शांति Munshi Premchand द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

शांति

शांति

मुंशी प्रेमचंद


© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as MatruBharti.

MatruBharti has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

MatruBharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन्‌ १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।

जीवन

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

शादी

आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।

साहित्यिक रुचि

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।

आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।

अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।

तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन्‌ १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन्‌ १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।

यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात्‌ आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात्‌ — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।

जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्

प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

ईश्वर के प्रति आस्था

जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्

मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्

प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन्‌ १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन्‌ १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन्‌ १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यु

सन्‌ १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

शांति

स्वर्गीय देवनाथ मेरे अभिन्न मित्रों में थे। आज भी जब उनकी याद आती है, तो वह रंगरेलियां आंखों में फिर जाती हैं, और कहीं एकांत में जाकर जरा रो लेता हूं। हमारे बीच में दो—ढाई सौ मील का अंतर था। मैं लखनऊ में था, वह दिल्ली मेंय लेकिन ऐसा शायद ही कोई महीना जाता हो कि हम आपस में न मिल पाते हों। वह स्वच्छन्द प्रकति के विनोदप्रिय, सहृदय, उदार और मित्रों पर प्राण देनेवाला आदमी थे, जिन्होंने अपने और पराए में कभी भेद नहीं किया। संसार क्या है और यहां लौकिक व्यवहार का कैसा निर्वाह होता है, यह उस व्यक्ति ने कभी न जानने की चेष्टा की। उनकी जीवन में ऐसे कई अवसर आए, जब उन्हें आगे के लिए होशियार हो जाना चाहिए था।

मित्रों ने उनकी निष्कपटता से अनुचित लाभ उठाया, और कई बार उन्हें लज्जित भी होना पडाय लेकिन उस भले आदमी ने जीवन से कोई सबक लेने की कसम खा ली थी। उनके व्यवहार ज्यों के त्यों रहे जैसे भोलानाथ जिए, वैसे ही भोलानाथ मरे, जिस दुनिया में वह रहते थे वह निराली दुनिया थी, जिसमें संदेह, चालाकी और कपट के लिए स्थान न था सब अपने थे, कोई गैर न था। मैंने बार—बार उन्हें सचेत करना चाहा, पर इसका परिणाम आशा के विरूद्ध हुआ। मुझे कभी—कभी चिंता होती थी कि उन्होंने इसे बंद न किया, तो नतीजा क्या होगा? लेकिन विडंबना यह थी कि उनकी स्त्री गोपा भी कुछ उसी सांचे में ढली हुई थी। हमारी देवियों में जो एक चातुरी होती है, जो सदैव ऐसे उडाऊ पुरूषों की असावधानियों पर ‘ब्रेक का काम करती है, उससे वह वंचित थी। यहां तक कि वस्त्राभूषण में भी उसे विशेष रूचि न थी। अतएव जब मुझे देवनाथ के स्वर्गारोहण का समाचार मिला और मैं भागा हुआ दिल्ली गया, तो घर में बरतन भांडे और मकान के सिवा और कोई संपति न थी। और अभी उनकी उम्र ही क्या थी, जो संचय की चिंता करते चालीस भी तो पूरे न हुए थे। यों तो लड़पन उनके स्वभाव में ही थाय लेकिन इस उम्र में प्रायरू सभी लोग कुछ बेफ्रिक रहते हैं। पहले एक लड़की हुई थी, इसके बाद दो लड़के हुए। दोनों लड़के तो बचपन में ही दगा दे गए थे। लड़की बच रही थी, और यही इस नाटक का सबसे करूण दश्य था। जिस तरह का इनका जीवन था उसको देखते इस छोटे से परिवार के लिए दो सौ रूपये महीने की जरूरत थी। दो—तीन साल में लड़की का विवाह भी करना होगा। कैसे क्या होगा, मेरी बुद्धि कुछ काम न करती थी।

इस अवसर पर मुझे यह बहुमूल्य अनुभव हुआ कि जो लोग सेवा भाव रखते हैं और जो स्वार्थ—सिद्धि को जीवन का लक्ष्य नहीं बनाते, उनके परिवार को आड़ देनेवालों की कमी नहीं रहती। यह कोई नियम नहीं है, क्योंकि मैंने ऐसे लोगों को भी देखा है, जिन्होंने जीवन में बहुतों के साथ अच्छे सलूक किएय पर उनके पीछे उनके बाल—बच्चे की किसी ने बात तक न पूछी। लेकिन चाहे कुछ हो, देवनाथ के मित्रों ने प्रशंसनीय औदार्य से काम लिया और गोपा के निर्वाह के लिए स्थाई धन जमा करने का प्रस्ताव किया। दो—एक सज्जन जो रंडुवे थे, उससे विवाह करने को तैयार थे, किंतु गोपा ने भी उसी स्वाभिमान का परिचय दिया, जो महारी देवियों का जौहर है और इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मकान बहुत बडा था। उसका एक भाग किराए पर उठा दिया। इस तरह उसको 50 रू महावार मिलने लगे। वह इतने में ही अपना निर्वाह कर लेगी। जो कुछ खर्च था, वह सुन्नी की जात से था। गोपा के लिए तो जीवन में अब कोई अनुराग ही न था।

इसके एक महीने बाद मुझे कारोबार के सिलसिले में विदेश जाना पड़ा और वहां मेरे अनुमान से कहीं अधिक दो साल—लग गए। गोपा के पत्र बराबर जाते रहते थे, जिससे मालूम होता था, वे आराम से हैं, कोई चिंता की बात नहीं है। मुझे पीछे ज्ञात हुआ कि गोपा ने मुझे भी गैर समझा और वास्तविक स्थिति छिपाती रही।

विदेश से लौटकर मैं सीधा दिल्ली पहुँचा। द्वार पर पहुंचते ही मुझे भी रोना आ गया। मृत्यु की प्रतिध्वनि—सी छायी हुई थी। जिस कमरे में मित्रों के जमघट रहते थे उनके द्वार बंद थे, मकडियों ने चारों ओर जाले तान रखे थे। देवनाथ के साथ वह श्री लुप्त हो गई थी। पहली नजर में मुझे तो ऐसा भ्रम हुआ कि देवनाथ द्वार पर खडे मेरी ओर देखकर मुस्करा रहे हैं। मैं मिथ्यावादी नहीं हूं और आत्मा की दैहिकता में मुझे संदेह है, लेकिन उस वक्त एक बार मैं चौंक जरूर पडा हृदय में एक कम्पन—सा उठाय लेकिन दूसरी नजर में प्रतिमा मिट चुकी थी।

द्वार खुला। गोपा के सिवा खोलनेवाला ही कौन था। मैंने उसे देखकर दिल थाम लिया। उसे मेरे आने की सूचना थी और मेरे स्वागत की प्रतिक्षा में उसने नई साड़ी पहन ली थी और शायद बाल भी गुंथा लिए थेय पर इन दो वषोर्ं के समय ने उस पर जो आघात किए थे, उन्हें क्या करती? नारियों के जीवन में यह वह अवस्था है, जब रूप लावण्य अपने पूरे विकास पर होता है, जब उसमें अल्हड़पन चंचलता और अभिमान की जगह आकर्षण, माधुर्य और रसिकता आ जाती हैय लेकिन गोपा का यौवन बीत चुका था उसके मुख पर झुर्रियां और विषाद की रेखाएं अंकित थीं, जिन्हें उसकी प्रयत्नशील प्रसन्नता भी न मिटा सकती थी। केशों पर सफेदी दौड़ चली थी और एक एक अंग बूढा हो रहा था।

मैंने करूण स्वर में पूछा क्या तुम बीमार थीं गोपा।

गोपा ने आंसू पीकर कहा नहीं तो, मुझे कभी सिर दर्द भी नहीं हुआ। ‘तो तुम्हारी यह क्या दशा है? बिल्कुल बूढी हो गई हो।

‘तो जवानी लेकर करना ही क्या है? मेरी उम्र तो पैंतीस के ऊपर हो गई!

‘पैंतीस की उम्र तो बहुत नहीं होती।'

‘हाँ उनके लिए जो बहुत दिन जीना चाहते है। मैं तो चाहती हूं जितनी जल्द हो सके, जीवन का अंत हो जाए। बस सुन्न के ब्याह की चिंता है। इससे छुटटी पाऊँय मुझे जिन्दगी की परवाह न रहेगी।'

अब मालूम हुआ कि जो सज्जन इस मकान में किराएदार हुए थे, वह थोडे दिनों के बाद तबदील होकर चले गए और तब से कोई दूसरा किरायदार न आया। मेरे हृदय में बरछी—सी चुभ गई। इतने दिनों इन बेचारों का निर्वाह कैसे हुआ, यह कल्पना ही दुरूखद थी।

मैंने विरक्त मन से कहा लेकिन तुमने मुझे सूचना क्यों न दी? क्या मैं बिलकुल गैर हूँ?

गोपा ने लज्जित होकर कहा नहीं नहीं यह बात नहीं है। तुम्हें गैर समझूँगी तो अपना किसे समझूँगी? मैंने समझा परदेश में तुम खुद अपने झमेले में पडे होगे, तुम्हें क्यों सताऊँ? किसी न किसी तरह दिन कट ही गये। घर में और कुछ न था, तो थोडे से गहने तो थे ही। अब सुनीता के विवाह की चिंता है। पहले मैंने सोचा था, इस मकान को निकाल दूंगी, बीस—बाइस हजार मिल जाएँगे। विवाह भी हो जाएगा और कुछ मेरे लिए बचा भी रहेगाय लेकिन बाद को मालूम हुआ कि मकान पहले ही रेहन हो चुका है और सूद मिलाकर उस पर बीस हजार हो गए हैं। महाजन ने इतनी ही दया क्या कम की, कि मुझे घर से निकाल न दिया। इधर से तो अब कोई आशा नहीं है। बहुत हाथ पांव जोड़ने पर संभव है, महाजन से दो ढाई हजार मिल जाए। इतने में क्या होगा? इसी फिक्र में घुली जा रही हूं। लेकिन मैं भी इतनी मतलबी हूं, न तुम्हें हाथ मुंह धोने को पानी दिया, न कुछ जलपान लायी और अपना दुखड़ा ले बैठी। अब आप कपडे उतारिए और आराम से बैठिए। कुछ खाने को लाऊँ, खा लीजिए, तब बातें हों। घर पर तो सब कुशल है?

मैंने कहा मैं तो सीधे बम्बई से यहां आ रहा हूं। घर कहां गया।

गोपा ने मुझे तिरस्कार भरी आंखों से देखा, पर उस तिरस्कार की आड़ में घनिष्ठ आत्मीयता बैठी झांक रही थी। मुझे ऐसा जान पड़ा, उसके मुख की झुर्रिया मिट गई हैं। पीछे मुख पर हल्की सी लाली दौड़ गई। उसने कहा इसका फल यह होगा कि तुम्हारी देवीजी तुम्हें कभी यहां न आने देंगी।

‘मैं किसी का गुलाम नहीं हूं।'

‘किसी को अपना गुलाम बनाने के लिए पहले खुद भी उसका गुलाम बनना पडता है।'

शीतकाल की संध्या देखते ही देखते दीपक जलाने लगी। सुन्नी लालटेन लेकर कमरे में आयी। दो साल पहले की अबोध और शतनु बालिका रूपवती युवती हो गई थी, जिसकी हर एक चितवन, हर एक बात उसकी गौरवशील प्रकति का पता दे रही थी। जिसे मैं गोद में उठाकर प्यार करता था, उसकी तरफ आज आंखें न उठा सका और वह जो मेरे गले से लिपटकर प्रसन्न होती थी, आज मेरे सामने खडी भी न रह सकी। जैसे मुझसे वस्तु छिपाना चाहती है, और जैसे मैं उस वस्तु को छिपाने का अवसर दे रहा हूं।

मैंने पूछा अब तुम किस दरजे में पहुँची सुन्नी?

उसने सिर झुकाए हुए जवाब दिया दसवें में हूं।

‘घर का भ कुछ काम—काज करती हो।

‘अम्मा जब करने भी दें।'

गोपा बोली मैं नहीं करने देती या खुद किसी काम के नगीच नहीं जाती?

सुन्नी मुंह फेरकर हंसती हुई चली गई। मां की दुलारी लडकी थी। जिस दिन वह गहस्थी का काम करती, उस दिन शायद गोपा रो रोकर आंखें फोड लेती। वह खुद लड़की को कोई काम न करने देती थी, मगर सबसे शिकायत करती थी कि वह कोई काम नहीं करती। यह शिकायत भी उसके प्यार का ही एक करिश्मा था। हमारी मर्यादा हमारे बाद भी जीवित रहती है।

मैं तो भोजन करके लेटा, तो गोपा ने फिर सुन्नी के विवाह की तैयारियों की चर्चा छेड दी। इसके सिवा उसके पास और बात ही क्या थी। लडके तो बहुत मिलते हैं, लेकिन कुछ हैसियत भी तो हो। लडकी को यह सोचने का अवसर क्यों मिले कि दादा होते हुए तो शायद मेरे लिए इससे अच्छा घर वर ढूंढते। फिर गोपा ने डरते डरते लाला मदारीलाल के लड़के का जिक्र किया।

मैंने चकित होकर उसकी तरफ देखा। मदारीलाल पहले इंजीनियर थे, अब पेंशन पाते थे। लाखों रूपया जमा कर लिए थे, पर अब तक उनके लोभ की भूख न बुझी थी। गोपा ने घर भी वह छांटा, जहां उसकी रसाई कठिन थी।

मैंने आपति की मदारीलाल तो बड़ा दुर्जन मनुष्य है।

गोपा ने दांतों तले जीभ दबाकर कहा अरे नहीं भैया, तुमने उन्हें पहचाना न होगा। मेरे उपर बड़े दयालु हैं। कभी—कभी आकर कुशल समाचार पूछ जाते हैं। लड़का ऐसा होनहार है कि मैं तुमसे क्या कहूं। फिर उनके यहां कमी किस बात की है? यह ठीक है कि पहले वह खूब रिश्वत लेते थेय लेकिन यहां धर्मात्मा कौन है? कौन अवसर पाकर छोड़ देता है? मदारीलाल ने तो यहां तक कह दिया कि वह मुझसे दहेज नहीं चाहते, केवल कन्या चाहते हैं। सुन्नी उनके मन में बैठ गई है।

मुझे गोपा की सरलता पर दया आयीय लेकिन मैंने सोचा क्यों इसके मन में किसी के प्रति अविश्वास उत्पन्न करूं। संभव है मदारीलाल वह न रहे हों, चित का भावनाएं बदलती भी रहती हैं।

मैंने अर्ध सहमत होकर कहा मगर यह तो सोचो, उनमें और तुममे कितना अंतर है। शायद अपना सर्वस्व अर्पण करके भी उनका मुंह नीचा न कर सको।

लेकिन गोपा के मन में बात जम गई थी। सुन्नी को वह ऐसे घर में चाहती थी, जहां वह रानी बरकर रहे।

दूसरे दिन प्रातरू काल मैं मदारीलाल के पास गया और उनसे मेरी जो बातचीत हुई, उसने मुझे मुग्ध कर दिया। किसी समय वह लोभी रहे होंगे, इस समय तो मैंने उन्हें बहुत ही सहृदय उदार और विनयशील पाया। बोले भाई साहब, मैं देवनाथ जी से परिचित हूं। आदमियों में रत्न थे। उनकी लड़की मेरे घर आये, यह मेरा सौभाग्य है। आप उनकी मां से कह दें, मदारीलाल उनसे किसी चीज की इच्छा नहीं रखता। ईश्वर का दिया हुआ मेरे घर में सब कुछ है, मैं उन्हें जेरबार नहीं करना चाहता।

ये चार महीने गोपा ने विवाह की तैयारियों में काटे। मैं महीने में एक बार अवश्य उससे मिल आता थाय पर हर बार खिन्न होकर लौटता। गोपा ने अपनी कुल मर्यादा का न जाने कितना महान आदर्श अपने सामने रख लिया था। पगली इस भ्रम में पड़ी हुई थी कि उसका उत्साह नगर में अपनी यादगार छोड़ता जाएगा। यह न जानती थी कि यहां ऐसे तमाशे रोज होते हैं और आये दिन भुला दिए जाते हैं। शायद वह संसार से यह श्रेय लेना चाहती थी कि इस गई बीती दशा में भी, लुटा हुआ हाथी नौ लाख का है। पग—पग पर उसे देवनाथ की याद आती। वह होते तो यह काम यों न होता, यों होता, और तब रोती।

मदारीलाल सज्जन हैं, यह सत्य है, लेकिन गोपा का अपनी कन्या के प्रति भी कुछ धर्म है। कौन उसके दस पांच लड़कियां बैठी हुई हैं। वह तो दिल खोलकर अरमान निकालेगी! सुन्नी के लिए उसने जितने गहने और जोड़े बनवाए थे, उन्हें देखकर मुझे आश्चर्य होता था। जब देखो कुछ—न—कुछ सी रही है, कभी सुनारों की दुकान पर बैठी हुई है, कभी मेहमानों के आदर—सत्कार का आयोजन कर रही है। मुहल्ले में ऐसा बिरला ही कोई सम्पन्न मनुष्य होगा, जिससे उसने कुछ कर्ज न लिया हो। वह इसे कर्ज समझती थी, पर देने वाले दान समझकर देते थे। सारा मुहल्ला उसका सहायक था। सुन्नी अब मुहल्ले की लड़की थी। गोपा की इज्जत सबकी इज्जत है और गोपा के लिए तो नींद और आराम हराम था। दर्द से सिर फटा जा रहा है, आधी रात हो गई मगर वह बैठी कुछ—न—कुछ सी रही है, या इस कोठी का धान उस कोठी कर रही है। कितनी वात्सल्य से भरी अकांक्षा थी, जो कि देखने वालों में श्रद्धा उत्पन्न कर देती थी।

अकेली औरत और वह भी आधी जान की। क्या क्या करे। जो काम दूसरों पर छोड देती है, उसी में कुछ न कुछ कसर रह जाती है, पर उसकी हिम्मत है कि किसी तरह हार नहीं मानती।

पिछली बार उसकी दशा देखकर मुझसे रहा न गया। बोला गोपा देवी, अगर मरना ही चाहती हो, तो विवाह हो जाने के बाद मरो। मुझे भय है कि तुम उसके पहले ही न चल दो।

गोपा का मुरझाया हुआ मुख प्रमुदित हो उठा। बोली उसकी चिंता न करो भैया विधवा की आयु बहुत लंबी होती है। तुमने सुना नहीं, रॉंड मरे न खंडहर ढहे। लेकिन मेरी कामना यही है कि सुन्नी का ठिकाना लगाकर मैं भी चल दूं। अब और जीकर क्या करूंगी, सोचो। क्या करूं, अगर किसी तरह का विघ्न पड़ गया तो किसकी बदनामी होगी। इन चार महीनों में मुश्किल से घंटा भर सोती हूंगी। नींद ही नहीं आती, पर मेरा चित प्रसन्न है। मैं मरूं या जीऊँ मुझे यह संतोष तो होगा कि सुन्नी के लिए उसका बाप जो कर सकता था, वह मैंने कर दिया। मदारीलाल ने अपन सज्जनता दिखाय, तो मुझे भी तो अपनी नाक रखनी है।

एक देवी ने आकर कहा बहन, जरा चलकर देख चाशनी ठीक हो गई है

या नहीं। गोपा उसके साथ चाशनी की परीक्षा करने गयीं और एक क्षण के बाद आकर बोली जी चाहता है, सिर पीट लूं। तुमसे जरा बात करने लगी, उधर चाशनी इतनी कडी हो गई कि लडडू दोंतों से लडेंगे। किससे क्या कहूं।

मैने चिढ़कर कहा तुम व्यर्थ का झंझट कर रही हो। क्यों नहीं किसी हलवाई को बुलाकर मिठाइयां का ठेका दे देती। फिर तुम्हारे यहां मेहमान ही कितने आएंगे, जिनके लिए यह तूमार बांध रही हो। दस पांच की मिठाई उनके लिए बहुत होगी।

गोपा ने व्यथित नेत्रों से मेर ओर देखा। मेर यह आलोचना उसे बुर लग। इन दिनों उसे बात बात पर क्रोध आ जाता था। बोली भैया, तुम ये बातें न समझोगे। तुम्हें न मां बनने का अवसर मिला, न पत्नि बनने का। सुन्नी के पिता का कितना नाम था, कितने आदमी उनके दम से जीते थे, क्या यह तुम नहीं जानते, वह पगड़ी मेरे ही सिर तो बंधी है। तुम्हें विश्वास न आएगा नास्तिक जो ठहरे, पर मैं तो उन्हें सदैव अपने अंदर बैठा पाती हूं, जो कुछ कर रहे हैं वह कर रहे हैं। मैं मंदबुद्धि स्त्री भला अकेली क्या कर देती। वही मेरे सहायक हैं वही मेरे प्रकाश है। यह समझ लो कि यह देह मेरी है पर इसके अंदर जो आत्मा है वह उनकी है। जो कुछ हो रहा है उनके पुण्य आदेश से हो रहा है तुम उनके मित्र हो। तुमने अपने सैकड़ों रूपये खर्च किए और इतना हैरान हो रहे हो। मैं तो उनकी सहगामिनी हूं, लोक में भी, परलोक में भी।

मैं अपना सा मुह लेकर रह गया।

जून में विवाह हो गया। गोपा ने बहुत कुछ दिया और अपनी हैसियत से बहुत ज्यादा दिया, लेकिन फिर भी, उसे संतोष न हुआ। आज सुन्नी के पिता होते तो न जाने क्या करते। बराबर रोती रही।

जाड़ों में मैं फिर दिल्ली गया। मैंने समझा कि अब गोपा सुखी होगी। लड़की का घर और वर दोनों आदर्श हैं। गोपा को इसके सिवा और क्या चाहिए। लेकिन सुख उसके भाग्य में ही न था।

अभी कपडे भी न उतारने पाया था कि उसने अपना दुखडा शुरू कर दिया भैया, घर द्वार सब अच्छा है, सास—ससुर भी अच्छे हैं, लेकिन जमाई निकम्मा निकला। सुन्नी बेचारी रो—रोकर दिन काट रही है। तुम उसे देखो, तो पहचान न सको। उसकी परछाई मात्र रह गई है। अभी कई दिन हुए, आयी हुई थी, उसकी दशा देखकर छाती फटती थी। जैसे जीवन में अपना पथ खो बैठी हो। न तन बदन की सुध है न कपड़े—लते की। मेरी सुन्नी की दुर्गत होगी, यह तो स्वप्न में भी न सोचा था। बिल्कुल गुम सुम हो गई है। कितना पूछा बेटी तुमसे वह क्यों नहीं बोलता किस बात पर नाराज है, लेकिन कुछ जवाब ही नहीं देती। बस, आंखों से आंसू बहते हैं, मेरी सुन्न कुएं में गिर गई।