आजाद-कथा - खंड 1 - 41 Munshi Premchand द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आजाद-कथा - खंड 1 - 41

आजाद-कथा

(खंड - 1)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 41

हुस्नआरा मीठी नींद सो रही थी। ख्वाब में क्या देखती है कि एक बूढ़े मियाँ सब्ज कपड़े पहने उसके करीब आ कर खड़े हुए और एक किताब दे कर फरमाया कि इसे लो और इसमें फाल देखो। हुस्नआरा ने किताब ली और फाल देखा, तो यह शेर था -

हमें क्या खौफ है, तूफान आवे या बला टूटे।

आँख खुल गई तो न बूढ़े मियाँ थे, न किताब। हुस्नआरा फाल-वाल की कायल न थी; मगर फिर भी दिल को कुछ तसकीन हुई। सुबह को वह अपनी बहन सिपहआरा से इस ख्वाब का जिक्र कर रही थी कि लौंडी ने आजाद का खत ला कर उसे दिया।

हुस्नआरा - हम पढ़ेंगे।

सिपहआरा - वाह, हम पढ़ेंगे।

हुस्नआरा - (प्यार से झिड़क कर) बस, यही बात तो हमें भाती नहीं।

सिपहआरा - न भावे, धमकाती क्या हो?

हुस्नआरा - मेरी प्यारी बहन, देखो, बड़ी बहन का इतना कहना मान जाओ। लाओ खत खुदा के लिए।

सिपहआरा - हम तो न देंगे।

हुस्नआरा - तुम तो खाहमख्वाह जिद करती हो, बच्चों की तरह मचली जाती हो।

सिपहआरा - रहने दीजिए, वाह-वाह! हम आजाद का खत न पढ़ें?

यह कहकर सिपहआरा ने आजाद का खत पढ़ सुनाया -

अब तो जाते हैं हिंद से आजादफिर मिलेंगे अगर खुदा लाया।

आज जहाज पर सवार होता हूँ। दो घंटे और हिंदुस्तान में हूँ। उसके बाद सफर, सफर, सफर। मैं खुश हूँ। मगर इस खयाल से जी बेचैन है कि तुम बेकरार होगी। अगर यह मालूम हो जाता कि तुम भी खुश हो, तो जी जाता। अब तो यही धुन है कि कब रूम पहुँचूँ। बस, रुख्सत। - तुम्हारा आजाद।

हाँ, प्यारी सिपहआरा को खूब समझाना। उनका दिल बहुत नर्म है। इस वक्त खोजी पानी की सूरत देख कर मचल रहे हैं।

हुस्नआरा - यह मुआ खोजी अभी जीता ही है?

सिपहआरा - उसे तो पानी का नाम सुन कर जूड़ी चढ़ आती थी।

हुस्नआरा - आखिर बेचारे जहाज पर सवार हो गए! अब देखें, रूम से कब खत आता है?

सिपहआरा - अब तो फाल पर ईमान लाई? देखा, मैं क्या कहती थी? अब मिठाई खिलवाइए। जरा, कोई यहाँ आना। पाँच रुपए की पँचमेल मिठाई लाओ।

हुस्नआरा - यह क्या खब्त है?

सिपहआरा - आपकी बला से। एक डली तुम भी खा लेना।

हुस्नआरा - खूब! पाँच रुपए की मिठाई, और उसमें हमको एक डली मिले? आते ही आते आधी न चख जाऊँ, तो कहना।

सिपहआरा - वाह, दे चुकी मैं! ऐसी कच्ची नहीं हूँ।

हुस्नआरा - भला, किताब से आगे का हाल क्या मालूम होगा? मुझे बड़ी हँसी आती है, जब कोई फाल देख्ता है। आँखें बंद किए हुए थोड़ी देर बड़बड़ाए, और किताब खोली। फिर अपने-अपने तौर पर मतलब निकालने लगे। यह सब ढकोसला है। हमको बड़े उस्ताद ने सबक पढ़ाया है।

थोड़ी देर में सिपाही ने बाहर से आवाज दी कि मामा, मिठाई ले जाओ।

सिपहआरा दौड़ी - मुझे देना। हुस्नआरा अलग फुर्ती से झपटी कि हमें, हमें। अब मामा बेचारी किसको दे, एक चँगेल, दो गाहक। उसने हुस्नआरा को चँगेली दे दी।

हुस्नआरा - अब बतलाइए, खाने में लग्गा लगाऊँ? बरफी पर चाँदी के चमकते हुए वर्क कितनी बहार देते हैं।

सिपहआरा - मामा, तुम दीवानी हो गई हो कुछ? रुपए हमने दिए थे या इन्होंने? पराया माल क्या झप से उठा दिया! वाह-वाह! हाँ-हाँ कहती जाती हूँ, सुनती ही नहीं।

मामा - वह आपकी बड़ी...

सिपहआरा - चलो, बस रहने भी दो। ऊपर से बातें बनाती हो।

सिपहआरा ने मिठाई बाँटी, तो मामा हुस्नआरा की बूढ़ी दादी को भी उसमें से दस-पाँच डलियाँ दे आई।

बूढ़ी - यह मिठाई कैसी!

मामा - हुजूर, हुस्नआरा ने फाल देखी थी।

बूढ़ी - फाल कैसी?

मामा - चिट्ठी आई थी कहीं से।

बूढ़ी - चिट्ठी कैसी?

मामा - बीबी, वहीं जो हैं, देखिए, क्या नाम है उनका जदाई।

बूढ़ी - जदाई कैसी! ला, मेरी छड़ी तो दे।

बूढ़ी बेगम कमर झुकाए, लठिया टेकते हुए चलीं। आ कर देखा, दोनों बहन मिठाई चख रही हैं।

बूढ़ी - यह मिठाई कैसी आई है?

सिपहआरा - अम्माँजान, हुस्नआरा हमसे शर्त हारी है। कहती थीं, हमारे दीवान-हाफिज में चार सौ सफे हैं; मैंने कहा, नही चार सौ चालीस हैं।

बूढ़ी - यह बात थी! मामा सठिया गई है क्या? जाने क्या-क्या बकती थी।

शाम के वक्त दोनों बहनें सहेलियों के साथ हाथ में हाथ दिए छत पर अठखेलियाँ कर रही थीं। एक ने दूसरे के चुटकी ली, किसी ने किसी को गुदगुदाया, जरा खयाल नहीं कि तिमंजिले पर खड़ी हैं, जरा पाँव डगमगाया तो गजब ही हो जाय। हवा सन-सन चल रही थी। एकाएक एक पतंग आ कर गिरी सिपहआरा ने लपक कर लूट लिया। आहाहा, इस पर तो किसी ने कुछ लिखा है - माहीजाल वाला पतंग, सब की सब दौड़ पड़ीं। हुस्नआरा ने ये शेर पढ़ कर सुनाए -

बहुत तेज है आजकल तीरे मिजगाँ;कोई दिल निशाना हुआ चाहता है।मेरे कत्ल करने को आता है कातिल;तमाम आज किस्सा हुआ चाहता है।

हुस्नआरा का माथा ठनका कि कुछ दाल में काल है। ताड़ गई कि कोई नए आशिक पैदा हुए, मुझ पर या सिपहआरा पर शैदा हुए। मालूम नहीं, कौन है? कहीं मुझे बाहर देख तो नहीं लिया? दिमाग फिर गया है मुए का। जब सब सहेलियाँ अपने-अपने घर चली गईं तो हुस्नआरा ने बहन से कहा - तुम कुछ समझीं? यह पतंग पर क्या लिखा था? तुम तो खेल रही थीं; मैं उस वक्त से इसी फिक्र में हूँ कि माजरा क्या है?

सिपहआरा - कुछ-कुछ तो मैं भी समझती हूँ; मगर अब किसी से कहो-सुनो नहीं।

हुस्नआरा - लच्छन बुरे हैं। इस पतंग को फाड़-फूड़ कर फेंक दो। कोई देखने न पाए।

इतने में खिदमतगार ने मामा को आवाज दी और मामा बाहर से एक लिफाफा ले आई। हुस्नआरा ने जो लिफाफा लिया, तो मारे खुशबू के दिमाग तर हो गया। फिर माथा ठनका। खुशबू कैसी! मामा से बोली - किसने दिया है?

मामा - एक आदमी खिदमतगार को दे गया है। नाम नहीं बताया। दिया और लंबा हुआ।

सिपहआरा - खोलो तो, देखो है क्या?

लिफाफा खोला, तो एक खत निकला। लिखा था - 'एक गरीब मुसाफिर हूँ, कुछ दिनों के लिए आपके पड़ोस में आ कर ठहरा हूँ। इसलिए कोई गैर न समझिएगा। सुना है कि आप दोनों बहनें शतरंज खेलने में बर्क हैं। यह नक्शा भेजता हूँ। मेरी खातिर से इसे हल कर दो, तो बड़ा एहसान हो। मैंने तो बहुत दिमाग लड़ाया, पर नक्शा समझ में न आया। - मिरजा हुमायूँ फर।'

इस खत के नीचे शतरंज का एक नक्शा दिया हुआ था।

सिपहआरा - बाजी, सच कहना, यह तो कोई बड़े उस्ताद मालूम होते हैं। मगर तुम जरा गौर करो, तो चुटकियाँ में हल कर लो। तुम तो बड़े-बड़े नक्शे हल कर लेती हो। भला इसकी क्या हकीकत है?

हुस्नआरा - बहन, यह नक्शा इतना आसान नहीं है। इसको देखो तो अच्छी तरह। मगर यह सोचो कि भेजा किसने है!

सिपहआरा - हुमायूँ फर तो किसी शाहजादे ही का नाम होगा। मामा को बुलाओ और कहो, सिपाही से पूछे, कौन लाया था? क्या कहता था? आदमी का पता मिल जाय, तो भेजनेवाले का पता मिला दाखिल है।

मामा ने बाहर जा कर इशारे से सिपाही को बुलाया।

सिपाही - कहो, क्या कहती हो?

मामा - जरी, इधर तो आ।

सिपाही - वहाँ कोने में क्या करूँ आनके। कोई वहाँ हौले-हौले बातें करते देखेगा, तो क्या कहेगा। यहाँ से निकलवा दोगी क्या?

मामा - ऐ चल छोकरे! कल का लौंडा, कैसी बातें करता है? छोटी बेगम पूछती हैं कि जो आदमी लिफाफा लाया था, वह किधर गया? कुछ मालूम है?

सिपाही - वह तो बस लाया, और देके चंपत हुआ; मगर मुझे मालूम है, वह, सामनेवाले बाग में एक शाहजादे आनके टिके हैं, उन्हीं का चोबदार था।

हुस्नआरा ने यह सुना, तो बोली - शाहजादे तो हैं, मगर बदतमीज।

सिपहआरा - यह क्यों?

हुस्नआरा - अव्वल तो किसी कुँआरी शरीफजादी के नाम खत भेजना बुरा, दूसरे पतंग गिराया। खत भेजा, वह भी इत्र में बसा हुआ।

सिपहआरा - वा जी, यह तो बदगुमानी है कि खत को इत्र से बसाया। शाहजादे हैं, हाथ की खुशबू खत में भी आ गई। मगर खत अदब से लिखा है।

हुस्नआरा- उनको खत भेजने की जुर्रत क्योंकर हुई। अब खत आए, तो न लेना, खबरदार। वह शाहजादे, हमारा उनका मुकाबला क्या? और फिर बदनामी का डर।

सिपहआरा - अच्छा, नक्शा तो सोचिए। इसमें तो कोई बुराई नहीं!

हुस्नआरा ने बीस मिनट तक गौर किया और तब हँस कर बोली - लो, हल कर दिया। न कहोगी। अल्लाह जानता है, बड़ी टेढ़ी खीर है। लाओ, फिर अब जवाब तो लिख भेजें। मगर डर मालूम होता है कि कहीं उँगली देते ही पहुँचा न पकड़ लें। जाने भी दो। मुफ्त की बदनामी उठाना भला कौन सी दानाई है?

सिपहआरा - नहीं-नहीं बहन, जरूर लिख भेजो। फिर चाहे कुछ न लिखना।

हुस्नआरा - अच्छा, लाओ लिखें, जो होना होगा, सो होगा!

सिपहआरा - हम बताएँ। खत-वत तो लिखो नहीं, बस, इस नक्शे को हल करके डाक में भेज दो।

***