पराभव - भाग 20 Madhudeep द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पराभव - भाग 20

पराभव

मधुदीप

भाग - बीस

मनोरमा एक निश्चय करके घर से निकल तो आई थी मगर उसका मन भय से डर रहा था | वह स्वयं को असुरक्षित अनुभव कर रही थी | पति कैसा भी था, उसके साथ रहते हुए उसने स्वयं को इतना असुरक्षित तो कभी नहीं समझा था | आज वह स्वयं को बहुत ही कमजोर महसूस कर रही थी |

बच्चे रास्ते पर एक हाथ में ट्रंक लिए और दुसरे से कृष्ण का हाथ पकड़े वह तेजी से बढ़ी जा रही थी | उसने समय का अनुमान लगाया, लगभग तीन बजे थे | गाड़ी साढ़े तीन बजे आती थी | उसने अपनी चाल और अहिक तेज करनी चाही मगर बालक कृष्ण उसके साथ तेज नहीं चल सकता था | दो मील का रास्ता तय करना उसके लिए आज बहुत ही मुश्किल हो रहा था | कृष्ण का हाथ पकड़े वह लगभग उसे घसीटती-सी चल रही थी और कृष्ण भी पाँवों से धुल उड़ाता अड़ियल घोड़े की भाँती खिंचा चला जा रहा था |

कृष्ण भूख के कारण बार-बार रो पड़ता था | मनोरमा कभी उसे गोद में उठाती, कभी प्यार से समझाती और कभी क्रोध से झिड़क देती | कुछ आदमी इधर-उधर खेतों में काम कर रहे थे मगर रास्ता सुनसान पड़ा था |

"मम्मी पानी पीऊँगा |" कृष्ण ने चलते-चलते कहा |

"स्टेशन पर चलकर पीना बेटे |" प्यार से मनोरमा ने कहा |

"नहीं, मुझे प्यास लगी है |" वह हाथ छुड़ाकर खड़ा हो गया |

मनोरमा ने अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई | कुछ दूरी पर एक रहँट चल रहा था | एक बार तो उसकी इच्छा हुई कि वह वहाँ ले जाकर बच्चे को पानी पिला दे मगर इसमें समय लगेगा और गाड़ी निकल जाएगी, यह सोचकर उसने कृष्ण को पुचकारते हुए कहा, "बेटा, यहाँ पर पानी नहीं है, स्टेशन पर चलकर पीना | वहाँ तुझे और भी चीज दिलाऊँगी |"

"नहीं मम्मी, मुझे प्यास लगी है | मैं पानी पीऊँगा |" कृष्ण हठ करके खड़ा हो गया |

अपनी स्थिति और बालक की हठ से मनोरमा को क्रोध आ गया |

"पानी पिएगा...ले पी पानी |" कहते हुए उसने क्रोध से बालक को पीट दिया |

कृष्ण पिटकर और भी जोर से रोने लगा | उसे रोता देखकर मनोरमा की अपनी आँखों में भी आँसू आ गए | उसने ट्रंक को सिर पर रखकर कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया |

सामने ही स्टेशन दिखाई दे रहा था | मनोरमा के पाँवों की गति और भी बढ़ गई | दूर से आती गाड़ी की सीटी सुनकर तो वह लगभग दौड़ने लगी मगर सिर पर ट्रंक और गोद में लिए बच्चे के कारण वह तेजी से भाग भी तो नहीं सकती थी |

गाड़ी स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई | वह अभी वहाँ तक पहुँच भी नहीं पाई थी कि गाड़ी के चलने के लिए सीटी दे दी | किसी तरह भागती हुई वह स्टेशन तक पहुँची तो गाड़ी चल पड़ी | वह थकी-सी वहाँ खड़ी प्लेटफार्म छोड़ती गाड़ी को देखती रही |

"हाय रे भाग्य! इतना भागने पर भी गाड़ी निकल ही गई |" एक आह-सी मनोरमा के मुख से निकली |

अपने सिर से ट्रंक उतारकर उसने प्लेटफार्म पर रख दिया | भागते-भागते मनोरमा का गला सूख गया था | कृष्ण भी पानी माँगते-माँगते उसकी गोद में सो गया था | उसने बालक को गोद से उतारकर बैंच पर लिटा दिया और ट्रंक खोलकर पानी के लिए गिलास निकाल दिया |

जाने वाली सवारियाँ गाड़ी में जा चुकी थीं और गाड़ी से आई हुई सवारियाँ प्लेटफार्म पार करके गाँव की ओर जा चुकी थीं | सारा प्लेटफार्म खाली पड़ा था | मनोरमा इधर-उधर देखकर हैण्डपम्प की ओर बढ़ गई |

स्टेशन पर लगे हैण्डपम्प के पास जाकर उसने देखा तो वह सूखा पड़ा था | उसका हैण्डिल टूटा हुआ था | मनोरमा ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई | कहीं और पानी का साधन दिखाई नहीं दे रहा था | उसे बड़े जोर से प्यास लगी हुई थी और वह बार-बार थूक निगलकर अपना सूखा गला गीला कर रही थी मगर सर्दी की प्यास थी! उसकी बैचैनी बढ़ती ही जा रही थी |

हाथ में खाली गिलास लिए वह टिकटघर की ओर चली गई | टिकटघर के सामने एक काला-सा व्यक्ति नील कपड़े पहने खड़ा हुआ उसे ही देख रहा था |

"भैया, यहाँ थोड़ा-सा पानी मिल जाएगा?" मनोरमा ने उसके पास जाकर धीमी आवाज में कहा |

"पिएगी क्या?"

"हाँ भैया, बहुत प्यास लगी है | मेरा बच्चा भी बहुत प्यासा है |"

"जा, अन्दर कमरे में मटका रखा है, उसमें से ले ले |" इतना कहते हुए उसने अन्दर की ओर उँगली उठा दी |

साहस कर मनोरमा अन्दर कमरे में चली गई | कोने में रखे मटके से पानी लेकर उसने अपनी प्यास बुझाई | पानी-पीकर और गिलास भरकर वह मुड़ने को ही थी की किसी ने पीछे से उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा, "अरी, हमारी भी तो प्यास बुझाती जा |"

मनोरमा चौंक कर काँप उठी | उसने देखा, वही व्यक्ति उसके सामने खड़ा था | उसकी आँखों में लाल-लाल डोरे देखकर वह काँपती हुई पीछे हट गई | गिलास का पानी उसके काँपते हाथों से बिखर गया |

"अरी डरती क्यों है, माल भी दूँगा |" उस व्यक्ति ने जेब से पाँच रूपए का नोट निकालकर दिखाते हुए कहा |

"नहीं भैया, में ऐसी औरत नहीं हूँ | मुझे छोड़ दो, मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ |" रोते हुए मनोरमा ने कहा |

"ऐसी नहीं है तो यहाँ अकेली क्या कर रही है? क्या तेरा कोई घर-बार नहीं है |" कहते हुए उस व्यक्ति ने आगे बढ़कर मनोरमा की धोती पकड़ ली |

मनोरमा एक झटके से पीछे हटी तो खिड़की के शीशे से टकरा गई |

"जीवन, यह क्या हो रहा है?" एक वृद्ध दरवाजे पर से गरजा |

"कुछ नहीं साहब! मैं तो...मैं तो बहन जी को पानी दे रहा था |"

स्टेशन मास्टर को अपने सामने खड़ा देखकर उसने काँपते हुए कहा |

"मैंने सब कुछ अपनी आँखों से देख लिया है | मैं आज ही ऊपर तुम्हारी शिकायत लिखूँगा |"

"ऐसा न करना साहब! मैं तो इन्हें पानी दे रहा था |" घमकी सुनकर वह सहम गया था |

"मेरी नजरों से दूर हो जा जानवर |" गरजकर स्टेशन मास्टर ने कहा तो वह तेजी से वहाँ से भाग गया |

मनोरमा अभी भी वहाँ सहमी-सी खड़ी काँप रही थी |

"बेटी, पानी चाहिए क्या?"

मुँह से कुछ न कह सकी तो मनोरमा ने गर्दन हिला दी |

"ले लो मटके से |"

मनोरमा ने डरते-डरते मटके से गिलास भरा और बाहर निकल आई | बाहर निकलते हुए उसने वृद्ध स्टेशन मास्टर को धन्यवाद भी न दिया |

बाहर बेंच पर कृष्ण अभी सो ही रहा था | उसने उसे जगाकर पानी पिलाया और फिर सुला दिया |

अभी दूसरी गाड़ी आने में तीन घंटे शेष थे | सात बजे दूसरी गाड़ी आएगी, तब तक तो अन्धेरा बहुत बढ़ जाएगा, यह सोचकर मनोरमा भयभीत हो रही थी |

पति चाहे उसे प्रतिदिन मारता था, उसका अपमान करता था मगर उसके साथ रहते हुए वह सुरक्षित तो थी | आज जैसी घबराहट और चिन्ता उसने कभी अनुभव नहीं की थी | वह घर से निकलकर पछता रही थी मगर घर लौटकर जाने का भी तो साहस उसमें नहीं था |

हवा में ठण्ड बढ़ रही थी | उसने कृष्ण को अपनी गोद में छिपा लिया और चुपचाप बेंच पर बैठकर गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगी |