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मंत्र

मंत्र

मुंशी प्रेमचंद


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जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन्‌ १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।

जीवन

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

शादी

आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।

साहित्यिक रुचि

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।

आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।

अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।

तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन्‌ १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन्‌ १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।

यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात्‌ आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात्‌ — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।

जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्

प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

ईश्वर के प्रति आस्था

जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्

मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्

प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन्‌ १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन्‌ १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन्‌ १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यु

सन्‌ १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

मंत्र

संध्या का समय था। डाक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर द्वार के सामने खड़ी थी कि दो कहार एक डोली लिये आते दिखायी दिये। डोली के पीछे एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आता था। डोली औषाधालय के सामने आकर रूक गयी। बूढ़े ने धीरे—धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई चिक से झॉँका। ऐसी साफ—सुथरी जमीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न बैठे। डाक्टर साहब को खड़े देख कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ।

डाक्टर साहब ने चिक के अंदर से गरज कर कहा कौन है? क्या चाहता है?

डाक्टर साहब ने हाथ जोड़कर कहा हुजूर बड़ा गरीब आदमी हूँ। मेरा लड़का कई दिन से.......

डाक्टर साहब ने सिगार जला कर कहा कल सबेरे आओ, कल सबेरे, हम इस वक्त मरीजों को नहीं देखते।

बूढ़े ने घुटने टेक कर जमीन पर सिर रख दिया और बोला दुहाई है सरकार की, लड़का मर जायगा! हुजूर, चार दिन से अॉंखें नहीं.......

डाक्टर चड्ढा ने कलाई पर नजर डाली। केवल दस मिनट समय और बाकी था। गोल्फ—स्टिक खूँटी से उतारने हुए बोले कल सबेरे आओ, कल सबेरेय यह हमारे खेलने का समय है।

बूढ़े ने पगड़ी उतार कर चौखट पर रख दी और रो कर बोला हूजुर, एक निगाह देख लें। बस, एक निगाह! लड़का हाथ से चला जायगा हुजूर, सात लड़कों में यही एक बच रहा है, हुजूर। हम दोनों आदमी रो—रोकर मर जायेंगे, सरकार! आपकी बढ़ती होय, दीनबंधु!

ऐसे उजड़ड देहाती यहॉँ प्रायरू रोज आया करते थे। डाक्टर साहब उनके स्वभाव से खूब परिचित थे। कोई कितना ही कुछ कहेय पर वे अपनी ही रट लगाते जायँगे। किसी की सुनेंगे नहीं। धीरे से चिक उठाई और बाहर निकल कर मोटर की तरफ चले। बूढ़ा यह कहता हुआ उनके पीछे दौड़ा सरकार, बड़ा धरम होगा। हुजूर, दया कीजिए, बड़ा दीन—दुखी हूँय संसार में कोई और नहीं है, बाबू जी!

मगर डाक्टर साहब ने उसकी ओर मुँह फेर कर देखा तक नहीं। मोटर पर बैठ कर बोले कल सबेरे आना।

मोटर चली गयी। बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भॉँति निश्चल खड़ा रहा। संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद—प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था। सभ्य संसार इतना निर्मम, इतना कठोर है, इसका ऐसा मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था। वह उन पुराने जमाने की जीवों में था, जो लगी हुई आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। जब तक बूढ़े को मोटर दिखायी दी, वह खड़ा टकटकी लागाये उस ओर ताकता रहा। शायद उसे अब भी डाक्टर साहब के लौट आने की आशा थी। फिर उसने कहारों से डोली उठाने को कहा। डोली जिधर से आयी थी, उधर ही चली गयी। चारों ओर से निराश हो कर वह डाक्टर चड्ढा के पास आया था। इनकी बड़ी तारीफ सुनी थी। यहॉँ से निराश हो कर फिर वह किसी दूसरे डाक्टर के पास न गया। किस्मत ठोक ली!

उसी रात उसका हँसता—खेलता सात साल का बालक अपनी बाल—लीला समाप्त करके इस संसार से सिधार गया। बूढ़े मॉँ—बाप के जीवन का यही एक आधार था। इसी का मुँह देख कर जीते थे। इस दीपक के बुझते ही जीवन की अँधेरी रात भॉँय—भॉँय करने लगी। बुढ़ापे की विशाल ममता टूटे हुए हृदय से निकल कर अंधकार आर्त्‌त—स्वर से रोने लगी।

कई साल गुजर गये। डाक्टर चड़ढा ने खूब यश और धन कमायाय लेकिन इसके साथ ही अपने स्वास्थ्य की रक्षा भी की, जो एक साधारण बात थी। यह उनके नियमित जीवन का आर्शीवाद था कि पचास वर्ष की अवस्था में उनकी चुस्ती और फुर्ती युवकों को भी लज्जित करती थी। उनके हरएक काम का समय नियत था, इस नियम से वह जौ—भर भी न टलते थे। बहुधा लोग स्वास्थ्य के नियमों का पालन उस समय करते हैं, जब रोगी हो जाते हें। डाक्टर चड्ढा उपचार और संयम का रहस्य खूब समझते थे। उनकी संतान—संध्या भी इसी नियम के अधीन थी। उनके केवल दो बच्चे हुए, एक लड़का और एक लड़की। तीसरी संतान न हुई, इसीलिए श्रीमती चड्ढा भी अभी जवान मालूम होती थीं। लड़की का तो विवाह हो चुका था। लड़का कालेज में पढ़ता था। वही माता—पिता के जीवन का आधार था। शील और विनय का पुतला, बड़ा ही रसिक, बड़ा ही उदार, विद्यालय का गौरव, युवक—समाज की शोभा। मुखमंडल से तेज की छटा—सी निकलती थी। आज उसकी बीसवीं सालगिरह थी।

संध्या का समय था। हरी—हरी घास पर कुर्सियॉँ बिछी हुई थी। शहर के रईस और हुक्काम एक तरफ, कालेज के छात्र दूसरी तरफ बैठे भोजन कर रहे थे। बिजली के प्रकाश से सारा मैदान जगमगा रहा था। आमोद—प्रमोद का सामान भी जमा था। छोटा—सा प्रहसन खेलने की तैयारी थी। प्रहसन स्वयं कैलाशनाथ ने लिखा था। वही मुख्य एक्टर भी था। इस समय वह एक रेशमी कमीज पहने, नंगे सिर, नंगे पॉँव, इधर से उधर मित्रों की आव भगत में लगा हुआ था। कोई पुकारता कैलाश, जरा इधर आनाय कोई उधर से बुलाता कैलाश, क्या उधर ही रहोगे? सभी उसे छोड़ते थे, चुहलें करते थे, बेचारे को जरा दम मारने का अवकाश न मिलता था। सहसा एक रमणी ने उसके पास आकर पूछा क्यों कैलाश, तुम्हारे सॉँप कहॉँ हैं? जरा मुझे दिखा दो।

कैलाश ने उससे हाथ मिला कर कहा मृणालिनी, इस वक्त क्षमा करो, कल दिखा दूगॉँ।

मृणालिनी ने आग्रह किया जी नहीं, तुम्हें दिखाना पड़ेगा, मै आज नहीं मानने की। तुम रोज ‘कल—कल' करते हो।

मृणालिनी और कैलाश दोनों सहपाठी थे ओर एक—दूसरे के प्रेम में पगे हुए। कैलाश को सॉँपों के पालने, खेलाने और नचाने का शौक था। तरह—तरह के सॉँप पाल रखे थे। उनके स्वभाव और चरित्र की परीक्षा करता रहता था। थोड़े दिन हुए, उसने विद्यालय में ‘सॉँपों' पर एक मार्के का व्याख्यान दिया था। सॉँपों को नचा कर दिखाया भी था! प्राणिशास्त्र के बड़े—बड़े पंडित भी यह व्याख्यान सुन कर दंग रह गये थे! यह विद्या उसने एक बड़े सँपेरे से सीखी थी। साँपों की जड़ी—बूटियॉँ जमा करने का उसे मरज था। इतना पता भर मिल जाय कि किसी व्यक्ति के पास कोई अच्छी जड़ी है, फिर उसे चौन न आता था। उसे लेकर ही छोड़ता था। यही व्यसन था। इस पर हजारों रूपये फूँक चुका था। मृणालिनी कई बार आ चुकी थीय पर कभी सॉँपों को देखने के लिए इतनी उत्सुक न हुई थी। कह नहीं सकते, आज उसकी उत्सुकता सचमुच जाग गयी थी, या वह कैलाश पर उपने अधिकार का प्रदर्शन करना चाहती थीय पर उसका आग्रह बेमौका था। उस कोठरी में कितनी भीड़ लग जायगी, भीड़ को देख कर सॉँप कितने चौकेंगें और रात के समय उन्हें छेड़ा जाना कितना बुरा लगेगा, इन बातों का उसे जरा भी ध्यान न आया।

कैलाश ने कहा नहीं, कल जरूर दिखा दूँगा। इस वक्त अच्छी तरह दिखा भी तो न सकूँगा, कमरे में तिल रखने को भी जगह न मिलेगी।

एक महाशय ने छेड़ कर कहा दिखा क्यों नहीं देते, जरा—सी बात के लिए इतना टाल—मटोल कर रहे हो? मिस गोविंद, हर्गिज न मानना। देखें कैसे नहीं दिखाते!

दूसरे महाशय ने और रद्दा चढ़ाया मिस गोविंद इतनी सीधी और भोली हैं, तभी आप इतना मिजाज करते हैंय दूसरे सुंदरी होती, तो इसी बात पर बिगड़ खड़ी होती।

तीसरे साहब ने मजाक उड़ाया अजी बोलना छोड़ देती। भला, कोई बात है! इस पर आपका दावा है कि मृणालिनी के लिए जान हाजिर है।

मृणालिनी ने देखा कि ये शोहदे उसे रंग पर चढ़ा रहे हैं, तो बोली आप लोग मेरी वकालत न करें, मैं खुद अपनी वकालत कर लूँगी। मैं इस वक्त सॉँपों का तमाशा नहीं देखना चाहती। चलो, छुट्टी हुई।

इस पर मित्रों ने ठट्टा लगाया। एक साहब बोले देखना तो आप सब कुछ चाहें, पर दिखाये भी तो?

कैलाश को मृणालिनी की झेंपी हुई सूरत को देखकर मालूम हुआ कि इस वक्त उनका इनकार वास्तव में उसे बुरा लगा है। ज्योंही प्रीति—भोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को सॉँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक—एक खाना खोलकर एक—एक सॉँप को निकालने लगा। वाह! क्या कमाल था! ऐसा जान पड़ता था कि वे कीड़े उसकी एक—एक बात, उसके मन का एक—एक भाव समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया। मृणालिनी बार—बार मना करती कि इन्हें गर्दन में न डालों, दूर ही से दिखा दो। बस, जरा नचा दो। कैलाश की गरदन में सॉँपों को लिपटते देख कर उसकी जान निकली जाती थी। पछता रही थी कि मैंने व्यर्थ ही इनसे सॉँप दिखाने को कहाय मगर कैलाश एक न सुनता था। प्रेमिका के सम्मुख अपने सर्प—कला—प्रदर्शन का ऐसा अवसर पाकर वह कब चूकता! एक मित्र ने टीका की दॉँत तोड़ डाले होंगे।

कैलाश हँसकर बोला दॉँत तोड़ डालना मदारियों का काम है। किसी के दॉँत नहीं तोड़ गये। कहिए तो दिखा दूँ? कह कर उसने एक काले सॉँप को पकड़ लिया और बोला ‘मेरे पास इससे बड़ा और जहरीला सॉँप दूसरा नहीं है, अगर किसी को काट ले, तो आदमी आनन—फानन में मर जाय। लहर भी न आये। इसके काटे पर मन्त्र नहीं। इसके दॉँत दिखा दूँ?'

मृणालिनी ने उसका हाथ पकड़कर कहा नहीं—नहीं, कैलाश, ईश्वर के लिए इसे छोड़ दो। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

इस पर एक—दूसरे मित्र बोले मुझे तो विश्वास नहीं आता, लेकिन तुम कहते हो, तो मान लूँगा।

कैलाश ने सॉँप की गरदन पकड़कर कहा नहीं साहब, आप अॉंखों से देख कर मानिए। दॉँत तोड़कर वश में किया, तो क्या। सॉँप बड़ा समझदार होता हैं! अगर उसे विश्वास हो जाय कि इस आदमी से मुझे कोई हानि न पहुँचेगी, तो वह उसे हर्गिज न काटेगा।

मृणालिनी ने जब देखा कि कैलाश पर इस वक्त भूत सवार है, तो उसने यह तमाशा न करने के विचार से कहा अच्छा भाई, अब यहॉँ से चलो। देखा, गाना शुरू हो गया है। आज मैं भी कोई चीज सुनाऊँगी। यह कहते हुए उसने कैलाश का कंधा पकड़ कर चलने का इशारा किया और कमरे से निकल गयीय मगर कैलाश विरोधियों का शंका—समाधान करके ही दम लेना चाहता था। उसने सॉँप की गरदन पकड़ कर जोर से दबायी, इतनी जोर से इबायी कि उसका मुँह लाल हो गया, देह की सारी नसें तन गयीं। सॉँप ने अब तक उसके हाथों ऐसा व्यवहार न देखा था। उसकी समझ में न आता था कि यह मुझसे क्या चाहते हें। उसे शायद भ्रम हुआ कि मुझे मार डालना चाहते हैं, अतएव वह आत्मरक्षा के लिए तैयार हो गया।

कैलाश ने उसकी गर्दन खूब दबा कर मुँह खोल दिया और उसके जहरीले दॉँत दिखाते हुए बोला जिन सज्जनों को शक हो, आकर देख लें। आया विश्वास या अब भी कुछ शक है? मित्रों ने आकर उसके दॉँत देखें और चकित हो गये। प्रत्यक्ष प्रमाण के सामने सन्देह को स्थान कहॉँ। मित्रों का शंका—निवारण करके कैलाश ने सॉँप की गर्दन ढीली कर दी और उसे जमीन पर रखना चाहा, पर वह काला गेहूँवन क्रोध से पागल हो रहा था। गर्दन नरम पड़ते ही उसने सिर उठा कर कैलाश की उँगली में जोर से काटा और वहॉँ से भागा। कैलाश की ऊँगली से टप—टप खून टपकने लगा। उसने जोर से उँगली दबा ली और उपने कमरे की तरफ दौड़ा। वहॉँ मेज की दराज में एक जड़ी रखी हुई थी, जिसे पीस कर लगा देने से घतक विष भी रफू हो जाता था। मित्रों में हलचल पड़ गई। बाहर महफिल में भी खबर हुई। डाक्टर साहब घबरा कर दौड़े। फौरन उँगली की जड़ कस कर बॉँधी गयी और जड़ी पीसने के लिए दी गयी। डाक्टर साहब जड़ी के कायल न थे। वह उँगली का डसा भाग नश्तर से काट देना चाहते, मगर कैलाश को जड़ी पर पूर्ण विश्वास था। मृणालिनी प्यानों पर बैठी हुई थी। यह खबर सुनते ही दौड़ी, और कैलाश की उँगली से टपकते हुए खून को रूमाल से पोंछने लगी। जड़ी पीसी जाने लगीय पर उसी एक मिनट में कैलाश की अॉंखें झपकने लगीं, ओठों पर पीलापन दौड़ने लगा। यहॉँ तक कि वह खड़ा न रह सका। फर्श पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए। कोई कुछ कहता था। कोई कुछ। इतने में जड़ी पीसकर आ गयी। मृणालिनी ने उँगली पर लेप किया। एक मिनट और बीता। कैलाश की अॉंखें बन्द हो गयीं। वह लेट गया और हाथ से पंखा झलने का इशारा किया। मॉँ ने दौड़कर उसका सिर गोद में रख लिया और बिजली का टेबुल—फैन लगा दिया।

डाक्टर साहब ने झुक कर पूछा कैलाश, कैसी तबीयत है? कैलाश ने धीरे से हाथ उठा लिएय पर कुछ बोल न सका। मृणालिनी ने करूण स्वर में कहा क्या जड़ी कुछ असर न करेंगी? डाक्टर साहब ने सिर पकड़ कर कहा क्या बतलाऊँ, मैं इसकी बातों में आ गया। अब तो नश्तर से भी कुछ फायदा न होगा।

आध घंटे तक यही हाल रहा। कैलाश की दशा प्रतिक्षण बिगड़ती जाती थी। यहॉँ तक कि उसकी अॉंखें पथरा गयी, हाथ—पॉँव ठंडे पड़ गये, मुख की कांति मलिन पड़ गयी, नाड़ी का कहीं पता नहीं। मौत के सारे लक्षण दिखायी देने लगे। घर में कुहराम मच गया। मृणालिनी एक ओर सिर पीटने लगीय मॉँ अलग पछाड़े खाने लगी। डाक्टर चड्ढा को मित्रों ने पकड़ लिया, नहीं तो वह नश्तर अपनी गर्दन पर मार लेते।

एक महाशय बोले कोई मंत्र झाड़ने वाला मिले, तो सम्भव है, अब भी जान बच जाय।

एक मुसलमान सज्जन ने इसका समर्थन किया अरे साहब कब्र में पड़ी हुई लाशें जिन्दा हो गयी हैं। ऐसे—ऐसे बाकमाल पड़े हुए हैं।

डाक्टर चड्ढा बोले मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में आ गया। नश्तर लगा देता, तो यह नौबत ही क्यों आती। बार—बार समझाता रहा कि बेटा, सॉँप न पालो, मगर कौन सुनता था! बुलाइए, किसी झाड़—फूँक करने वाले ही को बुलाइए। मेरा सब कुछ ले ले, मैं अपनी सारी जायदाद उसके पैरों पर रख दूँगा। लँगोटी बॉँध कर घर से निकल जाऊँगाय मगर मेरा कैलाश, मेरा प्यारा कैलाश उठ बैठे। ईश्वर के लिए किसी को बुलवाइए।

एक महाशय का किसी झाड़ने वाले से परिचय था। वह दौड़कर उसे बुला लायेय मगर कैलाश की सूरत देखकर उसे मंत्र चलाने की हिम्मत न पड़ी। बोला अब क्या हो सकता है, सरकार? जो कुछ होना था, हो चुका?

अरे मूर्ख, यह क्यों नही कहता कि जो कुछ न होना था, वह कहॉँ हुआ? मॉँ—बाप ने बेटे का सेहरा कहॉँ देखा? मृणालिनी का कामना—तरू क्या पल्लव और पुष्प से रंजित हो उठा? मन के वह स्वर्ण—स्वप्न जिनसे जीवन आनंद का स्रोत बना हुआ था, क्या पूरे हो गये? जीवन के नृत्यमय तारिका—मंडित सागर में आमोद की बहार लूटते हुए क्या उनकी नौका जलमग्न नहीं हो गयी? जो न होना था, वह हो गया।

वही हरा—भरा मैदान था, वही सुनहरी चॉँदनी एक निरूशब्द संगीत की भॉँति प्र ति पर छायी हुई थीय वही मित्र—समाज था। वही मनोरंजन के सामान थे। मगर जहाँ हास्य की ध्वनि थी, वहॉँ करूण क्रन्दन और अश्रु—प्रवाह था।

शहर से कई मील दूर एक छोट—से घर में एक बूढ़ा और बुढिया अगीठी के सामने बैठे जाड़े की रात काट रहे थे। बूढ़ा नारियल पीता था और बीच—बीच में खॉँसता था। बुढिया दोनों घुटनियों में सिर डाले आग की ओर ताक रही थी। एक मिट्टी के तेल की कुप्पी ताक पर जल रही थी। घर में न चारपाई थी, न बिछौना। एक किनारे थोड़ी—सी पुआल पड़ी हुई थी। इसी कोठरी में एक चूल्हा था। बुढिया दिन—भर उपले और सूखी लकडियॉँ बटोरती थी। बूढ़ा रस्सी बट कर बाजार में बेच आता था। यही उनकी जीविका थी। उन्हें न किसी ने रोते देखा, न हँसते।

उनका सारा समय जीवित रहने में कट जाता था। मौत द्वार पर खड़ी थी, रोने या हँसने की कहॉँ फुरसत! बुढिया ने पूछा कल के लिए सन तो है नहीं, काम क्या करोंगे?

‘जा कर झगडू साह से दस सेर सन उधार लाऊँगा?'

‘उसके पहले के पैसे तो दिये ही नहीं, और उधार कैसे देगा?'

‘न देगा न सही। घास तो कहीं नहीं गयी। दोपहर तक क्या दो आने की भी न काटूँगा?'

इतने में एक आदमी ने द्वार पर आवाज दी भगत, भगत, क्या सो गये? जरा किवाड़ खोलो।

भगत ने उठकर किवाड़ खोल दिये। एक आदमी ने अन्दर आकर कहा कुछ सुना, डाक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को सॉँप ने काट लिया।

भगत ने चौंक कर कहा चड्ढा बाबू के लड़के को! वही चड्ढा बाबू हैं न, जो छावनी में बँगले में रहते हैं?

‘हॉँ—हॉँ वही। शहर में हल्ला मचा हुआ है। जाते हो तो जाओं, आदमी बन जाओंगे।‘

बूढ़े ने कठोर भाव से सिर हिला कर कहा मैं नहीं जाता! मेरी बला जाय! वही चड्ढा है। खूब जानता हूँ। भैया लेकर उन्हीं के पास गया था। खेलने जा रहे थे। पैरों पर गिर पड़ा कि एक नजर देख लीजिएय मगर सीधे मुँह से बात तक न की। भगवान बैठे सुन रहे थे। अब जान पड़ेगा कि बेटे का गम कैसा होता है। कई लड़के हैं।

‘नहीं जी, यही तो एक लड़का था। सुना है, सबने जवाब दे दिया है।‘

‘भगवान बड़ा कारसाज है। उस बखत मेरी अॉंखें से अॉंसू निकल पड़े थे, पर उन्हें तनिक भी दया न आयी थी। मैं तो उनके द्वार पर होता, तो भी बात न पूछता।‘

‘तो न जाओगे? हमने जो सुना था, सो कह दिया।‘

‘अच्छा किया अच्छा किया। कलेजा ठंडा हो गया, अॉंखें ठंडी हो गयीं। लड़का भी ठंडा हो गया होगा! तुम जाओ। आज चौन की नींद सोऊँगा। (बुढि़या से) जरा तम्बाकू ले ले! एक चिलम और पीऊँगा। अब मालूम होगा लाला को! सारी साहबी निकल जायगी, हमारा क्या बिगड़ा। लड़के के मर जाने से कुछ राज तो नहीं चला गया? जहॉँ छरू बच्चे गये थे, वहॉँ एक और चला गया, तुम्हारा तो राज सुना हो जायगा। उसी के वास्ते सबका गला दबा—दबा कर जोड़ा था न। अब क्या करोंगे? एक बार देखने जाऊँगाय पर कुछ दिन बाद मिजाज का हाल पूछूँगा।‘

आदमी चला गया। भगत ने किवाड़ बन्द कर लिये, तब चिलम पर तम्बाखू रख कर पीने लगा।

बुढि़या ने कहा इतनी रात गए जाड़े—पाले में कौन जायगा?

‘अरे, दोपहर ही होता तो मैं न जाता। सवारी दरवाजे पर लेने आती, तो भी न जाता। भूल नहीं गया हूँ। पन्ना की सूरत अॉंखों में फिर रही है। इस निर्दयी ने उसे एक नजर देखा तक नहीं। क्या मैं न जानता था कि वह न बचेगा? खूब जानता था। चड्ढा भगवान नहीं थे, कि उनके एक निगाहदेख लेने से अमृत बरस जाता। नहीं, खाली मन की दौड़ थी। अब किसी दिन जाऊँगा और कहूँगा क्यों साहब, कहिए, क्या रंग है? दुनिया बुरा कहेगी, कहेय कोई परवाह नहीं। छोटे आदमियों में तो सब ऐव हें। बड़ो में कोई ऐब नहीं होता, देवता होते हैं।‘

भगत के लिए यह जीवन में पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो। अस्सी वर्ष के जीवन में ऐसा कभी न हुआ था कि सॉँप की खबर पाकर वह दौड़ न गया हो। माघ—पूस की अँधेरी रात, चौत—बैसाख की धूप और लू, सावन—भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की। वह तुरन्त घर से निकल पड़ता था निरूस्वार्थ, निष्काम! लेन—देन का विचार कभी दिल में आया नहीं। यह सा काम ही न था। जान का मूल्य कोन दे सकता है? यह एक पुण्य—कार्य था। सैकड़ों निराशों को उसके मंत्रों ने जीवन—दान दे दिया थाय पर आप वह घर से कदम नहीं निकाल सका। यह खबर सुन कर सोने जा रहा है।

बुढिया ने कहा तमाखू अँगीठी के पास रखी हुई है। उसके भी आज ढाई पैसे हो गये। देती ही न थी।

बुढिया यह कह कर लेटी। बूढ़े ने कुप्पी बुझायी, कुछ देर खड़ा रहा, फिर बैठ गया। अन्त को लेट गयाय पर यह खबर उसके हृदय पर बोझे की भॉँति रखी हुई थी। उसे मालूम हो रहा था, उसकी कोई चीज खो गयी है, जैसे सारे कपड़े गीले हो गये है या पैरों में कीचड़ लगा हुआ है, जैसे कोई उसके मन में बैठा हुआ उसे घर से लिकालने के लिए कुरेद रहा है। बुढिया जरा देर में खर्राटे लेनी लगी। बूढ़े बातें करते—करते सोते है और जरा—सा खटा होते ही जागते हैं। तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली, और धीरे से किवाड़ खोले।

बुढिया ने पूछा कहॉँ जाते हो?

‘कहीं नहीं, देखता था कि कितनी रात है।‘

‘अभी बहुत रात है, सो जाओ।‘

‘नींद, नहीं आतीं।'

‘नींद काहे आवेगी? मन तो चड़ढा के घर पर लगा हुआ है।‘

‘चड़ढा ने मेरे साथ कौन—सी नेकी कर दी है, जो वहॉँ जाऊँ? वह आ कर पैरों पड़े, तो भी न जाऊँ।‘

‘उठे तो तुम इसी इरादे से ही?'

‘नहीं री, ऐसा पागल नहीं हूँ कि जो मुझे कॉँटे बोये, उसके लिए फूल बोता फिरूँ।‘

बुढिया फिर सो गयी। भगत ने किवाड़ लगा दिए और फिर आकर बैठा। पर उसके मन की कुछ ऐसी दशा थी, जो बाजे की आवाज कान में पड़ते ही उपदेश सुनने वालों की होती हैं। अॉंखें चाहे उपेदेशक की ओर होंय पर कान बाजे ही की ओर होते हैं। दिल में भी बापे की ध्वनि गूँजती रहती हे। शर्म के मारे जगह से नहीं उठता। निर्दयी प्रतिघात का भाव भगत के लिए उपदेशक था, पर हृदय उस अभागे युवक की ओर था, जो इस समय मर रहा था, जिसके लिए एक—एक पल का विलम्ब घातक था।

उसने फिर किवाड़ खोले, इतने धीरे से कि बुढिया को खबर भी न हुई। बाहर निकल आया। उसी वक्त गॉँव को चौकीदार गश्त लगा रहा था, बोला कैसे उठे भगत? आज तो बड़ी सरदी है! कहीं जा रहे हो क्या?

भगत ने कहा नहीं जी, जाऊँगा कहॉँ! देखता था, अभी कितनी रात है। भला, के बजे होंगे।

चौकीदार बोला एक बजा होगा और क्या, अभी थाने से आ रहा था, तो डाक्टर चड़ढा बाबू के बॅगले पर बड़ी भड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा, कीड़े ने छू लियाहै। चाहे मर भी गया हो। तुम चले जाओं तो साइत बच जाय। सुना है, इस हजार तक देने को तैयार हैं।

भगत मैं तो न जाऊँ चाहे वह दस लाख भी दें। मुझे दस हजार या दस लाखे लेकर करना क्या हैं? कल मर जाऊँगा, फिर कौन भोगनेवाला बैठा हुआ है।

चौकीदार चला गया। भगत ने आगे पैर बढ़ाया। जैसे नशे में आदमी की देह अपने काबू में नहीं रहती, पैर कहीं रखता है, पड़ता कहीं है, कहता कुछ हे, जबान से निकलता कुछ है, वही हाल इस समय भगत का था। मन में प्रतिकार थाय पर कर्म मन के अधीन न था। जिसने कभी तलवार नहीं चलायी, वह इरादा करने पर भी तलवार नहीं चला सकता। उसके हाथ कॉँपते हैं, उठते ही नहीं।

भगत लाठी खट—खट करता लपका चला जाता था। चेतना रोकती थी, पर उपचेतना ठेलती थी। सेवक स्वामी पर हावी था।

आधी राह निकल जाने के बाद सहसा भगत रूक गया। हिंसा ने क्रिया पर विजय पायी मै यों ही इतनी दूर चला आया। इस जाड़े—पाले में मरने की मुझे क्या पड़ी थी? आराम से सोया क्यों नहीं? नींद न आती, न सहीय दो—चार भजन ही गाता। व्यर्थ इतनी दूर दौड़ा आया। चड़ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी कला से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन—सा सलूक किया था कि मै उनके लिए मरूँ? दुनिया में हजारों मरते हें, हजारों जीते हें। मुझे किसी के मरने—जीने से मतलब!

मगर उपचेतन ने अब एक दूसर रूप धारण किया, जो हिंसा से बहुत कुछ मिलता—जुलता था वह झाड़—फूँक करने नहीं जा रहा हैय वह देखेगा, कि लोग क्या कर रहे हें। डाक्टर साहब का रोना—पीटना देखेगा, किस तरह सिर पीटते हें, किस तरह पछाड़े खाते है! वे लोग तो विद्वान होते हैं, सबर कर जाते होंगे! हिंसा—भाव को यों धीरज देता हुआ वह फिर आगे बढ़ा।

इतने में दो आदमी आते दिखायी दिये। दोनों बाते करते चले आ रहे थे चड़ढा बाबू का घर उजड़ गया, वही तो एक लड़का था। भगत के कान में यह आवाज पड़ी। उसकी चाल और भी तेज हो गयी। थकान के मारे पॉँव न उठते थे। शिरोभाग इतना बढ़ा जाता था, मानों अब मुँह के बल गिर पड़ेगा। इस तरह वह कोई दस मिनट चला होगा कि डाक्टर साहब का बँगला नजर आया। बिजली की बत्तियॉँ जल रही थींय मगर सन्नाटा छाया हुआ था। रोने—पीटने के आवाज भी न आती थी। भगत का कलेजा धक—धक करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गयी? वह दौड़ने लगा। अपनी उम्र में वह इतना तेज कभी न दौड़ा था। बस, यही मालूम होता था, मानो उसके पीछे मोत दौड़ी आ री है।

दो बज गये थे। मेहमान विदा हो गये। रोने वालों में केवल आकाश के तारे रह गये थे। और सभी रो—रो कर थक गये थे। बड़ी उत्सुकता के साथ लोग रह—रह आकाश की ओर देखते थे कि किसी तरह सुहि हो और लाश गंगा की गोद में दी जाय।

सहसा भगत ने द्वार पर पहुँच कर आवाज दी। डाक्टर साहब समझे, कोई मरीज आया होगा। किसी और दिन उन्होंने उस आदमी को दुत्कार दिया होताय मगर आज बाहर निकल आये। देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है कमर झुकी हुई, पोपला मुँह, भौहे तक सफेद हो गयी थीं। लकड़ी के सहारे कॉँप रहा था। बड़ी नम्रता से बोले क्या है भई, आज तो हमारे ऊपर ऐसी मुसीबत पड़ गयी है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना। इधर एक महीना तक तो शायद मै किसी भी मरीज को न देख सकूँगा।

भगत ने कहा सुन चुका हूँ बाबू जी, इसीलिए आया हूँ। भैया कहॉँ है? जरा मुझे दिखा दीजिए। भगवान बड़ा कारसाज है, मुरदे को भी जिला सकता है। कौन जाने, अब भी उसे दया आ जाय।

चड़ढा ने व्यथित स्वर से कहा चलो, देख लोय मगर तीन—चार घंटे हो गये। जो कुछ होना था, हो चुका। बहुतेर झाड़ने—फँकने वाले देख—देख कर चले गये।

डाक्टर साहब को आशा तो क्या होती। हॉँ बूढे पर दया आ गयी। अन्दर ले गये। भगत ने लाश को एक मिनट तक देखा। तब मुस्करा कर बोला अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, बाबू जी! यह नारायण चाहेंगे, तो आध घंटे में भैया उठ बैठेगे। आप नाहक दिल छोटा कर रहे है। जरा कहारों से कहिए, पानी तो भरें।

कहारों ने पानी भर—भर कर कैलाश को नहलाना शुरू कियां पाइप बन्द हो गया था। कहारों की संख्या अधिक न थी, इसलिए मेहमानों ने अहाते के बाहर के कुऐ से पानी भर—भर कर कहानों को दिया, मृणालिनी कलासा लिए पानी ला रही थी। बुढ़ा भगत खड़ा मुस्करा—मुस्करा कर मंत्र पढ़ रहा था, मानो विजय उसके सामने खड़ी है। जब एक बार मंत्र समाप्त हो जाता, वब वह एक जड़ी कैलाश के सिर पर डाले गये और न—जाने कितनी बार भगत ने मंत्र फूँका। आखिर जब उषा ने अपनी लाल—लाल अॉंखें खोलीं तो केलाश की भी लाल—लाल अॉंखें खुल गयी। एक क्षण में उसने अंगड़ाई ली और पानी पीने को मॉँगा। डाक्टर चड़ढा ने दौड़ कर नारायणी को गले लगा लिया। नारायणी दौड़कर भगत के पैरों पर गिर पड़ी और मिणालिनी कैलाश के सामने अॉंखों में अॉंसू—भरे पूछने लगी अब कैसी तबियत है!

एक क्षण्‌ में चारों तरफ खबर फैल गयी। मित्रगण मुबारकवाद देने आने लगे। डाक्टर साहब बड़े श्रद्धा—भाव से हर एक के हसामने भगत का यश गाते फिरते थे। सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए उत्सुक हो उठेय मगर अन्दर जा कर देखा, तो भगत का कहीं पता न था। नौकरों ने कहा अभी तो यहीं बैठे चिलम पी रहे थे। हम लोग तमाखू देने लगे, तो नहीं ली, अपने पास से तमाखू निकाल कर भरी।

यहॉँ तो भगत की चारों ओर तलाश होने लगी, और भगत लपका हुआ घर चला जा रहा था कि बुढिया के उठने से पहले पहुँच जाऊँ!

जब मेहमान लोग चले गये, तो डाक्टर साहब ने नारायणी से कहा बुड़ढा न—जाने कहाँ चला गया। एक चिलम तमाखू का भी रवादार न हुआ।

नारायणी मैंने तो सोचा था, इसे कोई बड़ी रकम दूँगी।

चड़ढा रात को तो मैंने नहीं पहचाना, पर जरा साफ हो जाने पर पहचान गया। एक बार यह एक मरीज को लेकर आया था। मुझे अब याद आता हे कि मै खेलने जा रहा था और मरीज को देखने से इनकार कर दिया था। आप उस दिन की बात याद करके मुझें जितनी ग्लानि हो रही है, उसे प्रकट नहीं कर सकता। मैं उसे अब खोज निकालूँगा और उसके पेरों पर गिर कर अपना अपराध क्षमा कराऊँगा। वह कुछ लेगा नहीं, यह जानता हूँ, उसका जन्म यश की वर्षा करने ही के लिए हुआ है। उसकी सज्जनता ने मुझे ऐसा आदर्श दिखा दिया है, जो अब से जीवनपर्यन्त मेरे सामने रहेगा।

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