Azad Katha - 2 - 86 books and stories free download online pdf in Hindi

आजाद-कथा - खंड 2 - 86

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 86

फीरोजा बेगम और फरखुंदा रात के वक्त सो रही थीं कि धमाके की आवाज हुई फरखुंदा की आँख खुल गई। यह धमाका कैसा? मुँह पर से चादर उठाई, मगर अँधेरा देख कर उठने की हिम्मत न पड़ी। इतने में पाँव की आहट मिली, रोएँ खड़े हो गए। सोची, अगर बोली तो यह सब हलाल कर डालेंगे। दबकी पड़ी रही। चोर ने उसे गोद में उठाया और बाहर ले जा कर बोला - सुनो अब्बासी, हमको तुम खूब पहचानती हो? अगर न पहचान सकी हो, तो अब पहचान लो।

अब्बासी - पहचानती क्यों नहीं, मगर यह बताओ कि यहाँ किस गरज से आए हो? अगर हमारी आबरू लेनी चाहते हो तो कसम खा कर कहती हूँ, जहर खा लूँगी।

चोर - हम तुम्हारी आबरू नहीं चाहते, सिर्फ तुम्हारा जेवर चाहते हैं। तुम अपनी बेगम को जगाओ, जरा उनसे मिलूँगा। नाहक इधर-उधर मारी-मारी फिरती हैं, हमारे साथ निकाह क्यों नहीं कर लेतीं?

यकायक फीरोजा की आँख भी खुल गई। देखा तो मिर्जा आजाद खड़े हैं। बोली, आजाद मिर्जा, अगर हमें दिक करने से तुम्हें कुछ मिलता हो तो तुमको अख्तियार है। नाहक क्यों हमारी जान के दुश्मन हुए हो? इस मुसीबत के वक्त तुमसे मदद की उम्मीद थी और तुम उल्टे गला रेतने को मौजूद?

अब्बासी - बेगम आपको हमेशा याद किया करती हैं।

आजाद - मेरे लायक जो काम हो, उसके लिए हाजिर हूँ, तुम्हारे लिए जान तक हाजिर है।

सुरैया - आपकी जान आपको मुबारक रहे, हम सिर्फ एक काम को कहते हैं। यहाँ एक कानिस्टिबिल ने हमें बहुत दिक किया है, तुम किसी तदबीर से हमें उसके पंजे से छुड़ाओ, ( आजाद के कान में कुछ कह कर) मुझे इस बात का बड़ा रंज है। मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े।

आजाद - वही कानिस्टिबिल तो नहीं है जो खाँ साहब को पकड़ ले गया है।

फीरोजा - हाँ-हाँ, वही।

आजाद - अच्छा, समझा जायगा। खड़े-खड़े उससे समझ लूँ तो सही। उसने अच्छे घर बयाना दिया!

सुरैया - कंबख्त ने मेरी आबरू ले ली, कहीं मुँह दिखाने लायक न रखा। यहाँ भी बला की तरह सिर पर सवार हो गया। तुमने भी इतने दिनों के बाद आज खबर ली। दूसरों का दर्द तुम क्या समझोगे? जो बेइज्जती कभी न हुई थी वह आज हो गई। एक दिन वह था कि अच्छे-अच्छे आदमी सलाम करने आते थे और आज एक कानिस्टिबिल मेरी आबरू मिटाने पर तुला हुआ है और तुम्हारे होते।

आजाद - सुरैया बेगम, खुदा की कसम, मुझे बिलकुल खबर न थी, मैं इसी वक्त जा कर दारोगा और कानिस्टिबिल दोनों को देखता हूँ। देख लेना, सुबह तक उनकी लाश फड़कती होगी, ऐसे-ऐसे कितनों को जहन्नुम के घाट उतार चुका हूँ। इस वक्त रुखसत करो, कल फिर मिलूँगा।

यह कह कर आजाद मिर्जा बाहर निकले। यहाँ उनके कई साथी खड़े थे, उनसे बोले, भाई जवानों! आज कोतवाल के घर हमारी दावत है, समझ गए, तैयार हो जाओ। उसी वक्त आजाद मिर्जा और लक्ष्मी डाकू, गुलबाज, रामू यह सब के सब दारोगा के मकान पर जा पहुँचे। रामू को तो बैठक में रखा और महल्ले भर के मकानों की कुंडियाँ बंद करके दारोगा जी के घर में सेंध लगाने की फिक्र करने लगे।

दरबान - कौन! तुम लोग कौन हो, बोलते क्यों नहीं?

आजाद - क्या बताएँ, मुसीबत के मारे हैं, इधर से कोई लाश तो नहीं निकली?

दरबान - हाँ, निकली तो है, बहुत से आदमी साथ थे।

आजाद - हमारे बड़े दोस्त थे, अफसोस!

लक्ष्मी - हुजूर, सब्र कीजिए, अब क्या हो सकता है!

दरबान - हाँ भाई, परमेश्वर की माया कौन जानता है, आप कौन ठाकुर हैं?

लक्ष्मी - कनवजिया ब्राह्मण हैं। बेचारे के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, कौन उनकी परवरिश करेगा!

दरबान को बातों में लगा कर इन लोगों ने उसकी मुश्कें कर लीं और कहा, बोले और हमने कत्ल किया। बस, मुँह बंद किए पड़े रहो।

दीवार में सेंध पड़ने लगी। रामू कहीं से सिरका लाया। सिरका छिड़क-छिड़ककर दीवार में सेंध दी। इतने में एक कानिस्टिबिल ने हाँक लगाई - जागते रहियो, अँधेरी रात है।

आजाद - हमारे लिए अँधेरी रात नहीं, तुम्हारे लिए होगी।

चौकीदार - तुम लोग कौन हो?

आजाद - तेरे बाप। पहचानता है या नहीं?

यह कह कर आजाद ने करौली से चौकीदार का काम तमाम कर दिया।

लक्ष्मी - भाई, यह तुमने बुरा किया। कितनी बेरहमी से इस बेचारे की जान ली!

आजाद - बस, मालूम हो गया कि तुम ना के चोर हो, बिलकुल कच्चे!

अब यह तजवीज पाई कि मिर्जा आजाद सेंध के अंदर जाएँ। आजाद ने पहले सेंध में पाँव डाले, डालते ही किसी आदमी ने अंदर से तलवार जमाई दोनों पाँव खट से अलग।

आजाद - हाय मरा! अरे दौड़ो!

लक्ष्मी - बड़ा धोखा हुआ, कहीं के न रहे!

चोरों ने मिल कर आजाद मिर्जा का धड़ उठाया और रोते-पीटते ले चले, मगर रास्ते ही में पकड़ लिए गए।

मुहल्ले भर में जाग हो गई। अब जो दरवाजा खोलता है, बंद पाता है। यह कौन बंद कर गया? दरवाजा खोलो! कोई सुनता ही नहीं। चारों तरफ यही आवाजें आ रही थीं। सिर्फ एक दरवाजे में बाहर से कुंडी न थी। एक बूढ़ा सिपाही एक हाथ में मशाल, दूसरे में सिरोही लिए बाहर निकला। देखा तो दारोगा जी के घर में सेंध पड़ी हुई है! चोर-चोर!

एक कानि. - खून भी हुआ है। जल्द आओ।

सिपाही - मार लिया है, जाने न पावे।

यह कह कर उसने दरवाजे खोलने शुरू किए। लोग फौरन लट्ठ ले-ले कर बाहर निकले। देखा तो चोरों और कानिस्टिबिलों में लड़ाई हो रही है। इन आदमियों को देखते ही चोर तो भाग निकले! आजाद मिर्जा और लक्ष्मी रह गए। आजाद की टाँगे कटी हुई। लक्ष्मी जख्मी। थाने पर खबर हुई। दारोगा जी भागे हुए अपने घर आए। मालूम हुआ कि उनके घर की बारिन ने चोरों को सेंध देते देख लिया था। फौरन जा कर कोठरी में बैठ रही। ज्यों ही आजाद मिर्जा ने सेंध में पाँव डाला, तलवार से उनके दो टुकड़े कर दिए।

आजाद पर मुकदमा चलाया गया। जुर्म साबित हो गया। कालेपानी भेज दिए गए।

जब जहाज पर सवार हुए तो एक आदमी से मुलाकात हुई। आजाद ने पूछा, कहो भाई, क्या किया था? उसने आँखों में आँसू भर के कहा, भाई, क्या बताऊँ? बे-कसूर हूँ। फौज में नौकर था, इश्क के फेर में नौकरी छोड़ी, मगर माशूक तो न मिला, हम खराब हो गए।

यह शहसवार था।

***

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED