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हमदम

हमदम

आशीष कुमार त्रिवेदी

हाथ में मोगरे का गजरा लिए हुए मैं पैंतालिस साल पीछे चला गया।

मेरी उम्र अभी बाइस साल ही थी। बैंक में नौकरी करते कुछ ही महीने हुए थे। जवानी के आकाश में मैंने पर फैलाने आरंभ ही किए थे कि माता पिता को यह डर सताने लगा कि मैं कहीं बहक ना जाऊँ। इसलिए उन्होंने मेरी शादी के लिए कोशिशें तेज़ कर दीं। जल्द ही उन्हें एक अच्छा रिश्ता भी मिल गया। उम्र में मुझसे दो साल छोटी जया से मेरा विवाह हो गया।

ऐसा नही था कि विवाह मेरी मर्ज़ी के बिना मुझ पर थोप दिया गया था। ना ही मेरा किसी से प्रेम संबंध था और ना ही विवाह से मुझे कोई परहेज़ था। हाँ यह अवश्य चाहता था कि घरवाले कुछ दिन ठहर जाते। लेकिन जो हुआ उसे मैंने भी स्वीकार कर लिया।

विवाह की पहली रात हम दोनों ही नर्वस थे। मैं पहली बार इस प्रकार किसी स्त्री के साथ था। बातचीत की पहल करने के लिए मैंने एक उपहार खरीदा था। मोगरे के फूलों का गजरा।

धीरे से मैंने वह गजरा जया को दे दिया। मुझे उम्मीद नही थी कि जया भी मुझे कुछ देगी। लेकिन मै गलत साबित हुआ। जया ने भी कागज़ में लिपटा एक तोहफा मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने देखा तो वह जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' थी। मुझे साहित्य में कोई खास दिलचस्पी नही थी। अब तक मैंने एक दो अंग्रेजी के जासूसी उपन्यास ही पढ़े थे।

कुछ दिनों के बाद जब हमारे बीच का अजनबीपन खत्म हो गया और हम बेझिझक एक दूसरे के साथ बात करने लगे। तब एक दिन मैंने जया से पूंछा।

"तुम्हें उपहार में 'कामायनी' देने का विचार कैसे आया।"

जया कुछ सकुचाते हुए बोली।

"दरअसल यह आइडिया मेरी सहेली का था।"

उसकी बात सुनकर मैं मुस्कुरा दिया। उसने भी पलटवार करते हुए कहा।

"आपको भी गजरा लाने की नेक सलाह किसने दी थी।"

मैं जैसे चोरी करते धर लिया गया। "वो मैंने सुना था कि लड़कियों को फूल अच्छे लगते हैं।"

वह कुछ क्षण मुझे देखती रही।

"मैंने फिल्मों में देखा था मुजरा सुनने वाले अपने हाथ में ऐसे गजरे बांधते हैं।"

अपनी बात कह कर वह ज़ोर से हंसने लगी। मैं कुछ खिसिया गया। पर इस प्रकार हंसते वह बहुत सुंदर लग रही थी। मैं उसकी हंसी में खो गया।

वह उन्मुक्त हंसी अभी भी मेरे कानों में गूंजती है। आज हमारी उस पहली रात की सालगिरह थी। उसी की याद में मैं गजरा लेकर आया था। मैंने जया के बाल संवारे और गजरा लगा दिया। मैंने उसे आइना दिखाया। एक उचटी सी नज़र डाल कर वह मुझे देखने लगी। उसकी आँखों में अपने लिए उदासीनता देख कर मेरा कलेजा कट गया।

नाश्ते के बाद मैं जया को उसकी दवाइयां खिला रहा था तभी मेरा फोन बज उठा। अमेरिका से बेटी की वीडियो कॉल थी। मैंने कॉल रिसीव की। दिन भर की मेहनत के बाद मनीषा थकी हुई लग रही थी।

"कैसे हैं पापा?"

"ठीक हूँ। तुम कैसी हो? चेहरा मुर्झाया सा लग रहा है।"

"ठीक हूँ पापा। आज काम ज्यादा था। इसलिए थक गई हूँ। मम्मी कैसी हैं?"

मैंने फोन जया के सामने कर दिया। वह कुछ क्षणों तक फोन में दिख रहे चेहरे को पहचानने का प्रयास करती रही।

"मम्मी मैं मनीषा। आज बहुत सुंदर लग रही हो तुम।" मनीषा ने उसकी मदद करनी चाही।

जया ने कुछ देर तक फोन को ताकने के बाद अपनी निगाहें हटा लीं। मैंने फोन अपने सामने कर लिया। मनीषा की आँखों में भर आए आसुओं को मैं साफ देख सकता था।

"घबराओ नही मम्मी ठीक हैं।"

"मुझे मम्मी से अधिक आपकी चिंता है पापा। अब इस उम्र में आपके लिए मम्मी की देखभाल कर पाना आसान नही है। आप पहले से बहुत कमज़ोर हो गए हैं।"

"मेरी फिक्र मत करो। मैं ठीक हूँ। बच्चे और संजय कैसे हैं।"

"पापा बात को टालिए नही। मैंने कितनी बार आपसे कहा है। आप मम्मी को लेकर यहाँ आ जाइए। हम सब मिल कर उनकी देखभाल कर लेंगे।"

"अब इस उम्र में खुद को नए परिवेश में ढालना भी कहाँ आसान होगा। तुम परेशान मत हो। अपनी गृहस्ती पर ध्यान दो। जया को लेकर डॉक्टर के पास जाना है। फोन रखता हूँ।"

"ठीक है पापा। अपना खयाल रखिएगा।"

कॉल कट गई। मैं सोफे पर लेट गया। मनीषा की बात सही थी। अब अकेले सब कुछ संभालना कठिन हो रहा था। एक बच्चे की तरह जया की देखभाल करनी पड़ती थी। कभी कभी मैं बहुत थक जाता था। अकेलापन मुझे अपनी गिरफ्त में ले चुका था। मेरी अपनी कोई ज़िंदगी नही बची थी। हर वक्त दिमाग में जया की चिंता रहती थी। उसे कुछ देर भी अकेला नही छोड़ सकता था। बहुत आवश्यक काम से कहीं जाना भी पड़े तो कामवाली की निगरानी में छोड़ कर जाता हूँ।

एक दिन जया की दवाइयां खत्म हो गई थीं। कामवाली से खयाल रखने को कह कर मैं दवाएं खरीदने गया था। दवाएं लेकर मैं लौट रहा था कि एक पुराने परिचित से भेंट हो गई। एक दूसरे का हालचाल जानने के बाद मैं फौरन घर वापस हो लिया।

जब घर पहुँचा तो देखा कि कामवाली घर के बाहर खड़ी फोन पर किसी से बात कर रही थी। मैं जैसे ही मैं भीतर घुसा गैस की गंध नथुनों में भर गई। मैं किचन की तरफ भागा। जया गैस के पास असमंजस की स्थिति में खड़ी थी। मैंने फौरन नॉब बंद कर दिया। जया को कमरे में बैठा कर मैंने सभी खिड़की दरवाज़े खोल दिए। सारी स्थिति जानकर कामवाली घबरा गई "वो साब गांव। से जरूरी फोन आ गया था। अंदर आवाज़ कट रही थी। इसलिए बाहर चली गई। मैं उसे क्या कहता। कुछ देर अपनी सफाई देने के बाद वह चली गई। जया निर्विकार भाव से बैठी थी। जैसे कुछ भी ना हुआ हो। अक्सर ऐसा होता था। जया कुछ करने लगती फिर बीच में ही भूल जाती। खाना खाते हुए उठ कर अचानक बाहर गार्डन में घूमने लगती थी। सो कर उठती तो उसे याद नही रहता कि अभी ही उठी है। दोबारा सोने चली जाती। अतः उस पर नज़र रखनी पड़ती थी कि कहीं ऐसा कुछ ना कर बैठे जिस से उसे नुकसान पहुँचे। इसी कारण से बाहरी दुनिया से मैं कट सा गया था।

जया मेरे सामने बिस्तर पर बैठी थी। मैं उसके चेहरे में उस पुरानी जया को तलाश रहा था। कहाँ खो गई वह जया जिसके साथ मैंने एक खुशहाल जीवन की नींव रखी थी। जो कितनी जिंदादिल थी। मुश्किल वक्त में भी मुस्कुराती थी। वही तो थी मेरे जीवन का संबल।

मेरी नौकरी के दिनों में एक बार कुछ गलतफहमी पैदा हो गई। बात मेरी प्रतिष्ठा पर आ गई थी। मैं टूट गया था। समझ नही आ रहा था कि कैसे खुद को बेगुनाह साबित करूँ। तब जया ने ही मेरी हिम्मत बंधाई थी "धैर्य रखिए। यह कठिन समय हिम्मत हारने का नही है। आप निर्दोष हैं यह सच्चाई कोई छिपा नही सकता।" उससे मिली ताकत से ही मैंने पूरी हिम्मत से अपना पक्ष रखा और जीत गया। आज मुझे फिर से उसी सहारे की ज़रूरत है लेकिन इस बीमारी ने जया को मुझसे दूर कर दिया है।

रिटायरमेंट के बाद हम कुछ दोस्तों ने अपना एक ग्रुप बनाया था। हर गुरूवार हम सब अपने पसंदीदा कैफ़े में इकठ्ठा होकर आपस में बातचीत हंसी मज़ाक करते थे। इस दौरान हमारी पत्नियां भी अपनी पसंद की जगह एकत्र हो कर गपशप करती थीं। इस तरह से अच्छे दिन कट रहे थे।

तीन साल पहले मैंने महसूस किया कि जया चीज़ें भूलने लगी है। जैसे गैस पर सब्ज़ी चढ़ा कर भूल जाती थी। फिर जब वह जल जाती तो उसे होश आता। ऐसा अक्सर होने लगा था। मैं परेशान था। मैंने उसे डॉक्टर को दिखाने की बात कही तो उसने हमेशा की तरह 'सब ठीक हो जाएगा' कहकर टाल दिया। लेकिन धीरे धीरे रोज़मर्रा के कामों में भी दिक्कत आने लगी। जैसे ब्रश में पेस्ट लगा कर वह यह नही समझ पाती कि ब्रश कैसे करे। लेकिन उस दिन नहाने के बाद जब वह कपड़े पहन कर आई तो मुझे खतरे का अलार्म सुनाई पड़ गया। उसने पेटीकोट पर मेरी कमीज़ पहन रखी थी।

मैंने उसे डॉक्टर को दिखाया। कुछ टेस्ट हुए। जया की परेशानी का कारण क्या है पता चल गया। उसे अल्ज़ाइमर्स की बीमारी थी। मुझे परेशान देख कर उसने पूंछा।

"मैं ठीक तो हो जाऊँगी।"

"हाँ बस समय पर दवा लेना होगा।" मैंने उसे तसल्ली दी।

लेकिन समय के साथ साथ स्थिति और बिगड़ गई। वह मुझसे ही नही खुद से भी दूर चली गईं। तीन साल से मैं अकेले ही उसकी देखभाल कर रहा हूँ। यार दोस्त भी अब कभी कभी ही फोन करते हैं। बेटी इतनी दूर है। उसकी भी अपनी मजबूरियां हैं। वह बुलाती तो है लेकिन वहाँ जाकर भी क्या फायदा। उसकी गृहस्ती में भी व्यवधान होगा। यह तो एक अंतहीन जंग है कोई कब तक साथ निभा सकता है। यह लड़ाई मेरी है। मुझे इसे रोज़ लड़ना है और जीतना है अपनी जया के लिए।

डॉक्टर के पास जाने का समय हो रहा था। मैंने जया को तैयार किया। उसकी पिछली रिपोर्ट की फाइल ली और जया को लेकर निकल गया।

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