माधवी Munshi Premchand द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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माधवी

माधवी

मुंशी प्रेमचंद


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जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन्‌ १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।

जीवन

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

शादी

आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।

साहित्यिक रुचि

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।

आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।

अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।

तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन्‌ १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन्‌ १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।

यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात्‌ आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात्‌ — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।

जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्

प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

ईश्वर के प्रति आस्था

जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्

मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्

प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन्‌ १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन्‌ १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन्‌ १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यु

सन्‌ १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

माधवी

कभीकभी वन के फूलों में वह सुगन्धित और रंग—रुप मिल जाता है जो सजी हुई वाटिकाओं को कभी प्राप्त नहीं हो सकता। माधवी थी तो एक मूर्ख और दरिद्र मनुष्य की लड़की, परन्तु विधाता ने उसे नारियों के सभी उत्तम गुणों से सुशोभित कर दिया था। उसमें शिक्षा सुधार को ग्रहण करने की विशेष योग्यता थी। माधवी और विरजन का मिलाप उस समय हुआ जब विरजन ससुराल आयी। इस भोलीभाली कन्या ने उसी समय से विरजन के संग असधारण प्रीति प्रकट करनी आरम्भ की। ज्ञात नहीं, वह उसे देवी समझती थी या क्या? परन्तु कभी उसने विरजन के विरुद्व एक शब्द भी मुख से न निकाला। विरजन भी उसे अपने संग सुलाती और अच्छीअच्छी रेशमी वस्त्र पहिनाती इससे अधिक प्रीति वह अपनी छोटी भगिनी से भी नहीं कर सकती थी। चित्त का चित्त से सम्बन्ध होता है। यदि प्रताप को वृजरानी से हार्दिक समबन्ध था तो वृजरानी भी प्रताप के प्रेम में पगी हुई थी। जब कमलाचरण से उसके विवाह की बात पक्की हुई जो वह प्रतापचन्द्र से कम दुखी न हुई। हां लज्जावश उसके हृदय के भाव कभी प्रकट न होते थे। विवाह हो जाने के पश्चात उसे नित्य चिन्ता रहती थी कि प्रतापचन्द्र के पीडित हृदय को कैसे तसल्ली दूं? मेरा जीवन तो इस भांति आनन्द से बीतता है। बेचारे प्रताप के ऊपर न जाने कैसी बीतती होगी। माधवी उन दिनों ग्यारहवें वर्ष में थी। उसके रंगरुप की सुन्दरता, स्वभाव और गुण देखदेखकर आश्चर्य होता था। विरजन को अचानक यह ध्यान आया कि क्या मेरी माधवी इस योगय नहीं कि प्रताप उसे अपने कण्ठ का हार बनाये? उस दिन से वह माधवी के सुधार और प्यार में और भी अधिक प्रवृत हो गयी थी वह सोच—सोचकर मन ही मन—फूली न समाती कि जब माधवी सोलहसत्रह वर्ष की हो जायेगी, तब मैं प्रताप के पास जाऊंगी और उससे हाथ जोडकर कहूंगी कि माधवी मेरी बहिन है। उसे आज से तुम अपनी चेरी समझो क्या प्रताप मेरी बात टाल देगें? नहीं वे ऐसा नहीं कर सकते। आनन्द तो तब है जब कि चाची स्वयं माधवी को अपनी बहू बनाने की मुझसे इच्छा करें। इसी विचार से विरजन ने प्रतापचन्द्र के प्रशसनीय गुणों का चित्र माधवी के हृदय में खींचना आरम्भ कर दिया था, जिससे कि उसका रोम—रोम प्रताप के प्रेम में पग जाय। वह जब प्रतापचन्द्र का वर्णन करने लगती तो स्वतरू उसके शब्द असामान्य रीति से मधुर और सरस हो जाते। शनैरू—शनैरू माधवी का कामल हृदय प्रेमरस का आस्वादन करने लगा। दर्पण में बाल पड़ गया।

भोली माधवी सोचने लगी, मैं कैसी भाग्यवती हूं। मुझे ऐसे स्वामी मिलेंगें जिनके चरण धोने के योग्य भी मैं नहीं हूं, परन्तु क्या वें मुझे अपनी चेरी बनायेगें? कुछ तो, मैं अवश्य उनकी दासी बनूंगी और यदि प्रेम में कुछ आकषर्ण है, तो मैं उन्हें अवश्य अपना बना लूंगी। परन्तु उस बेचारी को क्या मालूम था कि ये आशाएं शोक बनकर नेत्रों के मार्ग से बह जायेगी ? उसको पन्द्रहवां पूरा भी न हुआ था कि विरजन पर गृह—विनाश की आपत्तियां आ पडी। उस आंधी के झोंकें ने माधवी की इस कल्पित पुष्प वाठिका का सत्यानाश कर दिया। इसी बीच में प्रताप चन्द्र के लोप होने का समाचार मिला। आंधी ने जो कुछ अवशिष्ठ रखा था वह भी इस अग्नि ने जलाकर भस्म कर दिया।

परन्तु मानस कोई वस्तु है, तो माधवी प्रतापचन्द्र की स्त्री बन चुकी थी। उसने अपना तन और मन उन्हें समर्पण कर दिया। प्रताप को ज्ञान नहीं। परन्तु उन्हें ऐसी अमूल्य वस्तु मिली, जिसके बराबर संसार में कोई वस्तु नहीं तुल सकती। माधवी ने केवल एक बार प्रताप को देखा था और केवल एक ही बार उनके अमृतवचन सुने थे। पर इसने उस चित्र को और भी उज्जवल कर दिया था, जो उसके हृदय पर पहले ही विरजन ने खींच रखा था। प्रताप को पता नहीं था, पर माधवी उसकी प्रेमाग्नि में दिन—प्रतिदिन घुलती जाती है। उस दिन से कोई ऐसा व्रत नहीं था, जो माधवी न रखती हो , कोई ऐसा देवता नहीं था, जिसकी वह पूजा न करती हो और वह सब इसलिए कि ईश्वर प्रताप को जहां कहीं वे हों कुशल से रखें। इन प्रेमकल्पनाओं ने उस बालिका को और अधिक ढ सुशील और कोमल बना दिया। शायद उसके चित ने यह निणर्य कर लिया था कि मेरा विवाह प्रतापचन्द्र से हो चुका। विरजन उसकी यह दशा देखती और रोती कि यह आग मेरी ही लगाई हुई है। यह नवकुसुम किसके कण्ठ का हार बनेगा? यह किसकी होकर रहेगी? हाय रे जिस चीज को मैंने इतने परिश्रम से अंकुरित किया और मधुक्षीर से सींचा, उसका फूल इस प्रकार शाखा पर ही कुम्हलाया जाता है। विरजन तो भला कविता करने में उलझी रहती, किन्तु माधवी को यह सन्तोष भी न था उसके प्रेमी और साथी उसके प्रियतम का ध्यान मात्र थाउस प्रियतम का जो उसके लिए सर्वथा अपरिचित था पर प्रताप के चले जाने के कई मास पीछे एक दिन माधवी ने स्वप्न देखा कि वे सतयासी हो गये है। आज माधवी का अपार प्रेम प्रकट हंआ है। आकाशवाणी सी हो गयी कि प्रताप ने अवश्य संन्यास ते लिया। आज से वह भी तपस्वनी बन गयी उसने सुख और विलास की लालसा हृदय से निकाल दी।

जब कभी बैठेबैठे माधवी का जी बहुत आकुल होता तो वह प्रतापचनद्र के घर चली जाती। वहां उसके चित की थोडी देर के लिए शांति मिल जाती थी। परन्तु जब अन्त में विरजन के पवित्र और आदर्शो जीवन ने यह गाठ खोल दी वे गंगा यमुना की भांति परस्पर गले मिल गयीं , तो माधवी का आवागमन भी बढ गया। सुवामा के पास दिन दिन भर बैठी रह जाती, इस भवन की, एक—एक अंगुल पृथ्वी प्रताप का स्मारक थी। इसी आँगन में प्रताप ने काठ के घोडे दौड़ाये और इसी कुण्ड में कागज की नावें चलायी थीं। नौकरी तो स्यात काल के भंवर में पडकर डूब गयीं, परन्तु घोडा अब भी विद्वमान थी। माधवी ने उसकी जर्जीरत असिथ्यों में प्राण डाल दिया और उसे वाटिका में कुण्ड के किनारे एक पाटलवृक्ष की छायों में बांध दिया। यहीं भवन प्रतापचन्द्र का शयनागार था।माधवी अब उसे अपने देवता का मन्दिर समझती है। इस पलंग ने पंताप को बहुत दिनों तक अपने अंक में थपकथपककर सुलाया था। माधवी अब उसे पुष्पों से सुसज्ज्ति करती है। माधवी ने इस कमरे को ऐसा सुसज्जित कर दिया, जैसे वह कभी न था। चित्रों के मुख पर से धूल का यवनिका उठ गयी। लैम्प का भाग्य पुनरू चमक उठा। माधवी की इस अननत प्रेम—भाक्ति से सुवामा का दुरूख भी दूर हो गया। चिरकाल से उसके मुख पर प्रतापचन्द्र का नाम अभी न आया था। विरजन से मेल—मिलाप हो गया, परन्तु दोनों स्त्रियों में कभी प्रतापचन्द्र की चर्चा भी न होती थी। विरजन लज्जा की संकुचित थी और सुवामा क्रोध से। किन्तु माधवी के प्रेमानल से पत्थर भी पिघल गया। अब वह प्रेमविह्रवल होकर प्रताप के बालपन की बातें पूछने लगती तो सुवामा से न रहा जाता। उसकी आँखों से जल भर आता। तब दोनों रोती और दिन—दिन भर प्रताप की बातें समाप्त न होती। क्या अब माधवी के चित्त की दशा सुवामा से छिप सकती थी? वह बहुधा सोचती कि क्या तपस्विनी इसी प्रकार प्रेमग्नि मे जलती रहेगी और वह भी बिना किसी आशा के? एक दिन वृजरानी ने ‘कमला' का पैकेट खोला, तो पहले ही पृष्ठ पर एक परम प्रतिभा—पूर्ण चित्र विविध रंगों में दिखायी पड़ा। यह किसी महात्म का चित्र था। उसे ध्यान आया कि मैंने इन महात्मा को कहीं अवश्य देखा है। सोचते—सोचते अकस्मात उसका घ्यान प्रतापचन्द्र तक जा पहुंचा। आनन्द के उमंग में उछल पड़ी और बोली.माधवी, तनिक यहां आना।

माधवी फूलों की क्यारियां सींच रहीं थी। उसके चित्तविनोद का आजकल वहीं कार्य था। वह साड़ी पानी में लथपथ, सिर के बाल बिखरे माथे पर पसीने के बिन्दु और नत्रों में प्रेम का रस भरे हुए आकर खडी हो गयी। विरजन ने कहा.आ तूझे एक चित्र दिखाऊं।

माधवी ने कहा.किसका चित्र है , देखूं।

माधवी ने चित्र को घ्यानपूर्वक देखा। उसकी आंखों में आंसू आ गये।

विरजन.पहचान गयी ?

माधवी — क्यों? यह स्वरुप तो कई बार स्वप्न में देख चुकी हूं? बदन से कांति बरस रही है।

विरजन.देखो वृतान्त भी लिखा है।

माधवी ने दूसरा पन्ना उल्टा तो ‘स्वामी बालाजी' शीर्षक लेख मिला थोडी देर तक दोंनों तन्मय होकर यह लेख पढती रहीं, तब बातचीत होने लगी।

विरजन.मैं तो प्रथम ही जान गयी थी कि उन्होनें अवश्य सन्यास ले लिया होगा।

माधवी पृथ्वी की ओर देख रही थी, मुख से कुछ न बोली।

विरजन तब में और अब में कितना अन्तर है। मुखमण्डल से कांति झलक रही है। तब ऐसे सुन्दर न थे।

माधवी हूं।

विरजन.इर्श्‌वर उनकी सहायता करे। बड़ी तपस्या की है।(नेत्रो में जल भरकर) कैसा संयोग है। हम और वे संगसंग खेले, संगसंग रहे, आज वे सन्यासी हैं और मैं वियोगिनी। न जाने उन्हें हम लोंगों की कुछ सुध भी हैं या नहीं। जिसने सन्यास ले लिया, उसे किसी से क्या मतलब? जब चाची के पास पत्र न लिखा तो भला हमारी सुधि क्या होगी? माधवी बालकपन में वे कभी योगीयोगी खेलते तो मैं मिठाइयों कि भिक्षा दिया करती थी।

माधवी ने रोते हुए ‘न जाने कब दर्शन होंगें' कहकर लज्जा से सिर झुका लिया।

विरजन शीघ्र ही आयंगें। प्राणनाथ ने यह लेख बहुत सुन्दर लिखा है।

माधवी एक—एक शब्द से भाक्ति टपकती है।

विरजन —वक्तृतता की कैसी प्रशंसा की है! उनकी वाणी में तो पहले ही जादू था, अब क्या पूछना! प्राण्नाथ केचित पर जिसकी वाणी का ऐसा प्रभाव हुआ, वह समस्त पृथ्वी पर अपना जादू फैला सकता है।

माधवी.चलो चाची के यहाँ चलें।

विरजन— हाँ उनको तो ध्यान ही नहीं रहां देखें, क्या कहती है। प्रसन्न तो क्या होगी।

मधवी— उनको तो अभिलाषा ही यह थी, प्रसन्न क्यों न होगीं?

उनकी तो अभिलाषा ही यह थी, प्रसन्न क्यों न होंगी?

विरजन— चल? माता ऐसा समाचार सुनकर कभी प्रसन्न नहीं हो सकती। दोंनो स्त्रीयाँ घर से बाहर निकलीं। विरजन का मुखकमल मुरझाया हुआ था, पर माधवी का अंगअंग हर्ष सिला जाता था। कोई उससे पूछे तेरे चरण अब पृथ्वी पर क्यों नहीं पहले? तेरे पीले बदन पर क्यों प्रसन्नता की लाली झलक रही है? तुझे कौन—सी सम्पत्ति मिल गयी? तू अब शोकान्वित और उदास क्यों न दिखायी पडती? तुझे अपने प्रियतम से मिलने की अब कोई आशा नहीं, तुझ पर प्रेम की ष्टि कभी नहीं पहुची फिर तू क्यों फूली नहीं समाती? इसका उत्तर माधवी देगी? कुछ नहीं। वह सिर झुका लेगी, उसकी आंखें नीचे झुक जायेंगी, जैसे डलियां फूलों के भार से झुक जाती है। कदाचित्‌ उनसे कुछ अश्रुबिन्दु भी टपक पडेय किन्तु उसकी जिह्रवा से एक शबद भी न निकलेगा।

माधवी प्रेम के मद से मतवाली है। उसका हृदय प्रेम से उन्मत हैं। उसका प्रेम, हाट का सौदा नहीं। उसका प्रेमकिसी वस्तु का भूखा सनहीं है। वह प्रेम के बदले प्रेम नहीं चाहती। उसे अभीमान है कि ऐसे पवीत्रता पुरुष की मूर्ति मेरे हृदय में प्रकाशमान है। यह अभीमान उसकी उन्मता का कारण है, उसके प्रेम का पुरस्कार है।

दूसरे मास में वृजरानी ने, बालाजी के स्वागत में एक प्रभावशाली कविता लिखी यह एक विलक्षण रचना थी। जब वह मुद्रित हुई तो विद्या जगत्‌ विरजन की काव्यप्रतिभा से परिचित होते हुए भी चमत्कृत हो गया। वह कल्पना—रुपी पक्षी, जो काव्यगगन मे वायुमण्डल से भी आगे निकल जाता था, अबकी तारा बनकर चमका। एकएक शब्द आकाशवाणी की ज्योति से प्रकाशित था जिन लोगों ने यह कविता पढी वे बालाजी के भ्क्त हो गये। कवि वह संपेरा है जिसकी पिटारी में सॉपों के स्थान में हृदय बन्द होते हैं।