मुबारक बीमारी Munshi Premchand द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मुबारक बीमारी

मुबारक बीमारी

मुंशी प्रेमचंद


© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as MatruBharti.

MatruBharti has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

MatruBharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन्‌ १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।

जीवन

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

शादी

आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।

साहित्यिक रुचि

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।

आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।

अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।

तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन्‌ १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन्‌ १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।

यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात्‌ आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात्‌ — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।

जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्

प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

ईश्वर के प्रति आस्था

जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्

मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्

प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन्‌ १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन्‌ १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन्‌ १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यु

सन्‌ १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

मुबारक बीमारी

रात के नौ बज गये थे, एक युवती अंगीठी के सामने बैठी हुई आग फूंकती थी और उसके गाल आग के कुन्दनी रंग में दहक रहे थे। उसकी बड़ी—बड़ी आंखें दरवाजे की तरफ लगी हुई थीं। कभी चौंककर आंगन की तरफ ताकती, कभी कमरे की तरफ। फिर आनेवालों की इस देरी से त्योरियों पर बल पड़ जाते और आंखों में हलका—सा गुस्सा नजर आता। कमल पानी में झकोले खाने लगता।

इसी बीच आनेवालों की आहट मिली। कहर बाहर पड़ा खर्राटे ले रहा था। बूढ़े लाला हरनामदास ने आते ही उसे एक ठोकर लगाकर कहा—कम्बख्त, अभी शाम हुई है और अभी से लम्बी तान दी!

नौजवान लाला हरिदास घर मे दाखिल हुए चहेरा बुझा हुआ, चिन्तित। देवकी ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और गुस्से व प्यार की मिली ही हुई आवाज में बोली आज इतनी देर क्यों हुई?

दोनों नये खिले हुए फूल थे एक पर ओस की ताजगी थी, दूसरा धूप से मुरझाया हुआ।

हरिदास हां, आज देर हो गयी, तुम यहां क्यों बैठी रहीं?

देवकी क्या करती, आग बुझी जाती थी, खाना न ठन्डा हो जाता।

हरिदास तुम जरा—से—काम के लिए इतनी आग के सामने न बैठा करो। बाज आया गरम खाने से।

देवकी अच्छा, कपड़े तो उतारो, आज इतनी देर क्यों की?

हरिदास क्या बताऊँ, पिताजी ने ऐसा नाक में दम कर दिया है कि कुछ कहते नहीं बनता। इस रोज—रोज की झंझट से तो यही अच्छा कि मैं कहीं और नौकरी कर लूं।

लाला हरनामदास एक आटे की चक्की के मालिक थे। उनकी जवानी के दिनों में आस—पास दूसरी चक्की न थी। उन्होंने खूब धन कमाया। मगर अब वह हालत न थी। चक्कियां कीड़े—मकोडों की तरह पैदा हो गयी थीं, नयी मशीनों और ईजादों के साथ। उसके काम करनेवाले भी जोशीले नौजवान थे, मुस्तैदी से काम करते थे। इसलिए हरनामदास का कारखाना रोज गिरता जाता था। बूढ़े आदमियों को नयी चीजों से चिढ़ हो जाती है। वह लाला हरनामदास को भी थी। वह अपनी पुरानी मशीन ही को चलाते थे, किसी किस्म की तरक्की या सुधार को पाप समझते थे, मगर अपनी इस मन्दी पर कुढा करते थे। हरिदास ने उनकी मर्जी के खिलाफ कालेजियेट शिक्षा प्राप्त की थी और उसका इरादा था कि अपने पिता के कारखाने को नये उसूलों पर चलाकर आगे बढायें। लेकिन जब वह उनसे किसी परिवर्तन या सुधार का जिक्र करता तो लाला साहब जामे से बाहर हो जाते और बड़े गर्व से कहते कालेज में पढ़ने से तजुर्बा नहीं आता। तुम अभी बच्चे हो, इस काम में मेरे बाल सफेद हो गये हैं, तुम मुझे सलाह मत दो। जिस तरह मैं कहता हूँ, काम किये जाओ।

कई बार ऐसे मौके आ चुके थे कि बहुत ही छोटे मसलों में अपने पिता की मर्जी के खिलाफ काम करने के जुर्म में हरिदास को सख्त फटकारें पड़ी थीं। इसी वजह से अब वह इस काम में कुछ उदासीन हो गया थ और किसी दूसरे कारखाने में किस्मत आजमाना चाहता था जहां उसे अपने विचारों को अमली सूरत देने की ज्यादा सहूलतें हासिल हों।

देवकी ने सहानुभूतिपूर्वक कहा तुम इस फिक्र में क्यों जान खपाते हो, जैसे वह कहें, वैसे ही करो, भला दूसरी जगह नौकरी कर लोगे तो वह क्या कहेगे? और चाहे वे गुस्से के मारे कुछ न बोलें, लेकिन दुनिया तो तुम्हीं को बुरा कहेगी।

देवकी नयी शिक्षा के आभूषण से वंचित थी। उसने स्वार्थ का पाठ न पढा था, मगर उसका पति अपने ‘अलमामेटर' का एक प्रतिष्ठित सदस्य था। उसे अपनी योग्यता पर पूरा भरोसा था। उस पर नाम कमाने का जोश। इसलिए वह बूढ़े पिता के पुराने ढर्रो को देखकर धीरज खो बैठता था। अगर अपनी योग्यताओं के लाभप्रद उपयोग की कोशिश के लिए दुनिया उसे बुरा कहे, तो उसकी परवाह न थी। झुंझलाकर बोला कुछ मैं अमरित की घरिया पीकर तो नहीं आया हूँ कि सारी उम्र उनके मरने का इंतजार करूँ। मूखोर्ं की अनुचित टीका—टिप्पणियों के डर से क्या अपनी उम्र बरबार कर दूं? मैं अपने कुछ हमउम्रों को जानता हूँ जो हरगिज मेरी—सी योग्यता नहीं रखते। लेकिन वह मोटर पर हवा खाने निकलते हैं, बंगलों में रहते हैं और शान से जिन्दगी बसर करते हैं तो मैं क्यों हाथ पर हाथ रखे जिन्दगी को अमर समझे बैठा रहूँ! सन्तोष और निस्पृहता का युग बीत गया। यह संघर्ष का युग है। यह मैं जानता हूँ कि पिता का आदर करना मेरा धर्म है। मगर सिद्धांतों के मामले में मैं उनसे क्या, किसी से भी नहीं दब सकता।

इसी बीच कहार ने आकर कहा लाला जी थाली मांगते हैं।

लाल हरनामदास हिन्दू रस्म—रिवाज के बड़े पाबन्द थे। मगर बुढापे के कारण चौक के चक्कर से मुक्ति पा चुके थे। पहले कुछ दिनों तक जाड़ों में रात को पूरियां न हजम होती थीं इसलिए चपातियां ही अपनी बैठक में मंगा लिया करते थे। मजबूरी ने वह कराया था जो हुज्जत और दलील के काबू से बाहर था।

हरिदास के लिए भी देवकी ने खाना निकाला। पहले तो वह हजरत बहुत दुखी नजर आते थे, लेकिन बघार की खुशबू ने खाने के लिए चाव पैदा कर दिया था। अक्सर हम अपनी आंख और नाक से हाजमे का काम लिया करते हैं।

लाला हरनामदास रात को भले—चंगे सोये लेकिन अपने बेटे की गुस्ताखि़यां और कुछ अपने कारबार की सुस्ती और मन्दी उनकी आत्मा के लिए भयानक कष्ट का कारण हो गयीं और चाहे इसी उद्विग्नता का असर हो, चाहे बुढापे का, सुबह होने से पहले उन पर लकवे का हमला हो गय। जबान बन्द हो गयी और चेहरा ऐंठ गया। हरिदास ड़ाक्टर के पास दौड़ा। ड़ाक्टर आये, मरीज को देखा और बोले डरने की कोई बात नहीं। सेहत होगी मगर तीन महीने से कम न लगेंगे। चिन्ताओं के कारण यह हमला हुआ है इसलिए कोशिश करनी चाहिये कि वह आराम से सोयें, परेशान न हों और जबान खुल जाने पर भी जहां तक मुमकिन हो, बोलने से बचें।

बेचारी देवकी बैठी रो रही थी। हरिदास ने आकर उसको सान्त्वना दी, और फिर ड़ाक्टर के यहां से दवा लाकर दी। थोड़ी देर में मरीज को होश आया, इधर—उधर कुछ खोजती हुई—सी निगाहों से देखा कि जैसे कुछ कहना चाहते हैं और फिर इशारे से लिखन के लिए कागज मांगा। हरिदास ने कागज और पेंसिल रख दी, तो बूढ़े लाला साहब ने हाथों को खूब सम्हालकर लिख इन्तजाम दीनानाथ के हाथ मे रहे।

ये शब्द हरिदास के हृदय में तीर की तरह लगे। अफसोस! अब भी मुझ पर भरोसा नहीं! यानी कि दीनानाथ मेरा मालिक होगा और मैं उसका गुलाम बनकर रहूँगा! यह नहीं होने का। कागज लिए देवकी के पास आये और बोले लालाजी ने दीनानाथ को मैनेजर बनाया है, उन्हें मुझ पर इतना एतबार भी नहीं हैं, लेकिन मैं इस मौके को हाथ से न दूंगा। उनकी बीमारी का अफसोस तो जरूर है मगर शायद परमात्मा ने मुझे अपनी योग्यता दिखलाने का यह अवसर दिया है। और इससे मैं जरूर फायदा उठाऊँगा। कारखाने के कर्मचारियों ने इस दुर्घटना की खबर सुनी तो बहुत घबराये। उनमें कई निकम्मे, बेमसरफ आदमी भरे हुए थे, जो सिर्फ खुशामद और चिकनी—चुपड़ी बातों की रोटी खाते थे। मिस्त्री ने कई दूसरे कारखानों में मरम्मत का काम उठा लिया था रोज किसी—न—किसी बहाने से खिसक जाता था। फायरमैन और मशीनमैन दिन को झूठ—मूठ चक्की की सफाई में काटते थे और रात के काम करके ओवर टाइम की मजदूरी लिया करते थे। दीनानाथ जरूर होशियार और तजुर्बेकार आदमी था, मगर उसे भी काम करने के मुकाबिले में ‘जी हां' रटते रहने में ज्यादा मजा आता था। लाला हरनामदास मजदूरी देन में बहुत हीले—हवाले किया करते थे और अक्सर काट—कपट के भी आदी थे। इसी को वह कारबार का अच्छा उसूल समझाते थे।

हरिदास ने कारखाने में पहुँचते ही साफ शब्दों कह दिय कि तुम लोगों को मेरे वक्त में जी लगाकर काम करना होगा। मैं इसी महीन में काम देखकर सब की तरक्की करूंगा। मगर अब टाल—मटोल का गुजर नहीं, जिन्हें मंजूर न हो वह अपना बोरिया—बिस्तर सम्हालें और फिर दीनानाथ को बुलाकर कहा—भाई साहब, मुझे खूब मालूम है कि आप होशियार और सूझ—बूझ रखनेवाले आदमी हैं। आपने अब तक यह यहां का जो रंग देखा, वही अख्तियार किया है। लेकिन अब मुझे आपके तजुर्बे और मेहनत की जरूरत है। पुराने हिसाबों की जांच—पड़ताल किजिए। बाहर से काम मेरा जिम्मा है लेकिन यहां का इन्तजाम आपके सुपुर्द है। जो कुछ नफा होगा, उसमें आपका भी हिस्सा होगा। मैं चाहता हूँ कि दादा की अनुपस्थिति में कुछ अच्छा काम करके दिखाऊँ।

इस मुस्तैदी और चुस्ती का असर बहुत जल्द कारखाने में नजर आने लगा। हरिदास ने खूब इश्तहार बंटवाये। उसका असर यह हुआ कि काम आने लगा। दीनानाथ की मुस्तैदी की बदौलत ग्राहकों को नियत समय पर और किफायत से आटा मिलने लगा। पहला महीना भी खत्म न हुआ था कि हरिदास ने नयी मशीन मंगवायी। थोड़े अनुभवी आदमी रख लिये, फिर क्या था, सारे शहर में इस कारखाने की धूम मच गयी। हरिदास ग्राहकों से इतनी अच्छी तरह से पेश आता कि जो एक बार उससे मुआमला करता वह हमेशा के लिए उसका खरीदार बन जाता। कर्मचारियों के साथ उसका सिद्धांत था काम सख्त और मजदूरी ठीक। उसके ऊंचे व्यक्तित्व का भी स्पस्ट प्रभाव दिखाई पड़ा। करीब—करीब सभी कारखानों का रंग फीका पड़ गया। उसने बहुत ही कम नफे पर ठेले ले लिये। मशीन को दम मारने की मोहलत न थी, रात और दिन काम होता था। तीसरा महीना खत्म होते—होते उस कारखाने की शकल ही बदल गयी। हाते में घुसते ही ठेले और गाडियों की भीड़ नजर आती थी। कारखाने में बड़ी चहल—पहल थी—हर आदमी अपने अपने काम में लगा हुआ। इसके साथ की प्रबन्ध कौशल का यह वरदान था कि भद्दी हड़बड़ी और जल्दबाजी का कहीं निशान न था।

लाला हरनामदास धीरे—धीरे ठीक होने लगे। एक महीने के बाद वह रूककर कुछ बोलने लगे। ड़ाक्टर की सख्त ताकीद थी कि उन्हे पूरी शान्ति की स्थिति में रखा जाय मगर जब उनकी जबान खुली उन्हें एक दम को भी चौन न था। देवकी से कहा करते सारा कारबार मिट्टी में मिल जाता है। यह लड़का मालूम नहीं क्या कर रहा है, सारा काम अपने हाथ में ले रखा है। मैंने ताकीद कर दी थी कि दीनानाथ को मैनेजर बनाना लेकिन उसने जरा भी परवाह न की। मेरी सारी उम्र की कमाई बरबाद हुई जाती है।

देवकी उनको सान्त्वना देती कि आप इन बातों की आशंका न करें। कारबार बहुत खूबी से चल रहा है और खूब नफा हो रहा है। पर वह भी इस मामले में तूल देते हुए ड़रती थी कि कहीं लकवे का फिर हमला न हो जाय। हूं—हां कहकर टालना चाहती थी। हरिदास ज्यों ही घर में आता, लाला जी उस पर सवालों की बौछार कर देते और जब वह टालकर कोई दूसरा जिक्र छेड़ देता तो बिगड़ जाते और कहते जालिम, तू जीते जी मेरे गले पर छुरी फेर रहा है। मेरी पूंजी उड़ा रहा है। तुझे क्या मालूम कि मैंने एक—एक कौड़ी किस मशक्कत से जमा की है। तूने दिल में ठान ली है कि इस बुढ़ापे में मुझे गली—गली ठोकर खिलाये, मुझे कौड़ी—कौड़ी का मुहतात बनाये।

हरिदास फटकार का कोई जवाब न देता क्योंकि बात से बात बढ़ती है। उसकी चुप्पी से लाला साहब को यकीन हो जाता कि कारखाना तबाह हो गया।

एक रोज देवकी ने हरिदास से कहा अभी कितने दिन और इन बातों का लालाजी से छिपाओगे?

हरिदास ने जवाब दिया मैं तो चाहता हूँ कि नयी मशीन का रुपया अदा हो जाय तो उन्हें ले जाकर सब कुछ दिखा दूँ। तब तक ड़ाक्टर साहब की हिदायत के अनुसार तीन महीने पूरे भी हो जायेंगे।

देवकी लेकिन इस छिपाने से क्या फायदा, जब वे आठों पहर इसी की रट लगाये रहते हैं। इससे तो चिन्ता और बढ़ती ही है, कम नहीं होती। अससे तो यही अच्छा है, कि उनसे सब कुछ कह दिय जाए।

हरिदास मेरे कहने का तो उन्हें यकीन आ चुका। हां, दीनानाथ कहें तो शायद यकीन हो

देवकी अच्छा तो कल दीनानाथ को यहां भेज दो। लालाजी उसे देखते ही खुद बुला लेंगे, तुम्हें इस रोज—रोज की डांट—फटकर से तो छुट्टी मिल जाएगी।

हरिदास अब मुझे इन फटकारों का जरा भी दुख नहीं होता। मेरी मेहनत और योग्यता का नतीजा आंखों के सामने मौजूद है। जब मैंने कारखाना आने हाथ में लिया था, आमदनी और खर्च का मीजान मुश्किल से बैठता था। आज पांच से का नफा है। तीसरा महीना खत्म होनेवाला है और मैं मशीन की आधी कीमत अदा कर चुका। शायद अगले महीने दो महीने में पूरी कीमत अदा हो जायेगी। उस वक्त से कारखाने का खर्च तिगुने से ज्यादा है लेकिन आमदनी पंचगुनी हो गयी है। हजरत देखेंगे तो आंखें खुल जाएंगी। कहां हाते में उल्लू बोलते थे। एक मेज पर बैठे आप ऊंघा करते थे, एक पर दीनानाथ कान कुरेदा करता था। मिस्त्री और फायरमैन ताश खेलते थ। बस, दो—चार घण्टे चक्की चल जाती थी। अब दम मारने की फुरसत नहीं है। सारी जि़न्दगी में जो कुछ न कर सके वह मैंने तीन महीने मे करके दिखा दिया। इसी तजुर्बे और कार्रवाई पर आपको इतना घमण्ड था। जितना काम वह एक महीने में करते थे उतना मैं रोज कर ड़ालता हूँ।

देवकी ने भर्त्‌सनापूर्ण नेत्रों से देखकर कहा अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना कोई तुमसे सीख ले! जिस तरह मां अपने बेटे को हमेशा दुबला ही समझती है, उसी तरह बाप बेटे को हमेशा नादान समझा करता है। यह उनकी ममता है, बुरा मानने की बात नहीं है।

हरिदास ने लज्जित होकर सर झुका लिया।

दूसरे रोज दीनानाथ उनको देखने के बहाने से लाला हरनामदास की सेवा में उपस्थित हुआ। लालाजी उसे देखते ही तकिये के सहारे उठ बैठे और पागलों की तरह बेचौन होकर पूछा क्यों, कारबार सब तबाह हो गया कि अभी कुछ कसर बाकी है! तुम लोगों ने मुझे मुर्दा समझ लिया है। कभी बात तक न पूछी। कम से कम मुझे ऐसी उम्मीद न थी। बहू ने मेरी तीमारदारी ने की होती तो मर ही गया होती

दीनानाथ आपका कुशल—मंगल रोज बाबू साहब से पूछ लिया करता था। आपने मेरे साथ जो नेकियां की हैं, उन्हें मैं भूल नहीं सकता। मेरा एक—एक रोआं आपका एहसानमन्द है। मगर इस बीच काम ही कुछ एकस था कि हाजि़र होने की मोहलत न मिली।

हरनामदास खैर, कारखाने का क्या हाल है? दीवाला होने में क्या कसर बाकी है?

दीनानाथ ने ताज्जुब के साथ कहा यह आपसे किसने कह दिया कि दीवाला होनेवाला है? इस अरसे में कारोबार में जो तरक्की हुई है, वह आप खुद अपनी आंखों से देख लेंगे।

हरनामदास व्यंग्यपूर्वक बोले शायद तुम्हारे बाबू साहब ने तुम्हारी मनचाही तरक्की कर दी! अच्छा अब स्वामिभक्ति छोड़ो और साफ बतलाआ। मैंने ताकीद कर दी थी कि कारखाने का इन्तजाम तुम्हारे हाथ में रहेगा। मगर शायद हरिदास ने सब कुछ अपने हाथ में रखा।

दीनानाथ जी हां, मगर मुझे इसका जरा भी दुख नहीं। वही रइस काम के लिए ठीक भी थे। जो कुछ उन्होंने कर दिखाया, वह मुझसे हरगिज न हो सकता।

हरनामदास मुझे यह सुन—सुनकर हैरत होती है। बतलाओ, क्या तरक्की हुई?

दीनानाथ तफसील तो बहुत ज्यादा होगी, मगर थोड़े मे यह समझ लीजिए कि पहले हम लोग जितना काम एक महीने में करते थे उतना अब रोज होता है। नयी मशीन आयी थी, उसकी आधी, कीमत अदा हो चुकी है। वह अक्सर रात को भी चलती है। ठाकुर कम्पनी का पांच हजार मन आटे का ठेका लिया था, वह पूरा होनेवाला है। जगतराम बनवारीलाल से कमसरियट का ठेका लिया है। उन्होंने हमको पांच सौ बोरे महावार का बयाना दिया है। इसी तरह और फुटकर काम कई गुना बढ़ गया है। आमदनी के साथ खर्च भी बढ़े हैं। कई आदमी नए रखे गये हैं, मुलाजि़मों को मजदूरी के साथ कमीशन भ्री मिलता है मगर खालिस नफा पहले के मुकाबले में चौगुने के करीब है।

हरनामदास ने बड़े ध्यान से यह बात सुनी। वह गौर से दीनानाथ के चेहरे की तरफ देख रहे थे। शायद उसके दिन में पैठकर सच्चाई की तह तक पहुँचना चाहते थे। सन्देहपूर्ण स्वर में बोले दीननाथ, तुम कभी मुझसे झूठ नहीं बोलते थे लेकिन तो भी मुझे इन बातों पर यकीन नहीं आता और जब तक अपनी आंखों से देख न लूंगा, यकीन न आयेगा।

दीनानाथ कुछ निराश होकर बिदा हुआ। उसे आशा थी कि लाला साहब तरक्की और कारगुजारी की बात सुनते ही फूले न समायेंगे और मेरी मेहनत की दाद देंगे। उस बेचारे को न मालूम था कि कुछ दिलों में सन्देह की जड़ इतनी मजबूत होती है कि सबूत और दलील के हमले उस पर कुछ असर नहीं कर सकते। यहां तक कि वह अपनी आंख से देखने को भी धोखा या तिलिस्म समझता है।

दीनानाथ के चले जाने के बाद लाला हरनामदास कुछ देर तक गहरे विचार में डूबे रहे और फिर यकायक कहार से बग्घी मंगवायी, लाठी के सहारे बग्घी में आ बैठे और उसे अपने चक्कीघर चलने का हुक्म दिया।

दोपहर का वक्त था। कारखानों के मजदूर खाना खाने के लिए गोल के गोल भागे चले आते थे मगर हरिदास के कारखाने में काम जारी था। बग्घी हाते में दाखिल हुई, दोनों तरफ फूलों की कतारें नजर आयीं, माली क्यारियों में पानी दे रहा था। ठेले और गाडि़यों के मारे बग्घी को निकलने की जगह न मिलती थी। जिधर निगाह जाती थी, सफाईं और हरियाली नजर आती थी।

हरिदास अपने मुहर्रिर को कुछ खतों का मसौदा लिखा रहा था कि बूढ़े लाला जी लाठी टेकते हुए कारखाने में दाखिल हुए। हरिदास फौरन उइ खड़ा हुआ और उन्हें हाथों से सहारा देते हुए बोला ‘आपने कहला क्यों न भेजा कि मैं आना चाहता हूँ, पालकी मंगवा देता। आपको बहुत तकलीफ हुई।' यह कहकर उसने एक आराम—कुर्सी बैठने के लिए खिसका दी। कारखाने के कर्मचारी दौड़े और उनके चारों तरफ बहुत अदब के साथ खड़े हो गये। हरनामदास कुर्सी पर बैठ गये और बोरों के छत चूमनेवाले ढ़ेर पर नजर दौड़ाकर बोले मालूम होता है दीनानाथ सच कहता था। मुझे यहां कई नयी सूरतें नजर आती हैं। भला कितना काम रोज होता है? भला कितना काम रोज होता है?

हरिदास आजकल काम ज्यादा आ गया था इसलिए कोई पांच सौ मन रोजाना तैयार हो जाता था लेकिन औसत ढाई सौ मन का रहेगा। मुझे नयी मशीन की कीमत अदा करनी थी इसलिए अक्सर रात को भी काम होता है।

हरनामदास कुछ कर्ज लेना पड़ा?

हरिदास एक कौड़ी नहीं। सिर्फ मशीन की आधी कीमत बाकी है।

हरनामदास के चेहरे पर इत्मीनाना का रंग नजर आया। संदेह ने वह विश्वास को जगह दी। प्यार—भरी आंखों से लड़के की तरफ देखा और करूण स्वर में बोले बेटा, मैंने तुम्हार ऊपर बड़ा जुल्म किया, मुझे माफ करों। मुझे आदमियों की पहचान पर बड़ा घमण्ड था, लेकिन मुझे बहुत धोखा हुआ। मुझे अब से बहुत पहले इस काम से हाथ खींच लेना चाहिए था। मैंने तुम्हें बहुत नुकसान पहुँचाया। यह बीमारी बड़ी मुबारक है जिसने तुम्हारी परख का मौका दिया और तुम्हें लियाकत दिखाने का। काश, यह हमला पांच साल पहले ही हुआ होता। ईश्वर तुम्हें खुश रखे और हमेशा उन्नति दे, यही तुम्हारे बूढ़े बाप का आशीर्वाद है।

‘प्रेम बत्तीसी' से