आजाद-कथा - खंड 2 - 103 Munshi Premchand द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आजाद-कथा - खंड 2 - 103

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 103

कुछ दिन तो मियाँ आजाद मिस्र में इस तरह रहे जैसे और मुसाफिर रहते हैं, मगर जब कांसल को इनके आने का हाल मालूम हुआ तो उसने उन्हें अपने यहाँ बुला कर ठहराया और बातें होने लगी।

कांसल - मुझे आपसे सख्त शिकायत है कि आप यहाँ आए और हमसे न मिले। ऐसा कौन है जो आपके नाम से वाकिफ न हो, जो अखबार आता है उसमें आपका जिक्र जरूर होता है। वह आपके साथ मसखरा कौन है? वह बौना खोजी?

आजाद ने मुसकिरा कर खोजी की तरफ इशारा किया?

खोजी - जनाब, वह मसखरे कोई और होंगे और खोजी खुदा जाने, किस भकुए का नाम है। हम ख्वाजा साहब हैं और बौने की एक ही कही। हाय, मैं किससे कहूँ कि मेरा बदन चोर है।

आजाद - क्या अखबारों में ख्वाजा साहब का जिकर रहता है?

कांसल - जी हाँ, इनकी बड़ी धूम है, मगर एक मुकाम पर तो सचमुच इन्होंने बड़ा काम कर दिखाया था। आपका दौलतखना किस शहर में है जनाब? मुझे हैरत तो यह है कि इतने नन्हें-नन्हें तो आपके हाथ-पाँव, लड़ाई में आप किस बिरते पर गए थे।

खोजी - (मुसकिरा कर) यही तो कहता हूँ हुजूर कि मेरा बदन चोर है, देखिए जरा हाथ मिलाइए। हैं फौलाद की अँगुलियाँ या नहीं? अगर अभी जोर करूँ तो आपकी एक-आध अँगुली तोड़ कर रख दूँ।

थोड़ी देर तक वहाँ बातचीत करके आजाद चले तो खोजी ने कहा - यह आपकी अजीब आदत है कि गैरों के सामने मुझे जलील करने लगते हैं। अगर मुझे गुस्सा आ जाता और मैं मियाँ कांसल के हाथ-पाँव तोड़ देता तो बताओ कैसी ठहरती! मैं मारे मुरव्वत के तरह देता जाता हूँ, वरना मियाँ की सिट्टी-पिट्टी भूल जाती।

आजाद - अजी, ऐसी मुरव्वत भी क्या जिससे हमेशा जूतियाँ खानी पड़े। कई जगह आप पिटे, मगर मुरव्वत न छोड़ी। एक दिन इस मुरव्वत की बदौलत आप कहीं काँजी-हौस न भेजे जाइए। अच्छा, यह अब यह पूछता हूँ कि जब सारे जमाने ने मेरा हाल सुना तो क्या हुस्नआरा ने न सुना होगा?

खोजी - जरूर सुना होगा भाई, अब आज के आठवें दिन शादी लो। मगर उस्ताद, दो-एक दिन बंबई में जरूर रहना। जरा बेगम साहब से बातें होंगी।

आजाद - भाई, अब तो बीच में ठहरने का जी नहीं चाहता।

खोजी - यह नहीं हो सकता, इतनी बेवफाई करना मुनासिब नहीं, वह बेचारी हम लोगों की राह देख रही होंगी।

आजाद - अच्छा तो यह सोच लो कि अगर उन्होंने पूछा कि खोजी के साथ कोई औरत क्यों नहीं आई तो क्या जवाब दोगे? हमारी तो सलाह है कि किसी को यहीं से फाँस ले चलो?

खोजी - नहीं जनाब, मुझे यहाँ की औरतें पसंद नहीं। हाँ, अपने वतन में हो तो मुजायका नहीं।

आजाद - अच्छा कैसी औरत चाहते हो?

खोजी - बस यही कि उम्र ज्यादा न हो। और शक्ल-सूरत अच्छी हो।

आजाद - ऐसी एक औरत तो हुस्नआरा के मकान के पास है। उसी दर्जी की बीवी है जो उनके मकान के सामने रहता है। रंगत तो साँवली है, मगर ऐसी नमकीन कि आपसे क्या कहूँ और अभी कमसिन। बहुत-बहुत तो कोई 40-42 की होगी।

खोजी - भला मीडा में और उसमें क्या फर्क है?

आजाद - यह उससे दो-चार बरस कमसिन हैं, बस, और तो कोई फर्क नहीं। हाँ, यह गोरी हैं और उसका रंग साँवला है।

खोजी - भला नाम क्या है?

आजाद - नाम है शिताबजान।

खोजी - तब तो भाई, हम हाजिर हैं। मगर पक्की-पोढ़ी बात तो हो ले पहले।

आजाद - आपको इससे क्या वास्ता? कुछ तो समझ के हमने कहा है! हमारे पास उसका खत आया था कि अगर ख्वाजा साहब मंजूर करें तो मैं हाजिर हूँ।

खोजी - तब तो भाई, बनी-बनाई बात है, खुदा ने चाहा तो आज के आठवें दिन शिताबजान हमारी बगल में होंगी।

आजाद - शाम को कांसल से मिल कर चले चलो आज ही।

खोजी - कांसल! हमको शिताबजान की पड़ी है, हमारे सामने खत लिखके भेज दो। मजमून हम बताएँगे।

आजाद कलम-दावत ले कर बैठे। खोजी ने खत लिखवाया और जा कर उसे डाकखाने में छोड़ आए। तब मिस मीडा से जा कर बोले - अब हमारी खुशामद कीजिए। आज के आठवे दिन हमारे यहाँ आपकी दावत होगी। अच्छे से अच्छे किस्म की ब्रांडी तय कर रखिए। शिताबजान के हाथ पिलवाऊँगा।

मीडा - शिताबजान कौन! क्या तुम्हारी बहन का नाम है?

खोजी - अरे तोबा! शिताबजान से मेरी शादी होने वाली है। उसने मुझे भेजा था कि रूम जा कर नाम करो तो फिर निकाह होगा। अब मैं वहाँ से नाम करके लौटा हूँ, पहुँचते-पहुँचते शादी होगी।

मीडा - क्या सिन होगा? बेवा तो नहीं है?

खोजी - खुदा न करे, दर्जी अभी जिंदा है?

मीडा - क्या मियाँवाली है, और आप उसके साथ निकाह करेंगे? सिन क्या है?

खोजी - अभी क्या सिन है, कल की लड़की है, कोई पैंतालिस बरस की हो शायद।

मीडा - बस, पैंतालीस ही बरस की? तब तो उसे पालना पड़ेगा!

खोजी - हम तो किस्मत के धनी हैं।

मीडा - भला शक्ल-सूरत कैसी है?

खोजी - यह आजाद से पूछो। चाँद में मैल है, उसमें मैल नहीं, मैं तो आजाद को दुआएँ देता हूँ जिनकी बदौलत शिताबजान मिलीं।

यहाँ से खोजी होटलवालों के पास पहुँचे और उनसे भी वही चर्चा की। अजी, बिलकुल साँचे की ढली है, कोई देखे तो बेहोश हो जाय। अब आजाद के सामने उसे थोड़ा ही आने दूँगा, हरगिज नहीं।

खानसामा - तुमसे बातचीत भी हुई या दूर ही से देखा?

खोजी - जी हाँ, कई बार देख चुका हूँ। बातें क्या करती है, मिश्री की डली घोलती है।

होटलवालों ने खोजी को खूब बनाया। इतनी देर में आजाद ने जहाज का बंदोबस्त किया और एक रोज दोनों परियों और ख्वाजा साहब के साथ जहाज पर सवार हुए। सवार होते ही खोजी ने गाना शुरू किया -

अरे मल्लाह लगा किश्ती मेरा महबूब जाता है,शिताबो की तमन्ना में मुझे दिल लेके आता है।मगर छोड़ा विदेशी होके ख्वाजा ने गए लड़ने,शिताबो के लिए जी मेरा कल से तिलमिलाता है।

आजाद ने शह दे-दे कर और चंग पर चढ़ाया। ज्यों-ज्यों उनकी तारीफ करते थे, वह और अकड़ते थे। जहाज थोड़ी ही दूर चला था कि एक मल्लाह ने कहा - लोगों, होशियार! तूफान आ रहा है। यह खबर सुनते ही कितनों ही के तो होश उड़ गए और मियाँ खोजी तो दोहाई देने लगे - जहाज की दोहाई! बेड़े की दोहाई! समुद्र की दोहाई! हाय शिताबजान, अरे मेरी प्यारी शिताब, दुआ माँग।

यह कह कर आपने अकड़ कर आजाद की तरफ देखा। आजाद ताड़ गए कि इस फिकरे की दाद चाहते हैं। कहा - सुभान अल्लाह, शिताब जान के लिए शिताब, क्या खूब।

खोजी - इस फन में कोई मेरी बराबरी क्या करेगा भला। उस्ताद हूँ, उस्ताद।

आजाद - और लुत्फ यह है कि ऐसे नाजुक वक्त में भी नहीं चूकते।

खोजी - या खुदा, मेरी सुन ले। यारों, रो-रो कर उसकी दरगाह से दुआ माँगो कि ख्वाजा बच जायँ और शिताबजान से ब्याह हो। खूब रोओ।

आजाद - जनाब, यह क्या सबब है कि आप सिर्फ अपने लिए दुआ माँगते हैं, और बेचारों का भी तो खयाल रखिए।

इतने में आँधी आ गई। आजाद तो जहाज के कप्तान के साथ बातें कर रहे थे। खोजी ने सोचा, अगर जहाज डूब गया तो शिताबजान क्या करेगी? फौरन अफीम की डिबिया ली और खूब कस कर कमर में बाँध कर बोले - लो यारो, हम तो तैयार हैं। अब चाहे आँधी आए या बगूला। तूफान नहीं, तूफान का बाप आए तो क्या गम है।

जहाज वाले तो घबराए हुए थे कि नहीं मालूम, तूफान क्या गुल खिलाए, मगर ख्वाजा साहब तान लगा रहे थे -

शिताबो की तमन्ना में मेरा दिल तिलमिलाता है।

आजाद - ख्वाजा साहब, आप तो बेवक्त की शहनाई बजाते हैं। पहले तो रोए-चिल्लाए और अब तान लगाने लगे।

एक ठाकुर साहब भी जहाज पर सवार थे। खोजी को गाते देख कर समझे कि यह कोई बड़े वली हैं। कदमों पर टोपी रख दी और बोले - साईं जी, हमारे हक में दुआ कीजिए।

खोजी - खुश रहो बाबा, बेड़ा पार है।

आजाद ने खोजी के कान में कहा - यार, यह तो अच्छा उल्लू फँसा! रास्ते में खूब दिल्लगी रहेगी।

ठाकुर साहब बार-बार खोजी से सवाल करते थे और मियाँ खोजी अनाप-शनाप जवाब देते थे।

ठाकुर - साईं जी, जुमे के दिन सफर करना कैसा है?

खोजी - बहुत अच्छा दिन है।

ठाकुर - और जुमेरात?

खोजी - उससे भी अच्छा।

आजाद - ठाकुर साहब, आप कब से सफर कर रहे हैं?

ठाकुर - जनाब, कोई चालीस बरस हुए।

आजाद - चालीस बरस सफर करते हो गए और अभी तक आप अच्छे और बुरे दिन पूछते जाते हैं?

ठाकुर - सनीचर के दिन आप सफर करके देख लें।

खोजी - हमने इस बारे में बहुत गौर किया है। बुरी साइत का सफर कभी पूरा नहीं होता।

ठाकुर - साईं जी, कुछ और नसीहत कीजिए, जिससे मेरा भला हो।

खोजी - अच्छा सुनो, पहली बात तो यह है कि जिस दिन चाहो, सफर करो, मगर पहर रात रहे से, तुम्हारी मंजिल दूनी हो जायगी। दूसरी नसीहत यह है कि एक बीवी से ज्यादा के साथ शादी न करना, अगर वह मर जाय तो दूसरी शादी का खयाल भी दिल में न लाना। तीसरी बात यह है कि रात को दो घंटे तक ठंडे पानी में रह कर खुदा की याद करना। गरमी, जाड़ा, बरसात तीनों मौसिमों में इसका खयाल रखना। चौथी नसीहत यह है कि अच्छे खाने और अच्छे कपड़े से परहेज रखना। खाने को जौ की रोटी और पीने को औटाया हुआ पानी काफी है।

खोजी ने यह नसीहतें कुछ इस तरह कीं, गोया वह पहुँचे हुए फकीर हैं। ठाकुर ने अपनी नोटबुक पर ये सब बातें लिख लीं और बोला - साईं जी, आपसे मुलाकात करना चाहूँ तो कैसे करूँ?

खोजी - बस, लखनऊ में शिताबजान का मकान पूछते हुए चले आना।

ठाकुर - शिताबजान कौन है?

खोजी - कोई हों, तुम्हें इससे मतलब?

यों ही ठाकुर साहब को बनाते हुए रास्ता कट गया और बंबई सामने से नजर आने लगा। खोजी की बाँछें खिल गईं, चिल्ला कर कहा - यारों, जरा देखना, शिताबजान की सवारी तो नहीं आई है। करीमबख्श नामी महरी साथ होगी। अतलस का लहँगा है, कहारों की पगड़ियाँ रँगी हुई हैं, मछलियाँ जरूर लटक रही होंगी। अरे महरी, महरी! क्या बहरी है?

लोगों ने समझाया कि साहब, अभी बंदरगाह तो आने दो। शिताबजान यहाँ से क्योंकर सुन लेंगी? बोले - अजी, हटो भी, तुम क्या जानो। कभी किसी पर दिल आया हो तो समझो? अरे नादान, इश्क के कान दो कोस तक की खबर लाते हैं, क्या शिताबजान ने आवाज न सुनी होगी? वाह, भला कोई बात है! मगर जवाब क्यों न दिया? इसमें एक लिम है, वह यह कि अगर आवाज के साथ ही आवाज का जवाब दें तो हमारी नजरों से गिर जायँ। मजा जब है कि हम बौखलाए हुए इधर-उधर ढूँढ़ते और आवाज देते हों और वह हमें पीछे से एक धौल जमाएँ और तिनक कर कहें - मुड़ीकाटा, आँखों का अंधा नाम नैनसुख, गुल मचाता फिरता है, और हम धौल खा कर रहे कि देखिए सरकार, अब की धौल लगाई तो खैर जो अब लगाई तो बिगड़ जायगी। इस पर वह झल्ला कर इस घुटी हुई खोपड़ी पर तड़ातड़ दो-चार जमा दें, तब मैं हँस कर कहूँ, तो फिर दो-एक जूते भी लगा दो, इसके बगैर तबीयत बेचैन है।

आजाद - बिलफेल कहिए तो मैं ही लगा दूँ।

खोजी - अजी नहीं, आपको तकलीफ होगी।

आजाद - अल्लाह, किस मकुए को जरा भी तकलीफ हो।

खोजी - मियाँ, पहले मुँह धो आओ, इन खोपड़ियों के सुहलाने के लिए परियों के हाथ चाहिए, तुम जैसे देवों के नहीं।

इतने में समुद्र का किनारा नजर आया, तो खोजी ने गुल मचा कर कहा - शिताबजान साहब, आपका यह गुलाम, फर्जिदाना आदाब अर्ज...।

इतना कह चुके थे कि लोगों ने कहकहा लगाया और खोजी की समझ में कुछ न आया कि लोग क्यों हँस रहे हैं।

आजाद से पूछा कि इस बेमौका हँसी का क्या सबब है? आजाद ने कहा - इसका सबब है कि आपकी हिमाकत। क्या आप शिताब के बेटे हैं जो उनको फर्जिदाना आदाब बजा लाते हैं, जोरू को कोई इस तरह सलाम करता है?

खोजी - (गालों पर थप्पड़ लगा कर) अररर, गजब हो गया, बुरा हुआ। वल्लाह, इतना जलील हुआ कि क्या कहूँ। भाई, इश्क में होश-हवास कब ठीक रहते हैं, अनाप-शनाप बातें मुँह से निकल ही जाती हैं, मगर खैर! अब तो पालकी साफ-साफ नजर आती है। वह देखिए, महरी सामने डटी खड़ी है।

अख्ख़ाह, अब तो महरी भी बाढ़ पर है!

जहाज ने लंगर डाला और उतरने लगे। ख्वाजा साहब दूर ही से शिताबजान को ढूँढ़ने लगे। आजाद दोनों लेडियों को ले कर खुश्की पर आए तो बंबई के मिरजा साहब ने दौड़ कर उन्हें गले लगाया। फिर दोनों परियों को देखकर ताज्जुब से बोले - इन दोनों को कहाँ से लाए, क्या परिस्तान की परियाँ हैं।

आजाद ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि खोजी कफन फाड़ कर बोल उठे - इधर शिताबजान, इधर, ओ करमबक्श करमफोड़ कमबख्ती के निशान, यहाँ क्यों नहीं आती! दूर ही से बुत्ते बताती हैं!

मिरजा - किसको पुकारते हो ख्वाजा साहब, मैं बुला लूँ। क्या ब्याह लाए हो कोई परी? मगर उस्ताद नाम तो हिंदोस्तान का है, जरा दिखा तो दो।

आजाद ने खैर-आफियत पूछी और दोनों आदमियों में शाहजादा हुमायूँ फर की चरचा होने लगी। फिर लड़ाई का जिक्र छिड़ गया।

उधर ख्वाजा साहब ने अफीम घोली और चुस्की लगा कर गुल मचाया - शिताबजान प्यारी, मैं तरे वारी, जल्द से आ री, सूरत दिखा री, आँसू हैं जारी। जानमन, जिस बिस्तर पर तुम सोई थीं उसको हर रोज सूँघ लिया करता हूँ और उसी खुशबू की पर जिंदगी का दार मदार है।

तेरी-सी न बू किसी में पाईसारे फूलों को सूँघता हूँ।

मिरजा साहब ने कहा - आखिर यह माजरा क्या है। जनाब ख्वाजा साहब, क्या सफर में अक्ल भी खो आए, यह आपको क्या हो गया है? अगर सच्चे आशिक हो तो फरियाद कैसी?

खोजी - जनाब, कहने और करने में जमीन-आसमान का फर्क है।

मिरजा -

कब अपने मुँह से आशिक शिकवए बेदाद करते हैं;

दहाने गैर से वह मिस्ल नै फरियाद करते हैं।

खोजी - मुझसे कहिए तो ऐसे दो करोड़ शेर पढ़ दूँ, आशिकी दूसरी चीज है, शायरी दूसरी चीज।

मिरजा - दो करोड़ शेर तो दस करोड़ बरस तक भी आपसे न पढ़े जाएँगे। आप दो ही चार शेर फरमाएँ।

खोजी - अच्छा तो सुनिए और गिनते जाइए, आप भी क्या कहेंगे -

यही कह-कहके हिजरे यार में फरियाद करते है;वह भूले हमको बैठे हें जिन्हे हम याद करते हैं।असीराने कुहन पर ताजा वह बेदाद करते हैं,रही ताकत न जब उड़ने की तब आजाद करते हैं।रकम करता हूँ जिस दम काट तेरी तेग अब्रू की;गरीबाँ चाक अपना जामए फौलाद करते हैं।सिफत होती है जानाँ जिस गजल में तेरे अब्रू की;तो हम हर बैत पर आँखों से अपनी साद करते हैं।

अब भी न कोई शरमाए तो अंधेर है, दो करोड़ शेर न पढ़ कर सुनाऊँ तो नाम बदल डालूँ। हाँ, और सुनिए -

नहीं हम याद से रहते हैं गाफिल एकदम हमदम;जो बुत को भूल जाते हैं खुदा को याद करते हैं।

आजाद - इस वक्त तो मिरजा साहब को आपने खूब आड़े हाथों लिया।

खोजी - अजी, यहाँ कोई एक शेर पढ़े तो हम दस करोड़ शेर पढ़ते हैं। जानते हो कहाँ के रहनेवाले हैं हम! बंबईवालों को हम समझते क्या हैं।

इतने में औरत ने खोजी को इशारे से बुलाया तो उनकी बाँछें खिल गईं। बोले - क्या हुक्म है हुजूर?

औरत - ऐ दुर हुजूर के बच्चे! कुछ लाया भी वहाँ से, या खाली हाथ झुलाता चला आता है?

खोजी - पहले तुम अपना नाम तो बताओ?

औरत - ऐ लो, पहरों से नाम रट रहा है और अब पूछता है, नाम बता दो। (धप जमा कर) और नाम पूछेगा?

खोजी - ऐ, तुमने तो धप लगानी शुरू की, जो कहीं अब की हाथ उठाया तो बहुत ही बेढब होगी।

आजाद - अरे यार, यह क्या माजरा है? बेभाव की पड़ने लगी।

खोजी - अजी, मुहब्बत के यही मजे हैं भाईजान। तुम यह बातें क्या जानो।

मिरजा - यह आपकी ब्याहता हैं या सिर्फ मुलाकात है?

शिताब - हमारे बुजुर्गों से यह रिश्ता चला आता है।

मिरजा - तो यह कहो कि तुम इनकी बहन हो।

खोजी - जनाब, जरा सँभल कर फरमाइएगा। मैं आपका बड़ा लिहाज करता हूँ।

शिताब - ऐ, तो कुछ झूठ भी है। आखिर आप मेरे हैं कौन? मुफ्त में मियाँ बनने का शौक चर्राया है?

खोजी - अरे तो निकाह तो हो ले। कसम खुदा की, लड़ाई के मैदान में भी दिल तुम्हारी ही तरफ रहता था।

आजाद - हमेशा याद करते थे बेचारे!

जब आजाद लेडियों के साथ गाड़ी में बैठ गए तब मिरजा ने खोजी से कहा - चलिए, वह लोग जा रहे हैं।

खोजी - जा रहे हैं तो जाने दीजिए। अब मुद्दत के बाद माशूक से मुलाकात हुई है, जरा बातें कर लूँ। आप चलिए, मैं अभी हाजिर होता हूँ।

वह लोग इधर रवाना हुए, उधर शिताबजान ने खोजी को दूसरी गाड़ी में सवार कराया और घर चलीं। ख्वाजा साहब खुश थे कि दिल्लगी में माशूक हाथ आया। घर पहुँच कर शिताबजान ने खोजी से कहा - अब कुछ खिलवाइए, बहुत भूख लगी है।

खोजी - भई वाह, मैं सिपाही आदमी, मेरे पास सिवा ढाल-तलवार, बरछी-कटार के और क्या है? या तमगे हैं, सो वह मैं किसी को दे नहीं सकता।

शिताब - कमाई करने गए थे वहाँ, या रास्ता नापने? तमगे ले कर चाटूँ, तलवार से अपनी गरदन मार लूँ, छुरी भोंक के मर जाऊँ? छुरी-तलवार से कहीं पेट भरता है?

खोजी - अभी कुछ खिलवाओ-पिलवाओ, जब हम रिसालदारी करेंगे तो तुमको मालोमाल कर देंगे। अब परवाना आया चाहता है। लड़ाई में मैंने जो बड़े-बड़े काम किए वह तो तुम सुन ही चुकी होगी। दस हजार सिपाहियों की नाक काट डाली। उधर दुश्मन की फौज ने शिकस्त पाई, इधर मैंने करौली उठाई और मैदान में खट से दाखिल। जिसको देखा कि बिलकुल ठंडा हो गया है, उसकी नाक उड़ा दी। जब तक लड़ाई होती रहती थी, बंदा छिपा बैठा रहता था; कभी पेड़ पर चढ़ गया, कभी किसी झोपड़े में लुक गया। मुफ्त में जान देना कौन सी अक्लबंदी है। मगर लड़ाई खतम होते ही मैदान में जा पहुँचता था। जिस शहर में जाता था, शहर भर की औरतें मेरे पीछे पड़ जाती थीं, मगर मैं किसी की तरफ आँख उठा कर भी न देखता था। गरज की लड़ाई में मैंने बड़ा नाम किया, यह मेरी ही जूतियों का सदका है कि आजाद पाशा बन बैठे। वह तो जानते भी न थे कि लड़ाई किस चिड़िया का नाम है।

शिताब - मगर यह तो बताओ कि बंदूक से नाक क्योंकर काटी जाती है?

खोजी - तुम इन बातों को क्या जानो, यह सिपाहियों के समझने की बातें हैं।

इधर आजाद मिरजा साहब के घर पहुँचे तो बेगम साहब फूली न समाईं। खिदमतगार ने आजाद को झुक कर सलाम किया। दोनों दोस्त कमरे में जा कर बैठे। मिरजा साहब ने घर में जा कर देखा तो बेगम साहब पलंग पर पड़ी थीं। महरी से पूछा तो मालुम हुआ, आज तबियत कुछ खराब है। बाहर आ कर आजाद से कहा - घर में सोती हैं और तबियत भी अच्छी नहीं। मैंने जगाना मुनासिब न समझा। आजाद समझे कि बीमारी महज बहाना है, हमसे कुछ नाराज हैं।

इतने में एक चपरासी ने आ कर मिरजा साहब को एक लिफाफा दिया। युनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार ने कुछ सलाह करने के लिए उन्हें बुलाया था। मिरजा साहब बोले - भाई, इस वक्त तो जाने को जी नहीं चाहता। मुद्दत क बाद एक दोस्त आए हैं, उनकी खातिर-तवाजो में लगा हुआ हूँ। मगर जब आजाद ने कहा कि आप जाइए, शायद कोई जरूरी काम हो, तो मिरजा साहब ने गाड़ी तैयार कराई और रजिस्ट्रार से मिलने गए।

इधर आजाद के पास जैनब ने आ कर सलाम किया।

आजाद - हुजूर के जान-माल की दुआ देती हूँ। हुजूर तो अच्छे रहे?

आजाद - बेगम साहब क्या अभी आराम ही में हैं? अगर इजाजत हो तो सलाम कर आऊँ।

जैनब - हुजूर के लिए पूछने की जरूरत नहीं, चलिए।

आजाद जैनब के साथ अंदर गए तो कमरे में कदम रखते ही महरी ने कहा - वहीं बैठिए, कुर्सी आती है।

आजाद - सरकार कहाँ हैं? बेगम साहब की खिदमत में आदाब अर्ज हैं।

बेगम - बंदगी। आपको जो कुछ कहना हो कहिए, मुझे ज्यादा बातें करने की फुरसत नहीं।

आजाद - खुदा खैर करे, आखिर किस जुर्म में यह खफगी है? कौन सा गुनाह हुआ?

बेगम - बस जबान न खुलवाइए, गजब खुदा का, एक खत तक भेजना कसम था, कोई इस तरह अपने अजीजों को तड़पाता है?

आजाद - कुसूर माफ कीजिए, बेशक गुनाह तो हुआ, मगर मैंने सोचा कि खत भेज कर मुफ्त में मुहब्बत बढ़ाने से क्या फायदा, न जाने जिंदा आऊँ या न आऊँ, इसलिए ऐसी फिक्र करूँ कि उनके दिल से भूल ही जाऊँ। अगर जिंदगी बाकी है तो चुटकियों में गुनाह माफ करा लूँगा।

इस फिकरे ने बेगम साहब के दिल पर बड़ा असर किया। सारा गुस्सा हवा हो गया। जैनब को नीचे भेजा कि हुक्का भर लाओ, खवास को हुक्म दिया कि पान बनाओ। तब मैदान खाली पा कर चिक उठा दी और बोलीं - वह कहाँ गए हैं?

आजाद - किसी साहब ने बुलाया है, उनसे मिलने गए हैं। खुदा ने मुझे यह खूब मौका दिया।

बेगम - क्या कहा, क्या कहा! जरा फिर तो कहिएगा, जरा सनूँ तो किस चीज का मौका मिला?

आजाद - यही हुजूर को सलाम करने का।

बेगम - हाँ, यों बातें कीजिए, अदब के साथ। हुस्नआरा के नाम तुमने कोई खत भेजा था? मुझे लिखा है कि जिस दिन आएँ, फौरन तार से इत्तला देना।

आजाद - अब तो यही धुन है कि किसी तरह वहाँ पहुँचूँ और जिंदगी के अरमान पूरे करूँ।

बेगम - जी नहीं,पहले आपका इम्तहान होगा। आप रंगीन आदमी ठहरे, आपका एतबार ही क्या?

आजाद - ओफ्फोह! यह बदगुमानी। खैर साहब अख्तियार है, मगर हमारे साथ चलने का इरादा है या नहीं?

बेगम - नहीं साहब, यह हमारे यहाँ का दस्तूर नहीं। बहनोई के साथ जवान सालियाँ सफर नहीं करती। वक्त पर उनके साथ आ जाऊँगी।

आजाद - खैर, इतनी इनायत क्या कम है। अब आप जा कर परदे में बैठिए, मैं दीवाना हो जाऊँगा।

बेगम - क्यों साहब, यही आपका इश्क है? इसी बूते पर इम्तहान दीजिएगा।

बेगम साहब ने वहाँ ज्यादा देर तक बैठना मुनासिब न समझा। आजाद भी बाहर चले गए। खिदमतगार ने हुक्का भर दिया। पलंग पर लेटे-लेटे हुक्का पीने लगे तो खयाल आया कि आज मुझसे बड़ी गलती हुई, अगर मिरजा साहब मुझे घूरते देख लेते तो अपने दिल में क्या कहते। अब यहाँ ज्यादा ठहरना गलती है। खुदा करे, आज के चौथे दिन वहाँ पहुँच जाऊँ। बेगम साहब ने मुझे हिकारत की निगाह से देखा होगा।

वह अभी यही सोच रहे थे कि जैनब ने बेगम साहब का एक खत ला कर उन्हें दिया। लिखा था- अभी-अभी मैंने सुना है कि आपके साथ दो लेडियाँ आई हैं। दोनों कमसिन हैं और आप भी जवान। आग और फूस का साथ क्या? अगर वाकई तुमने इन दोनों के साथ शादी कर ली है तो बड़ा गजब किया, फिर उम्मेद न रखना कि हुस्नआरा तुमको मुँह लगाएँगी। तुमने सारी की-कराई मिहनत तक खाक में मिला दी। और अगर शादी नहीं की तो यहाँ लाए क्यों? तुम्हें शर्म नहीं आती? हुस्नआरा गरीब तो तुम्हारी मुहब्बत की आग में जले और तुम सौतों को साथ लाओ -

क्या कहर हैं क्योंकर न उठे दर्द जिगर में,मेरी तो बगल खाली है और आपके बर में।एक आन भी मुझसे न मिलो आठ पहर में,घर छोड़के अपना रहो यों और के घर में।

तुम और गैरों को साथ लाओ, तुम्हारी तरह हुस्नआरा भी अब तक शादी कर लेतीं तो तुम क्या बना लेते? तुमको इतना भी ख्याल न रहा कि हुस्नआरा के दिल पर क्या असर होगा! तुम्हारे हजारों चाहने वाले हैं तो उसके गाहक भी अच्छे-अच्छे शाहजादे हैं। मैंने ठान ली है कि हुस्नआरा को आपके हाल से इत्तला दूँ, और कह दूँ कि अब वह आजाद नहीं रहे, अब दो-दो बगल में रहती हैं, उस पर बहू-बेटियों पर बुरी निगाह रखते हैं। अगर तुमने मेरा इतमिनान न कर दिया तो पछताओगे।

यह खत पढ़ कर आजाद ने जैनब से कहा - क्यों, तुम इधर की उधर लगा-लगा कर आपस में लड़वाती हो? तुमने उनसे जाके क्या कह दिया, मुझसे भी पूछ लिया होता।

जैनब - ऐ हुजूर, तो मेरा इसमें क्या कुसूर। मुझसे जो सरकार ने पूछा, वह मैंने बयान कर दिया। इसमें बंदी ने क्या गुनाह किया!

आजाद - खैर, तो हुआ सो हुआ, लाओ कलम-दावात।

आजाद ने उसी वक्त इस खत का जवाब लिखा - बेगम साहब की खिदमत में आदाब-अर्ज करता हूँ। आप मुझ पर बेवफाई का इलजाम लगाती हैं। आपको शायद यकीन न आएगा, मगर अकसर मुकामों पर ऐसी-ऐसी परियाँ मुझ पर रीझी हें कि अगर हुस्नआरा का सच्चा इश्क न होता तो मैं हिंदोस्तान में आने का नाम न लेगा, मगर अफसोस है कि मेरी कुल मिहनत बेकार गई। मेरा खुदा जानता है, जिन-जिन जंगलों, पहाड़ों पर मैं गया, कोई कम गया होगा। हफ्तों एक अँधेरी कोठरी मे कैद रहा, जहाँ किसी जानदार की सूरत नजर न आती थी। और यह सब इसलिए कि एक परी मुझसे शादी करना चाहती थी और मैं इन्कार करता था कि हुस्नआरा को क्या मुँह दिखाऊँगा। यह दोनों लेडियाँ जो मेरे साथ हैं, उन्होंने मुझ पर बड़े-बड़े एहसान किए हैं। गाढ़े वक्त में काम आई हैं, वरना आज आजाद यहाँ न होता। मगर इतने पर भी आप नाराज हो रही हैं, इसे अपनी बदनसीबी के सिवा और क्या कहूँ। खुदा के लिए कहीं हुस्नआरा को न लिख भेजना। और अगर यही चाहती हो कि मैं जान दूँ तो साफ-साफ कह दो। हुस्नआरा को लिखने से क्या फायदा। और क्या लिखूँ। तबीयत बेचैन है।

बेगम साहब ने यह खत पढ़ा तो गुस्सा ठंडा हो गया, छमछम करती हुई परदे के पास आ कर खड़ी हुई तो देखा - आजाद सिर पर हाथ रख कर रो रहे हैं। आहिस्ता से पुकारा - आजाद!

जैनब - हुजूर, देखिए कौन सामने खड़ा है? जरी उधर निगाह तो कीजिए।

बेगम - आजाद, जो रोए तो हमीं को है-है करे। जैनब, जरा सुराही तो उठा ला, मुँह पर छींटे दे।

जैनब - हुजूर, क्या गजब कर रहे हैं, वह सामने कौन खड़ा है?

आजाद - (बेगम साहब की तरफ रुख कर के) क्या हुक्म है?

बेगम - मेरा तो कलेजा धक-धक कर रहा है।

आजाद - कोई बात नहीं। खुदा जाने, इस वक्त क्या याद आया। आपको तकलीफ होती है, आप जायँ, मैं बिलकुल अच्छा हूँ।

बेगम - अब चोंचले रहने दो, मुँह धो डालो, वाह, मर्द हो कर आँसू बहाते हो? तुमसे तो छोकरियाँ अच्छी। यह तुम लड़ाई में क्या करते थे?

आजाद - जलाओ और उस पर ताने दो।

बेगम - क्या खूब, जलाने की एक ही कही। जलाते तुम हो या मैं? एक छोड़ दो-दो। वहाँ से लाए, ऊपर से बातें बनाते हो, मुँह दिखाने काबिल नहीं रखा अपने को हुस्नआरा ने उड़ती खबर पाई थी कि आजाद ने किसी औरत को ब्याह लिया तो पछाड़ें खाने लगीं। एक तुम हो कि जोड़ी साथ लाए और ऊपर से कहते हो, जलाओ। तुम्हें शर्म भी नहीं आती?

आजाद - क्या टेढ़ी खीर है, न खाते बने, न छोड़ते बने।

बेगम - तो फिर साफ-साफ क्यों नहीं बता देते?

आजाद - ब्याहता बीवी हैं दोनों, और क्या कहें।

बेगम - अच्छा साहब, ब्याहता बीवी नहीं, दोनों आपकी बहनें सही, अब खुश हुए? बरसों बाद आए तो एक काँटा साथ लेके। भला सोचो, मैं चुपकी हो रहूँ तो हुस्नआरा क्या कहेगी कि वाह बहन, तुमने हमको लिखा भी नहीं। लेकिन दो में क्या फायदा होगा तुम्हें?

आजाद - आप दिल्लगी करती हैं और मैं चुप हूँ। फिर मेरी भी जुबान खुलेगी।

बेगम - तुम हमको सिर्फ इतना बतला दो कि यह दोनों यहाँ किस लिए आई हैं, तो मैं चुप ही रहूँ।

आजाद - तो उन दोनों को यहाँ बुला लाऊँ?

बेगम - उनको आने दो, उनसे सलाह लेके जवाब दूँगी।

आजाद - तो क्या आप हममें और उनमें कोई फर्क समझती हैं। मैं तो तुमको और हुस्नआरा को एक नजर से देखता हूँ।

बेगम - बस, अब मैं कह बैठूँगी। बड़े बेशर्म हो, छँटे हुए बेहया।

इतने में जैनब ने आ कर कहा - मिरजा साहब आ गए। बेगम साहब झपट कर कोठे पर हो रहीं और आजाद बारादरी में आ कर लेट रहे।

मिरजा - आपने अभी तक हम्माम किया या नहीं? बड़ी देर हो गई है। जिस तरफ जाता हूँ, लोग गाड़ी रोक कर आपका हाल पूछने लगते हैं। कल शाम को सब लोग आपसे टाउनहाल में मिलना चाहते हैं। हाँ यह तो फरमाइए, यह दोनों परियाँ कौन हैं? एक तो उनमें से किसी और मुल्क की मालूम होती है।

आजाद - एक तो रूस की है और दूसरी कोहकाफ की।

मिरजा - यार, बुरा किया। हुस्नआरा सुनेंगी तो क्या कहेंगी?

इधर तो यह बातें हो रही थीं, उधर शिताबजान ने खोजी से कहा- जरा अकेले में चलिए, आपसे कुछ कहना है। खोजी ने कहा - खुदा की कुदरत है कि माशूक तक हमसे अकेले में चलने को कहते हैं। जो हुक्म हो, बजा लाऊँ। अगर तोप के मोहरे पर भेज दो तो अभी चला जाऊँ। यह तो कहो, तुम्हारे सबब से चुप हूँ, नहीं अब तक दस-पाँच को कत्ल कर चुका होता।

यह कह कर ख्वाजा साहब झपट कर बाहर निकले। इत्तिफाक से एक गाड़ीवान आहिस्ता-आहिस्ता गाड़ी हाँकता चला जाता था। खोजी उसे गालियाँ देने लगे - भला बे गीदी, भला, खबरदार जो आज से यह अेबदबी की। तू जानता नहीं, हम कौन हैं? हमारे मकान की तरफ से गाता हुआ निकलता है। हमें भी रिआया समझ लिया है। भला बी शिताबजान गाड़ी की घड़घड़ाहट सुनेंगी तो उनके कानों को कितना नागवार लगेगा! गाड़ीवाला पहले तो घबराया कि यह माजरा क्या है! गाड़ी रोक कर खोजी की तरफ घूरने लगा। मगर जब ख्वाजा साहब झपट कर गाड़ी के पास पहुँचे, और चाहा कि लकड़ी जमाएँ कि उसने इनके दोनों हाथ पकड़ लिए। अब आप सिटपिटा रहे हैं और वह छोड़ता ही नहीं।

खोजी - कह दिया, खैर इसी में है कि हमारा हाथ छोड़ दो, वरना बहुत पछताओगे। मैं जो बिगड़ूँगा तो एक पलटन के मनाए भी न मानूँगा।

गाड़ीवान - हाथ तो अब तुम्हारे छुड़ाए नहीं छूट सकता।

खोजी - लाना तो मेरी करौली।

गाड़ीवान - लाना तो मेरा ढाई तलेवाला चमरौधा।

खोजी - शरीफों में ऐसी बातें नहीं होतीं।

गाड़ीवान - शरीफ कभी तुम्हारे बाप भी थे कि तुम्हीं शरीफ हुए?

खोजी - अच्छा, हाथ छोड़ दो। वरना इतनी करौलियाँ भोंकूँगा कि उम्र भर याद करोगे।

गाड़ीवान ने इस पर झल्ला कर खोजी का हाथ मरोड़ना शुरू किया। खोजी की जान पर बन आई, मगर क्या करें। सबसे ज्यादा ख्याल इस बात का था कि कहीं शिताबजान न देख लें, नहीं तो बिलकुल नजरों से गिर जाऊँ।

खोजी - कहता हूँ, हाथ छोड़ दे, मैं कोई ऐसा वैसा आदमी नहीं हूँ।

गाड़ीवान - मैं तो गाता हुआ चला जाता था। आपने गालियाँ क्यों दीं?

खोजी - हमारे घर की तरफ से क्यों गाते जाते थे?

गाड़ीवान - आप मना करने वाले कौन? क्या किसी की जबान बंद कर दीजिएगा?

बारे कई आदमियों ने गाड़ीवान को समझा कर खोजी का हाथ छुड़ाया। खोजी झाड़-पोंछ कर अंदर गए और शिताबजान से बोले - मैं बात पीछे करता हूँ, करौली पहले भोकता हूँ। पाजी गाता हुआ जाता था। मैंने पकड़ कर इतनी चपतें लगाईं कि भुरता ही बना दिया। मेरे मुँह में आग बरसती है। अच्छा, अब यह फरमाइए कि किस नेकबख्त बदनसीब से तुम्हारी शादी पहले हुई थी वह अब कहाँ है और कैसा आदमी था?

शिताबजान - यह तो मैं पीछे बतलाऊँगी। पहले यह फरमाइए कि उसको नेकबख्त कहा तो बदनसीब क्यों कहा? जो नेकबख्त है वह बदनसीब कैसे हो सकता है?

खोजी - कसम खुदा की, मेरी बातें जवाहिरात में तोलने के काबिल हैं। नेकबख्त इसलिए कहा कि तुम जैसी बीवी पाई। बदनसीब इसलिए कहा कि या तो वह मर गया या तुमने उसे निकाल बाहर किया।

शिताबजान - अच्छा सुनिए, पहले मेरी शादी एक खूबसूरत जवान के साथ हुई थी। जिसकी नजर उस पर पड़ी, रीझ गया।

खोजी - यहाँ भी तो वही हाल है। घर से निकलना मुश्किल है।

शिताबजान - हाजिर-जवाब ऐसा था कि बात की बात में गजलें कह डालता था।

खोजी - यह बात मुझमें भी है। दस हजार शेर एक मिनट में कह दूँ, एक कम न एक ज्यादा!

शिताबजान - मैं यह कब कहती हूँ कि तुम उससे किसी बात में कम हो। अव्वल तो जवान गभरू, अभी मसें भींगती हैं। आदमी क्या, शेर मालूम होते हो। फिर सिपाही आदमी हो, उस पर शायर भी हो। बस जरा झल्ले हो, इतनी खराबी है।

खोजी - अगर मेरा हुक्म मानती हो तो मोम हो जाऊँगा। हाँ, लड़ोगी तो हमारा मिजाज बेशक झल्ला है।

शिताबजान - मियाँ, मैं लौंडी बनके रहूँगी। मुझसे लड़ाई-झगड़े से वास्ता? मगर यह बताओ कि रहोगे कहाँ? मैं बंबई में रहूँगी। तुम्हारे साथ मारी-मारी न फिरूँगी।

खोजी - तुम जहाँ रहोगी, वहीं मैं रहूँगा; मगर...

शिताबजान - अगर-मगर मैं कुछ नहीं जानती। एक तो तुमको अफीम न खाने दूँगी! तुमने अफीम खाई और मैंने किसी बहाने से जहर खिला दिया।

खोजी - अच्छा न खाएँगे। कुछ जरूरी है कि अफीम खाए ही। न खाई, पी ली, चलो छुट्टी हुई।

शिताबजान - पीने भी न दूँगी। दूसरी शर्त यह है कि नौकरी जरूर करो, बगैर नौकरी के गुजारा नहीं। तीसरी शर्त यह है कि मेरे दोस्त और रिश्तेदार जो आते हैं, बदस्तूर आया करेंगे।

खोजी - वाह, कहीं आने न दूँ। इन बदमाशों को फटकने न दूँगा।

शिताबजान - अच्छा तो कल मेरे घर चलो, वहीं हमारा निकाह होगा।

दूसरे दिन खोजी शिताबजान के साथ उसके घर चले। बंबई से कई स्टेशन के बाद शिताबजान गाड़ी से उतर पड़ी और खोजी से कहा - अब आपके पास जितने रुपए पैसे हों, चुपके से निकाल कर रख दो। मेरे घरवाले बिना नजराना लिए शादी न करेंगे।

खोजी ने देखा कि यहाँ बुरे फँसे। अब अगर कहते हैं कि मेरे पास रुपए नहीं हैं तो हेठी होती है। उन्होंने समझा था कि शादी का दो घड़ी मजाक रहेगा, मगर अब जो देखा कि सचमुच शादी करनी पड़ेगी तो चौकन्ने हुए। बोले - मैं तो दिल्लगी करता था जी। शादी कैसी और ब्याह कैसा? कुछ ऊपर साठ बरस का तो मेरा सिन है, अब भला मैं शादी क्या करूँगा। तुम अभी जवान हो, तुमको सैकड़ों जवान मिल जाएँगे।

शिताबजान - तुमको इससे मतलब क्या! इसकी मुझे फिक्र होनी चाहिए। जब मेरा तुम पर दिल आया और तुम भी निकाह करने पर राजी हुए तो अब इनकार करना क्या माने। अच्छे हो तो मेरे, बुरे हो तो मेरे।

मियाँ खोजी घबराए, सिट्टी-पिट्टी भूल गई। अपनी अक्ल पर बहुत पछताए और उसी वक्त आजाद के नाम यह खत लिखा - मेरे बड़े भाई साहब, सलाम! मेरी आँख से अब गफलत का परदा उठ गया। मैं कुछ ऊपर साठ बरस का हूँगा। इस सिन में निकाह का ख्याल सरासर गैर मुनासिब है। मगर शिताबजान मुझ पर बुरी तरह आशिक हो गई है। उसका सबब यह है कि जिस तरह मेरा जिस्म चोर है उसी तरह मेरी सूरत भी चोर है। मुझे कोई देखे तो समझे कि हड्डियाँ तक गल गई हैं, मगर आप खूब जानते हैं कि इन्हीं हड्डियों के बल पर मैंने मिस्र के नामी पहलवान को लड़ा दिया और बुआ जाफरान जैसी देवनी की लातें सहीं। दूसरा होता, तो कचूमर निकल जाता। उसी तरह मेरी सूरत में भी यह बात है कि जो देखता है, आशिक हो जाता है। मैं खुद सोचता हूँ कि यह क्या बात है, मगर कुछ समझ में नहीं आता। खैर, अब आपसे यह अर्ज है कि खत देखते मेरी मदद के लिए दौड़ो, वरना मौत का सामना है। सोचा था कि शादी न होगी तो लोग हँसेंगे कि आजाद तो दो-दो साथ लाए और ख्वाजा साहब मोची के मोची रहे। लेकिन यह क्या मालूम था कि यह शादी मेरे लिए जहर होगी। जरा शर्तें तो सुनिए - अफीम छोड़ दो और नौकरी कर लो। अब बताइए कि अफीम छोड़ दूँ तो जिंदा कैसे रहूँ? अब रही नौकरी। यहाँ लड़कपन से फिकरेबाजों की सोहबत में रहे। गप्पे उड़ाना, बातें बनाना, अफीम की चुस्की लगाना हमारा काम है। भला हमसे नौकरी क्या होगी, और करना भी चाहें तो किसकी नौकरी करें। सरकारी नौकरी तो मिलने से रही, वहाँ तो आदमी पचपन साल का हुआ और निकाला गया, और यहाँ पचपन और दस पैंसठ बरस के हैं। हम तो इसी काम के हैं कि किसी नवाबजादे की सोहबत में रहें और उसको ऐसा पक्का रईस बना दें कि वह भी याद करे। चंडू का कवाम हमसे बनवा ले, अफीम ऐसी पिलाएँ कि उम्र भर याद करे, रहा यह कि हम जमा खर्च लिखें, यह हमसे न होगा, जिसको अपना काम गारत कराना हो वह हमें नौकर रखे। इसलिए अगर मेरा गला यहाँ से छुड़ा दो तो बड़ा एहसान हो। खुदा जाने, तुम लोग मुझे क्यों खाक में मिलाते हो, तुम्हारे साथ रूम गया, तुम्हारी तरफ से लड़ा-भिड़ा, वक्त-बेवक्त काम आया और अब तुम मुझे जबह किए देते हो।

यह खत लिख कर शिताबजान को दिया और आजाद के पास जल्द पहुँचा दो। शादी के मामले में उनसे कुछ सलाह करनी है।

शिताबजान - सलाह की क्या जरूरत है भला?

खोजी - शादी-ब्याह कोई खाला जी का घर नहीं है, जरा आदमी को इस बारे में ऊँच-नीच सोच लेना चाहिए, मैंने सिर्फ यह पूछा है कि तुम्हारी शर्तें मंजूर करूँ या नहीं।

शिताबजान - अच्छा जाओ, मैं कोई शर्त नहीं करती।

खोजी - अब मंजूर, दिल से मंजूर, मगर यह खत तो भेज दो।

अब सुनिए कि सिताबजान के साथ एक खाँ साहब भी थे। मालबे के रहनेवाले। उन्होंने खोजी को दो दिन में इतनी अफीम पिला दी जितनी वह चार दिन में भी न पीते। सफर में सेहत भी कुछ बिगड़ गई थी। दो ही दिन में चुर्र-मुर्र हो गए। लेटे-लेटे खाँ साहब से बोले - जनाब, दूसरा इतनी अफीम पीता तो बोल जाता, क्या मजाल कि इस शहर में कोई मेरा मुकाबिला कर सके, और इस शहर पर क्या मौकूफ है, जहाँ कहिए, मुकाबिले के लिए तैयार हूँ, कोई तोले भर पिए तो मैं सेर भर पी जाऊँ।

खाँ साहब - मगर उस्ताद, आज कुछ अंजर-पंजर ढीले नजर आते हैं, शायद अफीम ज्यादा हो गई।

खोजी - वाह, ऐसा कहीं कहिएगा भी नहीं। जब जी चाहे, साथ बैठ कर पी लीजिए।

शाम तक खोजी की हालत और भी खराब हो गई। शिताबजान ने उन्हें दिक करना शुरू किया। ऐ आग लगे तेरे सोने पर मरदुए, कब तक सोता रहेगा!

खोजी - सोने दो, सोने दो।

शिताब - भला खैर, हम तो समझे थे, खबर आ गई।

खाँ - कहती किससे हो, वह पहुँचे खुदागंज।

शिताब - ऐ फिर पिनक आ गई, अभी तो जिंदा हो गया था।

खाँ - (कान के पास जा कर) ख्वाजा साहब!

खोजी - जरा सोने दो भाई।

शिताब - मेरे यहाँ पिनकवालों का काम नहीं है।

खाँ - ख्वाजा साहब, अरे ख्वाजा साहब, ये बोलते ही नहीं! चल बसे!

ख्वाजा साहब की हालत जब बहुत खराब हो गई, तो एक हकीम साहब बुलाए गए। उन्होंने कहा - जहर का असर है। नुस्खा लिखा। बारे कुछ रात जाते-जाते नशा टूटा। खोजी की आँखें खुलीं।

शिताब - मैं तो समझी थी, तुम चल बसे।

खोजी - ऐसा न कहो भाई, जवानी की मौत बुरी होती है।

शिताब - मर मुड़ीकाटे, अभी जवान बना है!

खोजी - बस जबान सँभालो, हम समझ गए कि तुम कोई भठियारी हो। मैं अगर अपने हालात बयान करूँ तो आँखें खुल जाएँ। हम अमीर-कबीर के लड़के हैं। लड़कपन में हमारे दरवाजे पर हाथी बँधता था, तुम जैसी भठियारियों को मैं क्या समझता हूँ।

यह कह कर आप मारे गुस्से के घर से निकल खड़े हुए, समझते थे कि शिताबजान मुझ पर आशिक है ही, उससे भला कैसा रहा जायगा, जरूर मुझे तलाश करने आएगी, लेकिन जब बहुत देर गुजर गई और शिताबजान ने खबर न ली तो आप लौटे! देखा तो शिताबजान का कहीं पता नहीं, घर का कोना-कोना टटोला, मगर शिताबजान वहाँ कहाँ? उसी महल्ले में एक हबशिन रहती थी। खोजी ने जा कर उससे अपना सारा किस्सा कहा, तो वह हँस कर बोली - तुम भी कितने अहमक हो। शिताबजान भला कौन है? तुमको मिरजा साहब और आजाद ने चकमा दिया है।

खोजी को आजाद की बेवफाई का बहुत मलाल हुआ। जिसके साथ इतने दिनों तक जान-जोखिम करके रहे, उसने हिंदोस्तान में लाके उन्हें छोड़ दिया। खूब रोए, तब हबशिन से बातें करने लगे -

खोजी - किस्मत कहाँ से हमें कहाँ लाई?

हबशिन - आपका घोंसला किस झाड़ी में है?

खोजी - हम खोजिस्तान के रहनेवाले हैं।

हबशिन - यह किस जगह का नाम लिया? खोजिस्तान तो किसी जगह का नाम नहीं मालूम होता।

खोजी - तो क्या सारी दुनिया तुम्हारी देखी हुई है? खोजिस्तान एक सूबा है, शकरकंद और जिलेबिस्तान के करीब। बताशा नदी उसे सैराब करता है।

हबशिन - भला शकरकंद भी कोई देस है?

खोजी - है क्यों नहीं, समरकंद का छोटा भाई है।

हबशिन - वहाँ आप किस मुहल्ले में रहते थे?

खोजी - हलुवापुर में।

हबशिन - तब तो आप बड़े मीठे आदमी हैं।

खोजी - मीठे तो नहीं, हैं तो तीखे, नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते, मगर मीठी नजर के आशिक हैं -

ख्वाहिश न कंद की है, न तालिब शकर के हैं;

चस्के पड़े हुए तेरी मीठी नजर के हैं।

हबशिन - तो आप भी मेरे आशिकों मे हैं?

खोजी - आशिक कोई और होंगे, हम माशूकों के माशूक हैं। सारी दुनिया छान डाली, पर जहाँ गया, माशूकों के मारे नाक में दम हो गया। बुआ जाफरान नामी एक औरत हम पर इतनी रीझी कि पट्टे पकड़के दे जूता दे जूता मारके उड़ा दिया। मगर हमारी बहादुरी देखो कि उफ तक न की।

हबशिन - हमको यकीन क्योंकर आए? हम तो जब जानें कि सिर झुकाओ और हम दो-चार लगाएँ, फिर देखें, कैसे नहीं उफ करते।

खोजी - हाँ, हम हाजिर हैं, मगर आज अभी अफीम यों ही सी पी है। जब नशा जमे तब अलबत्ता आजमा लो।

हबशिन - ऐ है, फिर निगोड़ी अफीम का नाम लिया, मरते-मरते बचे और अब तक अफीम ही अफीम कहते जाते हो?

खोजी - तुम इसके मजे क्या जानो। अफीम खाना फकीरी है। गरूर को तो यह खाक में मिला देती है। मैं कितनी ही जगह पिटा, कभी जूतियाँ खाईं, कभी कोई काँजीहौस ले गया, मगर हमने कभी जवाब न दिया।

हबशिन चली गई तो खोजी साहब ने एक डोली मँगवाई और उसमें बैठ कर चंडूखाने पहुँचे। लोगों ने इन्हें देखा तो चकराए कि यह नया पंछी कौन फँसा।

खोजी - सलाम आलेकुम भाइयो!

इमामी - आलेकुम भाई, आलेकुम। कहाँ से आना हुआ?

खोजी - जरा टिकने दो, फिर कहूँ। दो बरस लड़ाई पर रहा, जब देखो मारेचाबंदी, मर मिटा, मगर नाम भी वह किया कि सारी दुनिया में मशहूर हो गया।

इमामी - लड़ाई कैसी? आजकल तो कहीं लड़ाई नहीं है।

खोजी - तुम घर में बैठे-बैठे दुनिया का क्या हाल जानो।

कादिर - क्या रूम-रूम की लड़ाई से आते हो क्या?

खोजी - खैर, इतना तो सुना।

इमामी - अजी, यह न कहिए, इनको सारी दुनिया का हाल मालूम रहता है। कोई बात इनसे छिपी थोड़ी हैं।

कादिर - रूमवाले ने रूस के बादशाह से कहा कि जिस तरह तुम्हारा चचा हकीमी कौड़ी देता था उसी तरह तुम भी दिया करो, मगर उसने न माना। इसी बात पर तकरार हुई, तो रूमवाले ने कहा, अच्छा, अपने चचा की कब्र में चलो और पूछ देखो, क्या आवाज आती है। बस जनाब, सुनने की बात है कि रूमवाले ने न माना। रूम के बादशाह के पास हजरत सुलेमान की अँगूठी थी। उन्होंने जो उसे हवा में उछाला, तो सैकड़ों जिन्न हाजिर हो गए। बादशाह ने कहा कि रूस में चारों तरफ आग लगा दो। चारों तरफ आग लग गई। तब रूस के बादशाह ने वजीरों को जमा करके कहा, आग बुझाओ, बस सवा करोड़ मिश्ती मशकें भर भरके दौड़े। एक-एक मशक में दो-दो लाख मन पानी आता था।

खोजी - क्यों साहब, यह आपसे किसने कहा है?

इमामी - अजी, यह न पूछो, इनसे फरिश्ते सब कह जाते हैं।

कादिर - बस साहब, सुनने की बातें हैं कि सवा दो करोड़ मशकें मुल्क के चारों कोनों पर पड़ती थीं, मगर आग बढ़ती ही जाती थी। तब बादशाह ने हुक्म दिया कि दो करोड़ लाख भिश्ती काम करें और मशकों में छब्बीस-छब्बीस करोड़ मन पानी हो।

खोजी - ओ गीदी, क्यों इतना झूठ बोलता है?

शुबराती - मियाँ, सुनने दो भाई, अजब आदमी हो।

खोजी - अजी, मैं तो सुनते-सुनते पागल हो गया।

कादिर - आप लखनऊ के महीन आदमी, उन मुल्कों का हाल क्या जानें। रूम, रूस, तुरान, अनूपशहर का हाल हमसे सुनिए।

इमामी - वहाँ के लोग भी देव होते हैं देव!

कादिर - रूस के बादशाह की खुराक का हाल सुनो तो चकरा जाओ।

सबेरे मुँह अँधेरे 6 बकरों की यखनी, चार बकरों के कबाब, दस मुर्ग का पोलाव और दस मुरैले तरकीब से खाते हैं, और 9 बजे के वक्त सौ मुर्गों का शोरबा और दस सेर ठंडा पानी, बारह बजे जवाहिरात का शरबत, कभी पचास मन, कभी साठ मन, चार बजे दो कच्चे बकरे, दो कच्चे हिरन, शाम को शराब का एक पीपा और पह रात गए गोश्त का एक छकड़ा।

इमामी - जब तो ताकतें होती हैं कि सौ-सौ आदमियों को एक आदमी मार डालता है। हिंदोस्तान का आदमी क्या खा कर लड़ेगा।

शुबराती - हिंदोस्तान में अगर हाजमे की ताकत कुछ है तो चंडू के सबब से, नहीं तो सब के सब मर जाते।

इमामी - सुना, रूसवाले हाथी से अकेले लड़ जाते हैं।

कादिर - हमसे सुनो, दस हाथी हों और एक रूसी तो वह दसों को मार डालेगा।

खोजी - आप रूस कभी गए भी हैं?

कादिर - अजी हम बैठे सारी दुनिया की सैर कर रहे हैं।

खोजी - हम तो अभी लड़ाई के मैदान से आते हैं, वहाँ एक हाथी भी न देखा।

कादिर - रूमवालों ने जब आग लगा दी, तो वह ग्यारह बरस, ग्यारह महीने, ग्यारह दिन, ग्यारह घंटे जला की। अब जाके जरी-जरी आग बुझी है, नहीं तो अजब नक्शा था कि सारा मुल्क चल रहा है और पानी का छिड़काव हो रहा है। रूमवाले जब रात को सोते हैं तो हर मकान में दो देवों का पहरा रहता है।

खोजी - अरे यारो, इस झूठ पर खुदा की मार, हम बरसों रहे, एक देव भी न देखा।

कादिर - आपकी तो सूरत ही कहे देती है कि आप रूम जरूर गए होंगे। खुदा झूठ न बुलवाए तो घर के बाहर कदम नहीं रखा।

खोजी समझे थे कि चंडूखाने में चल कर अपने सफर का हाल बयान करेंगे और सबको बंद कर देंगे, चंडूखाने में इनकी तूती बोलने लगेगी, मगर यहाँ जो आए तो देखा कि उनके भी चचा मौजूद हैं। झल्ला कर पूछा, बतलाओ तो रूम के पायतख्त का क्या नाम है?

कादिर - वाह, इसमें क्या रखा है, भला-सा नाम तो है, हाँ मर्जबान।

खोजी - इस नाम का तो वहाँ कोई शहर ही नहीं।

कादिर - अजी, तुम क्या जानो, मर्जबान वह शहर है जहाँ पहाड़ों पर परियाँ रहती हैं। वहाँ पहाड़ों पर बादल पानी पी-पी कर जाते हैं और सबको पानी पिलाते हैं।

खोजी - तो वह कोई दूसरा रूम होगा। जिस रूम से मैं आता हूँ वह और है।

कादिर - अच्छा बताओ, रूम के बादशाह का क्या नाम है?

खोजी - सुलतान अब्दुलहमीद खाँ।

कादिर- बस-बस, रहने दीजिए आप नहीं जानते, उस पर दावा यह है कि हम रूम से आते हैं। भला लड़ाई का क्या नतीजा हुआ, यही बताइए?

खोजी - पिलौना की लड़ाई में तुर्क हार गए और रूसियों ने फतह पाई।

कादिर - क्या बकता है बेहूदा। खबरदार जो ऐसा कहा होगा तो इतने जूते लगाऊँगा कि भुरकस ही निकल जायगा।

इमामी - हमारे बादशाह के हक में बुरी बात निकालता है, बेअदब कहीं का। बच्चा, यहाँ ऐसी बाते करोगे तो पिट जाओगे।

खोजी - सुनो जी, हम फौजी आदमी हैं।

कादिर - अब ज्यादा बोलोगे तो उठ कर कचूमर ही निकाल दूँगा।

शुबराती - यह हैं कहाँ के, जरा सूरत तो देखो, मालूम होता है,कब्र से निकल भागा है।

खोजी को सबने मिल कर ऐसा डपटा कि बेचारे करौली और तमंचा भूल गए। गए तो बड़े जोम में थे कि चंडूखाने में खूब डींग हाँकेंगे, मगर वहाँ लेने के देने पड़ गए। चुपके से चंडू के छीटे उड़ाए और लंबे हुए। रास्ते में क्या देखते हैं कि बहुत से आदमी एक जगह खड़े हैं। आपने घुस कर देखा तो एक पहलवान बीच में बैठा है और लोग खड़े उसकी तारीफों के पुल बाँध रहे हैं। खोजी ने समझा कि हमने भी तो मिस्र के पहलवान को पटका था, हम क्या किसी से कम हैं? इस जोम में आपने पहलवान को ललकारा - भाई पहलवान, हम इस वक्त इतने खुश हैं कि फूले नहीं समाते। मुद्दत के बाद आज अपना जोड़ीदार पाया।

पहलवान - तुम कहाँ के पहलवान हो भाई साहब?

खोजी - यार, क्या बताएँ। अपने साथियों में कोई रहा ही नहीं। अब तो कोई पहलवान जँचता ही नहीं।

पहलवान - उस्ताद, कुछ हमको भी बताओ।

खोजी - अजी, तुम खुद उस्ताद हो।

पहलवान - आप किसके शागिर्द हैं?

खोजी - शागिर्द तो भाई, किसी के नहीं हुए। मगर हाँ, अच्छे-अच्छे उस्तादों ने लोहा मान लिया। हिंदोस्तान से रूम तक और रूम से रूस तक सर कर आया। तुम आजकल कहाँ रहते हो?

पहलवान - आजकल एक नवाब साहब के यहाँ हैं। तीन रुपया रोज देते हैं। एक बकरा, आठ सेर दूध और दो सेर घी बँधा है। नवाब अमजदअली नाम है।

खोजी - भला वहाँ चंडू की भी चर्चा रहती हैं?

पहलवान - कुछ मत पूछिए भाई साहब, दिन-रात।

खोजी - भला वहाँ मस्तियाबेग भी हैं?

पहलवान - जी हाँ हैं, आप कैसे जान गए?

खोजी - अजी, वह कौन सा नवाब है जिसकी हमने मुसाहबी न की हो। नवाब अमजदअजी के यहाँ बरसों रहा हूँ। बटेरों का अब भी शौक है या नहीं?

पहलवान - अजी, अभी तक सफशिकन का मातम होता है।

खोजी - तुम्हारा कब तक जाने का इरादा है?

पहलवान - मैं तो आज ही जा रहा हूँ।

खोजी - तो भाई, हमको भी जरूर लेते चलो। हम अपना किराया दे देंगे।

पहलवान - तो चलिए, मेरा इसमें हरज ही क्या है। हमको नवाब साहब ने सिर्फ दो दिन की छुट्टी दी थी। कल यहाँ दाखिल हुए, आज दंगल में कुश्ती निकाली और शाम को रेल पर चल देंगे। हमारे साथ मस्तियाबेग भी हैं।

शाम को पहलवान के साथ खोजी स्टेशन पर आए। पहलवान ने कहा - वह देखिए मिरजा साहब खड़े हैं, जा कर मिल लीजिए। ख्वाजा आहिस्ता-आहिस्ता गए और पीछे से मिरजा साहब की आँखें बंद कर लीं।

मिरजा - कौन है भाई, कोई मुसम्मात हैं क्या? हाथ तो ऐसे ही मालूम होते हैं।

पहलवान - भला बूझ जाइए तो जानें।

मिरजा - कुछ समझ में नहीं आता, मगर है कोई मुसम्मात।

खोजी - भला गीदी, भला, अभी से भूल गया, क्यों?

मिरजा - अख्खाह, ख्वाजा साहब हैं! कहो भाई खोजी, अच्छे तो रहे?

खोजी - खोजी कहीं और रहते होंगे। अब हमें ख्वाजा साहब कहा करो।

मिरजा - अरे कंबख्त, गले तो मिल ले।

खोजी - सरकार कैसे हैं, घर में तो खैर-आफियत है?

मिरजा - हाँ, सब खुदा का फजल है, बेगम साहब पर कुछ आसेब था, मगर अब अच्छी हैं। कहो, तुमने तो खूब नाम पैदा किया।

खोजी - नाम, अरे हम मेजर थे।

मिरजा - सरकार को इस लड़ाई के जमाने में अखबार से बड़ा शौक था। आजाद को तो सब जानते हैं, मगर तुम्हारा हाल जब से पढ़ा तब से सरकार को अखबारों का एतबार जाता रहा। कहते थे कि समुद्र की सूरत देख कर इसका जिगर क्यों न फट गया। भला इसे लड़ाई से क्या वास्ता।

खोजी - अब इसका हाल तो उन लोगों से पूछो जो मोरचों पर हमारे शरीक थे। तुम मजे से बैठे-बैठे मीठे टुकड़े उड़ाया किए, तुमको इन बातों से क्या सरोकार, मगर भाई, नशों में नशा शराब का। इधर डंके पर चोट पड़ी, उधर सिपाही कम कस कर तैयार हो गए।

मिरजा - अब सरकार के सामने न कहना, नहीं खड़े-खड़े निकाल दिए जाओगे।

खोजी - अजी, अब तो सरकार के बाप के निकाले भी नहीं निकल सकते।

मिरजा - एक बार तो अखबार में लिखा था कि खोजी ने शादी कर ली है।

खोजी - अरे यार, इसका हाल न पूछो, अपनी शक्ल-सूरत का हाल तो हमको बाहर जा कर मालूम हुआ। जिस शहर में निकल गए, करोड़ों औरतें हम पर आशिक हो गईं। खास कर एक कमसिन नाजनीन ने तो मुझे कहीं का न रखा।

मिरजा - तो आपकी सूरत पर सब औरतें जान देती थीं? क्या कहना है, तुमने बहादुरी के काम भी तो खूब किए।

खोजी - भाईजान, मोरचे पर मेरी बहादुरी देखते तो दंग हो जाते। खैर, उस परी पर मेरे सिवा पचास तुर्की अफसर भी आशिक थे। यह राय तय पाई कि जिससे वह परी राजी हो उससे निकाह करें। एक रोज सब बन-ठन कर आए, मगर उस शोख की नजर आपके खादिम ही पर पड़ती थी।

मिरजा - ऐ क्यों नहीं, हजार जान से आशिक हो गई होगी।

खोजी - आव देखा न ताव, इठलाती हुई आई और मेरा हाथ अपने सीने पर रख लिया। अब सुनिए, उन सबों क दिल में हसद की आग भड़की, कहने लग, यों हम न मानेंगे, जो उससे निकाह करे वह पहले पचासों आदमियों से लड़े। हमने कहा, खैर! तलवार खींच कर जो चला, तो वह-वह चोटें लगाईं कि सब के सब बिलबिलाने लगे। बस परी हमको मिल गई। अब दरबार के रंग ढंब बयान करो।

मिरजा - सब तुम्हारी याद किया करते हैं। झम्मन ने वह चुगुलखोरी पर कमर बाँधी हैं कि सैकड़ों खिदमतगार और कितने ही मुसाहबों को मौकूफ करा दिया।

खोजी - एक ही पाजी आदमी है। हम रूम गए, फ्रांस गए, सारी दुनिया के रईस देख डाले, मगर नवाब सा भोला-भाला रईस कहीं न देखा। गजब खुदा का कि एक बादमाश ने जो कह दिया, उसका यकीन हो गया, अब कोई लाख समझाए, वह किसी की सुनते ही नहीं।

मिरजा - मेरा तो अब वहाँ रहने को जी नहीं चाहता।

खोजी - अजी, इस झगड़े को चूल्हे में डालो। अब हम-तुम चल कर रंग जमाएँगे। तुम मेरी हवा बाँधना और हम दोनों एक जान दो काबिल हो कर रहेंगे।

मिरजा - मैं कहूँगा, खुदावंद, अब यह सब मुसाहबों के सिरताज हुए, सारी दुनिया में हुजूर का नाम किया। मगर तुम जरा अपने को लिए रहना।

खोजी - अजी, मैं तो ऐसा बनूँ कि लोग दंग हो जायँ।

जब घंटी बजी और मुसाफिर चले तो खोजी भी पहलवान की तरह अकड़ कर चलने लगे। रेल के दो-चार मुलाजिमों ने उन पर आवाजें कसना शुरू किया।

एक - आदमी क्या गैंडा है, माशा-अल्लाह, क्या हाथ-पाँव हैं!

दूसरा - क्यों साहब, आप कितने दंड पेल सकते हैं?

खोजी - अजी, बीमारी ने तोड़ दिया, नहीं एक पूरी रेल पर लदके जाता था।

तीसरा - इसमें क्या शक है, एक-एक रान दो-दो मन की है।

खोजी - कसम खाके अर्ज करता हूँ कि अब आधा नहीं रहा! यह पहलवान हमारे अखाड़े का खलीफा है, और बाकी सब शागिर्द हें! सब मिलाके हमारे चालीस-बयालीस हजार शागिर्द होंगे।

एक मुसाफिर - दूर-दूर से लोग शागिर्दी करने आते होंगे?

खोजी - दूर-दूर से। अब आप मुलाहिजा फरमाए कि हिंदोस्तान से ले कर रूस तक मेरे लाखों शागिर्द हैं। मिस्र में ऐसा हुआ कि एक पहलवान की शामत आई, एक मेले मे हमको टोक बैठा। टोकना था कि बंदा भी चट लँगोट कसके सामने आ खड़ा हुआ। लाखों ही आदमी जमा थे। उसका सामने आना ही था कि मैं उसी दम जुट गया, दाँव-पेंच होने लगे। उसके मिस्री दाँव थे। हमारे हिंदुस्तानी दाँव थे। बस दम की दम में मैंने उठाके दे पटका।

इतने में दूसरी घंटी हुई। खोजी ऐसे बौखलाए कि जनाने दर्जे में फँस पड़े। वहाँ लेना-लेना का गुल मचा। भागे तो पहले दर्जे में घुस गए, वहाँ एक अंगरेज ने डाँट बताई। बारे निकल कर तीसरे दर्जे में आए। थके-माँदे बहुत थे, सोए तो सारी रात कट गई। आँख खुली तो लखनऊ आ गया। शाम के वक्त नवाब साहब के यहाँ दाखिल हुए।

खोजी - आदाब अर्ज है हुजूर।

नवाब - अख्ख़ाह, खोजी हैं! आओ भाई, आओ।

खोजी - हाजिर हूँ खुदावंद, खुदा का शुक्र है कि आपकी जियारत हुई।

गफूर - खोजी मियाँ, सलाम।

खोजी - सलाम भाई, सलाम, मगर हमको खोजी मियाँ न कहना, अब हम फौज के अफसर हैं।

झम्मन - आप बादशाह हों या वजीर, हमारे तो खोजी ही हो।

खोजी - हाँ भाई, यह तो है ही। हुजूर के नमक की कसम, मुल्कों-मुल्कों इस दरबार का नाम किया।

नवाब - शाबाश! हमने अखबारों में तुम्हारी बड़ी-बड़ी तारीफें पढ़ीं।

खोजी - हुजूर, गुलाम किस लायक है।

झम्मन - भला यार, तुम समुद्र में जहाज पर कैसे सवार हुए?

खोजी - वाह, तुम जहाज की लिए फिरते हो। यहाँ मोरचों पर बड़े-बड़े मेजरों और जनरलों से भिड़-भिड़ पड़े हैं। हुजूर, पिलौना की लड़ाई में कोई दस लाख आदमी एक तरफ थे और सत्तर सवारों के साथ गुलाम दूसरी तरफ था, फिर यह मुलाहिजा कीजिए कि चौदह दिन तक बराबर मुकाबिला किया और सबके छक्के छुड़ा दिए।

झम्मन - इतना झूठ, उधर दस लाख, इधर सत्तर! भला कोई बात है।

खोजी - तुम क्या जानो, वहाँ होते तो होश उड़ जाते।

नवाब - भाई, इसमें तो शक नहीं कि तुमने बड़ा नाम किया। खबरदार, आज से इनको कोई खोजी न कहे। पाशा के लकब से पुकारे जायँ।

खोजी - आदाब हुजूर। झम्मन गीदी ने मुँह की खाई न आखिर। रईसों की सोहबत में ऐसे पाजियों का रहना मुनासिब नहीं।

नवाब - क्यों साहब, हिंदोस्तान के बाहर भी हमको कोई जानता है? सच-सच बताना भाई!

खोजी - हुजूर, जहाँ-जहाँ गुलाम गया, हुजूर का नाम बादशाहों से ज्यादा मशहूर हो गया।

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