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हन्ना घोड़ी - National-story competition-Jan

हन्ना घोड़ी

शहंशाह हुसैन

कल्लन ने हन्ना घोड़ी को एक ज़बरदस्त चाबुक रसीद की. एक भद्दी सी गाली दी और कहा, "साली, खाना ढेर भर और काम के बखत नखरा". यह कहते हुए उसने, एक और ज़ोरदार चाबुक घोड़ी को जड़ दी. हन्ना घोड़ी अपने ऊपर होने वाली चाबुक की बौछार से यूँ बेअसर थी, मानो जैसे कुछ हुआ ही ना हो. असर लेती भी कहाँ तक, उसके लिए तो यह रोज़मर्रा की बात थी. कल्लन की गाली और चाबुक से उसका रोज़ का नाता था. फिर भी दिल ही दिल में वह कल्लन को अपनी ज़बान में खरी-खोटी सुनाने में पीछे नहीं रही. "बड़ा आया ढेर भर खाना खिलाने वाला. पहले खुद तो पेट भर खा ले, फिर मुझे ढेर भर खिलाना. भूखा-प्यासा दिन भर तांगे में रगेदता है, मेरी बिसात से कहीं ज़्यादह बोझ मुझपर लादता है. मेरी खून-पसीने की कमाई से अपना पेट पालता है और ऊपर से मुझे ही ढेर भर खाने का ताना देता है". यह कहते हुए उसने एक दुलत्ती हवा में उछाल ही दी.

कल्लन अपनी मरियल घोड़ी को हन्ना घोड़ी कहता था. वह अपनी बीबी कमरून को भी हन्ना कहकर बुलाता था. उसके लिए उन दोनों में सिर्फ इतना ही फ़र्क़ था कि एक को हन्ना घोड़ी कहता था और दूसरी को सिर्फ हन्ना. अगर एक पर दिन में चाबुक बरसाता था, तो दूसरी को रात में रौंदता था. जब वह कमरून को, ”अरी वो हन्ना” कहकर बुलाता, तो कमरून के तन-बदन में आग लग जाती, पर बेचारी करती भी तो क्या करती. कुछ बोल तो सकती नहीं थी. यह बात अलग थी कि उसका मन भी हन्ना घोड़ी की तरह उसको, यानि कल्लन को, खूब खरी-खोटी सुनाने का करता, लेकिन मजबूर थी, क्योंकि कल्लन हन्ना घोड़ी की ज़बान भले ना समझता हो, लेकिन उसकी और कल्लन की ज़बान तो एक ही थी. सो मन मसोस कर रह जाती. देखा जाए तो इस नज़रिये से उसकी हालत हन्ना घोड़ी से भी गई-गुज़री थी. लिहाज़ा ख़ामोशी ही उसका मुक़द्दर था, जिसे वह पिछले दस एक सालों से झेल रही थी.

कमरून बहुत ही कमसिन थी जब वह कल्लन के साथ ब्याह दी गयी. जबकि कल्लन उसके मुक़ाबले खूब खेला-खाया पूरा मर्द था. शुरू दिनों में तो कल्लन को देखते ही उसकी रूह काँप जाती थी. डर के मारे उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती. कमसिनी में तो उसको डर के अलावा किसी और बात का एहसास ही नहीं हुआ, लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ी. अक़्ल आयी, उसको अपने आप से घिन आने लगी. ”यह भी कोई ज़िन्दगी है”, वह अपने आप से कहती, ”दिन भर घर- बाहर खटना और रात में एक ऐसे शख्स के साथ सोना जिसे वह फूटी आँख भी पसंद नहीं करती थी”. और क्यों पसंद करती, सुबह-शाम की गाली-गलौज, मार-पीट और दस साल में पांच बच्चे, कुल जमा यही तो थी कल्लन की देन. और बच्चे भी हाड-मास के पुतले, जिन को देख के तरस आता था, मानो उनको खाना नसीब ही नहीं होता, और होता भी कैसे. भला कल्लन की कमाई में दो परानी वह, पांच बच्चे, कुल सात और आठवीं वह हन्ना घोड़ी. इतने लोगों के लिए पेट भर खाना जुरता तो कहाँ से. वह हर दम ग़ुस्से से भरी रहती. उसका ग़ुस्सा अगर उतरता भी तो उन्हीं निरीह बच्चों पर, जिनको अक्सर वह पहले तो झुंझलाहट में पीटती और बाद में अपनी बेबसी पर उनको सीने से चिपका कर, जी भर कर रोती और जब उसका जी हल्का हो जाता, तो बचा कर रक्खे गए पैसों में से, एक आध रुपया बच्चों को देती कि जाओ कुछ लेकर, आपस में बाँट कर खा लेना और झगड़ा मत करना. बचे भी खुश हो कर, हल्ला मचाते हुए, बाहर की तरफ ऐसे भागते, जैसे कुछ हुआ ही ना हो.

कमरून दिन रात इसी उधेड़ बुन में रहती कि किस तरह इस जंजाल से छुटकारा हासिल हो. कैसे दो जून की रोटी साथ इज़्ज़त के जुटायी जा सके, ख़ास कर अपने बच्चों के लिए. कल्लन की कमाई में तो यह मुमकिन ही नहीं था और अगर हो भी जाता, तो सुकून और इज़्ज़त की रोटी नसीब हो, इसका तो सवाल ही पैदा नहीं होता था. पर करे क्या, यह उसकी समझ से परे था. पढ़ी लिखी वह थी नहीं. उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर था. गुन-ढंग के नाम पर उसे कुछ सिलाई-तगाइ ज़रूर आती थी, लेकिन जिस बस्ती में वह रहती थी, उनके तन पर ढंग के कपडे तक तो रहते नहीं थे, तो वहां सिलाई-तगाइ कहाँ से मिलती. जब उसके पढ़ने लिखने के दिन थे, तब उसे कल्लन के पल्ले बाँध दिया गया, और जब से कल्लन के घर आयी, सुकून से सांस लेने की फुर्सत तो मिली नहीं, पढ़ने लिखने और गुन-ढंग सीखने की बात कौन करे. फिर वह करे क्या. कैसे इस जंजाल से छुटकारा मिले. यह सवाल उसके सामने हमेशा मुंह बाये खड़ा रहता था. आस-पास, अड़ोस-पड़ोस में भी कोई ऐसा नहीं था, जिससे वह अपने मन की बात या अपना दुःख साझा कर सकती. कुछ सलाह मशवरा कर पाती. सब अव्वल दर्जे के जाहिल और तमाशबीन थे. मर्द तो मर्द, औरतें और ज़्यादा खतरनाक थीं. किसी के घर का लड़ाई झगड़ा उनके लिए दिल बहलाने का सबसे अच्छा जरिया था. पहले हमदर्दी जताना, फिर दिन भर चटखारे ले-ले कर एक दूसरे से उसका बयान करना. ऐसे लोगों से अपने मन की बात करना, आ बैल मुझे मार वाली कहावत थी. वे पहले बड़ी हमदर्दी जताते हुए उसका दुखड़ा सुनतीं और फिर कल्लन से, उसमें खूब नमक मिर्च लगा कर बतातीं और नतीजा यह होता की मसले का हल तो अलग, कल्लन की झूठी ग़ैरत के साथ उसकी जवाँ मर्दी और जाग पड़ती, जिसका नतीजा होता, हत तेरे की धत्त तेरी. ऐसे माहौल में कमरून के पास घुट-घुट कर जीने और तिल-तिल मरने के अलावा कोई और चारा नहीं था.

इसी उलझन के दौरान उसकी मुलाक़ात बस्ती में नई-नई आयी मालती से हुई. बस्ती में नई होने के नाते, उस पर अभी बस्ती का रंग नहीं चढ़ा था. वैसे भी स्वाभाव से मालती और उसका पति शंकर दोनों, कुछ अलग से थे. जल्द ही कमरून की उनसे दोस्ती हो गई. एक दिन कमरून ने दिल पक्का कर के मालती से अपना दुखड़ा कह ही डाला. मालती से भी उसकी हालत कहाँ छुपी थी. मालती ने कुछ सोचते हुए कहा की अगर उसकी मर्ज़ी हो तो वह इसका ज़िक्र अपने पति, जो खन्ना मिल में मेट था, से करे. शायद वह उसको वहां कोई काम दिलवा सके. अंधे को क्या चाहिए दो आँखें, लेकिन कमरून ने मालती से हाथ जोड़ कर विनती की कि वह इसका ज़िक्र फिलहाल अपने पति के अलावा किसी और से न करे. बाद में अगर काम मिल गया तो फिर देखा जाएगा. मालती ने उसको दिलासा देते हुए कहा, वह परेशान न हो, उसका राज़, राज़ ही रहेगा.

एक दिन मालती ने मौक़ा महल देख कर, शंकर से कमरून की बात चलाई. पहले तो शंकर ने किसी के मामले में टांग न अड़ाने की सलाह दी, लेकिन जब मालती ने बहुत ज़ोर दिया, तो वह राज़ी हो गया कि मिल के मुनीम से, जो कि एक खड़ूस आदमी था और बिना लिए-दिए कोई काम नहीं करता था, बात कर के बताएगा. कुछ ही दिनों के बाद शंकर ने बताया कि कमरून का नसीब अच्छा है. मिल को आजकल एक बहुत बड़ा आर्डर मिला है. नये काम करने वालों की ज़रुरत है और उसने मुनीम जी से बात कर ली है, वह मज़दूरी में अपना कमीशन काट कर काम देने को तैयार है, अगर कमरून इस शर्त पर काम करने को राज़ी हो तो उसे काम मिल सकता है. मालती ने जब यह खुशखबरी उसे दी तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा और वह हर शर्त पर काम करने को तैयार हो गयी, उसने मालती को गले से लगा लिया, उसकी खूब अलाये-बलाए लीं और मारे ख़ुशी के उसकी आँखों में आंसू आ गए. उसे यह जान कर और ख़ुशी हुई कि मिल में काम सुबह दस से शाम पांच बजे तक ही था. यह तो और भी अच्छा था क्योकि शुरू-शुरू में कल्लन से इसे छुपाया भी जा सकता था. कल्लन तो सुबह ही निकल जाता था और रात देर गए घर आता था. उसने सबसे पहले अपने बच्चों, ख़ास कर अपनी बेटी जो उनमें सबसे बड़ी थी को अपने पाले में लिया. उन्हें सब बातें अच्छी तरह समझा और दूसरे दिन सुबह, कल्लन को रोटी-सोटी खिला-पिला कर रुख़्सत किया. बच्चों को भी खाना-पीना खिला और उन्हें सब बातें फिर से अच्छे से समझा, शंकर के साथ खन्ना मिल की तरफ रवाना हो गयी.

शंकर कमरून को लिए हुए मुनीम जी के सामने हाज़िर हुआ. उसने हाथ जोड़ते हुए मुनीम जी से कहा, "यही कमरून है, जिसके बारे में आपसे बात की थी, बहुत परेशान है बेचारी, कुछ दया-मया हो जाये, इसके बच्चे आपको दुआ देंगे. "मुनीम, जो कि एक पकी उम्र का शख्स था, ने एक नज़र कमरून पर डाली और हूँ कहते हुए शंकर से कहा, "इसे सब समझा तो दिया है. "उसका इशारा पगार में अपने कमीशन की तरफ था. शंकर ने जल्दी से कहा, "हाँ, हाँ मुनीम जी, सब एकदम अच्छे से समझा दिया है, आप निसाखातिर रहें. "ठीक है, रवि बाबू से कह कर इस का जॉब कार्ड बनवा दे, उनसे बता देना कि हमने कहा है. "शंकर ने सर हिलाते हुए कमरून से चलने का इशारा किया. दोनों मुनीम जी को सलाम करते हुए वहां से चल दिए.

जॉब कार्ड वग़ैरह की कार्रवाई पूरी होने के बाद, शंकर उसे लेकर एक बड़े से हाल में आया, जहाँ पहले से ही बहुत से लोग काम कर रहे थे. शंकर एक मुक़ाम पर जा कर रुका और कमरून को उसका काम समझाया. "खूब अच्छी तरह देख-भाल कर काम करना. गलती न हो. अगर कहीं कोई परेशानी हो, तो मैं सामने वाले हॉल में हूँ, आकर पूछ लेना. कमरून ने हाँ में सर हिलाया. शंकर जाने लगा तो कमरून ने, रुंधे गले से कहा, “शंकर भैय्या, आपका यह एहसान हम कभी नहीं भूलेंगे”. "ठीक है, ठीक है”, यह कहते हुए वह चला गया.

कमरून को आज मिल में काम करते एक हफ्ता हो गया था. मिल में मज़दूरी हफ्ते-हफ्ते मिलती थी. आज पैसे मिलेंगे, यह सोच कर कमरून का दिल बल्लियों उछल रहा था. दिन बीता और वह वक़्त भी आ गया जब मुनीम जी ने अपना कमीशन काट कर उसे सत्रह सौ पचास रुपए मज़दूरी के दिए. मुनीम जब उसे मज़दूरी देने के लिए पैसे गिन रहा था, तब कमरून की अजीब हालत हो रही थी. उसके सारे जिस्म में कप- कपी सी हो रही थी. रुपए हाथ में लेते वक़्त उसके माथे पर पसीने की बूँदें साफ़ देखी जा सकती थीं. रुपए लेने के बाद वह थोड़ी देर वहीं एक मुक़ाम पर बैठी रही और जब दिल की धड़कन में कुछ सुधार हुआ तब वहां से घर की तरफ चली. धीरे-धीरे उसके बदन में ताक़त वापस आ रही थी, बल्कि हर पल एक नई चुस्ती-फुर्ती का एहसास उसको हो रहा था. उसकी चाल-ढाल में बदलाव भी साफ़ तौर पर देखा जा सकता था. उसमें अब एक अजीब तरह की मस्ती और बेफिक्री थी. बाजार से उसने अपने कमाये गए पैसों में से बच्चों के मन पसंद खाने-पीने की चीज़ें लीं और तेज़-तेज़ क़दमों से घर की तरफ चल दी.

घर पहुँच कर उसने बच्चों को अपने सीने से चिपका कर खूब प्यार किया और उनको उनके पसंद की चीज़ें खाने को दीं. बच्चे भी अच्छी चीज़ों को देख कर खाने के लिए क़रीब-क़रीब उनपर टूट ही पड़े. कमरून कमरे में गयी और सबसे पहले उसने अपनी कमाई को अपने ख़ुफ़िया ठिकाने पर रक्खा. हाथ मुंह धोया और ताक़ से मुंह देखने का शीशा उठाया और ज़िन्दगी में पहली बार अपने को शीशे में ज़रा ग़ौर से देखा और फिर खुद ही शर्मा गयी. शीशे को फिर ताक में रक्खा और धम्म से पलंग पर गिर पड़ी. टकटकी लगा कर छत को घूरती रही. इस वक़्त उसकी आँखों में ना जाने कितने ख्वाब तैर रहे थे. इसी हाल में न जाने कब, शायद थकान की वजह से या फिर दिमाग़ी सुकून की वजह से, उसकी आँख लग गई और वह ख़्वाबों की दुनिया में खो गई. बच्चों के शोर-शराबे से उसकी आँख खुली. वक़्त का अंदाजा किया और हड़बड़ा कर उठ बैठी. मुंह पर पानी की छीटें मारी और जल्दी-जल्दी रात का खाना पकाने में जुट गई.

कल्लन रात देर गए, ताड़ी के नशे में धुत्त, घर आया. यह उसका रोज़ का मामूल था. उसको इस हालत में देख कर कमरून के तन-बदन में आग सी लग गई, लेकिन मुंह से कुछ न बोली. चुप चाप कल्लन को खाना दिया. बच्चे पहले ही खाना खा कर सो चुके थे. उसने भी बच्चों के साथ ही खाना खा लिया था. कल्लन को खाना देने के बाद वह सोने चली गई. दिन भर की थकी थी जल्द ही नींद ने उसे अपनी बाँहों में जकड लिया और वह गहरी नींद में सो गयी. नींद में उसे एहसास हुआ की कोई उसे ज़ोर-ज़ोर से झंझोड़ रहा था. यह कल्लन था. उसका रोज़ का यही ढंग था. वह होश में आ चुकी थी. लेकिन चुप-चाप बनी पड़ी रही. लेकिन जब झंझोड़ना-भभोड़ना हद से ज़्यादा बढ़ा तो उसने अपनी पूरी ताक़त से कल्लन को परे धकेलते हुए कहा, "अरे हट, तड़ियल कहीं का, सोने दे". कल्लन उसके इस रूप पर भौचक्का था. बाहर हन्ना घोड़ी के भी ज़ोर से हिनहिनाने और ज़मीन पर पैर पटकने की आवाज़ आई थी.

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