आजाद-कथा - खंड 2 - 108 Munshi Premchand द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आजाद-कथा - खंड 2 - 108

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 108

दूसरे दिन आजाद यहाँ से रुखसत हो कर हुस्नआरा से मिलने चले। बात-बात पर बाँछें खिली जाती थीं। दिमाग सातवें आसमान पर था। आज खुदा ने वह दिन दिखाया कि रूस और रूम की मंजिल पूरी करके यार के कूचे में पहुँचे। कहाँ रूस, कहाँ हिंदोस्तान! कहाँ लड़ाई का मैदान, कहाँ हुस्नआरा का मकान! दोनों लेडियों ने उन्हें छेड़ना शुरू किया -

क्लारिसा - आज भला आजाद के दिमाग काहे को मिलेंगे।

मीडा - इस वक्त मारे खुशी के इन्हें बात करना भी मुश्किल है।

आजाद - बड़ी मुश्किल है। बोलूँ तो हँसवाऊँ, न बोलूँ तो आवाजें कसे जायँ।

क्लारिसा - क्या इसमें कुछ झूठ भी है? जिसके लिए दुनिया भर की खाक छानी, उससे मिलने का नशा हुआ ही चाहे।

एकाएक कमरे के बाहर से आवाज आई - भला रे गीदी, भला और जरा देर में मियाँ खोजी कमरे में दाखिल हुए।

क्लारिसा - आप इतने दिन तक कहाँ थे ख्वाजा साहब?

खोजी - था कहाँ, जहाँ जाता हूँ वहाँ लोग पीछे पड़ जाते हैं। इतनी दावतें खाईं कि क्या किसी ने खाई होंगी। एक-एक दिन में दो-दो सौ बुलावे आ जाते हैं। अगर न जाऊँ तो लोग कहें, गुरूर करता है। जाऊँ तो इतना वक्त कहाँ! इसी उधेड़-बुन में पड़ा रहा।

आजाद - अब कुछ हमारे भी काम आओ।

खोजी - और दौड़ा आया किस लिए हूँ। कहो, हुस्नआरा को खबर हुई या नहीं? न हुई हो तो पहुँचूँ। मुझसे ज्यादा इस काम के लायक और किसी को न पाओगे। मैं बड़े काम का आदमी हूँ।

आजाद - इसमें क्या शक है भाईजान! बेशक हो!

खोजी - तो फिर मैं चलूँ?

आजाद - नेकी और पूछ-पूछ?

खोजी जाने वाले ही थे कि एक आदमी होटल की तरफ आता दिखाई दिया। उसकी शक्ल-सूरत बिलकुल खोजी से मिलती थी। वही नाटा कद, वही काला रंग, वही नन्हे-नन्हे हाथ-पाँव। खोजी का बड़ा भाई मालूम होता था।

आजाद - वल्लाह, बिलकुल खोजी ही हैं।

मीडा - बस, इनको छिपाओ, उनको दिखाओ। उनको छिपाओ, इनको दिखाओ। जरा फर्क नहीं।

खोजी - तू कौन है बे? कहाँ चला आता है? कुछ बेधा तो नहीं है? तुझ जैसे मसखरों का यहाँ क्या काम?

मसखरा - कोई हमसे बदके देख ले। बड़ा मर्द हो तो आ जाय।

खोजी - क्या कहता है? बरस पड़ूँ?

मसखरा - जा, अपना काम कर। जो गरजता है, वह बरसता नहीं।

खोजी - बच्चा, तुम्हारी कजा मेरे ही हाथ से है।

मसखरा - माशे-भर का आदमी, बौनों के बराबर कद और चला है मुझे ललकारने!

खोजी - कोई है? लाना तो चंडू की निगाली। ले, आइए!

मसखरा - हम तो जहाँ खड़े थे, वहीं खड़े हैं, शेर कहीं हटा करते हें। जमे, तो जमे।

खोजी - कजा खेल रही है तेरी। मैं इसको क्या करूँ। अब जो कुछ कहना-सुनना हो, कह-सुन लो; थोड़ी देर में लाश फड़कती होगी।

मसखरा - जरी जबान सँभाले हुए हजरत! ऐसा न हो, मैं गरदन पर सवार हो जाऊँ।

होटल में जितने आदमी थे, उनको शिगूफा हाथ आया। सभी इन बौनों की कुश्ती देखने के लिए बेकरार थे। दोनों को चढ़ाने लगे।

एक - भई, हम सब तो ख्वाजा साहब की तरफ हैं।

दूसरा - हम भी। यह उससे कहीं तगड़े हैं।

तीसरा - कौन? कहीं हो न। इनमें और उसमें बीस और सोलह का फर्क है। बोलो, क्या - क्या बदते हो!

खोजी - जिसका रुपया फालतू हो, वह इसके हाथ पर बदे। जो कुछ बना कर घर ले जाना चाहे, वह हमारे हाथ पर बदे।

मसखरा - एक लपोटे में बोल जाइए तो सही। बात करते-करते पकड़ लाऊँ और चुटकी बजाते चित करूँ,( चुटकी बजा कर) यों-यों!

खोजी - मैं इतनी दूर नहीं लगाने का।

मसखरा - अरे चुप भी रह! यह मुँह खाय चौलाई! एक ऊँगली से वह पेंच बाँधूँ कि तड़पने लगे -

लिया जिसने हमारा नाम, मारा बेगुनाह उसको।

निशाँ जिसने बनाया, बस, वह तीरों का निशाना था।

आजाद - बढ़ गए ख्वाजा साहब, यह आपसे बढ़ गए। अब कोई फड़कता हुआ शेर कहिए तो इज्जत रहे।

खोजी - अजी, इससे अच्छा शेर लीजिए -

तड़पा कर जरा खंजर के तलेसिर अपना दिया शिकवा न किया,था पासे अदब जो कातिल कायह भी न हुआ वह भी न हुआ।

मसखरा - ले, अब आ।

खोजी - देख, तेरी कजा आ गई है।

मसखरा - जरा सामने आ। जमीन में सिर खोंस दूँगा।

खोजी - (ताल ठोक कर) अब भी कहा मान, न लड़।

मसखरा - या अली, मदद कर -

कब्र में जिनको न सोना था, सुलाया उनको,पर मुझे चर्ख सितमगर ने सोने न दिया।

आजाद - भई खोजी, शायरी में तुम बिलकुल दब गए।

खोजी जवाब देने ही वाले थे कि इतने में मसखरे ने उनकी गरदन में हाथ डाल दिया। करीब था कि जमीन पर दे पटके कि मियाँ खोजी सँभले और झल्ला के मसखरे की गरदन में दोनों हाथ डाल कर बोले - बस, अब तुम करे

मसखरा - आज तुझे जीता न छोड़ूँगा।

खोजी - देखो, हाथ टूटा तो नालिश कर दूँगा। कुश्ती में हाथा-पाई कैसी?

मसखरा - अपनी बुढ़िया को बुला लाओ। कोई लाश को रोनेवाली तो हो तुम्हारी!

खोजी - या तो कत्ल ही करेंगे या तो कत्ल होंगे।

मसखरा - और हम कत्ल ही करके छोड़ेंगे।

ख्वाजा साहब ने एक अंटी बताई तो मसखरा गिरा। साथ ही खोजी भी मुँह के बल जमीन पर आ रहे। अब न यह उठते हैं न वह। न वह इनकी गरदन छोड़ता है, न यह उसको छोड़ते हैं।

मसखरा - मार डाल, मगर गरदन न छोड़ूँगा।

खोजी - तू गरदन मरोड़ डाल, मगर मैं अधमरा करके छोड़ूँगा। हाय-हाय! गरदन गई! पसलियाँ चर-चर बोल रही हैं!

मसखरा - जो कुछ हो सो हो, कुछ परवा नहीं है।

खोजी - यहाँ किसको परवा है, कोई रोनेवाला भी नहीं है।

अब की खोजी ने गरदन छुड़ा ली; उधर मसखरा भी निकल भागा। दोनों अपनी-अपनी गरदन सहलाने लगे। यार लोगों ने फिर फिकरे चुस्त किए। भई, हम तो खोजी के दम के कायल हैं।

दूसरा बोला - वाह! अगर कच्ची आध घड़ी और कुश्ती रहती तो वह मार लेता।

तीसरे ने कहा - अच्छा, फिर अब की सही। किसी का दम थोड़े टूटा है।

यार लोग तो उनको तैयार करते थे, मगर उनमें दम न था। आधा घंटे तक दोनों हाँफा किए, मगर जबान चली जाती थी।

खोजी - जरा और देर होती तो फिर दिल्लगी देखते।

मसखरा - हाँ, बेशक।

खोजी - तकदीर थी, बच गए, वरना मुँह बिगाड़ देता।

मसखरा - अब तुम इस फिक्र में हो कि मैं फिर उठूँ।

आजाद - हुजूर, मैं बे नीचा दिखाए न मानूँगा।

खोजी - (मसखरे की गरदन पकड़ कर) आओ, दिखाओ नीचा।

मसखरा - अबे, तू गरदन तो छोड़ गरदन छोड़ दे हमारी।

खोजी - अब ही हमारा दाँव है!

मसखरा -(थप्पड़ लगा कर) एक-दो।

खोजी - (चपत दे कर) तीन।

फिकरेबाज - सौ तक गिन जाओ यों ही। हाँ, पाँच हुई।

दूसरा - ऐसे-ऐसे जवान और पाँच ही तक गिनके रह गए?

खोजी - (चपत दे कर) छह-छह और नहीं तो। लोग बड़ी देर से छह का इंतजार कर रहे थे।

अब की वह घमासान लड़ाई हुई कि दोनों बेदम हो कर गिर पड़े और रोने लगे।

खोजी - अब मौत करीब है। भई आजाद, हमारी कब्र किसी पोस्ते के खत के करीब बनवाना।

मसखरा - और हमारी कब्र शाहफसीह के तकिए में बनवाई जाय जहाँ हमारे वालिद ख्वाजा वलीग दफन हैं।

खोजी - कौन-कौन? इनके वालिद का क्या नाम था?

आजाद - ख्वाजा वलीग कहते हैं।

खोजी - (रो कर) अरे भाई, हमें पहचाना? मगर हमारी-तुम्हारी यों ही बदी थी।

मसखरे ने जो इनका नाम सुना तो सिर पीट लिया - भई क्या गजब हुआ! सगा भाई सगे भाई को मारे?

दोनों भाई गले मिल कर रोए। बड़े भाई ने अपना नाम मियाँ रईस बतलाया। बोले - बेटा, तुम मुझसे कोई बीस बरस छोटे हो। तुमने वालिद को अच्छी तरह से नहीं देखा था। बड़ी खूबियों के आदमी थे। हमको रोज दुकान पर ले जाया करते थे?

आजाद - काहे की दुकान थी हजरत?

रईस - जी, टाल थी। लकड़ियाँ बेचते थे।

खोजी ने भाई की तरफ घूर कर देखा।

रईस - कुछ दिन कपू में साहब लोगों के यहाँ खानसामा रहे थे। खोजी ने भाई की तरफ देख कर दाँत पीसा।

आजाद - बस हजरत, कलई खुल गई। अब्बाजान खानसामा थे और आप रईस बनते हैं।

आजाद चले गए तो दोनों भाइयों में खूब तकरार हुई। मगर थोड़ी ही देर में मेल हो गया और दोनों भाई साथ-साथ शहर की सैर को गए। इधर-उधर मटर-गस्त करके मियाँ रईस तो अपने अड्डे पर गए और खोजी हुस्नआरा बेगम के मकान पर जा पहुँचे। बूढ़े मियाँ बैठे हुक्का पी रहे थे।

खोजी - आदाब अर्ज है। पहचाना या भूल गए?

बूढ़े मियाँ - आप तो कुछ अजीब पागल मालूम होते हैं। जान न पहचान; त्योरियाँ बदलने लगे।

खोजी - अजी, हम तो सुनाएँ बादशाह को, तुम क्या माल हो।

बूढ़े मियाँ - अपने होश में हो या नहीं?

खोजी - कोई महलसरा में हुस्नआरा बेगम को इत्तला दो कि मुसाफिर आए हैं।

बूढ़े मियाँ - (खड़े हो कर) अख्खाह! ख्वाजा साहब तो नहीं हैं आप! माफ कीजिएगा। आइए गले मिल लें।

बूढ़े मियाँ ने आदमी को हुक्म दिया कि हुक्का भर दो, और अंदर जा कर बोले - लो साहब, खोजी दाखिल हो गए।

चारों बहनें बाग में गईं और चिक की आड़ से खोजी को देखने लगी।

नाजुक अदा - ओ-हो-हो! कैसा ग्रांडील जवान है!

जानी - अल्लाह जानता है, ऐसा जवान नहीं देखने में आया था। ऊँट की तो कोई कल शायद दुरुस्त भी हो, इसकी कोई कल दुरुस्त नहीं। हँसी आती है।

खोजी - इधर-उधर देखने लगे कि यह आवाज कहाँ से आती है। इतने में बूढ़े मियाँ आ गए।

खोजी - हजरत, इस मकान की अजब खासियत है।

बूढ़े मियाँ - क्या-क्या? इस मकान में कोई नई बात आपने देखी है?

खोजी - आवाजें आती हैं। मैं बैठा हुआ था, एक आवाज आई, फिर दूसरी आवाज आई।

बूढ़े मियाँ - आप क्या फरमाते हैं, हमने तो कोई बात ऐसी नहीं देखी।

जानी बेगम की रग-रग में शोखी भरी हुई थी। खोजी को बनाने की एक तरकीब सूझी। बोलीं - एक बात हमें सूझी है। अभी हम किसी से कहेंगे नहीं।

बहार बेगम - हमसे तो कह दो।

जानी ने बहार बेगम के कान में आहिस्ता से कुछ कहा।

बहार - क्या हरज है, बूढ़ा ही तो है।

सिपहआरा - आखिर कुछ कहो तो बाजीजान! हमसे कहने में कुछ हरज है?

बहार - जानी बेगम कह दें तो बता दूँ।

जानी - नहीं, किसे से न कहो।

जानी बेगम और बहार बेगम दोनों उठ कर दूसरे कमरे में चली गईं। यहाँ इन सबाके हैरत हो रही थीं कि या खुदा! इन सबों को कौन तरकीब सूझी है, जो इतना छिपा रही हैं। अपनी-अपनी अक्ल दौड़ाने लगीं।

नाजुक - हम समझ गए। अफीमी आदमी है। उसकी डिबिया चुराने की फिक्र होगी।

हुस्नआरा - यह बात नहीं, इसमें चोरी क्या थी?

इतने में बहार बेगम ने आ कर कहा - चलो, बाग में चल कर बैठें। ख्वाजा साहब पहले ही से बाग में बैठे हुए थे। एकाएक क्या देखते हैं कि एक गभरू जवान सामने से ऐंठता-अकड़ता चला आता है। अभी मसें भी नहीं भीगीं। जालीलोट का कुरता, उस पर शरबती कटावदार अँगरखा, सिर पर बाँकी पगिया और हाथ में कटार।

हुस्नआरा - यह कौन है अल्लाह? जरा पूछना तो।

सिपहआरा - ओफ्फोह! बाजीजान, पहचानो तो भला।

हुस्नआरा - अरे! बड़ा धोखा दिया।

नाजक - सचमुच! बेशक बड़ा धोखा दिया! ओफ्फोह!

सिपहआरा - मैं तो पहले समझी ही न थी कुछ।

इतने में वह जवान खोजी के करीब आया और यह चकराए कि इस बाग में इसका गुजर कैसे हुआ। उसकी तरफ ताक ही रहे थे कि बहार बेगम ने गुल मचा कर कहा - ऐ! यह कौन मरदुआ बाग में आ गया। ख्वाजा साहब, तुम बैठे देख रहे हो और यह लौंडा भीतर चला आता है! इसे निकाल क्यों नहीं देते हैं?

खोजी - अजी हजरत, आखिर आप कौन साहब हैं? पराए जनाने में घुसे जाते हो, यह माजरा क्या है?

जवान - कुछ तुम्हारी शामत तो नहीं आई है? चुपचाप बैठे रहो।

खोजी - सुनिए साहब, हम और आप दोनों एक ही पेशे के आदमी हैं।

जवान - (बात काट कर) हमने कह दिया, चुप रहो, वरना अभी सिर उड़ा दूँगा। हम हुस्नआरा बेगम के आशिक हैं। सुना है कि आजाद यहाँ आए हैं; और हुस्नआरा के पास निकाह का पैगाम भेजनेवाले हैं। बस,अब यही धुन है कि उनसे दो-दो हाथ चल जाय।

खोजी - आजाद का मुकाबिला तुम क्या खा कर करोगे। उसने लड़ाइयाँ सर की हैं। तुम अभी लौंडे हो।

जवान - तू भी तो उन्हीं का साथी है। क्यों न पहले तेरा ही काम तमाम कर दूँ।

खोजी - (पैंतरे बदल कर) हम किसी से दबनेवाले नहीं हैं।

जवान - आज ही का दिन तेरी मौत का था।

खोजी - (पीछे हट कर) अभी किसी मर्द से पाला नहीं पड़ा है।

जवान - क्यों नाहक गुस्सा दिलाता है। अच्छा, ले सँभल।

जवान ने तलवार घुमाई तो खोजी घबरा कर पीछे हटे और गिर पड़े। बस करौली की याद करने लगे। औरतें तालियाँ बजा-बजा कर हँसने लगीं।

जवान - बस, इसी बिरते पर भूला था?

खोजी - अजी, मैं अपने जोम में आप आ रहा। अभी उठूँ तो कयामत बरपा कर दूँ।

जवान - जा कर आजाद से कहना कि होशियार रहें।

खोजी - बहुतों का अरमान निकल गया। उनकी सूरत देख लो, तो बुखार आ जाय।

जवान - अच्छा, कल देखूँगा।

यह कह कर उसने बहार बेगम का हाथ पकड़ा और बेधड़क कोठे पर चढ़ गया। चारों बहनें भी उसके पीछे-पीछे ऊपर चली गईं।

खोजी यहाँ से चले तो दिल में सोचते जाते थे कि आजाद से चल कर कहता हूँ, हुस्नआरा के एक और चाहने वाले पैदा हुए हैं। कदम-कदम पर हाँक लगाते थे, घडी दो में मुरलिया बाजेगी। इत्तफाक से रास्ते में उसी होटल का खानसामा मिल गया, जहाँ आजाद ठहरे थे। बोला - अरे भाई! इस वक्त कहाँ लपके हुए जाते हो? खैर तो है? आज तो आप गरीबों से बात ही नहीं करते।

खोजी - घड़ी दो में मुरलिया बाजेगी।

खानसामा - भई वाह! सारी दुनिया घूम आए, मगर कैंडा वही है। हम समझे थे कि आदमी बन कर आए होंगे।

खोजी - तुम जैसों से बातें करना हमारी शान के खिलाफ है।

खानसामा - हम देखते हैं, वहाँ से तुम और भी गाउदी हो कर आए हो।

थोड़ी देर में आप गिरते-पड़ते होटल में दाखिल हुए और आजाद को देखते ही मुँह बना कर सामने खड़े हो गए।

आजाद - क्या खबरें लाए?

खोजी - (करौली को दाएँ हाथ से बाएँ हाथ में ले कर) हूँ!!!

आजाद - अरे भाई, गए थे वहाँ?

खोजी - (करौली को बाएँ हाथ से दाएँ हाथ में ले कर) हूँ!!

आजाद - अरे, कुछ मुँह से बोलो भी तो मियाँ!

खोजी - घड़ी दो में मुरलिया बाजेगी।

आजाद - क्या? कुछ सनक तो नहीं गए! मैं पूछता हूँ, हुस्नआरा बेगम के यहाँ गए थे? किसी से मुलाकात हुई? क्या रंग-ढंग है।

खोजी - वहाँ नहीं गए थे तो क्या जहन्नुम में गए थे? मगर कुछ दाल में काला है।

आजाद - भाई साहब, हम नहीं समझे। साफ-साफ कहो, क्या बात हुई? क्यों उलझन में डालते हो।

खोजी - अब वहाँ आपकी दाल नहीं गलने की।

आजाद - क्या? कैसी दाल? यह बकते क्या हो?

खोजी - बकता नहीं, सच कहता हूँ।

आजाद - खोजी, अगर साफ-साफ न बयान करोगे तो इस वक्त बुरी ठहरेगी।

खोजी - उलटे मुझी को डाँटते हो। मैंने क्या बिगाड़ा?

आजाद - वहाँ का मुफस्सल हाल क्यों नहीं बयान करते?

खोजी - तो जनाब, साफ-साफ यह है कि हुस्नआरा बेगम के एक और चाहने वाले पैदा हुए हैं। हुस्नआरा बेगम और उनकी बहनें बाग के बँगले में बैठी थीं कि एक जवान अंदर आ पहुँचा और मुझे देखते ही गुस्से से लाल हो गया।

आजाद - कोई खूबसूरत आदमी है?

खोजी - निहायत हसीन, और कमसिन।

आजाद - इसमें कुछ भेद है जरूर। तुम्हें उल्लू बनाने के लिए शायद दिल्लगी की हो। मगर हमें इसका यकीन नहीं आता।

खोजी - यकीन तो हमें भी मरते दम तक नहीं आता, मगर वहाँ तो उसे देखते ही कहकहे पड़ने लगे।

अब उधर का हाल सुनिए। सिपहआरा ने कहा - अब दिल्लगी हो कि वह जा कर आजाद से सारा किस्सा कहे।

हुस्नआरा - आजाद ऐसे कच्चे नहीं हैं।

सिपहआरा - खुदा जाने, वह सिड़ी वहाँ जा कर क्या बके। आजाद को चाहे पहले यकीन न आए, लेकिन जब वह कसमें खा कर कहने लगेगा तो उनको जरूर शक हो जायगा।

हुस्नआरा - हाँ, शक हो सकता है, मगर क्या क्या जाय। क्यों न किसी को भेज कर खोजी को होटल से बुलवाओ। जो आदमी बुलाने जाय वह हँसी-हँसी में आजाद से यह बात कह दे।

हुस्नआरा की सलाह से बूढ़े मियाँ आजाद के पास पहुँचे, और बड़े तपाक से मिलने के बाद बोले - वह आपके मियाँ खोजी कहाँ हैं? जरा उनको बुलवाइए।

आजाद - आपके यहाँ से जो अये तो गुस्से में भरे हुए। अब मुझसे बात ही नहीं करते।

बूढ़े मियाँ - वह तो आज खूब ही बनाए गए।

बूढ़े मियाँ ने सारा किस्सा बयान कर दिया। आजाद सुन कर खूब हँसे और खोजी को बुला कर उनके सामने ही बूढ़े मियाँ से बोले - क्यों साहब, आपके यहाँ क्या दस्तूर है कि कटारबाजों को बुला-बुला कर शरीफों से भिड़वाते हें।

बूढ़े मियाँ - ख्वाजा साहब को आज खुदा ही ने बचाया।

आजाद- मगर यह तो हमसे कहते थे कि वह जवान बहुत दुबला-पतला आदमी है। इनसे-उससे अगर चलती तो यह उनको जरूर नीचा दिखाते।

खोजी - अजी, कैसा नीचा दिखाना? वह तलवार चलाना क्या जाने!

आजाद - आज उसको बुलवाइए, तो इनसे मुकाबिला हो जाय।

खोजी - हमारे नजदीक उसको बुलवाना फजूल है। मुफ्त की ठाँय-ठाँय से क्या फायदा। हाँ, अगर आप लोग उस बेचारे की जान के दुश्मन हुए हैं तो बुलवा लीजिए।

यह बातें हो ही रही थीं कि बैरा ने आ कर कहा - हुजूर, एक गाड़ी पर औरतें आई हैं। एक खिदमतगार ने जो गाड़ी के साथ है, हुजूर का नाम लिया और कहा कि जरा यहाँ तक चले आएँ।

आजाद को हैरत हुई कि औरतें कहाँ से आ गईं! खोजी को भेजा कि जा कर देखो। खोजी अकड़ते हुए सामने पहुँचे, मगर गाड़ी से दस कदम अलग।

खिदमतगार - हजरत, जरी सामने यहाँ तक आइए।

खोजी - ओ गीदी, खबरदार जो बोला!

खिदमतगार - ऐं! कुछ सनक गए हो क्या?

बैरा - गाड़ी के पास के नहीं जो भई! दूर क्यों खड़े हो?

खोजी - (करौली तौल कर) बस खबरदार!

बैरा - ऐं! तुमको हुआ क्या है? जाते क्यों नहीं सामने?

खोजी - चुप रहो जी। जानो न बूझो, आए वहाँ से। क्या मेरी जान फालतू है, जो गाड़ी के सामने जाऊँ?

इत्तफाक से आजाद ने उनकी बेतुकी हाँक सुन ली। फौरन बाहर आए कि कहीं किसी से लड़ न पड़ें। खोली से पूछा - क्यों साहब, यह आप किस पर बिगड़ रहे हैं? जवाब नदारद। वहाँ से झपट कर आजाद के पास आए और करोली घुमाते हुए पैतरे बदलने लगे।

आजाद - कुछ मुँह से तो कहो। खुद भी जलील होते हो और मुझे भी जलील करते हो।

खोजी - (गाड़ी की तरफ इशारा करके) अब क्या होगा?

खिदमतगार - हुजूर, इन्होंने आते ही पैतरा बदला, और यह काठ का खिलौना नचाना शुरू किया। न मेरी सुनते हैं, न अपनी कहते हैं।

खोजी - (आजाद के कान में) मियाँ, इस गाड़ी में औरतें नहीं है। वही लौंडा तुमसे लड़ने आया होगा।

आजाद - यह कहिए, आपके दिल में वह बात जमी हुई थी। आप मेरे साथ बहुत हमदर्दी न कीजिए, अलग जाके बैठिए।

मगर खोजी के दिल में खुप गई थी कि इस गाड़ी में वही जवान छिपके आया है। उन्होंने रोना शुरू किया। अब आजाद लाख-लाख समझाते हैं कि देखो, होटल के और मुसाफिरों को बुरा मालूम होगा, मगर खोजी चुप ही नहीं होते। आखिर आपने कहा - जो लोग इस पर सवार हों, वह उतर आएँ। पहले में देख लूँ, फिर आप जायँ। आजाद ने खिदमतगार से कहा - भाई, अगर वह लोग मंजूर करें तो यह बूढ़ा आदमी झाँक कर देख ले। इस सिड़ी को शक हुआ है कि इसमें कोई और बैठा है। खिदमतगार ने जा कर पूछा, और बोला - सरकार कहती हैं, हाँ, मंजूर है। चलिए, मगर दूर ही से झाँकिएगा।

खोजी - (सबसे रुखसत हो कर) लो यारो, अब आखिरी सलाम है। आजाद खुदा तुमको दोनों जहान में सुर्खरू रखे।

छुटता है मुकाम, कूच करता हूँ मैं,

रुखसत ऐ जिंदगी कि मरता हूँ मैं।

अल्लाह से लौ लगी हुई है मेरी;

ऊपर के दम इस वास्ते भरता हूँ।

खिदमतगार - अब आखिर मरने तो जाते ही हो, जरा कदम बढ़ाते न चलो। जैसे अब मरे, वैसे आध घड़ी के बाद।

आजाद - क्यों मुरदे को छेड़ते हो जी।

बग्घी से हँसी की आवाजें आ रही थीं। खोजी आँखों में आँसू भरे चले आ रहे थे कि उनके भाई नजर पड़े। उनको देखते ही खोजी ने हाँक लगाई - आइए भाई साहब! आखिरी वक्त आपसे खूब मुलाकात हुई।

रईस - खैर तो है भाई! क्या अकेले ही चले जाओगे? मुझे किसके भरोसे छोड़े जाते हो?

खोजी भाई के गले मिल कर रोने लगे। जब दोनों गले मिल कर खूब रो चुके तो खोजी ने गाड़ी के पास जा कर खिदमतगार से कहा - खोल दे। ज्यों ही गरदन अंदर डाली तो देखा, दो औरतें बैठी हैं। इनका सिर ज्यों ही अंदर पहुँचा, उन्होंने इनकी पगड़ी उतार कर दो चपतें लगा दीं। खोजी की जान में जान आई। हँस दिए। आ कर आजाद से बोले - अब आप जायँ, कुछ मुजायका नहीं है। आजाद ने होटल के आदमियों को वहाँ से हटा दिया और उन औरतों से बातें करने लगे।

आजाद - आप कौन साहब हैं?

बग्घी में से आवाज आई - आदमी हैं साहब! सुना कि आप आए हैं, तो देखने चले आए। इस तरह मिलना बुरा तो जरूर है; मगर दिल ने न माना।

आजाद - जब इतनी इनायत की है तो अब नकाब दूर कीजिए और मेरे कमरे तक आइए।

आवाज - अच्छा, पेट से पाँव निकले! हाथ देते ही पहुँचा पकड़ लिया।

आजाद - अगर आप न आयँगी तो मेरी दिलशिकनी होगी। इतना समझ लीजिए।

आवाज - ऐ, हाँ! खूब याद आया। वह जो दो लेडियाँ आपके साथ आई हैं, वह कहाँ हैं? परदा करा दो तो हम उनसे मिल लें।

आजाद - बहुत अच्छा, लेकिन मैं रहूँ या न रहूँ?

आवाज - आप से क्या परदा है।

आजाद ने परदा करा दिया। दोनों औरतें गाड़ी से उतर पड़ीं और कमरे में आईं। मिसों ने उनसे हाथ मिलाया; मगर बातें क्या होतीं। मिसें उर्दू क्या जानें और बेगमों को फ्रांसीसी जबान से क्या मतलब। कुछ देर तक वहाँ बैठे रहने के बाद, उनमें से एक ने, जो बहुत ही हसीन और शोख थी; आजाद से कहा - भई, यहाँ बैठे-बैठे तो दम घुटता है। अगर परदा हो सके तो चलिए, बाग की सैर करें।

आजाद - यहाँ तो ऐसा कोई बाग नहीं। मुझे याद नहीं आता कि आपसे पहले कब मुलाकात हुई।

हसीना ने आँखों में आँसू भर कर कहा - हाँ साहब, आपको क्यों याद आएगा। आप हम गरीबों को क्यों याद करने लगे। क्या यहाँ कोई ऐसी जगह भी नहीं, जहाँ कोई गैर न हो। यहाँ तो कुछ कहते-सुनते नहीं बनता। चलिए, किसी दूसरे कमरे में चलें।

आजाद को एक अजनबी औरत के साथ दूसरे कमरे में जाते शर्म तो आती थी, मगर यह समझ कर कि इसे शायद कोई परदे की बात कहनी होगी, उसे दूसरे कमरे में ले गए और पूछा- मुझे आपका हाल सुनने की बड़ी तमन्ना है। जहाँ तक मुझे याद आता है, मैंने आपको कभी नहीं देखा है। आपने मुझे कहाँ देखा था?

औरत - खुदा की कसम, बड़े बेवफा हो। (आजाद के गले में हाथ डाल कर) अब भी याद नहीं आता! वाह से हम!

आजाद - तुम मुझे बेवफा चाहे कह लो; पर मेरी याद इस वक्त धोखा दे रही है।

औरत - हाय अफसोस! ऐसा जालिम नहीं देखा -

न क्योंकर दम निकल जाए कि याद आता है रह-रह कर;

वह तेरा मुसकिराना कुछ मुझे ओठों में कह-कह कर।

आजाद - मेरी समझ ही में नहीं आता कि यह क्या माजरा है।

औरत - दिल छीन के बातें बनाते हो? इतना भी नहीं होता कि एक बोसा तो ले लो।

आजाद - यह मेरी आदत नहीं।

औरत - हाय! दिल सा घर तूने गारत कर दिया, और अब कहता है, यह मेरी आदत नहीं।

आजाद - अब मुझे फुरसत नहीं है, फिर किसी रोज आइएगा।

औरत - अच्छा, अब कब मिलोगे?

आजाद - अब आप तकलीफ न कीजिएगा।

यह कहते हुए आजाद उस कमरे से निकल आए। उनके पीछे-पीछे वह औरत भी बाहर निकली। दोनों लेडियों ने उसे देखा तो कट गईं। उसके बाल बिखरे हुए थे, चोली मसकी हुई। उस औरत ने आते ही आते आजाद को कोसना शुरू किया - तुम लोग गवाह रहना। यह मुझे अलग कमरे में ले गए और एक घंटे के बाद मुझे छोड़ा। मेरी जो हालत है, आप लोग देख रही हैं।

आजाद - खैरियत इसी में है कि अब आप जाइए।

औरत - अब मैं जाऊँ! अब किसी होके रहूँ?

क्लारिसा - (फ्रांसीसी में) यह क्या माजरा है आजाद?

आजाद - कोई छँटी हुई औरत है।

आजाद के तो होश उड़े हुए थे कि अच्छे घर बयाना दिया और वह चमक कर यही कहती थी - अच्छा, तुम्हीं कसम खाओ कि तुम मेरे साथ अकेले कमरे में थे या नहीं?

आजाद - अब जलील हो कर यहाँ से जाओगी तुम। अजब मुसीबत में जान पड़ी है।

औरत - ऐ है, अब मुसीबत याद आई! पहले क्या समझे थे?

आजाद - बस, अब ज्यादा न बढ़ना।

औरत - गाड़ीवान से कहो, गाड़ी बरामदे में लाए।

आजाद - हाँ, खुदा के लिए तुम यहाँ से जाओ।

औरत - जाती तो हूँ, मगर देखो तो क्या होता है!

जब गाड़ी रवाना हुई तो खोजी ने अंदर आ कर पूछा - इनसे तुम्हारी कब की जान-पहचान थी?

आजाद - अरे भाई, आज तो गजब हो गया।

खोजी - मना तो करता था कि इनसे दूर रहो, मगर आप सुनते किसकी हैं।

आजाद - झूठ बकते हो। तुमने तो कहा था कि आप जायँ, कुछ मुजायका नहीं है; और अब निकले जाते हो।

खोजी - अच्छा साहब, मुझी से गलती हुई। मैंने गाड़ीवान को चकमा दे कर सारा हाल मालूम कर लिया। यह दोनों कुंदन की छोकरियाँ हैं। अब यह सारे शहर में मशहूर करेंगी कि आजाद का हमसे निकाह होने वाला है।

आजाद - इस वक्त हमें बड़ी उलझन है भाई! कोई तदबीर सोचो।

खोजी - तदबीर तो यही हैं कि मैं कुंदन के पास जाऊँ और उसे समझा-बुझा कर ढर्रे पर ले आऊँ।

आजाद - तो फिर देर न कीजिए। उम्र भर आपका एहसान मानूँगा।

खोजी - तो इधर रवाना हुए। अब आजाद ने दोनों लेडियों की तरफ देखा तो दोनों के चेहरे गुस्से से तमतमाए हुए थे। क्लारिसा एक नाविल पढ़ रही थी और मीडा सिर झुकाए हुए थी। उन दोनों को यकीन हो गया था कि औरत या तो आजाद की ब्याहता बीवी है या आशना। अगर जान-पहचान न होती तो उस कमरे में जा कर बैठने की दोनों में से एक को भी हिम्मत न होती। थोड़ी देर तक बिलकुल सन्नाटा रहा, आखिर आजाद ने खुद ही अपनी सफाई देनी शुरू की। बोले किसी ने सच कहा है, 'कर तो डर, न कर तो डर'; मैंने इस औरत की आज तक सूरत भी न देखी थी। समझा कि कोई शरीफजादी मुझसे मिलने आई होगी। मगर ऐसी मक्कार और बेशर्म औरत मेरी नजर से नहीं गुजरी।

दोनों लेडियों ने इसका कुछ जवाब न दिया। उन्होंने समझा कि आजाद हमें चकमा दे रहे हैं। अब तो आजाद के रहे-सहे हवास भी गायब हो गए। कुछ देर तक तो जब्त किया मगर न रहा गया। बोले - मिस मीडा, तुमने इस मुल्क की मक्कार औरतें अभी नहीं देखीं।

मीडा - मुझे इन बातों से क्या सरोकार है।

आजाद - उसकी शरारत देखी?

मीडा - मेरा ध्यान उस वक्त उधर न था।

आजाद - मिस क्लारिसा, तुम कुछ समझीं या नहीं।

क्लारिसा - मैंने कुछ खयाल नहीं किया।

आजाद - मुझ सा अहमक भी कम होगा। सारी दुनिया से आ कर यहाँ चरका खा गया।

मीडा - अपने किए का क्या इलाज, जैसा किया, वैसा भुगतो।

आजाद - हाँ, यही तो मैं चाहता था कि कुछ कहो तो सही। मीडा, सच कहता हूँ, जो कभी पहले इसकी सूरत भी देखी हो। मगर इसने वह दाँव-पेंच किया कि बिलकुल अहमक बन गए।

मीडा - अगर ऐसा था तो उसे अलग कमरे में क्यों ले गए?

आजाद - इसी गलती का तो रोना है। मैं क्या जानता था कि वह यह रंग लाएगी।

मीडा - यह तो जो कुछ हुआ सो हुआ। अब आगे के लिए क्या फिक्र की है? उसकी बाचतीत से मालूम होता था कि वह जरूर नालिश करेगी।

आजाद - इसी का तो मुझे भी खौफ है। खोजी को भेजा है कि जा कर उसे धमकाएँ। देखो, क्या करके आते हैं।

उधर खोजी गिरते-पड़ते कुंदन के घर पहुँचे, तो दो-तीन औरतों को कुछ बाते करते सुना। कान लगा कर सुनने लगे।

'बेटा, तुम तो समझती ही नहीं हो; बदनामी कितनी बड़ी है।'

'तो अम्माँ जान, बदनामी का ऐसा ही डर हो तो सभी न दब जाया करें?'

'दबते ही हैं। उस फौजी अफसर से नहीं खड़े-खड़े गिनवा लिए!'

'अच्छा अम्माँजान, तुम्हें अख्तियार है; मगर नतीजा अच्छा न होगा।'

खोजी से अब न रहा गया। झल्ला कर बोले - ओ गीदी, निकल तो आ। देख तो कितनी करौलियाँ भोंकता हूँ। बढ़-बढ़के बातें बनाती हैं? नालिश करेगी, और बदनाम करेगी।

कुंदन ने यह आवाज सुनी तो खिड़की से झाँका। देखा, तो एक ठिंगना सा आदमी पैतरे बदल रहा है। महरी से कहा कि दरवाजा खोल कर बुला लो। महरी ने आ कर कहा - कौन साहब हैं? आइए।

खोजी अकड़ते हुए अंदर गए और एक मोढ़े पर बैठे। बैठना ही था कि सिर नीचे और टाँगें ऊपर! औरतें हँसने लगीं। खैर, आप सँभल कर दूसरे मोढ़े पर बैठे और कुछ बोलना ही चाहते थे कि कुंदन सामने आई और आते ही खोजी को एक धक्का दे कर बोली - चूल्हे में जाय ऐसा मियाँ। बरसों के बाद आज सूरत दिखाई तो भेस बदल कर आया। निगोड़े, तेरा जनाजा निकले। तू अब तक था कहाँ?

खोजी - यह दिल्लगी हमको पसंद नहीं।

कुंदन - (धप लगा कर) तो शादी क्या समझ कर की थी?

शादी का नाम सुन कर खोजी की बाँछें खिल गईं। समझे कि मुफ्त में औरत हाथ आई। बोले - तो शादी इसलिए की थी कि जूतियाँ खायँ?

कुंदन - आखिर, तू इतने दिन था कहाँ? ला, क्या कमा कर लाया है।

यह कह कर कुंदन ने उनकी जेब टटोली तो तीन रुपए और कुछ पैसे निकले। वह निकाल लिए। वह बेचारे हाँ-हाँ करते ही रहे कि सबों ने उन्हें घर से निकाल कर दरवाजा बंद कर दिया। खोजी वहाँ से भागे और रोनी सूरत बनाए हुए होटल में दाखिल हुए।

आजाद ने पूछा - कहो भाई, क्या कर आए? ऐं! तुम तो पिटे हुए से जान पड़ते हो।

खोजी - जरा दम लेने दो। मामला बहुत नाजुक है। तुम तो फँसे ही थे, मैं भी फँस गया। इस सूरत का बुरा हो, जहाँ जाता हूँ वहीं चाहने वाले निकल आते हैं। एक पंडित ने कहा था कि तुम्हारे पास मोहिनी है। उस वक्त तो उसकी बात मुझे कुछ न जँची, मगर अब देखता हूँ तो उसने बिलकुल सच कहा था।

आजाद - तुम तो हो सिड़ी। ऐसे ही तो बड़ी हसीन हो। मेरी बाबत भी कुंदन से कुछ बातचीत हुई या आँखें ही सेकते रहे?

खोजी - बड़े घर की तैयारी कर रखो। बंदा वहाँ भी तुम्हारे साथ होगा।

आजाद - बाज आया आपके साथ से। तुम्हें खिलाना-पिलाना सब अकारथ गया। बेहतर है, तुम कहीं और चले जाओ।

इस पर खोजी बहुत बिगड़े। बोले - हाँ साहब, काम निकल गया न? अब तो मुझसे बुरा कोई न होगा।

खानसामा - क्या है ख्वाजा जी, क्यों बिगड़ गए?

खोजी - तू चुप रह कुली, ख्वाजा जी! और सुनिएगा?

खानसामा - मैंने तो आपकी इज्जत की थी।

खोजी - नहीं, आप माफ कीजिए। क्या खूब। टके का आदमी और हमसे इस तरह पर पेश आए। मगर तुम क्या करोगे भाई, हमारा नसीबा ही फिरा हुआ है। खैर, जो चाहो, सुनाओ। अब हम यहाँ से कूच करते हैं। जहाँ हमारे कद्रदाँ हैं, वहाँ जायँगे।

खानसामा - यहाँ से बढ़के आपका कौन कद्रदाँ होगा? खाना आपको दें, कपड़ा आपको दें, उस पर दोस्त बना कर रखें; फिर अब और क्या चाहिए?

खोजी - सच है भाई, सच है। हम आजाद के गुलाम तो हैं ही। उन्हीं से कसम लो कि उनके बाद-दादा हमारे बुजुर्गों के टुकड़े खा कर पले थे या नहीं।

आजाद - आपकी बातें सुन रहा हूँ। जरा इधर देखिएगा।

खोजी - सौ सोनार की, तो एक लोहार की।

आजाद - हमारे बाप-दादा आपके टुकड़खोरे थे?

खोजी - जी हाँ, क्या इसमें कुछ शक भी है?

इतने में खानसामा ने दूर से कहा - ख्वाजा साहब, हमने तो सुना है कि आपके वालिद अंडे बेचा करते थे।

इतना सुनना था कि खोजी आग हो गए और एक तवा उठा कर खानसामा की तरफ दौड़े। तवा बहुत गर्म था। अच्छी तरह उठा भी नहीं पाए थे कि हाथ जल गया। झिझक कर तवे को जो फेंका तो खुद भी मुँह के बल गिर पड़े।

खानसामा - या अली, बचाइयो।

बैरा - तवा तो जल रहा था, हाथ जल गया होगा।

मीडा - डाक्टर को फौरन बुलाओ।

खानसामा - उठ बैठो भाई, कैसे पहलवान हो!

आजाद - खुदा ने बचा लिया, वरना जान ही गई थी।

ख्वाजा साहब चुपचाप पड़े हुए थे। खानसामा ने बरामदे में एक पलंग बिछाया और दो आदमियों ने मिल कर खोजी को उठाया कि बरामदे में ले जायँ। उसी वक्त एक आदमी ने कहा - अब बचना मुश्किल है। खोजी अक्ल के दुश्मन तो थे ही। उनको यकीन हो गया कि अब आखिरी वक्त है। रहे-सहे हवास भी गायब हो गए। खानसामा और होटल के और नौकर-चाकर उनको बनाने लगे।

खानसामा - भाई, दुनिया इसी का नाम है। जिंदगी का एतबार क्या।

बैरा - इसी बहाने मौत लिखी थी।

मुहर्रिर - और अभी नौजवान आदमी हैं। इनकी उम्र ही क्या है!

आजाद - क्या, हाल क्या है? नब्ज का कुछ पता है?

खानसामा - हुजूर, अब आखिरी वक्त है। अब कफन-दफन की फिक्र कीजिए।

यह सुन कर खोजी जल-भुन गए। मगर आखिरी वक्त था, कुछ बोल न सके।

आजाद - किसी मौलवी को बुलाओ।

मुहर्रिर - हुजूर, यह न होगा। हमने कभी इनको नमाज पढ़ते नहीं देखा।

आजाद - भई, इस वक्त यह जिक्र न करो।

मुहर्रिर - हुजूर मालिक हैं, मगर यह मुसलमान नहीं हैं।

खोजी का बस चलता तो मुहर्रिर की बोटियाँ नोच लेते; मगर इस वक्त वह मर रहे थे।

खानसामा - कब्र खुदवाइए, अब इनमें क्या है?

बैरा - इसी सामनेवाले मैदान में इनको तोप दो।

खोजी का चेहरा सुर्ख हो गया। कंबख्त कहता है, तोप दो! यह नहीं कहता कि आपको दफन कर दो।

आजाद - बड़ा अच्छा आदमी था बेचारा।

खानसामा - लाख सिड़ी थे, मगर थे नेक।

बैरा - नेक क्या थे। हाँ, यह कहो कि किसी तरह निभ गई।

खोजी अपना खून पीके रह गए, मगर मजबूर थे।

मुहर्रिर - अब इनको मिलके तोप ही दीजिए।

आजाद - घड़ी दो में मुरलिया बाजेगी।

बैरा - ख्वाजा साहब, कहिए, अब कितनी देर में मुरलिया बाजेगी?

आजाद - अब इस वक्त क्या बताएँ बेचारे अफसोस है!

खानसामा - अफसोस क्यों हुजूर, अब मरने के तो दिन ही थे। जवान-जवान मरते जाते हैं। यह तो अपनी उम्र तमाम कर चुके। अब क्या आकबत के बोरिये बटोरेंगे?

आजाद - हाँ, है तो ऐसा ही, मगर जान बड़ी प्यारी होती है। आदमी चाहे दो सौ बरस का होके मरे, मगर मरते वक्त यही जी चाहता है कि दस बरस और जिंदा रहता।

खानसामा - तो हुजूर, यह तमन्ना तो उसको हो, जिसका कोई रोनेवाला हो। इनके कौन बैठा है।

इतने में होटल का एक आदमी एक चपरासी को हकीम बना कर लाया!

आजाद - कुर्सी पर बैठिए हकीम साहब।

हकीम - यह गुस्ताखी मुझसे न होगी। हुजूर बैठें।

आजाद - इस वक्त सब माफ है।

हकीम - यह बेअदबी मुझसे न होगी।

आजाद - हकीम साहब, मरीज की जान जाती है और आप तकल्लुफ करते हैं।

हकीम - चाहे मरीज मर जाय; मगर मैं अदब को हाथ से न जानू दूँगा।

खोजी को हकीम की सूरत से नफरत हो गई।

आजाद - आप तकल्लुफ में मरीज की जान ले लेंगे।

हकीम - अगर मौत है तो मरेगा ही, मैं अपनी आदत क्यों छोड़ूँ?

आजाद ने खोजी के कान में जोर से कहा - हकीम साहब आए हैं।

खोजी ने हकीम साहब को सलाम किया और हाथ बढ़ाया।

हकीम - (नब्ज पर हाथ रख कर) अब क्या बाकी है, मगर अभी तीन-चार दिन की नब्ज है; इस वक्त इनको ठंडे पानी से नहलाया जाय तो बेहतर है, बल्कि अगर पानी में बर्फ डाल दीजिए तो और भी बेहतर है।

आजाद - बहुत अच्छा। अभी लीजिए।

हकीम - बस, एक दो मन बर्फ काफी होगी।

इतने मे मिस मीडा ने आजाद से कहा - तुम भी अजीब आदमी हो। दो-चार होटलवालों को ले कर एक गरीब का खून अपनी गरदन पर लेते हो। खोजी की चारपाई हमारे कमरे के सामने बिछवा दो और इन आदमियों से कह दो कि कोई खोजी के करीब न आए।

इस तरह खोजी की जान बची। आराम से सोए। दूसरे दिन घूमते-घामते एक चंडूखाने में जा पहुँचे और छींटे उड़ाने लगे। एकाएक हुस्नआरा का जिक्र सुन कर उनके कान खड़ हुए। कोई कह रहा था कि हुस्नआरा पर एक शाहजादे आशिक हुए हैं, जिनका नाम कमरुद्दौला है। खोजी बिगड़ कर बोले - खबरदार, जो अब किसी ने हुस्नआरा का नाम फिर लिया। शरीफजादियों का नाम बद करता है बे!

एक चंडूबाज - हम तो सुनी-सुनाई कहते हैं साहब। शहर भर में यह खबर मशहूर है, आप किस-किसकी जबान रोकिएगा।

खोजी - झूठ है, बिलकुल झूठ।

चंडूबाज - अच्छा, हम झूठ कहते हैं तो ईदू से पूछ लीजिए।

ईदू - हमने तो यह सुना था कि बेगम साहब ने अखबार में कुछ लिखा था तो वह शाहजादे ने पढ़ा और आशिक हो गए, फौरन बेगम साहब के नाम से खत लिखा और शायद किसी बाँके को मुकर्रर किया है कि आजाद को मार डाले। खुदा जाने, सच है या झूठ।

खोजी - तुमने किससे सुनी है यह बात? इस धोखे में न रहना। थाने पर चलकर गवाही देनी होगी।

ईदू - हुजूर क्या आजाद के दोस्त हैं?

खोजी - दोस्त नहीं हूँ, उस्ताद हूँ। मेरा शागिर्द है।

ईदू - आपके कितने शागिर्द होंगे?

खोजी - यहाँ से ले कर रूम और शाम तक।

खोजी शाहजादे का पता पूछते हुए लाल कुएँ पर पहुँचे। देखा तो सैकड़ों आदमी पानी भर रहे हैं।

खोजी- क्यों भाई, यह कुआँ तो आज तक देखने में नहीं आया था।

भिश्ती- क्या कहीं बाहर गए थे आप?

खोजी - हाँ भई, बड़ा लंबा सफर करके लौटा हूँ।

भिश्ती - इसे बने तो चार महीने हो गए।

खोजी - अहा-हा! यह कहो, भला किसने बनवाया है?

भिश्ती - शाहजादा कमरूद्दौला ने।

खोजी - शाहजादा साहब रहते कहाँ हैं?

भिश्ती - तुम तो मालूम होता है, इस शहर में आज ही आए हो। सामने उन्हीं की बारादरी तो है।

खोजी यहाँ से महल के चोबदार के पास पहुँचे और अलेक-सलेक करके बोले - भाई, कोई नौकरी दिलवाते हो।

दरबान - दारोगा साहब से कहिए, शायद मतलब निकले।

खोजी - उनसे कब मुलाकात होगी?

दरबान - उनके मकान पर जाइए, और कुछ चटाइए।

खोजी - भला शाहजादे तक रसोई हो सकती है या नहीं?

दरबान - अगर कोई अच्छी सूरत दिखाओ तो पौ बारह हैं।

इतने में अंदर से एक आदमी निकला। दरबान से पूछा - किधर चले शेख जी?

शेख - हुक्म हुआ है कि किसी रम्माल को बहुत जल्द हाजिर करो।

खोजी - तो हमको ले चलिए। इस फन में हम अपना सानी नहीं रखते।

शेख - ऐसा न हो, आप वहाँ चल कर बेवकूफ बनें।

खोजी - अजी, ले तो चलिए। खुदा ने चाहा तो सुर्खरु ही रहूँगा।

शेख साहब उनको ले कर बारादरी में पहुँचे। शाहजादा साहब मसनद लगाए पेचवान पी रहे थे और मुसाहब लोग उन्हें घेरे बैठे हुए थे। खोजी ने अदब से सलाम किया और फर्श पर जा बैठे।

आगा - हुजूर, अगर हुक्म हो तो तारे आसमान से उतार लूँ।

मुन्ने - हक है। ऐसा ही रोब है हमारे सरकार का।

मिरजा - खुदावंद, अब हुजूर की तबीयत का क्या हाल है?

आगा - खुदा का फजल है। खुदा ने चाहा तो सुबह-शाम शिप्पा लड़ा ही चाहता है। हुजूर का नाम सुन कर कोई निकाह से इनकार करेगा भला?

मुन्ने - अजी, परिस्तान की हूर हो तो लौंडी बन जाय।

खोजी - खुदा गवाह है कि शहर में दूसरा रईस टक्कर का नहीं है। यह मालूम होता है कि खुदा ने अपने हाथ से बनाया है।

मिरजा - सुभान-अल्लाह! वाह! खाँ साहब, वाह! सच है।

शेख - खाँ साहब नहीं, ख्वाजा साहब कहिए।

मिरजा - अजी, वह कोई हों, हम तो इनसाफ के लोग हैं। खुदा को मुँह दिखाना है। क्या बात कही है। ख्वाजा साहब, आप तो पहली मरतबा इस सोहबत में शरीक हुए हैं। रफ्ता-रफ्ता देखिएगा कि हुजूर ने कैसा मिजाज पाया है।

शेख - बूढ़ों में बूढ़ें, जवानों में जवान।

खोजी - मुझसे कहते हो। शहर में कौन रईस है, जिससे मैं वाकिफ नहीं?

आगा - भई मिरजा, अब फतह है। उधर का रंग फीका हो रहा है। अब तो इधर ही झुकी हुई हैं।

मिरजा - वल्लाह! हाथ लाइएगा। मरदों का वार खाली जाय?

आगा - यह सब हुजूर का इकबाल है।

कमरुद्दौला - मैं तो तड़प रहा था, जिंदगी से बेजार था! आप लोगों की बदौलत इतना तो हो गया।

खोजी - हैरान थे कि यह क्या माजरा है। हुस्नआरा को यह क्या हो गया कि कमरुद्दौला पर रीझीं! कभी यकीन आता था, कभी शक होता था।

आगा - हुजूर का दूर-दूर तक नाम है।

मिरजा - क्यों नहीं, लंदन तक।

खोजी - कह दिया न भाईजान, कि दूसरा नजर नहीं आता।

शाहजादा - (आगा से) यह कहाँ रहते हैं और कौन हैं?

खोजी - जी, गरीब का मकान मुर्गी-बाजार में है।

आगा - जभी आप कुड़क रहे थे।

मिरजा - हाँ, अंडे बेचते तो हमने भी देखा था।

खोजी - जभी आप सदर-बाजार में टापा करते हैं।

शाहजादा - ख्वाजा साहब जिले में ताक हैं।

खोजी - आपकी कद्रदानी है।

बातों-बातों में यहाँ की टोह ले कर खोजी घर चले। होटल में पहुँचे तो आजाद को बूढ़े मियाँ से बातें करते देखा। ललकार कर बोले - लो, मैं भी आ पहुँचा।

आजाद - गुल न मचाओ, हम लोग न जाने कैसी सलाह कर रहे हैं, तुमको क्या; बे-फिक्रे हो। कुछ बसंत की भी खबर है? यहाँ एक नया गुल खिला है!

खोजी - अजी, हमें सब मालूम हैं। हमें क्या सिखाते हो।

आजाद - तुमसे किसने कहा?

खोजी - अजी, हमसे बढ़ कर टोहिया कोई हो तो ले। अभी उन्हीं कमरुद्दौला के यहाँ जा पहुँचा। पूरे एक घंटे तक हमसे-उनसे बातचीत रही। आदमी तो खब्ती सा है और बिलकुल जाहिल। मगर उसने हुस्नआरा को कहाँ से देख लिया? छोकरी है चुलबुली। कोठे पर गई होगी, बस उसकी नजर पड़ गई होगी।

बूढ़े मियाँ - जरा जबान सँभाल कर!

खोजी - आप जब देखो, तिरछे ही हो कर बातें करते हैं? क्या कोई आपका दिया खाता है या आपका दबैल है? बड़े अक्लमंद आप ही तो हैं एक!

इतने में फिटन पर एक अंगरेज आजाद को पूछता हुआ आ पहुँचा। आजाद ने बढ़ कर उससे हाथ मिलया और पूछा तो मालूम हुआ कि वह फौजी अफसर है। आजाद को एक जलसे का चेयरमैन बनने के लिए कहने आया है।

आजाद - इसके लिए आपने क्यों इतनी तकलीफ की? एक खत काफी था।

साहब - मैं चााहता हूँ कि आप इसी वक्त मेरे साथ चलें। लेक्चर का वक्त बहुत करीब है।

आजाद साहब के साथ चल दिए। टाउन-हाल में बहुत से आदमी जमा थे। आजाद के पहुँचते ही लोग उन्हें देखने के लिए टूट पड़े। और जब वह बोलने के लिए मेज के सामने खड़े हुए तो चारों तरफ समा बँध गया। जब वह बैठना चाहते तो लोग गुल मचाते थे, अभी कुछ और फरमाइए। यहाँ तक कि आजाद ही के बोलते-बोलते वक्त पूरा हो गया और साहब बहादुर के बोलने की नौबत न आई। शाहजादा कमरुद्दौला भी मुसाहबों के साथ जलसे में मौजूद थे। ज्यों ही आजाद बैठे, उन्होंने आगा से कहा - सच कहना, ऐसा खूबसूरत आदमी देखा है?

आगा - बिलकुल शेर मालूम होता है।

शाहजादा - ऐसा जवान दुनिया में न होगा।

आगा - और तकरीर कितनी प्यारी है?

शाहजादा - क्यों साहब, जब हम मरदों का यह हाल है, तो औरतों का क्या हाल होता होगा?

आगा - औरत क्या, परी आशिक हो जाय।

शाहजादा साहब जब यहाँ से चले तो दिल में सोचा-भला आजाद के सामने मेरी दाल क्या गलेगी? मेरा और आजाद का मुकाबिला क्या? अपनी हिमाकत पर बहुत शर्मिंदा हुए। ज्योंही मकान पर पहुँचे, मुसाहबों ने बेपर की उड़ानी शुरू की।

मिरजा - खुदावंद, आज तो मुँह मीठा कराइए। वह खुशखबरी सुनाऊँ कि फड़क जाइए। हुजूर उनके यहाँ एक महरी नौकर है। वह मुझसे कहती थी कि आज आपके सरकार की तसवीर का आजाद की तसवीर से मुकाबिला किया और बोलीं - मेरी शाहजादे पर जान जाती है।

और मुसाहबों ने भी खुशामद करनी शुरू की; मगर नवाब साहब ने किसी से कुछ न कहा। थोड़ी देर तक बैठे रहे। फिर अंदर चले गए। उनके जाने के बाद मुसाहबों ने आगा से पूछा - अरे मियाँ! बताओ तो, क्या माजरा है? क्या सबब है कि सरकार आज इतने उदास हैं?

आगा - भई, कुछ न पूछिए। बस, यही समझ लो कि सरकार की आँखें खुल गईं।

***