कवि का दर्द...
कवि का दर्द कोई नही समझता। बेचारा कवि कितनी मुश्किलों से अपने दिल की भड़ांस शब्दों मे पिरो कर कोई कविता लिखता है। लिखने के साथ ही मन होता है कि उसे सुनायें। और जब कोई सुनता नहीं तो कविता का आलाप...विलाप में परिवर्तित हो जाता है। दुखी मन से कविता यहाँ-वहाँ भटकती है। सुनाने वाले के साथ सुनने वाले की आँख से भी जब तक आँसू न आ जायें कवि का विलाप जारी रहता है। कवि जितना अधिक जोर से विलाप करता है, कविता उतना ही तेज़ी से असर करती है। आप सोच रहे होंगे कि मैने कविता को विलाप से क्यों जोड़ा। लेकिन यही सच है, जब कोई रोता है, तो सुर में बंध कर रोता है। कभी-कभी तो किसी का रोना सुन कर लगता है कि कहीं दूर सारंगी बज रही है। शायद इसीलिये साहित्य जगत में छायावाद के स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत ने कहा है,” वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान..।'
खैर एक कवि का विलाप मुझसे देखा नही गया। मैने कहा सुनो कविता उसे सुनाओ जो खुद भी कवि हो क्योंकि एक कवि ही दूसरे कवि का दर्द समझ सकता है। एक कहावत है न “जिसके पाँव न फटी बिवाई वो क्या जाने पीड़ पराई।“
कविता के साथ यही परेशानी है, पहले तो आह निकलती नहीं और जब निकल जाती है, तो कोई सुनने वाला नहीं होता। छोटा बच्चा भी गिरने के साथ आस-पास का मुआयना कर लेता है, जब कोई उसे देख रहा होता है, तो जोर से रोता है अन्यथा चारों तरफ़ ऎसे देखता है कि लगता है कह रहा हो, हे प्रभु तेरे इतने बड़े संसार में एक भी श्रोता नहीं। मुझे लगता है, कविता का गठन-गाठन यहीं से हो गया होगा। जब बच्चा रोया उसकी आँखों से कविता बही और मुँह से सुरीली तान। लेकिन किसी ने नहीं सुना... और बढ़ते-बढ़ते यही तान किसी कवि का गान बन गई होगी।
कवि के दर्द को समझते हुए सोशल साइट्स ने इसकी कमान सम्भाली। जैसे ही फ़ेसबुक और ट्विटर जैसी साइट्स बनी, तमाम कवि टूट पड़े। कवियों का सामूहिक विलाप सुन शायद किसी को दया आई हो कि हमारे भारत-वर्ष में एक जमात यह भी है।
पहले के मंचों पर दस कवियों के बीच में एक ही महिला कवियित्री अपनी कविता सुना पाती थी, लेकिन बात इसके उलट हो गई है। फ़ेसबुक पर भरपूर मात्रा में श्रेष्ठ श्रोता मिल पाते हैं रात-दिन सुबह-शाम तैनात रहते हैं। जैसे ही कवि की फ़ैक्ट्री से एक कविता मिली लपक ली गई। ये श्रोता कवि के दर्द को अच्छॆ से जानते हैं ये जानते हैं कविता की सार्थकता। खुद को महादेवी वर्मा या अमृता प्रीतम समझने वाले श्रोता कवि के विलाप को और अधिक बढ़ा देते हैं जब उनके द्वारा घोलमाल हो जाता है। घोलमाल बोले तो गोलमाल का बड़ा भाई जो कविता के स्तर को प्रोफ़ाइल पिक्चर्स पर तौलता है। कवयित्री की कविता पर.. वाह-वाह क्या बात है, क्या कहने, धांसू व्यक्तित्व, पता ही नहीं चल पाता कि वाह-वाही कविता पर हो रही है या कवियित्री की तस्वीर पर। खैर एक यही जगह ऎसी है जहाँ इतने श्रोता एकत्र हो जाते हैं जैसे कि बारीश के दिनों में कुएं में मेढकों की टर्र-टर्र। एक के बाद एक कमैंट और लाइक। वहीं दूसरी ओर पुरुष कवि अपना हौसला खो बैठते हैं, कुछ पागल किस्म के हो जाते हैं, बाल बिखराये, गाल पर हाथ टिकाये अज़ीब-अज़ीब से फोटो खींच कविता के साथ पोस्ट करते हैं। इतने पर भी कोई नहीं सुनता तो आ जाते हैं, अखाड़े में और वो जम के गाली-गलौज और टीका टिप्पणी होती है कि बचे-खुचे श्रोता भी कान पकड भाग लेते हैं मैदान से।
समझने वाली बात ये है कि ये कवि रोता क्यों है? कविता यदि कई महिने से नहीं लिखी गई तो परेशान। कि जाने क्या कारण है, कविताई होती नहीं आजकल। और कुछ कवि दिन भर में इतनी लम्बी-लम्बी बे-सिर पैर की कवितायें लिख बैठते है कि पता ही नही लगता कवि है या बिस्किट फ़ैक्टी। कच्चे कवियों का दर्द भी कुछ कम नहीं होता। उन्हें यह तकलीफ़ होती है कि कविता निकलती क्यों नही। अरे भई थोड़ा इमोशन्स लाओ आँख में आँसू दिल में दर्द कविता खुद-ब-खुद बन जायेगी। क्यों कि सुना है हर इंसान में एक कवि बसता है। बस संगीत से आलाप को विलाप में परिवर्तित कर अपने अंदर सोये कवि को जगाओं तो देखोगे कि कविता कैसे फूट कर निकलती। खैर कवि बन कर ही कवि के दर्द को समझ पाई हूँ।