असलम लौट आया है
विनोद कुमार दवे
सिवाय एक मनहूस बदसूरती के उस रात में कुछ नहीं था, मैं उसे दोपहर से शाम तक टुकड़ों में बांट चुका था। एक बोरे में फटा पुराना प्लास्टिक कवर जमाकर मैंने उन टुकड़ों को बोरे में डाल दिया। रस्सी से बोरे का मुंह अच्छी तरह बांधकर मैंने तसल्ली से खाना खाया, फिर चाय पी। फर्श को रगड़-रगड़ कर धोने के बावजूद खून के दाग रह गये थे। कार में अगली सीट के नीचे बोरे को ठूंस दिया। रवि को कॉल कर चुका था, वो समय का पाबंद था और मुझे पता था, मेरे पहुंचने तक वो समंदर किनारे आ चुका होगा। एक नाव, बड़ा सा पत्थर और पत्थर को बांधने के लिए रस्से का इंतजाम करना उसकी जिम्मेदारी थी। मैंने अपनी सीट संभाली और मंजिल की तरफ चल पड़ा। बोरे से मेरा पैर स्पर्श हुआ। उसका नाजुक बदन जैसे मेरी देह पर से फिसलता हुआ कहीं अंधेरे में खो गया था, मैं उसे ढूंढ रहा था, उसके अंतर्वस्त्रों में, उसके परफ्यूम में, उसकी पाजेब में। मैं उसे खोज रहा था बिस्तर की सलवट में, तकिये की रुई में।
यादों के जंगल में सुहागरात की सेज पर जैसे नागफणी उग आई थी। वक़्त की नदी में तैरते तैरते मैं वापिस उसी जगह कैसे लौट आया, यह मेरी समझ से परे था। मुझे एक मासूम लड़का याद आने लगा जो होश संभालने के समय से ही फुटपाथों पर गुजर बसर कर रहा था। वो अमावस की एक काली रात रही होगी...
रवि कहीं से धारदार रामपुरी ले आया था, फिर हम एक अच्छे मौके का इंतजार करने लगे। हम दोनों किशोर कामेच्छा के शिखर से गुजर रहे थे और फिलहाल कोई भी लड़की हमें अपनी हवस को पूरा करने का सामान ही नजर आ रही थी। पारुल नाम था उसका, साइकिल से ही आना जाना होता था, हमें उस से कमजोर शिकार मिलना नामुमकिन था। बेहद खूबसूरत अधपके यौवन से लदी मासूम कली, पाक आसमानी आंखें जिसने कभी वासना का ऐसा रूप न देखा होगा, आज हमारे सामने ख़ौफजदा खड़ी थी। मैंने उसे जमीन पर गिरा दिया, लेकिन जितना हम गिरे उतना कोई नहीं गिर सकता था। वो बहुत गिड़गिड़ाई, रोई, रहम की भीख मांगी, हमारी मां बहनों का वास्ता दिया, भगवान की, अल्लाह की, वाहेगुरु की सौगंध दी। लेकिन हमारा कोई मजहब न था, न मैं मुसलमान था, न रवि हिन्दू। हमारी कोई माँ बहन नहीं थी, होती तो भी शायद ही हमें नजर आती उन अंधी आंखों से। उसने बचने के लिये पूरा जोर लगाया, मेरी मजबूत पकड़ से छूट गई और भाग खड़ी हुई। रवि ने फुर्ती से उसे वापिस कब्जे में ले लिया। उसने एक पत्थर रवि के सिर पर मार दिया, मेरा खून खौल उठा। मैं डरा हुआ था कि यह भाग जाएगी, और मैंने वो कर दिया जिसका सोच भी नहीं सकता था। रामपुरी से खून टपक रहा था। रवि बौखला उठा, “चू...! ये तूने क्या कर दिया?” वो तड़फते तड़फते मर गई। हम भाग खड़े हुए, इस शहर से उस शहर, इस डगर से उस डगर। हम ट्रैन बसों में बदहवास सफर करते रहे, ज़िंदगी हमें न जाने कहाँ से कहाँ ले आई। भांग, तंबाकू, बीड़ी, सिगरेट, गांजे से होते हुए हम अफीम, चरस, कोकीन और हेरोइन तक पहुंच गये।
अचानक ब्रेक लगाने पड़े। पुलिस वालों की किस्मत तेज ही होती है, बच गया, वरना आज मुझे दो-दो लाशें ठिकाने लगानी पड़ती।
“ओह असलम मियां! अस्सलामोअलैकुम।“
“वालेकुम अस्सलाम।“
“कार में क्या ले जा रहे हो?”
“खाली है साहिब।“
“चोरी की दिख रही है।“
“हूं...।“
उसकी नजर बोरे पर पड़ी।
“और यह क्या है?”
“रद्दी है जी।“
“लाल रद्दी। खून से सनी हुई।“
मैंने देखा एक फ़टी जगह से मांस बाहर झलक रहा था। मेरी धड़कने बहुत तेज हो गई थी। पसीने की बूंदे माथे से छलछला उठी। टुच्चा बोला,
“बीफ है क्या?”
“हां साहिब।“
“देख गौरक्षकों ने बहुत धमाल मचा रखा है। कहीं मर खप गया तो न्यूज वालों की टी.आर.पी. बढवाएगा। चल माल निकाल और बात रफा दफा कर।“
“कल पहुंचाता हूँ साहिब।“
“साले लुक्के। चल भाग। तेरे गेराज पर मिलता हूं कल। कार का पचास टका मंगता है। पैसों के साथ पार्टी का बंदोवस्त करके रखना। बकरा, अंग्रेजी शराब व चकना। और बीफ दूर रखना। ओह तेरी मां की... ये तो शायरी हो गई।
बकरा, शराब व चकना
और बीफ दूर रखना।“
पुलिसवाला अपना गंदा सा मुंह मेरे पास लाकर जोर से हंसा जिस से देसी दारू की गंध से माहौल भभक उठा। मैंने चैन की सांस ली। चोरी की कार और ऊपर से सीट नीचे यह लाश। मैं उस टुच्चे को सलाम कह कर चल पड़ा।
फिर वो ही पुरानी ज़िंदगी याद आने लगी। अमावस की काली रात सी ज़िंदगी। कभी इस शहर कभी इस शहर। ऐसा कौनसा गलत काम था जो हमने नहीं किया, लूट, हत्या, तस्करी, चोरी। बस हर लड़की से डरते रहे हमेशा। वो आसमानी आंखें हमारा हर कही पीछा करती रहती, ख्वाबों में भी। और एक रोज गजब हो गया। उस लड़की को देखा और देखता रहा। और कहते है न कि प्यार हो गया। सना...सना नाम था उसका। वो मेरी ज़िंदगी में ज़िंदगी बनकर बस गई। खाते पीते उठते बैठते सना, सना, सना। रवि चिढ़ गया। मैं किसी काम का न रहा। मैंने सना से शादी कर ली और घर बसा लिया। रवि ने धंधा संभाला। मैंने एक गैराज खोल लिया। ज़िंदगी बहुत अच्छे से चल रही थी, ठीक ठाक पैसा था, खूबसूरत बीबी थी लेकिन किस्मत ने ब्रेक लगा दिया। रवि अपनी चोरी की कार गैराज में रख गया था, मैं उसकी बॉडी का रंग रूप बदल रहा था, दोपहर का समय था, पता नहीं क्यों घुटन सी महसूस हो रही थी, टिफ़िन रोज लेकर आता था लेकिन आज दोपहर के भोजन के लिए क़दम घर की ओर मुड़ गये। घर का दरवाजा बंद था। बाहर पड़े डिज़ाइनर सेंडिल देखकर साबिर की याद आई। मैं घर के पीछे की गली में गया। पाइप के सहारे चढ़कर रोशनदान के सहारे से छत पर चढ़ा। फिर सीढ़ियों से उतर कर नीचे पहुंचा। रूम खुला था। मुझे देखते ही साबिर का चेहरा जर्द पड़ गया। सना ने अपने कपड़े संभाले। मैं सोफे पर गिर पड़ा। साबिर नौ दो ग्यारह हो गया। सना कहाँ जाती? मुझे याद आई वो लड़की, उसका अधपका यौवन, उसकी आसमानी आंखें और देखते देखते वह खूबसूरत लड़की लाश में तबदील होती रही। क्या नाम था उसका, ओह! पारुल। वह मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल थी जो अकसर मेरे सपनों में आती रहती। खैर, जो पारुल के साथ किया था, उस से ज्यादा सलीके से मैं सना से पेश आया। मैंने हाथ पांव बांधकर सना को बिस्तर पर लिटाया। फिर अपना पुराना बक्सा लाया, चाबी खो चुकी थी क्योंकि काफी टाइम से उसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। ताला तोड़ना पड़ा। रामपुरी...। मेरी आँखें चमक उठी। मैंने फिर से रामपुरी को धार दी। वो किशोर असलम, जिसने बेरहमी से पारुल का कत्ल किया था, मुझमें फिर से पैदा हो रहा था। उस किशोर ने मेरे दिल पर दस्तक दी और चालीस की उम्र में भी मैंने उसका स्वागत किया, “आओ असलम! मुझे तुम्हारी जरूरत है। हिम्मत करो। जिस तरह तुमने पारुल के शरीर को बेंध दिया था, वो ही तुम्हें आज फिर से करना है।“ मैंने दर्पण में अपना चेहरा देखा, मुझे वो ही पुराना असलम नजर आया। मैंने सना की लाश के टुकड़े किये। एक बोरे में फटा पुराना प्लास्टिक कवर जमाकर मैंने उन टुकड़ों को बोरे में डाल दिया और रात का इंतजार करने लगा। किसे पता था, असलम मुहब्बत के लिए नहीं बना है, उसे कत्ल करने है, चोरी डकैती असलम नहीं करेगा तो कौन करेगा? गली गली में असलम और रवि है, हर चौराहे पर, हर नुक्कड़ रवि और असलम होंगे, किस्मत वाले होंगे वे मां बाप जिन्हें अपनी बेटी की लाश मिल जाती होगी, वरना हवस के भूखे हम लाश भी कहाँ छोड़ते है?
कार को समंदर किनारे रोका। रवि वहीं था, मैंने पहली दफा अपनी आंखों में आंसुओं का गीलापन महसूस किया। रवि ने मेरी तरफ देखा भी नहीं। उसने बोरे को घसीटते हुए नाव में डाला। दो बड़े से भारी पत्थर बोरे के अच्छी तरह बांध दिये। मेरी हिम्मत न हुई नाव को समंदर में जाते हुए देखने की। रवि लाश को दूर समंदर में ठिकाने लगा आया। जैसे ही वह लौटा मैंने उसे कसकर गले लगा दिया और फूट फूट कर रोने लगा। उसने सांत्वना नहीं दी। मुझे खींचते हुए ले जाकर कार में पटक दिया। ड्राइवर की सीट रवि ने संभाली। मैंने आंसुओं को पोंछा, रामपुरी की चमक में अपना प्रतिबिंब देख कर खुद को सहज महसूस करने लगा। फिर रवि से मुखातिब होकर बोला, “चलो, बार चलते है। पहले वाला असलम लौट आया है।“
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