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एकलव्य एक प्रेरणा

एकलव्य एक प्रेरणा

आशीष कुमार त्रिवेदी

महाभारत काल में श्रृंगबेर नामक निषाद (भीलों) का एक राज्य था।

इसके राजा थे हिरण्यधनु। उनकी पत्नी का नाम सुलेखा था।

हिरण्यधनु और सुलेखा का एक पुत्र था जिसका नाम एकलव्य था।

एकलव्य बहुत ही बुद्धिमान तथा मेहनती बालक था। धनुष बाण चलाने में वह निपुण था। उसके भीतर धनुर्विद्या सीखने की तीव्र इच्छा थी।

हस्तिनापुर पर कुरु वंश के शासक धृतराष्ट्र का राज था। वह नेत्रहीन थे। अतः उनके छोटे भाई पांडु को राज सिंहासन पर बैठाया गया। किंतु उनकी मृत्यु के बाद राजगद्दी धृतराष्ट्र को मिल गई।

धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे जिन्हें कौरव कहा जाता था। उनके भाई पांडु के पाँच पुत्र पांडव कहलाते थे।

कौरवों तथा पांडवों को अच्छी शिक्षा मिल सके इसके लिए धृतराष्ट्र ने गुरू द्रोणाचार्य को उनका शिक्षक नियुक्त किया।

गुरू द्रोणाचार्य बहुत ही योग्य व अनुभवी शिक्षक थे। शस्त्र विद्या खासकर धनुर्विद्या में निपुण थे। उनकी ख्याति दूर दूर तक फैली थी।

एकलव्य भी गुरू द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखना चाहता था। अतः वह गुरू द्रोणाचार्य के गुरुकुल में पहुँचा। उसने गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष सविनय अपनी यह इच्छा प्रकट की कि वह उनसे धनुर्विद्या सीखना चाहता है।

गुरु द्रोणाचार्य ने यह कह कर उसे अपना शिष्य बनाने से मना कर दिया कि वह केवल क्षत्रिय राजकुमारों को ही शिक्षा देते हैं।

गुरु द्रोणाचार्य के इस प्रकार उसे अपना शिष्य बनाने से मना करने के बावजूद भी एकलव्य का उत्साह कम नहीं हुआ। उसके भीतर निष्ठा व लगन की कोई कमी नहीं थी। वह मन ही मन द्रोणाचार्य को अपना गुरु मान चुका था। उसने वन में गुरु द्रोणाचार्य की एक प्रतिमा बनाई। वह प्रतिदिन उस प्रतिमा को प्रणाम कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा।

गुरु द्रोणाचार्य कौरवों तथा पांडवों को उनकी योग्यता के अनुसार शस्त्र की शिक्षा देते थे। परंतु उनका सबसे प्रिय शिष्य था अर्जुन। वह बहुत ही सौम्य तथा आज्ञाकारी शिष्य था।

पांडवों में अर्जुन एक श्रेष्ठ धनुर्धर था। उसकी प्रतिभा से गुरु द्रोणाचार्य बहुत प्रसन्न रहते थे। अपने शिष्यों में अर्जुन से उन्हें सबसे अधिक आशा थी। वह उसे विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के लिए सबसे अच्छी शिक्षा दे रहे थे।

इधर वन में एकलव्य प्रतिदिन पूरी मेहनत व लगन से धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। उसका ध्यान सदैव अपने लक्ष्य पर ही रहता था।

एक बार गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को लेकर वन में गए। साथ में राजकुमारों का एक कुत्ता भी था। कुत्ता राजकुमारों से आगे निकल कर उस स्थान पर पहुँच गया जहाँ एकलव्य पूरी लगन के साथ गुरु प्रतिमा के सामने अभ्यास कर रहा था।

एकलव्य को देख कर कुत्ता ज़ोर ज़ोर से भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य के लिए ध्यान केंद्रित कर पाना कठिन हो रहा था। उसे शांत करने के लिए एकलव्य ने बाणों से उसका मुंह बंद कर दिया।

कुत्ता जब राजकुमारों के पास पहुँचा तो उसे देख कर सभी दंग रह गए। बाणों से कुत्ते का मुंह बंद तो था लेकिन उसे बिल्कुल भी क्षति नहीं पहुँची थी। अर्जुन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा "गुरुदेव यह कार्य तो किसी महान धनुर्धर का लगता है। आपने तो कहा था कि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर मैं हूँ। यह तो मुझसे बहुत अधिक श्रेष्ठ है।"

सभी उस महान धनुर्धर की खोज में आगे बढ़े। कुछ ही दूर पर उन्हें एकलव्य गुरु प्रतिमा के सामने अभ्यास करता दिखा। अपने गुरु को सम्मुख देख एकलव्य ने उनके चरण छूकर प्रणाम किया। गुरु द्रोणाचार्य ने पूँछा कि उसने धनुर्विद्या में ऐसी श्रेष्ठता कैसे प्राप्त की। एकलव्य हाथ जोड़ कर बोला "मैंने मन से आपको अपना गुरु मानकर आपकी प्रतिमा के सामने प्रतिदिन कड़ा अभ्यास किया।"

गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन को ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे। जबकी एकलव्य अपनी लगन से उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ धनुर्धर बन गया था। गुरु द्रोणाचार्य बोले "तुमने मुझे गुरु मान कर विद्या अर्जित की है। किंतु मुझे गुरुदक्षिणा नहीं दी है। तुम्हें गुरुदक्षिणा में मुझे अपने दाएं हाथ का अंगूठा देना होगा।"

गुरु की बात सुन एकलव्य तनिक भी विचलित नहीं हुआ। अपने गुरु की आज्ञा मान कर उसने अंगूठा काट कर उनके चरणों में अर्पित कर दिया।

लेकिन एकलव्य निराश नहीं हुआ। अपनी लगन से उसने तर्जनी तथा मध्यमा (पहली दो उंगलियां) की सहायता से बाण चलाने में महारत प्राप्त की। बाण चलाने की यह तकनीक वर्तमान तीरंदाज़ों द्वारा भी प्रयोग की जाती है। है।

पिता की मृत्यु के बाद वह निषादों का राजा बना। उसने कई युद्धों में अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। एक युद्ध में श्रीकृष्ण के हाथों उसकी मृत्यु हुई। वह एक महान धनुर्धर था।

एकलव्य की कथा हमें शिक्षा देती है कि जिसमें लगन हो और जो हिम्मत ना हारे वह कुछ भी कर सकता है। जीवन में सफलता पाने का एक ही उपाय है। कड़ा परिश्रम व लगन।

सफलता प्राप्त करने के लिए अपने लक्ष्य के प्रति इमानदार होना एक प्रमुख शर्त है। जिस व्यक्ति के पास कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता है वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता है। वह या तो निष्क्रिय रहता है या फिर उसकी सारी ऊर्जा इधर उधर व्यर्थ के कार्यों में नष्ट हो जाती है।

लक्ष्य निर्धारित होने के बाद आवश्यक है कि उसे पाने के लिए मन में लगन पैदा की जाए। यह तभी संभव है जब हम अपने तय लक्ष्य के प्रति पूर्णतया समर्पण की भावना रखते हों।

लगन के साथ साथ कड़ी मेहनत भी बहुत ज़रूरी है। लगन को मेहनत का साथ मिले बिना लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

एकलव्य की कहानी भी मेहनत व लगन की जीत की कहानी है। गुरु द्रोणाचार्य द्वारा ठुकराए जाने पर भी वह तनिक भी हताश नहीं हुआ। इसका कारण था कि वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने के अपने लक्ष्य के प्रति पूर्णतया समर्पित था। उसने गुरु प्रतिमा से प्रेरणा लेकर स्वयं को सर्वोत्तम धनुर्धारी बनाया।

अपने गुरु को अपना अंगूठा काट कर दे देने के बाद भी एकलव्य ने हार नहीं मानी। यह सोंच कर दुखी होने की जगह कि अब वह कभी बाण नहीं चला सकेगा। उसने बाण चलाने की नई तकनीक विकसित कर ली। यह भी उसके लक्ष्य के प्रति इमानदार होने का सबूत है। तभी वह एक महान धनुर्धर बना।

यह कहानी एकलव्य की गुरु भक्ति को दर्शाती है। बिना किसी संकोच के उसने अपने सीधे हाथ का अंगूठा उन्हें अर्पित कर दिया। उसकी गुरु भक्ति उसे अपने गुरु से भी महान बना देती है।

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