ठेस
फणीश्वरनाथ रेणु
खेती-बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते. लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं. इसलिए, खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को. क्या होगा, उसको बुलाकर? दूसरे मजदूर खेत पहुँच कर एक-तिहाई काम कर चुकेंगे, तब कहीं सिरचन राय हाथ में खुरपी डुलाता दिखाई पड़ेगा- पगडण्डी पर तौल तौल कर पाँव रखता हुआ, धीरे-धीरे. मुफ्त में मजदूरी देनी हो तो और बात है.
.. आज सिरचन को मुफ्तखोर, कामचोर या चटोर कह ले कोई. एक समय था, जबकि उसकी मड़ैया के पास बड़े-बड़े बाबू लोगो की सवारियाँ बंधी रहती थीं. उसे लोग पूछते ही नहीं थे, उसकी खुशामद भी करते थे. "..अरे, सिरचन भाई! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी रह गयी है सारे इलाके में. एक दिन भी समय निकालकरचलो. कल बड़े भैया की चिट्ठी आई है शहर से- सिरचन से एक जोड़ा चिक बनवा कर भेज दो.'
मुझे याद है.. मेरी माँ जब कभी सिरचन को बुलाने के लिए कहती, मैं पहले ही पूछ लेता, "भोग क्या क्या लगेगा?"
माँ हँस कर कहती, "जा- जा, बेचारा मेरे काम में पूजा-भोग की बात नहीं उठता कभी."
ब्राह्मणटोली के पंचानंद चौधरी के छोटे लड़के को एक बार मेरे सामने ही बेपानी कर दिया था सिरचन ने- "तुम्हारी भाभी नाखून से खांट कर तरकारी परोसती है. और इमली का रस साल कर कढ़ी तो हम कहार-कुम्हारों की घरवाली बनाती हैं. तुम्हारी भाभी ने कहाँ से बनायीं!"
इसलिए सिरचन को बुलाने से पहले मैं माँ को पूछ लेता..
सिरचन को देखते ही माँ हुलस कर कहती, "आओ सिरचन! आज नेनू मथ रही थी, तो तुम्हारी याद आई. घी की डाड़ी (खखोरन) के साथ चूड़ा तुमको बहुत पसंद है न... और बड़ी बेटी ने ससुराल से संवाद भेजा है, उसकी ननद रूठी हुई है, मोथी के शीतलपाटी के लिए."
सिरचन अपनी पनियायी जीभ को सम्हाल कर हँसता- "घी की सुगंध सूंघ कर आ रहा हूँ, काकी! नहीं तो इस शादी ब्याह के मौसम में दम मारने की भी छुट्टी कहाँ मिलती है?"
सिरचन जाति का कारीगर है. मैंने घंटो बैठ कर उसके काम करने के ढंग को देखा है. एक-एक मोथी और पटेर को हाथ में लेकर बड़े जातां से उसकी कुच्ची बनाता. फिर, कुच्चियों को रंगने से ले कर सुतली सुलझाने में पूरा दिन समाप्त... काम करते समय उसकी तन्मयता में ज़रा भी बाधा पड़ी कि गेंहुअन सांप की तरह फुफकार उठता- "फिर किसी दूसरे से करवा लीजिये काम. सिरचन मुंहजोर है, कामचोर नहीं."
बिना मजदूरी के पेट-भर भात पर काम करने वाला कारीगर. दूध में कोई मिठाई न मिले, तो कोई बात नहीं, किन्तु बात में ज़रा भी झाल वह नहीं बर्दाश्त कर सकता.
सिरचन को लोग चटोर भी समझते हैं... तली-बघारी हुई तरकारी, दही की कढ़ी, मलाई वाला दूध, इन सब का प्रबंध पहले कर लो, तब सिरचन को बुलाओ; दुम हिलाता हुआ हाज़िर हो जाएगा. खाने-पीने में चिकनायी की कमी हुई कि काम की सारी चिकनाई ख़त्म! काम अधूरा रखकर उठ खड़ा होगा- "आज तो अब अधकपाली दर्द से माथा टनटना रहा है. थोड़ा- सा रह गया है, किसी दिन आ कर पूरा कर दूँगा.".. "किसी दिन"- माने कभी नहीं!
मोथी घास और पटरे की रंगीन शीतलपाटी, बांस की तीलियों की झिलमिलाती चिक, सतरंगे डोर के मोढ़े, भूसी-चुन्नी रखने के लिए मूंज की रस्सी के बड़े-बड़े जाले, हलावाहों के लिए ताल के सूखे पत्तों की छतरी-टोपी तथा इसी तरह के बहुत-से काम हैं, जिन्हें सिरचन के सिवा गाँव में और कोई नहीं जानता. यह दूसरी बात है कि अब गाँव में ऐसे कामों को बेकाम का काम समझते हैं लोग- बेकाम का काम, जिसकी मजदूरी में अनाज या पैसे देने की कोई ज़रुरत नहीं. पेट-भर खिला दो, काम पूरा होने पर एकाध पुराना-धुराना कपडा दे कर विदा करो. वह कुछ भी नहीं बोलेगा...
कुछ भी नहीं बोलेगा, ऐसी बात नहीं.सिरचन को बुलाने वाले जानते हैं, सिरचन बात करने में भी कारीगर है... महाजन टोले के भज्जू महाजन की बेटी सिरचन की बात सुन कर तिलमिला उठी थी- ठहरो! मैं माँ से जा कर कहती हूँ. इतनी बड़ी बात!"
"बड़ी बात ही है बिटिया! बड़े लोगों की बस बात ही बड़ी होती है. नहीं तो दो-दो पटेर की पटियों का काम सिर्फ खेसारी का सत्तू खिलाकर कोई करवाए भला? यह तुम्हारी माँ ही कर सकती है बबुनी!" सिरचन ने मुस्कुरा कर जवाब दिया था.
उस बार मेरी सबसे छोटी बहन की विदाई होने वाली थी. पहली बार ससुराल जा रही थी मानू. मानू के दूल्हे ने पहले ही बड़ी भाभी को ख़त लिख कर चेतावनी दे दी है- "मानू के साथ मिठाई की पतीली न आये, कोई बात नहीं. तीन जोड़ी फैशनेबल चिक और पटेर की दो शीतलपाटियों के बिना आएगी मानू तो..." भाभी ने हँस कर कहा, "बैरंग वापस!" इसलिए, एक सप्ताह से पहले से ही सिरचन को बुला कर काम पर तैनात करवा दिया था माँ ने- "देख सिरचन! इस बार नयी धोती दूँगी, असली मोहर छाप वाली धोती. मन लगा कर ऐसा काम करो कि देखने वाले देख कर देखते ही रह जाएँ."
पान-जैसी पतली छुरी से बांस की तीलियों और कमानियों को चिकनाता हुआ सिरचन अपने काम में लग गया. रंगीन सुतलियों से झब्बे डाल कर वह चिक बुनने बैठा. डेढ़ हाथ की बिनाई देख कर ही लोग समझ गए कि इस बार एकदम नए फैशन की चीज बन रही है, जो पहले कभी नहीं बनी.
मंझली भाभी से नहीं रहा गया, परदे के आड़ से बोली, "पहले ऐसा जानती कि मोहर छाप वाली धोती देने से ही अच्छी चीज बनती है तो भैया को खबर भेज देती."
काम में व्यस्त सिरचन के कानों में बात पड़ गयी. बोला, "मोहर छापवाली धोती के साथ रेशमी कुरता देने पर भी ऐसी चीज नहीं बनती बहुरिया. मानू दीदी काकी की सबसे छोटी बेटी है.. मानू दीदी का दूल्हा अफसर आदमी है."
मंझली भाभी का मुंह लटक गया. मेरे चाची ने फुसफुसा कर कहा, "किससे बात करती है बहू? मोहर छाप वाली धोती नहीं, मूँगिया-लड्डू. बेटी की विदाई के समय रोज मिठाई जो खाने को मिलेगी. देखती है न."
दूसरे दिन चिक की पहली पाँति में सात तारे जगमगा उठे, सात रंग के. सतभैया तारा! सिरचन जब काम में मगन होता है तो उसकी जीभ ज़रा बहार निकल आती है, होठ पर. अपने काम में मगन सिरचन को खाने-पीने की सुध नहीं रहती. चिक में सुतली के फंदे डाल कर अपने पास पड़े सूप पर निगाह डाली- चिउरा और गुड़ का एक सूखा ढेला. मैंने लक्ष्य किया, सिरचन की नाक के पास दो रेखाएं उभर आयीं. मैं दौड़ कर माँ के पास गया. "माँ, आज सिरचन को कलेवा किसने दिया है, सिर्फ चिउरा और गुड़?"
माँ रसोईघर में अन्दर पकवान आदि बनाने में व्यस्त थी. बोली, "मैं अकेली कहाँ-कहाँ क्या-क्या देखूं!.. अरी मंझली, सिरचन को बुँदिया क्यों नहीं देती?"
"बुँदिया मैं नहीं खाता, काकी!" सिरचन के मुंह में चिउरा भरा हुआ था. गुड़ का ढेला सूप के किनारे पर पड़ा रहा, अछूता.
माँ की बोली सुनते ही मंझली भाभी की भौंहें तन गयीं. मुट्ठी भर बुँदिया सूप में फेंक कर चली गयी.
सिरचन ने पानी पी कर कहा, "मंझली बहूरानी अपने मैके से आई हुई मिठाई भी इसी तरह हाथ खोल कर बाँटती है क्या?"
बस, मंझली भाभी अपने कमरे में बैठकर रोने लगी. चाची ने माँ के पास जा कर लगाया- "छोटी जाति के आदमी का मुँह भी छोटा होता है. मुँह लगाने से सर पर चढ़ेगा ही... किसी के नैहर-ससुराल की बात क्यों करेगा वह?"
मंझली भाभी माँ की दुलारी बहू है. माँ तमक कर बाहर आई- "सिरचन, तुम काम करने आये हो, अपना काम करो. बहुओं से बतकुट्टी करने की क्या जरूरत? जिस चीज़ की ज़रुरत हो, मुझसे कहो."
सिरचन का मुँह लाल हो गया. उसने कोई जवाब नहीं दिया. बांस में टंगे हुए अधूरे चिक में फंदे डालने लगा.
मानू पान सजा कर बाहर बैठकखाने में भेज रही थी. चुपके से पान का एक बीड़ा सिरचन को देती हुई बोली, इधर-उधर देख कर कहा- "सिरचन दादा, काम-काज का घर! पाँच तरह के लोग पाँच किस्म की बात करेंगे. तुम किसी की बात पर कान मत दो."
सिरचन ने मुस्कुरा कर पान का बीड़ा मुँह में ले लिया. चाची अपने कमरे से निकल रही थी. सिरचन को पान खाते देख कर अवाक हो गयी. सिरचन ने चाची को अपनी ओर अचरज से घूरते देखकर कहा- "छोटी चाची, ज़रा अपनी डिबिया का गमकौआ ज़र्दा खाते हो?... चटोर कहीं के!" मेरा कलेजा धड़क उठा.. यत्परो नास्ति!
बस, सिरचन की उँगलियों में सुतली के फंदे पड़ गए. मानो, कुछ देर तक वह चुपचाप बैठा पान को मुँह में घुलाता रहा. फिर, अचानक उठ कर पिछवाड़े पीक थूक आया. अपनी छुरी, हँसियाँ वैगरह समेट सम्हाल कर झोले में रखे. टंगी हुई अधूरी चिक पर एक निगाह डाली और हनहनाता हुआ आँगन के बाहर निकल गया.
चाची बड़बड़ाई- "अरे बाप रे बाप! इतनी तेजी! कोई मुफ्त में तो काम नहीं करता. आठ रुपये में मोहरछाप वाली धोती आती है.... इस मुँहझौंसे के मुँह में लगाम है, न आँख में शील. पैसा खर्च करने पर सैकड़ों चिक मिलेंगी. बांतर टोली की औरतें सिर पर गट्ठर लेकर गली-गली मारी फिरती हैं."
मानू कुछ नहीं बोली. चुपचाप अधूरी चिक को देखती रही... सातो तारें मंद पड़ गए.
माँ बोली, "जाने दे बेटी! जी छोटा मत कर, मानू. मेले से खरीद कर भेज दूँगी."
मानू को याद आया, विवाह में सिरचन के हाथ की शीतलपाटी दी थी माँ ने. ससुरालवालों ने न जाने कितनी बार खोल कर दिखलाया था पटना और कलकत्ता के मेहमानों को. वह उठ कर बड़ी भाभी के कमरे में चली गयी.
मैं सिरचन को मानाने गया. देखा, एक फटी शीतलपाटी पर लेट कर वह कुछ सोच रहा है.
मुझे देखते ही बोला, बबुआ जी! अब नहीं. कान पकड़ता हूँ, अब नहीं... मोहर छाप वाली धोती ले कर क्या करूँगा? कौन पहनेगा?.. ससुरी खुद मरी, बेटे बेटियों को ले गयी अपने साथ. बबुआजी, मेरी घरवाली जिंदा रहती तो मैं ऐसी दुर्दशा भोगता? यह शीतलपाटी उसी की बुनी हुई है. इस शीतलपाटी को छू कर कहता हूँ, अब यह काम नहीं करूँगा.. गाँव-भर में तुम्हारी हवेली में मेरी कदर होती थी.. अब क्या ?" मैं चुपचाप वापस लौट आया. समझ गया, कलाकार के दिल में ठेस लगी है. वह अब नहीं आ सकता.
बड़ी भाभी अधूरी चिक में रंगीन छींट की झालर लगाने लगी- "यह भी बेजा नहीं दिखलाई पड़ता, क्यों मानू?"
मानू कुछ नहीं बोली. .. बेचारी! किन्तु, मैं चुप नहीं रह सका- "चाची और मंझली भाभी की नज़र न लग जाए इसमें भी."
मानू को ससुराल पहुँचाने मैं ही जा रहा था.
स्टेशन पर सामान मिलते समय देखा, मानू बड़े जातां से अधूरे चिक को मोड़ कर लिए जा रही है अपने साथ. मन-ही-मन सिरचन पर गुस्सा हो आया. चाची के सुर-में-सुर मिला कर कोसने को जी हुआ... कामचोर, चटोर...!
गाड़ी आई. सामान चढ़ा कर मैं दरवाज़ा बंद कर रहा था कि प्लेटफॉर्म पर दौड़ते हुए सिरचन पर नज़र पड़ी- "बबुआजी!" उसने दरवाज़े के पास आ कर पुकारा.
"क्या है?" मैंने खिड़की से गर्दन निकाल कर झिडकी के स्वर में कहा. सिरचन ने पीठ पर लादे हुए बोझ को उतार कर मेरी ओर देखा- "दौड़ता आया हूँ... दरवाज़ा खोलिए. मानू दीदी कहाँ हैं? एक बार देखूं!"
मैंने दरवाज़ा खोल दिया.
"सिरचन दादा!" मानू इतना ही बोल सकी.
खिड़की के पास खड़े हो कर सिरचन ने हकलाते हुए कहा, "यह मेरी ओर से है. सब चीज़ है दीदी! शीतलपाटी, चिक और एक जोड़ी आसनी, कुश की."
गाड़ी चल पड़ी.
मानू मोहर छापवाली धोती का दाम निकाल कर देने लगी. सिरचन ने जीभ को दांत से काट कर, दोनों हाथ जोड़ दिए.
मानू फूट-फूट रो रही थी. मैं बण्डल को खोलकर देखना लगा- ऐसी कारीगरी, ऐसी बारीकी, रंगीन सुतलियों के फंदों को ऐसा काम, पहली बार देख रहा था.
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