बिमला सामने बैठी थी। उस ने अपना दुपट्टा उतारा, किनारे पर से थोड़ा सा फाड़ा और पट्टी बना कर अनवर के घुटने पर बांध दिया। अनवर उस वक़्त अपने पतंग के मुतअल्लिक़ सोच रहा था। उस को यक़ीन था कि मैदान उस के हाथ रहेगा। लेकिन उस के बाप की बेवक़त आमद ने उसे मजबूर कर दिया कि वो अपने हाथों से इतने बढ़े हुए पतंग का ख़ातमा करदे। हरीफ़ों के नारे अभी तक गूंज रहे थे। उस ने ग़ुस्सा आमेज़ आवाज़ में अपनी बहन से कहा। “अब्बा जी को भी इसी वक़्त आना था।”

शमीम मुस्कुराई। “वो कब आए हैं।”

अनवर चिल्लाया। “क्या कहा?”

शमीम हंसी। “मैंने तुम से मज़ाक़ किया था।”

अनवर बरस पड़ा। “मेरा बेड़ा ग़र्क़ कराके आप हंस रही हैं........ अच्छा मज़ाक़ है। एक मेरा इतना बढ़ा हुआ पतंग ग़ारत हुआ। लोगों की आवाज़े सुने.... और घुटना अलग ज़ख़मी हुआ।”

ये कह कर अनवर ने अपने घुटने की तरफ़ देखा। सफ़ैद मलमल की पट्टी बंधी थी। अब उस को ये याद आया कि ये पट्टी बिमला ने अपना दुपट्टा फाड़ कर उस के बांधी थी। उस ने शुक्रगुज़ार आँखों से बिमला को देखा और उसको ऐसा महसूस हुआ कि वो उस के ज़ख़्म के दर्द को महसूस कर रही है।

बिमला, शमीम से मुख़ातब हूई। “आप आप ने बहुत ज़ुल्म किया........ ज़्यादा चोट आजाती तो........ ” वो कुछ और कहते कहते रुक गई और कशीदा काढ़ने में मसरूफ़ होगई।

अनवर की निगाह बिमला से हट कर सईदा पर पड़ी। सफ़ैद पुल ओवर में वो उसे बहुत भली मालूम हुई। अनवर उस से मुख़ातब हुआ। “सईदा तुम ही बताओ ये मज़ाक़ अच्छा था........ हंसी में फंसी हो जाती तो?”

शमीम ने उसे डांट दिया। “जाओ अनवर तुम्हारा यहां कोई काम नहीं।”

अनवर ने एक निगाह सईदा पर डाली। “बहुत अच्छा।” कह कर उठा और लंगड़ाता लंगड़ाता फिर ममटी पर चढ़ गया। थोड़ी देर पतंग उड़ाए। ग़ुस्से में खींच के हाथ मार कर क़रीबन एक दर्जन पतंग काटे और नीचे उतर आया। घुटने में दर्द था। बैठक में सोफे पर लेट गया और ऊपर कम्बल डाल लिया। थोड़ी देर अपनी फ़ुतूहात के मुतअल्लिक़ सोचा और सो गया।

तक़रीबन एक घंटे के बाद उस को आवाज़ सुनाई दी जैसे कोई उसे बुला रहा है। उस ने आँखें खोलीं, देखा सामने बिमला खड़ी थी। मुरझाई हुई। कुछ सिमटी हुई। अनवर ने लेटे लेटे पूछा “क्या है बिमला?”

“जी, मैं आप से कुछ.... ” बिमला रुक गई। “जी मैं आप से कोई........ कोई नई किताब दीजीए।”

अनवर ने कहा। “मेरे घुटने में ज़ोरों का दर्द है........ वो जो सामने अलमारी है उसे खोल कर जो किताब तुम्हें पसंद हो ले लो।”

बिमला चंद लमहात खड़ी रही, फिर चोंकि “जी?”

अनवर ने उस को ग़ौर से देखा। उस दोपट्टे के पीछे जिस में से बिमला ने पट्टी फाड़ी थी, बड़ी मरियल किस्म की छातियां धड़क रही थीं। अनवर को उस पर तरस आया। उस की शक्ल-ओ-सूरत, उस के ख़द्द-ओ-ख़ाल ही कुछ इस क़िस्म के थे कि उस को देख कर अनवर के दिल-ओ-दिमाग़ में हमेशा रहम के जज़्बात पैदा होते थे। उस को और तो कुछ ना सूझा। ये कहा। “पट्टी बांधने का शुक्रिया!”

बिमला ने कुछ कहे बग़ैर अलमारी का रुख़ किया और उसे खोल कर किताबें देखने लगी। अनवर के दिमाग़ में वो तशबीह फिर फुदकी “ये किताब नहीं, किताब का ख़ुलासा है........ बहुत ही रद्दी काग़ज़ों पर छपा हुआ!”

बिमला ने एक बार अनवर को कनखीयों से देखा मगर जब उसे मुतवज्जा पाया तो उस की तरफ़ पीठ करली। कुछ देर किताबें देखीं। एक मुंतख़ब की, अलमारी को बंद किया, अनवर के पास आई और “मैं ये ले चली हूँ” कह कर चली गई।

अनवर ने बिमला के बारे में सोचने की कोशिश की मगर उस को सईदा के सफ़ैद पुल ओवर का ख़्याल आता रहा....। “पुल ओवर पहनने से जिस्म के ख़त कितने वाज़ेह हो जाते हैं........ सईदा का सीना और इस बिमला की मरियल छातियां........ जैसे इन का दूध अलग करके सिर्फ़ पानी रहने दिया गया है........ सईदा के घुंघरियाले बाल........ कमबख़्त ने अपने माथे के ज़ख़म के निशान को छिपाने का क्या ढंग निकाला है........ बलखाती हुई एक लट छोड़ देती है इस पर........ और बिमला........ जाने क्या तकलीफ़ है उसे........ आज भी कुछ कहते कहते रुक गई थी। मगर मुझ से क्या कहना चाहती है........ शायद उस का अंदाज़ ही कुछ इस क़िस्म का हो........ हमेशा किताब इसी तरह मांगती है जैसे कोई मदद मांग रही है। कोई सहारा ढूंढ रही है........ सईदा माशाअल्लाह आज सफ़ैद पुल ओवर में क़ियामत ढहा रही थी........ ये क़ियामत ढाना किया बकवास है........ क़ियामत तो हर चीज़ का ख़ातमा है और सईदा तो अभी मेरी ज़िंदगी में शुरू हुई है। बिमला.... बिमला.... भई मेरी समझ में नहीं आई ये लड़की.... बाप तो इस को बहुत प्यार करता है। इसी की ख़ातिर उस ने दूसरी शादी न की.... शायद उन को कोई माली तकलीफ़ हो.... लेकिन घर तो ख़ासा अच्छा था........ एक ही पलंग था लेकिन बड़ा शानदार........ सोफा सेट भी बुरा नहीं था। और जो खाना मैंने खाया था इस में कोई बुराई नहीं थी........ सईदा का घर तो बहुत ही अमीराना है। बड़े रईस की लड़की है........ इस रियासत की ऐसी तैसी........यही तो बहुत बड़ी मुसीबत है वर्ना........ लेकिन छोड़ो जी........ सईदा जवान है, कल कलां ब्याह दी जाएगी........मुझे ख़ुदा मालूम कितने बरस लगेंगे। पूरी तालीम हासिल करने में.... बी ए........ बी ए के बाद विलाएत.... मीम?.... देखें!.... लेकिन सफ़ैद पुल ओवर ख़ूब था!”

अनवर के दिमाग़ में इसी क़िस्म के मख़लूत ख़्यालात आते रहे, इस के बाद वो दूसरे कामों में मशग़ूल होगया।

दूसरे रोज़ बिमला न आई मगर अनवर ने उस की ग़ैर हाज़िरी को कुछ ज़्यादा महसूस न किया, बस सिर्फ़ इतना देखा कि वो लड़कीयों के झुरमुट में नहीं है........ शायद हो, लेकिन अगले रोज़ जब बिमला आई तो लड़कीयों ने उस से पूछा। “बिमला तुम कल क्यों न आईं।”

बिमला और ज़्यादा मुरझाई हुई थी, और ज़्यादा मुख़्तसर होगई थी जैसे किसी ने रन्दा फेर कर उस को हर तरफ़ से छोटा और पतला कर दिया है। उस का साँवला रंग अजब क़िस्म की दर्दनाक ज़रदी इख़्तियार कर गया था। लड़कियों का सवाल सुन कर उस ने अनवर की तरफ़ देखा जो गमलों में पानी दे रहा था और थैला खोल कर चारपाई पर बैठते हुए कहा। “कल पिता जी........ कल पिता जी बीमार थे।”

शमीम ने अफ़सोस ज़ाहिर किया और पूछा। “क्या तकलीफ़ थी उन्हें?”

बिमला ने अनवर की तरफ़ देखा। चूँकि वो उस को देख रहा था। इस लिए निगाहें दूसरी तरफ़ करलीं और कहा “तकलीफ़........ मालूम नहीं क्या तकलीफ़ थी” फिर थैले में हाथ डाल कर अपनी चीज़ें निकालीं। “मैं तो नहीं समझती।”

अनवर ने लौटा मुंडेर पर रखा और बिमला से मुख़ातब हुआ “किसी डाक्टर से मश्वरा लिया होता।”

बिमला ने अनवर को बड़ी तेज़ निगाहों से देखा। “उन का रोग डाक्टरों की समझ में नहीं आएगा।”

अनवर को ऐसा महसूस हुआ कि बिमला ने उस से ये कहा है। “उन का रोग तुम समझ सकते हो।” वो कुछ कहने ही वाला था कि सईदा की आवाज़ उस के कानों में आई। वो बिमला से कह रही थी। “ख़ालूजान के पास जाएं वो बहुत बड़े डाक्टर हैं। यूं चुटकियों में सब कुछ बता देंगे।”

सईदा ने चुटकी बजाई थी मगर बजी नहीं थी। अनवर ने उस से कहा “सईदा तुम से चुटकी कभी नहीं बजेगी। फ़ुज़ूल कोशिश न किया करो।”

सईदा शर्मा गई, आज का पुल ओवर स्याह था। अनवर ने सोचा। “कमबख़्त पर हर रंग खिलता है........ लेकिन कितने पुल ओवर हैं इस के पास?........ हरवक़त कोई न कोई बुनती ही रहती है। स्वेटरों और पुल ओवरों का ख़बत है........ इस से मेरी शादी हो जाये तो मज़े आजाऐं, पुल ओवर ही पल ओवर........ दोस्त यार ख़ूब जलें........ लेकिन ये बिमला क्यों आज राख की ढेर सी लगती है........ सईदा शर्मा गई थी........ ये शर्माना मुझे अच्छा नहीं लगता........ चुटकी बजाना सीख ले मुझ से........ मुझ से नहीं तो किसी और से........ लेकिन बेहतरीन चुटकी बजाने वाला हूँ।”

ये सब कुछ उस ने एक सैकिण्ड के अर्से में सोचा। सईदा ने कोई जवाब न दिया था। अनवर ने उस से कहा। “देखिए चुटकी यूं बजाया करते हैं।” और उस ने बड़े ज़ोर से चुटकी बजाई। इत्तिफ़ाक़न उस की निगाह बिमला पर पड़ी। उस के चेहरे पर मायूसी की मुर्दनी तारी थी। अनवर के दिल में हमदर्दी के जज़्बात उभर आए। “बिमला तुम पिता जी से कहो कि वो किसी अच्छे डाक्टर से ज़रूर मश्वरा लें........ उन के सिवा तुम्हारा और कौन है?”

ये सुन कर बिमला की आँखों में आँसू आगए। ज़ोर से दोनों होंट भींचे और इंतिहाई ज़ब्त के बावजूद ज़ार-ओ-क़तार रोती, बरसाती की तरफ़ दौड़ गई। सारी लड़कीयां काम छोड़कर उस की तरफ़ भागीं अनवर ने बरसाती में जाना मुनासिब न समझा और नीचे बैठक में चला गया। बिमला के बारे में उस ने सोचने की कोशिश की मगर इस के दिमाग़ ने उसकी रहबरी न की। वो बिमला के दुख दर्द का सही तजज़िया ना कर सका वो सिर्फ़ इतना सोच सका कि उस को सिर्फ़ इस बात का ग़म है कि उस की माँ ज़िंदा नहीं।

शाम को अनवर ने अपनी बहन से बिमला के बारे में पूछा तो उस ने कहा। “मालूम नहीं क्या दुख है बेचारी को........ अपने बाप का बार बार ज़िक्र करती थी कि उन को जाने क्या रोग है और बस!”

सईदा पास खड़ी थी। स्याह पुल ओवर पहने। उस की जीती जागती छातियां आबनूसी गोलों की सूरत में उस के सफ़ैद ननोन के दोपट्टे की पीछे बड़ा दिलकश तज़ाद पैदा कर रही थीं। ऐसा लगा था जैसे साया बटों पर उन की चमक छुपाने के लिए किसी मकड़ी ने महीन सा जाला बुन दिया है। अनवर बिमला को भूल गया और सईदा से बातें करने लगा। सईदा ने उस से कोई दिलचस्पी न ली और आपा शमीम को सलाम करके चली गई।

अनवर बैठक में कॉलिज का काम करने बैठा तो उसे बिमला का ख़्याल आया। “कैसी लड़की है?........ कुछ समझ में नहीं आता........ मेरे पट्टी बांधी........ अपना दुपट्टा फाड़ कर........ आज मैंने कहा, पिता जी के सिवा तुम्हारा कौन है तो इस लिए ज़ार-ओ-क़तार रोना शुरू कर दिया........ और जब मैं गमलों में पानी दे रहा था तो बिमला की इस बात से कि इन का रोग डाक्टरों की समझ में नहीं आएगा उस ने क्यों ये महसूस किया था कि बिमला ने इस के बजाय उस से ये कहा है, उन का रोग तुम समझ सकते हो........ लेकिन मैं कैसे समझ सकता हूँ........ क्या समझ सकता हूँ........ वो मुझे ठीक तौर पर समझाती क्यों नहीं, यानी अगर वो कुछ समझाना ही चाहती है........ मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आता........ जब उस ने मेरी तरफ़ देखा था तो उस की निगाहों में इतनी तेज़ी क्यों थी........ अब ख़्याल करता हूँ तो महसूस होता है जैसे वो मेरी ज़हानत-ओ-फ़िरासत पर लानत भेज रही थी........ लेकिन क्यों?........ हटाओ जी........ सईदा........ हाँ वो स्याह पुल ओवर........ सफ़ैद ननों का हवाई दुपट्टा.... और........ लेकिन मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए........ जाने किस का माल है........ ख़ैर कुछ भी हो। ख़ूबसूरत लड़की है। मगर इस पर ख़ूबसूरती ख़त्म तो नहीं होगई।”

अगले रोज़ बिमला न आई। अनवर के घर में सब मुतफ़क्किर थे। दुआएं करते थे कि ख़ुदा उस के बाप को उस के सर पर सलामत रखे। शमीम को बिमला बेहद पसंद थी। इस लिए कि वो ख़ामोशी पसंद और ज़हीन थी। बारीक से बारीक बात फ़ौरन समझ जाती थी, चुनांचे वो सारा दिन वक़्फ़ों के बाद उस को याद करती रही। अनवर की माँ ने तो अनवर से कहा कि “वो साईकल पर जाये और बिमला के बाप की ख़ैरीयत दरयाफ़्त करके आए।”

अनवर गया........ बिमला सागवान के चौड़े पलंग पर औंधी लेटी थी । सांस का उतार चढ़ाओ तेज़ था। अनवर ने हौले से पुकारा तो कोई रद्द-ए-अमल न हुआ। ज़रा बुलंद आवाज़ में कहा। “बिमला।” तो वो चोंकि करवट बदल कर उस ने अनवर को देखा। अनवर ने नमस्ते की। बिमला ने हाथ जोड़ कर उस का जवाब दिया। अनवर ने देखा कि बिमला की आँखें मैली थीं, जैसे वो रोती रही थी और उस ने अपने आँसू ख़ुशक नहीं किए थे।

पलंग पर से उठ कर उस ने अनवर को कुर्सी पेश की और ख़ुद फ़र्श पर बिछी हुई दरी पर बैठ गई। अनवर ने कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद “वहां सब को बहुत फ़िक्र थी........ पिता जी कहाँ हैं?”

बिमला के मुरझाए हुए होंट खुले और इस ने खोखली आवाज़ में सिर्फ़ इतना कहा “पिता........!”

अनवर ने पूछा। “तबीयत कैसी है उन की।”

“अच्छी है।” बिमला की आवाज़ उस की आवाज़ नहीं थी।

“तुम आज नहीं आएं तो सब को बड़ी तशवीश हुई.... अम्मी जान ने मुझ से कहा, साईकल पर जाओ और पता लेकर आओ........ लाला जी कहाँ हैं?”

“शतरंज खेलने गए हैं।”

“तुम आज क्यों नहीं आईं?”

“मैं?” ये कह कर बिमला रुक गई। थोड़े वक़फ़े के बाद बोली “मैं अब नहीं आसकूंगी,........ मुझे........ मुझे एक काम मिल गया है।”

अनवरने पूछा। “कैसा काम?”

बिमला ने एक आह भरी “कल ही मालूम हुआ है........ जाने क्या है।”

ये कहते हुए काँपी। “ठीक है, जो कुछ भी है ठीक है।” फिर वो जैसे अपने अंदर डूब गई।

कुछ देर ख़ामोशी रही। फिर अनवर ने उकता कर पूछा। “मैं उन से क्या कहूं?”

बिमला चोंकि, “क्या?”

अनवर ने अपने अल्फ़ाज़ दोहराए। “मैं उन से क्या कहूं?”

“और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं........ सब को नमस्ते!”

अनवर कुर्सी पर से उठा । हाथ जोड़ कर बिमला को नमस्ते की। बिमला ने इस का जवाब दिया मगर अनवर खड़ा रहा। बिमला, ख़ला में देख रही थी। थोड़ी देर के बाद अनवर उस से मुख़ातब हुआ। “बिमला........ मुझे ऐसा महसूस होता है कि........ मुझे ऐसा लगता है कि तुम ने मुझ से कई बार कुछ कहने की कोशिश की। मगर कह न सकीं........ मैं पूछ सकता हूँ।”

बिमला के होंटों पर एक ज़ख़्म-ख़ुरदा मुस्कुराहट नुमूदार हुई। अनवर अपनी बात मुकम्मल न कर सका, बिमला उठी। खिड़की के साथ लग कर उस ने नीचे बड़ी बदरु की तरफ़ देखा और अनवर से कहा। “जो मैं कह न सकी, तुम समझ न सके, अब कहने और समझने से बहुत परे चला गया है........ तुम जाओ, मैं सोना चाहती हूँ।”

अनवर चला गया........ बिमला फिर न आई।

क़रीबन दस महीने बाद अख़बारों में ये सनसनी फैलाने वाली ख़बर शाय हुई कि बी सड़क की बदरु में एक नौज़ाईदा बच्चा मरा हुआ पाया गया। तहक़ीक़ात की गईं तो मालूम हुआ कि बच्चा लाला हरी चरण स्कूल मास्टर की लड़की बिमला का था और बच्चे का बाप ख़ुद लाला हरी चरण था........ सब पर सकता छा गया।

अनवर ने सोचा तो सारी किताब का ख़ुलासा ये था।

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