आजाद-कथा
(खंड - 1)
रतननाथ सरशार
अनुवाद - प्रेमचंद
प्रकरण - 40
सुबह का वक्त था। मियाँ आजाद पलंग से उठे तो देखा, बेगम साहबा मुँह खोले बेतकल्लुफी से खड़ी उनकी ओर कनखियों से ताक रही हैं। मिरजा साहब को आते देखा, तो बदन को चुरा लिया, और छलाँग मारी, तो जैनब की ओट में थीं।
मिरजा - कहिए, आज क्या इरादे हैं?
आजाद - इस वक्त हमको किसी ऐसे आदमी के पास ले चलिए, जो तुरकी के मामलों से खूब वाकिफ हो। हमें वहाँ का कुछ हाल मालूम ही नहीं। कुछ सुन तो लें। वहाँ के रंग-ढंग तो मालूम हों।
मिरजा - बहुत खूब; चलिए, मेरे एक दोस्त हेडमास्टर हैं। बहुत ही जहीन और यारबाश आदमी हैं।
आजाद तैयार हुए तो बेगम ने कहा - ऐ, तो कुछ खाते तो जाओ। ऐसी अभी क्या जल्दी है?
आजाद - जी नहीं। देर होगी।
बेगम - अच्छा, चाय तो पी लीजिए।
थोड़ी देर में दोनों आदमियों ने चाय पी, पान खाए और चले। हेडमास्टर का मकान थोड़ी ही दूर था, खट से दाखिल। सलाम-वलाम के बाद आजाद ने रूम और रूस की लड़ाई का ताजा हाल पूछा।
हेडमास्टर - तुरकी की हालत बहुत नाजुक हो गई है।
खोजी - यह बताइए कि वहाँ तोप दग रही है या नहीं? दनादन की आवाज कान में आती है या नहीं?
हेडमास्टर - दनादन की आवाज तो यहाँ तक आ चुकी; मगर लड़ाई छिड़ गई है और खूब जोरों से हो रही है।
खोजी - उफ्, मेरे अल्लाह! यहाँ तो जान ही निकल गई।
आजाद - मियाँ, हिम्मत न हारो। खुदा ने चाहा, तो फतह है।
खोजी - अजी, हिम्मत गई भाड़ में, यहाँ तो काफिया तंग हुआ जाता है।
आजाद - लड़ाई रूस से हो रही है, या आपस में?
हेडमास्टर- आपस ही में समझिए। अक्सर सूबे बिगड़ गए और लड़ाई हो रही है।
आजाद - यह तो बुरी हुई।
खोजी - बुरी हुई, तो फिर जाते क्यों हो? क्या तबाही आई है?
हेडमास्टर - सर्बिया की फौज सरहद को पार कर गई। तुरकों से एक लड़ाई भी हुई। सुना है कि सर्बिया हार गया। मगर उसका कहना है कि यह सब गलत है। हम डटे हुए हैं, और तुरकों की बोस्निया की सरहद पर जक दी।
खोजी - अब मेरे गए बगैर बेड़ा न पार होगा। कसम खुदा की, इतनी करौलियाँ भोंकी हों कि परे के परे साफ हो जायँ। दिल्लगी है कुछ।
हेडमास्टर - दूसरी खबर यह है कि सर्बिया और तुरकों में सख्त लड़ाई हुई, मगर न कोई हारा, न जीता। सर्बियावाले कहते हैं कि हमने तुरकों को भगा दिया।
खोजी - भई आजाद, सुनते हो? वापस चलो। अजी, शर्त तो यही है न कि तमगे लटका कर आओ? आप वापस चलिए मैं एक तमगा बनवा दूँगा।
कुछ देर तक मियाँ आजाद और हेडमास्टर साहब में यही बाते होती रहीं। दस बजते-बजते यहाँ से रुख्सत हो कर घर आए। जब खाना खा कर बैठे तो बेगम साहबा ने आजाद से कहा - हजरत, जरा इस मिसरे पर कोई मिसरा लगाइए -
इसलिए तसवीर जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।
आजाद - हाँ-हाँ सुनिए -
गैर देखे उनक सूरत इसकी ताब आई नहीं;इसलिए तसवीर जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।उसकी फुरकत जेहन में अपने कभी आई नहीं;इसलिए तसवीर जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।
बेगम - कहिए, आपकी खातिर से तारीफ कर दें। मगर मिसरे जरा फीके हैं।
आजाद - अच्छा, ले आप ही कोई चटपटा मिसरा कहिए।
बेगम - ऐ, हम औरतजात, भला शेर-शायरी क्या जानें। और जो आपकी यही मरजी है, तो लीजिए -
लौहे-दिल ढूँढ़ा किए पर हाथ ही आई नहीं,इसलिए तसवीर जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।
खोजी - वाह, बेगम साहब! आपने तो सुलेमान सावजी के भी कान काटे। पर अब जरा मेरी उपज भी सुनिएगा -
पीन के-अफयूँ से टुक फुरसत कभी पाई नहीं,इसलिए तसवीर जानाँ हमने खिंचवाई नहीं।
इस मिसरे का सुनना था कि मिरजा साहब, उनकी हँसोड़ बीवी और मियाँ आजाद- हँसते-हँसते लोट गए। अभी यही चर्चा हो रही थी कि इतने में एक आदमी ने बाहर से आवाज दी। मिरजा ने जैनब से कहा कि जाओ, देखो तो कौन है? मियाँ खलीफा हों तो कहना, इस वक्त हम बाल न बनवाएँगे। तीसरे पहर को आ जाइए। जैनब आटा गूँध रही थी। 'अच्छा' कह कर चुप हो रही। आदमी ने फिर बाहर से आवाज दी। तब तो जैनब को मजबूर हो कर उठना ही पड़ा। नाक भौं चढ़ाती, नौकर को जली-कटी सुनाती चली। जो है, मेरी ही जान का गाहक है। जिसे देखो, मेरा ही दुश्मन। वाह, एक काम छोड़ दूसरे पर लपको। अबकी चाँद हो, तो मैं तन्ख्वाह लेके अपने घर बैठ रहूँ। क्यों, निगोड़ी नौकरी का भी कुछ अकाल है? जैनब का कायदा था कि काम सब करती थी, मगर बड़बड़ा कर। बात-बात पर तिनक जाना तो गोया उसकी घूँटी में पड़ा था। मगर अपने काम में चुस्त थी। इसलिए उसकी खातिर होती थी। मुँह फुला कर बाहर गई। पहले तो जाते ही खिदमतगार को खूब आड़े हाथों लिया - क्या घर भर में मैं ही अकेली हूँ? जो पुकारता है, मुझी को पुकारता है। मुए उल्लू के मुँह में नाम पड़ गया है।
खिदमतगार ने कहा - मुझसे क्यों बिगड़ी हो? यह मियाँ आए है; हुजूर से जाकर इनका पैगाम कह दो। मगर जरा समझ-बूझ कर कहना। सब बातें सुन लो अच्छी तरह।
जैनब - (उस आदमी से) कौन हो जी? क्या कहते हो? तुम्हें भी इसी वक्त आना था?
आदमी - मल्लाह हूँ, और हूँ कौन? जा कर अपने मियाँ से कह दो, आज जहाज रवाना होगा। अभी दस घंटे की देर है। तैयार हो जाइए।
जैनब ने अंदर जा कर यह खबर दी। बेगम साहबा ने जहाज का नाम सुना, तो धक से रह गईं। चेहरे का रंग फीका पड़ गया। कलेजा धड़-धड़ करने लगा। अगर जब्त न करतीं, तो आँसी जारी हो जाते।
मिरजा - लीजिए हजरत, अब कूच की तैयारी कीजिए।
आजाद - तैयार बैठा हूँ। यहाँ कोई बड़ा लंबा चौड़ा सामान तो करना नहीं। एक बैग, एक दरी, एक लोटा, एक लकड़ी। चलिए, अल्लाह-अल्लाह, खैरसल्लाह। वक्त पर दन से खड़ा हूँगा।
खोजी - यहाँ भी वही हाल है। एक डिबिया, एक प्याली, चंडू पीने की एक निगाली; एक कतार, एक दोना मिठाई का, एक चाकू, एक करौली; बस, अल्लाह-अल्लाह, खैरसल्लाह। बंदा भी कील-काँटे से दुरुस्त है।
यह सुन कर मियाँ आजाद और मिरजा साहब दोनों हँस पड़े। मगर बेगम साहबा के होठों पर हँसी न आई। मिरजा साहब, तो उसी वक्त मल्लाह से बातें करने के लिए बाहर चले गए और यहाँ मियाँ आजाद और बेगम साहबा, दोनों अकेले रह गए। कुछ देर तक बेगम ने मारे रंज के सिर तक न उठाया। फिर बहुत सँभल कर बोलीं - मेरा तो दिल बैठा जाता है।
आजाद - आप घबराइए नहीं, मैं जल्दी वापस आऊँगा।
बेगम - हाय, अगर इतनी ही उम्मीद होती, तो रोना काहे का था?
आजाद - सब्र को हाथ से न जाने दीजिए। खुदा बड़ा कारसाज है।
बेगम - आँखों में अँधेरा सा छा गया। क्या आज ही जाओगे? आज ही? तुम्हारे जाने के बाद मेरी न जाने क्या हालत होगी?
आजाद - खुदा ने चाहा, तो हँसी-खुशी फिर मिलेंगे।
इतने में मिरजा साहब ने आ कर कहा कि सुबह को तड़के जहाज रवाना होगा।
बेगम - यों जाने को सभी जाते हैं, लाखों मर्द-औरत हर साल हज कर आते है; मगर लड़ाई में शरीक होना! बस, यही खयाल तो मारे डालता है।
आजाद - ये लाखों आदमी जो लड़ने जाते हैं, क्या सब के सब मर ही जाते हैं? फिर कजा का वक्त कौन टाल सकता है? जैसे यहाँ, वैसे वहाँ।
मिरजा - भई, मेरा तो दिल गवाही देता है कि आप सुर्खरू हो कर आएँगे। और यों तो जिंदगी और मौत खुदा के हाथ है।
बेगम - ये सब बातें तो मैं भी जानती हूँ! मगर समझाऊँ किसे?
मिरजा - जब जानती हो, तब रोना-धोना बेकार है। हाथ-मुँह धो डालो। जैनब, पानी लाओ। यही तो तुममें ऐब है कि सुबह का काम शाम को और शाम का काम सुबह को करती हो। लाओ पानी झटपट।
जैनब - या अल्लाह! अब आलू छीलूँ या पानी लाऊँ!
आखिर जैनब दिल ही दिल में बुरा-भला कहती पानी लाई। बेगम ने मुँह धोया और बोलीं - अब मैं कोई ऐसी बात न कहूँगी, जिससे मियाँ आजाद को रंज हो।
खोजी - अजी मियाँ आजाद! चलने का वक्त करीब आया। कुछ मेरी भी फिक्र है? वह करौली लेते ही लेते रह गए? अफीम का क्या बंदोबस्त किया? यार, कहीं ऐसा न हो कि अफीम राह में न मिले और हम जीते जी मर मिटें। जरी जैनब को बाजार तक भेज कर कोई साठ-सत्तर कतारे तो नर्म नर्म मँगवा दीजिए। नहीं तो मैं जीता न फिरूँगा।
जैनब - हाँ, जैनब ही तो घर भर में फालतू हैं। लपक कर बाजार से ले क्यों नहीं आते? क्या चूड़ियाँ टूट जायँगी? और मैं औरतजात अफीम लेने कहाँ जाऊँगी भला?
बेगम - रास्ते में इस पगले के सबब से खूब चहल-पहल रहेगी।
आजाद - हाँ, इसीलिए तो लिए जाता हूँ। मगर देखिए, क्या-क्या बेहूदगियाँ करते हैं?
खोजी - अजी, आपसे सौ कदम आगे रहूँ, तो सही।
मिरजा - इसमें क्या शक है? लेकिन उस तरफ कोई बहुरूपिया हुआ, तो कैसी ठहरेगी।
खोजी - सच कहता हूँ, इतनी करौलियाँ भोकूँ कि याद करे। मैं दगानेवाली पलटन में रिसालदार था। अवध में खुदा जाने कितनी गढ़ियाँ जीत लीं।
बेगम - ऐ रिसालदार साहब, आपकी करौली क्या हुई? मोरचा खा गई हो तो साफ कर लीजिए। ऐसा न हो, मोरचे पर म्यान ही में रहे।
जैनब - रिसालदार साहब, हमारे लिए वहाँ से क्या लाइएगा?
खोजी - अजी, जीते आवें, तो यही बड़ी बात है। यहाँ तो बदन काँप रहा है।
इन्हीं बातों में चलने का वक्त आ गया। आजाद ने अपना और खोजी का सामान बाँधा। बग्घी तैयार हुई। जब मियाँ आजाद ने चलने के लिए लकड़ी उठाई, तो बेगम बेचारी बेअख्तियार रो दीं। काँपते हुए हाथों से इमामजामिन की अशरफी बाँधी और कहा - जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुँह भी दिखाना।
मियाँ आजाद, मिरजा और खोजी जा कर बग्घी पर बैठे। जब गाड़ी चली, तो खोजी बोले - हमसे कोई नहाने को कहेगा, तो हम करौली ही भोंक देंगे।
मिरजा - तो जब कोई कहे न?
खोजी - हाँ, बस, इतना याद रखिएगा जरा। और, हम यह भी बताए देते हैं कि गन्ना चूस-चूस कर समुंदर के बाप में फेकेंगे, और जो कोई बोलेगा, तो दबोच बैठेंगे। हाँ, ऐसे-वैसे नहीं हैं यहाँ!
सामने समुद्र नजर आने लगा।
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