इम्तहान
डॉ विमला भंडारी
टेलीफोन की ट्रिन-ट्रिन मेरे मस्तिष्क में अभी तक गूंज रही है। ओह! वेदना के दंश मेरे हृदय को बेधने लगे- जैसे किसी ने शरीर में से सारा रक्त निचोड़ लिया हो। निढ़ाल हुई मैं वहीं सोफे के किनारे सिर पकड़ कर बैठ गई।
आंखों में यशोधरा दीदी का हंसता मुस्कुराता चेहरा घूमने लगा- दीदी दोनों हाथ फैलाए छोटे से बच्चे के पीछे भागी जा रही है।
ओह! मैंने मन को कड़ा कर दिमाग में उठे इस बवंडर को, बाहर धकेलना चाहा किन्तु कितना मुश्किल, मैं चाहकर भी यशोधरा दीदी को अपने विचार केन्द्र से ओझिल नहीं कर पा रही हूं। करती भी हूं तो कैसे? पास रखे सिलाई मशीन के पास पड़े चेक्स के बने छोटे-छोटे नेपकीन पंखें की हवा में फरफरा रहे हैं। दीदी को सफेद कपड़े के बने बच्चों के नेपकिन बिल्कुल पसन्द नहीं है। कारण, सफेद कपड़ों पर दाग लग जाते है जो धुलने पर भी नहीं छूटते। छोटी-छोटी कोमल, मुलायम, नरम-नरम गद्दियां मैंने कल ही उनके निर्देशानुसार सिली। वह नन्हें शिशु के लिए राई का तकिया भी बनवाना चाह रही थी पर क्या करूं, नन्हीं सुप्रिया टिक कर कोई काम करने ही नहीं देती।
इतने साल साथ रहते यशोधरा दीदी से मुझे गहरा लगाव हो गया है। कोई पांच साल पूर्व होली के दिन मेरा उनसे प्रथम परिचय हुआ- लम्बी कद काठी, आकर्षक नाक-नक्श, गौर वर्ण और उस पर चटक रंगों की सलीके से बंधी सिल्क की साड़ी। क्या क्या कहूं उनके पूरे व्यक्तित्व में एक रोब समाया रहता है । अभिजात्य होने का रोब। बात करती तो उनकी मारवाड़ी भाषा इतनी मधुर और सम्मान भरी होती कि सामने वाले को भी वे अपने अभिजातिय संसार में डूबो देती। अहसास होने लगता कि हम भी कहीं उच्च कुलीन घर से है। उनके पति उन्हें कितना आदर से बुलाते। तू, तुम, डियर, डार्लिंग नहीं उन्हें हमेशा बनड़ी सा, आप कहते। पत्नी को संबोधन करने का उनका सलीका मुझे बहुत भाता। मन चाहता काश प्रशांत भी मुझे इसी तरह पुकारे।
उनके पति राठौड़ सा राजघराने से संबधित है। उनकी राजपूती शान ठहाकों के मध्य उभरती है तो पूरा माहौल ही गूंजायमान हो जाता है।
धीरे-धीरे यशोधरा दीदी से मेरी अच्छी घनिष्ठता हो गई। मैं अक्सर उनके यहां चली जाती। वह शायद अभिजातिय संस्कारवश कम ही बाहर निकलती। मैं एक साधारण परिवार से हूं किन्तु उनके व्यवहार ने मुझे यह अहसास नहीं होने दिया। हमेशा मान सम्मान देती अपनत्व से मिलती। मेरी नई-नई शादी हुई थी। सिलाई-बुनाई के कार्या में मैं अभी पूरी होशियार नहीं हुई थी। एक दिन प्रशान्त ऊन ले आये। उन्हें मेरे हाथ का बुना स्वेटर पहनना था। मैं ऊन लिए यशोधरा दीदी के पास पहुंची। मेरे हाथ में ऊन का डिब्बा था।
राठौड़सा. ने मुझसे खाली डिब्बा मांग लिया। मैं बड़ी हैरान हुई, इस कागज के खाली डिब्बे में ऐसा क्या जो राठौड़ सा. को भा गया। वो तो बाद मैं पता चला जब मैंने डिब्बे के ढ़क्कन पर बने नन्हें किलकारी मारते शिशु के चित्र को उनके बेडरूम में पाया। काफी घुलमिल जाने के कारण हंसते हुए उनसे पूछ बैठी।
‘‘आपके बच्चे नहीं हुए?’’
मेरे अनायास प्रश्न ने उस चंद्रमुखी को दुःख की बदली ने घेर लिया। हृदय की पीड़ा से धधकता उनका अभिजात्य मुखमंडल एकदम कांतिहीन हो गया।
मुझे मालूम नहीं था कि मेरा ऐसा ही बेमतलब प्रश्न उन्हें दुःख की असीम गहराईयों में डूबो देगा। मैं अपने आप में बड़ी शर्मिदंगी महसूस करने लगी। उस दिन उन्होंने अपना पूरा दर्द मेरे सामने बिखेर दिया।
शादी को दस वर्ष होने आये किन्तु वह अभी तक मातृत्व सुख से वंचित थी। सारे सुखों में यह दुख उन्हें एक शूल की भांति टीसता था। अपने ही साथ शादी हुई छोटी बहन के दो बेटियां थीं। अब तो उनके छोटे भाई के घर भी गुड्डू आ चुका था किन्तु भाग्य की विडम्बना, उनकी गोद अभी तक सूनी थी। यही कारण था कि अब उन्हें मायके जाना भी अच्छा नहीं लगता था। पर शुरू से ऐसा नहीं था। जब बहन के बच्चे हुए तब वह बहुत जाती थी किन्तु धीरे-धीरे उन्हें अहसास होने लगा अपने फालतू होने का। भाभी, बहन सभी बच्चों में व्यस्त, एक वहीं फालतू, जिसे देखों वहीं उन्हें काम बताता। उन्हें अच्छा नहीं लगता वह बेमन से काम करतीं, चिड़चिड़ी रहती।
दुःख की गहराई में डूबे उस गौरव मुखमण्डल पर आंसू मोती की तरह ढुलकने लगे। बहन भाई में सबसे बड़ी होने के नाते उनसे पिछड़ जाने के अहसास के कारण वह अपनी इस कमी को मानो दौड़ लगाकर एक ही बार में पूरा कर लेना चाहती थी। तभी तो वह अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर विधाता से बोली-
‘‘हे म्हारा राम रघुनाथ इतरी करिपा करीजो, म्हने दो-दो टाबर एक साथ दीजो।’’
उनके आतृप्त मातृत्व की यही भावना कि हे भगवान मुझे जुड़वा बच्चे देना, सुनने में मुझ जैसी अल्हड़ को इस समय हास्यापद लगी।
‘‘आप भी कमाल करती हैं। एक साथ दो बच्चे संभाल पायेंगी?’’
उनका तर्क था कि वह किसी काम को हाथ नहीं लगायेंगी बस दिन रात बच्चों को पालेंगी। बस बच्चों को।
सब सुखों से भरपूर, बच्चे के अभाव में त्रस्त इस नारी की वेदना को मैंने उस समय गहराई से अनुभव नहीं किया। करती भी कैसे मेरा विवाह हुए अभी तीन माह ही तो हुए थे। मैं फिलहाल मां बनना भी नहीं चाहती थी। आजादी से भरपूर स्वतंत्र दाम्पत्य जीवन जीना चाहती थी। फिर बच्चों से मुझे विशेष लगाव भी नहीं था। लगाव क्या मैं तो बच्चों को आफत मानती थी, अपनी स्वतंत्रता में दखल समझती थी। फिर कैसे उनकी वेदना समझ पाती।
उनके पूरे बेडरूम में चारों और बच्चों की अनेक तस्वीरें थी। नन्हें बच्चें को प्यार करती, चूमती मां की तस्वीर। पोनी-टेल बांधे नन्ही बेटी की तस्वीर। ये सभी उनके मानस पुत्र पुत्री थे। जब भी उनका दिल किसी बच्चे के चित्र पर आ जाता वह उनके बेडरूम की शोभा बन जाता और इस प्रकार उनके सपनों की दुनियां में एक और शिशु शामिल हो जाता। तस्वीरों के बच्चों के नाम पति-पत्नी दोनों मिलकर चुनते उनके क्रियाकलापों की मनगढ़न्त चर्चाएं आपस में करते। कभी मुन्ना जिद करता तो कभी किट्टी मुन्ने को काट खाती। अपने इन सपनों के संसार में मुझे भी भागीदार बनाती। मुझे ले जाती उस दुनियां में जहां सिर्फ बच्चे ही बच्चे थे। शेतान, शरारती बच्चे। उछलकूद करते बच्चे, खिलौने खेलते बच्चे, सुन्दर वस्त्रों में सजे गोलमटोल बच्चे और पता नहीं क्या-क्या।
मुझे यह सब बचकाना लगता।
उसी समय की बात है मैं पहली बार गर्भवती हुई किन्तु मुझे अभी बच्चा नहीं चाहिए था अतः उससे मुक्ति पा ली। जब यशोधरा दीदी को पता चला तो वह मुझ पर बहुत नाराज हुई, डांटा भी बहुत।
जीवन ऐसे ही गुजर रहा था। खूब मौज मनाई, घूमे-फिरे खाया पिया। धीरे- धीरे मेरा इन सबसे मन भरने लगा। शायद यशोधरा दीदी के संग रहते मुझे भी अब बच्चे की इच्छा होने लगी। जैसे-जैसे बच्चे की चाह बढ़ने लगी मुझे लगने लगा अब मुझे कभी बच्चा नहीं होगा। मेरी आंखों में अजन्मा गर्भ तैर जाता और मन पीड़ा से भर जाता। यशोधरा दीदी का चेहरा सामने घूमने लगता, मैं कांप जाती। बच्चे की चाह में डॉक्टरों के, मंदिरों के चक्कर लगने लगा। यशोधरा दीदी की वेदना मुझे महसूस होने लगी। मैं बच्चे के लिए छटपटाने लगी...। बम्बई के अस्पताल में मेरा छोटा सा ऑपरेशन हुआ।
एक दिन मैंने यशोधराजी को अपनी शुभ सूचना दी। वह फूली नहीं समाई। गीली हो आई आंखें उनके सुख दुख के अनोखे सम्मिश्रण को प्रकटकर रही थी। उन्होंने मुझे बहुत हिदायतें दी। उनके अनुसार वह बहन व भाभी के अनुभवों से बड़ी अनुभवी हो चुकी थी और अपने इसी अनुभव से मुझे लाभान्वित करना चाहती थी।
मुझे पता था उन्होंने अभी तक किसी डॉक्टर को नहीं बताया और न ही उनके पति ने उन्हें कभी इस बारे में भूले से भी कहा। शायद वह ऐसा कह अपनी पत्नी को वेदना नहीं पहुंचाना चाहते हों क्योंकि यशोधरा दीदी के मन में अभी भी आशा का अंकुर विद्यमान था। वह सोचती थी कि वे एक दिन जरूर दो बेटों की मां बनेगी।
किन्तु मुझमें इस तरह का संयम कहां, खुशी के इस अवसर पर एक बार फिर मैंने उन्हें बेध दिया। आप जांच क्यूं नहीं करवा लेतीं, उसी डॉक्टर से जिसने मेरा इलाज किया था।
उन्हें लगा जैसे में उन्हें गाली दे रही हूं। उनके मातृत्व पर अंगुली उठा रही हूं।
वे मेरे काफी अनुनय विनय के बाद तैयार हुई। डॉक्टर का इलाज रंग लाया ईश्वर ने उनकी तपस्या स्वीकार की।
यशोधराजी शरीर से काफी दुर्बल हो गई थी। किन्तु उनके मुख मंडल पर एक गजब की आभा चमकती रहती-मां होने की आभा। उन्हें पूरी तरह से आराम करना था। बिस्तर से पैर तक नीचे नहीं उतारना था। नौ महीने का लम्बा समय उन्होंने अपने कमरे की चारों दीवारों पर बडे़ बड़े दर्पण लगाकर काटा। जब वह एक करवट से थक जाती तो दूसरी करवट बदल दर्पण में अपना रूप निहारती गर्भवती होने का गौरव उनके बिस्तरों पर सोए रहने पर भी देदीप्यमान था। नित्यप्रतिदिन अपना फूलता हुआ उदर दर्पण में निहार कर शायद वह अपने अजन्में बच्चे को देख लेतीं। वह कठिन तपस्या कर रही थी।
इसी बीच मैंने सुप्रिया को जन्म दिया। वह अपना फूला हुआ उदर देखकर अनुमान लगाती कि वे एक साथ दो बेटों को जन्म देगी। राठौड़सा, भी खुशी के मारे बौरा गए थे। उन्होंने घर में तरह-तरह के खिलौनों व वस्त्रों का अम्बार लगा दिया। खुशी के मारे वे बाल सुलभ हरकतें करने लगे। यशोधरा दीदी बताती कि उनके पति घोड़ा बनकर चलने का अभ्यास करते तो उनकी लटकी हुई तोंद कितनी हास्यापद लगती और वह हंसती-हंसती दोहरी हो जाती।
राठौड़ सा, बड़े शौक से उन्हें नन्हें वस्त्र लाते किन्तु दादी को उनका लाया एक भी वस्त्र पसन्द नहीं आता, हरेक में कुछ न कुछ मीनमेख निकाल देती। हारकर उन्होंने तय किया कि वह कुछ वस्त्र घर पर ही अपनी इच्छानुरूप तैयार करवा लें। अब वह स्वंय तो सिल नहीं सकती थी। कपड़े मुझे काटकर देती अभी तो में सिर्फ छोटे-छोटे नेपकिन व गद्दियां ही सिल पायी थी कि अभी-अभी प्रशान्त के टेलीफोन ने तो मेरे ऊपर बिजली ही गिरा दी।
‘‘यशोधराजी के मृत बेटा पैदा हुआ।’’ मेरी आंखों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित हो रही है और मैं ईश्वर की इस क्रूरता पर शिकायत करती हूं- इतनी तपस्या के बाद भगवान तूने ऐसा अन्याय क्यों किया? क्यों नही उन्हें पहले की तरह बांझ रखा। कम से कम वह अपने सपनों के संसार में जी तो रही थी। काश वह गर्भवती नहीं होती। प्रशान्त कह रहे थे, उनकी मानसिक स्थिति बहुत खराब है। उन्हें गहरा आघात लगा, यह मैं अच्छी तरह समझ रही हूं। प्रशान्त कह रहे हैं कि उनको बचाने के लिए उन्हें एक शिशु की जरूरत है।
किन्तु कहां से आएगा शिशु? कौन मां अपने कलेजे का टुकड़ा देगी? अनायास मेरी नजरें सो रही नन्हीं मासूम सुप्रिया की ओर उठ गई। मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। धकधक धड़कते दिल से मैंने सुप्रिया को उठाया और जोर से छाती से भींच लिया। ये इम्तहान मुझे ही देना होगा ?
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