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संग्राम - संपूर्ण

संग्राम

प्रेमचंद


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अंक 1

पहला द्रश्य

प्रभात का समय। सूर्य की सुनहरी किरणें खेतों और वृक्षों पर पड़ रही हैं। वृक्षपुंजों में पक्षियों का कलरव हो रहा है। बसंत ऋतु है। नई—नई कोपलें निकल रही हैं। खेतों में हरियाली छाई हुई है। कहीं—कहीं सरसों भी फूल रही है। शीत—बिंदु पौधों पर चमक रहे हैं।

हलधर रू अब और कोई बाधा न पड़े तो अबकी उपज अच्छी होगी। कैसी मोटी—मोटी बालें निकल रही हैं।

राजेश्वरी रू यह तुम्हारी कठिन तपस्या का फल है।

हलधर रू मेरी तपस्या कभी इतनी सफल न हुई थी। यह सब तुम्हारे पौरे की बरकत है।

राजेश्वरी रू अबकी से तुम एक मजूर रख लेना। अकेले हैरान हो जाते हो।

हलधर रू खेत ही नहीं है। मिलें तो अकेले इसके दुगुने जोत सकता हूँ।

राजेश्वरी रू मैं तो गाय जरूर लूंगी। गऊ के बिना घर सूना मालूम होता है।

हलधर रू मैं पहले तुम्हारे लिए कंगन बनवाकर तब दूसरी बात करूंगा। महाजन से रूपये ले लूंगा। अनाज तौल दूंगा।

राजेश्वरी रू कंगन की इतनी क्या जल्दी है कि महाजन से उधर लो।अभी पहले का भी तो कुछ देना है।

हलधर रू जल्दी क्यों नहीं है। तुम्हारे मैके से बुलावा आएगा ही। किसी नए गहने बिना जाओगी तो तुम्हारे गांव—घर के लोग मुझे हंसेंगे कि नहीं घ्

राजेश्वरी रू तो तुम बुलावा फेर देना। मैं करज लेकर कंगन न बनवाऊँगी। हांए गाय पालना जरूरी है। किसान के घर गोरस न हो तो किसान कैसा तुम्हारे लिए दूध—रोटी का कलेवा लाया करूंगी। बड़ी गाय लेनाए चाहे दाम कुछ बेशी देना पड़ जाए।

हलधर रू तुम्हें और हलकान न होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन आराम कर लोए फिर तो यह चक्की पीसनी ही है।

राजेश्वरी रू खेलना—खाना भाग्य में लिखा होता तो सास—ससुर क्यों सिधार जाते घ् मैं अभागिन हूँ। आते—ही—आते उन्हें चट कर गई। नारायण दें तो उनकी बरसी धूम से करना।

हलधर रू हांए यह तो मैं पहले ही सोच चुका हूँए पर तुम्हारा कंगन बनना भी जरूरी है। चार आदमी ताने देने लगेंगे तो क्या करोगी घ्

राजेश्वरी रू इसकी चिंता मत करोए मैं उनका जवाब दे लूंगी लेकिन मेरी

तो जाने की इच्छा ही नहीं है। जाने और बहुएं कैसे मैके जाने को व्याकुल होती हैंए मेरा तो अब वहां एक दिन भी जी न लगेगी। अपना घर सबसे अच्छा लगता है। अबकी तुलसी का चौतरा जरूर बनवा देनाए उसके आस—पास बेलाए चमेलीए गेंदा और गुलाब के फूल लगा दूंगी तो आंगन की शोभा कैसी बढ़़ जाएगी!

हलधर रू वह देखोए तोतों का झुंड मटर पर टूट पड़ा।

राजेश्वरी रू मेरा भी जी एक तोता पालने को चाहता है। उसे पढ़़ाया करूंगी।

हलधर गुलेल उठाकर तोतों की ओर चलाता है।

राजेश्वरी रू छोड़ना मतए बस दिखाकर उड़ा दो।

हलधर रू वह मारा ! एक फिर गया।

राजेश्वरी रू राम—रामए यह तुमने क्या कियाघ् चार दानों के पीछे उसकी जान ही ले ली। यह कौन—सी भलमनसी है घ्

हलधर रू (लज्जित होकर) मैंने जानकर नहीं मारा।

राजेश्वरी रू अच्छा तो इसी दम गुलेल तोड़कर फेंक दो। मुझसे यह पाप नहीं देखा जाता। किसी पशु—पक्षी को तड़पते देखकर मेरे रोयें खड़े हो जाते हैं। मैंने तो दादा को एक बार बैल की पूंछ मरोड़ते देखा थाए रोने लगी। तब दादा ने वचन दिया कि अब कभी बैलों को न मारूंगा। तब जाके चुप हुई मेरे गांव में सब लोग औंगी से बैलों को हांकते हैं। मेरे घर कोई मजूर भी औंगी नहीं चला सकता।

हलधर रू आज से परन करता हूँ कि कभी किसी जानवर को न मारूंगा।

फत्तू मियां का प्रवेश।

फत्तू रू हलधरए नजर नहीं लगाताए पर अबकी तुम्हारी खेती गांव भर से उसपर है। तुमने जो आम लगाए हैं वे भी खूब बौरे हैं।

हलधर रू दादाए यह सब तुम्हारा आशीर्वाद है। खेती न लगती तो काका की बरसी कैसे होती घ्

फत्तू रू हां बेटाए भैया का काम दिल खोलकर करना।

हलधर रू तुम्हें मालूम है दादाए चांदी का क्या भाव है। एक कंगन बनवाना था।

फत्तू रू सुनता हूँ अब रूपये की रूपये—भर हो गई है। कितने की चांदी लोगे घ्

हलधर रू यही कोई चालीस—पैंतालीस रूपये की।

फत्तू रू जब कहना चलकर ले दूंगा। हांए मेरा इरादा कटरे जाने का है। तुम भी चलो तो अच्छा। एक अच्छी भैंस लाना । गुड़ के रूपये तो अभी रखे होंगे न घ्

हलधर रू कहां दादाए वह सब तो कंचनसिंह को दे दिए । बीघे—भर भी तो न थीए कमाई भी अच्छी न हुई थीए नहीं तो क्या इतनी जल्दी पेल—पालकर छुट्टी पा जाता घ्

फत्तू रू महाजन से तो कभी गला ही नहीं छूटता।

हलधर रू दो साल भी तो लगातार खेती नहीं जमतीए गला कैसे छूटे!

फत्तू रू यह घोड़े पर कौन आ रहा है घ् कोई अफसर है क्या घ्

हलधर रू नहींए ठाकुर साहब तो हैं। घोड़ा नहीं पहचानते घ् ऐसे सच्चे पानी का घोड़ा दस—पांच कोस तक नहीं है।

फत्तू रू सुनाए एक हजार दाम लगते थे पर नहीं दिया ।

हलधर रू अच्छा जानवर बड़े भागों से मिलता है। कोई कहता था। अबकी घुड़दौड़ में बाजी जीत गया। बड़ी—बड़ी दूर से घोड़े आए थेए पर कोई इसके सामने न ठहरा । कैसा शेर की तरह गर्दन उठा के चलता है।

फत्तू रू ऐसे सरदार को ऐसा ही घोड़ा चाहिए । आदमी हो तो ऐसा होए अल्लाह ने इतना कुछ दिया हैए पर घमंड छू तक नहीं गया। एक बच्चा भी जाए तो उससे प्यार से बातें करते हैं। अबकी ताऊन के दिनों में इन्होंने दौड़—धूप न की होती तो सैकड़ों जानें जातीं ।

हलधर रू अपनी जान को तो डरते ही नहीं इधर ही आ रहे हैं। सबेरे—सबेरे भले आदमी के दर्शन हुए।

फत्तू रू उस जन्म के कोई महात्मा हैंए नहीं तो देखता हूँ जिसके पास चार पैसे हो गए वह यही सोचने लगता है कि किसे पीस के पी जाऊँ। एक बेगार भी नहीं लगतीए नहीं तो पहले बेगार देते—देते धुर्रे उड़ जाते थे। इसी गरीबपरवर की बरकत है कि गांवों में न कोई कारिंदा हैए न चपरासीए पर लगान नहीं रूकता। लोग मीयाद के पहले ही दे आते हैं। बहुत गांव देखे पर ऐसा ठाकुर नहीं देखा ।

सबलसिंह घोड़े पर आकर खड़ा हो जाता है। दोनों आदमी झुक—झुककर सलाम करते हैं। राजेश्वरी घूंघट निकाल लेती है।

सबल रू कहो बड़े मियांए गांव में सब खैरियत है न घ्

फत्तू रू हुजूर के अकबाल से सब खैरियत है।

सबल रू फिर वही बात । मेरे अकबाल को क्यों सराहते होए यह क्यों नहीं कहते कि ईश्वर की दया से या अल्लाह के फजल से खैरियत है। अबकी खेती तो अच्छी दिखाई देती है घ्

फत्तू रू हां सरकारए अभी तक तो खुदा का फजल है।

सबल रू बसए इसी तरह बातें किया करो। किसी आदमी की खुशामद मत करोए चाहे वह जिले का हाकिम ही क्यों न होए हांए अभी किसी अफसर का दौरा तो नहीं हुआ घ्

फत्तू रू नहीं सरकारए अभी तक तो कोई नहीं आया।

सबल रू और न शायद आएगी। लेकिन कोई आ भी जाए तो याद रखनाए गांव से किसी तरह की बेगार न मिले। साफ कह देनाए बिना जमींदार के हुक्म के हम लोग कुछ नहीं दे सकते। मुझसे जब कोई पूछेगा तो देख लूंगा। (मुस्कराकर) हलधर ! नया गौना लाए होए हमारे घर बैना नहीं भेजा घ्

हलधर रू हुजूरए मैं किस लायक हूँ।

सबल रू यह तो तुम तब कहते जब मैं तुमसे मोतीचूर के लड्डू या घी के खाजे मांगता। प्रेम से शीरे और सत्तू के लड्डू भेज देते तो मैं उसी को धन्य—भाग्य कहता। यह न समझो कि हम लोग सदा घी और मैदे खाया करते हैं। मुझे बाजरे की रोटीयां और तिल के लड्डू और मटर के चबेना कभी—कभी हलवा और मुरब्बे से भी अच्छे लगते हैं। एक दिन मेरी दावत करोए मैं तुम्हारी नयी दुलहिन के हाथ का बनाया हुआ भोजन करना चाहता हूँ। देखें यह मैके से क्या गुन सीख कर आई है। मगर खाना बिल्कुल किसानों का—सा होए अमीरों का खाना बनवाने की फिक्रमत करना।

हलधर रू हम लोगों के लिट्टे सरकार को पसंद आएंगे घ्

सबल रू हांए बहुत पसंद आएंगे।

हलधर रू जब हुक्म होए

सबल रू मेहमान के हुक्म से दावत नहीं होती। खिलाने वाला अपनी मर्जी से तारीख और वक्त ठीक करता है। जिस दिन कहोए आऊँ। फत्तूए तुम बतलाओए इसकी बहू काम—काज में चतुर है न घ् जबान की तेज तो नहीं है घ्

फत्तू रू हुजूरए मुंह पर क्या बखान करूंए ऐसी मेहनतिन औरत गांव में और नहीं है। खेती का तार—तौर जितना यह समझती है उतना हलधर भी नहीं समझता। सुशील ऐसी है कि यहां आए आठवां महीना होता हैए किसी पड़ोसी ने आवाज नहीं सुनी।

सबल रू अच्छा तो मैं अब चलूंगाए जरा मुझे सीधे रास्ते पर लगा दोए नहीं तो यह जानवर खेतों को रौंद डालेगा। तुम्हारे गांव से मुझे साल में पंद्रह सौ रूपये मिलते हैं। इसने एक महीने में पांच हजार रूपये की बाजी मारी। हलधरए दावत की बात भूल न जाना।

फत्तू और सबलसिंह जाते हैं।

राजेश्वरी रू आदमी काहे को हैए देवता हैं। मेरा तो जी चाहता था। उनकी बातें सुना करूं। जी ही नहीं भरता था।एक हमारे गांव का जमींदार है कि प्रजा को चौन नहीं लेने देता। नित्य एक—न —एक बेगारए कभी बेदखलीए कभी जागाए कभी कुड़कीए उसके सिपाहियों के मारे छप्पर पर कुम्हड़े—कद्दू तक नहीं बचने पाते। औरतों को राह चलते छेड़ते हैं। लोग रात—दिन मनाया करते हैं कि इसकी मिट्टी उठे। अपनी सवारी के लिए हाथी लाता हैए उसका दाम असामियों से वसूल करता है। हाकिमों की दावत करता हैए सामान गांव वालों से लेता है।

हलधर रू दावत सचमुच करूं कि दिल्लगी करते थे घ्

राजेश्वरी रू दिल्लगी नहीं करते थेए दावत करनी होगी। देखा नहींए चलते—चलते कह गए। खाएंगे तो क्याए बड़े आदमी छोटों का मान रखने के लिए ऐसी बातें किया करते हैंए पर आएंगे जरूर।

हलधर रू उनके खाने लायक भला हमारे यहां क्या बनेगा घ्

राजेश्वरी रू तुम्हारे घर वह अमीरी खाना खाने थोड़े ही आएंगी। पूरी—मिठाई तो नित्य ही खाते हैं। मैं तो कुटे हुए जौ की रोटीए सावां की महेरए बथुवे का साफए मटर की मसालेदार दाल और दो—तीन तरह की तरकारी बनाऊँगी। लेकिन मेरा बनाया खाएंगे घ् ठाकुर हैं न घ्

हलधर रू खाने—पीने का इनको कोई विचार नहीं है। जो चाहे बना दे। यही बात इनमें बुरी है। सुना है अंग्रेजों के साथ कलपघर में बैठकर खाते हैं।

राजेश्वरी रू ईसाई मत में आ गए घ्

हलधर रू नहींए असनानए ध्यान सब करते हैं। गऊ को कौरा दिए बिना कौर नहीं उठाते। कथा—पुराण सुनते हैं। लेकिन खाने—पीने में भ्रष्ट हो गए हैं।

राजेश्वरी रू उहए होगाए हमें कौन उनके साथ बैठकर खाना है। किसी दिन बुलावा भेज देना । उनके मन की बात रह जाएगी।

हलधर रू खूब मन लगा के बनाना।

राजेश्वरी रू जितना सहूर है उतना करूंगी। जब वह इतने प्रेम से भोजन करने आएंगे तो कोई बात उठा थोड़े ही रखूंगी। बसए इसी एकादशी को बुला भेजोए अभी पांच दिन हैं।

हलधर रू चलोए पहले घर की सगाई तो कर डालें।

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दूसरा द्रश्य

सबलसिंह अपने सजे हुए दीवानखाने में उदास बैठे हैं। हाथ में एक समाचार—पत्र हैए पर उनकी आंखें दरवाजे के सामने बाग की तरफ लगी हुई हैं।

सबलसिंह रू (आप—ही—आप) देहात में पंचायतों का होना जरूरी है। सरकारी अदालतों का खर्च इतना बढ़़ गया है कि कोई गरीब आदमी वहां न्याय के लिए जा ही नहीं सकता। जार—सी भी कोई बात कहनी हो तो स्टाम्प के बगैर काम नहीं चल सकता। उसका कितना सुडौल शरीर हैए ऐसा जान पड़ता है कि एक—एक अंग सांचे में ढ़ला है। रंग कितना प्यारा हैए न इतना गोरा कि आंखों को बुरा लगेए न इतना सांवला होगाए मुझे इससे क्या मतलबब वह परायी स्त्री हैए मुझे उसके रूप—लावण्य से क्या वास्ता। संसार में एक—से—एक सुंदर स्त्रियां हैंए कुछ यही एक थोड़ी हैघ् ज्ञानी उससे किसी बात में कम नहींए कितनी सरल ह्रदयाए कितनी मधुर—भाषिणी रमणी है। अगर मेरा जरा—सा इशारा हो तो आग में कूद पड़े। मुझ पर उसकी कितनी भक्तिए कितना प्रेम है। कभी सिर में दर्द भी होता है तो बावली हो जाती है। अब उधर मन को जाने ही न दूंगा।

कुर्सी से उठकर आल्मारी से एक ग्रंथ निकालते हैंए उसके दो—चार पन्ने इधर—उधर से उलटकर पुस्तक को मेज पर रख देते हैं और फिर कुर्सी पर जा बैठते हैं। अचलसिंह हाथ में एक हवाई बंदूक लिए दौड़ा आता है।

अचल रू दादाजीए शाम हो गई। आज घूमने न चलिएगा घ्

सबल रू नहीं बेटा ! आज तो जाने का जी नहीं चाहता। तुम गाड़ी जुतवा लो।यह बंदूक कहां पाई घ्

अचल रू इनाम में. मैं दौड़ने में सबसे अव्वल निकला। मेरे साथ कोई पच्चीस लड़के दौड़े थे।कोई कहता था।ए मैं बाजी मारूंगाए कोई अपनी डींग मार रहा था।जब दौड़ हुई तो मैं सबसे आगे निकलाए कोई मेरे गर्द को भी न पहुंचाए अपना—सा मुंह लेकर रह गए। इस बंदूक से चाहूँ तो चिड़िया मार लूं।

सबल रू मगर चिड़ियों का शिकार न खेलना।

अचल रू जी नहींए यों ही बात कहता था। बेचारी चिड़ियों ने मेरा क्या बिगाड़ा है कि उनकी जान लेता गिरूं। मगर जो चिड़ियां

दूसरी चिड़ियों का शिकार करती हैं उनके मारने में तो कोई पाप नहीं है।

सबल रू (असमंजस में पड़कर) मेरी समझ में तो तुम्हें शिकारी चिड़ियों को भी न मारना चाहिए । चिड़ियों में कर्म—अकर्म का ज्ञान नहीं होता। वह जो कुछ करती हैं केवल स्वभाव—वश करती हैंए इसलिए वह दण्ड की भागी नहीं हो सकती।

अचल रू कुत्ता कोई चीज चुरा ले जाता है तो क्या जानता नहीं कि मैं बुरा कर रहा हूँ। चुपके—चुपकेए पैर दबाकर इधर—उधर चौकन्नी आंखों से ताकता हुआ जाता हैए और किसी आदमी की आहट पाते ही भाग खड़ा होता है। कौवे का भी यही हाल है। इससे तो मालूम होता है कि पशु—पक्षियों को भी भले—बुरे का ज्ञान होता है( तो फिर उनको दंड क्यों न दिया जाए घ्

सबल रू अगर ऐसा ही हो तो हमें उनको दंड देने का क्या अधिकार

हैघ् हालांकि इस विषय में हम कुछ नहीं कह सकते कि शिकारी चिड़ियों में वह ज्ञान होता हैए जो कुत्ते या कौवे में है या नहीं

अचल रू अगर हमें पशु—पक्षीए चोरों को दंड देने का अधिकार नहीं है तो मनुष्य में चोरों को क्यों ताड़ना दी जाती है घ् वह जैसा करेंगे उसके फल आप पाएंगेए हम क्यों उन्हें दंड दें घ्

सबल रू (मन में) लड़का है तो नन्हा—सा बालक मगर तर्क खूब करता है। (प्रकट) बेटा ! इस विषय में हमारे प्राचीन ऋषियों ने बड़ी मार्मिक व्यवस्थाएं की हैंए अभी तुम न समझ सकोगी। जाओ सैर कर आओए ओरवरकोट पहन लेनाए नहीं तो सर्दी लग जाएगी।

अचल रू मुझे वहां कब ले चलिएगा जहां आप कल भोजन करने गए थेघ् मैं भी राजेश्वरी के हाथ का बनाया हुआ खाना खाना चाहता हूँ। आप चुपके से चले गएए मुझे बुलाया तक नहींए मेरा तो जी चाहता है कि नित्य गांव ही में रहताए खेतों में घूमा करता।

सबल रू अच्छाए अब जब वहां जाऊँगा तो तुम्हें भी साथ ले लूंगा।

अचलसिंह चला जाता है।

सबल रू (आप—ही—आप) लेख का दूसरा पाइंट (मुद्रा) क्या होगाघ् अदालतें सबलों के अन्याय की पोषक हैं। जहां रूपयों के द्वारा फरियाद की जाती होए जहां वकीलोंघ् बैरिस्टरों के मुंह से बात की जाती होए वहां गरीबों की कहां पैठ घ् यह अदालत नहींए न्याय की बलिवेदी है। जिस किसी राज्य की अदालतों का यह हाल हो। जब वह थाली परस कर मेरे सामने लाई तो मुझे ऐसा मालूम होता था। जैसे कोई मेरे ह्रदय को खींच रहा होए अगर उससे मेरा स्पर्श हो जाता तो शायद मैं मूर्चि्‌र्छत हो जाता। किसी उर्दू कवि के शब्दों में यौवन फटा पड़ता था। कितना कोमल गात हैए न जाने खेतों में कैसे इतनी मेहनत करती है। नहींए यह बात नहीं खेतों में काम करने ही से उसका चम्पई रंग निखर कर कुंदन हो गया है। वायु और प्रकाश ने उसके सौंदर्य को चमका दिया है। सच कहा है हुस्न के लिए गहनों की आवश्यकता नहीं उसके शरीर पर कोई आभूषण न था।ए किंतु सादगी आभूषणों से कहीं ज्यादा मनोहारिणी थी। गहने सौंदर्य की शोभा क्या बढ़़ाएंगेए स्वयं अपनी शोभा बढ़़ाते हैं। उस सादे व्यंजन में कितना स्वाद था घ् रूप—लावण्य ने भोजन को भी स्वादिष्ट बना दिया था। मन फिर उधर गयाए यह मुझे क्या हो गया है। यह मेरी युवावस्था नहीं है कि किसी सुंदरी को देखकर लट्टू हो जाऊँए अपना प्रेम हथेली पर लिए प्रत्येक सुंदरी स्त्री की भेंट करता गिरूं। मेरी प्रौढ़़ावस्था हैए पैंतीसवें वर्ष में हूँ। एक लड़के का बाप हूँ जो छरू —सात वषोर्ं में जवान होगी। ईश्वर ने दिए होते तो चार—पांच संतानों का पिता हो सकता था।यह लोलुपता हैए छिछोरापन है। इस अवस्था मेंए इतना विचारशील होकर भी मैं इतना मलिन—ह्रदय हो रहा हूँ। किशोरावस्था में तो मैं आत्मशुद्वि पर जान देता था।ए फूंक—फूंककर कदम रखता था।ए आदर्श जीवन व्यतीत करता था। और इस अवस्था में जब मुझे आत्मचिंतन में मग्न होना चाहिएए मेरे सिर पर यह भूत सवार हुआ है। क्या यह मुझसे उस समय के संयम का बदला लिया जा रहा है। अब मेरी परीक्षा की जा रही है घ्

ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी रू तुम्हारी ये सब किताबें कहीं छुपा दूं घ् जब देखो तब एक—न —एक पोथा। खोले बैठे रहते होए दर्शन तक नहीं होते।

सबल रू तुम्हारा अपराधी मैं हूँए जो दंड चाहे दो। यह बेचारी पुस्तकें बेकसूर हैं।

ज्ञानी रू गुलबिया आज बगीचे की तरफ गई थी। कहती थीए आज वहां कोई महात्मा आए हैं। सैकड़ों आदमी उनके दर्शनों को जा रहे हैं। मेरी भी इच्छा हो रही है कि जाकर दर्शन कर आऊँ।

सबल रू पहले मैं आकर जरा उनके रंग—ढ़़ंग देख लूं तो फिर तुम जाना। गेरूए कपड़े पहनकर महात्मा कहलाने वाले बहुत हैं।

ज्ञानी रू तुम तो आकर यही कह दोगे कि वह बना हुआ हैए पाखण्डी हैए धूर्त हैए उसके पास न जाना। तुम्हें जाने क्यों महात्माओं से चिढ़़ है।

सबल रू इसीलिए चिढ़़ है कि मुझे कोई सच्चा साधु नहीं दिखाई देता।

ज्ञानी रू इनकी मैंने बड़ी प्रशंसा सुनी है। गुलाबी कहती थी कि उनका मुंह दीपक की तरह दमक रहा था।सैकड़ों आदमी घेरे हुए थे पर वह किसी से बात तक न करते थे।

सबल रू इससे यह तो साबित नहीं होता कि वह कोई सिद्व पुरूष हैं। अशिष्टता महात्माओं का लक्षण नहीं है।

ज्ञानी रू खोज में रहने वाले को कभी—कभी सिद्व पुरूष भी मिल जाते हैं। जिसमें श्रद्वा नहीं है उसे कभी किसी महात्मा से साक्षात्‌ नहीं हो सकता। तुम्हें संतान की लालसा न हो पर मुझे तो है। दूध—पूत से किसी का मन भरते आज तक नहीं सुना।

सबल रू अगर साधुओं के आशीर्वाद से संतान मिल सकती तो आज संसार में कोई निस्संतान प्राणी खोजने से भी न मिलता। तुम्हें भगवान्‌ ने एक पुत्र दिया है। उनसे यही याचना करो कि उसे कुशल से रखें। हमें अपना जीवन अब सेवा और परोपकार की भेंट करना चाहिए ।

ज्ञानी रू (चिढ़़कर) तुम ऐसी निर्दयता से बातें करने लगते हो इसी

से कभी इच्छा नहीं होती कि तुमसे अपने मन की बात कहूँ। लोए अपनी किताबें पढ़़ो इनमें में तुम्हारी जान बसती हैए जाती हूँ

सबल रू बस रूठ गई।चित्रकारों ने क्रोध की बड़ी भयंकर कल्पना की हैए पर मेरे अनुभव से यह सिद्व होता है कि सौंदर्य क्रोध ही का रूपांतर है। कितना अनर्थ है कि ऐसी मोहिनी मूर्ति को इतना विकराल स्वरूप दे दिया जाए घ्

ज्ञानी रू (मुस्कराकर) नमक—मिर्च लगाना कोई तुमसे सीख ले

मुझे भोली पाकर बातों में उड़ा देते होएलेकिन आज मैं न मानूंगी

सबल रू ऐसी जल्दी क्या है घ् मैं स्वामीजी को यहीं बुला लाऊँगाए खूब जी भरकर दर्शन कर लेना। वहां बहुत से आदमी जमा होंगेए उनसे बातें करने का भी अवसर न मिलेगी। देखने वाले हंसी उड़ाएंगे कि पति तो साहब बना गिरता है और स्त्री साधुओं के पीछे दौड़ा करती है।

ज्ञानी रू अच्छाए तो कब बुला दोगे घ्

सबल रू कल पर रखो

ज्ञानी चली जाती है।

सबलसिंह रू (आज—ही—आप) संतान की क्यों इतनी लालसा होती है घ् जिसके संतान नहीं है वह अपने को अभागा समझता हैए अहर्निश इसी क्षोभ और चिंता में डूबा रहता है। यदि यह लालसा इतनी व्यापक न होती तो आज हमारा धार्मिक जीवन कितना शिथिलए कितना नीरव होता। न तीर्थयात्राओं की इतनी धूम होतीए न मंदिरों की इतनी रौनकए न देवताओं में इतनी भक्तिए न साधु—महात्माओं पर इतनी श्रद्वाए न दान और व्रत की इतनी धूम। यह सब कुछ संतान—लालसा का ही चमत्कार है ! खैर कल चलूंगाए देखूं इन स्वामीजी के क्या रंग—ढ़़ंग हैं। अदालतों की बात सोच रहा था।यह आक्षेप किया जाता है कि पंचायतें यथार्थ न्याय न कर सकेंगी( पंच लोग मुंहघ् देखी करेंगे और वहां भी सबलों की ही जीत होगी। इसका निवारण यों हो सकता है कि स्थायी पंच न रखे जाएं। जब जरूरत होए दोनों पक्षों के लोग अपनेघ् अपने पंचों को नियत कर देंबकिसानों में भी ऐसी कामिनियां होती हैंए यह मुझे न मालूम था।यह निस्संदेह किसी उच्च कुल की लड़की है। किसी कारणवश इस दुरवस्था में आ फंसी है। विधाता ने इस अवस्था में रखकर उसके साथ अत्याचार किया है। उसके कोमल हाथ खेतों में कुदाल चलाने के लिए नहीं बनाए गए हैंए उसकी मधुर वाणी खेतों में कौवे हांकने के लिए उपयुक्त नहीं हैए जिनके केशों से झूमर का भार भी न सहा जाए उन पर उपले और अनाज के टोकरे रखना महान्‌ अनर्थ हैए माया की विषम लीला है। भाग्य का द्रूर रहस्य है। वह अबला हैए विवश हैए किसी से अपने ह्रदय की व्यथा। कह नहीं सकती। अगर मुझे मालूम हो जाये कि वह इस हालत में सुखी हैए तो मुझे संतोष हो जाएगी। पर वह कैसे मालूम होए कुलवती स्त्रियां अपनी विपत्तिघ् कथा। नहीं कहतींए भीतर—ही—भीतर जलती हैं पर ाबान से हाय नहीं करती।मैं फिर उसी उधेड़—बुन में पड़ गया। समझ में नहीं आता मेरे चित्त की यह दशा क्यों हो रही है। अब तक मेरा मन कभी इतना चंचल नहीं हुआ था।मेरे युवाकाल के सहवासी तक मेरी अरसिकता पर आश्चर्य करते थे।अगर मेरी इस लोलुपता की जरा भी भनक उनके कान में पड़ जाए तो मैं कहीं मुंह दिखाने लायक न रहूँ। यह आग मेरे ह्रदय में ही जलेए और चाहे ह्रदय जलकर राख हो जाए पर उसकी कराह किसी के कान में न पड़ेगी। ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ नहीं होता। यह प्रेम—ज्योति उद्दीप्त करने में भी उसकी कोई—न—कोई मसलहत जरूर होगी।

घंटी बजाता है।

एक नौकर रू हुजूर हुकुम घ्

सबल रू घोड़ा खींचो।

नौकर रू बहुत अच्छा।

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तीसरा द्रश्य

समय रू आठ बजे दिन।

स्थान रू सबलसिंह का मकान। कंचनसिंह अपनी सजी हुई बैठक में दुशाला ओढ़़ेए आंखों पर सुनहरी ऐनक चढ़़ाए मसनद लगाए बैठे हैंए मुनीमजी बही में कुछ लिख रहे हैं।

कंचन रू समस्या यह है कि सूद की दर कैसे घटाई जाए। भाई साहब मुझसे नित्य ताकीद किया करते हैं कि सूद कम लिया करो। किसानों की ही सहायता के लिए उन्होंने मुझे इस कारोबार में लगाया। उनका मुख्य उद्देश्य यही है। पर तुम जानते हो धन के बिना धर्म नहीं होता। इलाके की आमदनी घर के जरूरी खर्च के लिए भी काफी नहीं होती। भाई साहब ने किफायत का पाठ नहीं पढ़़ा। उनके हजारों रूपये साल तो केवल अधिकारियों के सत्कार की भेंट हो जाते हैं। घुड़दौड़ और पोलो और क्लब के लिए धन चाहिए । अगर उनके आसरे रहूँ तो सैकड़ों रूपये जो मैं स्वयं साधुजनों की अतिथि—सेवा में खर्च करता हूँए कहां से आएं घ्

मुनीम रू वह बुद्विमान पुरूष हैंए पर न जाने यह फजूलखर्ची क्यों

करते हैंघ्

कंचन रू मुझे बड़ी लालसा है कि एक विशाल धर्मशाला बनवाऊँ। उसके लिए धन कहां से आएगा घ् भाई साहब के आज्ञानुसार नाम—मात्र के लिए ब्याज लूं तो मेरी सब कामनाएं धरी ही रह जाएं। मैं अपने भोग—विलास के लिए धन नहीं बटोरना चाहताए केवल परोपकार के लिए चाहता हूँ। कितने दिनों से इरादा कर रहा हूँ कि एक सुंदर वाचनालय खोल दूं। पर पर्याप्त धन नहीं यूरोप में केवल एक दानवीर ने हजारों वाचनालय खोल दिए हैं। मेरा हौसला इतना तो नहीं पर कम—से—कम एक उत्तम वाचनालय खोलने की अवश्य इच्छा है। सूद न लूं तो मनोरथ पूरे होने के और क्या साधन हैं घ् इसके अतिरिक्त यह भी तो देखना चाहिए कि मेरे कितने रूपये मारे जाते हैंघ् जब असामी के पास कुछ जायदाद ही न हो तो रूपये कहां से वसूल हों। यदि यह नियम कर लूं कि बिना अच्छी जमानत के किसी को रूपये ही न दूंगा तो गरीबों का काम कैसे चलेगा घ् अगर गरीबों से व्यवहार न करूं तो अपना काम नहीं चलता। वह बेचारे रूपये चुका तो देते हैं। मोटे आदमियों से लेन—देन कीजिए तो अदालत गए बिना कौड़ी नहीं वसूल होती।

हलधर का प्रवेश।

कंचन रू कहो हलधरए कैसे चले घ्

हलधर रू कुछ नहीं सरकारए सलाम करने चला आया।

कंचन रू किसान लोग बिना किसी प्रयोजन के सलाम करने नहीं चलते। फारसी कहावत हैरू सलामे दोस्ताई बगैर नेस्तब

हलधर रू आप तो जानते ही हैं फिर पूछते क्यों हैं घ् कुछ रूपयों का काम था।

कंचन रू तुम्हें किसी पंडित से साइत पूछकर चलना चाहिए था।यहां आजकल रूपयों का डौल नहीं क्या करोगे रूपये लेकरघ्

हलधर रू काका की बरसी होने वाली है। और भी कई काम हैं।

कंचन रू स्त्री के लिए गहने भी बनवाने होंगे घ्

हलधर रू (हंसकर) सरकारए आप तो मन की बात ताड़ लेते हैं।

कंचन रू तुम लोगों के मन की बात जान लेना ऐसा कोई कठिन काम नहींए केवल खेती अच्छी होनी चाहिए । यह फसल अच्छी हैए तुम लोगों को रूपये की जरूरत होना स्वाभाविक है। किसान ने खेत में पौधे लहराते हुए देखे और उनके पेट में चूहे कूदने लगे नहीं तो ऋण लेकर बरसी करने या गहने बनवाने का क्या कामए इतना सब्र नहीं होता कि अनाज घर में आ जाए तो यह सब मनसूबे बांधें। मुझे रूपयों का सूद दोगेए लिखाई दोगेए नजराना दोगेए मुनीमजी की दस्तूरी दोगेए दस के आठ लेकर घर जाओगेए लेकिन यह नहीं होता कि महीने—दो—महीने रूक जाएं। तुम्हें तो इस घड़ी रूपये की धुन हैए कितना ही समझाऊँए ऊँच—नीच सुझाऊँ मगर कभी न मानोगे। रूपये न दूं तो मन में गालियां दोगे और किसी दूसरे महाजन की चिरौरी करोगी।

हलधर रू नहीं सरकारए यह बात नहीं हैए मुझे सचमुच ही बड़ी जरूरत

है।

कंचन रू हां—हांए तुम्हारी जरूरत में किसे संदेह हैए जरूरत न होती तो यहां आते ही क्योंए लेकिन यह ऐसी जरूरत है जो टल सकती हैए मैं इसे जरूरत नहीं कहताए इसका नाम ताव हैए जो खेती का रंग देखकर सिर पर सवार हो गया है।

हलधर रू आप मालिक हैं जो चाहे कहैं। रूपयों के बिना मेरा काम न चलेगा। बरसी में भोज—भात देना ही पड़ेगाए गहना—पाती बनवाए बिना बिरादरी में बदनामी होती हैए नहीं तो क्या इतना मैं नहीं जानता कि करज लेने से भरम उठ जाता है। करज करेजे की चीर है। आप तो मेरी भलाई के लिए इतना समझा रहे हैंए पर मैं बड़ा संकट में हूँ।

कंचन रू मेरी रोकड़ उससे भी ज्यादा संकट में है। तुम्हारे लिए बंकधर से रूपये निकालने पड़ेंगी। कोई और कहता तो मैं उसे सूखा जवाब देताए लेकिन तुम मेरे पुराने असामी होए तुम्हारे बाप से भी मेरा व्यवहार था।ए इसलिए तुम्हें निराश नहीं करना चाहता। मगर अभी से जताए देता हूँ कि जेठी में सब रूपया सूद समेत चुकाना पड़ेगा। कितने रूपये चाहते हो घ्

हलधर रू सरकारए दो सौ रूपये दिला दें।

कंचन रू अच्छी बात हैए मुनीमजी लिखा—पढ़़ी करके रूपये दे दीजिए। मैं पूजा करने जाता हूँ। (जाता है)

मुनीम रू तो तुम्हें दो सौ रूपये चाहिए न। पहिले पांच रूपये सैकड़े नजराना लगता था।अब दस रूपये सैकड़े हो गया है।

हलधर रू जैसी मर्जी।

मुनीम रू पहले दो रूपये सैकड़े लिखाई पड़ती थीए अब चार रूपये सैकड़े हो गई है।

हलधर रू जैसा सरकार का हुकुम।

मुनीम रू स्टाम्प के पांच रूपये लगेंगी।

हलधर रू सही है।

मुनीम रू चपरासियों का हक दो रूपये होगी।

हलधर रू जो हुकुम।

मुनीम रू मेरी दस्तूरी भी पांच रूपये होती हैए लेकिन तुम गरी। आदमी होए तुमसे चार रूपये ले लूंगा। जानते ही हो मुझे यहां से कोई तलब तो मिलती नहींए बस इसी दस्तूरी पर भरोसा है।

हलधर रू बड़ी दया है।

मुनीम रू एक रूपया ठाकुर जी को चढ़़ाना होगी।

हलधर रू चढ़़ा दीजिए। ठाकुर तो सभी के हैं।

मुनीम रू और एक रूपया ठकुराइन के पान का खर्च।

हलधर रू ले लीजिए। सुना है गरीबों पर बड़ी दया करती हैं।

मुनीम रू कुछ पढ़़े हो घ्

हलधर रू नहीं महाराजए करिया अच्छर भैंस बराबर है।

मुनीम रू तो इस स्टाम्प पर बाएं अंगूठे का निशान करो।

सादे स्टाम्प पर निशान बनवाता है।

मुनीम रू (संदूक से रूपये निकालकर) गिन लो।

हलधर रू ठीक ही होगी।

मुनीम रू चौखट पर जाकर तीन बार सलाम करो और घर की राह लो।

हलधर रूपये अंगोछे में बांधता हुआ जाता है। कंचनसिंह का प्रवेश।

मुनीम रू जरा भी कानघ् पूंछ नहीं हिलाई।

कंचन रू इन मूखोऊ पर ताव सवार होता है तो इन्हें कुछ नहीं सूझताए आंखों पर पर्दा पड़ जाता है। इन पर दया आती हैए पर करूं क्याघ् धन के बिना धर्म भी तो नहीं होता।

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चौथा द्रश्य

स्थान रू मधुबन। सबलसिंह का चौपाल।

समय रू आठ बजे रात। फाल्गुन का आरंभ।

चपरासी रू हुजूरए गांव में सबसे कह आया है। लोग जादू के तमाशे की खबर सुनकर उत्सुक हो रहे हैं।

सबल रू स्त्रियों को भी बुलावा दे दिया है न घ्

चपरासी रू जी हांए अभी सब—की—सब घरवालों को खाना खिलाकर आई जाती हैं।

सबल रू तो इस बरामदे में एक पर्दा डाल दो। स्त्रियों को पर्दे के अंदर बिठाना। घास—चारेए दूध—लकड़ी आदि का प्रबंध हो गया न घ्

चपरासी रू हुजूरए सभी चीजों का ढ़ेर लगा हुआ है। जब यह चीजें बेगार में ली जाती थीं तब एक—एक मुट्ठी घास के लिए गाली और मार से काम लेना पड़ता था।हुजूर ने बेगार बंद करके सारे गांव को बिन दामों गुलाम बना लिया है। किसी ने भी दाम लेना मंजूर नहीं किया। सब यही कहते हैं कि सरकार हमारे मेहमान हैं। धन्य—भाग ! जब तक चाहें सिर और आंखों पर रहैं। हम खिदमत के लिए दिलोजान से हाजिर हैं। दूध तो इतना आ गया है कि शहर में चार रूपये को भी न मिलता।

सबल रू यह सब एहसान की बरकत है। जब मैंने बेगार बंद करने का प्रस्ताव किया तो तुम लोगए यहां तक कि कंचनसिंह भीए सभी मुझे डराते थे।सबको भय था। कि असामी शोख हो जाएंगेए सिर पर चढ़़ जाएंगी। लेकिन मैं जानता था। कि एहसान का नतीजा कभी बुरा नहीं होता। अच्छाए महराज से कहो कि मेरा भोजन भी जल्द बना देंब

चपरासी चला जाता है।

सबल रू (मन में) बेगार बंद करके मैंने गांव वालों को अपना भक्त बना लिया। बेगार खुली रहती तो कभी—न—कभी राजेश्वरी को भी बेगार करनी ही पड़तीए मेरे आदमी जाकर उसे दिक करते। अब यह नौबत कभी न आएगी। शोक यही है कि यह काम मैंने नेक इरादों से नहीं कियाए इसमें मेरा स्वार्थ छिपा हुआ है। लेकिन अभी तक मैं निश्चय नहीं कर सका कि इसका

अंत क्या होगाघ् राजेश्वरी के उद्वार करने का विचार तो केवल भ्रांत है। मैं उसकी अनुपम रूप—छटाए उसके सरल व्यवहार और उसके निर्दोष अंग—विन्यास पर आसक्त हूँ। इसमें रत्ती—भर भी संदेह नहीं है। मैं कामवासना की चपेट में आ गया हूँ और किसी तरह मुक्त नहीं हो सकता। खूब जानता हूँ कि यह महाघोर पाप है ! आश्चर्य होता है कि इतना संयमशील होकर भी मैं इसके दांव में कैसे आ पड़ा। ज्ञानी को अगर जरा भी संदेह हो जाय तो वह तो तुरंत विष खा ले। लेकिन अब परिस्थिति पर हाथ मलना व्यर्थ है। यह विचार करना चाहिए कि इसका अंत क्या होगाघ् मान लिया कि

मेरी चालें सीधी पड़ती गई और वह मेरा कलमा पढ़़ने लगी तोघ् कलुषित प्रेम ! पापाभिनय ! भगवन्‌ ! उस घोर नारकीय अग्निकुंड में मुझे मत डालना। मैं अपने मुख को और उस सरलह्रदय बालिका की आत्मा को इस कालिमा से वेष्ठित नहीं करना चाहता। मैं उससे केवल पवित्र प्रेम करना चाहता हूँए उसकी मीठी—मीठी बातें सुनना चाहता हूँए उसकी मधुर मुस्कान की छटा देखना चाहता हूँए और कलुषित प्रेम क्या हैजो होए अब तो नाव नदी में डाल दी हैए कहीं—न—कहीं पार लगेगी ही। कहां ठिकाने लगेगी घ् सर्वनाश के घाट पर घ् हांए मेरा सर्वनाश इसी बहाने होगी। यह पापघ् पिशाच मेरे कुल का भक्षण कर जाएगी। ओह ! यह निर्मूल शंकाएं हैं। संसार में एक—से—एक कुकर्मी व्यभिचारी पड़े हुए हैंए उनका सर्वनाश नहीं होता। कितनों ही को मैं जानता हूँ जो विषय—भोग में लिप्त हो रहे हैं। ज्यादा—से—ज्यादा उन्हें यह दंड मिलता है कि जनता कहती हैए बिगड़ गयाए कुल में दाफजलगा दिया । लेकिन उनकी मान—प्रतिष्ठा में जरा भी अंतर नहीं पड़ता। यह पाप मुझे करना पड़ेगा। कदाचित मेरे भाग्य में यह बदा हुआ है। हरि इच्छा। हांए इसका प्रायश्चित करने में कोई कसर न रखूंगी। दानए व्रतए धर्मए सेवा इनके पर्दे में मेरा अभिनय होगी। दानए व्रतए परोपकारए सेवा ये सब मिलकर कपट—प्रेम की कालिमा को नहीं धो सकते। अरेए लोग अभी से तमाशा देखने आने लगे। खैरए आने दूं। भोजन में देर हो जाएगी। कोई चिंता नहीं बारह बजे सब गिल्म खत्म हो जाएंगी। चलूं सबको बैठाऊँ। (प्रकट) तुम लोग यहां आकर फर्श पर बैठोए स्त्रियां पर्दे में चली जाएं। (मन में) हैए वह भी है ! कैसा सुंदर अंग—विन्यास है ! आज गुलाबी साड़ी पहने हुए है। अच्छाए अब की तो कई आभूषण भी हैं। गहनों से उसके शरीर की शोभा ऐसी बढ़़ गई है मानो वृक्ष में फूल लगे हों।

दर्शक यथास्थान बैठ जाते हैंए सबलसिंह चित्रों को दिखाना शुरू करते हैं।

पहला चित्र रू कई किसानों का रेलगाड़ी में सवार होने के लिए धक्कम—धक्का करनाए बैठने का स्थान न मिलनाए गाड़ी में खड़े रहनाए एक कुली को जगह के लिए घूस देनाए उसका इनको एक मालगाड़ी में बैठा देना। एक स्त्री का छूट जाना और रोना। गार्ड का गाड़ी को न रोकना।

हलधर रू बेचारी की कैसी दुर्गति हो रही है। लोए लात—घूंसे चलने लगे। सब मार खा रहे हैं।

फत्तू रू यहां भी घूस दिए बिना नहीं चलता। किराया दियाए घूस उसपर सेब लात—घूंसे खाए उसकी कोई गिनती नहीं बड़ा अंधेर है। रूपये बड़े जतन से रखे हुए हैं। कैसा जल्दी निकाल रहा है कि कहीं गाड़ी न खुल जाए।

राजेश्वरी रू (सलोनी से) हाय—हायए बेचारी छूट गई ! गोद में लड़का भी है। गाड़ी नहीं रूकी। सब बड़े निर्दयी हैं। हाय भगवन्ए उसका क्या हाल होगाघ्

सलोनी रू एक बेर इसी तरह मैं भी छूट गई थी। हरदुआर जाती थी।

राजेश्वरी रू ऐसी गाड़ी पर कभी न सवार होए पुण्य तो आगे—पीछे मिलेगाए यह विपत्ति अभी से सिर पर आ पड़ीब

दूसरा चित्र रू गांव का पटवारी खाट पर बस्ता खोले बैठा है। कई किसान आस—पास खड़े हैं। पटवारी सभी से सालाना नजर वसूल कर रहा है।

हलधर रू लाला का पेट तो फूलके कुप्पा हो गया है। चुटीया इतनी बड़ी है जैसे बैल की पगहिया।

फत्तू रू इतने आदमी खड़े गिड़गिड़ा रहे हैंए पर सिर नहीं उठातेए मानो कहीं के राजा हैं ! अच्छाए पेट पर हाथ धरकर लोट गया। पेट अगर रहा हैए बैठा नहीं जाता। चुटकी बजाकर दिखाता है कि भेंट लाओ। देखोए एक किसान कमर से रूपया निकालता है। मालूम होता हैए बीमार रहा हैए बदन पर मिरजई भी नहीं है। चाहे तो छाती के हाड़ गिन लो।वाहए मुंशीजी ! रूपया फेंक दियाए मुंह फेर लियाए अब बात न करेंगी। जैसे बंदरिया रूठ जाती है और बंदर की ओर पीठ फेरकर बैठ जाती है।

बेचारा किसान कैसे हाथ जोड़कर मना रहा हैए पेट दिखाकर कहता हैए भोजन का ठिकाना नहींए लेकिन लाला साहब कब सुनते हैं।

हलधर रू बड़ी गलाकाटू जात है।

फत्तू रू जानता है कि चाहे बना दूंए चाहे बिगाड़ दूं। यह सब हमारी ही दशा तो दिखाई जा रही है।

तीसरा चित्र रू थानेदार साहब गांव में एक खाट पर बैठे हैं।

चोरी के माल की तगतीश कर रहे हैं। कई कांस्टेबल वर्दी पहने हुए खड़े हैं। घरों में खानातलाशी हो रही है। घर की

सब चीजें देखी जा रही हैं। जो चीज जिसको पसंद आती हैए उठा लेता है। औरतों के बदन पर के गहने भी उतरवा लिए

जाते हैं।

फत्तू रू इन जालिमों से खुदा बचाए।

एक किसान रू आए हैं अपने पेट भरनेब बहाना कर दिया कि चोरी के माल का पता लगाने आए हैं।

फत्तू रू अल्लाह मियां का कहर भी इन पर नहीं गिरता। देखो बेचारों की खानातलाशी हो रही है।

हलधर रू खानातलाशी काहे की हैए लूट है। उस पर लोग कहते हैं कि पुलिस तुम्हारे जानघ् माल की रक्षा करती है।

फत्तू रू इसके घर में कुछ नहीं निकला।

हलधर रू यह दूसरा घर किसी मालदार किसान का है। देखो हांडी

में सोने का कंठा रखा हुआ है। गोप भी है। महतो इसे पहनकर नेवता खाने जाते होंगे।चौकीदार ने उड़ा लिया। देखोए औरतें आंगन में खड़ी की गई हैं। उनके गहने उतारने को कह रहा है।

फत्तू रू बेचारा महतो थानेदार के पैरों पर फिर रहा है और अंजुली भर रूपये लिए खड़ा है।

राजेश्वरी रू (सलोनी से) पुलिसवाले जिसकी इज्जत चाहें ले लें।

सलोनी रू हांए देखते तो साठ बरस हो गए। इनके उसपर तो जैसे कोई है ही नहीं

राजेश्वरी रू रूपये ले लिएए बेचारियों की जान बचीब मैं तो इन सभी के सामने कभी न खड़ी हो सयं चाहे कोई मार ही डाले।

सलोनी रू तस्वीरें न जाने कैसे चलती हैं।

राजेश्वरी रू कोई कल होगी और क्या !

हलधर रू अब तमाशा बंद हो रहा है।

एक किसान रू आधी रात भी हो गई। सबेरे ऊख काटनी है।

सबल रू आज तमाशा बंद होता है। कल तुम लोगों को और भी अच्छेघ् अच्छे चित्र दिखाए जाएंगेए जिससे तुम्हें मालूम होगा कि बीमारी से अपनी रक्षा कैसे की जा सकती है। घरों की और गांवों की सगाई कैसे होनी चाहिएए कोई बीमार पड़ जाए तो उसकी देखघ् रेख कैसे करनी चाहिए । किसी के घर में आगजलग जाए तो उसे कैसे बुझाना चाहिए । मुझे आशा है कि आज की तरह तुम लोग कल भी आओगी।

सब लोग चले जाते हैं।

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पांचवां द्रश्य

प्रातरू काल का समय। राजेश्वरी अपनी गाय को रेवड़ में ले जा रही है। सबलसिंह से मुठभेड़।

सबल रू आज तीन दिन से मेरे चंद्रमा बहुत बलवान हैं। रोज एक बार तुम्हारे दर्शन हो जाते हैं। मगर आज मैं केवल देवी के दर्शनों ही से संतुष्ट न हूँगी। कुछ वरदान भी लूंगा।

राजेश्वरी असमंजस में पड़कर इधर—उधर ताकती है और सिर झुकाकर खड़ी हो जाती है।

सबल रू देवीए अपने उपासकों से यों नहीं लजाया करती। उन्हें धीरज देती हैंए उनकी दुरू ख—कथा। सुनती हैंए उन पर दया की द्रष्टि फेरती हैं। राजेश्वरीए मैं भगवान को साक्षी देकर कहता हूँ कि मुझे तुमसे जितनी श्रद्वा और प्रेम है उतनी किसी उपासक को अपनी इष्ट देवी से भी न होगी। मैंने जिस दिन से तुम्हें देखा हैए उसी दिन से अपने ह्दय—मंदिर में तुम्हारी पूजा करने लगा हूँ। क्या मुझ पर जरा भी दया न करोगी घ्

राजेश्वरी रू दया आपकी चाहिएए आप हमारे ठाकुर हैं। मैं तो आपकी चेरी हूँ। अब मैं जाती हूँ। गाय किसी के खेत में पैठ जाएगी। कोई देख लेगा तो अपने मन में न जाने क्या कहेगी।

सबल रू तीनों तरफ अरहर और ईख के खेत हैंए कोई नहीं देख सकता। मैं इतनी जल्द तुम्हें न जाने दूंगा। आज महीनों के बाद मुझे यह सुअवसर मिला हैए बिना वरदान लिए न छोडूंगा। पहले यह बतलाओ कि इस काक—मंडली में तुम जैसी हंसनी क्यों कर आ पड़ी घ् तुम्हारे माता—पिता क्या करते हैं घ्

राजेश्वरी रू यह कहानी कहने लगूंगी तो बड़ी देर हो जाएगी। मुझे यहां कोई देख लेगा तो अनर्थ हो जाएगी।

सबल रू तुम्हारे पिता भी खेती करते हैं घ्

राजेश्वरी रू पहले बहुत दिनों तक टापू में रहै। वहीं मेरा जन्म हुआ। जब वहां की सरकार ने उनकी जमीन छीन ली तो यहां चले आए। तब से खेती—बारी करते हैं। माता का देहांत हो गया। मुझे याद आता हैए कुंदन का—सा रंग था। बहुत सुंदर थीं।

सबल रू समझ गया। (तृष्णापूर्ण नेत्रों से देखकर) तुम्हारा तो इन गंवारों में रहने से जी घबराता होगी। खेती—बारी की मेहनत भी तुम जैसी कोमलांगी सुंदरी को बहुत अखरती होगी।

राजेश्वरी रू (मन में) ऐसे तो बड़े दयालु और सज्जन आदमी हैंए लेकिन निगाह अच्छी नहीं जान पड़ती। इनके साथ कुछ कपट—व्यवहार करना चाहिए । देखूं किस रंग पर चलते हैं। (प्रकट) क्या करूं भाग्य में जो लिखा था। वह हुआ।

सबल रू भाग्य तो अपने हाथ का खेल है। जैसे चाहो वैसा बन सकता है। जब मैं तुम्हारा भक्त हूँ तो तुम्हें किसी बात की चिंता न करनी चाहिए । तुम चाहो तो कोई नौकर रख लो।उसकी तलब मैं दे दूंगाए गांव में रहने की इच्छा न हो तो शहर चलोए हलधर को अपने यहां रख लूंगाए तुम आराम से रहना। तुम्हारे लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूँए केवल तुम्हारी दया—द्रष्टि चाहता हूँ। राजेश्वरीए मेरी इतनी उम्र गुजर गई लेकिन परमात्मा जानते हैं कि आज तक मुझे न मालूम हुआ कि प्रेम क्या वस्तु है। मैं इस रस के स्वाद को जानता ही न था।ए लेकिन जिस दिन से तुमको देखा हैए प्रेमानंद का अनुपम सुख भोग रहा हूँ। तुम्हारी सूरत एक क्षण के लिए भी आंखों से नहीं उतरती। किसी काम में जी नहीं लगताए तुम्हीं चित्त में बसी रहती होए बगीचे में जाता हूँ तो मालूम होता है कि फूललों में तुम्हारी ही सुगंधि हैए श्यामा की चहक सुनता हूँ तो मालूम होता है कि तुम्हारी ही मधुर ध्वनि है। चंद्रमा को देखता हूँ तो जान पड़ता है कि वह तुम्हारी ही मूर्ति है। प्रबल उत्कंठा होती है कि चलकर तुम्हारे चरणों पर सिर झुका दूं। ईश्वर के लिए यह मत समझो कि मैं तुम्हें कलंकित कराना चाहता हूँ। कदापि नहीं ! जिस दिन यह कुभावए यह कुचेष्टाए मन में उत्पन्न होगी उस दिन ह्रदय को चीरकर बाहर फेंक दूंगा। मैं केवल तुम्हारे दर्शन से अपनी आंखों को तृप्त करनाए तुम्हारी सुललित वाणी से अपने श्रवण को मुग्ध करना चाहता हूँ। मेरी यही परमाकांक्षा है कि तुम्हारे निकट रहूँए तुम मुझे अपना प्रेमी और भक्त समझो और मुझसे किसी प्रकार का पर्दा या संकोच न करो। जैसे किसी साफर के निकट के वृक्ष उससे रस खींचकर हरे—भरे रहते हैं उसी प्रकार तुम्हारे समीप रहने से मेरा जीवन आनंदमय हो जाएगी।

चेतनदास भजन गाते हुए दोनों प्राणियों को देखते चले जाते हैं।

राजेश्वरी रू (मन में) मैं इनसे कौशल करना चाहती थी पर न जाने इनकी बातें सुनकर क्यों ह्रदय पुलकित हो रहा है। एक—एक शब्द मेरे ह्रदय में चुभ जाता है। (प्रकट) ठाकुर साहबए एक दीन मजूरी करने वाली स्त्री से ऐसी बातें करके उसका सिर आसमान पर न चढ़़ाइए। मेरा जीवन नष्ट हो जाएगी। आप धर्मात्मा हैंए जसी हैंए दयावान हैं। आज घर—घर आपके जस का बखान हो रहा हैए आपने अपनी प्रजा पर जो दया की है उसकी महिमा मैं नहीं गा सकती। लेकिन ये बातें अगर किसी के कान में पड़ गई तो यही परजाए जो आपके पैरों की धूल माथे पर चढ़़ाने को तरसती हैए आपकी बैरी हो जाएगीए आपके पीछे पड़ जाएगी। अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। मुझे भूल जाइए। संसार में एक—से—एक सुंदर औरतें हैं। मैं गंवारिन हूँ। मजूरी करना मेरा काम है। इन प्रेम की बातों को सुनकर मेरा चित्त ठिकाने न रहेगी। मैं उसे अपने बस में न रख सयंगी। वह चंचल हो जाएगा और न जाने उस अचेत दशा में क्या कर बैठे। उसे फिर नाम कीए कुल कीए निंदा की लाज न रहेगी। प्रेम बढ़़ती हुई नदी है। उसे आप यह नहीं कह सकते कि यहां तक चढ़़नाए इसके आगे नहीं चढ़़ाव होगा तो वह किसी के रोके न रूकेगी। इसलिए मैं आपसे विनती करती हूँ कि यहीं तक रहने दीजिए। मैं अभी तक अपनी दशा में संतुष्ट हूँ। मुझे इसी दशा में रहने दीजिए। अब मुझे देर हो रही हैए जाने दीजिए।

सबल रू राजेश्वरीए प्रेम के मद से मतवाला आदमी उपदेश नहीं सुन सकता। क्या तुम समझती हो कि मैंने बिना सोचे—समझे इस पथ पर पग रखा है। मैं दो महीनों से इसी हैसघ् बैस में हूँ। मैंने नीति काए सदाचरण काए धर्म काए लोकनिंदा का आश्रय लेकर देख लियाए कहीं संतोष न हुआ तब मैंने यह पथ पकड़ा। मेरे जीवन को बनाना—बिगाड़ना अब तुम्हारे ही हाथ है। अगर तुमने मुझ पर तरस न खाया तो अंत यही होगा कि मुझे आत्महत्या जैसा भीषण पाप करना पडे।गाए क्योंकि मेरी दशा असह्य हो गई है। मैं इसी गांव में घर बना लूंगाए यहीं रहूँगाए तुम्हारे लिए भी मकानए धन—संपत्तिए जगह—जमीन किसी पदार्थ की कमी न रहेगी। केवल तुम्हारी स्नेह—द्रष्टि चाहता हूँ।

राजेश्वरी रू (मन में) इनकी बातें सुनकर मेरा चित्त चंचल हुआ जाता है। आप—ही—आप मेरा ह्रदय इनकी ओर खिंचा जाता है। पर यह तो सर्वनाश का मार्ग है। इससे मैं इन्हें कटु वचन सुनाकर यहीं रोक देती हूँ। (प्रकट) आप विद्वान हैंए सज्जन हैंए धर्मात्मा हैंए परोपकारी हैंए और मेरे मन में आपका जितना मान है वह मैं कह नहीं सकती। मैं अब से थोड़ी देर पहले आपको देवता समझती थी। पर आपके मुंह से ऐसी बातें सुनकर दुरू ख होता है। आपसे मैंने अपना हाल साफ—साफ कह दिया । उस पर भी आप वही बातें करते जाते हैं। क्या आप समझते हैं कि मैं अहीर जात और किसान हूँ तो मुझे अपने धरम—करम का कुछ विचार नहीं है और मैं धन और संपत्ति पर अपने धरम को बेच दूंगी घ् आपका यह भरम है। आपको मैं इतनी सिरिद्वा से न देखती होती तो इस समय आप यहां इस तरह बेधड़क मेरे धरम का सत्यानाश करने की बातचीत न करते। एक पुकार पर सारा गांव यहां आ जाता और आपको मालूम हो जाता कि देहात के गंवार अपनी औरतों की लाज कैसे रखते हैं। मैं जिस दशा में भी हूँ संतुष्ट हूँए मुझे किसी वस्तु की तृषना नहीं है। आपका धन आपको मुबारक रहै। आपकी कुशल इसी में है कि अभी आप यहां से चले जाइए। अगर गांव वालों के कानों में इन बातों की जरा भी भनक पड़ी तो वह मुझे तो किसी तरह जीता न छोड़ेंगेए पर आपके भी जान के दुश्मन हो जाएंगी। आपकी दयाए उपकारए सेवा एक भी आपको उनके कोप से न बचा सकेगी।

चली जाती है।

सबल रू (आप—ही—आप) इसकी सम्मत्ति मेरे चित्त को हटाने की जगह और भी बल के साथ अपनी ओर खींचती है। ग्रामीण स्त्रियां भी इतनी —ढ़़ और आत्माभिमानी होती हैंए इसका मुझे ज्ञान न था।अबोध बालक को जिस काम के लिए मना करोए वही अदबदाकर करता है। मेरे चित्त की दशा उसी बालक के समान है। वह अवहेलना से हतोत्साह नहींए वरन्‌ और भी उत्तेजित होता है।

प्रस्थान।

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छठा द्रश्य

स्थान रू मधुबन गांव।

समय रू गागुन का अंतए तीसरा पहरए गांव के लोग बैठे बातें कर रहे हैं।

एक किसान रू बेगार तो सब बंद हो गई थी। अब यह दहलाई की बेगार क्यों मांगी जाती है घ्

फत्तू रू जमींदार की मर्जी। उसी ने अपने हुक्म से बेगार बंद की थी। वही अपने हुक्म से जारी करता है।

हलधर रू यह किस बात पर चिढ़़ गए घ् अभी तो चार—ही—पांच दिन होते हैंए तमाशा दिखाकर कर गए हैं। हम लोगों ने उनके सेवा—सत्कार में तो कोई बात उठा नहीं रखी।

फत्तू रू भाईए राजा ठाकुर हैंए उनका मिजाज बदलता रहता है। आज किसी पर खुश हो गए तो उसे निहाल कर दियाए कल नाखुश हो गए तो हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया । मन की बात है।

हलधर रू अकारन ही थोड़े किसी का मिजाज बदलता है। वह तो कहते थेए अब तुम लोग हाकिम—हुक्काम किसी को भी बेगार मत देना। जो कुछ होगा मैं देख लूंगा। कहां आज यह हुकुम निकाल दिया । जरूर कोई बात मर्जी के खिलाफ हुई है।

फत्तू रू हुई होगी। कौन जाने घर ही में किसी ने कहा होए असामी अब सेर हो गएए तुम्हें बात भी न पूछेंगे।इन्होंने कहा हो कि सेर कैसे हो जाएंगेए देखो अभी बेगार लेकर दिखा देते हैं। या कौन जाने कोई काम—काज आ पड़ा होए अरहर भरी रखी होए दलवा कर बेच देना चाहते हों।

कई आदमी रू हांए ऐसी ही कोई बात होगी। जो हुकुम देंगे वह बजाना ही पड़ेगाए नहीं तो रहेंगे कहां!

एक किसान रू और जो बेगार न दें तो क्या करें घ्

फत्तू रू करने की एक ही कही। नाक में दम कर देंए रहना मुसकिल हो जाए। अरे और कुछ न करें लगान की रसीद ही न दें तो उनका क्या बना लोगे घ् कहां फरियाद ले जाओगे और कौन सुनेगा घ् कचहरी कहां तक दौड़ोगे घ् फिर वहां भी उनके सामने तुम्हारी कौन सुनेगा !

कई आदमी रू आजकल मरने की छुट्टी ही नहीं हैए कचहरी कौन दौड़ेगा घ् खेती तैयार खड़ी हैए इधर ऊख बोना हैए फिर अनाज मांड़ना पड़ेगा। कचहरी के धक्के खाने से तो यही अच्छा है कि जमींदार जो कहेए वही बजाएं।

फत्तू रू घर पीछे एक औरत जानी चाहिए । बुढ़़ियों को छांटकर भेजा जाए।

हलधर रू सबके घर बुढ़़िया कहां घ्

फत्तू रू तो बहू—बेटीयों को भेजने की सलाह मैं न दूंगा।

हलधर रू वहां इसका कौन खटका है घ्

फत्तू रू तुम क्या जानोए सिपाही हैंए चपरासी हैंए क्या वहां सब—के—सब देवता ही बैठे हैं। पहले की बात दूसरी थी।

एक किसान रू हांए यह बात ठीक है। मैं तो अम्मां को भेज दूंगा।

हलधर रू मैं कहां से अम्मां लाऊँ घ्

फत्तू रू गांव में जितने घर हैं क्या उतनी बुढ़़िया न होंगी। गिनो एक—दो—तीनए राजा की मां चारए उस टोले में पांचए पच्छिम ओर सातए मेरी तरफ नौरू कुल पच्चीस बुढ़़ियां हैं।

हलधर रू घर कितने होंगे घ्

फत्तू रू घर तो अबकी मरदुमसुमारी में तीस थे।कह दिया जाएगाए पांच घरों में कोई औरत ही नहीं हैए हुकुम हो तो मर्द ही हाजिर हों।

हलधर रू मेरी ओर से कौन बुढ़़िया जाएगी घ्

फत्तू रू सलोनी काकी को भेज दो। लो वह आप ही आ गई।

सलोनी आती है।

फत्तू रू अरे सलोनी काकीए तुझे जमींदार की दलहाई में जाना पड़ेगा।

सलोनी रू जाय नौजए जमींदार के मुंह में लूका लगेए मैं उसका क्या चाहती हूँ कि बेगार लेगी। एक धुर जमीन भी तो नहीं है। और बेगार तो उसने बंद कर दी थी घ्

फत्तू रू जाना पड़ेगाए उसके गांव में रहती हो कि नहीं घ्

सलोनी रू गांव उसके पुरखों का नहीं हैए हां नहीं तो। फतुआए मुझे चिढ़़ा मतए नहीं कुछ कह बैठूंगी।

फत्तू रू जैसे गा—गाकर चक्की पीसती हो उसी तरह गा—गाकर दाल दलना। बता कौन गीत गाओगी घ्

सलोनी रू डाढ़़ीजारए मुझे चिढ़़ा मतए नहीं तो गाली दे दूंगी। मेरी गोद का खेला लौंडा मुझे चिढ़़ाता है।

फत्तू रू कुछ तू ही थोड़े जाएगी। गांव की सभी बुढ़़ियां जाएंगी।

सलोनी रू गंगा—असनान है क्या घ् पहले तो बुढ़़ियां छांटकर न जाती थीं।मैं उमिर—भर कभी नहीं गई। अब क्या बहुओं को पर्दा लगा है। गहने गढ़़ा—गढ़़ा कर तो वह पहनेंए बेगार करने बुढ़़ियां जाएं।

फत्तू रू अबकी कुछ ऐसी ही बात आ पड़ी है। हलधर के घर कोई बुढ़़िया नहीं है। उसकी घरवाली कल की बहुरिया हैए जा नहीं सकती। उसकी ओर से चली जा।

सलोनी रू हांए उसकी जगह पर चली जाऊँगी। बेचारी मेरी बड़ी सेवा करती है। जब जाती हूँ तो बिना सिर में तेल डाले और हाथ—पैर दबाए नहीं आने देती। लेकिन बहली जुता देगा न घ्

फत्तू रू बेगार करने रथ पर बैठकर जाएगी।

हलधर रू नहीं काकीए मैं बहली जुता दूंगा। सबसे अच्छी बहली में तुम बैठना।

सलोनी रू बेटाए तेरी बड़ी उम्मिर होए जुग—जुग जी। बहली में ढ़ोल—मजीरा रख देना। गाती बजाती जाऊँगी।

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सातवां द्रश्य

समय रू संध्या।

स्थान रू मधुबन। ओले पड़ गए हैं। गांव के स्त्री—पुरूष खेतों में जमा हैं।

फत्तू रू अल्लाह ने परसीघ् —परसायी थाली छीन ली।

हलधर रू बना—बनाया खेल बिगड़ गया।

फत्तू रू छावत लागत छह बरस और छिन में होत उजाड़ब कई साल के बाद तो अबकी खेती जरा रंग पर आई थी। कल इन खेतों को देखकर कैसी गज—भर की छाती हो जाती थी। ऐसा जान पड़ता था।ए सोना बिछा दिया गया है। बित्ते—बित्ते भर की बालें लहराती थींए पर अल्लाह ने मारा सब सत्यानाश कर दिया । बाग में निकल जाते थे तो बौर की महक से चित्त खिल उठता था।पर आज बौर की कौन कहे पत्ते तक झड़ गए।

एक वृद्व किसान रू मेरी याद में इतने बड़े—बड़े ओले कभी न पड़े थे।

हलधर रू मैंने इतने बड़े ओले देखे ही न थेए जैसे चट्टान काट—काटकर लुढ़़का दिया गया होए

फत्तू रू तुम अभी हो कै दिन के घ् मैंने भी इतने बड़े ओले नहीं

देखे।

एक वृद्व किसान रू एक बेर मेरी जवानी में इतने बड़े ओले गिरे थे कि सैकड़ों ढ़ोर मर गए। जिधर देखो मरी हुई चिड़ियां गिरी मिलती थीं।कितने ही पेड़ फिर पड़े। पक्की छतें तक गट गई थीं।बखारों में अनाज सड़ गएए रसोई में बर्तन चकनाचूर हो गए। मुदा अनाज की मड़ाई हो चुकी थी। इतना नुकसान नहीं हुआ था।

सलोनी रू मुझे तो मालूम होता है कि जमींदार की नीयत बिगड़ गई हैए तभी ऐसी तबाही हुई है।

राजेश्वरी रू काकीए भगवान न जाने क्या करने वाले हैं। बार—बार मने करती थी कि अभी महाजन से रूपये न लो।लेकिन मेरी कौन सुनता है। दौड़े—दौड़े गए दो सौ रूपये उठा लाएए जैसे धरोहर होए देखें अब कहां से देते हैं। लगान उसपर से देना है। पेट तो मजूरी करके मर जाएगाए लेकिन महाजन से कैसे गला छूटेगा घ्

हलधर रू भला पूछा तो काकीए कौन जानता था। कि क्या सुदनी हैं। आगम देख के तब रूपये लिए थे।यह आगत न आ जाती तो एक सौ रूपये का तो अकेले तेलहन निकल जाता। छाती—भर गेहूँ खड़ा था।

फत्तू रू अब तो जो होना था। वह हो गया। पछताने से क्या हाथ आएगा घ्

राजेश्वरी रू आदमी ऐसा काम ही क्यों करे कि पीछे से पछताना पड़े।

सलोनी रू मेरी सलाह मानोए सब जने जाकर ठाकुर से फरियाद करो कि लगान की माफीहो जाए। दयावान आदमी हैं। मुझे तो बिस्सास है कि मांग कर देंगे। दलहाई की बेगार में हम लोगों से बड़े प्रेम से बातें करते रहै। किसी को छटांक—भर भी दाल न दलने दीब पछताते रहे कि नाहक तुम लोगों को दिक किया। मुझसे बड़ी भूल हुई मैं तो फिर कहूँगी कि आदमी नहीं देवता हैं।

फत्तू रू जमींदार के माफकरने से थोड़े माफीहोती है( जब सरकार माफकरे तब न घ् नहीं तो जमींदार को मालगुजारी घर से चुकानी पड़ेगी। तो सरकार से इसकी कोई आशा नहीं अमले लोग तहकीकात करने को भेजे जाएंगी। वह असामियों से खूब रिसवत पाएंगे तो नुकसान दिखाएंगेए नहीं तो लिख देंगे ज्यादा नकसान नहीं हुआ। सरकार बहुत करेगी चार आने की छूट कर देगी। जब बारह आने देने ही पड़ेंगे तो चार आने और सही। रिसवत और कचहरी की दौड़ से तो बच जाएंगी। सरकार को अपना खजाना भरने से मतलब है कि परजा को पालने सेब सोचती होगीए यह सब न रहेंगे तो इनके और भाई तो रहेंगे ही। जमीन परती थोड़े पड़ी रहेगी।

एक वृद्व किसान रू सरकार एक पैसा भी न छोड़ेगी। इस साल कुछ छोड़ भी देगी तो अगले साल सूद समेत वसूल कर लेगी।

फत्तू रू बहुत निगाह करेगी तो तकाबी मंजूर कर देगी। उसका भी सूद लेगी। हर बहाने से रूपया खींचती है। कचहरी में झूठी कोई दरखास देने जाओ तो बिना टके खर्च किए सुनाई नहीं होती। अफीम सरकार बेचेए दाईए गांजाए भांगए मदकए चरस सरकार बेचे। और तो और नोन तक बेचती है। इस तरह रूपया न खींचे तो अफसरों की बड़ी—बड़ी तलब कहां से दे ! कोई एक लाख पाता हैए कोई दो लाखए कोई तीन लाख। हमारे यहां जिसके पास लाख रूपये होते हैं वह लखपती कहलाता हैए मारे घमंड के सीधे ताकता नहीं सरकार के नौकरों की एक—एक साल की तलब दो—दो लाख होती है। भला वह लगान की एक पाई भी न छोड़ेगी।

हलधर रू बिना सुराज मिले हमारी दसा न सुधरेगी। अपना राज होता तो इस कठिन समय में अपनी मदद करता।

फत्तू रू मदद करेंगे ! देखते हो जब से दाईए अफीम की बिक्री बंद हो गई है अमले लोग नसे का कैसा बखान करते गिरते हैं। कुरान शरीफ में नसा हराम लिखा हैए और सरकार चाहती है कि देस नसेबाज हो जाए। सुना हैए साहब ने आजकल हुकुम दे दिया है कि जो लोग खुद अफीम—सराब पीते हों और दूसरों को पीने की सलाह देते होंए उनका नाम खैरखाहों में लिख लिया जाए। जो लोग पहले पीते थेए अब छोड़ बैठे हैंए या दूसरों को पीना मना करते हैंए उनका नाम बागियों में लिखा जाता है।

हलधर रू इतने सारे रूपये क्या तलबों में ही उठ जाते हैं घ्

राजेश्वरी रू गहने बनवाते हैं।

फत्तू रू ठीक तो कहती हैं। क्या सरकार के जोई—बच्चे नहीं हैं घ् इतनी बड़ी फौज बिना रूपये के ही रखी है ! एक—एक तोप लाखों में आती है। हवाई जहाज कई—कई लाख के होते हैं। सिपाहियों को सर्च के लिए हवा—गाड़ी चाहिए । जो खाना यहां रईसों को मयस्सर नहीं होता वह सिपाहियों को खिलाया जाता है। साल में छरू महीने सब बड़े—बड़े हाकिम पहाड़ों की सैर करते हैं। देखते तो हो छोटे—छोटे हाकिम भी बादशाहों की तरह ठाट से रहते हैंए अकेली जान पर दस—पंद्रह नौकर रखते हैंए एक पूरा बंगला रहने को चाहिए । जितना बड़ा हमारा गांव है उससे ज्यादा जमीन एक बंगले के हाते में होती है। सुनते हैंए दस रूपये—बीस रूपये बोतल की शराब पीते हैं। हमको—तुमको भरपेट रोटीयां नहीं नसीब होतींए वहां रात—दिन रंग चढ़़ा रहता है। हम—तुम रेलगाड़ी में धक्के खाते हैं। एक—एक डब्बे में जहां दस की जगह है वहां बीसए पच्चीसए तीसए चालीस ठूंस दिए जाते हैं। हाकिमों के वास्ते सभी सजी—सजाई गाड़ियां रहती हैंए आराम से गद्दी पर लेटे हुए चले जाते हैं। रेलगाड़ी को जितना हम किसानों से मिलता है उसका एक हिस्सा भी उन लोगों से न मिलता होगी। मगर तिस पर भी हमारी कहीं पूछ नहीं जमाने की खूबी है !

हलधर रू सुना हैए मेमें अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाती।

फत्तू रू सो ठीक हैए दूध पिलाने से औरत का शरीर ढ़ीला हो जाता हैए वह फुरती नहीं रहती। दाइयां रख लेते हैं। वही बच्चों को पालती—पोसती हैं। मां खाली देखभाल करती रहती हैं। लूट है लूट!

सलोनी रू दरखास दो( मेरा मन कहता हैए छूट हो जाएगी।)

फत्तू रू कह तो दियाए दो—चार आने की छूट हुई भी तो बरसों लग जाएंगी। पहले पटवारी कागद बनाएगाए उसको पूजो( तब कानूगो जांच करेगाए उसको पूजो( तब तहसीलदार नजर सानी करेगाए उसको पूजो( तब डिप्टी के सामने कागद पेस होगाए उसको पूजो( वहां से तब बड़े साहब के इजलास में जाएगाए वहां अहलमद और अरदली और नाजिर सभी को पूजना पड़ेगा। बड़े साहब कमसनर को रपोट देंगेए वहां भी कुछ—न—कुछ पूजा करनी पड़ेगी। इस तरह मंजूरी होतेघ् होते एक जुग बीत जाएगी। इन सब झंझटों से तो यही अच्छा है किरू

रहिमन चुप तै बैठिए देखि दिनन को फेर।

जब नीके दिन आइहैं बनत न लगिहै बेर।।

हलधर रू मुझे तो साठ रूपये लगान देने हैं। बैल—बधिया बिक जाएंगे तब भी पूरा न पड़ेगा।

किसान रू बचेंगे किसके ! अभी साल—भर खाने को चाहिए । देखोए गेहूँ के दाने कैसे बिखरे पड़े हैं जैसे किसी ने मसल दिए हों।

हलधर रू क्या करना होगाघ्

राजेश्वरी रू होगा क्याए जैसी करनी वैसी भरनी होगी। तुम तो खेत में बाल लगते ही बावले हो गए। लगान तो था। हीए उसपर से महाजन का बोझ भी सिर पर लाद लिया।

फत्तू रू तुम मैके चली जाना। हम दोनों जाकर कहीं मजूरी करेंगी। अच्छा काम मिल गया तो साल—भर में डोंगा पार है।

राजेश्वरी रू हांए और क्याए गहने तो मैंने पहने हैंए गाय का दूध मैंने खाया हैए बरसी मेरे ससुर की हुई हैए अब जो भरौती के दिन आए तो मैं मैके भाग जाऊँ। यह मेरा किया न होगी। तुम लोग जहां जानाए वहीं मुझे भी लेते चलना। और कुछ न होगा तो पकी—पकाई रोटीयां तो मिल जाएंगी।

सलोनी रू बेटीए तूने यह बात मेरे मन की कही। कुलवंती नारी के यही लच्छन हैं। मुझे भी अपने साथ लेती चलना।

गाती है।

चलो पटने की देखो बहारए सहर गुलजार रे।

फत्तू रू हांए दाईए खूब गाए गाने का यही अवसर है। सुख में तो सभी गाते हैं।

सलोनी रू और क्या बेटाए अब तो जो होना था।ए हो गया। रोने से लौट थोड़े ही आएगी।

गाती है।

उसी पटने में तमोलिया बसत है।

बीड़ों की अजब बहार रे।

पटना शहर गुलजार रे।।

फत्तू रू काकी का गाना तानसेन सुनता तो कानों पर हाथ रखता। हांए दाई !

सलोनी रू (गाती है)

उसी पटने में बजजवा बसत है।।

कैसी सुंदर लगी है बजार रे।

पटना सहर गुलजार रे।।

फत्तू रू बस एक कड़ी और गा दे काकी ! तेरे हाथ जोड़ता हूँ। जी बहल गया।

सलोनी रू जिसे देखो गाने को ही कहता हैए कोई यह नहीं पूछता कि बुढ़़िया कुछ खाती—पीती भी है या आसिरवादों से ही जीती है।

राजेश्वरी रू चलोए मेरे घर काकीए क्या खाओगी घ्

सलोनी रू हलधरए तू इस हीरे को डिबिया में बंद कर लेए ऐसा न हो किसी की नजर लग जाए। हां बेटीए क्या खिलाएगी घ्

राजेश्वरी रू जो तुम्हारी इच्छा होए

सलोनी रू भरपेट घ्

राजेश्वरी रू हांए और क्या घ्

सलोनी रू बेटीए तुम्हारे खिलाने से अब मेरा पेट न भरेगी। मेरा पेट भरता था। जब रूपये का पसेरी—भर घी मिलता था।अब तो पेट ही नहीं भरता। चार पसेरी अनाज पीसकर जांत पर से उठाती थी। चार पसेरी की रोटीयां पकाकर चौके से निकलती थी। अब बहुएं आती हैं तो चूल्हे के सामने जाते उनको ताप चढ़़ आती हैए चक्की पर बैठते ही सिर में पीड़ा होने लगती है। खाने को तो मिलता नहींए बल—बूता कहां से आए। न जाने उपज ही नहीं होती कि कोई ढ़ो ले जाता है। बीस मन का बीघा उतरता था।बीस रूपये भी हाथ में आ जाते थेए तो पछाई बैलों की जोड़ी द्वार पर बंध जाती थी। अब देखने को रूपये तो बहुत मिलते हैं पर ओले की तरह देखते—देखते फल जाते हैं। अब तो भिखारी को भीख देना भी लोगों को अखरता है।

फत्तू रू सच कहना काकीए तुम काका को मुट्ठी में दबा लेती थी कि नहीं घ्

सलोनी रू चलए उनका जोड़ दस—बीस गांव में न था।तुझे तो होस आता होगाए कैसा डील—डौल था।चुटकी से सुपारी गोड़ देते थे।

गाती है।

चलो—चलो सखी अब जानाए

पिया भेज दिया परवाना। (टेक)

एक दूत जबर चल आयाए सब लस्कर संग सजाया री।

किया बीच नगर के थानाए

गढ़़ कोट—किले गिरवाएए सब द्वार बंद करवाए री।

अब किस विधि होय रहाना।

जब दूत महल में आवेए तुझे तुरत पकड़ ले जावे री।

तेरा चले न एक बहाना।

पिया भेज दिया परवाना।

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अंक 2

पहला द्रश्य

स्थान रू चेतनदास की कुटीए गंगातट।

समय रू संध्या।

सबल रू महाराजए मनोवृत्तियों के दमन करने का सबसे सरल उपाय क्या है घ्

चेतनदास रू उपाय बहुत हैंए किंतु मैं मनोवृत्तियों के दमन करने का उपदेश नहीं करता। उनको दमन करने से आत्मा संकुचित हो जाती है। आत्मा को ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान प्राप्त होता है। यदि इन्द्रियों का दमन कर दिया जाए तो मनुष्य की चेतना—शक्ति लुप्त हो जाएगी। योगियों ने इच्छाओं को रोकने के लिए कितने यत्न लिखे हैं। हमारे योगग्रंथ उन उपदेशों से परिपूर्ण हैं। मैं इन्द्रियों का दमन करना अस्वाभाविकए हानिकर और आपत्तिजनक समझता हूँ।

सबल रू (मन में) आदमी तो विचारशील जान पड़ता है। मैं इसे रंगा हुआ समझता था।(प्रकट) यूरोप के तभवज्ञानियों ने कहीं—कहीं इस विचार का पुष्टीकरण किया हैए पर अब तक मैं उन विचारों को भ्रांतिकारक समझता था।आज आपके श्रीमुख से उनका समर्थन सुनकर मेरे कितने ही निश्चित सिद्वांतों को आघात पहुंच रहा है।

चेतनदास रू इंद्रियों द्वारा ही हमको जगत्‌ का ज्ञान प्राप्त होता है। वृत्तियों का दमन कर देने से ज्ञान का एकमात्र द्वार ही बंद हो जाता है। अनुभवहीन आत्मा कदापि उच्च पद नहीं प्राप्त कर सकती। अनुभव का द्वार बंद करना विकास का मार्ग बंद करना हैए प्रकृति के सब नियमों के कार्य में बाधा डालना है। आत्मा मोक्षपद प्राप्त कर सकती है। जिसने अपने ज्ञान द्वारा इंद्रियों को मुक्त रखा होए त्याग का महत्व आडान में नहीं है। जिसने मधुर संगीत सुना ही न हो उसे संगीत की रूचि न हो तो कोई आश्चर्य नहीं आश्चर्य तो तब है जब वह संगीतकला का भली—भांति आस्वादन करनेए उसमें लिप्त होने के बाद वृत्तियों को उधर से हटा ले। वृत्तियों का दमन करना वैसा ही है जैसे बालको को खड़े होने या दौड़ने से रोकना। ऐसे बालक को चोट चाहे न लगे पर वह अवश्य ही अपंग हो जाएगी।

सबल रू (मन में) कितने स्वाधीन और मौलिक विचार हैं। (प्रकट) तब तो आपके विचार में हमें अपनी इच्छाओं को अबाध्य कर देना चाहिए ।

चेतनदास रू मैं तो यहां तक कहता हूँ कि आत्मा के विकास में पापों का भी मूल्य है। उज्ज्वल प्रकाश सात रंगों के सम्मिश्रण से बनता है। उसमें लाल रंग का महत्व उतना ही है जितना नीले या पीले रंग का। उत्तम भोजन वही है जिसमें षट्रसों का सम्मिश्रण होए इच्छाओं को दमन करोए मनोवृत्तियों को रोकोए यह मिथ्या तभववादियों के ढ़कोसले हैं। यह सब अबोध बालकों को डराने के जू—जू हैं। नदी के तट पर न जाओए नहीं तो डूब जाओगेए यह मूर्ख माता—पिता की शिक्षा है। विचारशील प्राणी अपने बालको को नदी के तट पर केवल ले ही नहीं जाते वरन्‌ उसे नदी में प्रविष्ट कराते हैंए उसे तैरना सिखाते हैं।

सबल रू (मन में) कितनी मधुर वाणी है। वास्तव में प्रेम चाहे कलुषित ही क्यों न होए चरित्र—निर्माण में अवश्य अपना स्थान रखता है। (प्रकट) तो पाप कोई घृणित वस्तु नहीं घ्

चेतनदास रू कदापि नहीं संसार में कोई वस्तु घृणित नहीं हैए कोई वस्तु त्याज्य नहीं है। मनुष्य अहंकार के वश होकर अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है। वास्तव में धर्म और अधर्मए सुविचार और कुविचारए पाप और पुण्यए यह सब मानव जीवन की मध्यवर्ती अवस्थाएं मात्र हैं।

सबल रू (मन में) कितना उदार ह्रदय है ! (प्रकट) महाराजए आपके उपदेश से मेरे संतप्त मन को बड़ी शांति प्राप्त हुई (प्रस्थान)।

चेतनदास रू (आप—ही—आप) इस जिज्ञासा का आशय खूब समझता हूँ। तुम्हारी अशांति का रहस्य खूब जानता हूँ। तुम फिसल रहे थेए मैंने एक धक्का और दे दिया । अब तुम नहीं संभल सकते।

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दूसरा द्रश्य

समय रू संध्या।

स्थान रू सबलसिंह की बैठक।

सबल रू (आप—ही—आप) मैं चेतनदास को धूर्त समझता था।ए पर यह तो ज्ञानी महात्मा निकले। कितना तेज और शौर्य है ! ज्ञानी उनके दर्शनों को लालायित है। क्या हर्ज है ! ऐसे आत्म—ज्ञानी पुरूषों के दर्शन से कुछ उपदेश ही मिलेगी।

कंचनसिंह का प्रवेश।

कंचन रू (तार दिखाकर) दोनों जगह हार हुई पूना में घोड़ा कट गया। लखनऊ में जाकी घोड़े से फिर पड़ा।

सबल रू यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई। कोई पांच हजार का नुकसान हो गया।

कंचन रू गल्ले का बाजार चढ़़ गया। अगर अपना गेहूँ दस दिन और न बेचता तो दो हजार साफ निकल आते।

सबल रू पर आगम कौन जानता था।

कंचन रू असामियों से एक कौड़ी वसूल होने की आशा नहीं सुना है कई असामी घर छोड़कर भागने की तैयारी कर रहे हैं। बैल—बधिया बेचकर जाएंगी। कब तक लौटेंगेए कौन जानता है। मरेंए जिएंए न जाने क्या हो ! यत्न न किया गया तो ये सब रूपये भी मारे जाएंगी। पांच हजार के माथे जाएगी। मेरी राय है कि उन पर डिगरी कराके जायदादें नीलाम करा ली जाएं। असामी सब—के—सब मातबर हैं( लेकिन ओलों ने तबाह कर दिया ।

सबल रू उनके नाम याद हैं घ्

कंचन रू सबके नाम तो नहींए लेकिन दस—पांच नाम छांट लिए हैं। जगरांव का लल्लूए तुलसीए भूगोरए मधुबन का सीताए नब्बीए हलधरए चिरौंजी।

सबल रू (चौंककर) हलधर के जिम्मे कितने रूपये हैं घ्

कंचन रू सूद मिलाकर कोई दो सौ पचास होंगी।

सबल रू (मन में) बडी विकट समस्या हैृ मेरे ही हाथों उसे यह कष्ट पहुंचे ! इसके पहले मैं इन हाथों को ही काट डालूंगा। उसकी एक दया—द्रष्टि पर ऐसे—ऐसे कई ढ़ाई सौ न्यौछावर हैं। वह मेरी हैए उसे ईश्वर ने मेरे लिए बनाया हैए नहीं तो मेरे मन में उसकी लगन क्यों होती। समाज के अनर्गल नियमों ने उसके और मेरे बीच यह लोहे की दीवार खड़ी कर दी है। मैं इस दीवार को खोद डालूंगा। इस कांटे को निकालकर फूलको गले में डाल लूंगा। सांप को हटाकर मणि को अपने ह्रदय में रख लूंगा। (प्रकट) और असामियों की जायदाद नीलाम करा सकते होए हलधर की जायदाद नीलाम कराने के बदले मैं उसे कुछ दिनों हिरासत की हवा खिलाना चाहता हूँ। वह बदमाश आदमी हैए गांव वालों को भडकाता है कुछ दिन जेल में रहेगा तो उसका मिजाज ठंडा हो जाएगा।

कंचन रू हलधर देखने में तो बडा सीधा और भोला आदमी मालूम होता है

सबल रू बना हुआ है तुम अभी उसके हथकंडों को नहीं जानते। मुनीम से कह देनाए वह सब कार्रवाई कर देगी। तुम्हें अदालत में जाने की जरूरत नहीं।

कंचनसिंह का प्रस्थान।

सबल रू (आप—ही—आप) ज्ञानियों ने सत्य ही कहा — श् है कि काम के वश में पड़कर मनुष्य की विद्याए विवेक सब नष्ट हो जाते हैं। यदि वह नीच प्रकृति है तो मनमाना अत्याचार करके अपनी तृष्णा को पूरी करता है( यदि विचारशील है तो कपट—नीति से अपना मनोरथ सिद्व करता है। इसे प्रेम नहीं कहतेए यह है काम—लिप्सा। प्रेम पवित्रए उज्ज्वलए स्वार्थ—रहितए सेवामयए वासना—रहित वस्तु है। प्रेम वास्तव में ज्ञान है। प्रेम से संसार सृष्टि हुईए प्रेम से ही उसका पालन होता है। यह ईश्वरीय प्रेम है। मानव—प्रेम वह है जो जीव—मात्र को एक समझेए जो आत्मा की व्यापकता को चरितार्थ करेए जो प्रत्येक अणु में परमात्मा का स्वरूप देखेए जिसे अनुभूत हो कि प्राणी—मात्र एक ही प्रकाश की ज्योति है। प्रेम उसे कहते हैं। प्रेम के शेष जितने रूप हैंए सब स्वार्थमयए पापमय हैं। ऐसे कोढ़़ी को देखकर जिसके शरीर में कीड़े पड़ गए हों अगर हम विडल हो जाएं और उसे तुरंत गले लगा लें तो वह प्रेम है। सुंदरए मनोहर स्वरूप को देखकर सभी का चित्त आकर्षित होता हैए किसी का कमए किसी का ज्यादा। जो साधनहीन हैंए द्रियाहीन हैंए या पौरूषहीन हैं वे कलेजे पर हाथ रखकर रह जाते हैं और दो—एक दिन में भूल जाते हैं। जो सम्पन्न हैंए चतुर हैंए साहसी हैंए उद्योगशील हैंए वह पीछे पड़ जाते हैं और अभीष्ट लाभ करके ही दम लेते हैं। यही कारण है कि प्रेम—वृत्ति अपने सामर्थ्‌य के बाहर बहुत कम जाती है। बाजार की लड़की कितनी ही सर्वगुणपूर्ण हो पर मेरी वृत्ति उधर जाने का नाम न लेगी। वह जानती है कि वहां मेरी दाल न गलेगी। राजेश्वरी के विषय में मुझे संशय न था।वहां भयए प्रलोभनए नृशंसताए किसी युक्ति का प्रयोग किया जा सकता था।अंत मेंए यदि ये सब युक्तियां विफल होतीं तो।

अचलसिंह का प्रवेश।

अचल रू दादाजीए देखिए नौकर बड़ी गुस्ताखी करता है। अभी मैं फुटबाल देखकर आया हूँए कहता हूँए जूता उतार देए लेकिन वह लालटेन साफ कर रहा हैए सुनता ही नहीं आप मुझे कोई अलग एक नौकर दे दीजिएए जो मेरे काम के सिवा और किसी का काम न करे।

सबल रू (मुस्कराकर) मैं भी एक गिलास पानी मागूं तो न दे घ्

अचल रू आप हंसकर टाल देते हैंए मुझे तकलीफ होती है। मैं जाता हूँए इसे खूब पीटता हूँ।

सबल रू बेटाए वह काम भी तो तुम्हारा ही है। कमरे में रोशनी न होती तो उसके सिर होते कि अब तक लालटेन क्यों नहीं जलाई। क्या हर्ज हैए आज अपने ही हाथ से जूते उतार लो।तुमने देखा होगाए जरूरत पड़ने पर लेडियां तक अपने बक्स उठा लेती हैं। जब बम्बे मेल आती है तो जरा स्टेशन पर देखो।

अचल रू आज अपने जूते उतार लूंए कल को जूतों में रोगन भी आप ही लगा लूंए वह भी तो मेरा ही काम हैए फिर खुद ही कमरे की सगाई भी करने लगूं( अपने हाथों टब भी भरने लगूंए धोती भी छांटने लगूं।

सबल रू नहींए यह सब करने को मैं नहीं कहताए लेकिन अगर किसी दिन नौकर न मौजूद हो तो जूता उतार लेने में कोई हानि नहीं है।

अचल रू जी हांए मुझे यह मालूम है( मैं तो यहां तक मानता हूँ कि एक मनुष्य को अपने दूसरे भाई से सेवा—टहल कराने का कोई अधिकार ही नहीं है। यहां तक कि साबरमती आश्रम में लोग अपने हाथों अपना चौका लगाते हैंए अपने बर्तन मांजते हैं और अपने कपड़े तक धो लेते हैं। मुझे इसमें कोई उज्र या इंकार नहीं हैए मगर तब आप ही कहने लगेंगेरू बदनामी होती हैए शर्म की बात हैए और अम्मांजी की तो नाक ही कटने लगेगी। मैं जानता हूँ नौकरों के अधीन होना अच्छी आदत नहीं है। अभी कल ही हम लोग कण्व स्थान गए थे।हमारे मास्टर थे और पंद्रह लड़के ग्यारह बजे दिन को धूप में चले। छतरी किसी के पास नहीं रहने दी गई। हांए लोटा—डोर साथ था।कोई एक बजे वहां पहुंचे। कुछ देर पेड़ के नीचे दम लिया। तब ताला। में स्नान किया। भोजन बनाने की ठहरी। घर से कोई भोजन करके नहीं गया था।फिर क्या थाए कोई गांव से जिंस लाने दौड़ाए कोई उपले बटोरने लगाए दो—तीन लड़के पेड़ों पर चढ़़कर लकड़ी तोड़ लाएए कुम्हार के घर से हांडियां और घड़े आए। पत्तों के पत्तल हमने खुद बनाए। आलू का भर्ता और बाटीयां बनाई गई।खाते—पकाते चार बज गए। घर लौटने की ठहरी। छरू बजते—बजते यहां आ पहुंचे। मैंने खुद पानी खींचाए खुद उपले बटोरे। एक प्रकार का आनंद और उत्साह मालूम हो रहा था।यह टी्रप (क्षमा कीजिएगा अंग्रेजी शब्द निकल गया। ) चक्कर इसीलिए तो लगाया गया था। जिसमें हम जरूरत पड़ने पर सब काम अपने हाथों से कर सकेंए नौकरों के मोहताज न रहैं।

सबल रू इस चक्कर का हाल सुनकर मुझे बड़ी खुशी हुई अब ऐसे गस्त की ठहरे तो मुझसे भी कहनाए मैं भी चलूंगा। तुम्हारे अध्यापक महाशय को मेरे चलने में कोई आपत्ति तो न होगी घ्

अचल रू (हंसकर) वहां आप क्या कीजिएगाए पानी खींचिएगा घ्

सबल रू क्योंए कोई ऐसा मुश्किल काम नहीं है।

अचल रू इन नौकरों में दो—चार अलग कर दिए जाएं तो अच्छा होए इन्हें देखकर खामखाह कुछ—न—कुछ काम लेने का जी चाहता है। कोई आदमी सामने न हो तो आल्मारी से खुद किता। निकाल लाता हूँए लेकिन कोई रहता है तो खुद नहीं उठताए उसी को उठाता हूँ। आदमी कम हो जाएंगे तो यह आदत छूट जाएगी।

सबल रू हांए तुम्हारा यह प्रस्ताव बहुत अच्छा है। इस पर विचार करूंगा। देखोए नौकर खाली हो गयाए जाओ जूते खुलवा लो।

अचल रू जी नहींए अब मैं कभी नौकर से जूता उतरवाऊँगा ही नहींए और न पहनूंगी। खुद ही पहन लूंगाए उतार लूंगा। आपने इशारा कर दिया वह काफी है।

चला जाता है।

सबल रू (मन में) ईश्वर तुम्हें चिरायु करेंए तुम होनहार देख पड़ते होए लेकिन कौन जानता हैए आगे चलकर क्या रंग पकड़ोगी। मैं आज के तीन महीने पहले अपनी सच्चरित्रता पर घमंड करता था।वह घमंड एक क्षण में चूरघ् चूर हो गया। खैर होगा अगर और अब देनदारों पर दावा न होए केवल हलधर ही पर किया जाए तो घोर अन्याय होगी। मैं चाहता हूँ दावे सभी पर किए जाएंए लेकिन जायदाद किसी की नीलाम न कराई जाए। असामियों को जब मालूम हो जाएगा कि हमने घर छोड़ा और जायदाद गई तो वह कभी न जाएंगी। उनके भागने का एक कारण यह भी होगा कि लगान कहां से देंगे।मैं लगान मुआग कर दूं तो कैसा होए मेरा ऐसा ज्यादा नुकसान न होगी। इलाके में सब जगह तो ओले गिरे नहीं हैं। सिर्ग दो—तीन गांवों में गिरे हैंए पांच हजार रूपये का मुआमला है। मुमकिन है इस मुआफी की खबर गवर्नमेंट को भी हो जाए और मुआफी का हुक्म दे देए तो मुझे मुर्ति में यश मिल जाएगा और अगर सरकार न भी मुआग करे तो इतने आदमियों का भला हो जाना ही कौन छोटी बात है ! रहा हलधरए उसे कुछ दिनों के लिए अलग कर देने से मेरी मुश्किल आसान हो जाएगी। यह काम ऐसे गुप्त रीति से होना चाहिए कि किसी को कानोंकान खबर न होए लोग यही समझें कि कहीं परदेश निकल गया होगा। तब मैं एक बार फिर राजेश्वरी से मिलूं और तकदीर का गैसला कर लूं। तब उसे मेरे यहां आकर रहने में कोई आपत्ति न होगी। गांव में निरावलंब रहने से तो उसका चित्त स्वयं घबरा जाएगी। मुझे तो विश्वास है कि वह यहां सहर्ष चली आएगी। यही मेरा अभीष्ट है। मैं केवल उसके समीप रहनाए उसकी मृदु मुस्कानए उसकी मनोहर वाणी।

ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी रू स्वामीजी से आपकी भेंट हुई घ्

सबल रू हां।

ज्ञानी रू मैं उनके दर्शन करने जाऊँ घ्

सबल रू नहीं।

ज्ञानी रू पाखंडी हैं न घ् यह तो मैं पहले ही समझ गई थी

सबल रू नहींए पाखंडी नहीं हैंए विद्वान्‌ हैंए लेकिन मुझे किसी कारण से उनमें श्रद्वा नहीं हुई पवित्रात्मा का यही लक्षण है कि वह दूसरों के ह्रदय में श्रद्वा उत्पन्न कर दे। अभी थोड़ी देर पहले मैं उनका भक्त था पर इतनी देर में उनके उपदेशों पर विचार करने से ज्ञात हुआ कि उनसे तुम्हें ज्ञानोपदेश नहीं मिल सकता और न वह आशीर्वाद ही मिल सकता हैए जिससे तुम्हारी मनोकामना पूरी हो!

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तीसरा द्रश्य

स्थान रू मधुबन गांव।

समय रू बैशाखए प्रातरू काल।

फत्तू रू पांचों आदमियों पर डिगरी हो गई। अब ठाकुर साहब जब चाहें उनके बैल—बधिये नीलाम करा लें।

एक किसान रू ऐसे निर्दयी तो नहीं हैं। इसका मतलब कुछ और ही है।

फत्तू रू इसका मतलब मैं समझता हूँ। दिखाना चाहते हैं कि हम जब चाहें असामियों को बिगाड़ सकते हैं। असामियों को घमंड न होए फिर गांव में हम जो चाहें करेंए कोई मुंह न खोले।

सबलसिंह के चपरासी का प्रवेश।

चपरासी रू सरकार ने हुक्म दिया है कि असामी लोग जरा भी चिंता न करें। हम उनकी हर तरह मदद करने को तैयार हैं। जिनके लोगों ने अभी तक लगान नहीं दिया है उनकी माफी हो गई। अब सरकार किसी से लगान न हुई। अगले साल के लगान के साथ यह बकाया न वसूल की जायेगी। यह छूट सरकार की ओर से नहीं हुई है। ठाकुर साहब ने तुम लोगों की परवरिश के खयाल से यह रिआयत की है। लेकिन जो असामी परदेश चला जाएगा उसके साथ यह रिआयत न होगी। छोटे ठाकुर साहब ने देनदारों पर डिगरी कराई है। मगर उनका हुक्म भी यही है कि डिगरी जारी न की जाएगी। हांए जो लोग भागेंगे उनकी जायदाद नीलाम करा ली जाएगी। तुम लोग दोनों ठाकुरों को आशीर्वाद दो।

एक किसान रू भगवान दोनों भाइयों की जुगुल जोड़ी सलामत रखें।

दूसरा रू नारायन उनका कल्यान करें। हमको जिला लियाए नहीं तो इस विपत्ति में कुछ न सूझता था।

तीसरा रू धन्य है उनकी उदारता को। राजा हो तो ऐसा दीनपालक होए परमात्मा उनकी बढ़़ती करे।

चौथा रू ऐसा दानी देश में और कौन है। नाम के लिए सरकार को लाखों रूपये चंदा दे आते हैंए हमको कौन पूछता है। बल्कि वह चंदा भी हमीं से ड़डे मार—मारकर वसूल कर लिया जाता है।

पहला रू चलोए कल सब जने डेवढ़़ी की जय मना आएं।

दूसरा रू हांए कल त्तेरे चलो।

तीसरा रू चलो देवी के चौरे पर चलकर जय—जयकार मनाएं।

चौथा रू कहां है हलधरए कहो ढ़ोल—मजीरा लेता चले।

फत्तू हलधर के घर जाकर खाली हाथ लौट आता है।

पहला किसान रू क्या हुआ घ् खाली हाथ क्यों आए घ्

फत्तू रू हलधर तो आज दो दिन से घर ही नहीं आया।

दूसरा किसान रू उसकी घरवाली से पूछाए कहीं नातेदारी में तो नहीं गया।

फत्तू रू वह तो कहती है कि कल सबेरे खांचा लेकर आम तोड़ने गए थे।तब से लौटकर नहीं आए।

सब—के—सब हलधर के द्वार पर आकर जमा हो जाते हैं। सलोनी और फत्तू घर में जाते हैं।

सलोनी रू बेटाए तूने उसे कुछ कहा—सुना तो नहीं। उसे बात बहुत लगती हैए लड़कपन से जानती हूँ। गुड़ के लिए रोएए लेकिन मां झमककर गुड़ का पिंड़ा सामने फेंक दे तो कभी न उठाए। जब वह गोद में प्यार से बैठाकर गुड़ तोड़—तोड़ खिलाए तभी चुप होए

फत्तू रू यह बेचारी गऊ हैए कुछ नहीं कहती—सुनती।

सलोनी रू जरूर कोई—न—कोई बात हुई होगीए नहीं तो घर क्यों न आता घ् इसने गहनों के लिए ताना दिया होगाए चाहे महीन साड़ी मांगी होए भले घर की बेटी है नए इसे महीन साड़ी अच्छी लगती है।

राजेश्वरी रू काकीए क्या मैं इतनी निकम्मी हूँ कि देश में जिस बात की मनाही है वही करूंगी।

फत्तू बाहर आता है।

मंगई रू मेरे जान में तो उसे थाने वाले पकड़ ले गए।

फत्तू रू ऐसा कुमारगी तो नहीं है कि था ने वालों की आंख पर चढ़़ जाए।

हरदास रू थाने वालों की भली कहते होए राह चलते लोगों को पकड़ाकरते हैं। आम लिए देखा होगा( कहा — श् होगाए चल थाने पहुंचा आ।

फत्तू रू ऐसा दबैल तो नहीं हैए लेकिन थाने ही पर जाता तो अब तक लौट आना चाहिए था।

मंगई रू किसी के रूपये—पैसे तो नहीं आते थे।

फत्तू रू और किसी के नहींए ठाकुर कंचनसिंह के दो सौ रूपये आते हैं।

मंगई रू कहीं उन्होंने गिरफ्तारी करा लिया होए

फत्तू रू सम्मन तक तो आया नहींए नालिस कब हुईए डिगरी कब हुई औरों पर नालिस हुई तो सम्मन आयाए पेशी हुईए तजबीज सुनाई गई।

हरदास रू बड़े आदमियों के हाथ में सब कुछ हैए जो चाहें करा देंब राज उन्हीं का हैए नहीं तो भला कोई बात है कि सौ—पचास रूपये के लिए आदमी गिरफ्तारी कर लिया जाएए बाल—बच्चों से अलगकर दिया जाएए उसका सब खेती—बारी का काम रोक दिया जाए।

मंगई रू आदमी चोरी या और कोई कुन्याव करता है तब उसे कैद की सजा मिलती है। यहां महाजन बेकसूर हमें थोड़े—से रूपयों के लिए जेहल भेज सकता है। यह कोई न्याव थोड़े ही है।

हरदास रू सरकार न जाने ऐसे कानून क्यों बनाती है। महाजन के रूपये आते हैंए जयदाद से लेए गिरफ्तारी क्यों करे।

मंगई रू कहीं डमरा टापू वाले न बहका ले गए हों।

फत्तू रू ऐसा भोला नहीं है कि उनकी बातों में आ जाए।

मंगई रू कोई जान—बूझकर उनकी बातों में थोड़े ही आता है। सब ऐसी—ऐसी पक्री पढ़़ाते हैं कि अच्छे—अच्छे धोखे में आ जाते हैं। कहते हैंए इतना तलब मिलेगाए रहने को बंगला मिलेगाए खाने को वह मिलेगा जो यहां रईसों को भी नसीब नहींए पहनने को रेशमी कपड़े मिलेंगेए और काम कुछ नहींए बस खेत में जाकर ठंढ़े—ठंढ़े देख—भाल आए।

फत्तू रू हांए यह तो सच है। ऐसी—ऐसी बातें सुनकर वह आदमी क्यों न धोखे में आ जाए जिसे कभी पेट—भर भोजन न मिलता होए घास—भूसे से पेट भर लेना कोई खाना है। किसान पहर रात से पहर रात तक छाती गाड़ता है तब भी रोटी—कपड़े को नहीं होताए उस पर कहीं महाजन का डरए कहीं जमींदार की धौंसए कहीं पुलिस की डांट—डपटए कहीं अमलों की नजर—भेंटए कहीं हाकिमों की रसद—बेगारब सुना है जो लोग टापू में भरती हो जाते हैं उनकी बड़ी दुर्गत होती है। झोंपड़ी रहने को मिलती है और रात—दिन काम करना पड़ता है। जरा भी देर हुई तो अफसर कोड़ों से मारता है। पांच साल तक आने का हुकुम नहीं हैए उस पर तरह—तरह की सखती होती रहती है। औरतों की बड़ी बेइज्जती होती हैए किसी की आबई बचने नहीं पाती। अफसर सब गोरे हैंए वह औरतों को पकड़ ले जाते हैं। अल्लाह न करे कि कोई उन दलालों के गंदे में गंसे ! पांच—छरू साल में कुछ रूपये जरूर हो जाते हैं( पर उस लतखोरी से तो अपने देश की ईखी ही अच्छी। मुझे तो बिस्सास ही नहीं आता कि हलधर उनके गांसे में आ जाए।

हरदास रू साधु लोग भी आदमियों को बहका ले जाते हैं।

फत्तू रू हांए सुना तो हैए मगर हलधर साधुओं की संगत में नहीं बैठाब गांजे—चरस की भी चाट नहीं कि इसी लालच से जा बैठता होए

मंगई रू साधु आदमियों को बहकाकर क्या करते हैं घ्

फत्तू रू भीख मंगवाते हैं और क्या करते हैं। अपना टहल करवाते हैंए बर्तन मंजवाते हैंए गांजा भरवाते हैं। भोले आदमी समझते हैंए बाबाजी सिद्व हैंए प्रसन्न हो जाएंगे तो एक चुटकी राख में मेरा भला हो जाएगाए मुकुत बन जाएगी वह घाते मेंब कुछ कामचोर निखट्टू ऐसे भी हैं जो केवल मीठे पदार्थो के लालच में साधुओं के साथ पड़े रहते हैं। कुछ दिनों में यही टहलुवे संत बन बैठते हैं और अपने टहल के लिए किसी दूसरे को मूंड़ते हैं। लेकिन हलधर न तो पेटू ही हैए न कामचोर ही है।

हरदास रू कुछ तुम्हारा मन कहता है वह किधर गया होगाघ् तुम्हारा उसके साथ आठों पहर का उठना—बैठना है।

फत्तू रू मेरी समझ में तो वह परदेश चला गया। दो सौ रूपये कंचनसिंह के आते थे।ब्याज समेत ढ़ाई सौ रूपये होंगे।लगान की धौंस अलग। अभी दुधमुंहा बालक हैए संसार का रंग—ढ़़ंग नहीं देखाए थोड़े में ही फूल उठता है और थोडे। में ही हिम्मत हार बैठता है। सोचा होगाए कहीं परदेश चलूं और मेहनत—मजूरी करके सौ—दो सौ ले आऊँ। दो—चार दिन में चिट्ठी—पत्तर आएगी।

मंगई रू और तो कोई चिंता नहींए मर्द हैए जहां रहेगाए वहीं कमा खाएगाए चिंता तो उसकी घरवाली की है। अकेले कैसे रहेगी घ्

हरदास रू मैके भेज दिया जाए।

मंगई रू पूछोए जाएगी घ्

फत्तू रू पूछना क्या हैए कभी न जाएगी। हलधर होता तो जाती। उसके पीछे कभी नहीं जा सकती।

राजेश्वरी रू (द्वार पर खड़ी होकर) हां काकाए ठीक कहते होए अभी मैके चली जाऊँ तो घर और गांव वाले यही न कहेंगे कि उनके पीछे गांव में दस—पांच दिन भी कोई देख—भाल करने वाला नहीं रहा तभी तो चली आई। तुम लोग मेरी कुछ चिंता न करो। सलोनी काकी को घर में सुला लिया करूंगी। और डर ही क्या है घ् तुम लोग तो हो ही।

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चौथा द्रश्य

स्थान रू हलधर का घरए राजेश्वरी और सलोनी आंगन में लेटी हुई हैं।

समय रू आधी रात।

राजेश्वरी रू (मन में) आज उन्हें गए दस दिन हो गए। मंगल—मंगल आठए बुध नौए वृहस्पत दस। कुछ खबर नहीं मिलीए न कोई चिट्ठी न पत्तर। मेरा मन बारम्बार यही कहता है कि यह सब सबलसिंह की करतूत है। ऐसे दानी—धर्मात्मा पुरूष कम होंगेए लेकिन मुझ नसीबों जली के कारन उनका दान—धर्म सब मिट्टी में मिला जाता है। न जाने किस मनहूस घड़ी में मेरा जनम हुआ ! मुझमें ऐसा कौन—सा गुन है घ् न मैं ऐसी सुंदरी हूँए न इतने बनाव—सिंगार से रहती हूँए माना इस गांव में मुझसे सुंदर और कोई स्त्री नहीं है। लेकिन शहर में तो एक—से—एक पड़ी हुई हैं। यह सब मेरे अभाग का फल है। मैं अभागिनी हूँ। हिरन कस्तूरी के लिए मारा जाता है। मैना अपनी बोली के लिए पकड़ी जाती है। फूलअपनी सुगंध के लिए तोड़ा जाता है। मैं भी अपने रूप—रंग के हाथों मारी जा रही हूँ।

सलोनी रू क्या नींद नहीं आती बेटी घ्

राजेश्वरी रू नहीं काकीए मन बड़ी चिंता में पड़ा हुआ है। भला क्यों काकीए अब कोई मेरे सिर पर तो रहा नहींए अगर कोई पुरूष मेरा धर्म बिगाड़ना चाहे तो क्या करूं घ्

सलोनी रू बेटीए गांव के लोग उसे पीसकर पी जाएंगी।

राजेश्वरी रू गांव वालों पर बात खुल गई तब तो मेरे माथे पर कलंक लग ही जाएगी।

सलोनी रू उसे दंड देना होगी। उससे कपट—प्रेम करके उसे विष पिला देना होगी। विष भी ऐसा कि फिर वह आंखें न खोले। भगवान कोए चंद्रमा कोए इन्द्र को जिस अपराध का दंड मिला था। क्याए हम उसका बदला न लेंगी। यही हमारा धरम है। मुंह से मीठी—मीठी बातें करो पर मन में कटार छिपाए रखो।

राजेश्वरी रू (मन में) हांए अब यही मेरा धरम है। अब छल और कपट से ही मेरी रक्षा होगी। वह धर्मात्मा सहीए दानी सहीए विद्वान सहीए यह भी जानती हूँ कि उन्हें मुझसे प्रेम हैए सच्चा प्रेम है। वह मुझे पाकर मुग्ध हो जाएंगेए मेरे इशारों पर नाचेंगेए मुझ पर अपने प्राण न्यौछावर करेंगी। क्या मैं इस प्रेम के बदले कपट कर सयंगी घ् जो मुझ पर जान देगाए मैं उसके साथ कैसे दगा करूंगी घ् यह बात मरदों में ही है कि जब वह किसी दूसरी स्त्री पर मोहित हो जाते हैं तो पहली स्त्री के प्राण लेने से भी नहीं हिचकते। भगवान्ए यह मुझसे कैसे होगाघ् (प्रकट) क्यों काकीए तुम अपनी जवानी में तो बड़ी सुंदर रही होगी घ्

सलोनी रू यह तो नहीं जानती बेटीए पर इतना जानती हूँ कि तुम्हारे काका की आंखों में मेरे सिवा और कोई स्त्री जंचती ही न थी। जब तक चार—पांच लड़कों की मां न हो गईए पनघट पर न जाने दिया ।

राजेश्वरी रू बुरा न मानना काकीए यों ही पूछती हूँए उन दिनों कोई दूसरा आदमी तुम पर मोहित हो जाता और काका को जेहल भिजवा देता तो तुम क्या करतीं घ्

सलोनी रू करती क्याए एक कटारी अंचल के नीचे छिपा लेती। जब वह मेरे उसपर प्रेम के फूलों की वर्षा करने लगताए मेरे सुख—विलास के लिए संसार के अच्छे—अच्छे पदार्थ जमा कर देताए मेरे एक कटाक्ष परए एक मुस्कान परए एक भाव पर फूला न समाताए तो मैं उससे प्रेम की बातें करने लगती। जब उस पर नशा छा जाताए वह मतवाला हो जाता तो कटार निकालकर उसकी छाती में भोंक देती।

राजेश्वरी रू तुम्हें उस पर तनिक भी दया न आती घ्

सलोनी रू बेटीए दया दीनों पर की जाती है कि अत्याचारियों परघ् धर्म प्रेम के उसपर हैए उसी भांति जैसे सूरज चंद्रमा के उसपर है। चंद्रमा की ज्योति देखने में अच्छी लगती हैए लेकिन सूरज की ज्योति से संसार का पालन होता है।

राजेश्वरी रू (मन में) भगवान्ए मुझसे यह कपट—व्यवहार कैसे निभेगा ! अगर कोई दुष्टए दुराचारी आदमी होता तो मेरा काम सहज था।उसकी दुष्टता मेरे क्रोध को भड़का देती है। भय तो इस पुरूष की सज्जनता से है। इससे बड़ा भय उसके निष्कपट प्रेम से है। कहीं प्रेम की तरंगों में बह तो न जाऊँगीए कहीं विलास में तो मतवाली न हो जाऊँगी। कहीं ऐसा तो न होगा कि महलों को देखकर मन में इस झोंपड़े का निरादर होने लगेए तकियों पर सोकर यह टूटी खाट गड़ने लगेए अच्छे—अच्छे भोजन के सामने इस रूखे—सूखे भोजन से मन फिर जाएएलौंडियों के हाथों पान की तरह गेरे जाने से यह मेहनतघ् मजूरी अखरने लगे। सोचने लगूं ऐसा सुख पाकर क्यों उस पर लात मारूं घ् चार दिन की जिंदगानी है उसे छल—कपटए मरने—मारने में क्यों गंवाऊँघ् भगवान की जो इच्छा थी वह हुआ और हो रहा है। (प्रकट) काकीए कटार भोंकते हुए तुम्हें डर न लगता घ्

सलोनी रू डर किस बात का घ् क्या मैं पछी से भी गई—बीती हूँ। चिड़िया को सोने के पिंजरे में रखोए मेवे और मिठाई खिलाओए लेकिन वह पिंजरे का द्वार खुला पाकर तुरंत उड़ जाती है। अब बेटीए सोओए आधी रात से उसपर हो गई। मैं तुम्हें गीत सुनाती हूँ।

गाती है।

मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।

राजेश्वरी रू (मन में) इन्हें गाने की पड़ी है। कंगाल होकर जैसे आदमी को चोर का भय नहीं रहताए न आगम की कोई चिंताए उसी भांति जब कोई आगे—पीछे नहीं रहता तो आदमी निश्ंचित हो जाता है। (प्रकट) काकीए मुझे भी अपनी भांति प्रसन्न—चित्त रहना सिखा दो।

सलोनी रू ऐए नौज बेटी ! चिंता धन और जन से होती है। जिसे चिंता न हो वह भी कोई आदमी है। वह अभागा हैए उसका मुंह देखना पाप है। चिंता बड़े भागों से होती है। तुम समझती होगीए बुढ़़िया हरदम प्रसन्न रहती है तभी तो गाया करती है। सच्ची बात यह है कि मैं गाती नहींए रोती हूँ। आदमी को बड़ा आनंद मिलता है तो रोने लगता है। उसी भांति जब दुख अथाह हो जाता हैए तो गाने लगता है। इसे हंसी मत समझोए यह पागलपन है। मैं पगली हूँ। पचास आदमियों का परिवार आंखों के सामने से उठ गया। देखें भगवान इस मिट्टी की कौन गत करते हैं।

गाती है।

मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।

ए जी पावन कीए घर लावन की।

छोड़ काज अरू लाज जगत की।

निश दिन ध्यान लगावन की।। मुझे

सुरत उजाली खुल गई ताली।

गगन महल में जावन की।। मुझे

झिलमिल कारी जो निहारी।

जैसे बिजली सावन की।

मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।।

बेटीए तुम हलधर का सपना तो नहीं देखती हो घ्

राजेश्वरी रू बहुत बुरे—बुरे सपने देखती हूँ। इसी डर के मारे तो मैं और नहीं सोती। आंख झपकी और सपने दिखाई देने लगे।

सलोनी रू कल से तुलसी माता को दिया चढ़़ा दिया करो। एतवार—मंगल को पीपल में पानी दे दिया करो। महावीर सामी को लड्डू की मनौती कर दो। कौन जाने देवताओं के प्रताप से लौट आए। अच्छाए अब महावीर जी का नाम लेकर सो जाव। रात बहुत हो गई हैए दो घड़ी में भोर हो जाएगी।

सलोनी करवट बदलकर सोती है और खर्राटे भरने लगती है।

राजेश्वरी रू (आप—ही—आप) बुढ़़िया सो रही हैए अब मैं चलने की तैयारी करूं। छत्री लोग रन पर जाते थे तो खूब सजकर जाते थे।मैं भी कपड़े—लत्ते से लैस हो जाऊँ। वह पांचों हथियार लगाते थे।मेरे हथियार मेरे गहने हैं। वही पहन लेती हूँ। वह केसर का तिलक लगाते थेए मैं सिंदूर का टीका लगा लेती हूँ। वह मलिच्छों का संहार करने जाते थेए मुझे देवता का संहार करना है। भगवती तुम मेरी सहाय होलेकिन छत्री लोग तो हंसते हुए घर से विदा होते थे।मेरी आंखों में आंसू भरे आते हैं। आज यह घर छूटता

है ! इसे सातवें दिन लीपती थीए त्योहारों पर पोतनी मिट्टी से पोतती थी। कितनी उमंग से आंगन में फुलवारी लगाती थी। अब कौन इनकी इतनी सेवा करेगी। दो ही चार दिनों में यहां भूतों का डेरा हो जाएगी। हो जाए ! जब घर का प्राणी ही नहीं रहा तो घर लेकर क्या करूं घ् आहए पैर बाहर नहीं निकलतेए जैसे दीवारें खींच रही हों। इनसे गले मिल लूं। गाय—भैंस कितने साध से ली थीं।अब इनसे भी नाता टूटता है। दोनों गाभिन हैं। इनके बच्चों को भी न खेलाने पाई। बेचारी हुड़क—हुड़ककर मर जाएंगी। कौन इन्हें मुंह अंधेरे भूसा—खली देगाए कौन इन्हें तला। में नहलाएगी। दोनों मुझे देखते ही खड़ी हो गई।मेरी ओर मुंह बढ़़ा रही हैए पूछ रही हैं कि आज कहां की तैयारी है घ्

हाय ! कैसे प्रेम से मेरे हाथों को चाट रही हैं ! इनकी आंखों में कितना प्यार है ! आओए आज चलते—चलतेतुम्हें अपने हाथों से दाना खिला दूं ! हा भगवान्‌ ! दाना नहीं खातींए मेरी ओर मुंह करके ताकती हैं। समझ रही हैं कि यह इस तरह बहला कर हमें छोड़े जाती है। इनके पास से कैसे जाऊँ घ् रस्सी तुड़ा रही हैंए हुंकार मार रही हैं। वह देखोए बैल भी उठ बैठे। वह गएए इन बेचारों की सेवा न हो सकी। वह इन्हें घंटों सहलाया करते थे।लोग कहते हैं तुम्हें आने वाली बातें मालूम हो जाती हैं। कुछ तुम ही बताओए वह कहां हैंए कैसे हैंए कब आएंगे घ् क्या अब कभी उनकी सूरत देखनी न नसीब होगी घ् ऐसा जान पड़ता हैए इनकी आंखों में आंसू भरे हैं। जाओए अब तुम सभी को भगवान के भरोसे छोड़ती हूँ। गांव वालों को दया आएगी तो तुम्हारी सुधि लेंगेए नहीं तो यहीं भूखे रहोगी। फत्तू मियां तुम्हारी सेवा करेंगी। उनके रहते तुम्हें कोई कष्ट न होगी। वह दो आंखें भी न करेंगे कि अपने बैलों को दाना और खली देंए तुम्हारे सामने सूखा भूसा डाल देंब लोए अब विदा होती हूँ। भोर हो रहा हैए तारे मद्विम पड़ने लगे। चलो मनए इस रोने—बिसूरने से काम न चलेगा ! अब तो मैं हूँ और प्रेम—कौशल का रनछेत्र है। भगवती का और उनसे भी अधिक अपनी —ढ़़ता का भरोसा है।

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पांचवां द्रश्य

स्थान रू सबलसिंह का दीवानखानाए खस की टक्रियां लगी हुईए पंखा चल रहा है। सबल शीतलपाटी पर लेटे हुए डेमोक्रेसी नामक ग्रंथ पढ़़ रहे हैंए द्वार पर एक दरबान बैठा झपकियां ले रहा है।

समय रू दोपहरए मध्यान्ह की प्रचंड धूप।

सबल रू हम अभी जनसत्तात्मक राज्य के योग्य नहीं हैंए कदापि नहीं हैं। ऐसे राज्य के लिए सर्वसाधारण में शिक्षा की प्रचुर मात्रा होनी चाहिए । हम अभी उस आदर्श से कोसों दूर हैं। इसके लिए महान स्वार्थ—त्याग की आवश्यकता है। जब तक प्रजा—मात्र स्वार्थ को राष्टश् पर बलिदान करना नहीं सीखतीए इसका स्वप्न देखना मन की मिठाई खाना है। अमरीकाए प्रांसए दक्षिणी अमरीका आदि देशों ने बड़े समारोह से इसकी व्यवस्था कीए पर उनमें से किसी को भी सफलता नहीं हुई वहां अब भी धन और सम्पत्ति वालों के ही हाथों में अधिकार है। प्रजा अपने प्रतिनिधि कितनी ही सावधानी से क्यों न चुनेए पर अंत में सत्ता गिने—गिनाए आदमियों के ही हाथों में चली जाती है। सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था ही ऐसी दूषित है कि जनता का अधिकांश मुट्ठी भर आदमियों के वंशवर्ती हो गया है। जनता इतनी निर्बलए इतनी अशक्त है कि इन शक्तिशाली पुरूषों के सामने सिर नहीं उठा सकती। यह व्यवस्था अपवादमयए विनष्टकारी और अत्याचारपूर्ण है। आदर्श व्यवस्था यह है कि सबके अधिकार बराबर होंए कोई जमींदार बनकरए कोई महाजन बनकर जनता पर रोब न जमा सके यह ऊँच—नीच का घृणित भेद उठ जाए। इस सबलघ् निबल संग्राम में जनता की दशा बिगड़ती चली जाती है। इसका सबसे भयंकर परिणाम यह है कि जनता आत्मसम्मान—विहीन होती जाती हैए उसमें प्रलोभनों का प्रतिकार करनेए अन्याय का सिर कुचलने की सामर्थ्‌य नहीं रही। छोटे—छोटे स्वार्थ के लिए बहुधा भयवश कैसे—कैसे अनर्थ हो रहे हैं। (मन में) कितनी यथार्थ बात लिखी है। आज ऐसा कोई असामी नहीं है जिसके घर में मैं अपने दुष्टाचरण का तीर न चला सकूं। मैं कानून के बल सेए भय के बल सेए प्रलोभन के बल से अपना अभीष्ट पूरा कर सकता हूँ। अपनी शक्ति का ज्ञान हमारे दुस्साहस कोए कुभावों को और भी उत्तेजित कर देता है। खैर ! हलधर को जेल गए हुए आज दसवां दिन हैए मैं गांव की तरफ नहीं गया। न जाने राजेश्वरी पर क्या गुजर रही है। कौन मुंह लेकर जाऊँ घ् अगर कहीं गांव वालों को यह चाल मालूम हो गई होगी तो मैं वहां मुंह भी न दिखा सयंगी। राजेश्वरी को अपनी दशा चाहे कितनी कष्टप्रद जान पड़ती होए पर उसे हलधर से प्रेम है। हलधर का द्रोही बनकर मैं उसके प्रेम—रस को नहीं पा सकता। क्यों न कल चला जाऊँए इस उधेड़—बुन में कब तक पड़ा रहूँगी। अगर गांव वालों पर यह रहस्य खुल गया होगा तो मैं विस्मय दिखाकर कह सकता हूँ कि मुझे खबर नहीं हैए आज ही पता लगाता हूँ। सब तरह उनकी दिलजोई करनी होगी और हलधर को मुक्त कराना पड़ेगा। सारी बाजी इसी दांव पर निर्भर है। मेरी भी क्या हालत हैए पढ़़ता हूँ डेमोक्रेसी औरअपने को धोखा देना व्यर्थ है।

यह प्रेम नहीं हैए केवल काम—लिप्सा है। प्रेम दुर्लभ वस्तु हैए यह उस अधिकार का जो मुझे असामियों पर हैए दुरूपयोग मात्र है।

दरबान आता है।

सबल रू क्या है घ् मैंने कह दिया है इस वक्त मुझे दिक मत किया करो। क्या मुखतार आए हैं घ् उन्हें और कोई वक्त ही नहीं मिलता घ्

दरबान रू जी नहींए मुखतार नहीं आए हैं। एक औरत है।

सबल रू औरत है घ् कोई भिखारिन है क्या घ् घर में से कुछ लाकर देदो। तुम्हें जरा भी तमीज नहीं हैए जरा—सी बात के लिए मुझे दिक किया।

दरबान रू हुजूरए भिखारिन नहीं है। अभी फाटक पर एक्के पर से उतरी है। खूब गहने पहने हुई है। कहती हैए मुझे राजा साहब से कुछ कहना है।

सबल रू (चौंककर) कोई देहातिन होगी। कहां है घ्

दरबान रू वहीं मौलसरी के नीचे बैठी है।

सबल रू समझ गयाए ब्राह्मणी हैए अपने पति के लिए दवा मांगने आई है। (मन में) वही होगी। दिल कैसा धड़कने लगा। दोपहर का समय है। नौकर—चाकर सब सो रहे होंगे।दरबान को बरफ लाने के लिए बाजार भेज दूं। उसे बगीचे वाले बंगले में ठहराऊँ। (प्रकट) उसे भेज दो और तुम जाकर बाजार से बरफ लेते आओ।

दरबान चला जाता है। राजेश्वरी आती हैं। सबलसिंह तुरंत उठकर उसे बगीचे वाले बंगले में ले जाते हैं।

राजेश्वरी रू आप तो टट्टी लगाए आराम कर रहे हैं और मैं जलती हुई धूप में मारी—मारी फिर रही हूँ। गांव की ओर जाना ही छोड़ दिया । सारा शहर भटक चुकी तो मकान का पता मिला।

सबल रू क्या कहूँए मेरी हिमाकत से तुम्हें इतनी तकलीफ हुईए बहुत लज्जित हूँ। कई दिन से आने का इरादा करता था। पर किसी—न—किसी कारण से रूक जाना पड़ता था। बरफ आती होगीए एक गिलास शर्बत पी लो तो यह गरमी दूर हो जाए।

राजेश्वरी रू आपकी कृपा हैए मैंने बरफ कभी नहीं पी है। आप जानते हैंए मैं यहां क्या करने आई हूँ घ्

सबल रू दर्शन देने के लिए।

राजेश्वरी रू जी नहींए मैं ऐसी निरू स्वार्थ नहीं हूँ। आई हूँ आपके घर में रहने( आपका प्रेम खींच लाया है। जिस रस्सी में बंधी हुई थी वह टूट गई। उनका आज दस—ग्यारह दिन से कुछ पता नहीं है। मालूम होता है कहीं देस—विदेस भाग गए। फिर मैं किसकी होकर रहती। सब छोड़—छाड़कर आपकी सरन आई हूँए और सदा के लिए। उस ऊजड़ गांव से जी भर गया।

सबल रू तुम्हारा घर हैए आनंद से रहोए धन्य भाग कि मुझे आज यह अवसर मिला। मैं इतना भाग्यवान हूँए मुझे इसका विश्वास ही न था।मेरी तो यह हालत हो रही हैरू

हमारे घर में वह आएंए खुदा की कुदरत है।

कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं।

ऐसा बौखला गया हूँ कि कुछ समझ में ही नहीं आताए तुम्हारी कैसे खिदमत करूं।

राजेश्वरी रू मुझे इसी बंगले में रहना होगाघ्

सबल रू ऐसा होता तो क्या पूछना था।ए पर यहां बखेड़ा हैए बदनामी होगी। मैं आज ही शहर में एक अच्छा मकान ठीक कर लूंगा। सब इंतजाम वहीं हो जाएगी।

राजेश्वरी रू (प्रेम कटाक्ष से देखकर) प्रेम करते हो और बदनामी से डरते होए यह कच्चा प्रेम है।

सबल रू (झेंपकर) अभी नया रंगरूट हूँ न घ्

राजेश्वरी रू (सजल नेत्रों से) मैंने अपना सर्वस आपको दे दिया । अब मेरी लाज आपके हाथ है।

सबल रू (उसके दोनों हाथ पकड़कर तस्कीन देते हुए) राजेश्वरीए मैं तुम्हारी इस कृपा को कभी न भूलूंगा। मुझे भी आज से अपना सेवकए अपना चाकरए जो चाहे समझो।

राजेश्वरी रू (मुस्कराकर) आदमी अपने सेवक की सरन नहीं जाताए अपने स्वामी की सरन आता है। मालूम नहीं आप मेरे मन के भावों को जानते हैं या नहींए पर ईश्वर ने आपको इतनी विद्या और बुद्वि दी हैए आपसे कैसे छिपा रह सकता है। मैं आपके प्रेमए केवल आपके प्रेम के वश होकर आई हूँ। पहली बार जब आपकी निगाह मुझ पर पड़ी तो उसने मुझ पर मंत्र—सा फूंक दिया । मुझे उसमें प्रेम की झलक दिखाई दीब तभी से मैं आपकी हो गई। मुझे भोगविलास की इच्छा नहींए मैं केवल आपको चाहती हूँ। आप मुझे झोंपड़ी में रखिएए मुझे गजी—गाढ़़ा पहनाइएए मुझे उनमें भी सरग का आनंद मिलेगी। बस आपकी प्रेम—दिरिष्ट मुझ पर बनी रहै।

सबल रू (गर्व के साथ) मैं जिंदगी—भर तुम्हारा रहूँगा और केवल तुम्हारा। मैंने उच्च कुल में जन्म पाया। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। मेरा पालन—पोषण बड़े लाड़—प्यार से हुआए जैसा रईसों के लड़कों का होता है। घर में बीसियों युवती महरियांए महराजिनें थीं।उधर नौकर—चाकर भी मेरी कुवृत्तियों को भड़काते रहते थे।मेरे चरित्र—पतन के सभी सामान जमा थे।रईसों के अधिकांश युवक इसी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। पर ईश्वर की मुझ पर कुछ ऐसी दया थी कि लकड़पन ही से मेरी प्रवृत्ति विद्याभ्यास की ओर थी और उसने युवावस्था में भी साथ न छोड़ाब मैं समझने लगा था।ए प्रेम कोई वस्तु ही नहींए केवल कवियों की कल्पना है। मैंने एक—से—एक यौवनवती सुंदरियां देखी हैंए पर कभी मेरा चित्त विचलित नहीं हुआ। तुम्हें देखकर पहली बार मेरी ह्रदयवीणा के तारों में चोट लगी। मैं इसे ईश्वर की इच्छा के सिवाय और क्या कहूँ। तुमने पहली ही निगाह में मुझे प्रेम का प्याला पिला दियाए तब से आज तक उसी नशे में मस्त था। बहुत उपाय किएए कितनी ही खटाइयां खाई पर यह नशा न उतरा। मैं अपने मन के इस रहस्य को अब तक नहीं समझ सका। राजेश्वरीए सच कहता हूँए मैं तुम्हारी ओर से निराश था।समझता थाए अब यह जिंदगी रोते ही कटेगीए पर भाग्य को धन्य है कि आज घर बैठे देवी के दर्शन हो गए और जिस वरदान की आशा थीए वह भी मिल गया।

राजेश्वरी रू मैं एक बात कहना चाहती हूँए पर संकोच के मारे नहीं कह सकती।

सबल रू कहो—कहो मुझसे क्या संकोच ! मैं कोई दूसरा थोड़े ही हूँ।

राजेश्वरी रू न कहूँगीए लाज आती है।

सबल रू तुमने मुझे चिंता में डाल दियाए बिना सुने मुझे चौन न आएगी।

राजेश्वरी रू कोई ऐसी बात नहीं हैए सुनकर क्या कीजिएगा!

सबल रू (राजेश्वरी के दोनों हाथ पकड़कर) बिना कहे न जाने दूंगाए कहना पड़ेगा।

राजेश्वरी रू (असमंजस में पड़कर) मैं सोचती हूँए कहीं आप यह समझें कि जब यह अपने पति की होकर न रही तो मेरी होकर क्या रहेगी। ऐसी चंचल औरत का क्या ठिकानाघ्

सबल रू बस करो राजेश्वरीए अब और कुछ मत कहोए तुमने मुझे इतना नीच समझ लिया। अगर मैं तुम्हें अपना ह्रदय खोलकर दिखा सकता तो तुम्हें मालूम होता कि मैं तुम्हें क्या समझता हूँ। वह घरए उस घर के प्राणीए वह समाजए तुम्हारे योग्य न थे। गुलाब की शोभा बाग में हैए घूरे पर नहीं। तुम्हारा वहां रहना उतना अस्वाभाविक था। जितना सुअर के माथे पर सेंदुर का टीका होता है या झोंपड़ी में झाड़। वह जलवायु तुम्हारे सर्वथा। प्रतिकूल थी। हंस मरूभूमि में नहीं रहता। इसी तरह अगर मैं सोचूंए कहीं तुम यह न समझो कि जब यह अपनी विवाहिता स्त्री का न हुआ तो मेरा क्या होगाए तो घ्

राजेश्वरी रू (गंभीरता से) मुझमें और आप में बड़ा अंतर है।

सबल रू यह बातें फिर होंगीए इस वक्त आराम करोए थक गई होगी। पंखा खोले देता हूँ। सामने वाली कोठरी में पानी—वानी सब रखा हुआ है। मैं अभी आता हूँ।

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छठा द्रश्य

सबलसिंह का भवन। गुलाबी और ज्ञानी फर्श पर बैठी हुई हैं। बाबा चेतनदास गालीचे पर मसनद लगाए लेटे हुए हैं। रात के आठ बजे हैं।

गुलाबी रू आज महात्माजी ने बहुत दिनों के बाद दर्शन दिए ।

ज्ञानी रू मैंने समझा था। कहीं तीर्थ करने चले गए होंगी।

चेतनदास रू माताजी मेरे को अब तीर्थयात्रा से क्या प्रयोजन घ् ईश्वर तो मन में हैए उसे पर्वतों के शिखर और नदियों के तट पर क्यों खोजूं घ् वह घट—घटव्यापी हैए वही तुममें हैए वही मुझमें हैए उसी की अखिल ज्योति है। यह विभिन्नता केवल बहिर्जगत में हैए अंतर्जगत में कोई भेद नहीं है। मैं अपनी कुटी में बैठा हुआ ध्यानावस्था में अपने भक्तों से साक्षात्‌ करता रहा हूँ। यह मेरा नित्य का नियम है।

गुलाबी रू (ज्ञानी से) महात्माजी अंतरजामी हैं। महाराजए मेरा लड़का मेरे कहने में नहीं है। बहू ने उस पर न जाने कौन—सा मंत्र डाल दिया है कि मेरी बात ही नहीं पूछता। जो कुछ कमाता है वह लाकर बहू के हाथ में देता हैए वह चाहे कान पकड़कर उठाए या बैठाएए बोलता ही नहीं। कुछ ऐसा उतजोग कीजिए कि वह मेरे कहने में हो जाएए बहू की ओर से उसका चित्त फिर जाए। बस यही मेरी लालसा है।

चेतनदास रू (मुस्कराकर) बेटे को बहू के लिए ही तो पाला पोसा था।अब वह बहू का हो रहा तो तेरे को क्यों ईर्ष्‌या होती है घ्

ज्ञानी रू महाराजए वह स्त्री के पीछे इस बेचारी से लड़ने पर तैयार हो जाता है।

चेतनदास रू वह कोई बात नहीं है। मैं उसे मोम की भांति जिधर चाहूँ फेर सकता हूँए केवल इसको मुझ पर श्रद्वा रखनी चाहिए । श्रद्वाए श्रद्वाए श्रद्वा( यही अर्थए धर्मए कामए मोक्ष की प्राप्ति का मूलमंत्र है। श्रद्वा से ब्रह्म मिल जाता है। पर श्रद्वा उत्पन्न कैसे हो घ् केवल बातों ही से श्रद्वा उत्पन्न नहीं हो सकती। वह कुछ देखना चाहती है। बोलोए क्या दिखाऊँ घ् तुम दोनों मन में कोई बात ले लो।मैं अपने योगबल से अभी बतला दूंगा। ज्ञानी देवीए पहले तुम मन में कोई बात लो।

ज्ञानी रू ले लियाए महाराज!

चेतनदास रू (ध्यान करके) बड़ी दूर चली गई। मोतियों का हार है न घ्

ज्ञानी रू हां महाराजए यही बात थी।

चेतनदास रू गुलाबीए अब तुम कोई बात लो।

गुलाबी रू ले लीए महाराज!

चेतनदास रू (ध्यान करकेए मुस्कराकर) बहू से इतना द्वेषघ् वह मर

जाएघ्

गुलाबी रू हांए महाराजए यही बात थी। आप सचमुच अंतरजामी हैं।

चेतनदास रू कुछ और देखना चाहती हो घ् बोलोए क्या वस्तु यहां मंगवाऊँ घ् मेवाए मिठाईए हीरेए मोती इन सब वस्तुओं के ढ़ेर लगा सकता हूँ। अमरूद के दिन नहीं हैंए जितना अमरूद चाहो मंगवा दूं। भेजो प्रभूजीए भेजोए तुरत भेजोरू

मोतियों का ढ़ेर लगता है।

गुलाबी रू आप सिद्व हैं।

ज्ञानी रू आपकी चमत्कार—शक्ति को धन्य है!

चेतनदास रू और क्या देखना चाहती हो घ् कहोए यहां से बैठे—बैठे अंतरध्यान हो जाऊँ और फिर यहीं बैठा हुआ मिलूं। कहोए वहां उस वृक्ष के नीचे तुम्हें नेपथ्य में गाना सुनाऊँ। हांए यही अच्छा है। देवगण तुम्हें गाना सुनाएंगेए पर तुम्हें उनके दर्शन न होंगे।उस वृक्ष के नीचे चली जाओ।

दोनों जाकर पेड़ के नीचे खड़ी हो जाती हैं। गाने की ध्वनि आने लगती है।

बाहिर ढ़ूंढ़़न जा मत सजनीए

पिया घर बीच बिराज रहे री।—

गगन महल में सेज बिछी है

अनहद बाजे बाज रहे री।—

अमृत बरसेए बिजली चमके

घुमर—घुमर घन गाज रहे री।—

ज्ञानी रू ऐसे महात्माओं के दर्शन दुर्लभ होते हैं।

गुलाबी रू पूर्वजन्म में बहुत अच्छे कर्म किए थे। यह उसी का फल है।

ज्ञानी रू देवताओं को भी बस में कर लिया है।

गुलाबी रू जोगबल की बड़ी महिमा है। मगर देवता बहुत अच्छा नहीं गाते। गला दबाकर गाते हैं क्या घ्

ज्ञानी रू पगला गई है क्या ! महात्माजी अपनी सिद्वि दिखा रहे हैं कि तुम्हारे लिए देवताओं की संगीत—मंडली खड़ी की है।

गुलाबी रू ऐसे महात्मा को राजा साहब धूर्त कहते हैं।

ज्ञानी रू बहुत विद्या पढ़़ने से आदमी नास्तिक हो जाता है। मेरे मन में तो इनके प्रति भक्ति और श्रद्वा की एक तरंग—सी उठ रही है। कितना देवतुल्य स्वरूप है।

गुलाबी रू कुछ भेंट—भांट तो लेंगे नहीं घ्

ज्ञानी रू अरे राम—राम ! महात्माओं को रूपये—पैसे का क्या मोहघ्

देखती तो हो कि मोतियों के ढ़ेर सामने लगे हुए हैंए किस चीज की कमी है घ्

दोनों कमरे में आती हैं। गाना बंद होता है।

ज्ञानी रू अरे ! महात्माजी कहां चले गएघ् यहां से उठते तो नहीं देखा ।

गुलाबी रू उनकी माया कौन जाने ! अंतरध्यान हो गए होंगी।

ज्ञानी रू कितनी अलौकिक लीला है!

गुलाबी रू अब मरते दम तक इनका दामन न छोडूंगी। इन्हीं के साथ रहूँगी और सेवा—टहल करती रहूँगी।

ज्ञानी रू मुझे तो पूरा विश्वास है कि मेरा मनोरथ इन्हीं से पूरा होगी।

सहसा चेतनदास मसनद लगाए बैठे दिखाई देते हैं।

गुलाबी रू (चरणों पर गिरकर) धन्य हो महाराजए आपकी लीला अपरम्पार है।

ज्ञानी रू (चरणों पर गिरकर) भगवान्ए मेरा उद्वार करो।

चेतनदास रू कुछ और देखना चाहती है घ्

ज्ञानी रू महाराजए बहुत देख चुकी। मुझे विश्वास हो गया कि आप मेरा मनोरथ पूरा कर देंगी।

चेतनदास रू जो कुछ मैं कहूँ वह करना होगी।

ज्ञानी रू सिर के बल करूंगी।

चेतनदास रू कोई शंका की तो परिणाम बुरा होगी।

ज्ञानी रू (कांपती हुई) अब मुझे कोई शंका नहीं हो सकती। जब आपकी शरण आ गई तो कैसी शंका घ्

चेतनदास रू (मुस्कराकर) अगर आज्ञा दूंए कुएं में कूद पड़!

ज्ञानी रू तुरंत कूद पडूंगी। मुझे विश्वास है कि उससे भी मेरा कल्याण होगी।

चेतनदास रू अगर कहूँए अपने सब आभूषण उतारकर मुझे दे दे तो मन में यह तो न कहेगीए इसीलिए यह जाल फैलाया था।ए धूर्त है।

ज्ञानी रू (चरणों में गिरकर) महाराजए आप प्राण भी मांगें तो आपकी भेंट करूंगी।

चेतनदास रू अच्छा अब जाता हूँ। परीक्षा के लिए तैयार रहना।

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सातवां द्रश्य

समय रू प्रातरू कालए ज्येष्ठ।

स्थान रू गंगा का तट। राजेश्वरी एक सजे हुए कमरे में मसनद लगाए बैठी है। दो—तीन लौंडियां इधर—उधर दौड़कर काम कर रही हैं। सबलसिंह का प्रवेश।

सबल रू अगर मुझे उषा का चित्र खींचना हो तो तुम्हीं को नमूना बनाऊँ। तुम्हारे मुख पर मंद समीरण से लहराते हुए केश ऐसी शोभा दे रहे हैं मानो...

राजेश्वरी रू दो नागिनें लहराती चली जाती होंए किसी प्रेमी को डसने के लिए।

सबल रू तुमने हंसी में उड़ा दियाए मैंने बहुत ही अच्छी उपमा सोची थी।

राजेश्वरी रू खैरए यह बताइए तीन दिन तक दर्शन क्यों नहीं दिया ।

सबल रू (असमंजस में पड़कर) मैंने समझा शायद मेरे रोज आने से किसी को संदेह हो जाए।

राजेश्वरी रू मुझे इसकी कुछ परवाह नहीं है। आपको यहां नित्य आना होगी। आपको क्या मालूम है कि यहां किस तरह तड़पघ् तड़पकर दिन काटती हूँ।

सबल रू राजेश्वरीए मैं अपनी दशा कैसे दर्शाऊँ। बसए यही समझ लो जैसे पानी बिना मछली के तड़पती होए न सैर करने को जी चाहता हैए न घर से निकलने काए न किसी से मिलने—जुलने को यहां तक कि सिनेमा देखने को भी जी नहीं चाहता। जब यहां आने लगता हूँ तो ऐसी प्रबल उत्कंठा होती है कि उड़कर आ पहुंचूं। जब यहां से चलता हूँ तो ऐसा जान पड़ता है कि मुकदमा हार आया हूँ। राजेश्वरीए पहले मेरी केवल यही इच्छा थी कि तुम्हें आंखों से देखता रहूँए तुम्हारी मधुर वाणी सुनता रहूँ। तुम्हें अपनी देवी बनाकर पूजना चाहता था।ए पर जैसे ज्वर में जल से तृप्ति नहीं होतीए जैसे नई सभ्यता में विलास की वस्तुओं से तृप्ति नहीं होतीए वैसे ही प्रेम का भी हाल है( वह सर्वस्व देना और सर्वस्व लेना चाहता है। इतना यत्न करने पर भी घर के लोग मुझे चिंतित नेत्रों से देखने लगे हैं। उन्हें मेरे स्वभाव में कोई ऐसी बात नजर आती है जो पहले नहीं आती थी। न जाने इसका क्या अंत होगा!

राजेश्वरी रू इसका जो अंत होगा वह मैं जानती हूँ और उसे जानते हुए मैंने इस मार्ग पर पांव रखा है। पर उन चिंताओं को छोड़िए। जब ओखली में सिर दिया है तो मूसलों का क्या डर ! मैं यही चाहती हूँ कि आप दिन में किसी समय अवश्य आ जाया करें। आपको देखकर मेरे चित्त की ज्वाला शांत हो जाती हैए जैसे जलते हुए घाव पर मरहम लग जाए। अकेले मुझे डर भी लगता है कि कहीं वह हलजोत किसान मेरी टोह लगाता हुआ आ न पहुंचे। यह भय सदैव मेरे ह्रदय पर छाया रहता है। उसे क्रोध आता है तो वह उन्मत्त हो जाता है। उसे जरा भी खबर मिल गई तो मेरी जान की खैरियत नहीं है।

सबल रू उसकी जरा भी चिंता मत करो। मैंने उसे हिरासत में रखवा दिया है। वहां छह महीने तक रखूंगा। अभी तो एक महीने से कुछ ही उसपर हुआ है। छह महीने के बाद देखा जाएगी। रूपये कहां हैं कि देकर छूटेगा!

राजेश्वरी रू क्या जाने उसके गाय—बैल कहां गए घ् भूखों मर गए होंगी।

सबल रू नहींए मैंने पता लगाया था। वह बुङ्‌ढ़ा मुसलमान फत्तू उसके सब जानवरों को अपने घर ले गया है और उनकी अच्छी तरह सेवा करता है।

राजेश्वरी रू यह सुनकर चिंता मिट गई। मैं डरती थी कहीं सब जानवर मर गए हों तो हमें हत्या लगे।

सबल रू (घड़ी देखकर) यहां आता हूँ तो समय के पर—से लग जाते हैं। मेरा बस चलता तो एक—एक मिनट के एक—एक घंटे बना देता।

राजेश्वरी रू और मेरा बस चलता तो एक—एक घंटे के एक—एक मिनट बना देती। जब प्यास—भर पानी न मिले तो पानी में मुंह ही क्यों लगाए। जब कपड़े पर रंग के छींटे ही डालने हैं तो उसका उजला रहना ही अच्छा। अब मन को समेटना सीखूंगी।

सबल रू प्रिय

राजेश्वरी रू (बात काटकर) इस पवित्र शब्द को अपवित्र न कीजिए।

सबल रू (सजल नयन होकर) मेरी इतनी याचना तुम्हें स्वीकार करनी पड़ेगी। प्रियेए मुझे अनुभव हो रहा है कि यहां रहकर हम आनंदमय प्रेम का स्वर्ग—सुख न भोग सकेंगी। क्यों न हम किसी सुरम्य स्थान पर चलें जहां विघ्न और बाधाओंए चिंताओं और शंकाओं से मुक्त होकर जीवन व्यतीत होए मैं कह सकता हूँ कि मुझे जलवायु परिवर्तन के लिए किसी स्वास्थ्यकर स्थान की जरूरत है( जैसे गढ़़वालए आबू पर्वत या रांची)

राजेश्वरी रू लेकिन ज्ञानी देवी को क्या कीजिएगाघ् क्या वह साथ न चलेंगीघ्

सबल रू बस यही एक रूकावट है। ऐसा कौन—सा यत्न करूं कि वह मेरे साथ चलने पर आग्रह न करे। इसके साथ ही कोई संदेह भी न हो।

राजेश्वरी रू ज्ञानी सती हैंए वह किसी तरह यहां न रहेंगी। यूं आप दस—पांच दिनए या एक—दो महीने के लिए कहीं जाएं तो वह साथ न जाएंगीए लेकिन जब उन्हें मालूम होगा कि आपका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तब वह किसी तरह न रूकेंगी। और यह बात भी है कि ऐसी सती स्त्री को मैं दुरू खी नहीं करना चाहती। मैं तो केवल आपका प्रेम चाहती हूँ। उतना ही जितना ज्ञानी से बचे। मैं उनका अधिकार नहीं छीनना चाहती। मैं उनके पैरों की धूल के बराबर भी नहीं हूँ। मैं उनके घर में चोर की भांति घुसी हूँ। उनसे मेरी क्या बराबरी। आप उन्हें दुरू खी किए बिना मुझ पर जितनी कृपा कर सकते हैं उतनी कीजिए।

सबल रू (मन में) कैसे पवित्र विचार हैं ! ऐसा नारी—रत्न पाकर मैं उसके सुख से वंचित हूँ। मैं कमल तोड़ने के लिए क्यों पानी में घुसा जब जानता था कि वहां दलदल है। मदिरा पीकर चाहता हूँ कि उसका नशा न हो।

राजेश्वरी रू (मन में) भगवन्ए देखूं अपने व्रत का पालन कर सकती हूँ या नहीं कितने पवित्र भाव हैं( कितना अगाध प्रेम!

सबल रू (उठकर) प्रियेए कल इसी वक्त फिर आऊँगा। प्रेमालिंगन के लिए चित्त उत्कंठित हो रहा है।

राजेश्वरी रू यहां प्रेम की शांति नहींए प्रेम की दाह है। जाइए। देखूंए अब यह पहाड़—सा दिन कैसे कटता है। नींद भी जाने कहां भाग गई!

सबल रू (छज्जे के जीने से लौटकर) प्रियेए गजब हो गयाए वह देखोए कंचनसिंह जा रहे हैं। उन्होंने मुझे यहां से उतरते देख लिया। अब क्या करूं घ्

राजेश्वरी रू देख लिया तो क्या हरज हुआ घ् समझे होंगे आप किसी मित्र से मिलने आए होंगे।जरा मैं भी उन्हें देख लूं।

सबल रू जिस बात का मुझे डर था। वही हुआ। अवश्य ही उन्हें कुछ टोह लग गई है। नहीं तो इधर उनके आने का कोई काम न था।यह तो उनके पूजाघ् पाठ का समय है। इस वक्त कभी बाहर नहीं निकलते। हांए गंगास्नान करने जाते हैंए मगर घड़ी रात रहै। इधर से कहां जाएंगी। घरवालों को संदेह हो गया।

राजेश्वरी रू आपसे स्वरूप बहुत मिलता हुआ है। सुनहरी ऐनक खूब खिलती है।

सबल रू अगर वह सिर झुकाए अपनी राह चले जाते तो मुझे शंका न होती( पर वह इधर—उधरए नीचे—उपर इस भांति ताकते जाते थे जैसे शोहदे कोठों की ओर झांकते हैं। यह उनका स्वभाव नहीं है। बड़े ही धर्मज्ञए सच्चरित्रए ईश्वरभक्त पुरूष हैं। सांसारिकता से उन्हें घृणा है। इसीलिए अब तक विवाह नहीं किया।

राजेश्वरी रू अगर यह हाल है तो यहां पूछताछ करने जरूर आएंगी।

सबल रू मालूम होता है इस घर का पता पहले लगा लिया है। इस समय पूछताछ करने ही आए थे।मुझे देखा तो लौट गए। अब मेरी लज्जाए मेरा लोक—सम्मानए मेरा जीवन तुम्हारे अधीन है। तुम्हीं मेरी रक्षा कर सकती हो।

राजेश्वरी रू क्यों न कोई दूसरा मकान ठीक कर लीजिए।

सबल रू इससे कुछ न होगी। बस यही उपाय है कि जब वह यहां आएं तो उन्हें चकमा दिया जाए। कहला भेजोए मैं सबलसिंह को नहीं जानती। वह यहां कभी नहीं आते। दूसरा उपाय यह है कि उन्हें कुछ दिनों के लिए यहां से टाल दूं। कह देता हूँ कि जाकर लायलपुर से गेहूँ खरीद लाओ। तब तक हम लोग यहां से कहीं और चल देंगी।

राजेश्वरी रू यही तरकीब अच्छी है।

सबल रू अच्छी तो हैए पर हुआ बड़ा अनर्थ। अब पर्दा ढ़का रहना कठिन है।

राजेश्वरी रू (मन में) ईश्वरए यही मेरी प्रतिज्ञा के पूरे होने का अवसर है। मुझे बल प्रदान करो। (प्रकट) यह सब मुसीबतें मेरी लाई हुई हैं। मैं क्या जानती थी कि प्रेम—मार्ग में इतने कांटे हैं।

सबल रू मेरी बातों का ध्यान रखना। मेरे होश ठिकाने नहीं हैं। चलूंए देखूंए मुआमला अभी कंचनसिंह ही तक है या ज्ञानी को भी खबर हो गई।

राजेश्वरी रू आज संध्या समय आइए। मेरा जी उधर ही लगा रहेगा।

सबल रू अवश्य आऊँगा। अब तो मन लागि रह्यो होनी हो सो होई। मुझे अपनी कीर्ति बहुत प्यारी है। अब तक मैंने मान—प्रतिष्ठा ही को जीवन का आधार समझ रखा था।ए पर अब अवसर आया तो मैं इसे प्रेम की वेदी पर उसी तरह चढ़़ा दूंगा जैसे उपासक पुष्पों को चढ़़ा देता हैए नहीं जैसे कोई ज्ञानी पार्थिव वस्तुओं को लात मार देता है।

जाता है।

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आठवां द्रश्य

समय रू संध्याए जेठ का महीना।

स्थान रू मधुबन। कई आदमी फत्तू के द्वार पर खड़े हैं।

मंगई रू फत्तूए तुमने बहुत चक्कर लगायाए सारा संसार छान डाला।

सलोनी रू बेटाए तुम न होते तो हलधर का पता लगना मुसकिल था।

हरदास रू पता लगना तो मुसकिल नहीं था।ए हां जरा देर में लगता।

मंगई रू कहां—कहां गए थे घ्

फत्तू रू पहले तो कानपुर गया। वहां के सब पुतलीघरों को देखा । कहीं पता न लगी। तब लोगों ने कहाए बंबई चले जाव। वहां चला गया। मुदा उतने बड़े शहर में कहां—कहां ढ़ूंढ़़ता। चार—पांच दिन पुतलीघरों में देखने गयाए पर हिया। छूट गया। शहर काहे को है पूरा मुलुक है। जान पड़ता है संसार भर के आदमी वहीं आकर जमा हो गए हैं। तभी तो यहां गांव में आदमी नहीं मिलते। सच मानोए कुछ नहीं तो एक हजार मील तो होंगी। रात—दिन उनकी चिमनियों से धुआं निकला करता है। ऐसा जान पड़ता हैए राक्षसों की गौज मुंह से आग निकालती आकाश से लड़ने जा रही है। आखिर निराश होकर वहां से चला आया। गाड़ी में एक बाबूजी से बातचीत होने लगी। मैंने सब रामघ् कहानी उन्हें सुनाई। बड़े दयावान आदमी थे।कहा ए किसी अखबार में छपा दो कि जो उनका पता बता देगा उसे पचास रूपये इनाम दिया जाएगी। मेरे मन में भी बात जम गई। बाबूजी ही से मसौदा बनवा लिया और यहां गाड़ी से उतरते ही सीधे अखबार के दफ्तर में गया। छपाई का दाम देकर चला आया। पांचवें दिन वह चपरासी यहां आया जो मुझसे खड़ा बातें कर रहा था।उसने रत्ती—रत्ती सब पता बता दिया । हलधर न कलकत्ता गया है न बंबईए यहीं हिरासत में है। वही कहावत हुईए गोद में लड़का सहर में ढ़़िढ़ोरा।

मंगई रू हिरासत में क्यों है घ्

फत्तू रू महाजन की मेहरबानी और क्याघ् माघ—पूस में कंचनसिंह के यहां से कुछ रूपये लाया था। बस नादिहंदी के मामले में गिरफ्तारी करा दिया ।

हरदास रू उनके रूपये तो यहां और कई आदमियों पर आते हैंए किसी को गिरफ्तारी नहीं कराया। हलधर पर ही क्यों इतनी टेढ़़ी निगाह कीघ्

फत्तू रू पहले सबको गिरफ्तारी कराना चाहते थेए पर बाद को सबलसिंह ने मना कर दिया । दावा दायर करने की सलाह थी। पर बड़े ठाकुर तो दयावान जीव हैंए दावा भी मुल्तवी कर दियाए इधर लगान भी मुआग कर दी। मुझसे जब चपरासी ने यह हाल कहा तो जैसे बदन में आग जल गई। सीधे कंचनसिंह के पास गया और मुंह में जो कुछ आया कह सुनाया। सोच लिया था।ए दो—चार का सिर तोड़ के रख दूंगाए जो होगा देखा जाएगी। मगर बेचारे ने जबान तक नहीं खोली। जब मैंने कहा ए आप बड़े धर्मात्मा की पूंछ बनते हैंए सौ—दो सौ रूपयों के लिए गरीबों को जेहल में डालते हैंए उस आदमी का तो यह हाल हुआए उसकी घरवाली का कहीं पता नहींए मालूम नहीं कहीं डूब मरी या क्या हुआए यह सब पाप किसके सिर पड़ेगाए खुदाताला को क्या मुंह दिखाओगे तो बेचारे रोने लगे। लेकिन जब रूपयों की बात आई तो उस रकम में एक पैसा भी छोड़ने की हामी नहीं भरी।

सलोनी रू इतनी दौड़धूप तो कोई अपने बेटे के लिए भी न करता। भगवान इसका फल तुम्हें देंगी।

हरदास रू महाजन के कितने रूपये आते हैं घ्

फत्तू रू कोई ढ़ाई सौ होंगे।थोड़ीघ् थोड़ी मदद कर दो तो आज ही हलधर को छुड़ा लूं। मैं बहुत जेरबारी में पड़ गया हूँ। नहीं तो तुम लोगों से न मांगता।

मंगई रू भैयाए यहां रूपये कहांए जो कुछ लेई—पूंजी थी वह बेटी के गौने में खर्च हो गई। उस पर पत्थर ने और भी चौपट कर दिया ।

सलोनी रू बने के साथी सब होते हैंए बिगड़े का साथी कोई नहीं होता।

मंगई रू जो चाहे समझोए पर मेरे पास कुछ नहीं है।

हरदास रू अगर दस—बीस दे भी दें तो कौन जल्दी मिले जाते हैं। बरसों में मिलें तो मिलें। उसमें सबसे पहले अपनी जमा लेंगेए तब कहीं औरों को मिलेगी।

मंगई रू भला इस दौड़—धूप में तुम्हारे कितने रूपये लगे होंगे घ्

फत्तू रू क्या जानेए मेरे पास कोई हिसाब—किताब थोड़े ही है!

मंगई रू तब भी अंदाज से घ्

फत्तू रू कोई एक सौ बीस रूपये लगे होंगी।

मंगई रू (हरदास को कनखियों से देखकर) बेचारा हलधर तो बिना मौत मर गया। सौ रूपये इन्होंने चढ़़ा दिएए ढ़ाई सौ रूपये महाजन के होते हैंए गरी। कहां तक भरेगा घ्

फत्तू रू मुसीबत में जो मदद की जाती है वह अल्लाह की राह में की जाती है। उसे कर्ज नहीं समझा जाता।

हरदास रू तुम अपने सौ रूपये तो सीधे कर लोगे घ्

सलोनी रू (मुंह चिढ़़ाकर) हांए दलाली के कुछ पैसे तुझे भी मिल जाएंगी। मुंह धो रखना। हां बेटाए उसे छुड़ाने के लिए ढ़ाई सौ रूपये की क्या गिकर करोगे घ् कोई महाजन खड़ा किया है घ्

फत्तू रू नहींए काकीए महाजनों के जाल में न पडूंगा। कुछ तुम्हारी बहू के गहने—पाते हैं वह गिरो रख दूंगा। रूपये भी उसके पास कुछ—न—कुछ निकल ही आएंगे। बाकी रूपये अपने दोनों नाटे बेचकर खड़े कर लूंगा।

सलोनी रू महीने ही भर में तो तुम्हें फिर बैल चाहने होंगी।

फत्तू रू देखा जाएगी। हलधर के बैलों से काम चलाऊँगा।

बेटा रू बेटाए तुम तो हलधर के पीछे तबाह हो गए।

फत्तू रू काकीए इन्हीं दिनों के लिए तो छाती गाड़—गाड़ कमाते हैं।

और लोग थाने—अदालतों में रूपये बर्बाद करते हैं। मैंने तो एक पैसा भी बर्बाद नहीं किया। हलधर कोई गैर तो नहीं हैए अपना ही लड़का है। अपना लड़का इस मुसीबत में होता तो उसकोछुड़ाना पड़ता न ! समझ लूंगा कि अपनी बेटी के निकाह में लग गए।

सलोनी रू (हरदास की ओर देखकर) देखाए मर्द ऐसे होते हैं। ऐसे सपूतों के जन्म से माता का जीवन सुफल होता है। तुम दोनों हलधर के पट्टीदार होए एक ही परदादा के परपोते होए पर तुम्हारा लोहू सफेद हो गया है। तुम तो मन में खुश होगे कि अच्छा हुआ वह गयाए अब उसके खेतों पर हम कब्जा कर हुई।

हरदास रू काकीए मुंह न खुलवाओ। हमें कौन हलधर से वाह—वाही लूटनी हैए न एक के दो वसूल करने हैं। हम क्यों इस झमेले में पडें। यहां न ऊधो का लेनाए न माधो का देनाए अपने काम—से—काम है। फिर हलधर ने कौन यहां किसी की मदद कर दी घ् प्यासों मर भी जाते तो पानी को न पूछता। हांए दूसरों के लिए चाहे घर लुटा देते हों।

मंगई रू हलधर की बात ही क्या हैए अभी कल का लड़का है। उसके बाप ने भी कभी किसी की मदद की घ् चार दिन की आई बहू हैए वह भी हमें दुसमन समझती है।

सलोनी रू (फत्तू से) बेटाए सांझ हुईए दीयाबत्ती करने जाती हूँ। तुम थोड़ी देर में मेरे पास आनाए कुछ सलाह करूंगी।

फत्तू रू अच्छा एक गीत तो सुनाती जाओ। महीनों हो गए तुम्हारा गाना नहीं सुना।

सलोनी रू इन दोनों को अब कभी अपना गाना न सुनाऊँगी।

हरदास रू लोए हम कानों में उंगली रखे लेते हैं।

सलोनी रू हांए कान खोलना मत।

गाती है।

ढ़ूंढ़़ गिरी सारा संसारए नहीं मिला कोई अपना।

भाई भाई बैरी है गएए बाप हुआ जमदूत।

दया—धरम का उठ गया डेराए सज्जनता है सपना।

नहीं मिला कोई अपना।

जाती है।

'''

नौवां द्रश्य

स्थान रू मधुवनए हलधर का मकानए गांव के लोग जमा हैं।

समय रू ज्येष्ठ की संध्या।

हलधर रू (बाल बढ़़े हुएए दुर्बलए मलिन मुख) फत्तू काकाए तुमने मुझे नाहक छुड़ायाए वहीं क्यों न घुलने दिया । अगर मुझे मालूम होता कि घर की यह दशा है तो उधर से ही देश—विदेश की राह लेताए यहां अपना काला मुंह दिखाने न आता। मैं इस औरत को पतिव्रता समझता था।देवी समझकर उसकी पूजा करता था।पर यह नहीं जानता था। कि वह मेरे पीठ फेरते ही यों पुरखों के माथे पर कलंक लगाएगी। हाय!

सलोनी रू बेटाए वह सचमुच देवी थी। ऐसी पतिबरता नारी मैंने नहीं देखी। तुम उस पर संदेह करके उस पर बड़ा अन्याय कर रहे होए मैं रोज रात को उसके पास सोती थी। उसकी आंखें रात—की—रात खुली रहती थीं।करवटें बदला करती। मेरे बहुत कहने—सुनने पर भी कभी—कभी भोजन बनाती थीए पर दो—चार कौर भी न खाया जाता। मुंह जूठा करके उठ आती। रात—दिन तुम्हारी ही चर्चाए तुम्हारी ही बातें किया करती थी। शोक और दुरू ख में जीवन से निराश होकर उसने चाहे प्राण दे दिए हों पर वह कुल को कलंक नहीं लगा सकती। बरम्हा भी आकर उस पर यह दोख लगाएं तो मुझे उन पर बिसवास न आएगी।

फत्तू रू काकीए तुम तो उसके साथ सोती ही बैठती थींए तुम जितना जानती हो उतना मैं कहां से जानूंगाए लेकिन इससे गांव में सत्तर बरस की उमिर गुजर गईए सैकड़ों बहुएं आई पर किसी में वह बात नहीं पाई जो इसमें है। न ताकनाए न झांकनाए सिर झुकाए अपनी राह जानाए अपनी राह आना। सचमुच ही देवी थी।

हलधर रू काकाए किसी तरह मन को समझाने तो दो। जब अंगूठी पानी में फिर गई तो यह सोचकर क्यों न मन को धीरज दूं कि उसका नग कच्चा था।हायए अब घर में पांव नहीं रखा जाता।ऐसा जान पड़ता है कि घर की जान निकल गई।

सलोनी रू जाते—जाते घर को लीप गई है। देखो अनाज मटकों में रखकर इनका मुंह मिट्टी से बंद कर दिया है। यह घी की हांड़ी है। लबालब भरी हुई बेचारी ने संच कर रखा था।क्या कुल्टाएं गिरस्ती की ओर इतना ध्यान देती हैं घ् एक तिनका भी तो इधर—उधर पड़ा नहीं दिखाई देता।

हलधर रू (रोकर) काकीए मेरे लिए अब संसार सूना हो गया। वह गंगा की गोद में चली गई। अब फिर उसकी मोहिनी मूरत देखने को न मिलेगी। भगवान बड़ा निर्दयी है। इतनी जल्दी छीन लेना था। तो दिया ही क्यों था।

फत्तू रू बेटाए अब तो जो कुछ होना था। वह हो चुकाए अब सबर करो और अल्लाताला से दुआ करो कि उस देवी को निजात दे। रोने—धोने से क्या होगा ! वह तुम्हारे लिए थी ही नहीं उसे भगवान ने रानी बनने के लिए बनाया था।कोई ऐसी ही बात हो गई थी कि वह कुछ दिनों के लिए इस दुनिया में आई थी। वह मियाद पूरी करके चली गई। यही समझकर सबर करो।

हलधर रू काकाए नहीं सबर होता। कलेजे में पीड़ा हो रही है। ऐसा जान पड़ता हैए कोई उसे जबरदस्ती मुझसे छीन ले गया होए हांए सचमुच वह मुझसे छीन ली गयी हैए और यह अत्याचार किया है सबलसिंह और उनके भाई ने। न मैं हिरासत में जाताए न घर यों तबाह होता। उसका वध करने वालेए उसकी जान लेने वाले यही दोनों भाई हैं घ् नहींए इन दोनों भाइयों को क्यों बदनाम करूंए सारी विपत्ति इस कानून की लाई हुई हैए जो गरीबों को धनी लोगों की मुट्ठी में कर देता है। फिर कानून को क्यों कहूँ। जैसा संसार वैसा व्यवहारब

फत्तू रू बसए यही बात हैए जैसा संसार वैसा व्यवहार। धनी लोगों

के हाथ में अख्तियार है। गरीबों को सताने के लिए जैसा

कानून चाहते हैंए बनाते हैं। बैठोए नाई बुलवाए देता हूँए बाल बनवा लो।

हलधर रू नहीं काकाए अब इस घर में न बैठूंगा। किसके लिए घर—बार

के झमेले में पडूं। अपना पेट हैए उसकी क्या चिंता ! इस अन्यायी संसार में रहने का जी नहीं चाहता। ढ़ाई सौ रूपयो के पीछे मेरा सत्यानास हो गया। ऐसा परबस होकर जिया ही तो क्या ! चलता हूँए कहीं साधु—वैरागी हो जाऊँगाए मांगता—खाता फिरूंगा।

हरदास रू तुम तो साधु—बैरागी हो जाओगेए यह रूपये कौन भरेगा घ्

फत्तू रू रूपये—पैसे की कौन बात हैए तुमको इससे क्या मतलबघ् यह

तो आपस का व्यवहार हैए हमारी अटक पर तुम काम आएए

तुम्हारी अटक पर हम काम आएंगी। कोई लेन—देन थोड़ा ही किया है !

सलोनी रू इसकी बिच्छू की भांति डंक मारने की आदत है।

हलधर रू नहींए इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। फत्तू काकाए मैं तुम्हारी नेकी को कभी नहीं भूल सकता। तुमने जो कुछ किया वह अपना बाप भी न करता। जब तक मेरे दम—में—दम है तुम्हारा और तुम्हारे खानदान का गुलाम बना रहूँगी। मेरा घर—द्वारए खेती—बारीए बैल—बधियेए जो कुछ है सब तुम्हारा हैए और मैं तुम्हारा गुलाम हूँ। बसए अब मुझे बिदा करोए जीता रहूँगा तो फिर मिलूंगाए नहीं तो कौन किसका होता है। काकीए जाता हूँए सब भाइयों को राम—राम !

फत्तू रू (रास्ता रोककर गद्‌गद कंठ से) बेटाए इतना दिल छोटा न करो। कौन जानेए अल्लाताला बड़ा कारसाज हैए कहीं बहू का पता लग ही जाये। इतने अधीर होने की कोई बात नहीं है।

हरदास रू चार दिन में तो दूसरी सगाई हो जाएगी।

हलधर रू भैयाए दूसरी सगाई अब उस जनम में होगी। इस जनम में तो अब ठोकर खाना ही लिखा है। अगर भगवान को यह न मंजूर होता तो क्या मेरा बना—बनाया घर उजड़ जाता घ्

फत्तू रू मेरा तो दिल बार—बार कहता है कि दो—चार दिन में राजेश्वरी का पता जरूर लग जाएगी। कुछ खाना बनाओए खाओए सबेरे चलेंगेए फिर इधर—उधर टोह लगाएंगी।

हरदास रू पहले जाके ताला। में अच्छी तरह असनान कर लो।चलूंए जानवर हार से आ गए होंगे।(सब चले जाते हैं।)

हलधर रू यह घर गाड़े खाता हैए इसमें तो बैठा भी नहीं जाता । इस वक्त काम करके आता था। तो उसकी मोहनी सूरत देखकर चित्त कैसा खिल जाता था।कंचनए तूने मेरा सुख हर लियाए तूने मेरे घर में आग जल दी। ओहोए वह कौन उजली साड़ी पहने उस घर में खड़ी है। वही हैए छिपी हुई थी। खड़ी हैए आती नहीं (उस घर के द्वार पर जाकर) राम ! राम ! कितना भरम हुआए सन की गांठ रखी हुई है अब उसके दर्शन फिर नसीब न होंगे।जीवन में अब कुछ नहीं रहा। हाए पापीए निर्दयी ! तूने मेरा सर्वनाश कर दियाए मुट्ठी भर रूपयों के पीछे ! इस अन्याय का मजा तुझे चखाऊँगा। तू भी क्या समझेगा कि गरीबों का गला काटना कैसा होता है

लाठी लेकर घर से निकल जाता है।

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दसवां द्रश्य

स्थान रू गुलाबी का घर।

समय रू प्रातरू काल।

गुलाबी रू जो काम करन बैठती है उसी की हो रहती है। मैंने घर में झाडू लगाईए पूजा के बासन धोएए तोते को चारा खिलायाए गाय खोलीए उसका गोबर उठायाए और यह महारानी अभी पांच सेर गेहूँ लिये जांत पर औंघ रही हैं। किसी काम में इसका जी नहीं लगता। न जाने किस घमंड में भूली रहती है। बाप के पास ऐसा कौन—सा दहेज था। कि किसी धनिक के घर जाती । कुछ नहींए यह सब तुम्हारे सिर चढ़़ाने का फल है। औरत को जहां मुंह लगाया कि उसका सिर गिराब फिर उसके पांव जमीन पर नहीं पड़ते। इस जात को तो कभी मुंह लगाए ही नहीं चाहे कोई बात भी न हो( पर उसका मान मरदन नित्य करता रहै।

भृगु रू क्या करूं अम्मांए सब कुछ करके तो हार गया। कोई बातसुनती ही नहीं ज्योंही गरम पड़ता हूँए रोने लगती है। बस दया आ जाती है।

गुलाबी रू मैं रोती हूँ तब तो तेरा कलेजा पत्थर का हो जाता हैए उसे रोते देखकर क्यों दया आ जाती है।

भृगु रू अम्मांए तुम घर की मालकिन होए तुम रोती हो तो हमारा दुरू ख देखकर रोती होए तुम्हें कौन कुछ कह सकता है घ्

गुलाबी रू तू ही अपने मन से समझए मेरी उमिर अब नौकरी करने की

है। यह सब तेरे ही कारण न करना पड़ता है घ् तीन महीने

हो गएए तूने घर के खरच के लिए एक पैसा भी न दिया । मैं न जाने किस—किस उपाय से काम चलाती हूँ।तू कमाता है तो क्या करता है घ् जवान बेटे के होते मुझे छाती गाड़नी पड़ेए तो दिनों को रोऊँ कि न रोऊँ। उस पर घर में कोई बात पूछने वाला नहीं पूछो महरानी से महीने—भर हो गएए कभी सिर में तेल डालाए कभी पैर दबाए। सीधे मुंह बात तो करतीं नहींए भला सेवा क्या करेंगी। रोऊँ न तो क्या करूं घ् मौत भी नहीं आ जाती कि इस जंजाल से छूट जाती। जाने कागद कहां खो गया।

भृगु रू अम्मां ऐसी बातें न करो। तुम्हारे बिना यह गिरस्ती कौन

चलाएगाघ् तुम्हीं ने पाल—पोसकर इतना बड़ा किया है। जब तक जीती हो इसी तरह पाले जाओ। फिर तो यह चक्की गले पड़ेगी ही।

गुलाबी रू अब मेरा किया नहीं होता।

भृगु रू तो मुझे परदेस जाने दो। यहां मेरा किया कुछ न होगी।

गुलाबी रू आखिर मुनीबी में तुझे कुछ मिलता है कि नहीं वह सब कहां उड़ा देता है घ्

भृगु रू कसम ले लो जो इधर तीन महीने में कौड़ी से भेंट हुई होए

जब से ओले पड़े हैंए ठाकुर साहब ने लेन—देन सब बंद कर दिया है।

गुलाबी रू तेरी मारगत बाजार से सौदा—सुलफ आता है कि नहीं घर में जिस चीज का काम पड़ता है वह मैं तुझी से मंगवाने को कहती हूँ। पांच—छरू सौ का सौदा तो भीतर ही का आता होगी। तू उसमें कुछ काटपेच नहीं करता घ्

भृगु रू मुझे तो अम्मांए यह सब कुछ नहीं आता।

गुलाबी रू चलए झूठे कहीं के मेरे सौदे में तो तू अपनी चाल चल ही जाता हैए वहां न चलेगी। दस्तूरी पाता हैए भाव में कसता है। तौल में कसता है। उस पर मुझसे उड़ने चला है। सुनती हूँ दलाली भी करते होए यह सब कहां उड़ जाता है घ्

भृगु रू अम्मांए किसी ने तुमसे झूठमूठ कह दिया होगी। तुम्हारा सरल स्वभाव हैए जिसने जो कुछ कह दिया वही मान जाती होए तुम्हारे चरण छूकर कहता हूँ जो कभी दलाली की होए सौदे—सुलुफ में दो—चार रूपये कभी मिल जाते हैं तो भंग—बूटीए पान—पत्ते का खर्च चलता है।

गुलाबी रू जाकर चुड़ैल से कह दे पानी—वानी रखेए नहाऊँ नहीं तो ठाकुर के यहां कैसे जाऊँगी घ् सारे दिन चक्की के नाम को रोया करेगी क्या घ्

भृगु रू अम्मांए तुम्हीं जाकर कहोए मेरा कहना न मानेगी।

गुलाबी रू हांए तू क्यों कहेगा ! तुझे तो उसने भेड़ बना लिया है। ऊंगलियों पर नचाया करती है। न जाने कौन—सा जादू डाल दिया है कि तेरी मति ही हर गई। जाए ओढ़़नी ओढ़़ के बैठब

बहू के पास जाती है।

क्यों रेए सारे दिन चक्की के नाम को रोएगी या और भी कोई काम है घ्

चम्पा रू क्या चार हाथ—पैर कर लूं घ् क्या यहां सोयी हूँ!

गुलाबी रू चुप रहए डाकून कहीं कीए बोलने को मरी जाती है। सेर—भर गेहूँ लिए बैठी है। कौन लड़के—बाले रो रहे हैं कि उनके तेल— उबटन में लगी रहती है। घड़ी रात रहे क्यों नहीं उठतीघ् बांझिनए तेरा मुंह देखना पाप है।

चम्पा रू इसमें भी किसी का बस है घ् भगवान नहीं देते तो क्या अपने हाथों से गढ़़ लूं घ्

गुलाबी रू फिर मुंह नहीं बंद करती चुड़ैल। जीभ कतरनी की तरह चला करती है। लजाती नहीं तेरे साथ की आई बहुरियां दो—दो लड़कों की मां हो गई हैं और तू अभी बांठ बनी है। न जाने कब तेरा पैरा इस घर से उठेगी। जाए नहाने को पानी रख देए नहीं तो भले परांठे चखाऊँगी। एक दिन काम न करूं तो मुंह में मक्खी आने—जाने लगे। सहज में ही यह चरबौतियां नहीं उड़ती।

बहू रू जैसी रोटीयां तुम खिलाती हो ऐसी जहां छाती गाडूंगी वहीं मिल जाएंगी। यहां गद्दी—मसनद नहीं लगी है।

गुलाबी रू (दांत पीसकर) जी चाहता है सट से तालू से जबान खींच लें। कुछ नहींए मेरी यह सब सांसत भगुवा करा रहा हैए नहीं तो तेरी मजाल थी कि मुझसे यों जबान चलाती । कलमुंहे को और घर न मिलता था। जो अपने सिर की बला यहां पटक गया। अब जो पाऊँ तो मुंह झौंस दूं।

चम्पा रू अम्मांजीए मुझे जो चाहो कह लोए तुम्हारा दिया खाती हूँए मारो या काटोए दादा को क्यों कोसती हो घ् भाग बखानो कि बेटे के सिर पर मौर चढ़़ गयाए नहीं तो कोई बात भी न पूछता। ऐसा हुस्न नहीं बरसता था। कि देख के लट्टू हो जाता।

गुलाबी रू भगवान को डरती हूँए नहीं तो कच्चा ही खा जाती। न जाने कब इस अभागिन बांझ से संग छूटेगी।

चली जाती है। भृगु आता है।

चम्पा रू तुम मुझे मेरे घर क्यों नहीं पहुंचा देतेए नहीं एक दिन कुछ खाकर सो रहूँगी तो पछताओगे। टुकुर—टुकुर देखा करते होए पर मुंह नहीं खुलता कि अम्मांए वह भी तो आदमी हैए पांच सेर गहूँ पीसना क्या दाल—भात का कौर है घ्

भृगु रू —तुम उसकी बातों का बुरा क्यों मानती होए मुंह ही से न कहती है कि और कुछ। समझ लो कुतिया भूंक रही है। दुधार गाय की लात भी सही जाती है। आज नौकरी करना छोड़ दें तो सारी गृहस्थी का बोझ मेरे ही सिर पड़ेगा कि और किसी के सिर घ् धीरज धरे कुछ दिन पड़ी रहोए चार थान गहने हो जाएंगेए चार पैसे गांठ में हो जाएंगी। इतनी मोटी बात भी नहीं समझती होए झूठ—मूठ उलझ जाती होए

चम्पा रू मुझसे तो ताने सुनकर चुप नहीं रहा जाता। शरीर में ज्वाला—सी उठने लगती है।

भृगु रू उठने दिया करोए उससे किसी के जलने का डर नहीं है। बस उसकी बातों का जवाब न दिया करो। इस कान सुना और उस कान उड़ा दिया ।

चप्पा रू सोनार कंठा कब देगा घ्

भृगु रू दो—तीन दिन में देने को कहा है। ऐसे सुंदर दाने बनाए हैं कि देखकर खुश हो जाओगी। यह देखो

चम्पा रू क्या है घ्

भृगु रू न दिखाऊँगाए न।

चम्पा रू मुट्ठी खोलो।यह गिन्नी कहां पाई घ् मैं न दूंगी।

भृगु रू पाने की न पूछोए एक असामी रूपये लौटाने आया था।खाते में दो रूपये सैकड़े का दर लिखा हैए मैंने ढ़ाई रूपये सैकड़े की दर से वसूल किया।

बाहर चला जाता है।

चम्पा रू (मन में) बुढ़़िया सीधी होती तो चौन—ही—चौन था।

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अंक 3

प्रथम द्रश्य

स्थान रू कंचनसिंह का कमरा।

समय रू दोपहरए खस की टट्टी लगी हुई हैए कंचनसिंह सीतलपाटी बिछाकर लेटे हुए हैंए पंखा चल रहा है।

कंचन रू (आप—ही—आप) भाई साहब में तो यह आदत कभी नहीं थी। इसमें अब लेश—मात्र भी संदेह नहीं है कि वह कोई अत्यंत रूपवती स्त्री है। मैंने उसे छज्जे पर से झांकते देखा था।ए भाई साहब आड़ में छिप गए थे।अगर कुछ रहस्य की बात न होती तो वह कदापि न छिपतेए बल्कि मुझसे पूछतेए कहां जा रहे होए मेरा माथा उसी वक्त ठनका था। जब मैंने उन्हें नित्यप्रति बिना किसी कोचवान के अपने हाथों टमटम हांकते सैर करने जाते देखा । उनकी इस भांति घूमने की आदत न थी। आजकल न कभी क्लब जाते हैं न और किसी से मिलतेघ् जुलते हैं। पत्रों से भी रूचि नहीं जान पड़ती। सप्ताह में एक—न —एक लेख अवश्य लिख लेते थेए पर इधर महीनों से एक पंक्ति भी कहीं नहीं लिखीए यह बुरा हुआ। जिस प्रकार बंधा हुआ पानी खुलता है तो बड़े वेग से बहने लगता है अथवा रूकी वायु चलती है तो बहुत प्रचण्ड हो जाता हैए उसी प्रकार संयमी पुरूष जब विचलित होता हैए यह अविचार की चरम सीमा तक चला जाता है। न किसी की सुनता हैए न किसी के रोके रूकता हैए न परिणाम सोचता है। उसके विवेक और बुद्वि पर पर्दा—सा पड़ जाता है। कदाचित्‌ भाई साहब को मालूम हो गया है कि मैंने उन्हें वहां देख लिया। इसीलिए वह मुझसे माल खरीदने के लिए पंजाब जाने को कहते हैं। मुझे कुछ दिनों के लिए हटा देना चाहते हैं। यही बात हैए नहीं तो वह माल—वाल की इतनी चिंता कभी न किया करते थे।मुझे तो अब कुशल नहीं दीखती। भाभी को कहीं खबर मिल गई तो वह प्राण ही दे देंगी। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे विद्वानए गंभीर पुरूष भी इस मायाजाल में फंस जाते हैं। अगर मैंने अपनी आंखों न देखा होता तो भाई साहब के संबंध में कभी इस दुष्कल्पना का विश्वास न आता।

ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी रू बाबूजीए आज सोए नहीं घ्

कंचन रू नहींए कुछ हिसाब—किताब देख रहा था।भाई साहब ने लगान न मुआफ कर दिया होता तो अबकी मैं ठाकुरद्वारे में जरूर हाथ लगा देता। असामियों से कुछ रूपये वसूल होतेए लेकिन उन पर दावा ही न करने दिया ।

ज्ञानी रू वह तो मुझसे कहते थे दो—चार महीनों के लिए पहाड़ों की सैर करने जाऊँगा। डारुक्टर ने कहा हैए यहां रहोगे तो तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड़ जाएगी। आजकल कुछ दुर्बल भी तो हो गये हैं। बाबूजी एक बात पूछूंए बताओगे। तुम्हें भी इनके स्वभाव में कुछ अंतर दिखायी देता है घ् मुझे तो बहुत अंतर मालूम होता है। वह कभी इतने नम्र और सरल नहीं थे।अब वह एक—एक बात सावधान होकर कहते हैं कि कहीं मुझे बुरा न लगे। उनके सामने जाती हूँ तो मुझे देखते ही मानो नींद से चौंक पड़ते हैं और इस भांति हंसकर स्वागत करते हैं जैसे कोई मेहमान आया होए मेरा मुंह जोहा करते हैं कि कोई बात कहे और उसे पूरी कर दूं। जैसे घर के लोग बीमार का मन रखने का यत्न करते हैं या जैसे किसी शोक—पीड़ित मनुष्य के साथ लोगों का व्यवहार सदय हो जाता हैए उसी प्रकार आजकल पके हुए गोड़े की तरह मुझे ठेस से बचाया जाता है। इसका रहस्य कुछ मेरी समझ में नहीं आता। खेद तो मुझे यह है कि इन सारी बातों में दिखावट और बनावट की बू आती है। सच्चा क्रोध उतना ह्दयभेदी नहीं होता जितना कृत्रिम प्रेम।

कंचन रू (मन में) वही बात है। किसी बच्चे से हम अशर्फी ले लेते हैं कि खो न दे तो उसे मिठाइयों से फुसला देते हैं। भाई साहब ने भाभी से अपना प्रेम—रत्न छीन लिया है और बनावटी स्नेह और प्रणय से इनको तस्कीन देना चाहते हैं। इस प्रेम—मूर्ति का अब परमात्मा ही मालिक है। (प्रकट) मैंने तो इधर ध्यान नहीं दिया । स्त्रियां सूक्ष्मदर्शी होती हैं

खिदमतगार आता है। ज्ञानी चली जाती है।

कंचन रू क्या काम है घ्

खिदमतगार रू यह सरकारी लिगागा आया है। चपरासी बाहर खड़ा है।

कंचन रू (रसीद की बही पर हस्ताक्षर करके) यह सिपाही को दो। (खिदमतगार चला जाता है।) अच्छाए गांव वालों ने मिलकर हलधर को छुड़ा लिया। अच्छा ही हुआ। मुझे उससे कोई दुश्मनी तो थी नहीं मेरे रूपये वसूल हो गए। यह कार्रवाई न की जाती तो कभी रूपये न वसूल होते। इसी से लोग कहते हैं कि नीचों को जब तक खूब न दबाओ उनकी गांठ नहीं खुलती। औरों पर भी इसी तरह दावा कर दिया गया होता तो बात—की—बात में सब रूपये निकल आते। और कुछ न होता तो ठाकुरद्वारे में हाथ तो लगा ही देता। भाई साहब को समझाना तो मेरा काम नहींए उनके सामने रोबए शर्म और संकोच से मेरी जबान ही न खुलेगी। उसी के पास चलूंए उसके रंग—ढ़़ंग देखूंए कौन हैए क्या चाहती हैए क्यों यह जाल फैलाया है घ् अगर धन के लोभ से यह माया रची है तो जो कुछ उसकी इच्छा हो देकर यहां से हटा दूं। भाई साहब को और समस्त परिवार को सर्वनाश से बचा लूं। (फिर खिदमतगार आता है।) क्या बार—बार आते हो घ् क्या काम हैघ् मेरे पास पेशगी देने के लिए रूपये नहीं हैं।

खिदमतगार रू हुजूरए रूपये नहीं मांगता। बड़े सरकार ने आपको याद किया है।

कंचन रू (मन में) मेरा तो दिल धक—धक कर रहा हैए न जाने क्यों बुलाते हैं ! कहीं पूछ न बैठेंए तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हुए होए

उठकर ठाकुर सबलसिंह के कमरे में जाते हैं।

सबल रू तुमको एक विशेष कारण से तकलीफ दी है। इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत अच्छी नहीं रहतीए रात को नींद कम आती है और भोजन से भी अरूचि हो गई है।

कंचन रू आपका भोजन आधा भी नहीं रहा।

सबल रू हांए वह भी जबरदस्ती खाता हूँ। इसलिए मेरा विचार हो रहा है कि तीन—चार महीनों के लिए मंसूरी चला जाऊँ।

कंचन रू जलवायु के बदलने से कुछ लाभ तो अवश्य होगा।

सबल रू तुम्हें रूपयों का प्रबंध करने में ज्यादा असुविधा तो न होगी घ्

कंचन रू उसपर तो केवल पांच हजार रूपये होंगे।चार हजार दो सौ पचास रूपये मूलचंद ने दिये हैंए पांच सौ रूपये श्रीराम नेए और ढ़ाई सौ रूपये हलधर ने।

सबल रू (चौंककर) क्या हलधर ने भी रूपये दे दिए घ्

कंचन रू हांए गांव वालों ने मदद की होगी।

सबल रू तब तो वह छूटकर अपने घर पहुंच गया होगाघ्

कंचन रू जी हां।

सबल रू (कुछ देर तक सोचकर) मेरे सफर की तैयारी में कै दिन लगेंगेघ्

कंचन रू क्या जाना बहुत जरूरी है घ् क्यों न यहीं कुछ दिनों के लिए देहात चले जाइए। लिखने—पढ़़ने का काम भी बंद कर दीजिए।

सबल रू डारुक्टरों की सलाह पहाड़ों पर जाने की है। मैं कल किसी वक्त यहां से मंसूरी चला जाना चाहता हूँ।

कंचन रू जैसी इच्छा।

सबल रू मेरे साथ किसी नौकर—चाकर के जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी भाभी चलने के लिए आग्रह करेंगी। उन्हें समझा देना कि तुम्हारे चलने से खर्च बहुत बढ़़ जाएगी। नौकरए महरीए मिसराइनए सभी को जाना पड़ेगा और इस वक्त इतनी गुंजाइश नहीं ।

कंचन रू अकेले तो आपको बहुत तकलीफ होगी।

सबल रू (खीझकर) क्या संसार में अकेले कोई यात्रा नहीं करता घ् अमरीका के करोड़पति तक एक हैंडबैग लेकर भारत की यात्रा पर चल खड़े होते हैंए मेरी कौन गिनती है। मैं उन रईसों में नहीं हूँ जिनके घर में चाहे भोजन का ठिकाना न होए जायदाद बिकी जाती होए पर जूता नौकर ही पहनाएगाए शौच के लिए लोटा लेकर नौकर ही जाएगा। यह रियासत नहीं हिमाकत है।

कंचनसिंह चले जाते हैं।

सबल रू (मन में) वही हुआ जिसकी आशंका थी। आज ही राजेश्वरी से चलने को कहूँ और कल प्रातरू काल यहां से चल दूं। हलधर कहीं आ पड़ा और उसे संदेह हो गया तो बड़ी मुश्किल होगी। ज्ञानी आसानी से न मानेगी । उसे देखकर दया आती है। किंतु आज ह्रदय को कड़ा करके उसे भी रोकना पड़ेगा।

अंचल का प्रवेश।

अचल रू दादाजीए आप पहाड़ों पर जा रहे हैंए मैं भी साथ चलूंगा।

सबल रू बेटाए मैं अकेले जा रहा हूँए तुम्हें तकलीफ होगी।

अचल रू इसीलिए तो मैं और चलना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि खूब तकलीफ होए सब काम अपने हाथों करना पड़ेए मोटा खाना मिले और कभी मिलेए कभी न मिले। तकलीफ उठाने से आदमी की हिम्मत मजबूत हो जाती हैए वह निर्भय हो जाता है। जरा—जरा—सी बातों से घबराता नहींए मुझे जरूर ले चलिए।

सबल रू मैं वहां एक जगह थोड़े ही रहूँगा। कभी यहांए कभी वहां।

अचल रू यह तो और भी अच्छा है। तरह—तरह की चीजेंए नये—नये द्रश्य देखने में आएंगी। और मुल्कों में तो लड़कों को सरकार की तरफ से सैर करने का मौका दिया जाता है। किताबों में भी लिखा है कि बिना देशाटन किए अनुभव नहीं होताए और भूगोल जानने का तो इसके सिवा कोई अन्य उपाय नहीं है । नक्शों और माडलों के देखने से क्या होता है ! मैं इस मौके को न जाने दूंगा।

सबल रू बेटाए तुम कभी—कभी व्यर्थ में जिद करने लगते होए मैंने कह दिया कि मैं इस वक्त अकेले ही जाना चाहता हूँए यहां तक कि किसी नौकर को भी साथ नहीं ले जाता। अगले वर्ष मैं तुम्हें इतनी सैरें करा दूंगा कि तुम ऊब जाओगी। (अचल उदास होकर चला जाता है।) अब सफर की तैयारी करूं। मुख्तसर ही सामान ले जाना मुनासिब होगी। रूपये हों तो जंगल में भी मंगल हो सकता है। आज शाम को राजेश्वरी से भी चलने की तैयारी करने को कह दूंगाए प्रातरू काल हम दोनों यहां से चले जाएं। प्रेम—पाश में फंसकर देखाए नीति काए आत्मा काए धर्म का कितना बलिदान करना पड़ता हैए और किस—किस वन की पत्तियां तोड़नी पड़ती हैं ।

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दूसरा द्रश्य

स्थान रू राजेश्वरी का सजा हुआ कमरा।

समय रू दोपहर।

लौंडी रू बाईजीए कोई नीचे पुकार रहा है।

राजेश्वरी रू (नींद से चौंककर) क्या कहा — श्ए आग जली है घ्

लौंडी रू नौजए कोई आदमी नीचे पुकार रहा है।

राजेश्वरी रू पूछा नहीं कौन हैए क्या कहता हैए किस मतलब से आया है घ् संदेशा लेकर दौड़ चलीए कैसे मजे का सपना देख रही थी।

लौंडी रू ठाकुर साहब ने तो कह दिया है कि कोई कितना ही पुकारेए कोई होए किवाड़ न खोलनाए न कुछ जवाब देना। इसीलिए मैंने कुछ पूछताछ नहीं की।

राजेश्वरी रू मैं कहती हूँ जाकर पूछोए कौन है घ्

महरी जाती है और एक क्षण में लौट आती है।

लौंडी रू अरे बाईजीए बड़ा गजब हो गया। यह तो ठाकुर साहब के छोटे भाई बाबू कंचनसिंह हैं। अब क्या होगाघ्

राजेश्वरी रू होगा क्याए जाकर बुला ला।

लौंडी रू ठाकुर साहब सुनेंगे तो मेरे सिर का बाल भी न छोड़ेंगे।

राजेश्वरी रू तो ठाकुर साहब को सुनाने कौन जाएगा ! अब यह तो नहीं हो सकता कि उनके भाई द्वार पर आएं और मैं उनकी बात तक न पूछूं। वह अपने मन में क्या कहेंगे ! जाकर बुला ला और दीवानखाने में बिठला। मैं आती हूँ।

लौंडी रू किसी ने पूछा तो मैं कह दूंगीए अपने बाल न नुचवाऊँगी।

राजेश्वरी रू तेरा सिर देखने से तो यही मालूम होता है कि एक नहीं कई बार बाल नुच चुके हैं। मेरी खातिर से एक बार और नुचवा लेना । यह लोए इससे बालों के बढ़़ाने की दवा ले लेना।

लौंडी चली जाती है।

राजेश्वरी रू (मन में) इनके आने का क्या प्रयोजन है घ् कहीं उन्होंने जाकर इन्हें कुछ कहा—सुना तो नहीं घ् आप ही मालूम हो जाएगी। अब मेरा दांव आया है। ईश्वर मेरे सहायक हैं । मैं किसी भांति आप ही इनसे मिलना चाहती थी। वह स्वयं आ गए। (आईने में सूरत देखकर) इस वक्त किसी बनाव चुनाव की जरूरत नहींए यह अलसाई मतवाली आंखें सोलहों सिंगार के बराबर हैं। क्या जानें किस स्वभाव का आदमी है। अभी तक विवाह नहीं किया हैए पूजा—पाठए पोथी—पत्रे में रात—दिन लिप्त रहता है। इस पर मंत्र चलना कठिन है। कठिन हो सकता हैए पर असाध्य नहीं है। मैं तो कहती हूँए कठिन भी नहीं है। आदमी कुछ खोकर तब सीखता है। जिसने खोया ही नहीं वह क्या सीखेगी। मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। भगवान्‌ ने यह रूप दिया था। तो ऐसे पुरूष का संग क्यों दिया जो बिल्कुल दूसरों की मुट्ठी में था। ! यह उसी का फल है कि जिनके सज्जनों की मुझे पूजा करनी चाहिए थीए आज मैं उनके खून की प्यासी हो रही हूँ। क्यों न खून की प्यासी होऊँ घ् देवता ही क्यों न होए जब अपना सर्वनाश कर दे तो उसकी पूजा क्यों करूं ! यह दयावान हैंए धर्मात्मा हैंए गरीबों का हित करते हैं पर मेरा जीवन तो उन्होंने नष्ट कर दिया । दीन—दुनिया कहीं का न रखा। मेरे पीछे एक बेचारे भोले—भालेए सीधे—सादे आदमी के प्राणों के घातक हो गए। कितने सुख से जीवन कटता था।अपने घर में रानी बनी हुई थी। मोटा खाती थीए मोटा पहनती थीए पर गांव—भर में मरजाद तो थी। नहीं तो यहां इस तरह मुंह में कालिख लगाए चोरों की तरह पड़ी हूँ जैसे कोई कैदी कालकोठरी में बंद होए आ गए कंचनसिंहए चलूं। (दीवानखाने में आकर) देवरजी को प्रणाम करती हूँ।

कंचन रू (चकित होकर मन में) मैं न जानता था कि यह ऐसी सुंदरी रमणी है। रम्भा के चित्र से कितनी मिलती—जुलती है ! तभी तो भाई साहब लोट—पोट हो गए। वाणी कितनी मधुर है। (प्रकट) मैं बिना आज्ञा ही चला आयाए इसके लिए क्षमा मांगता हूँ। सुना है भाई साहब का कड़ा हुक्म है कि यहां कोई न आने पाए।

राजेश्वरी रू आपका घर हैए आपके लिए क्या रोक—टोक ! मेरे लिए तो जैसे आपके भाई साहबए वैसे आपब मेरे धन्य भाग कि आप जैसे भक्त पुरूष के दर्शन हुए ।

कंचन रू (असमंजस में पड़कर मन में) मैंने काम जितना सहज समझा था। उससे कहीं कठिन निकला। सौंदर्य कदाचित्‌ बुद्वि—शक्तियों को हर लेता है। जितनी बातें सोचकर चला था। वह सब भूल गईए जैसे कोई नया पत्ता अखाड़े में उतरते ही अपने सारे दांव—पेंच भूल जाए। कैसै बात छेड़ू घ् (प्रकट) आपको यह तो मालूम ही होगा कि भाई साहब आपके साथ कहीं बाहर जाना चाहते हैं घ्

राजेश्वरी रू (मुस्कराकर) जी हांए यह निश्चय हो चुका है।

कंचन रू अब किसी तरह नहीं रूक सकता घ्

राजेश्वरी रू हम दोनों में से कोई एक बीमार हो जाए तो रूक सके

कंचन रू ईश्वर न करेंए ईश्वर न करेंए पर मेरा आशय यह था। कि आप भाई साहब को रोकें तो अच्छा होए वह एक बार घर से जाकर फिर मुश्किल से लौटेंगी। भाभी जी को जब से यह बात मालूम हुई है वह बार—बार भाई साहब के साथ चलने पर जिद कर रही हैं। अगर भैया छिपकर चले गए तो भाभी के प्राणों ही पर बन जाएगी।

राजेश्वरी रू इसका तो मुझे भी भय हैए क्योंकि मैंने सुना हैए ज्ञानी देवी उनके बिना एक छन भी नहीं रह सकती। पर मैं भी तो आपके भैया ही के हुक्म की चेरी हूँए जो कुछ वह कहेंगे उसे मानना पड़ेगा। मैं अपना देशए कुलए घर—बार छोड़कर केवल उनके प्रेम के सहारे यहां आई हूँ। मेरा यहां कौन है घ् उस प्रेम का सुख उठाने से मैं अपने को कैसे रोकूं घ् यह तो ऐसा ही होगा कि कोई भोजन बनाकर भूखों तड़पा करेए घर छाकर धूप में जलता रहै। मैं ज्ञानीदेवी से डाह नहीं करतीए इतनी ओछी नहीं हूँ कि उनसे बराबरी करूं । लेकिन मैंने जो यह लोक—लाजए कुल—मरजाद तजा है वह किसलिए !

कंचन रू इसका मेरे पास क्या जवाब है घ्

राजेश्वरी रू जवाब क्यों नहीं हैए पर आप देना नहीं चाहते।

कंचन रू दोनों एक ही बात हैए भय केवल आपके नाराज होने का है।

राजेश्वरी रू इससे आप निश्चिंत रहिए। जो प्रेम की आंच सह सकता हैए उसके लिए और सभी बातें सहज हो जाती हैं।

कंचन रू मैं इसके सिवा और कुछ न कहूँगा कि आप यहां से न जाएं।

राजेश्वरी रू (कंचन की ओर तिरछी चितवनों से ताकते हुए) यह आपकी इच्छा है घ्

कंचन रू हांए यह मेरी प्रार्थना है। (मन में) दिल नहीं मानताए कहीं मुंह से कोई बात निकल न पड़े।

राजेश्वरी रू चाहे वह रूठ ही जाएं घ्

कंचन रू नहीं—नहींए अपने कौशल से उन्हें राजी कर लो।

राजेश्वरी रू (मुस्कराकर) मुझमें यह गुण नहीं है।

कंचन रू रमणियों में यह गुण बिल्ली के नखों की भांति छिपा रहता है। जब चाहें उसे काम में ला सकती हैं।

राजेश्वरी रू उनसे आपके आने की चरचा तो करनी ही होगी।

कंचन रू नहींए हरगिज नहीं मैं तुम्हें ईश्वर की कसम दिलाता हूँ। भूलकर भी उनसे यह जिक्र न करनाए नहीं तो मैं जहर खा लूंगाए फिर तुम्हें मुंह न दिखाऊँगा।

राजेश्वरी रू (हंसकर) ऐसी धमकियों का तो प्रेम—बर्ताव में कुछ अर्थ नहीं होताए लेकिन मैं आपको उन आदमियों में नहीं समझती। मैं आपसे कहना नहीं चाहती थीए पर बात पड़ने पर कहना ही पड़ा कि मैं आपके सरल स्वभाव और आपकी निष्कपट बातों पर मोहित हो गई हूँ। आपके लिए मैं सब कष्ट सहने को तैयार हूँ। पर आपसे यही बिनती है कि मुझ पर कृपाद्रष्टि बनाए रखिएगा और कभी—कभी दर्शन देते रहिएगी।

राजेश्वरी गाती है।

क्या सो रहा मुसाफिर बीती है रैन सारी।

अब जाग के चलन की कर ले सभी तैयारी।

तुझको है दूर जानाए नहीं पास कुछ खजानाए

आगे नहीं ठिकाना होवे बड़ी खुआरी। (टेक)

पूंजी सभी गमाईए कुछ ना करी कमाईए

क्या लेके घर को जाई करजा किया है भारी।

क्या सो रहा।

कंचन चला जाता है।

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तीसरा द्रश्य

स्थान रू सबलसिंह का घर। सबलसिंह बगीचे में हौज के किनारे मसहरी के अंदर लेटे हुए हैं।

समय रू ग्यारह बजे रात।

सबल रू (आप—ही—आप) आज मुझे उसके बर्ताव में कुछ रूखाई—सी मालूम होती थी। मेरा बहम नहीं हैए मैंने बहुत विचार से देखा । मैं घंटे भर तक बैठा चलने के लिए जोर देता रहाए पर उसने एक बार नहीं करके फिर हां न की। मेरी तरफ एक बार भी उन प्रेम की चितवनों से नहीं देखा जो मुझे मस्त कर देती हैं। कुछ गुमसुम—सी बैठी रही। कितना कहा कि तुम्हारे न चलने से घोर अनर्थ होगी। यात्रा की सब तैयारियां कर चुका हूँए लोग मन में क्या कहेंगे कि पहाड़ों की सैर का इतना चाव थाए और इतनी जल्द ठण्डा हो गयाघ् लेकिन मेरी सारी अनुनय—विनय एक तरफ और उसकी नहीं एक तरफ। इसका कारण क्या हैघ् किसी ने बहका तो नहीं दिया । हांए एक बात याद आई। उसके इस कथन का क्या आशय हो सकता है कि हम चाहे जहां जाएंए टोहियों से बच न सकेंगे। क्या यहां टोहिये आ गए घ् इसमें कंचन की कुछ कारस्तानी मालूम होती है। टोहियेपन की आदत उन्हीं में है। उनका उस दिन उचक्कों की भांति इधर—उधरए उपर—नीचे ताकते जाना निरर्थक नहीं था।इन्होंने कल मुझे रोकने की कितनी चेष्टा की थी। ज्ञानी की निगाह भी कुछ बदली हुई देखता हूँ। यह सारी आग कंचन की लगाई हुई है । तो क्या कंचन वहां गया था। घ् राजेश्वरी के सम्मुख जाने की इसे क्योंकर हिम्मत हुई किसी महफिल में तो आज तक गया नहीं बचपन ही से औरतों को देखकर झेंपता है। वहां कैसे गया घ् जाने क्योंकर पाया। मैंने तो राजेश्वरी से सख्त ताकीद कर दी थी कि कोई भी यहां न आने पाए। उसने मेरी ताकीद की कुछ परवाह न की। दोनों नौकरानियां भी मिल गई।यहां तक कि राजेश्वरी ने इनके जाने की कुछ चर्चा ही नहीं की। मुझसे बात छिपाईए पेट में रखा। ईश्वरए मुझे यह किन पापों का दण्ड मिल रहा है घ् अगर कंचन मेरे रास्ते में पड़ते हैं तो पड़ेंए परिणाम बुरा होगी। अत्यंत भीषण। मैं जितना ही नर्म हूँ उतना ही कठोर भी हो सकता हूँ। मैं आज से ताक में हूँ। अगर निश्चय हो गया कि इसमें कंचन का कुछ हाथ है तो मैं उसके खून का प्यासा हो जाऊँगा। मैंने कभी उसे कड़ी निगाह से नहीं देखा । पर उसकी इतनी जुर्रत ! अभी यह खून बिल्कुल ठंडा नहीं हुआ हैए उस जोश का कुछ हिस्सा बाकी हैए जो कटे हुए सिरों और तड़पती हुई लाशों का द्रश्य देखकर मतवाला हो जाता था।इन बाहों में अभी दम हैए यह अब भी तलवार और भाले का वार कर सकती हैं। मैं अबोध बालक नहीं हूँ कि मुझे बुरे रास्ते से बचाया जाएए मेरी रक्षा की जाए। मैं अपना मुखतार हूँ जो चाहूँ करूं। किसी को चाहे वह मेरा भाई ही क्यों न होए मेरी भलाई और हितघ् कामना का ढ़ोंग रचने की जरूरत नहीं अगर बात यहीं तक है तो गनीमत हैए लेकिन इसके आगे बढ़़ गई है तो फिर इस कुल की खैरियत नहीं इसका सर्वनाश हो जाएगा और मेरे ही हाथों। कंचन को एक बार सचेत कर देना चाहिए ।

ज्ञानी आती है।

ज्ञानी रू क्या अभी तक सोए नहीं घ् बारह तो बज गए होंगे।

सबल रू नींद को बुला रहा हूंए पर उसका स्वभाव तुम्हारे जैसा है। आप—ही—आप आती हैए पर बुलाने से मान करने लगती है। तुम्हें नींद क्यों नहीं आई घ्

ज्ञानी रू चिंता का नींद से बिगाड़ है।

सबल रू किस बात की चिंता है घ्

ज्ञानी रू एक बात है कि कहूँ। चारों तरफ चिंताएं ही चिंताएं हैं। इस वक्त तुम्हारी यात्रा की चिंता है। तबीयत अच्छी नहींए अकेले जाने को कहते होए परदेश वाली बात हैए न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। इससे तो यही अच्छा था। कि यहीं इलाज करवाते।

सबल रू (मन—ही—मन) क्यों न इसे खुश कर दूं जब जरा—सी बात फेर देने से काम निकल सकता है। (प्रकट) इस जरा—सी बात के लिए इतनी चिंता करने की क्या जरूरत घ्

ज्ञानी रू तुम्हारे लिए जरा—सी होए पर मुझे तो असूझ मालूम होता है।

सबल रू अच्छा तो लोए न जाऊँगी।

ज्ञानी रू मेरी कसम घ्

सबल रू सत्य कहता हूँ। जब इससे तुम्हें इतना कष्ट हो रहा है तो न जाऊँगी।

ज्ञानी रू मैं इस अनुग्रह को कभी न भूलूंगी। आपने मुझे उबार लियाए नहीं तो न जाने मेरी क्या दशा होती। अब मुझे कुछ दंड भी दीजिए। मैंने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है और उसका कठिन दंड चाहती हूँ।

सबल रू मुझे तुमसे इसकी शंका ही नहीं हो सकती।

ज्ञानी रू पर यह अपराध इतना बड़ा है कि आप उसे क्षमा नहीं कर सकते।

सबल रू (कौतूहल से) क्या बात हैए सुनूं घ्

ज्ञानी रू मैं कल आपके मना करने पर भी स्वामी चेतनदास के दर्शनों को चली गई थी।

सबल रू अकेले घ्

ज्ञानी रू गुलाबी साथ थी।

सबल रू (मन में) क्या करे बेचारी किसी तरह मन तो बहलाये। मैंने एक तरह इससे मिलना ही छोड़ दिया । बैठे—बैठे जी ऊब गया होगा। मेरी आज्ञा ऐसी कौन महत्व की वस्तु है। जब नौकर—चाकर जब चाहते हैं उसे भंग कर देते हैं और मैं उनका कुछ नहीं कर सकताए तो इस पर क्यों गर्म पड़ू।ब मैं खुली आंखों धर्म और नीति को भंग कर रहा हूँए ईश्वरीय आज्ञा से मुंह मोड़ रहा हूँ तो मुझे कोई अधिकार नहीं कि इसके साथ जरा—सी बात के लिए सख्ती करूं। (प्रकट) यह कोई अपराध नहींए और न मेरी आज्ञा इतनी अटल है कि भंग ही न की जायब अगर तुम इसे अपराध समझती हो तो मैं इसे सहर्ष क्षमा करता हूँ।

ज्ञानी रू स्वामीए आपके बर्ताव में आजकल क्यों इतना अंतर हो गया हैघ् आपने क्यों मुझे बंधनों से मुक्त कर दिया हैए मुझ पर पहले की भांति शासन क्यों नहीं करते घ् नाराज क्यों नहीं होतेए कटु शब्द क्यों नहीं कहतेए पहले की भांति रूठते क्यों नहींए डांटते क्यों नहीं घ् आपकी यह सहिष्णुता देखकर मेरे अबोध मन में भांति—भांति की शंका उठने लगती है कि यह प्रेम—बंधन का ढ़ीलापन न होए

सबल रू नहीं प्रियेए यह बात नहीं है। देश—देशांतर के पत्र—पत्रिकाओं को देखता हूँ तो वहां की स्त्रियों की स्वाधीनता के सामने यहां का कठोर शासन कुछ अच्छा नहीं लगता। अब स्त्रियां कौन्सिलों में जा सकती हैंए वकालत कर सकती हैंए यहां तक कि भारत में भी स्त्रियों को अन्याय के बंधन से मुक्त किया जा रहा हैए तो क्या मैं ही सबसे गया—बीता हूँ कि वही पुरानी लकीर पीटे जाऊँ।

ज्ञानी रू मुझे तो उस राजनैतिक स्वाधीनता के सामने प्रेम—बंधन कहीं सुखकर जान पड़ता है। मैं वह स्वाधीनता नहीं चाहती।

सबल रू (मन में) भगवन्ए इस अपार प्रेम का मैंने कितना घोर अपमान किया है घ् इस सरल ह्रदया के साथ मैंने कितनी अनीति की हैघ् आंखों में आंसू क्यों भरे आते हैं घ् मुझ जैसा कुटील मनुष्य इस देवी के योग्य नहीं था।(प्रकट) प्रियेए तुम मेरी ओर से लेश—मात्र भी शंका न करो। मैं सदैव तुम्हारा हूँ और रहूँगा। इस समय गाना सुनने का जी चाहता है । वही अपना प्यारा गीत गाकर मुझे सुना दो।

ज्ञानी सरोद लाकर सबलसिंह को दे देती है। गाने लगती है।

अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई।

माता छोड़ी पिता छोड़े छोड़े सगा सोईए

संतन संग बैठि—बैठि लोक लाज खोई। अब तो..

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चौथा द्रश्य

स्थान रू गंगा तट। बरगद के घने वृक्ष के नीचे तीन—चार आदमी लाठियां और तलवारें लिए बैठे हैं।

समय रू दस बजे रात।

एक डाकू रू दस बजे और अभी तक लौटी नहीं

दूसरा रू तुम उतावले क्यों हो जाते होए जितनी ही देर में लौटेगी उतना ही सन्नाटा होगाए अभी इक्के—दुक्के रास्ता चल रहा है।

तीसरा रू इसके बदन पर कोई पांच हजार के गहने तो होंगे घ्

चौथा रू सबलसिंह कोई छोटा आदमी नहीं है। उसकी घरवाली बन—ठनकर निकलेगी तो दस हजार से कम का माल नहीं

पहला रू यह शिकार आज हाथ आ जाए तो कुछ दिनों चौन से बैठना नसीब होए रोज—रोज रात—रात भर घात में बैठे रहना अच्छा नहीं लगता। यह सब कुछ करके भी शरीर को आराम न मिला तो बात ही क्या रही।

दूसरा रू भाग्य में आराम वदा होता तो यह कुकरम न करने पड़ते। कहीं सेठों की तरह गद्दी—मसनद लगाए बैठे होते । हमें चाहे कोई खजाना ही मिल जाए पर आराम नहीं मिल सकता।

तीसरा रू कुकरम क्या हमीं करते हैंए यही कुकरम तो संसार कर रहा है। सेठजी रोजगार के नाम से डाका मारते हैंए अमले घूस के नाम से डाका मारते हैंए वकील मेहनताना के नाम से डाका मारता है। पर उन डकैतों के महल खड़े हैंए हवागाड़ियों पर सैर करते गिरते हैंए पेचवान लगाए मखमली गद्दियों पर पड़े रहते हैं। सब उनका आदर करते हैंए सरकार उन्हें बड़ी—बड़ी पदवियां देती है। हमीं लोगों पर विधाता की निगाह क्यों इतनी कड़ी रहती हैघ्

चौथा डाकू रू काम करने का ढ़़ग है। वह लोग पढ़़े—लिखे हैं इसलिए हमसे चतुर हैं। कुकरम भी करते हैं और मौज भी उड़ाते हैं। वही पत्थर मंदिर में पुजता है और वही नालियों में लगाया जाता है।

पहला रू चुपए कोई आ रहा है।

हलधर का प्रवेश। (गाता है)

सात सखी पनघट पर आई कर सोलह सिंगारए

अपना दुरू ख रोने लगींए जो कुछ बदा लिलार।

पहली सखी बोलीए सुनो चार बहनो मेरा पिया सराबी हैए

कंगन की कौड़ी पास न रखताए दिल का बड़ा नवाबी है।

जो कुछ पाता सभी उड़ाताए घर की अजब खराबी है।

लोटा—थाली गिरवी रख दीए फिरता लिये रिकाबी है।

बात—बात पर आंख बदलताए इतना बड़ा मिजाजी है।

एक हाथ में दोना कुल्हड़ए दूजे बोतल गुलाबी है।

पहला डाकू रू कौन है घ् खड़ा रह।

हलधर रू तुम तो ऐसा डपट रहे हो जैसे मैं कोई चोर हूँ। कहो क्या कहते हो घ्

दूसरा डाकू रू (साथियों से) जवान तो बड़ा गठीला और जीवट का है। (हलधर से) किधर चले घ् घर कहां है घ्

हलधर रू यह सब आल्हा पूछकर क्या करोगे घ् अपना मतलब कहो।

तीसरा डाकू रू हम पुलिस के आदमी हैंए बिना तलाशी लिए किसी को जाने नहीं देते।

हलधर रू (चौकन्ना होकर) यहां क्या धरा है जो तलाशी को धमकाते होए धन के नाते यही लाठी है और इसे मैं बिना दस—पांच सिर गोड़े दे नहीं सकता।

चौथा डाकू रू तुम समझ गए हम लोग कौन हैंए या नहीं घ्

हलधर रू ऐसा क्या निरा बुद्वू ही समझ लिया है घ्

चौथा डाकू रू तो गांठ में जो कुछ हो दे दोए नाहक रार क्यों मचाते हो घ्

हलधर रू तुम भी निरे गंवार होए चील के घोंसले में मांस ढ़ूंढ़़ते होए

पहला डाकू रू यारोए संभलकरए पालकी आ रही है।

चौथा डाकू रू बस टूट पड़ो जिसमें कहार भाग खड़े हों।

ज्ञानी की पालकी आती है। चारों डाकू तलवारें लिए कहारों पर जा पड़ते हैं। कहार पालकी पटककर भाग खड़े होते हैं। गुलाबी बरगद की आड़ों में छिप जाती है।

एक डाकू रू ठकुराइनए जान की खैर चाहती हो तो सब गहने चुपके से उतार के रख दो। अगर गुल मचाया या चिल्लाई तो हमें जबरदस्ती तुम्हारा मुंह बंद करना पड़ेगा और हम तुम्हारे उसपर हाथ नहीं उठाना चाहते।

दूसरा डाकू रू सोचती क्या होए यहां ठाकुर सबलसिंह नहीं बैठे हैं जो बंदूक लिए आते हों। चटपट उतारो।

तीसरा रू (पालकी का परदा उठाकर) यह यों न मानेगीए ठकुराइन है नए हाथ पकड़कर बांध दोए उतार लो सब गहने।

हलधर लपककर उस डाकू पर लाठी चलाता है और वह हाय मारकर बेहोश हो जाता है। तीनों बाकी डाकू उस पर टूट पड़ते हैं। लाठियां चलने लगती हैं।

हलधर रू वह माराए एक और गिरा।

पहला डाकू रू भाईए तुम जीते हम हारेए शिकार क्यों भगाए देते हो घ् माल में आधा तुम्हारा ।

हलधर रू तुम हत्यारे होए अबला स्त्रियों पर हाथ उठाते होए मैं अब तुम्हें जीता न छोडूंगा।

डाकू रू यारए दस हजार से कम का माल नहीं है। ऐसा अवसर फिर न मिलेगा। थानेदार को सौ—दो सौ रूपये देकर टरका देंगे।बाकी सारा अपना है।

हलधर रू (लाठी तानकर) जाते हो या हड्डी तोड़ के रख दूं घ्

दोनों डाकू भाग जाते हैं। हलधर कहारों को बुलाता है जो एक मंदिर में छिपे बैठे हैं। पालकी उठती है।

ज्ञानी रू भैयाए आज तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है इसका फल तुम्हें ईश्वर देंगेए लेकिन मेरी इतनी विनती है कि मेरे घर तक चलो।तुम देवता होए तुम्हारी पूजा करूंगी।

हलधर रू रानी जीए यह तुम्हारी भूल है। मैं न देवता हूँ न दैत्य। मैं भी घातक हूँ। पर मैं अबला औरतों का घातक नहींए हत्यारों ही का घातक हूँ। जो धन के बल से गरीबों को लूटते हैंए उनकी इज्जत बिगाड़ते हैंए उनके घर को भूतों का डेरा बना देते हैं। जाओए अब से गरीबों पर दया रखना। नालिसए कुड़कीए जेहलए यह सब मत होने देना।

नदी की ओर चला जाता है। गाता है।

दूजी सखी बोली सुनो सखियोए मेरा पिया जुआरी है।

रात—रात भर गड़ पर रहताए बिगड़ी दसा हमारी है।

घर और बार दांव पर हाराए अब चोरी की बारी है।

गहने—कपड़े को क्या रोऊँए पेट की रोटी भारी है।

कौड़ी ओढ़़ना कौड़ी बिछौनाए कौड़ी सौत हमारी है।

ज्ञानी रू (गुलाबी से) आज भगवान ने बचा लिया नहीं तो गहने भी जाते और जान की भी कुशल न थी।

गुलाबी रू यह जरूर कोई देवता हैए नहीं तो दूसरों के पीछे कौन अपनी जान जोखिम में डालता घ्

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पांचवां द्रश्य

स्थान रू मधुबन।

समय रू नौ बजे रातए बादल घिरा हुआ हैए एक वृक्ष के नीचे बाबा चेतनदास मृगछाले पर बैठे हुए हैं। फत्तूए मंगईए हरदास आदि धूनी से जरा हट कर बैठे हैं।

चेतनदास रू संसार कपटमय है। किसी प्राणी का विश्वास नहीं जो बड़े ज्ञानीए बड़े त्यागीए धर्मात्मा प्राणी हैंरू उनकी चित्तवृत्ति को ध्यान से देखो तो स्वार्थ से भरा पाओगी। तुम्हारा जमींदार धर्मात्मा समझा जाता हैए सभी उसके यश कीर्ति की प्रशंसा करते हैं। पर मैं कहता हूँ कि ऐसा अत्याचारीए कपटीए धूर्तए भ्रष्टाचरण मनुष्य संसार में न होगी।

मंगई रू बाबाए आप महात्मा हैंए आपकी जबान कौन पकड़ेए पर हमारे ठाकुर सचमुच देवता हैं। उनके राज में हमको जितना सुख है उतना कभी नहीं था।

हरदास रू जेठी की लगान माफकर दी थी। अब असामियों को भूसे—चारे के लिए बिना ब्याज के रूपये दे रहे हैं।

फत्तू रू उनमें और चाहे कोई बुराई हो पर असामियों पर हमेशा परवरस की निगाह रखते हैं।

चेतनदास रू यही तो उसकी चतुराई है कि अपना स्वार्थ भी सिद्व कर लेता है और अपकीर्ति भी नहीं होने देता। रूपये सेए मीठे वचन सेए नम्रता से लोगों को वशीभूत कर लेता है।

मंगई रू महाराजए आप उनका स्वभाव नहीं जानते जभी ऐसा कहते हैं। हम तो उन्हें सदा से देखते आते हैं। कभी ऐसी नीयत नहीं देखी कि किसी से एक पैसा बेसी ले लें। कभी किसी तरह की बेगार नहीं लीए और निगाह का तो ऐसा साफ आदमी कहीं देखा ही नहीं

हरदास रू कभी किसी पर निगाह नहीं डाली।

चेतनदास रू भली प्रकार सोचोए अभी हाल ही में कोई स्त्री यहां से निकल गई है घ्

फत्तू रू (उत्सुक होकर) हां महाराजए अभी थोड़े ही दिन हुए।

चेतनदास रू उसके पति का भी पता नहीं हैघ्

फत्तू रू हां महाराजए वह भी गायब है।

चेतनदास रू स्त्री परम सुंदरी है घ्

फत्तू रू हां महाराजए रानी मालूम होती है।

चेतनदास रू उसे सबलसिंह ने घर डाल लिया है।

फत्तू रू घर डाल लिया है घ्

मंगई रू झूठ है।

हरदास रू विश्वास नहीं आता।

फत्तू रू और हलधर कहां है घ्

चेतनदास रू इधर—उधर मारा—मारा फिरता है। डकैती करने लगा है। मैंने उसे बहुत खोजा पर भेंट नहीं हुई

सलोनी गाती हुई आती है।

मुझे जोगिनी बना के कहां गए रे जोगिया।

फत्तू रू सलोनी काकीए इधर आओ ! राजेश्वरी तो सबलसिंह के घर बैठ गई।

सलोनी रू चल झूठेए बेचारी को बदनाम करता है।

मंगई रू ठाकुर साहब में यह लत है ही नहीं ।

सलोनी रू मदोर्ं की मैं नहीं चलातीए न इनके सुभाव का कुछ पता मिलता हैए पर कोई भरी गंगा में राजेश्वरी को कलंक लगाए तो भी मुझे विश्वास न आएगी। वह ऐसी औरत नहीं ।

फत्तू रू विश्वास तो मुझे भी नहीं आताए पर यह बाबा जी कह रहे हैं।

सलोनी रू आपने आंखों देखा है घ्

चेतनदास रू नित्य ही देखता हूँ। हांए कोई दूसरा देखना चाहे तो कठिनाई होगी। उसके लिए किराए पर एक मकान लिया गया हैए तीन लौंडिया सेवा टहल के लिए हैंए ठाकुर प्रातरू काल जाता है और घड़ीभर में वहां से लौट आता है। संध्या समय फिर जाता है और नौ—दस बजे तक रहता है। मैं इसका प्रमाण देता हूँ। मैंने सबलसिंह को समझायाए पर वह इस समय किसी की नहीं सुनता। मैं अपनी आंखों यह अत्याचार नहीं देख सकता। मैं संन्यासी हूँ। मेरा धर्म है कि ऐसे अत्याचारियों काए ऐसे पाखंडियों का संहार करूं। मैं पृथ्वी को ऐसे रंगे हुए सियारों से मुक्त कर देना चाहता हूँ। उसके पास धन का बल है तो हुआ करे। मेरे पास न्याय और धर्म का बल है। इसी बल से मैं उसको परास्त करूंगा। मुझे आशा थी कि तुम लोगों से इस पापी को दंड देने में मुझे यथेष्ट सहायता मिलेगी। मैं समझता था। कि देहातों में आत्माभिमान का अभी अंत नहीं हुआ हैए वहां के प्राणी इतने पतित नहीं हुए हैं कि अपने उसपर इतना घोरए पैशाचिक अनर्थ देखकर भी उन्हें उत्तेजना न होए उनका रक्त न खौलने लगे। पर अब ज्ञात हो रहा है कि सबल ने तुम लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया है। उसके दयाभाव ने तुम्हारे आत्मसम्मान को कुचल डाला है। दया का आघात अत्याचार के आघात से कम प्राणघातक नहीं होता। अत्याचार के आघात से क्रोध उत्पन्न होता हैए जी चाहता है मर जायें या मार डालें। पर दया की चोट सिर को नीचा कर देती हैए इससे मनुष्य की आत्मा और भी निर्बल हो जाती हैए उसके अभिमान का अंत हो जाता है। वह नीचए कुटीलए खुशामदी हो जाता है। मैं तुमसे फिर पूछता हूँए तुममें कुछ लज्जा का भाव है या नहींघ्

एक किसान रू महाराजए अगर आपका ही कहना ठीक हो तो हम क्या कर सकते हैं घ् ऐसे दयावान पुरूष की बुराई हमसे न होगी। औरत आप ही खराब हो तो कोई क्या करे घ्

मंगई रू बसए तुमने मेरे मन की बात कही।

हरदास रू वह सदा से हमारी परवरिस करते आए हैं। हम आज उनसे बागी कैसे हो जाएं घ्

दूसरा किसान रू बागी हो भी जाएं तो रहें कहां घ् हम तो उनकी मुट्ठी में हैं। जब चाहें हमें पीस डालें। पुस्तैनी अदावत हो जाएगी।

मंगई रू अपनी लाज तो ढ़ांकते नहीं बनतीए दूसरों की लाज कोई क्या ढ़ांकेगा घ्

हरदास रू स्वामीजीए आप सन्नासी हैंए आप सब कुछ कर सकते हैं। हम गृहस्थ लोग जमींदारों से बिगाड़ करने लगें तो कहीं ठिकाना न लगे।

मंगई रू हां और क्याए आप तो अपने तपोबल से ही जो चाहें कर सकते हैं। अगर आप सराप भी दे दें तो कुकर्मी खड़े—खड़े भस्म हो जाएं ब

सलोनी रू जाए चुल्लू—भर पानी में डूब मर कायर कहीं का। हलधर तेरे सगे चाचा का बेटा है। जब तू उसका नहीं तो और किसका होगाघ् मुंह में कालिख नहीं लगा लेताए उसपर से बातें बनाता है। तुझे तो चूड़ियां पहनकर घर में बैठना चाहिए था।मर्द वह होते हैं जो अपनी आन पर जान दे देते हैं। तू हिजड़ा है। अब जो मुंह खोला तो लूका लगा दूंगी।

मंगई रू सुनते हो फत्तू काकाए इनकी बातेंए जमींदार से बैर बढ़़ाना इनकी समझ में दिल्लगी है। हम पुलिस वालों से चाहे न डरेंए अमलों से चाहे न डरेंए महाजन से चाहे बिगाड़ कर लेंए पटवारी से चाहे कहा —सुनी हो जाएए पर जमींदार से मुंह लगना अपने लिए गढ़़ा खोदना है। महाजन एक नहीं हजारों हैंए अमले आते—जाते रहते हैंए बहुत करेंगे सता लेंगेए लेकिन जमींदार से तो हमारा जनम—मरन का व्योहार है। उसके हाथ में तो हमारी रोटीयां हैं। उससे ऐंठकर कहां जाएंगे घ् न काकीए तुम चाहे गालियां दोए चाहे ताने मारोए पर सबलसिंह से हम लड़ाई नहीं ठान सकते।

चेतनदास रू (मन में) मनोनीत आशा न पूरी हुई हलधर के कुटुम्बियों में ऐसा कोई न निकला जो आवेग में आकर अपमान का बदला लेने को तैयार हो जाता। सब—के—सब कायर निकले। कोई वीर आत्मा निकल आती जो मेरे रास्ते से इस बाधा को हटा देतीए फिर ज्ञानी अपनी हो जाती। यह दोनों उस काम के तो नहीं हैंए पर हिम्मती मालूम होते हैं। बुढ़़िया दीन बनी हुई हैए पर है पोढ़़ीए नहीं तो इतने घमंड से बातें न करती। मियां गांठ का पूरा तो नहींए पर दिल का दिलेर जान पड़ता है। उत्तेजना में पड़कर अपना सर्वस्व खो सकता है। अगर दोनों से कुछ धन मिल जाए तो सबइंस्पेक्टर को मिलाकरए कुछ मायाजाल सेए कुछ लोभ से काबू में कर लूं। कोई मुकदमा खड़ा हो जायेब कुछ न होगा भांडा तो फूलट जाएगी। ज्ञानी उन्हें अबकी भांति देवता तो न समझती रहेगी। (प्रकट) इस पापी को दंड देने का मैंने प्रण कर लिया है। ऐसे कायर व्यक्ति भी होते हैंए यह मुझे ज्ञात न था। हरीच्छा ! अब कोई दूसरी ही युक्ति काम में लानी चाहिए ।

सलोनी रू महाराजए मैं दीन—दुखिया हूँए कुछ कहना छोटा मुंह बड़ी बात हैए पर मैं आपकी मदद के लिए हर तरह हाजिर हूँ। मेरी जान भी काम आए तो दे सकती हूँ।

फत्तू रू स्वामीजीए मुझसे भी जो हो सकेगा करने को तैयार हूँ। हाथों में तो अब मकदूर नहीं रहाए पर और सब तरह हाजिर हूँ।

चेतनदास रू मुझे इस पापी का संहार करने के लिए किसी की मदद की आवश्यकता न होती। मैं अपने योग और तप के बल से एक क्षण में उसे रसातल को भेज सकता हूँए पर शास्त्रों में ऐसे कामों के लिए योगबल का व्यवहार करना वर्जित है। इसी से विवश हूँ। तुम धन से मेरी कुछ सहायता कर सकते हो घ्

सलोनी रू (फत्तू की ओर सशंक द्रष्टि से ताकते हुए) महाराजए थोड़े—से रूपये धाम करने को रख छोड़े थे।वह आपके भेंट कर दूंगी। यह भी तो पुण्य ही का काम है।

फत्तू रू काकीए तेरे पास कुछ रूपये उसपर हों तो मुझे उधर दे दे।

सलोनी रू चलए बातें बनाता है। मेरे पास रूपये कहां से आएंगे घ् कौन घर के आदमी कमाई कर रहे हैं। चालीस साल बीत गए बाहर से एक पैसा भी घर में नहीं आया।

फत्तू रू अच्छाए नहीं देती है मत दे। अपने तीनों सीसम के पेड़ बेच दूंगा।

चेतनदास रू अच्छाए तो मैं जाता हूँ विश्राम करने। कल दिन—भर में तुम लोग प्रबंध करके जो कुछ हो सके इस कार्य के निमित्त दे देना। कल संध्या को मैं अपने आश्रम पर चला जाऊँगा।

प्रस्थान।

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छठा द्रश्य

स्थान रू शहर वाला किराये का मकान।

समय रू आधी रात। कंचनसिंह और राजेश्वरी बातें कर रहे हैं।

राजेश्वरी रू देवरजीए मैंने प्रेम के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया । पर जिस प्रेम की आशा थी वह नहीं मयस्सर हुआ। मैंने अपना सर्वस्व दिया है तो उसके लिए सर्वस्व चाहती भी हूँ। मैंने समझा था।ए एक के बदले आधी पर संतोष कर लूंगी। पर अब देखती हूँ तो जान पड़ता है कि मुझसे भूल हो गयी। दूसरी बड़ी भूल यह हुई कि मैंने ज्ञानी देवी की ओर ध्यान नहीं दिया था।उन्हें कितना दुरू खए कितना शोकए कितनी जलन होगीए इसका मैंने जरा भी विचार नहीं किया था। आपसे एक बात पूछूंए नाराज तो न होंगेघ्

कंचन रू तुम्हारी बात से मैं नाराज हूँगा !

राजेश्वरी रू आपने अब तक विवाह क्यों नहीं किया घ्

कंचन रू इसके कई कारण हैं। मैंने धर्मग्रंथों में पढ़़ा था। कि गृहस्थ जीवन मनुष्य की मोक्ष—प्राप्ति में बाधक होता है। मैंने अपना तनए मनए धन सब धर्म पर अर्पण कर दिया था।दान और व्रत को ही मैंने जीवन का उद्देश्य समझ लिया था।उसका मुख्य कारण यह था। कि मुझे प्रेम का कुछ अनुभव न था।मैंने उसका सरस स्वाद न पाया था।उसे केवल माया की एक कुटलीला समझा करता था।ए पर अब ज्ञात हो रहा है कि प्रेम में कितना पवित्र आनंद और कितना स्वर्गीय सुख भरा हुआ है। इस सुख के सामने अब मुझे धर्मए मोक्ष और व्रत कुछ भी नहीं जंचते। उसका सुख भी चिंतामय हैए इसका दुरू ख भी रसमय।

राजेश्वरी रू (वक्र नेत्रों से ताककर) यह सुख कहां प्राप्त हुआ घ्

कंचन रू यह न बताऊँगा।

राजेश्वरी रू (मुस्कराकर) बताइए चाहे न बताइएए मैं समझ गई। जिस वस्तु को पाकर आप इतने मुग्ध हो गए हैं वह असल में प्रेम नहीं है। प्रेम की केवल झलक है। जिस दिन आपको प्रेम—रत्न मिलेगा उस दिन आपको इस आनंद का सच्चा अनुभव होगा।

कंचन रू मैं यह रत्न पाने योग्य नहीं हूँ। वह आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं है।

राजेश्वरी रू है और मिलेगा। भाग्य से इतने निराश न हूजिए। आप जिस दिनए जिस घड़ीए जिस पल इच्छा करेंगे वह रत्न आपको मिल जाएगा। वह आपकी इच्छा की बाट जोह रहा है।

कंचन रू (आंखों में आंसू भरकर) राजेश्वरीए मैं घोर धर्म—संकट में हूँ। न जाने मेरा क्या अंत होगा। मुझे इस प्रेम पर अपने प्राण बलिदान करने पड़ेंगे।

राजेश्वरी रू (मन में) भगवानए मैं कैसी अभागिनी हूँ। ऐसे निश्छल सरल पुरूष की हत्या मेरे हाथों हो रही है। पर करूं क्याए अपने अपमान का बदला तो लेना ही होगी। (प्रकट) प्राणेश्वरए आप इतने निराश क्यों होते हैं। मैं आपकी हूँ और आपकी रहूँगी। संसार की आंखों में मैं चाहे जो कुछ हूँए दूसरों के साथ मेरा बाहरी व्यवहार चाहे जैसा होए पर मेरा ह्रदय आपका है। मेरे प्राण आप पर न्योछावर हैं। (आंचल से कंचन के आंसू पोंछकर) अब प्रसन्न हो जाइए। यह प्रेमरत्न आपकी भेंट है।

कंचन रू राजेश्वरीए उस प्रेम को भोगना मेरे भाग्य में नहीं है। मुझ जैसा भाग्यहीन पुरूष और कौन होगा जो ऐसे दुर्लभ रत्न की ओर हाथ नहीं बढ़़ा सकता। मेरी दशा उस पुरूष की—सी है जो क्षुधा से व्याकुल होकर उन पदाथोर्ं की ओर लपके जो किसी देवता की अर्चना के लिए रखे हुए हों। मैं वही अमानुषी कर्म कर रहा हूँ। मैं पहले यह जानता कि प्रेम—रत्न कहां मिलेगा तो तुम अप्सरा भी होतीं तो आकाश से उतार लाता। दूसरों की आंख पड़ने के पहले तुम मेरी हो जातींए फिर कोई तुम्हारी ओर आंख उठाकर भी न देख सकता। पर तुम मुझे उस वक्त मिलीं जब तुम्हारी ओर प्रेम की द्रष्टि से देखना भी मेरे लिए अधर्म हो गया। राजेश्वरीए मैं महापापीए अधर्मी जीव हूँ। मुझे यहां इस एकांत में बैठने काए तुमसे ऐसी बातें करने का अधिकार नहीं है। पर प्रेमाघात ने मुझे संज्ञाहीन कर दिया है। मेरा विवेक लुप्त हो गया है। मेरे इतने दिन का ब्रडाचर्य और धर्मनिष्ठा का अपहरण हो गया है। इसका परिणाम कितना भयंकर होगाए ईश्वर ही जानेब अब यहां मेरा बैठना उचित नहीं है। मुझे जाने दो। (उठ खड़ा होता है।)

राजेश्वरी रू (हाथ पकड़कर) न जाने पाइएगा। जब इस धर्म का पचड़ा छेड़ा है तो उसका निपटारा किए जाइए। मैं तो समझती थी जैसे जगन्नाथ पुरी में पहुंचकर छुआछूत का विचार नहीं रहताए उसी भांति प्रेम की दीक्षा पाने के बाद धर्म—अधर्म का विचार नहीं रहता। प्रेम आदमी को पागल कर देता है। पागल आदमी के काम और बात काए विचार और व्यवहार का कोई ठिकाना नहीं ।

कंचन रू इस विचार से चित्त को संतोष नहीं होता। मुझे अब जाने दो। अब और परीक्षा में मत डालो।

राजेश्वरी रू अच्छा बतलाते जाइए कब आइएगाघ्

कंचन रू कुछ नहीं जानता क्या होगी। (रोते हुए) मेरे अपराध क्षमा करना।

जीने से उतरता है। द्वार पर सबलसिंह आते दिखाई देते हैं। कंचन एक अंधेरे बरामदे में छिप जाता है।

सबल रू (उसपर जाकर) अरे ! अभी तक तुम सोयी नहीं घ्

राजेश्वरी रू जिनके आंखों में प्रेम बसता है वहां नींद कहाँघ्

सबल रू यह उन्निद्रा प्रेम में नहीं होती। कपट—प्रेम में होती है।

राजेश्वरी रू (सशंक होकर) मुझे तो इसका कभी अनुभव नहीं हुआ। आपने इस समय आकर बड़ी कृपा की।

सबल रू (क्रोध से) अभी यहां कौन बैठा हुआ था घ्

राजेश्वरी रू आपकी याद।

सबल रू मुझे भ्रम था। कि याद संदेह नहीं हुआ करती है। आज यह नयी बात मालूम हुई । मैं तुमसे विनय करता हूँए बतला दोए अभी कौन यहां से उठकर गया है घ्

राजेश्वरी रू आपने देखा है तो क्यों पूछते हैं घ्

सबल रू शायद मुझे भ्रम हुआ हो।

राजेश्वरी रू ठाकुर कंचनसिंह थे।

सबल रू तो मेरा गुमान ठीक निकला। वह क्या करने आया था। घ्

राजेश्वरी रू (मन में) मालूम होता है मेरा मनोरथ उससे जल्द पूरा होगा जितनी मुझे आशा थी। (प्रकट) यह प्रश्न आप व्यर्थ करते हैं। इतनी रात गए जब कोई पुरूष किसी अन्य स्त्री के पास जाता है तो उसका एक ही आशय हो सकता है।

सबल रू उसे तुमने आने क्यों दिया घ्

राजेश्वरी रू उन्होंने आकर द्वार खटखटायाए कहारिन जाकर खोल आई। मैंने तो उन्हें यहां आने पर देखा ।

सबल रू कहारिन उससे मिली हुई है घ्

राजेश्वरी रू यह उससे पूछिए।

सबल रू जब तुमने उसे बैठे देखा तो दुत्कार क्यों न दिया घ्

राजेश्वरी रू प्राणेश्वरए आप मुझसे ऐसे सवाल पूछकर दिल न जलाएं। यह कहां की रीति है कि जब कोई आदमी अपने पास आए तो उसको दुत्कार दिया जाएए वह भी जब आपका भाई होए मैं इतनी निष्ठुर नहीं हो सकती। उनसे मिलने में तो भय जब होता कि जब मेरा अपना चित्त चंचल होताए मुझे अपने उसपर विश्वास न होता। प्रेम के गहरे रंग में सराबोर होकर अब मुझ पर किसी दूसरे रंग के चढ़़ने की सम्भावना नहीं है। हांए आप बाबू कंचनसिंह को किसी बहाने से समझा दीजिये कि अब से यहां न आएं। वह ऐसी प्रेम और अनुराग की बातें करने लगते हैं कि उसके ध्यान से ही लज्जा आने लगती है। विवश होकर बैठती हूँए सुनती हूँ।

सबल रू (उन्मत्त होकर) पाखंडी कहीं काए धर्मात्मा बनता हैए विरक्त बनता हैए और कर्म ऐसे नीच ! तू मेरा भाई सहीए पर तेरा वध करने में कोई पाप नहीं है। हांए इस राक्षस की हत्या मेरे ही हाथों होगी। ओह ! कितनी नीच प्रकृति हैए मेरा सगा भाई और यह व्यवहार ! असह्य हैए अक्षम्य है। ऐसे पापी के लिए नरक ही सबसे उत्तम स्थान है। आज ही इसी रात को तेरी जीवनलीला समाप्त हो जाएगी। तेरा दीपक बुझ जाएगा। हां धूर्तए क्या कामलोलुपता के लिए यही एक ठिकाना था। ! तुझे मेरे ही घर में आग लगानी थी। मैं तुझे पुत्रवत्‌ प्यार करता था।तुझे(क्रोध से होंठ चबाकर) तेरी लाश को इन्हीं आंखों से तड़पते हुए देखूंगी।

नीचे चला जाता है।

राजेश्वरी रू (आप—ही—आप) ऐसा जान पड़ता हैए भगवान्‌ स्वयं यह सारी लीला कर रहे हैंए उन्हीं की प्रेरणा से सब कुछ होता हुआ मालूम होता है। कैसा विचित्र रहस्य है। मैं बैलों को मारा जाना नहीं देख सकती थीए चींटीयों को पैरों तले पड़ते देखकर मैं पांव हटा लिया करती थीए पर अभाग्य मुझसे यह हत्याकांड करा रहा है। मेरे ही निर्दय हाथों के इशारे से यह कठपुतलियां नाच रही हैं!

करूण स्वरों में गाती है।

ऊधोए कर्मन की गति न्यारी।

गाते—गाते प्रस्थान।

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सातवां द्रश्य

स्थान रू दीवानखाना।

समय रू तीन बजे रात। घटा छायी हुई है। सबलसिंह तलवार हाथ में लिये द्वार पर खड़े हैं।

सबल रू (मन में) अब सो गया होगा। मगर नहींए आज उसकी आंखों में नींद कहां ! पड़ा—पड़ा प्रेमाग्नि में जल रहा होगाए करवटें बदल रहा होगा। उस पर यह हाथ न उठ सकेंगे। मुझमें इतनी निर्दयता नहीं है। मैं जानता हूँ वह मुझ पर प्रतिघात न करेगा। मेरी तलवार को सहर्ष अपनी गर्दन पर ले लेगी। हां ! यही तो उसका प्रतिघात होगा। ईश्वर करेए वह मेरी ललकार पर सामने खड़ा हो जाए। तब यह तलवार वज्र की भांति उसकी गर्दन पर र्गिरे। अरक्षितए निश्शस्त्र पुरूष पर मुझसे आघात न होगा। जब वह करूण दीन नेत्रों से मेरी ओर ताकेगारू तो मेरी हिम्मत छूट जाएगी।

धीरे—धीरे कंचनसिंह के कमरे की ओर बढ़़ता है।

हा ! मानव—जीवन कितना रहस्यमय है। हम दोनों ने एक ही मां के उदर से जन्म लियाए एक ही स्तन का दूध पियाए सदा एक साथ खेलेए पर आज मैं उसकी हत्या करने को तैयार हूँ। कैसी विडम्बना है ! ईश्वर करे उसे नींद आ गई होए सोते को मारना धर्म—विरूद्व होए पर कठिन नहीं है। दीनता दया को जागृत कर देती है(चौंककर) अरे ! यह कौन तलवार लिये बढ़़ा चला आता है । कहीं छिपकर देखूंए इसकी क्या नीयत है। लम्बा आदमी हैए शरीर कैसा गठा हुआ है। किवाड़ के दरारों से निकलते हुए प्रकाश में आ जाये तो देखूं कौन है घ् वह आ गया। यह तो हलधर मालूम होता हैए बिल्कुल वही हैए लेकिन हलधर के दाढ़़ी नहीं थी। सम्भव है दाढ़़ी निकल आयी होए पर है हलधरए हां वही हैए इसमें कोई संदेह नहीं है। राजेश्वरी की टोह किसी तरह मिल गयी। अपमान का बदला लेना चाहता है। कितना भयंकर स्वरूप हो गया है। आंखें चमक रही हैं। अवश्य हममें से किसी का खून करना चाहता है। मेरी ही जान का गाहक होगी। कमरे में झांक रहा है। चाहूँ तो अभी पिस्तौल से इसका काम तमाम कर दूं। पर नहीं खूब सूझी। क्यों न इससे वह काम लूं जो मैं नहीं कर सकता। इस वक्त कौशल से काम लेना ही उचित है। (तलवार छिपाकर) कौन हैए हलधर घ्

हलधर तलवार खींचकर चौकन्ना हो जाता है।

सबल रू हलधरए क्या चाहते हो घ्

हलधर रू (सबल के सामने आकर) संभल जाइएगाए मैं चोट करता हूँ।

सबल रू क्यों मेरे खून के प्यासे हो रहे हो घ्

हलधर रू अपने दिल से पूछिए।

सबल रू तुम्हारा अपराधी मैं नहीं हूँए कोई दूसरा ही है।

हलधर रू क्षत्री होकर आप प्राणों के भय से झूठ बोलते नहीं लजाते घ्

सबल रू मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ।

हलधर रू सरासर झूठ है। मेरा सर्वनाश आपके हाथों हुआ है। आपने मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी । मेरे घर में आग लगा दी और अब आप झूठ बोलकर अपने प्राण बचाना चाहते हैं। मुझे सब खबरें मिल चुकी हैं। बाबा चेतनदास ने सारा कच्चा चित्ता मुझसे कह सुनाया है। अब बिना आपका खून पिए इस तलवार की प्यास न बुझेगी।

सबल रू हलधरए मैं क्षत्रिय हूँ और प्राणों को नहीं डरता। तुम मेरे साथ कमरे तक आओ। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहता हूँ कि मैं कोई छल—कपट न करूंगा। वहां मैं तुमसे सब वृत्तांत सच—सच कह दूंगा। तब तुम्हारे मन में जो आएए वह करना।

हलधर चौकन्नी द्रष्टि से ताकता हुआ सबल के साथ उसके दीवानखाने में जाता है।

सबल रू तख्त पर बैठ जाओ और सुनो। यह सारी आग कंचनसिंह की लगाई हुई है। उसने कुटनी द्वारा राजेश्वरी को घर से निकलवा लिया है। उसके गोरूंदों ने राजेश्वरी का उससे बखान किया होगा वह उस पर मोहित हो गया और तुम्हें जेल पहुंचाकर अपनी इच्छा पूरी की जबसे मुझे यह समाचार मिला हैए मैं उसका शत्रु हो गया हूँ। तुम जानते होए मुझे अत्याचार से कितनी घृणा है। अत्याचारी पुरूष चाहे वह मेरा पुत्र ही क्यों न होए मेरी द्रष्टि में हिंसक जंतु के समान है और उसका वध करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। इसीलिए मैं यह तलवार लेकर कंचनसिंह का वध करने जा रहा था।इतने में तुम दिखायी पड़े। मुझे अब मालूम हुआ कि जिसे मैं बड़ा धर्मात्माए ईश्वरभक्तए सदाचारीए त्यागी समझता था। वह वास्तव में एक परले दर्जे का व्याभिचारीए विषयी मनुष्य है। इसीलिए उसने अब तक विवाह नहीं किया। उसने कर्मचारियों को घूस देकर तुम्हें चुपके—चुपके गिरफ्तारी करा लिया और अब राजेश्वरी के साथ विहार करता है। अभी आधी रात को वहां से लौटकर आया है। मैंने तुमसे सारा वृत्तांत कह सुनायाए अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो।

हलधर लपककर कंचनसिंह के कमरे की ओर चलता है।

सबल रू ठहरो—ठहरोए यों नहीं सम्भव है तुम्हारी आहट पाकर जाग उठे। नौकर—सिपाही उसका चिल्लाना सुनकर जाग पड़ें। प्रातरू काल वह गंगा नहाने जाता है। उस वक्त अंधेरा रहता है। वहीं तुम उसे गंगा की भेंट कर सकते होए घात लगाए रहोए अवसर आते ही एक हाथ में काम तमाम कर दो और लाश को वहीं बहा दो। तुम्हारा मनोरथ पूरा होने का इससे सुगम उपाय नहीं है।

हलधर रू (कुछ सोचकर) मुझे धोखा तो नहीं देना चाहते घ् इस बहाने से मुझे टाल दो और फिर सचेत हो जाओ और मुझे पकड़वा देने का इंतजाम करो।

सबल रू मैंने ईश्वर की कसम खायी हैए अगर अब भी तुम्हें विश्वास न आए तो जो चाहे करो।

हलधर रू अच्छी बात हैए जैसा आप कहते हैं वैसा ही होगा। अगर इस समय धोखा देकर बच भी गए तो फिर क्या कभी दाव ही न आएगा घ् मेरे हाथों से बचकर अब नहीं जा सकते। मैं चाहूँ तो एक क्षण में तुम्हारे कुल का नाश कर दूंए पर मैं हत्यारा नहीं हूँ। मुझे धन की लालसा नहीं है। मैं तो केवल अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूँ। आपको भी सचेत किए देता हूँ। मैं अभी और टोह लगाऊँगा। अगर पता चला कि आपने मेरा घर उजाड़ा है तो मैं आपको भी जीता न छोडूंगा। मेरा तो जो होना था। हो चुकाए पर मैं अपने उजाड़ने वालों को कुकर्म का सुख न भोगने दूंगा।

चला जाता है।

सबल रू (मन में) मैं कितना नीच हो गया हूँ। झूठए दगा गरे। किसी पाप से भी मुझे हिचक नहीं होती। पर जो कुछ भी होए हलधर बड़े मौके से आ गया अब बिना लाठी टूटे ही सांप मरा जाता है।

प्रस्थान

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आठवां द्रश्य

स्थान रू नदी का किनारा।

समय रू चार बजे भोरए कंचन पूजा की सामग्री लिए आता है और एक तख्त पर बैठ जाता हैए फिटन घाट के उसपर ही रूक जाती है।

कंचन रू (मन में) यह जीवन का अंत है ! यह बड़े—बड़े इरादों और मनसूबों का परिणाम है। इसीलिए जन्म लिया था।यही मोक्षपद है। यह निर्वाण है। माया—बंधनों से मुक्त रहकर आत्मा को उच्चतम पद पर ले जाना चाहता था।यह वही महान पद है। यही मेरी सुकीर्तिरूपी धर्मशाला हैए यही मेरा आदर्श कृष्ण मंदिर है ! इतने दिनों के नियम और संयमए सत्संग और भक्तिए दान और व्रत ने अंत में मुझे वहां पहुंचाया जहां कदाचित्‌ भ्रष्टाचार और कुविचारए पाप और कुकर्म ने भी न पहुंचाया होता। मैंने जीवन यात्रा का कठिनतम मार्ग लियाए पर हिंसक जीव—जंतुओं से बचने काए अथाह नदियों को पार करने काए दुर्गम घाटीयों से उतरने का कोई साधन अपने साथ न लिया। मैं स्त्रियों से रहता था।ए इन्हें जीवन का कांटा समझता था।ए इनके बनाव—श्रृंगार को देखकर मुझे घृणा होती थी। पर आज वह स्त्री जो मेरे भाई की प्रेमिका हैए जो मेरी माता के तुल्य हैए प्रेम में इतनी शक्ति हैए मैं यह न जानता था। ! हायए यह आग अब बुझती नहीं दिखायी देती। यह ज्वाला मुझे भस्म करके ही शांत होगी। यही उत्तम है। अब इस जीवन का अंत होना ही अच्छा है। इस आत्मपतन के बाद अब जीना धिक्कार है। जीने से यह ताप और ज्वाला दिन—दिन प्रचंड होगी। घुल—घुलकरए कुढ़़—कुढ़़कर मरने सेए घर में बैर का बीज बोने सेए जो अपने पूज्य हैं उनसे वैमनस्य करने से यह कहीं अच्छा है कि इन विपत्तियों के मूल ही का नाश कर दूं। मैंने सब तरह परीक्षा करके देख लिया। राजेश्वरी को किसी तरह नहीं भूल सकताए किसी तरह ध्यान से नहीं उतार सकता।

चेतनदास का प्रवेश।

कंचन रू स्वामी जी को दंडवत्‌ करता हूँ।

चेतनदास रू बाबाए सदा सुखी रहोए इधर कई दिनों से तुमको नहीं देखा । मुख मलिन हैए अस्वस्थ तो नहीं थे घ्

कंचन रू नहीं महाराजए आपके आशीर्वाद से कुशल से हूँ। पर कुछ ऐसे झंझटों में पड़ा रहा कि आपके दर्शन न कर सका । बड़ा सौभाग्य था कि आज प्रातरू काल आपके दर्शन हो गए। आप तीर्थयात्रा पर कब जाने का विचार कर रहे हैं घ्

चेतनदास रू बाबाए अब तक तो चला गया होताए पर भगतों से पिंड नहीं छूटता। विशेषतरू मुझे तुम्हारे कल्याण के लिए तुमसे कुछ कहना था। और बिना कहे मैं न जा सकता था।यहां इसी उद्देश्य से आया हूँ। तुम्हारे उसपर एक घोर संकट आने वाला है । तुम्हारा भाई सबलसिंह तुम्हें वध कराने की चेष्टा कर रहा है। घातक शीघ्र ही तुम्हारे उसपर आघात करेगी। सचेत हो जाओ।

कंचन रू महाराजए मुझे अपने भाई से ऐसी आशंका नहीं है।

चेतनदास रू यह तुम्हारा भ्रम है। प्रेम र्ईर्ष्‌या में मनुष्य अस्थिरचित्तए उन्मत्त हो जाता है।

कंचन रू यदि ऐसा ही हो तो मैं क्या कर सकता हूँ घ् मेरी आत्मा तो स्वयं अपने पाप के बोझ से दबी हुई है।

चेतनदास रू यह क्षत्रियों की बातें नहीं हैं। भूमिए धन और नारी के लिए संग्राम करना क्षत्रियों का धर्म है। उन वस्तुओं पर उसी का वास्तविक अधिकार है जो अपने बाहुबल से उन्हें छीन सके इस संग्राम में दया और धर्मए विवेक और विचारए मान और प्रतिष्ठाए सभी कायरता के पर्याय हैं। यही उपदेश कृष्ण भगवान ने अर्जुन को दिया था।ए और वही उपदेश मैं तुम्हें दे रहा हूँ। तुम मेरे भक्त हो इसलिए यह चेतावनी देना मेरा कर्तव्य था।योद्वाओं की भांति क्षेत्र में निकलो और अपने शत्रु के मस्तक को पैरों से कुचल डालोए उसका गेंद बनाकर खेलो अथवा अपनी तलवार की नोक पर उछालो।यही वीरों का धर्म है। जो प्राणी क्षत्रिय वंश में जन्म लेकर संग्राम से मुह मोड़ता हैए वह केवल कापुरूष ही नहींए पापी हैए विधर्मी हैए दुरात्मा है। कर्मक्षेत्र में कोई किसी का पुत्र नहींए भाई नहींए मित्र नहींए सब एक दूसरे के शत्रु हैं। यह समस्त संसार कुछ नहींए केवल एक वृहत्ए विराट्‌ शत्रुता है। दर्शनकारों और धर्माचायोऊ ने संसार को प्रेममय कहा है। उनके कथनानुसार ईश्वर स्वयं प्रेम है। यह भ्रांति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जिसने संसार को वेष्ठित कर रखा है। भूल जाओ कि तुम किसी के भाई होए जो तुम्हारे उसपर आघात करे उसका प्रतिघात करोए जो तुम्हारी ओर वक्र नेत्रों से ताके उसकी आंखें निकाल लो। राजेश्वरी तुम्हारी हैए प्रेम के नाते उस पर तुम्हारा ही अधिकार है। अगर तुम अपने कर्तव्य—पथ से हटकर उसे उस पुरूष के हाथों में छोड़ दोगे जिससे उसे पहले चाहे प्रेम रहा होए पर अब वह उससे घृणा करती हैए तो तुम न्यायए नीति और धर्म के घातक सिद्व होगे और जन्म—जन्मान्तरों तक इसका दंड भोगते रहोगे

चेतनदास का प्रस्थान

कंचन रू (मन में) मनए अब क्या कहते हो घ् क्षत्रिय धर्म का पालन करके भाई से लड़ोगेए उसके प्राणों पर आघात करोगे या क्षत्रिय धर्म को भंग करके आत्महत्या करोगे घ् जी तो मरने को नहीं चाहता। अभी तक भक्ति और धर्म के जंजाल में पड़ा रहाए जीवन का कुछ सुख नहीं देखा । अब जब उसकी आशा हुई तो यह कठिन समस्या सामने आ खड़ी हुई हो क्षत्रियधर्म के विरूद्वए पर भाई से मैं किसी भांति विग्रह नहीं कर सकता। उन्होंने सदैव मुझसे पुत्रवत्‌ प्रेम किया है। याद नहीं आता कि कोई अमृदु शब्द उनके मुंह से सुना हो । वह योग्य हैंए विद्वान्‌ हैंए कुशल हैं। मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। अवसर न मिलने की बात नहीं है। भैया का शत्रु मैं हो ही नहीं सकता। क्षत्रियों के ऐसे धर्म सिद्वांत न होते तो जरा—जरा—सी बात पर खून की नदियां क्योंकर बहतीं और भारत क्यों हाथ से जाता घ् नहींए कदापि नहींए मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। साधुगण झूठ नहीं बोलतेए पर यह महात्माजी उन पर भी मिथ्या दोषारोपण कर गए। मुझे विश्वास नहीं आता कि वह मुझ पर इतने निर्दय हो जायेंगी। उनके दया और शील का पारावार नहीं वह मेरी प्राणहत्या का संकेत नहीं दे सकते। एक नहींए हजार राजेश्वरियां होंए पर भैया मेरे शत्रु नहीं हो सकते। यह सब मिथ्या है। मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। हायए अभी एक क्षण में यह घटना सारे नगर में फैल जाएगी । लोग समझेंगेए पांव फिसल गया होगा। राजेश्वरी क्या समझेगी घ् उसे मुझसे प्रेम हैए अवश्य शोक करेगीए रोयेगी और अब से कहीं ज्यादा प्रेम करने लगेगी। और भैया घ् हायए यही तो मुसीबत है। अब मैं उन्हें मुंह नहीं दिखा सकता। मैं उनका अपराधी हूं। मैंने धर्म—हत्या की है। अगर वह मुझे जीता चुनवा दें तो भी मुझे आह भरने का अधिकार नहीं है। मेरे लिए अब यही एक मार्ग रह गया है। मेरे बलिदान से ही अब शांति होगी । पर भैया पर मेरे हाथ न उठेंगी। पानी गहरा है। भगवान्ए मैंने पाप किये हैंए तुम्हें मुंह दिखाने योग्य नहीं हूँ। अपनी अपार दया की छांह में मुझे भी शरण देना। राजेश्वरीए अब तुझे कैसे देखूंगाघ्

पीलपाये पर खड़ा होकर अथाह जल में कूद पड़ता है। हलधर का तलवार और पिस्तौल लिये आना।

हलधर रू बड़े मौके से आया। मैंने समझा था। देर हो गयी। पाखंडी कुकर्मी कहीं का। रोज गंगा नहाने आता हैए पूजा करता हैए तिलक लगाता हैए और कर्म इतने नीच। ऐसे मौके से मिले हो कि एक ही बार में काम तमाम कर दूंगा। और परायी स्त्रियों पर निगाह डालो ! (पीलपाये की आड़ में छिपकर सुनता है) पापी भगवान्‌ से दया की याचना कर रहा है। यह नहीं जानता है कि एक क्षण में नर्क के द्वार पर खड़ा होगा। राजेश्वरीए अब तुम्हें कैसे देखूंगा घ् अभी प्रेत हुए जाते हो फिर उसे जी भरकर देखना। (पिस्तौल का निशाना लगाता है।) अरे ! यह तो आप—ही—आप पानी में कूद पड़ाए क्या प्राण देना चाहता है घ् (पिस्तौल किनारे की ओर फेंककर पानी में कूद पड़ता है और कंचनसिंह को गोद में लिए एक क्षण में बाहर आता है। मन में) अभी पानी पेट में बहुत कम गया है। इसे कैसे होश में लाऊँ घ् है तो यह अपना बैरीए पर जब आप ही मरने पर उतारू है तो मैं इस पर क्या हाथ उठाऊँ। मुझे तो इस पर दया आती है।

कंचनसिंह को लेटाकर उसकी पीठ में घुटने लगाकर उसकी बांहों को हिलाता है। चेतनदास का प्रवेश।

चेतनदास रू (आश्चर्य से) यह क्या दुर्घटना हो गयी घ् क्या तूने इनको पानी में डूबा दिया घ्

हलधर रू नहीं महाराजए यह तो आप नदी में कूद पड़े । मैं तो बाहर निकाल लाया हूँ घ्

चेतनदास रू लेकिन तू इन्हें वध करने का इरादा करके आया था।मूर्खए मैंने तुझे पहले ही जता दिया था। कि तेरा शत्रु सबलसिंह हैए कंचनसिंह नहीं पर तूने मेरी बात का विश्वास न किया। उस धूर्त सबल के बहकाने में आ गया। अब फिर कहता हूँ कि तेरा शत्रु वही हैए उसी ने तेरा सर्वनाश किया हैए वही राजेश्वरी के साथ विलास करता है।

हलधर रू मैंने इन्हें राजेश्वरी का नाम लेते अपने कानों से सुना है।

चेतनदास रू हो सकता है कि राजेश्वरी जैसी सुंदरी को देखकर इसका चित्त भी चंचल हो गया होए सबलसिंह ने संदेहवश इसके प्राण हरण की चेष्टा की होए बस यही बात है।

हलधर रू स्वामी जी क्षमा कीजिएगाए मैं सबलसिंह की बात में आ गया। अब मुझे मालूम हो गया कि वही मेरा बैरी है। ईश्वर ने चाहा तो वह भी बहुत दिन तक अपने पाप का सुख न भोगने पायेंगा।

चेतनदास रू (मन में) अब कहां जाता है घ् आज पुलिस वाले भी घर की तलाशी हुई। अगर उनसे बच गया तो यह तो तलवार निकाले बैठा ही है। ईश्वर की इच्छा हुई तो अब शीघ्र ही मनोरथ पूरे होंगे। ज्ञानी मेरी होगी और मैं इस विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँगा। कोई व्यवसायए कोई विद्याए मुझे इतनी जल्द इतना सम्पत्तिशाली न बना सकती थी।

प्रस्थान।

कंचन रू (होश में आकर) नहींए तुम्हारा शत्रु मैं हूँ। जो कुछ किया हैए मैंने किया है । भैया निर्दोष हैंए तुम्हारा अपराधी मैं हूँ। मेरे जीवन का अंत होए यही मेरे पापों का दंड है। मैं तो स्वयं अपने को इस पाप—जाल से मुक्त करना चाहता था।तुमने क्यों मुझे बचा लिया घ् (आश्चर्य से) अरेए यह तो तुम होए हलधर घ्

हलधर रू (मन में) कैसा बेछल—कपट का आदमी है। (प्रकट) आप आराम से लेटे रहेंए अभी उठिए न।

कंचन रू नहींए अब नहीं लेटा जाता । (मन में) समझ में आ गयाए राजेश्वरी इसी की स्त्री है। इसीलिए भैया ने वह सारी माया रची थी। (प्रकट) मुझे उठाकर बैठा दो। वचन दो कि भैया का कोई अहित न करोगे।

हलधर रू ठाकुरए मैं यह वचन नहीं दे सकता।

कंचन रू किसी निर्दोष की जान लोगे घ् तुम्हारा घातक मैं हूँ। मैंने तुम्हें चुपके से जेल भिजवाया और राजेश्वरी को कुटनियों द्वारा यहां बुलाया।

तीन डाकू लाठियां लिये आते हैं।

एक रू क्यों गुरूए पड़ा हाथ भरपूर घ्

दूसरा रू यह तो खासा टैयां सा बैठा हुआ है। लाओ मैं एक हाथ दिखाऊँ।

हलधर रू खबरदारए हाथ न उठाना।

दूसरा रू क्या कुछ हत्थे चढ़़ गया क्या घ्

हलधर रू हांए असर्फियों की थैली है। मुंह धो रखना ।

तीसरा रू यह बहुत कड़ा ब्याज लेता है। सब रूपये इसकी तोंद में से निकाल लो।

हलधर रू जबान संभालकर बात करो।

पहला रू अच्छाए इसे ले चलोए दो—चार दिन बर्तन मंजवायेंगे। आराम करते—करते मोटा हो गया है।

दूसरा रू तुमने इसे क्यों छोड़ दिया घ्

हलधर रू इसने वचन दिया कि अब सूद न लूंगा।

पहला रू क्यों बच्चाए गुरू को सीधा समझकर झांसा दे दिया ।

हलधर रू बक—बक मत करो। इन्हें नाव पर बैठाकर डेरे पर लेते चलो।यह बेचारे सूद—ब्याज जो कुछ लेते हैं अपने भाई के हुकुम से लेते हैं। आज उसी की खबर लेने का विचार है।

सब कंचन को सहारा देकर नाव पर बैठा देते हैं और गाते हुए नाव चलाते हैं।

नारायण का नाम सदा मन के अंदर लाना चहिए !

मानुष तन है दुर्लभ जग में इसका फल पाना चहिए!

दुर्जन संग नरक का मारग उससे दूर जाना चहिए!

सत संगत में सदा बैठ के हरि के गुण गाना चहिए!

धरम कमाई करके अपने हाथों की खाना चहिए!

परनारी को अपनी माता के समान जाना चहिए!

झूठ—कपट की बात सदा कहने में शरमाना चहिए!

कथा। पुरान संत संगत में मन को बहलाना चहिए!

नारायण का नाम सदा मन के अंदर लाना चहिए!

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नौवां द्रश्य

स्थान रू गुलाबी का मकान।

समय रू संध्याए चिराग जल चुके हैंए गुलाबी संदूक से रूपये निकाल रही है।

गुलाबी रू भाग जाग जाएंगे। स्वामीजी के प्रताप से यह सब रूपये दूने हो जाएंगे। पूरे तीन सौ रूपये हैं। लौटूंगी तो हाथ में छरू सौ रूपये की थैली होगी। इतने रूपये तो बरसों में भी न बटोर पाती। साधु—महात्माओं में बड़ी शक्ति होती है। स्वामीजी ने यह मंत्र दिया है। भृगु के गले में बांध दूं। फिर देखूंए यह चुड़ैल उसे कैसे अपने बस में किये रहती है। उन्होंने तो कहा है कि वह उसकी बात भी न पूछेगी। यही तो मैं चाहती हूँ । उसका मानमर्दन हो जायेए घमंड टूट जाये। (भृगु को बुलाती है।) क्यों बेटाए आजकल तुम्हारी तबीयत कैसी रहती है घ् दुबले होते जाते होघ्

भृगु रू क्या करूं घ् सारे दिन बही खोले बैठे—बैठे थक जाता हूँ। ठाकुर कंचनसिंह एक बीड़ा पान को भी नहीं पूछते। न कहीं घूमने जाता हूँए न कोई उत्तम वस्तु भोजन को मिलती है। जो लोग लिखने—पढ़़ने का काम करते हैं उन्हें दूधए मक्खनए मेवा—मिसरी इच्छानुकूल मिलनी चाहिए । रोटीए दालए चावल तो मजदूरों का भोजन है। सांझ—सबेरे वायु—सेवन करना चाहिए । कभी—कभी थियेटर देखकर मन बहलाना चाहिए । पर यहां इनमें से कोई भी सुख नहीं यही होगा कि सूखते—सूखते एक दिन जान से चला जाऊँगी।

गुलाबी रू ऐ नौज बेटाए कैसी बात मुंह से निकालते हो घ् मेरे जान में तो कुछ फेर—फार है। इस चुड़ैल ने तुम्हें कुछ कर—करा दिया है। यह पक्की टोनिहारी है। पूरब की न है। वहां की सब लड़कियां टोनिहारी होती हैं।

भृगु रू कौन जाने यही बात होए कंचनसिंह के कमरे में अकेले बैठता हूँ तो ऐसा डर लगता है जैसे कोई बैठा होए रात को आने लगता हूँ तो फाटक पर मौलसरी के पेड़ के नीचे किसी को खड़ा देखता हूँ। कलेजा थर—थर कांपने लगता है। किसी तरह चित्त को ढ़ाढ़़स देता हुआ चला आता हूँ। लोग कहते हैंए पहले वहां किसी की कबर थी।

गुलाबी रू मैं स्वामीजी के पास से यह जंतर लायी हूँ। इसे गले में बांध लोए शंका मिट जाएगी। और कल से अपने लिए पाव—भर दूध भी लाया करो। मैंने खूबा अहीर से कहा है। उसके लड़के को पढ़़ा दिया करोए वह तुम्हें दूध दे देगा।

भृगु रू जंतर लाओ मैं बांध लूंए पर खूबा के लड़के को मैं न पढ़़ा सकूंगा। लिखने—पढ़़ने का काम करते—करते सारे दिन यों ही थक जाता हूँ। मैं जब तक कंचनसिंह के यहां रहूँगाए मेरी तबीयत अच्छी न होगी। मुझे कोई दुकान खुलवा दो।

गुलाबी रू बेटाए दुकान के लिए तो पूंजी चाहिए । इस घड़ी तो यह तावीज बांध लो।फिर मैं और कोई जतन करूंगी। देखोए देवीजी ने खाना बना लिया घ् आज मालकिन ने रात को वहीं रहने को कहा है।

भृगु जाता है और चम्पा से पूछकर आता है गुलाबी चौके में जाती है।

गुलाबी रू पीढ़़ा तक नहीं रखाए लोटे का पानी तक नहीं रखा । अब मैं पानी लेकर आऊँ और अपने हाथ से आसन डालूं तब खाना खाऊँ । क्यों इतने घमंड के मारे मरी जाती होए महारानी घ् थोड़ा इतराओए इतना आकाश पर दिया न जलाओ।

चम्पा थाली लाकर गुलाबी के सामने रख देती है। वह एक कौर उठाती है और क्रोध से थाली चम्पा के सिर पर पटक देती है।

भृगु रू क्या हैए अम्मां घ्

गुलाबी रू है क्याए यह डाकून मुझे विष देने पर तुली हुई है। यह खाना है कि जहर है घ् मार नमक भर दिया । भगवान्‌ न जाने कब इसकी मिट्टी इस घर से उठाएंगी। मर गए इसके बाप—चचा। अब कोई झांकता तक नहीं जब तक ब्याह न हुआ था।ए द्वार की मिट्टी खोदे डालते थे।इतने दिन इस अभागिनी को रसोई बनाते हो गएए कभी ऐसा न हुआ कि मैंने पेट भर भोजन किया होए यह मेरे पीछे पड़ी हुई हैघ्

भृगु रू अम्मांए देखो सिर लोहूलुहान हो गया । जरा नमक ज्यादा ही हो गया तो क्या उसकी जान ले लोगी। जलती हुई दाल डाल दी। सारे बदन में छाले पड़ गए। ऐसा भी कोई क्रोध करता है।

गुलाबी रू (मुंह चिढ़़ाकर) हां—हांए देखए मरहम—पट्टी कर। दौड़ डाक्टर को बुला लाए नहीं कहीं मर न जाए। अभी लौंडा हैए त्रिया—चरित्र देखा कर । मैंने उधर पीठ फेरीए इधर ठहाके की हंसी उड़ने लगेगी। तेरे सिर चढ़़ाने से तो इसका मिजाज इतना बढ़़ गया है। यह तो नहीं पूछता कि दाल में क्यों इतना नमक झोंक दियाए उल्टे और घाव पर मरहम रखने चला है। (झमककर चली जाती है।)

चम्पा रू मुझे मेरे घर पहुंचा दो।

भृगु रू सारा सिर लोहूलुहान हो गया । इसके पास रूपये हैंए उसी का इसे घमंड है। किसी तरह रूपये निकल जाते तो यह गाय हो जाती।

चम्पा रू तब तक तो यह मेरा कचूमर ही निकाल लेंगी।

भृगु रू सबर का फल मीठा होता है।

चम्पा रू इस घर में अब मेरा निबाह न होगी। इस बुढ़़िया को देखकर आंखों में खून उतर आता है।

भृगु रू अबकी एक गहरी रकम हाथ लगने वाली है। एक ठाकुर ने कानों की बाली हमारे यहां गिरों रखी थी। वादे के दिन टल गयेब ठाकुर का कहीं पता नहीं । पूरब गया था। न जाने मर गया या क्या ! मैंने सोचा है तुम्हारे पास जो गिन्नी रखी है उसमें चार—पांच रूपये और मिलाकर बाली छुड़ा लूं । ठाकुर लौटेगा तो देखा जाएगी। पचास रूपये से कम का माल नहीं है।

चम्पा रू सच !

भृगु रू हां अभी तौले आता हूँ। पूरे दो तोले है।

चम्पा रू तो कब ला दोगे घ्

भृगु रू कल लो। वह तो अपने हाथ का खेल है। आज दाल में नमक क्यों ज्यादा हुआ घ्

चम्पा रू सुबह कहने लगींए खाने में नमक ही नहीं है। मैंने इस बेला नमक पीसकर उनकी थाली में उसपर से डाल दिया कि खाओ खूब जी भर के । वह एक—न —एक खुचड़ निकालती हैं तो मैं तो उन्हें जलाया करती हूँ।

भृगु रू अच्छाए अब मुझे भी भूख लगी हैए चलो।

चम्पा रू (आप—ही—आप) सिर में जरा—सी चोट लगी तो क्याए कानों की बालियां तो मिल गयीं घ् इन दामों तो चाहे कोई मेरे सिर पर दिन—भर थालियां पटका करे।

प्रस्थान।

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अंक 4

पहला द्रश्य

स्थानरू मधुबन। थानेदारए इंस्पेक्टर और कई सिपाहियों का प्रवेश।

इंस्पेक्टर रू एक हजार की रकम एक चीज होती है।

थानेदार रू बेशक !

इंस्पेक्टर रू और करना कुछ नहीं दो—चार शहादतें बनाकर खाना तलाशी कर लेनी है।

थानेदार रू गांव वाले तो सबलसिंह ही के खिलाफ होंगे।

इंस्पेक्टर रू आजकल बड़े—से—बड़े आदमी को जब चाहें गांस लें। कोई कितना ही मुआफिज होए अफसरों के यहां उसकी कितनी ही रसाई होए इतना कह दीजिए कि हुजूरए यह तो सुराज का हामी हैए बस सारे हुक्काम उसके जानी दुश्मन हो जाते हैं। फिर वह गरी। अपनी कितनी ही सगाई दिया करेए अपनी वफादारी के कितने ही सबूत पेश करता फिरेए कोई उसकी नहीं सुनता। सबलसिंह की इज्जत हुक्काम की नजरों में कम नहीं थी। उनके साथ दावतें खाते थेए घुड़दौड़ में शरीक होते थेए हर एक जलसे में शरीक किए जाते थेए पर मेरे एक फिकरे ने हजरत का सारा रंग फीका कर दिया । साहब ने फौरन हुक्म दिया कि जाकर उसकी तलाशी लो और कोई सबूत दस्तया। हो तो गिरफ्तारी का वारंट ले जाओ !

थानेदार रू आपने क्या फिकरा जमाया था। घ्

इंस्पेक्टर रू अजी कुछ नहींए महज इतना कहा था। कि आजकल यहां सुराज की बड़ी धूम है। ठाकुर सबलसिंह पंचायतें कायम कर रहे हैं। इतना सुनना था। कि साहब का चेहरा सुर्ख हो गया। बोलेरू दगाबाज आदमी है। मिलकर वार करना चाहता हैए फौरन उसके खिलाफ सबूत पैदा करो। इसके कब्ल मैंने कहा था।ए हुजूरए यह बड़ा जिनाकार आदमी हैए अपने एक असामी की औरत को निकाल लाया है। इस पर सिर्फ मुस्कराएए तीवरों पर जरा भी मैल नहीं आयी। तब मैंने यह चाल चली। यह लोए गांव के मुखिया आ गएए जरा रोब जमा दूं।

मंगईए हरदासए फत्तू आदि का प्रवेश। सलोनी भी पीछे—पीछे आती है और अलग खड़ी हो जाती है।

इंस्पेक्टर रू आइए शेख जीए कहिए खैरियत तो है घ्

फत्तू रू (मन में) सबलसिंह के नेक और दयावान होने में कोई संदेह नहीं कभी हमारे उसपर सख्ती नहीं की। हमेशा रिआयत ही करते रहेए पर आंख का लगना बुरा होता है। पुलिस वाले न जाने उन्हें किस—किस तरह सताएंगी। कहीं जेहल न भिजवा देंब राजेश्वरी को वह जबरदस्ती थोड़े ही ले गए। वह तो अपने मन से गई। मैंने चेतनदास बाबा को नाहक इस बुरे काम में मदद दी। किसी तरह सबलसिंह को बचाना चाहिए । (प्रकट) सब अल्लाह का करम है।

इंस्पेक्टर रू तुम्हारे जमींदार साहब तो खूब रंग लाये। कहां तो वह पारसाई और कहां यह हरकत।

फत्तू रू हुजूरए हमको तो कुछ मालूम नहीं।

इंस्पेक्टर रू तुम्हारे बचाने से अब वह नहीं बच सकते। अब तो आ गए शेर के पंजे में। अपना बयान दीजिए। यहां गांव में पंचायत किसने कायम की घ्

फत्तू रू हुजूरए गांव के लोगों ने मिलकर कायम कीए जिसमें छोटी—छोटी बातों के पीछे अदालत की ठोकरें न खानी पड़ें।

इंस्पेक्टर रू सबलसिंह ने यह कहा कि अदालतों में जाना गुनाह है घ्

फत्तू रू हुजूरए उन्होंने ऐसी बात तो नहीं कहीए हां पंचायत के फायदे बताये थे।

इंस्पेक्टर रू उन्होंने तुम लोगों को बेगार बंद करने की ताकीद नहीं की घ् सच बोलनाए खुदा तुम्हारे सामने है।

फत्तू रू (बगलें झांकते हुए) हुजूरए उन्होंने यह तो नहीं कहा । हांए यह जरूर कहा कि जो चीज दो उसका मुनासिब दाम लो।

इंस्पेक्टर रू वह एक ही बात हुई अच्छाए उस गांव में शराब की दुकान थी वह किसने बंद करायी घ्

फत्तू रू हुजूरए ठीकेदार ने आप ही बंद कर दीए उसकी बिक्री न होती थी।

इंस्पेक्टर रू सबलसिंह ने सबसे यह नहीं कहा कि जो उस दुकान पर जाये उसे पंचायत में सजा मिलनी चाहिए ।

फत्तू रू (मन में) इसको जरा—जरा—सी बातों की खबर है। (प्रकट) हुजूरए मुझे याद नहीं।

इंस्पेक्टर रू शेखजीए तुम कन्नी काट रहे होए इसका नतीजा अच्छा नहीं है। दारोगा जी ने तुम्हारा जो बयान लिखा है उस पर चुपके से दस्तखत कर दोए वरना जमींदार तो न बचेंगेए तुम अलबत्ता गेहूँ के साथ घुन की तरह पिस जाओगे।

फत्तू रू हुजूर का अखतियार हैए जो चाहें करेंए पर मैं तो वही कहूँगा जो जानता हूँ।

इंस्पेक्टर रू तुम्हारा क्या नाम है घ्

मंगई रू (सामने आकर) मंगई।

इंस्पेक्टर रू जो पूछा जाये उसका साफ—साफ जवाब देना । इधर—उधर किया तो तुम जानोगे। पुलिस का मारा पानी नहीं मांगता। यहां गांव में पंचायत किसने कायम की घ्

मंगई रू (मन में) मैं तो जो यह चाहेंगे वही कहूँगा। पीछे देखी जाएगी। गालियां देने लगें या पिटवाने ही लगें तो इनका क्या बना लूंगाघ् सबलसिंह तो मुझे बचा न देंगे। (प्रकट) ठाकुर सबलसिंह ने।

इंस्पेक्टर रू उन्होंने तुम लोगों से कहा था न कि सरकारी अदालत में जाना पाप है। जो सरकारी अदालत में जाये उसका हुक्का—पानी बंद कर दो।

मंगई रू (मन में) यह तो नहीं कहा था। खाली अदालतों के खर्च से बचने के लिए पंचायत खोलने की ताकीद की थी। पर ऐसा कह दूं तो अभी यह जामे से बाहर हो जाए। (प्रकट) हां हुजूरए कहा थाए बात सच्ची कहूँगा। जमींदार आकबत में थोड़े ही साथ देंगे।

इंस्पेक्टर रू सबलसिंह ने यह नहीं कहा था कि किसी हाकिम को बेगार मत दो घ्

मंगई रू (मन में) उन्होंने तो इतना ही कहा था कि मुनासिब दाम लेकर दो। (प्रकट) हां हुजूरए कहा थाए कहा था।सच्ची बात कहने में क्या डर घ्

इंस्पेक्टर रू शराब और गांजे की दुकान तोड़वाने की तहरीर उनकी तरफ से हुई थी न घ्

मंगई रू बराबर हुई थी। जो शराब गांजा पिए उसका हुक्का—पानी बंद कर दिया जाता था।

इंस्पेक्टर रू अच्छाए अपने बयान पर अंगूठे का निशान दो। तुम्हारा क्या नाम है जी घ् इधर आओ।

हरदास रू (सामने आकर) हरदास।

इंस्पेक्टर रू सच्चा बयान देना जैसा मंगई ने दिया हैए वरना तुम जानोगे।

हरदास रू (मन में) सबलसिंह तो अब बचते नहींए मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं घ् यह जो कुछ कहलाना चाहते हैं मैं उससे चार बात ज्यादा ही कहूँगा। यह हाकिम हैंए खुश होकर मुखिया बना दें तो साल में सौ—दो सौ रूपये अनायास ही हाथ लगते रहैं। (प्रकट) हुजूरए जो कुछ जानता हूँ वह रत्ती—रत्ती कह दूंगा।

इंस्पेक्टर रू तुम समझदार आदमी मालूम होते होए अपना नफा—नुकसान समझते होए यहां पंचायत के बारे में क्या जानते हो घ्

हरदास रू हुजूरए ठाकुर सबलसिंह ने खुलवायी थी। रोज यही कहा करें कि कोई आदमी सरकारी अदालत में न जाये। सरकार के इसटाम क्यों खरीदो। अपने झगड़े आप चुका लो।फिर न तुम्हें पुलिस का डर रहेगा न सरकार का। एक तरह से तुम अदालतों को छोड़ देने से ही सुराज पा जाओगे। यह भी हुक्म दिया था। कि जो आदमी अदालत जाये उसका हुक्का—पानी बंद कर देना चाहिए ।

इंस्पेक्टर रू बयान ऐसा होना चाहिए । अच्छाए सबलसिंह ने बेगार के बारे में तुमसे क्या कहा था। घ्

हरदास रू हुजूरए वह तो खुल्लमखुल्ला कहते थे कि किसी को बेगार मत दोए चाहे बादशाह ही क्यों न होए अगर कोई जबरदस्ती करे तो अपना और उसका खून एक कर दो।

इंस्पेक्टर रू ठीक है। शराब गांजे की दुकान कैसे बंद हुई घ्

हरदास रू हुजूरए बंद न होती तो क्या करतीए कोई वहां खड़ा नहीं होने पाता था।ठाकुर साहब ने हुक्म दे दिया था। कि जिसे वहां खड़ेए बैठेए या खरीदते पाओ उसके मुंह में कालिख लगाकर सिर पर सौ जूते लगाओ।

इंस्पेक्टर रू बहुत अच्छा। अंगूठे का निशान कर दो। हम तुमसे बहुत खुश हुए।

सलोनी गाती हैरू

सैयां भये कोतवालए अब डर काहे का

इंस्पेक्टर रू यह पगली क्या गा रही है घ् अरी पगली इधर आ।

सलोनी रू (सामने आकर) सैयां भये कोतवालए अब डर काहे का घ्

इंस्पेक्टर रू दारोगा जीए इसका बयान भी लिख लीजिए।

सलोनी रू हांए लिख लो।ठाकुर सबलसिंह मेरी बहू को घर से भगा ले गए और पोते को जेहल भिजवा दिया ।

इंस्पेक्टर रू यह फजूल बातें मैं नहीं पूछता। बता यहां उन्होंने पंचायत खोली है न घ्

सलोनी रू यह फजूल बातें मैं क्या जानूं घ् मुझे पंचायत से क्या लेना—देना है। जहां चार आदमी रहते हैं वहां पंचायत रहती ही है। सनातन से चली आती हैए कोई नयी बात है घ् इन बातों से पुलिस से क्या मतलब घ् तुम्हें तो देखना चाहिएए सरकार के राज में भले आदमियों की आबरू रहती है कि लुटती है। सो तो नहींए पंचायत और बेगार का रोना ले बैठे। बेगार बंद करने को सभी कहते हैं। गांव के लोगों को आप ही अखरता है। सबलसिंह ने कह दिया तो क्या अंधेर हो गया। शराबए ताड़ीए गांजाए भांग पीने को सभी मना करते हैं। पुरानए भागवतए साधु—संत सभी इसको निखिद्व कहते हैं। सबलसिंह ने कहा— श् तो क्या नयी बात कही घ् जो तुम्हारा काम है वह करोए ऊटपटांग बातों में क्यों पड़ते हो घ्

इंस्पेक्टर रू बुढ़़िया शैतान की खाला मालूम होती है।

थानेदार रू तो इन गवाहों को अब जाने दूं घ्

इंस्पेक्टर रू जी नहींए अभी रिहर्सल तो बाकी है। देखो जीए तुमने मेरे रू—ब—रू जो बयान दिया है वही तुम्हें बड़े साहब के इजलास पर देना होगी। ऐसा न होए कोई कुछ कहेए कोई कुछए मुकदमा भी बिगड़ जाये और तुम लोग भी गलतबयानी के इल्जाम में धर लिये जाओ। दारोगाजी शुरू कीजिए। तुम लोग सब साथ—साथ वही बातें कहो जो दारोगाजी की जबान से निकलें।

दारोगा रू ठाकुर सबलसिंह कहते थे कि सरकारी अदालतों की जड़ खोद डालोए भूलकर भी वहां न जाओ। सरकार का राज अदालतों पर कायम है । अदालत को तर्क कर देने से राज की बुनियाद हिल जाएगी।

सब—के—सब यही बात दुहराते हैं।

दारोगा रू अपने मुआमले पंचायतों में तै कर लो।

सब—के—सब रू अपने मुआमले पंचायतों में तै कर लो।

दारोगा रू उन्होंने हुक्म दिया था। कि किसी अफसर को बेगार मत दो।

सब—के—सब रू उन्होंने हुक्म दिया था। कि किसी अफसर को बेगार मत दो।

दारोगा रू बेगार न मिलेगी तो कोई दौरा करने न आएगी। तुम लोग जो चाहनाए करना। यह सुराज की दूसरी सीढ़़ी है।

सब—के—सब रू बेगार न मिलेगी तो कोई दौरा करने न आएगी। यह सुराज की दूसरी सीढ़़ी है।

दारोगा रू यह और कहोए तुम लोग जो जी चाहे करना।

इंस्पेक्टर रू यही जुमला तो जान है।

सब—के—सब रू तुम लोग जो जी चाहे करना।

दारोगा रू उन्होंने हुक्म दिया था। कि जो नशे की चीजें खरीदे उसका हुक्का—पानी बंद कर दो।

सब—के—सब रू उन्होंने हुक्म दिया था। कि जो नशे की चीजें खरीदे उसका हुक्का—पानी बंद कर दो।

दारोगा रू अगर इतने पर भी न माने तो उसके घर में आग लगा दो।

सब—के—सब रू अगर इतने पर भी न माने तो उसके घर में आग लगा दो।

दारोगा रू उसके मुंह में कालिख लगाकर सौ जूते लगाओ

सब—के—सब रू उसके मुंह में कालिख लगाकर सौ जूते लगाओ

दारोगा रू जो आदमी विलायती कपड़े खरीदे उसे गधे पर सवार कराके गांव—भर में घुमाओ।

सब—के—सब रू जो आदमी विलायती कपड़े खरीदे उसे गधे पर सवार कराके गांव—भर में घुमाओ।

दारोगा रू जो पंचायत का हुक्म न माने उसे उल्टे लटकाकर पचास बेंत लगाओ

सब—के—सब रू जो पंचायत का हुक्म न माने उसे उल्टे लटकाकर पचास बेंत लगाओ।

दारोगा रू (इंस्पेक्टर से) इतना तो काफी होगा।

इंस्पेक्टर रू इतना उन्हें जहन्नुम भेजने के लिए काफी है। तुम लोग देखोए खबरदारए इसमें एक हर्फ का भी उलटफेर न होए अच्छा अब चलना चाहिए । (कानिसटीब्लों से) देखोए बकरे हों तो दो पकड़ लो।

सिपाही रू बहुत अच्छा हुजूरए दो नहीं चार।

दारोगा रू एक पांच सेर घी भी लेते चलो।

सिपाही रू अभी लीजिएए सरकार!

दारोगा और इंस्पेक्टर का प्रस्थान। सलोनी गाती है।

सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का।

अब तो मैं पहनूं अतलस का लहंगा

और चबाऊँ पान।

द्वारे बैठ नजारा मारूं।

सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का।

फत्तू रू काकीए गाती ही रहेगी घ्

सलोनी रू जा तुझसे नहीं बोलती। तू भी डर गया।

फत्तू रू काकीए इन सभी से कौन लड़ता घ् इजलास पर जाकर जो सच्ची बात हैए वह कह दूंगा।

मंगई रू पुलिस के सामने जमींदार कोई चीज नहीं ।

हरदास रू पुलिस के सामने सरकार कोई चीज नहीं ।

सलोनी रू सच्चाई के सामने जमींदार—सरकार कोई चीज नहीं ।

मंगई रू सच बोलने में निबाह नहीं है।

हरदास रू सच्चे की गर्दन सभी जगह मारी जाती है।

सलोनी रू अपना धर्म तो नहीं बिगड़ता। तुम कायर होए तुम्हारा मुंह देखना पाप है। मेरे सामने से हट जाओ।

प्रस्थान।

'''

दूसरा द्रश्य

स्थानरू सबलसिंह का कमरा।

समयरू दस बजे दिन।

सबल रू (घड़ी की तरफ देखकर) दस बज गए। हलधर ने अपना काम पूरा कर लिया। वह नौ बजे तक गंगा से लौट आते थे।कभी इतनी देर न होती थी। अब राजेश्वरी फिर मेरी हुई चाहे ओढ़ूंए बिछाऊँ या गले का हार बनाऊँ। प्रेम के हाथों यह दिन देखने की नौबत आएगीए इसकी मुझे जरा भी शंका न थी। भाई की हत्या की कल्पना मात्र से ही रोयें खड़े हो जाते हैं। इस कुल का सर्वनाश होने वाला है। कुछ ऐसे ही लक्षण दिखाई देते हैं। कितना उदारए कितना सच्चा ! मुझसे कितना प्रेमए कितनी श्रद्वा थी। पर हो ही क्या सकता था। घ् एक म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती थीं घ् संसार में प्रेम ही वह वस्तु हैए जिसके हिस्से नहीं हो सकते। यह अनौचित्य की पराकाष्ठा थी कि मेरा छोटा भाईए जिसे मैंने सदैव अपना पुत्र समझाए मेरे साथ यह पैशाचिक व्यवहार करे। कोई देचता भी यह अमर्यादा नहीं कर सकता था।यह घोर अपमान ! इसका परिणाम और क्या होता घ् यही आपत्ति—धर्म था।इसके लिए पछताना व्यर्थ है (एक क्षण के बाद) जी नहीं मानताए वही बातें याद आती हैं। मैंने कंचन की हत्या क्यों कराई घ् मुझे स्वयं अपने प्राण देने चाहिए थे।मैं तो दुनिया का सुख भोग चुका था। ! स्त्री—पुत्र सबका सुख पा चुका था।उसे तो अभी दुनिया की हवा तक न लगी थी। उपासना और आराधना ही उसका एकमात्र जीवनाधार थी। मैंने बड़ा अत्याचार किया।

अचलसिंह का प्रवेश।

अचल रू बाबूजीए अब तक चाचाजी गंगास्नान करके नहीं आये घ्

सबल रू हांए देर तो हुई अब तक तो आ जाते थे।

अचल रू किसी को भेजिएए जाकर देख आए।

सबल रू किसी से मिलने चले गए होंगे।

अचल रू मुझे तो जाने क्यों डर लग रहा है । आजकल गंगाजी बढ़़ रही हैं।

सबलसिंह कुछ जवाब नहीं देते।

अचल रू वह तैरने दूर निकल जाते थे।

सबल चुप रहते हैं।

अचल रू आज जब वह नहाने जाते थे तो न जाने क्यों मुझे देखकर उनकी आंखें भर गयी थीं।मुझे प्यार करके कहा था।ए ईश्वर तुम्हें चिरंजीवी करे। इस तरह तो कभी आशीष नहीं देते थे।

सबल रो पड़ते हैं और वहां से उठकर बाहर बरामदे में चले जाते हैं। अचल कंचनसिंह के कमरे की ओर जाता है।

सबल रू (मन में) अब पछताने से क्या फायदा घ् जो कुछ होना था।ए हो चुका । मालूम हो गया कि काम के आवेग में बुद्विए विद्याए विवेक सब साथ छोड़ देते हैं। यही भावी थीए यही होनहार था।ए यही विधाता की इच्छा थी। राजेश्वरीए तुझे ईश्वर ने क्यों इतनी रूप—गुणशीला बनाया घ् पहले पहले जब मैंने तुझसे बात की थीए तूने मेरा तिरस्कार क्यों न कियाए मुझे कटु शब्द क्यों न सुनाये घ् मुझे कुत्ते की भांति दुत्कार क्यों न दिया घ् मैं अपने को बड़ा सत्यवादी समझा करता था।पर पहले ही झोंके में उखड़ गयाए जड़ से उखड़ गया। मुलम्मे को मैं असली रंग समझ रहा था।पहली ही आंच में मुलम्मा उड़ गया। अपनी जान बचाने के लिए मैंने कितनी घोर धूर्तता से काम लिया। मेरी लज्जाए मेरा आत्माभिमानए सबकी क्षति हो गयी ! ईश्वर करेए हलधर अपना वार न कर सका हो और मैं कंचन को जीता जागता आते देखूं। मैं राजेश्वरी से सदैव के लिए नाता तोड़ लूंगा। उसका मुंह तक न देखूंगा। दिल पर जो कुछ बीतेगी झेल लूंगा।

अधीर होकर बरामदे में निकल आते हैं और रास्ते की ओर टकटकी लगाकर देखते हैं। (ज्ञानी का प्रवेश)

ज्ञानी रू अभी बाबूजी नहीं आये। ग्यारह बज गए। भोजन ठंडा हो रहा है। कुछ कह नहीं गएए कब तक आयेंगे घ्

सबल रू (कमरे में आकर) मुझसे तो कुछ नहीं कहा ।

ज्ञानी रू तो आप चलकर भोजन कर लीजिए।

सबल रू उन्हें भी आ जाने दो। तब तक तुम लोग भोजन करो।

ज्ञानी रू हरज ही क्या हैए आप चलकर खा लें। उनका भोजन अलग रखवा दूंगी। दोपहर तो हुआ।

सबल रू (मन में) आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने घर पर अकेले भोजन किया होए ऐसे भोजन करने पर धिक्कार है। भाई का वध करके मैं भोजन करने जाऊँ और स्वादिष्ट पदाथोर्ं का आनंद उठाऊँ। ऐसे भोजन करने पर लानत है। (प्रकट) अकेले मुझसे भोजन न किया जायेगी।

ज्ञानी रू तो किसी को गंगाजी भेज दो। पता लगाये कि क्या बात है। कहां चले गए घ् मुझे तो याद नहीं आता कि उन्होंने कभी इतनी देर लगायी होए जरा जाकर उनके कमरे में देखूंए मामूली कपड़े पहनकर गए हैं या अचकन—पजामा भी पहना है।

जाती है और एक क्षण में लौट आती है।

ज्ञानी रू कपड़े तो साधारण ही पहनकर गए हैंए पर कमरा न जाने क्यों भांय—भांय कर रहा हैए वहां खड़े होते एक भय—सा लगता था।ऐसी शंका होती है कि वह अपनी मसनद पर बैठे हुए हैंए पर दिखाई नहीं देते। न जाने क्यों मेरे तो रोयें खड़े हो गए और रोना आ गया। किसी को भेजकर पता लगवाइए।

सबल दोनों हाथों से मुंह छिपाकर रोने लगता है।

ज्ञानी रू हायए यह आप क्या करते हैं ! इस तरह जी छोटा न कीजियेब वह अबोध बालक थोड़े ही हैं। आते ही होंगे ।

सबल रू (रोते हुए) आहए ज्ञानी ! अब वह घर न आयेंगी। अब हम उनका मुंह फिर न देखेंगी।

ज्ञानी रू किसी ने कोई बुरी खबर कही है क्या घ् (सिसकियां लेती है।)

सबल रू (मन में) अब मन में बात नहीं रह सकती। किसी तरह नहीं वह आप ही बाहर निकली पड़ती है। ज्ञानी से मुझे इतना प्रेम कभी न हुआ था।मेरा मन उसकी ओर खिंचा जाता है। (प्रकट) जो कुछ किया है मैंने ही किया है। मैं ही विष की गांठ हूँ। मैंने ईर्ष्‌या के वश होकर यह अनर्थ किया है। ज्ञानीए मैं पापी हूँए राक्षस हूँए मेरे हाथ अपने भाई के खून से रंगे हुए हैंए मेरे सिर पर भाई का खून सवार है। मेरी आत्मा की जगह अब केवल कालिमा की रेखा है ! ह्रदय के स्थान पर केवल पैशाचिक निर्दयता। मैंने तुम्हारे साथ दगा की है। तुम और सारा संसार मुझे एक विचारशीलए उदारए पुण्यात्मा पुरूष समझते थेए पर मैं महान्‌ पानीए नराधमए धूर्त हूँ। मैंने अपने असली स्वरूप को सदैव तुमसे छिपाया । देवता के रूप में मैं राक्षस था।मैं तुम्हारा पति बनने योग्य न था। मैंने एक पति—परायणा स्त्री को कपट चालों से निकालाए उसे लाकर शहर में रखा। कंचनसिंह को भी मैंने वहां दो—तीन बार बैठे देखा । बसए उसी क्षण से मैं ईर्ष्‌या की आग में जलने लगा और अंत में मैंने एक हत्यारे के हाथों(रोकर) भैया को कैसे पाऊँ घ् ज्ञानीए इन तिरस्कार के नेत्रों से न देखो। मैं ईश्वर से कहता हूँए तुम कल मेरा मुंह न देखोगी। मैं अपनी आत्मा को कलुषित करने के लिए अब और नहीं जीना चाहता। मैं अपने पापों का प्रायश्चित एक ही दिन में समाप्त कर दूंगा। मैंने तुम्हारे साथ दगा कीए क्षमा करना।

ज्ञानी रू (मन में) भगवन्! पुरूष इतने ईर्ष्‌यालुए इतने विश्वासघातीए इतने क्रूरए वज्र—ह्रदय होते हैं! अगर मैंने स्वामी चेतनदास की बात पर विश्वास किया होता तो यह नौबत न आने पाती। पर मैंने तो उनकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया । यह उसी अश्रद्वा का दण्ड है। (प्रकट) मैं आपको इससे ज्यादा विचारशील समझती थी। किसी दूसरे के मुंह से ये बातें सुनकर मैं कभी विश्वास न करती।

सबल रू ज्ञानीए मुझे सच्चे दिल से क्षमा करो। मैं स्वयं इतना दुरू खी हूँ कि उस पर एक जौ का बोझ भी मेरी कमर तोड़ देगी। मेरी बुद्वि इस समय भ्रष्ट हो गई है। न जाने क्या कर बैठूंब मैं आपे में नहीं हूँ। तरह—तरह के आवेग मन में उठते हैं। मुझमें उनको दबाने की सामर्थ्‌य नहीं है। कंचन के नाम से एक धर्मशाला और ठाकुरद्वारा अवश्य बनवाना। मैं तुमसे यह अनुरोध करता हूँए यह मेरी अंतिम प्रार्थना है। विधाता की यह वीभत्स लीलाए यह पैशाचिक तांडव जल्द समाप्त होने वाला है। कंचन की यही जीवन—लालसा थी। इन्हीं लालसाओं पर उसने जीवन के सब आनंदोंए सभी पार्थिव सुखों को अर्पण कर दिया था।अपनी लालसाओं को पूरा होते देखकर उसकी आत्मा प्रसन्न होगी और इस कुटील निर्दय आघात को क्षमा कर देगी।

अचलसिंह का प्रवेश।

ज्ञानी रू (आंखें पोंछकर) बेटाए क्या अभी तुमने भी भोजन नहीं कियाघ्

अचल रू अभी चाचाजी तो आए ही नहीं आज उनके कमरे में जाते हुए न जाने क्यों भय लगता है। ऐसा मालूम होता है कि वह कहीं छिपे बैठे हैं और दिखाई नहीं देते। उनकी छाया कमरे में छिपी हुई जान पड़ती है।

सबल रू (मन में) इसे देखकर चित्त कातर हो रहा है। इसे फलते—फूलते देखना मेरे जीवन की सबसे बड़ी लालसा थी। कैसा चतुरए सुशीलए हंसमुख लड़का है। चेहरे से प्रतिभा टपक पड़ती है। मन में क्या—क्या इरादे थे। इसे जर्मनी भेजना चाहता था।संसार—यात्रा कराके इसकी शिक्षा को समाप्त करना चाहता था।इसकी शक्तियों का पूरा विकास करना चाहता था।ए पर सारी आशाएं धूल में मिल गई।(अचल को गोद में लेकर) बेटाए तुम जाकर भोजन कर लोए मैं तुम्हारे चाचाजी को देखने जाता हूँ।

अचल रू आप लोग आ जाएंगे तो साथ ही मैं भी खाऊँगी। अभी भूख नहीं है।

सबल रू और जो मैं शाम तक न आऊँ घ्

अचल रू आधी रात तक आपकी राह देखकर तब खा लूंगाए मगर आप ऐसा प्रश्न क्यों करते हैं घ्

सबल रू कुछ नहींए यों ही। अच्छा बताओए मैं आज मर जाऊँ तो तुम क्या करोगे घ्

ज्ञानी रू कैसे असगुन मुंह से निकालते हो!

अचल रू (सबलसिंह की गर्दन में हाथ डालकर) आप तो अभी जवान हैंए स्वस्थ हैंए ऐसी बातें क्यों सोचते हैं घ्

सबल रू कुछ नहींए तुम्हारी परीक्षा करना चाहता हूँ।

अचल रू (सबल की गोद में सिर रखकर) नहींए कोई और ही कारण है। (रोकर) बाबूजीए मुझसे छिपाइए नए बताइए। आप क्यों इतने उदास हैंए अम्मां क्यों रो रही हैं घ् मुझे भय लग रहा है। जिधर देखता हूँ उधर ही बेरौनकी—सी मालूम होती हैए जैसे पिंजरे में से चिड़िया उड़ गई होए

कई सिपाही और चौकीदार बंदूकें और लाठियां लिए हाते में घुस आते हैंए और थानेदार तथा। इंस्पेक्टर और सुपरिंटेंडेंट घोड़ों से उतरकर बरामदे में खड़े हो जाते हैं। ज्ञानी भीतर चली जाती है। और सबल बाहर निकल आते हैं।

इंस्पेक्टर रू ठाकुर साहबए आपकी खानातलाशी होगी। यह वारंट है।

सबल रू शौक से लीजिए।

सुपरिंटेंडेंट रू हम तुम्हारा रियासत छीन लेगी। हम तुमको रियासत दिया हैए तब तुम इतना बड़ा आदमी बना है और मोटर में बैठा घूमता है। तुम हमारा बनाया हुआ है। हम तुमको अपने काम के लिए रियासत दिया है और तुम सरकार से दुश्मनी करता है। तुम दोस्त बनकर तलवार मारना चाहता है। दगाबाज है। हमारे साथ पोलो खेलता हैए क्लब में बैठता हैए दावत खाता है और हमीं से दुश्मनी रखता है। यह रियासत तुमको किसने दिया घ्

सबल रू (सरोष होकर) मुगल बादशाहों ने। हमारे खानदान में पच्चीस पुश्तों से यह रियासत चली आती है।

सुपरिंटेंडेंट रू झूठ बोलता है। मुगल लोग जिसको चाहता था। जागीर देता था।ए जिससे नाराज हो जाता था। उससे जागीर छीन लेता था।जागीरदार मौरूसी नहीं होता था।तुम्हारा बुजुर्ग लोग मुगल बादशाहों से ऐसा बदखाही करता जैसा तुम हमारे साथ कर रहा हैए तो जागीर छिन गया होता। हम तुमको असामियों से लगान वसूल करने के लिए कमीसन देता है और तुम हमारा जड़ खोदना चाहता है। गांव में पंचायत बनाता हैए लोगों को ताड़ी—शराब पीने से रोकता हैए हमारा रसद—बेगार बंद करता है। हमारा गुलाम होकर हमको आंखें दिखाता है। जिस बर्तन में पानी पीता है उसी में छेद करता है। सरकार चाहे तो एक घड़ी में तुमको मिट्टी में मिला दे सकता है। (दोनों हाथ से चुटकी बजाता है।)

सबल रू आप जो काम करने आए हैं वह काम कीजिए और अपनी राह लीजिए। मैं आपसे सिविक्स और पालिटीक्स के लेक्चर नहीं सुनना चाहता।

सुपरिंटेंडेंट रू हम न रहें तो तुम एक दिन भी अपनी रियासत पर काबू नहीं पा सकता।

सबल रू मैं आपसे डिसकशन (बहस) नहीं करना चाहता। पर यह समझ रखिए कि अगर मान लिया जायए सरकार ने ही हमको बनाया तो उसने अपनी रक्षा और स्वार्थ—सिद्वि के ही लिए यह पालिसी कायम की। जमींदारों की बदौलत सरकार का राज कायम है। जब—जब सरकार पर कोई संकट पड़ा हैए जमींदारों ने ही उसकी मदद की है। अगर आपका खयाल है कि जमींदारों को मिटाकर आप राज्य कर सकते हैं तो भूल है। आपकी हस्ती जमींदारों पर निर्भर है।

सुपरिंटेंडेंट रू हमने अभी किसानों के हमले से तुमको बचायाए नहीं तो तुम्हारा निशान भी न रहता।

सबल रू मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता।

सुपरिंटेंडेंट रू हम तुमसे चाहता है कि जब रैयत के दिल में बदखाही पैदा हो तो तुम हमारा मदद करे। सरकार से पहले वही लोग बदखाही करेगा जिसके पास जायदाद नहीं हैए जिसका सरकार से कोई कनेक्शन (संबंध) नहीं है। हम ऐसे आदमियों का तोड़ करने के लिए ऐसे लोगों को मजबूत करना चाहता है जो जायदाद वाला है और जिसका हस्ती सरकार पर है। हम तुमसे रैयत को दबाने का काम लेना चाहता है।

सबल रू और लोग आपको इस काम में मदद दे सकते हैंए मैं नहीं दे सकता। मैं रैयत का मित्र बनकर रहना चाहता हूँए शत्रु बनकर नहीं अगर रैयत को गुलामी में जकड़े और अंधकार में डाले रखने के लिए जमींदारों की सृष्टि की गई है तो मैं इस अत्याचार का पुरस्कार न लूंगा चाहे वह रियासत ही क्यों न होए मैं अपने देश—बंधुओं के मानसिक और आत्मिक विकास का इच्छुक हूँ। दूसरों को मूर्ख और अशक्त रखकर अपना ऐश्वर्य नहीं चाहता।

सुपरिंटेंडेंट रू तुम सरकार से बगावत करता है।

सबल रू अगर इसे बगावत कहा जाता है तो मैं बागी ही हूँ।

सुपरिंटेंडेंट रू हांए यही बगावत है। देहातों में पंचायत खोलना बगावत हैए लोगों को शराब पीने से रोकना बगावत हैए लोगों को अदालतों में जाने से रोकना बगावत है। सरकारी आदमियों का रसद बेगार बंद करना बगावत है।

सबल रू तो फिर मैं बागी हूँ।

अचल रू मैं भी बागी हूँ ।

सुपरिंटेंडेंट रू गुस्ताख लड़का।

इंस्पेक्टर रू हुजूरए कमरे में चलेंए वहां मैंने बहुत—से कागजात जमा कर रखे हैं।

सुपरिंटेंडेंट रू चलो।

इंस्पेक्टर रू देखिएए यह पंचायतों की फेहरिस्त है और पंचों के नाम हैं।

सुपरिंटेंडेंट रू बहुत काम का चीज है।

इंस्पेक्टर रू यह पंचायतों पर एक मजमून है।

सुपरिंटेंडेंट रू बहुत काम का चीज है।

इंस्पेक्टर रू यह कौम के लीडरों की तस्वीरों का अल्बम है।

सुपरिंटेंडेंट रू बहुत काम का चीज है।

इंस्पेक्टर रू यह चंद किताबें हैंए मैजिनी के मजामीनए वीर हारडी का हिन्दुस्तान का सफरनामाए भक्त प्रफ्लाद का वृतान्तए टारुल्स्टाय की कहा — श्नियांब

सुपरिंटेंडेंट रू सब बड़े काम का चीज है।

इंस्पेक्टर रू यह मिसमेरिजिम की किता। है।

सुपरिंटेंडेंट रू ओहए यह बड़े काम का चीज है।

इंस्पेक्टर रू यह दवाइयों का बक्स है।

सुपरिंटेंडेंट रू देहातियों को बस में करने के लिए ! यह भी बहुत काम का चीज है।

इंस्पेक्टर रू यह मैजिक लालटेन है।

सुपरिंटेंडेंट रू बहुत ही काम का चीज है।

इंस्पेक्टर रू यह लेन—देन का बही है।

सुपरिंटेंडेंट रू मोस्ट इम्पाटेर्ंट ! बड़े काम का चीज। इतना सबूत काफी है। अब चलना चाहिए ।

एक कानिस्टिबल रू हुजूरए बगीचे में एक अखाड़ा भी है।

सुपरिंटेंडेंट रू बहुत बड़ा सबूत है।

दूसरा कानिस्टिबल रू हुजूरए अखाड़े के आगे एक गऊशाला भी है। कई गायें—भैंसें बंधी हुई हैं।

सुपरिंटेंडेंट रू दूध पीता है जिसमें बगावत करने के लिए ताकत हो जाए। बहुत बड़ा सबूत है। वेल सबलसिंहए हम तुमको गिरफ्तारी करता है।

सबल रू आपको अधिकार है।

चेतनदास का प्रवेश।

इंस्पेक्टर रू आइए स्वामीजीए तशरीफ लाइए।

चेतनदास रू मैं जमानत देता हूँ।

इंस्पेक्टर रू आप ! यह क्योंकर!

सबल रू मैं जमानत नहीं देना चाहता। मुझे गिरफ्तारी कीजिए।

चेतनदास रू नहींए मैं जमानत दे रहा हूँ।

सबल रू स्वामीजीए आप दया के स्वरूप हैंए पर मुझे क्षमा कीजिएगाए मैं जमानत नहीं देना चाहता।

चेतनदास रू ईश्वर की इच्छा है कि मैं तुम्हारी जमानत करूं।

सुपरिंटेंडेंट रू वेल इंस्पेक्टरए आपकी क्या राय है घ् जमानत लेनी चाहिए या नहीं घ्

इंस्पेक्टर रू हुजूरए स्वामीजी बड़े मोतबरए सरकार के बड़े खैरख्वाह हैं। इनकी जमानत मंजूर कर लेने में कोई हर्ज नहीं है।

सुपरिंटेंडेंट रू हम पांच हजार से कम न लेगी।

चेतनदास रू मैं स्वीकार करता हूँ।

सबल रू स्वामीजीए मेरे सिद्वांत भंग हो रहे हैं।

चेतनदास रू ईश्वर की यही इच्छा है।

पुलिस के कर्मचारियों का प्रस्थान। ज्ञानी अंदर से निकलकर चेतनदास के पैरों पर फिर पड़ती है।

चेतनदास रू माईए तेरा कल्याण होए

ज्ञानी रू आपने आज मेरा उद्वार कर दिया ।

चेतनदास रू सब कुछ ईश्वर करता है।

प्रस्थान।

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तीसरा द्रश्य

स्थानरू स्वामी चेतनदास की कुटी।

समयरू संध्या।

चेतनदास रू (मन में) यह चाल मुझे खूब सूझी। पुलिस वाले अधिक—से—अधिक कोई अभियोग चलाते। सबलसिंह ऐसे कांटों से डरने वाला मनुष्य नहीं है। पहले मैंने समझा था। उस चाल से यहां उसका खूब अपमान होगी। पर वह अनुमान ठीक न निकला। दो घंटे पहले शहर में सबल की जितनी प्रतिष्ठा थीए अब उससे सतगुनी है। अधिकारियों की द्रष्टि में चाहे वह फिर गया होए पर नगरवासियों की द्रष्टि में अब वह देव—तुल्य है। यह काम हलधर ही पूरा करेगी। मुझे उसके पीछे का रास्ता साफ करना चाहिए ।

ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी रू महाराजए आप उस समय इतनी जल्दी चले आए कि मुझे आपसे कुछ कहने का अवसर ही न मिला। आप यदि सहाय न होते तो आज मैं कहीं की न रहती। पुलिस वाले किसी दूसरे व्यक्ति की जमानत न लेते। आपके योगबल ने उन्हें परास्त कर दिया ।

चेतनदास रू माईए सब ईश्वर की महिमा है। मैं तो केवल उसका तुच्छ सेवक हूँ।

ज्ञानी रू आपके सम्मुख इस समय मैं बहुत निर्लज्ज बनकर आई हूँ।

मैं अपराधिनी हूँए मेरा अपराध क्षमा कीजिए। आपने मेरे

पतिदेव के विषय में जो बातें कहीं थीं वह एक—एक अक्षर सच निकलीं। मैंने आप पर अविश्वास किया। मुझसे यह घोर अपराध हुआ। मैं अपने पति को देव—तुल्य समझती थी।

मुझे अनुमान हुआ कि आपको किसी ने भ्रम में डाल दिया है। मैं नहीं जानती थी कि आप अंतर्यामी हैं। मेरा अपराध क्षमा कीजिए।

चेतनदास रू तुझे मालूम नहीं हैए आज तेरे पति ने कैसा पैशाचिक काम कर डाला है। मुझे इसके पहले कहने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ।

ज्ञानी रू नहीं महाराजए मुझे मालूम है। उन्होंने स्वयं मुझसे सारा वृत्तांत कह सुनाया। भगवान्‌ यदि मैंने पहले ही आपकी चेतावनी पर ध्यान दिया होता तो आज इस हत्याकांड की नौबत न आती। यह सब मेरी अश्रद्वा का दुष्परिणाम है। मैंने आप जैसे महात्मा पुरूष का अविश्वास कियाए उसी का यह दंड है। अब मेरा उद्वार आपके सिवा और कौन कर सकता है। आपकी दासी हूँए आपकी चेरी हूँ। मेरे अवगुणों को न देखिए। अपनी विशाल दया से मेरा बेड़ा पार लगाइए।

चेतनदास रू अब मेरे वश की बात नहीं मैंने तेरे कल्याण के लिएए तेरी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए बड़े—बड़े अनुष्ठान किए थे।मुझे निश्चय था। कि तेरा मनोरथ सिद्व होगी। पर इस पापाभिनय ने मेरे समस्त अनुष्ठानों को विफल कर दिया । मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह कुकर्म तेरे कुल का सर्वनाश कर देगी।

ज्ञानी रू भगवान्ए मुझे भी यही शंका हो रही है। मुझे भय है कि मेरे पतिदेव स्वयं पश्चात्ताप के आवेग में अपना प्राणांत न कर देंब उन्हें इस समय अपनी दुष्कृति पर अत्यंत ग्लानि हो रही है। आज वह बैठे—बैठे देर तक रोते रहै। इस दुरूख और निराशा की दशा में उन्होंने प्राणों का अंत कर दिया तो कुल का सर्वनाश हो जाएगी। इस सर्वनाश से मेरी रक्षा आपके सिवा और कौन कर सकता है घ् आप जैसा दयालु स्वामी पाकर अब किसकी शरण जाऊँ घ् ऐसा कोई यत्न कीजिए कि उनका चित्त शांत हो जाए। मैं अपने देवर का जितना आदर और प्रेम करती थी वह मेरा ह्रदय ही जानता है। मेरे पति भी अपने भाई को पुत्र के समान समझते थे।वैमनस्य का लेश भी न था।पर अब तो जो कुछ होना था।ए हो चुका। उसका शोक जीवन—पयर्ंत रहेगी। अब कुल की रक्षा कीजिए। मेरी आपसे यही याचना है।

चेतनदास रू पाप का दण्ड ईश्वरीय नियम है। उसे कौन भंग कर सकता हैघ्

ज्ञानी रू योगीजन चाहें तो ईश्वरीय नियमों को भी झुका सकते हैं।

चेतनदास रू इसका तुझे विश्वास है घ्

ज्ञानी रू हांए महाराज ! मुझे पूरा विश्वास है।

चेतनदास रू श्रद्वा है घ्

ज्ञानी रू हांए महाराजए पूरी श्रद्वा है।

चेतनदास रू भक्त को अपने गुरू के सामने अपना तन—मन—धन सभी समर्पण करना पड़ता है। वही अर्थए धर्मए काम और मोक्ष के प्राप्त करने का एकमात्र साधन है। भक्त गुरू की बातों परए उपदेशों परए व्यवहारों पर कोई शंका नहीं करता। वह अपने गुरू को ईश्वर—तुल्य समझता है। जैसे कोई रोगी अपने को वैद्य के हाथों में छोड़ देता हैए उसी भांति भक्त भी अपने शरीर कोए अपनी बुद्वि को और आत्मा को गुरू के हाथों में छोड़ देता है। तू अपना कल्याण चाहती है तो तुझे भक्तों के धर्म का पालन करना पड़ेगा।

ज्ञानी रू महाराजए मैं अपना तन—मन—धन सब आपके चरणों पर समर्पित करती हूँ।

चेतनदास रू शिष्य का अपने गुरू के साथ आत्मिक संबंध होता है। उसके और सभी संबंध पार्थिव होते हैं। आत्मिक संबंध के सामने पार्थिव संबंधों का कुछ भी मूल्य नहीं होता। मोक्ष के सामने सांसारिक सुखों का कुछ भी मूल्य नहीं है। मोक्षपद—प्राप्ति ही मानव—जीवन का उद्देश्य है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए प्राणी को ममत्व का त्याग करना चाहिए । पिता—माताए पति—पत्नीए पुत्र—पुत्रीए शत्रु—मित्र यह सभी संबंध पार्थिव हैं। यह सब मोक्षमार्ग की बाधाएं हैं। इनसे निवृत्त होकर ही मोक्ष—पद प्राप्त हो सकता है। केवल गुरू की कृपा—द्रष्टि ही उस महान्‌ पद पर पहुंचा सकती है। तू अभी तक भ्रांति में पड़ी हुई है। तू अपने पति और पुत्रए धन और संपत्ति को ही जीवन सर्वस्व समझ रही है। यही भ्रांति तेरे दुरू ख और शोक का मूल कारण है। जिस दिन तुझे इस भ्रांति से निवृत्ति होगी उसी दिन तुझे मोक्ष मार्ग दिखाई देने लगेगी। तब इन सासांरिक सुखों से तेरा मन आप—ही—आप हट जाएगा। तुझे इनकी असारता प्रकट होने लगेगी। मेरा पहला उपदेश यह है कि गुरू ही तेरा सर्वस्व है। मैं ही तेरा सब कुछ हूँ।

ज्ञानी रू महाराजए आपकी अमृतवाणी से मेरे चित्त को बड़ी शांति मिल रही है।

चेतनदास रू मैं तेरा सर्वस्व हूँ। मैं तेरी संपत्ति हूँए तेरी प्रतिष्ठा हूँए तेरा पति हूँए तेरा पुत्र हूँए तेरी माता हूँए तेरा पिता हूँए तेरा स्वामी हूँए तेरा सेवक हूँए तेरा दान हूँए तेरा व्रत हूँ। हांए मैं तेरा स्वामी हूँ और तेरा ईश्वर हूँ। तू राधिका हैए मैं तेरा कन्हैया हूँएतू सती हैए मैं तेरा शिव हूँएतू पत्नी हैए मैं तेरा पति हूँएतू प्रकृति हैए मैं तेरा पुरूष हूँएतू जीव हैए मैं आत्मा हूँए तू स्वर हैए मैं उसका लालित्य हूँए तू पुष्प हैए मैं उसकी सुगंध हूँ।

ज्ञानी रू भगवन्ए मैं आपके चरणों की रज हूँ। आपकी सुधा—वर्षा से मेरी आत्मा तृप्त हो गई।

चेतनदास रू तेरा पति तेरा शत्रु हैए जो तुझे अपने कुकृत्यों का भागी बनाकर तेरी आत्मा का सर्वनाश कर रहा है।

ज्ञानी रू (मन में) वास्तव में उनके पीछे मेरी आत्मा कलुषित हो रही है। उनके लिए मैं अपनी मुक्ति क्यों बिगाडूं। अब उन्होंने अधर्म—पथ पर पग रखा हैए मैं उनकी सहगामिनी क्यों बनूं घ् (प्रकट) स्वामीजीए अब मैं आपकी शरण आई हूँए मुझे उबारिए।

चेतनदास रू प्रियेए हम और तुम एक हैंए कोई चिंता मत करो। ईश्वर ने तुम्हें मंझधार में डूबने से बचा लिया। वह देखो सामने ताक पर बोतल है। उसमें महाप्रसाद रखा हुआ है। उसे उतारकर अपने कोमल हाथों से मुझे पिलाओ और प्रसाद—स्वरूप स्वयं पान करो। तुम्हारा अंतरू करण आलोकमय हो जाएगी। सांसारिकता की कालिमा एक क्षण में कट जाएगी और भक्ति का उज्ज्वल प्रकाश प्रस्फुटीत हो जाएगा। यह वह सोमरस है जोर ऋषिगण पान करके योगबल प्राप्त किया करते थे।

ज्ञानी बोतल उतारकर चेतनदास के कमंडल में उंड़ेलती हैए चेतनदास पी जाते हैं।

चेतनदास रू यह प्रसाद तुम भी पान करो।

ज्ञानी रू भगवन्ए मुझे क्षमा कीजिए।

चेतनदास रू प्रियेए यह तुम्हारी पहली परीक्षा है।

ज्ञानी रू (कमंडल मुंह से लगाकर पीती है। तुरंत उसे अपने शरीर में एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव होता है।) स्वामीए यह तो कोई अलौकिक वस्तु है।

चेतनदास रू प्रियेए यह ऋषियोंका पेय पदार्थ है। इसे पीकर वह चिरकाल तक तरूण बने रहते थे।उनकी शक्तियां कभी क्षीण न होती थीं।थोड़ा—सा और दो। आज बहुत दिनों के बाद यह शुभअवसर प्राप्त हुआ है।

ज्ञानी बोतल उठाकर कमंडल में ड़ड़ेलती है। चेतनदास पी जाते हैं। ज्ञानी स्वयं थोड़ा—सा निकालकर पीती है।

चेतनदास रू (ज्ञानी के हाथों को पकड़कर) प्रियेए तुम्हारे हाथ कितने कोमल हैंए ऐसा जान पड़ता है मानो फूलकी पंखड़ियां हैं। (ज्ञानी झिझककर हाथ खींच लेती है) प्रियेए झिझको नहींए यह वासनाजनित प्रेम नहीं है। यह शुद्वए पवित्र प्रेम है। यह तुम्हारी दूसरी परीक्षा है।

ज्ञानी रू मेरे ह्रदय में बड़े वेग से धड़कन हो रही है।

चेतनदास रू यह धड़कन नहीं हैए विमल प्रेम की तरंगें हैं जो वक्ष के किनारों से टकरा रही हैं। तुम्हारा शरीर फूल की भांति कोमल है। उस वेग को सहन नहीं कर सकता। इन हाथों के स्पर्श से मुझे वह आनंद मिल रहा है जिसमें चंद्र का निर्मल प्रकाशए पुष्पों की मनोहर सुगंधए समीर के शीतल मंद झोंके और जल—प्रवाह का मधुर गान सभी समाविष्ट हो गए हैं।

ज्ञानी रू मुझे चक्कर—सा आ रहा है। जान पड़ता है लहरों में बही जाती हूँ।

चेतनदास रू थोड़ा—सा सोमरस और निकालो।संजीवनी है।

ज्ञानी बोतल से कमंडल में उंड़ेलती हैए चेतनदास पी जाता हैए ज्ञानी भी दो—तीन घूंट पीती है।

चेतनदास रू आज जीवन सफल हो गया। ऐसे सुख के एक क्षण पर समग्र जीवन भेंट कर सकता हूँ (ज्ञानी के गले में बांहें डालकर आलिंगन करना चाहता हैए ज्ञानी झिझककर पीछे हट जाती है।) प्रियेए यह भक्ति मार्ग की तीसरी परीक्षा है !

ज्ञानी अलग खड़ी होकर रोती है।

चेतनदास रू प्रिये!

ज्ञानी रू (उच्च स्वर से) कोचवानए गाड़ी लाओ।

चेतनदास रू इतनी अधीर क्यों हो रही हो घ् क्या मोक्षपद के निकट पहुंचकर फिर उसी मायावी संसार में लिप्त होना चाहती हो घ् यह तुम्हारे लिए कल्याणकारी न होगा।

ज्ञानी रू मुझे मोक्षपद प्राप्त हो या न होए यह ज्ञान अवश्य प्राप्त हो गया कि तुम धूर्तए कुटीलए भ्रष्टए दुष्टए पापी होए तुम्हारे इस भेष का अपमान नहीं करना चाहतीए पर यह समझ रखो कि तुम सरला स्त्रियों को इस भांति दगा देकर अपनी आत्मा को नर्क की ओर ले जा रहे होए तुमने मेरे शरीर को अपने कलुषित हाथों से स्पर्श करके सदा के लिए विकृत कर दिया । तुम्हारे मनोविकारों के संपर्क से मेरी आत्मा सदा के लिए दूषित हो गई। तुमने मेरे व्रत की हत्या कर डाली। अब मैं अपने ही को अपना मुंह नहीं दिखा सकती। सतीत्व जैसी अमूल्य वस्तु खोकर मुझे ज्ञात हुआ कि मानव—चरित्र का कितना पतन हो सकता है। अगर तुम्हारे ह्रदय में मनुष्यत्व का कुछ भी अंश शेष है तो मैं उसी को संबोधित करके विनय करती हूँ कि अपनी आत्मा पर दया करो और इस दुष्टाचरण को त्याग कर सद्वृत्तियों का आवाफ्न करो।

कुटी से बाहर निकलकर गाड़ी में बैठ जाती है।

कोचवान रू किधर से चलूं घ्

ज्ञानी रू सीधे घर चलो।

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चौथा द्रश्य

स्थानरू राजेश्वरी का मकान।

समयरू दस बजे रात।

राजेश्वरी रू (मन में) मेरे ही लिए जीवन का निर्वाह करना क्यों इतना कठिन हो रहा है घ् संसार में इतने आदमी पड़े हुए हैं। सब अपने—अपने धंधों में लगे हुए हैं। मैं ही क्यों इस चक्कर में डाली गई हूँ घ् मेरा क्या दोष है घ् मैंने कभी अच्छा खानेए पहनने या आराम से रहने की इच्छा कीए जिसके बदले में मुझे यह दंड मिला हैघ् जबरदस्ती इस कारागार में बंद की गई हूँ। यह सब विलास की चीजें जबरदस्ती मेरे गले मढ़़ी गई हैं। एक धनी पुरूष मुझे अपने इशारों पर नचा रहा है। मेरा दोष इतना ही है कि मैं रूपवती हूँ और निर्बल हूँ। इसी अपराध की यह सजा मुझे मिल रही है। जिसे ईश्वर धन देए उसे इतना सामर्थ्‌य भी दे कि धन की रक्षा कर सके निर्बल प्राणियों को रत्न देना उन पर अन्याय करना है। हा ! कंचनसिंह पर आज न जाने क्या बीती ! सबलसिंह ने अवश्य ही उनको मार डाला होगी। मैंने उन पर कभी क्रोध चढ़़ते नहीं देखा था।क्रोध में तो मानो उन पर भूत सवार हो जाता है। मदोर्ं को उत्तेजित करना सरल है। उनकी नाड़ियों में रक्त की जगह रोष और ईर्ष्‌या का प्रवाह होता है। ईर्ष्‌या की ही मिट्टी से उनकी सृष्टि हुई है। यह सब विधाता की विषम लीला है। (गाती है।)

दयानिधि तेरी गति लखि न परी।

सबलसिंह का प्रवेश।

राजेश्वरी रू आइएए आपकी ही बाट जोह रही थी। उधर ही मन लगा हुआ था।आपकी बातें याद करके शंका और भय से चित्त बहुत व्याकुल हो रहा था।पूछते डरती हूँ

सबल रू (मलिन स्वर से) जिस बात की तुम्हें शंका थी वह हो गई।

राजेश्वरी रू अपने ही हाथों घ्

सबल रू नहीं मैंने क्रोध के आवेग में चाहे मुंह से जो बक डाला हो पर अपने भाई पर मेरे हाथ नहीं उठ सके पर इससे मैं अपने पाप का समर्थन नहीं करना चाहता। मैंने स्वयं हत्या की और उसका सारा भार मुझ पर है। पुरूष कड़े—से कड़े आघात सह सकता हैए बड़ी—से बड़ी मुसीबतें झेल सकता हैए पर यह चोट नहीं सह सकताए यही उसका मर्मस्थान है। एक ताले में दो कुंजियां साथ—साथ चली जाएंए एक म्यान में दो तलवारें साथ—साथ रहेंए एक कुल्हाड़ी में दो बेंट साथ लगेंए पर एक स्त्री के दो चाहने वाले नहीं रह सकतेए असंभव है।

राजेश्वरी रू एक पुरूष को चाहने वाली तो कई स्त्रियां होती हैं।

सबल रू यह उनके अपंग होने के कारण हैं। एक ही भाव दोनों के मन में उठते हैं। पुरूष शक्तिशाली हैए वह अपने क्रोध को व्यक्त कर सकता हैएस्त्री मन में ऐंठकर रह जाती है।

राजेश्वरी रू क्या आप समझते थे कि मैं कंचनसिंह को मुंह लगा रही हूँ। उन्हें केवल यहां बैठे देखकर आपको इतना उबलना न चाहिए था।

सबल रू तुम्हारे मुंह से यह तिरस्कार कुछ शोभा नहीं देता। तुमने

अगर सिरे से ही उसे यहां न घुसने दिया होता तो आज यह नौबत न आती। तुम अपने को इस इल्जाम से मुक्त नहीं कर सकती।

राजेश्वरी रू एक तो आपने मुझ पर संदेह करके मेरा अपमान कियाए अबआप इस हत्या का भार भी मुझ पर रखना चाहते हैं। मैंने आपके साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया था। कि आप इतना अविश्वास करते।

सबल रू राजेश्वरीए इन बातों से दिल न जलाओ। मैं दुरू खी हूँए मुझे तस्कीन दो( मैं घायल हूँए मेरे घाव पर मरहम रखो। मैंने वह रत्न हाथ से खो दिया जिसका जोड़ अब संसार में मुझे न मिलेगी। कंचन आदर्श भाई था।मेरा इशारा उसके लिए हुक्म था।मैंने जरा—सा इशारा कर दिया होता तो वह भूलकर भी इधर पग न रखता। पर मैं अंधा हो रहा थाए उन्मत्त हो रहा था।मेरे ह्रदय की जो दशा हो रही है वह तुम देख सकतीं तो कदाचित्‌ तुम्हें मुझ पर दया आती। ईश्वर के लिए मेरे घावों पर नमक न छिड़को। अब तुम्हीं मेरे जीवन का आधार होए तुम्हारे लिए मैंने इतना बड़ा बलिदान किया। अब तुम मुझे पहले से कहीं अधिक प्रिय होए मैंने पहले सोचा था।ए केवल तुम्हारे दर्शनों सेए तुम्हारी तिरछी चितवनों से मैं तृप्त हो जाऊँगी। मैं केवल तुम्हारा सहवास चाहता था।पर अब मुझे अनुभव हो रहा है कि मैं गुड़ खाना

और गुलगुलों से परहेज करना चाहता था। मैं भरे प्याले को उछालकर भी चाहता था। कि उसका पानी न छलके नदी में जाकर भी चाहता था। कि दामन न भीगे। पर अब मैं तुमको पूर्णरूप से चाहता हूँ। मैं तुम्हारा सर्वस्व चाहता हूँ। मेरी विकल आत्मा के लिए संतोष का केवल यही एक आधार है। अपने कोमल हाथों को मेरी दहकती हुई छाती पर रखकर शीतल कर दो।

राजेश्वरी रू मुझे अब आपके समीप बैठते हुए भय होता है। आपके मुख पर नम्रता और प्रेम की जगह अब क्रूरता और कपट की झलक है।

सबल रू तुम अपने प्रेम से मेरे ह्रदय को शांत कर दो। इसीलिए इस समय तुम्हारे पास आया हूँ। मुझे शांति दो। मैं निर्जन पार्क और नीरव नदी से निराश लौटा आता हूँ। वहां शांति नहीं मिली। तुम्हें यह मुंह नहीं दिखाना चाहता था।हत्यारा बनकर तुम्हारे सम्मुख आते लज्जा आती थी। किसी को मुंह नहीं दिखाना चाहता। केवल तुम्हारे प्रेम की आशा मुझे तुम्हारी शरण लाई। मुझे आशा थीए तुम्हें मुझ पर दया आएगीए पर देखता हूँ तो मेरा दुर्भाग्य वहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता। राजेश्वरीए प्रियेए एक बार मेरी तरफ प्रेम की चितवनों से देखो। मैं दुरू खी हूँ। मुझसे ज्यादा दुरू खी कोई प्राणी संसार में न होगी। एक बार मुझे प्रेम से गले लगा लोए एक बार अपनी कोमल बाहें मेरी गर्दन में डाल दोए एक बार मेरे सिर को अपनी जांघों पर रख लो।प्रियेए मेरी यह अंतिम लालसा है। मुझे दुनिया से नामुराद मत जाने दो। मुझे चंद घंटों का मेहमान समझो।

राजेश्वरी रू (सजल नयन होकर) ऐसी बातें करके दिल न दुखाइए।

सबल रू अगर इन बातों से तुम्हारा दिल दुखता है तो न करूंगा। पर राजेश्वरीए मुझे तुमसे इस निर्दयता की आशा न थी। सौंदर्य और दया में विरोध है( इसका मुझे अनुमान न था।मगर इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। यह अवस्था ही ऐसी है। हत्यारे पर कौन दया करेगा घ् जिस प्राणी ने सगे भाई को ईर्ष्‌या और दंभ के वश होकर वध करा दियाए वह इसी योग्य है कि चारों ओर उसे धिक्कार मिले। उसे कहीं मुंह दिखाने का ठिकाना न रहै। उसके पुत्र और स्त्री भी उसकी ओर से आंखें फेर लेंए उसके मुंह में कालिमा पोत दी जाए और उसे हाथी के पैरों सेकुचलवा दिया जाए। उसके पाप का यही दंड है। राजेश्वरीए मनुष्य कितना दीनए कितना परवश प्राणी है। अभी एक सप्ताह पहले मेरा जीवन कितना सुखमय था।अपनी नौका में बैठा हुआ धीमी—धीमी लहरों पर बहताए समीर की शीतलए मंद तरंगों का आनंद उठाता चला जाता था।क्या जानता था कि एक ही क्षण में वे मंद तरंगें इतनी भयंकर हो जाएंगीए शीतल झोंके इतने प्रबल हो जाएंगे कि नाव को उलट देंगे। सुख और दुरू खए हर्ष और शोक में उससे कहीं कम अंतर है जितना हम समझते हैं। आंखों को एक जरा—सा इशाराए मुंह का एक जरा—सा शब्द हर्ष का शोक और सुख को दुरू ख बना सकता है। लेकिन हम यह सब जानते हुए भी सुख पर लौ लगाए रहते हैं। यहां तक कि गांसी पर चढ़़ने से एक क्षण पहले तक हमें सुख की लालसा घेरे रहती है। ठीक वही दशा मेरी है। जानता हूँ कि चंद घंटों

का और मेहमान हूँए निश्चय है कि फिर ये आंखें सूर्य और आकाश को न देखेंगी( पर तुम्हारे प्रेम की लालसा ह्रदय से नहीं निकलती।

राजेश्वरी रू (मन में) इस समय यह वास्तव में बहुत दुरू खी हैं। इन्हें जितना दंड मिलना चाहिए था। उससे ज्यादा मिल गया। भाई के शोक में इन्होंने आत्मघात करने की ठानी है। मेरा जीवन तो नष्ट हो ही गयाए अब इन्हें मौत के मुंह में झोंकने की चेष्टा क्यों करूं घ् इनकी दशा देखकर दया आती है। मेरे मन के घातक भाव लुप्त हो रहे हैं। (प्रकट) आप इतने निराश क्यों हो रहे हैं घ् संसार में ऐसी बातें आए दिन होती रहती हैं। अब दिल को संभालिए। ईश्वर ने आपको पुत्र दिया हैए सती स्त्री दी है। क्या आप उन्हें मंझधार में छोड़ देंगे घ् मेरे अवलंब भी आप ही हैं। मुझे द्वार—द्वार की ठोकर खाने के लिए छोड़ दीजिएगा घ् इस शोक को दिल से निकाल डालिए।

सबल रू (खुश होकर) तुम भूल जाओगी कि मैं पापी—हत्यारा हूँ घ्

राजेश्वरी रू आप बार—बार इसकी चर्चा क्यों करते हैं!

सबल रू तुम भूल जाओगी कि इसने अपने भाई को मरवाया है घ्

राजेश्वरी रू (भयभीत होकर) प्रेम दोषों पर ध्यान नहीं देता। वह गुणों ही पर

मुग्ध होता है। आज मैं अंधी हो जाऊँ तो क्या आप मुझे त्याग

देंगे घ्

सबल रू प्रियेए ईश्वर न करेए पर मैं तुमसे सच्चे दिल से कहता हूँ कि काल की कोई गतिए विधाता की कोई पिशाच लीलाए तापों का कोई प्रकोप मेरे ह्रदय से तुम्हारे प्रेम को नहीं निकाल सकताए हांए नहीं निकाल सकता।

गाता है।

दूर करने ले चले थे जब मेरे घर से मुझे

काशए तुम भी झांक लेते रौ —ए दर से मुझे।

सांस पूरी हो चुकीए दुनिया से रूखसत हो चुका

तुम अब आए हो उठाने मेरे बिस्तर से मुझे।

क्यों उठाता है मुझे मेरी तमंना को निकाल

तेरे दर तक खींच लाई थी वही घर से मुझे।

हिज्र की शब कुछ यही मूनिस था। मेराए ऐ कजा

रूक जरा रो लेने दे मिल—मिलके बिस्तर से मुझे।

राजेश्वरी रू मेरे दिल में आपका वही प्रेम है।

सबल रू तुम मेरी हो जाओगी घ्

राजेश्वरी रू और अब किसकी हूँ घ्

सबल रू तुम पूर्ण रूप से मेरी हो जाओगी घ्

राजेश्वरी रू आपके सिवा अब मेरा कौन है घ्

सबल रू तो प्रियेए मैं अभी मौत को कुछ दिनों के लिए द्वार से टाल दूंगा। अभी न मरूंगा। पर हम सब यहां नहीं रह सकते। हमें कहीं बाहर चलना पड़ेगाए जहां अपना परिचित प्राणी न होए चलोए आबू चलेंए जी चाहे कश्मीर चलोए दो—चार महीने रहेंगेए फिर जैसी अवस्था होगी वैसा करेंगी। पर इस नगर में मैं नहीं रह सकता। यहां की एक—एक पत्ती मेरी दुश्मन है।

राजेश्वरी रू घर के लोगों को किस पर छोड़िएगा घ्

सबल रू ईश्वर पर ! अब मालूम हो गया कि जो कुछ करता हैए ईश्वर करता है। मनुष्य के किए कुछ नहीं हो सकता।

राजेश्वरी रू यह समस्या कठिन है। मैं आपके साथ बाहर नहीं जा सकती।

सबल रू प्रेम तो स्थान के बंधनों में नहीं रहता।

राजेश्वरी रू इसका यह कारण नहीं है। अभी आपका चित्त अस्थिर हैए न जाने क्या रंग पकड़े। वहां परदेश में कौन अपना हितैषी होगाए

कौन विपत्ति में अपना सहायक होगाघ् मैं गंवारिनए परदेश करना क्या जानूं घ् ऐसा ही है तो आप कुछ दिनों के लिए बाहर चले जाएं।

सबल रू प्रियेए यहां से जाकर फिर आना नहीं चाहताए किसी से बताना भी नहीं चाहता कि मैं कहां जा रहा हूँ। मैं तुम्हारे सिवा और सारे संसार के लिए मर जाना चाहता हूँ।

गाता है।

किसी को देके दिल कोई नवा संजे फुगां क्यों होए

न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुंह में जबां क्यों होए

वफा कैसीए कहां का इश्कए जब सिर फोड़ना ठहराए

तो फिर ऐ संग दिल तेरा ही संगे आस्तां क्यों होए

कफस में मुझसे रूदादे चमन कहते न डर हमदमए

गिरी है जिस पै कल बिजली वह मेरा आशियां क्यों होए

यह फितना आदमी की खानावीरानी को क्या कम हैए

हुए तुम दोस्त जिसके उसका दुश्मन आसमां क्यों होए

कहा तुमने कि क्यों हो गैर के मिलने में रूसवाईए

बजा कहते होए सच कहते होए फिर कहियो कि हां क्यों होए

राजेश्वरी रू (मन में) यहां हूँ तो कभी—न—कभी नसीब जागेंगे ही। मालूम नहीं वह (हलधर) आजकल कहां हैंए कैसे हैंए क्या करते हैंए मुझे अपने मन में क्या समझ रहे हैं। कुछ भी होए जब मैं जाकर सारी रामकहानी सुनाऊँगी तो उन्हें मेरे निरपराध होने का विश्वास हो जाएगी। इनके साथ जाना अपना सर्वनाश कर लेना है। मैं इनकी रक्षा करना चाहती हूँए पर अपना सत खोकर नहींएइनको बचाना चाहती हूँए पर अपने को डुबाकर नहीं अगर मैं इस काम में सफल न हो सकूं तो मेरा दोष नहीं है। (प्रकट) मैं आपके घर को उजाड़ने का अपराध अपने सिर नहीं लेना चाहती।

सबल रू प्रियेए मेरा घर मेरे रहने से ही उजड़ेगाए मेरे अंतर्धान होने से वह बच जाएगी। इसमें मुझे जरा भी संदेह नहीं है।

राजेश्वरी रू फिर अब मैं आपसे डरती हूँए आप शक्की आदमी हैं। न जाने किस वक्त आपको मुझ पर शक हो जाए। जब आपने जरा—से शक पर

सबल रू (शोकातुर होकर) राजेश्वरीए उसकी चर्चा न करो। उसका प्रायश्चित कुछ हो सकता है तो वह यही है कि अब शक और भ्रम को अपने पास फटकने भी न दूं। इस बलिदान से मैंने समस्त शंकाओं को जीत लिया है। अब फिर भ्रम में पडूंए तो मैं मनुष्य नहीं पशु हूँगी।

राजेश्वरी रू आप मेरे सतीत्व की रक्षा करेंगे घ् आपने मुझे वचन दिया था। कि मैं केवल तुम्हारा सहवास चाहता हूँ।

सबल रू प्रियेए प्रेम को बिना पाए संतोष नहीं होता। जब तक मैं गृहस्थी के बंधनों में जकड़ा था।ए जब तक भाईए पुत्रए बहिन का मेरे प्रेम के एक अंश पर अधिकार था। तब मैं तुम्हें न पूरा प्रेम दे सकता था। और न तुमसे सर्वस्व मांगने का साहस कर सकता था। पर अब मैं संसार में अकेला हूँए मेरा सर्वस्व तुम्हारे अर्पण है। प्रेम अपना पूरा मूल्य चाहता हैए आधे पर संतुष्ट नहीं हो सकता।

राजेश्वरी रू मैं अपने सत को नहीं खो सकती।

सबल रू प्रियेए प्रेम के आगे सतए व्रतए नियमए धर्म सब उन तिनकों के समान हैं जो हवा से उड़ जाते हैं। प्रेम पवन नहींए आंधी है। उसके सामने मान—मर्यादाए शर्म—हया की कोई हस्ती नहीं

राजेश्वरी रू यह प्रेम परमात्मा की देन है। उसे आप धन और रोब से नहीं पा सकते।

सबल रू राजेश्वरीए इन बातों से मेरा ह्रदय चूर—चूर हुआ जाता है। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहता हूँ कि मुझे तुमसे जितना अटल प्रेम है उसे मैं शब्दों में प्रकट नहीं कर सकता। मेरा सत्यानाश हो जाए अगर धन और संपत्ति का ध्यान भी मुझे आया होए मैं यह मानता हूँ कि मैंने तुम्हें पाने के लिए बेजा दबाव से काम लियाए पर इसका कारण यही था। कि मेरे पास और कोई साधन न था।मैं विरह की आग में जल रहा था।ए मेरा ह्रदय ङ्‌ढ़ंका जाता था।ए ऐसी अवस्था में यदि मैं धर्म—अधर्म का विचार न करके किसी व्यक्ति के भरे हुए पानी के डोल की ओर लपका तो तुम्हें उसको क्षम्य समझना चाहिए ।

राजेश्वरी रू वह डोल किसी भक्त ने अपने इष्टदेव को चढ़़ाने के लिए एक हाथ से भरा था।जिसे आप प्रेम कहते हैं वह काम—लिप्सा थी। आपने अपनी लालसा को शांत करने के लिए एक बसे—बसाये घर को उजाड़ दियाए उसको तितर—बितर कर दिया । यह सब अनर्थ आपने अधिकार के बल पर किया। पर याद रखिएए ईश्वर भी आपको इस पाप का दंड भोगने से नहीं बचा सकता। आपने मुझसे उस बात की आशा रखी जो कुलटाएं ही कर सकती हैं। मेरी यह इज्जत आपने की। आंख की पुतली निकल जाए तो उसमें सुरमा क्या शोभा देगा घ् पौधे की जड़ काटकर फिर आप दूध और शहद से सींचें तो क्या फायदा घ् स्त्री का सत हर कर आप उसे विलास और भोग में डुबा ही दें तो क्या होता है ! मैं अगर यह घोर अपमान चुपचाप सह लेती तो मेरी आत्मा का पतन हो जाता। मैं यहां उस अपमान का बदला लेने आई हूँ। आप चौंकें नहींए मैं मन में यही संकल्प करके आई थी।

ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी रू देवीए तुझे धन्य है। तेरे पैरों पर शीश नवाती हूँ।

सबल रू ज्ञानी ! तुम यहां घ्

ज्ञानी रू क्षमा कीजिए। मैं किसी और विचार से नहीं आई। आपको घर पर न देखकर मेरा चित्त व्याकुल हो गया।

सबल रू यहां का पता कैसे मालूम हुआ घ्

ज्ञानी रू कोचवान की खुशामद करने से।

सबल रू राजेश्वरीए तुमने मेरी आंखें खोल दीं ! मैं भ्रम में पड़ा हुआ था।तुम्हारा संकल्प पूरा होगी। तुम सती होए तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी। मैं पापी हूँए मुझे क्षमा करना

नीचे की ओर जाता है।

ज्ञानी रू मैं भी चलती हूँ। राजेश्वरीए तुम्हारे दर्शन पाकर कृतार्थ हो गई। (धीरे से) बहिनए किसी तरह इनकी जान बचाओ। तुम्हीं इनकी रक्षा कर सकती होए

राजेश्वरी के पैरों पर फिर पड़ती है।

राजेश्वरी रू रानी जीए ईश्वर ने चाहा तो सब कुशल होगी।

ज्ञानी रू तुम्हारे आशीर्वाद का भरोसा है।

प्रस्थान।

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पांचवां द्रश्य

स्थानरू गंगा के करार पर एक बड़ा पुराना मकान।

समयरू बारह बजे रातए हलधर और उसके साथी डाकू बैठे हुए हैं।

हलधर रू अब समय आ गयाए मुझे चलना चाहिए ।

एक डाकू रंगी रू हम लोग भी तैयार हो जाएं न घ् शिकारी आदमी हैए कहीं पिस्तौल चला बैठे तो घ्

हलधर रू देखी जाएगी। मैं जाऊँगा अकेले।

कंचन का प्रवेश।

हलधर रू अरेए आप अभी तक सोए नहीं घ्

कंचन रू तुम लोग भैया को मारने पर तैयार होए मुझे नींद कैसे आए घ्

हलधर रू मुझे आपकी बातें सुनकर अचरज होता है। आप ऐसे पापी आदमी की रक्षा करना चाहते हैं जो अपने भाई की जान लेने पर तुल जाए।

कंचन रू तुम नहीं जानतेए वह मेरे भाई नहींए मेरे पिता के तुल्य हैं। उन्होंने भी सदैव मुझे अपना पुत्र समझा है। उन्होंने मेरे प्रति जो कुछ कियाए उचित किया। उसके सिवा मेरे विश्वासघात का और कोई दंड न था। उन्होंने वही किया जो मैं आप करने जाता था।अपराध सब मेरा है। तुमने मुझ पर दया की है। इतनी दया और करो। इसके बदले में तुम जो कुछ कहो करने को तैयार हूँ। मैं अपनी सारी कमाई जो बीस हजार से कम नहीं हैए तुम्हें भेंट कर दूंगा। मैंने यह रूपये एक धर्मशाला और देवालय बनवाने के लिए संचित कर रखे थे।पर भैया के प्राणों का मूल्य धर्मशाला और देवालय से कहीं अधिक है।

हलधर रू ठाकुर साहबएऐसा कभी न होगी। मैंने धन के लोभ से यह भेष नहीं लिया है। मैं अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूँ। मेरा मर्याद इतना सस्ता नहीं है।

कंचन रू मेरे यहां जितनी दस्तावेजें हैं वह सब तुम्हें दे दूंगा।

हलधर रू आप व्यर्थ ही मुझे लोभ दिखा रहे हैं। मेरी इज्जत बिगड़ गई। मेरे कुल में दाग लग गया। बाप—दादों के मुंह में कालिख पुत गई। इज्जत का बदला जान हैए धन नहीं जब तक सबलसिंह की लाश को अपनी आंखों से तड़पते न देखूंगाए मेरे ह्रदय की ज्वाला शांत न होगी।

कंचन रू तो फिर सबेरे तक मुझे भी जीता न पाओगी।

प्रस्थान।

हलधर रू भाई पर जान देते हैं।

रंगी रू तुम भी तो हक—नाहक की जिद कर रहे होए बीस हजार नकद मिल रहा है। दस्तावेज भी इतने की ही होगी। इतना धन तो ऐसा ही भाग जागे तो हाथ लग सकता है। आधा तुम ले लो। आधा हम लोगों को दे दो। बीस हजार में तो ऐसी—ऐसी बीस औरतें मिल जाएंगी।

हलधर रू कैसी बेगैरतों की—सी बात करते हो ! स्त्री चाहे सुंदर होए चाहे कुरूपए कुल—मरजाद की देवी है। मरजाद रूपयों पर नहीं बिकती।

रंगी रू ऐसा ही है तो उसी को क्यों नहीं मार डालते। न रहे बांस न बजे बंसुरी।

हलधर रू उसे क्यों मारूं घ् स्त्री पर हाथ उठाने में क्या जवांमरदी है घ्

रंगी रू तो क्या उसे फिर रखोगे घ्

हलधर रू मुझे क्या तुमने ऐसा बेगैरत समझ लिया है। घर में रखने की बात ही क्याए अब उसका मुंह भी नहीं देख सकता। वह कुलटा हैए हरजाई है। मैंने पता लगा लिया है। वह अपने—आप घर से निकल खड़ी हुई है। मैंने कब का उसे दिल से निकाल दिया । अब उसकी याद भी नहीं करता। उसकी याद आते ही शरीर में ज्वाला उठने लगती है। अगर उसे मारकर कलेजा ठंडा हो सकता तो इतने दिनों चिंता और क्रोध की आग में जलता ही क्यों घ्

रंगी रू मैं तो रूपयों का इतना बड़ा ढ़ेर कभी हाथ से न जाने देता। मान—मर्यादा सब ढ़कोसला है। दुनिया में ऐसी बातें आए दिन होती रहती हैं। लोग औरत को घर से निकाल देते हैं। बस।

हलधर रू क्या कायरों की—सी बातें करते होए रामचन्द्र ने सीताजी के लिए लंका का राज विध्वंस कर दिया । द्रोपदी की मानहानि करने के लिए पांडवों ने कौरवों को निरबंस कर दिया । जिस आदमी के दिल में इतना अपमान होने पर भी क्रोध न आएए मरने—मारने पर तैयार न हो जाएए उसका खून न खौलने लगेए वह मर्द नहीं हिजड़ा है। हमारी इतनी दुर्गत क्यों हो रही है घ् जिसे देखो वही हमें चार गालियां सुनाता हैए ठोकर मारता है। क्या अहलकारए क्या जमींदार सभी कुत्तों से नीच समझते हैं। इसका कारण यही है कि हम बेहया हो गए हैं। अपनी चमड़ी को प्यार करने लगे हैं। हममें भी गैरत होतीए अपने मानघ् अपमान का विचार होता तो मजाल थी कि कोई हमें तिरछी आंखों से देख सकता। दूसरे देशों में सुनते हैं गालियों पर लोग मरने—मारने को तैयार हो जाते हैं। वहां कोई किसी को गाली नहीं दे सकता। किसी देवता का अपमान कर दो तो जान न बचेब यहां तक कि कोई किसी को ला—सखुन नहीं कह सकताए नहीं तोए खून की नदी बहने लगे। यहां क्या हैए लात खाते हैंए जूते खाते हैंए घिनौनी गालियां सुनते हैंए धर्म का नाश अपनी आंखों से देखते हैंए पर कानों पर जूं नहीं रेंगतीए खून जरा भी गर्म नहीं होता। चमड़ी के पीछे सब तरह की दुर्गत सहते

हैं। जान इतनी प्यारी हो गई है। मैं ऐसे जीने से मौत को हजार दर्जे अच्छा समझता हूँ। बस यही समझ लो कि जो आदमी प्रान को जितना ही प्यारा समझता है वह उतना ही नीच है। जो औरत हमारे घर में रहती थीए हमसे हंसती थीए हमसे बोलती थीए हमारे खाट पर सोती थी वह अब भी(क्रोध से उन्मत्त होकर) तुम लोग मेरे लौटने तक यहीं रहोए कंचनसिंह को देखते रहना।

चला जाता है।

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छठा द्रश्य

स्थानरू सबलसिंह का कमरा।

समयरू एक बजे रात।

सबल रू (ज्ञानी से) अब जाकर सो रहोए रात कम है।

ज्ञानी रू आप लेटेंए मैं चली जाऊँगी। अभी नींद नहीं आती।

सबल रू तुम अपने दिल में मुझे बहुत नीच समझ रही होगी घ्

ज्ञानी रू मैं आपको अपना इष्टदेव समझती हूँ।

सबल रू क्या इतना पतित हो जाने पर भी घ्

ज्ञानी रू मैली वस्तुओं के मिलने से गंगा का माहात्म्य कम नहीं

होता।

सबल रू मैं इस योग्य भी नहीं हूँ कि तुम्हें स्पर्श कर सकूं। पर मेरे ह्रदय में इस समय तुमसे गले मिलने की प्रबल उत्कंठा है। याद ही नहीं आता कि कभी मेरा मन इतना अधीर हुआ होए जी चाहता है तुम्हें प्रिये कहूँए आलिंगन करूं पर हिम्मत नहीं पड़ती। अपनी ही आंखों में इतना गिर गया हूँ। (ज्ञानी रोती हुई जाने लगती हैए सबल रास्ते में खड़ा हो जाता है।) प्रियेए इतनी निर्दयता न करो। मेरा ह्रदय टुकड़े—टुकड़े हुआ जाता है। (रास्ते से हटकर) जाओ ! मुझे तुम्हें रोकने का कोई अधिकार नहीं है। मैं पतित हूँए पापी हूँए दुष्टाचारी हूँ। न जाने क्यों पिछले दिनों की याद आ गईए जब मेरे और तुम्हारे बीच में यह विच्छेद न था।ए जब हम—तुम प्रेम—सरोवर के तट पर विहार करते थेए उसकी तरंगों के साथ झूमते थे।वह कैसे आनंद के दिन थे घ् अब वह दिन फिर न आएंगी। जाओए न रोयंगाए पर मुझे बिल्कुल नजरों से न गिरा दिया हो तो प्रेम की चितवन से मेरी तरफ देख लो।मेरा संतप्त ह्रदय उस प्रेम की फुहार से तृप्त हो जाएगी। इतना भी नहीं कर सकतीं घ् न सही। मैं तो तुमसे कुछ कहने के योग्य ही नहीं हूँ। तुम्हारे सम्मुख खड़े होतेए तुम्हें यह काला मुंह दिखातेए मुझे लज्जा आनी चाहिए थी। पर मेरी आत्मा का पतन हो गया है। हांए तुम्हें मेरी एक बात अवश्य माननी पड़ेगीए उसे मैं जबरदस्ती मनवाऊँगाए जब तक न मानोगी जाने न दूंगा। मुझे एक बार अपने चरणों पर सिर झुकाने दो।

ज्ञानी रोती हुई अंदर के द्वार की तरफ बढ़़ती है।

सबल रू क्या मैं अब इस योग्य भी नहीं रहा घ् हांए मैं अब घृणित प्राणी हूँए जिसकी आत्मा का अपहरण हो चुका है। पूजी जाने वाली प्रतिमा टूटकर पत्थर का टुकड़ा हो जाती हैए उसे किसी खंडहर में फेंक दिया जाता है। मैं वही टूटी हुई प्रतिमा हूँ और इसी योग्य हूँ कि ठुकरा दिया जाऊँ। तुमसे कुछ कहने काए तुम्हारी दया—याचना करने के योग्य मेरा मुंह ही नहीं रहा। जाओ। हम तुम बहुत दिनों तक साथ रहे। अगर मेरे किसी व्यवहार सेए किसी शब्द सेए किसी आक्षेप से तुम्हें दुरू ख हुआ हो तो क्षमा करना। मुझ—सा अभागा संसार में न होगा जो तुम जैसी देवी पाकर उसकी कद्र न कर सका।

ज्ञानी हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से ताकती हैए कंठ से शब्द नहीं निकलता। सबल तुरंत मेज पर से पिस्तौल उठाकर बाहर निकल जाता है।

ज्ञानी रू (मन में) हताश होकर चले गए। मैं तस्कीन दे सकतीए उन्हें प्रेम के बंधन से रोक सकती तो शायद न जाते। मैं किस मुंह से कहूँ कि यह अभागिनी पतिता तुम्हारे चरणों का स्पर्श करने योग्य नहीं है। वह समझते हैंए मैं उनका तिरस्कार कर रही हूँए उनसे घृणा कर रही हूँ। उनके इरादे में अगर कुछ कमजोरी थी तो वह मैंने पूरी कर दी। इस यज्ञ की पूर्णाहुति मुझे करनी पड़ी। हा विधाताए तेरी लीला अपरम्पार है। जिस पुरूष पर इस समय मुझे अपना प्राण अर्पण करना चाहिए था। आज मैं उसकी घातिका हो रही हूँ। हा अर्थलोलुपता ! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया । मैंने संतान—लालसा के पीछे कुल को कलंक लगा दियाए कुल को धूल में मिला दिया । पूर्वजन्म में न जाने मैंने कौन—सा पाप किया था। चेतनदासए तुमने मेरी सोने की लंका दहन कर दी। मैंने तुम्हें देवता समझकर तुम्हारी आराधना की थी। तुम राक्षस निकले। जिस रूखार को मैंने बाग समझा था। वह बीहड़ निकला। मैंने कमल का फूलतोड़ने के लिए पैर बढ़़ाए थेए दलदल में फंस गईए जहां से अब निकलना दुस्तर है। पतिदेव ने चलते समय मेज पर से कुछ उठाया था।न जाने कौन—सी चीज थी। काली घटा छाई हुई है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। वहां कहां गए घ् भगवन्ए कहां जाऊँ घ् किससे पूछूंए क्या करूं घ् कैसे उनकी प्राण—रक्षा करूं घ् हो न हो राजेश्वरी के पास गए हों ! वहीं इस लीला का अंत होगी। उसके प्रेम में विह्वल हो रहे हैं। अभी उनकी आशा वह लगी हुई है। मृग—तृष्णा है। वह नीच जाति की स्त्री हैए पर सती है। अकेली इस अंधेरी रात में वहां कैसे पहुंचूंगी। कुछ भी होए यहां नहीं रहा जाता। बग्घी पर गई थी। रास्ता कुछ—कुछ याद है। ईश्वर के भरोसे पर चलती हूँ। या तो वहां पहुंच ही जाऊँगी या इसी टोह में प्राण दे दूंगी। एक बार मुझे उनके दर्शन हो जाते तो जीवन सफल हो जाता। मैं उनके चरणों पर प्राण त्याग देती। यही अंतिम लालसा है। दयानिधिए मेरी अभिलाषा पूरी करो। हाए जननी धरतीए तुम क्यों मुझे अपनी गोद में नहीं ले लेतीं ! दीपक का ज्वाला—शिखर क्यों मेरे शरीर को भस्म नहीं कर डालता ! यह भयंकर अंधकार क्यों किसी जल—जंतु की भांति मुझे अपने उदर में शरण नहीं देता!

प्रस्थान।

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सातवां द्रश्य

स्थानरू सबलसिंह का मकान।

समयरू ढ़ाई बजे रात। सबलसिंह अपने बाग में हौज के किनारे बैठे हुए हैं।

सबल रू (मन में) इस जिंदगी पर धिक्कार है। चारों तरफ अंधेरा हैए कहीं प्रकाश की झलक तक नहीं सारे मनसूबेए सारे इरादे खाक में मिल गए। अपने जीवन को आदर्श बनाना चाहता था।ए अपने कुल को मर्यादा के शिखर पर पहुंचाना चाहता था।ए देश और राष्टश् की सेवा करना चाहता था।ए समग्र देश में अपनी कीर्ति फैलाना चाहता था।देश को उन्नति के परम स्थान पर देखना चाहता था।उन बड़े—बड़े इरादों का कैसा करूणाजनक अंत हो रहा है। फले—फूले वृक्ष की जड़ में कितनी बेदर्दी से आरा चलाया जा रहा है। कामलोलुप होकर मैंने अपनी जिदंगी तबाह कर दीब मेरी दशा उस मांझी की—सी है जो नाव को बोझने के बाद शराब पी ले और नशे में नाव को भंवर में डाल दे। भाई की हत्या करके भी अभीष्ट न पूरा हुआ। जिसके लिए इस पापकुंड में कूदाए वह भी अब मुझसे घृणा करती है। कितनी घोर निर्दयता है। हाय ! मैं क्या जानता था। कि राजेश्वरी मन में मेरे अनिष्ट का —ढ़़ संकल्प करके यहां आई है। मैं क्या जानता था। कि वह मेरे साथ त्रियाचरित्र खेल रही है। एक अमूल्य अनुभव प्राप्त हुआ। स्त्री अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिएए अपने अपमान का बदला लेने के लिएए कितना भयंकर रूप धारण कर सकती है। गऊ कितनी सीधी होती हैए पर किसी को अपने बछड़े के पास आते देखकर कितनी सतर्क हो जाती है। सती स्त्रियां भी अपने व्रत पर आघात होते देखकर जान पर खेल जाती हैं। कैसी प्रेम में सनी हुई बातें करती थी। जान पड़ता था।ए प्रेम के हाथों बिक गई होए ऐसी सुंदरीए ऐसी सरलाए मृदुप्रकृतिए ऐसी विनयशीलाए ऐसी कोमलह्रदया रमणियां भी छलकौशल में इतनी निपुण हो सकती हैं ! उसकी निठुरता मैं सह सकता था।किंतु ज्ञानी की घृणा नहीं सही जातीए उसकी उपेक्षासूचक द्रष्टि के सम्मुख खड़ा नहीं हो सकता। जिस स्त्री का अब तक आराध्य देव था।ए जिसकी मुझ पर अखंड भक्ति थीए जिसका सर्वस्व मुझ पर अर्पण था।ए वही स्त्री अब मुझे इतना नीच और पतित समझ रही है। ऐसे जीने पर धिक्कार है ! एक बार प्यारे अचल को भी देख लूं। बेटाए तुम्हारे प्रति मेरे दिल में बड़े—बड़े अरमान थे।मैं तुम्हारा चरित्र आर्दश बनाना चाहता था।ए पर कोई अरमान न निकला। अब न जाने तुम्हारे उसपर क्या पड़ेगी। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें ! लोग कहते हैं प्राण बड़ी प्रिय वस्तु है। उसे देते

हुए बड़ा कष्ट होता है। मुझे तो जरा भी शंकाए जरा भी भय नहीं है। मुझे तो प्राण देना खेल—सा मालूम हो रहा है। वास्तव में जीवन ही खेल हैए विधाता का क्रीड़ा—क्षेत्र ! (पिस्तौल निकालकर) हांए दोनों गोलियां हैंए काम हो जाएगी। मेरे मरने की सूचना जब राजेश्वरी को मिलेगी तो एक क्षण के लिए उसे शोक तो होगा हीए चाहे फिर हर्ष होए आंखों में आंसू भर आएंगी। अभी मुझे पापीए अत्याचारीए विषयी समझ रही हैए सब ऐब—ही—ऐब दिखाई दे रहे हैं। मरने पर कुछ तो गुणों की याद आएगी। मेरी कोई बात तो उसके कलेजे में चुटकियां लेगी। इतना तो जरूर ही कहेगी कि उसे मुझसे सच्चा प्रेम था।शहर में मेरी सार्वजनिक सेवाओं की प्रशंसा होगी। लेकिन कहीं यह रहस्य खुल गया तो मेरी सारी कीर्ति पर पानी फिर जाएगी। यह ऐब सारे गुणों को छिपा लेगाए जैसे सफेद चादर पर काला धब्बाए या स्वर्ग सुंदर चित्र पर एक छींटा। बेचारी ज्ञानी तो यह समाचार पाते ही मूर्च्छित होकर फिर पड़ेगीए फिर शायद कभी न सचेत होए यह उसके लिए वज्राघात होगी। चाहे वह मुझसे कितनी ही घृणा करेए मुझे कितना ही दुरात्मा समझेए पर उसे मुझसे प्रेम हैए अटल प्रेम हैए वह मेरा अकल्याण नहीं देख सकती। जब से मैंने उसे अपना वृत्तांत सुनाया हैए वह कितनी चिंतितए कितनी सशंक हो गई है। प्रेम के सिवा और कोई शक्ति न थी जो उसे राजेश्वरी के घर खींच ले जाती।

हलधर चारदीवारी कूदकर बाग में आता है और धीरे—धीरे इधर—उधर ताकता हुआ सबल के कमरे की तरफ जाता है।

हलधर रू (मन में) यहां किसी की आवाज आ रही है। (भाला संभालकर) यहां कौन बैठा हुआ है। अरे ! यह तो सबलसिंह ही है। साफ उसी की आवाज है। इस वक्त यहां बैठा क्या कर रहा है घ् अच्छा है यहीं काम तमाम कर दूंगा। कमरे में न जाना पड़ेगा। इसी हौज में फेंक दूंगा। सुनूं क्या कह रहा है।

सबल रू बस अब बहुत सोच चुका। मन इस तरह बहाना ढ़ूंढ़ रहा है। ईश्वरए तुम दया के साफर होए क्षमा की मूर्ति होए मुझे क्षमा करना। अपनी दीनवत्सलता से मुझे वंचित न करना। कहां निशाना लगाऊँ घ् सिर में लगाने से तुरत अचेत हो जाऊँगी। कुछ न मालूम होगाए प्राण कैसे निकलते हैं। सुनता हूँ प्राण निकलने में कष्ट नहीं होता। बस छाती पर निशाना मारूं।

पिस्तौल का मुंह छाती की तरफ फेरता है। सहसा हलधर भाला फेंककर झपटता है और सबलसिंह के हाथ से पिस्तौल छीन लेता है।

सबल रू (अचंभे में) कौन घ्

हलधर रू मैं हूं हलधर।

सबल रू तुम्हारा काम तो मैं ही किए देता था।तुम हत्या से बच जाते। उठा लो पिस्तौल।

हलधर रू आपके उसपर मुझे दया आती है।

सबल रू मैं पापी हूँए कपटी हूँ। मेरे ही हाथों तुम्हारा घर सत्यानाश हुआ। मैंने तुम्हारा अपमान कियाए तुम्हारी इज्जत लूटीए अपने सगे भाई का वध कराया। मैं दया के योग्य नहीं हूँ।

हलधर रू कंचनसिंह को मैंने नहीं मारा।

सबल रू (उछलकर) सच कहते हो घ्

हलधर रू वह आप ही गंगा में कूदने जा रहे थे।मुझे उन पर भी दया आ गई। मैंने समझा था।ए आप मेरा सर्वनाश करके भोग—विलास में मस्त हैं। तब मैं आपके खून का प्यासा हो गया था।पर अब देखता हूँ तो आप अपने किए पर लज्जित हैंए पछता रहे हैंए इतने दुरू खी हैं कि प्राण तक देने को तैयार हैं। ऐसा आदमी दया के योग्य है। उस पर क्या हाथ उठाऊँ !

सबल रू (हलधर के पैरों पर गिरकर) तुमने कंचन की जान बचा लीए इसके लिए मैं मरते दम तक तुम्हारा यश मानूंगा। मैं न जानता था। कि तुम्हारा ह्रदय इतना कोमल और उदार है। तुम पुण्यात्मा होए देवता होए मुझे ले चलो।कंचन को देख लूं। हलधरए मेरे पास अगर कुबेर का धन होता तो तुम्हारी भेंट कर देता। तुमने मेरे कुल को सर्वनाश से बचा लिया।

हलधर रू मैं सबेरे उन्हें साथ लाऊँगा।

सबल रू नहींए मैं इसी वक्त तुम्हारे साथ चलूंगा। अब सब्र नहीं है।

हलधर रू चलिए।

दोनों फाटक खोलकर चले जाते हैं।

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अंक 5

पहला द्रश्य

स्थान रू डाकुओं का मकान।

समय रू ढ़ाई बजे रात। हलधर डाकुओं के मकान के सामने बैठा हुआ है।

हलधर रू (मन में) दोनों भाई कैसे टूटकर गले मिले हैं। मैं न जानता था। कि बड़े आदमियों में भाई—भाई में भी इतना प्रेम होता है। दोनों के आंसू ही न थमते थे।बड़ी कुशल हुई कि मैं मौके से पहुंच गयाए नहीं तो वंश का अंत हो जाता। मुझे तो दोनों भाइयों से ऐसा प्रेम हो गया है मानो मेरे अपने भाई हैं। मगर आज तो मैंने उन्हें बचा लिया। कौन कह सकता है वह फिर एक—दूसरे के दुश्मन न हो जायेंगी। रोग की जड़ तो मन में जमी हुई है। उसको काटे बिना रोगी की जान कैसे बचेगी। राजेश्वरी के रहते हुए इनके मन की मैल न मिटेगी। दो—चार दिन में इनमें फिर अनबन हो जाएगी। इस अभागिनी ने मेरे कुल में आग लगायीए अब इस कुल का सत्यानाश कर रही है। उसे मौत भी नहीं आ जाती। जब तक जियेगी मुझे कलंकित करती रहेगी।

बिरादरी में कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। सब लोग मुझे बिरादरी से निकाल देंगे। हुक्का—पानी बंद कर देंगे।हेठी और बदनामी होगी वह घाते में । यह तो यहां महल में रानी बनी बैठी अपने कुकर्म का आनंद उठाया करे और मैं इसके कारण बदनामी उठाऊँ। अब तक उसको मारने का जी न चाहता था।औरतों पर हाथ उठाना नीचता का काम समझता था।पर अब वह नीचता करनी पड़ेगी। उसके किए बिना सब खेल बिगड़ जाएगी।

चेतनदास का प्रवेश।

चेतनदास रू यहां कौन बैठा है घ्

हलधर रू मैं हूँ हलधर।

चेतनदास रू खूब मिले। बताओ सबलसिंह का क्या हाल हुआ घ् वध कर डाला घ्

हलधर रू नहींए उन्हें मरने से बचा लिया

चेतनदास रू (खुश होकर) बहुत अच्छा किया। मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई सबलसिंह कहां हैं घ्

हलधर रू मेरे घर

चेतनदास रू ज्ञानी जानती है कि वह जिंदा है घ्

हलधर रू नहींए उसे अब तक इसकी खबर नहीं मिली।

चेतनदास रू तो उसे जल्द खबर दो नहीं तो उससे भेंट न होगी। वह घर में नहीं है। न जाने कहां गयी घ् उसे यह खबर मिल जाएगी तो कदाचित्‌ उसकी जान बच जाए। मैं उसकी टोह में जा रहा हूँ। इस अंधेरी रात में कहां खोजूं घ् (प्रस्थान)

हलधर रू (मन में) यह डाकन न जाने कितनी जानें लेकर संतुष्ट होगी। ज्ञानीदेवी है। उसने सबलसिंह को कमरे में न देखा होगी। समझी होगी वह गंगा में डूब मरे। कौन जाने इसी इरादे से वह भी घर से निकल खड़ी हुई होए चलकर अपने आदमियों को उसका पता लगाने के लिए दौड़ा दूं। उसकी जान मुर्ति में चली जाएगी। क्या दिल्लगी है कि रानी तो मारी—मारी फिरे और कुलटा महल में सुख की नींद सोये।

अचल दूसरी ओर से हवाई बंदूक लिये आता है।

हलधर रू कौन घ्

अचल रू अचलसिंहए कुंअर सबलसिंह का पुत्र।

हलधर रू अच्छाए तुम खूब आ गये पर अंधेरी रात में तुम्हें डर नहीं

लगाघ्

अचल रू डर किस बात का घ् मुझे डर नहीं लगता। बाबूजी ने मुझे बताया है कि डरना पाप हैृ

हलधर रू जाते कहां हो घ्

अचल रू कहीं नहीं।

हलधर रू तो इतनी रात गए घर से क्यों निकले घ्

अचल रू तुम कौन हो घ्

हलधर रू मेरा नाम हलधर है।

अचल रू अच्छाए तुम्हीं ने माताजी की जान बचायी थी घ्

हलधर रू जान तो भगवान्‌ ने बचायीए मैंने तो केवल डाकुओं को भगा दिया था। तुम इतनी रात गए अकेले कहां जा रहे हो घ्

अचल रू किसी से कहोगे तो नहीं घ्

हलधर रू नहींए किसी से न कहूँगा

अचल रू तुम बहादुर आदमी होए मुझे तुम्हारे उसपर विश्वास है। तुमसे कहने में शर्म नहीं है। यहां कोई वेश्या है। उसने चाचा जी को और बाबूजी को विष देकर मार डाला है। अम्मांजी ने शोक से प्राण त्याग दिए । वह स्त्री थींए क्या कर सकती थीं । अब मैं उसी वेश्या के घर जा रहा हूँ। इसी वक्त बंदूक से उसका सिर उड़ा दूंगा। (बंदूक तानकर दिखाता है।)

हलधर रू तुमसे किसने कहाघ्

अचल रू मिसराइन नेए चाचाजी कल से घर पर नहीं हैं। बाबूजी भी दस बजे रात से नहीं हैं। न घर में अम्मां का पता है। मिसराइन सब हाल जानती हैं।

हलधर रू तुमने वेश्या का घर देखा है घ्

अचल रू नहींए घर तो नहीं देखा है।

हलधर रू तो उसे मारोगे उसे घ्

अचल रू किसी से पूछ लूंगा ।

हलधर रू तुम्हारे चाचाजी और बाबूजी तो मेरे घर में हैं।

अचल रू झूठ कहते होए दिखा दोगे घ्

हलधर रू कुछ इनाम दो तो दिखा दूं।

अचल रू चलोए क्या दिखाओगे ! वह लोग अब स्वर्ग में होंगे।हांए राजेश्वरी का घर दिखा दो तो जो कहो वह दूं।

हलधर रू अच्छा मेरे साथ आओए मगर बंदूक ले लूंगा।

दोनों घर में जाते हैंए सबल और कंचन चकित होकर अचल को देखते हैंए अचल दौड़कर बाप की गरदन से चिमट जाता है।

हलधर रू (मन में) अब यहां नहीं रह सकता। फिर तीनों रोने लगे घ् बाहर चलूं। कैसा होनहार बालक है। (बाहर आकर मन में) यह बच्चा तक उसे वेश्या कहता है। वेश्या है ही। सारी दुनिया यही कहती होगी। अब तो और भी गुल खिलेगी। अगर दोनों भाइयों ने उसे त्याग दिया तो पेट के लिए उसे अपनी लाज बेचनी पड़ेगी। ऐसी हयादार नहीं है कि जहर खाकर मर जाए। जिसे मैं देवी समझता था। वह ऐसी कुल—कलंकिनी निकली ! तूने मेरे साथ ऐसा छल किया ! अब दुनिया को कौन मुंह दिखाऊँ। सब की एक ही दवा है । न बांस रहे न बांसुरी बजेब तेरे जीने से सबकी हानि है। किसी का लाभ नहीं तेरे मरने से सबका लाभ हैए किसी की हानि नहीं उससे कुछ पूछना व्यर्थ है । रोएगीए गिड़गिड़ाएगीए पैरों पड़ेगी। जिसने लाज बेच दी

वह अपनी जान बचाने के लिए सभी तरह की चालें चल सकती है। कहेगीए मुझे सबलसिंह जबरदस्ती निकाल लाएए मैं तो आती न थी। न जाने क्या—क्या बहाने करेगी ! उससे सवाल—जवाब करने की जरूरत नहीं चलते ही काम तमाम कर दूंगा

हथियार संभालकर चल खड़ा होता है।

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दूसरा द्रश्य

स्थान रू शहर की एक गली।

समय रू तीन बजे रातए इंस्पेक्टर और थानेदार की चेतनदास से

मुठभेड़।

इंस्पेक्टर रू महाराजए खूब मिले। मैं तो आपके ही दौलतखाने की तरफ जा रहा था।लाइए दूध के धुले हुए पूरे एक हजारए कमी की गुंजाइश नहींए बेशी की हद नहीं।

थानेदार रू आपने जमानत न कर ली होती तो उधर भी हजार—पांच सौ पर हाथ साफ करता।

चेतनदास रू इस वक्त मैं दूसरी फिक्र में हूँ। फिर कभी आना।

इंस्पेक्टर रू जनाबए हम आपके गुलाम नहीं हैं जो बार—बार सलाम करने को हाजिर हों। आपने आज का वादा किया था। वादा पूरा कीजिए। कील व काल की जरूरत नहीं ।

चेतनदास रू कह दियाए मैं इस समय दूसरी चिंता में हूँ। फिर इस संबंध में बातें होंगी।

इंस्पेक्टर रू आपका क्या एतबारए इसी वक्त की गाड़ी से हरिद्वार की राह लें। पुलिस के मुआमले नकद होते हैं।

एक सिपाही रू लाओ नगद—नारायन निकालो। पुलिस से ऊ फेरफार न चल पइहैं। तुमरे ऐसे साधुन का इहां रोज चराइत हैं।

इंस्पेक्टर रू आप हैं किस गुमान में ! यह चालें अपने भोले—भाले चेले—चापड़ों के लिए रहने दीजिएए जिन्हें आप नजात देते हैं। हमारी नजात के लिए आपके रूपये काफी हैं। उससे हम फरिश्तों को भी राह पर लगा हुई। दारोगाजीए वह शेर आपको याद है घ्

दारोगा रू जी हांए ऐ तू खुदा नईए बलेकिन बखुदा हाशा रब्बी व गाफिल हो जाती।

इंस्पेक्टर रू मतलब यह है कि रूपया खुदा नहीं है लेकिन खुदा के दो सबसे बड़े औसाफ उसमें मौजूद हैं। परवरिश करना और इंसान की जरूरतों को रफा करना।

चेतनदास रू कल किसी वक्त आइए।

इंस्पेक्टर रू (रास्ते में खड़े होकर) कल आने वाले पर लानत है। एक भले आदमी की इज्जत खाक में मिलवाकर अब आप यों झांसा देना चाहते हैं। कहीं साहब बहादुर ताड़ जाते तो नौकरी के लाले पड़ जाते।

चेतनदास रू रास्ते से हटोब (आगे बढ़़ना चाहता है।)

इंस्पेक्टर रू (हाथ पकड़कर) इधर आइएए इस सीनाजोरी से काम न चलेगा!

चेतनदास हाथ झटककर छुड़ा लेता है और इंस्पेक्टर को जोर से धक्का मार कर गिरा देता है।

दारोगा रू गिरफ्तारी कर लो।रहजन है।

चेतनदास रू अगर कोई मेरे निकट आया तो गर्दन उड़ा दूंगा। दारोगा पिस्तौल उठाता हैए लेकिन पिस्तौल नहीं चलतीए चेतनदास उसके हाथ से पिस्तौल छीनकर उसकी छाती पर निशाना लगाता है।

दारोगा रू स्वामीजीए खुदा के वास्ते रहम कीजिए। ताजीस्त आपका गुलाम रहूँगा।

चेतनदास रू मुझे तुझ—जैसे दुष्टों की गुलामी की जरूरत नहीं (दोनों सिपाही भाग जाते हैं। थानेदार चेतनदास के पैरों पर फिर पड़ता है।) बोलए कितने रूपये लेगा घ्

थानेदार रू महाराजए मेरी जां बख्श दीजिए। जिंदा रहूँगा तो आपके एकबाल से बहुत रूपये मिलेंगे !

चेतनदास रू अभी गरीबों को सताने की इच्छा बनी हुई है। तुझे मार क्यों न डालूं। कम—से—कम एक अत्याचारी का भार तो पृथ्वी पर कम हो जाये।

थानेदार रू नहीं महाराजए खुदा के लिए रहम कीजिए। बाल—बच्चे दाने बगैर मर जाएंगी। अब कभी किसी को न सताऊँगा। अगर एक कौड़ी भी रिश्वत लूं तो मेरे अस्ल में गर्क समझिए। कभी हराम के माल के करी। न जाऊँगी।

चेतनदास रू अच्छाए तुम इस इंस्पेक्टर के सिर पर पचास जूते गिनकर लगाओ तो छोड़ दूं।

थानेदार रू महाराजए वह मेरे अफसर हैं। मैं उनकी शान में ऐसी बे—अदबी क्यों कर सकता हूँ। रिपोर्ट कर दें तो बर्खास्त हो जाऊँ।

चेतनदास रू तो फिर आंखें बंद कर लो और खुदा को याद करोए घोड़ा गिरता है।

थानेदार रू हुजूर जरा ठहर जायेंए हुक्म की तामील करता हूँ। कितने जूते लगाऊँ घ्

चेतनदास रू पचास से कम न ज्यादाब

थानेदार रू इतने जूते पड़ेंगे तो चांद खुल जाएगी। नाल लगी हुई है।

चेतनदास रू कोई परवाह नहीं उतार लो जूते।

थानेदार जूते पैर से निकालकर इंस्पेक्टर के सिर पर लगाता हैए इंस्पेक्टर चौंककर उठ बैठता हैए दूसरा जूता फिर पड़ता है।

इंस्पेक्टर रू शैतान कहीं का।

थानेदार रू मैं क्या करूं घ् बैठ जाइएए पचास लगा लूं। इतनी इनायत कीजिए ! जान तो बचे।

इंस्पेक्टर उठकर थानेदार से हाथा।पाई करने लगता हैए दोनों एक दूसरे को गालियां देते हैंए दांत काटते हैं।

चेतनदास रू जो जीतेगा उसे इनाम दूंगा। मेरी कुटी पर आना । खूब लड़ोए देखें कौन बाजी ले जाता है। (प्रस्थान।)

इंस्पेक्टर रू तुम्हारी इतनी मजाल ! बर्खास्त न करा दिया तो कहना।

थानेदार रू क्या करताए सीने पर पिस्तौल का निशाना लगाए तो खड़ा था।

इंस्पेक्टर रू यहां कोई सिपाही तो नहीं है घ्

थानेदार रू वह दोनों तो पहले ही भाग गए।

इंस्पेक्टर रू अच्छाए खैरियत चाहो तो चुपके से बैठ जाओ और मुझे गिन कर सौ जूते लगाने दोए वरना कहे देता हूँ कि सुबह को तुम थाने में न रहोगी। पगड़ी उतार लो।

थानेदार रू मैंने तो आपकी पगड़ी नहीं उतारी थी।

इंस्पेक्टर रू उस बदमाश साधु को यह सूझी ही नहीं।

थानेदार रू आप तो दूसरे ही हाथ पर उठ खड़े हुए थे !

इंस्पेक्टर रू खबरदारए जो यह कलमा फिर मुंह से निकला। दो के दस तो तुम्हें जरूर लगाऊँगा। बाकी फी पापोश एक रूपये के हिसाब से माफकर सकता हूँ।

दोनों सिपाही आ जाते हैंए दारोगा सिर पर साफा रख लेता हैए इंस्पेक्टर क्रोधपूर्ण नेत्रों से उसे देखता है और सब गश्त पर निकल जाते हैं।

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तीसरा द्रश्य

स्थान रू राजेश्वरी का कमरा।

समय रू तीन बजे रात। फानूस जल रही हैए राजेश्वरी पानदान खोले फर्श पर बैठी है।

राजेश्वरी रू (मन में) मेरे मन की सारी अभिलाषाएं पूरी हो गयीं। जो प्रण करके घर से निकली थी वह पूरा हो गया। जीवन सफल हो गया। अब जीवन में कौन—सा सुख रखा है। विधाता की लीला विचित्र है। संसार के और प्राणियों का जीवन धर्म से सफल होता है। अहिंसा ही सबकी मोक्षदाता है। मेरा जीवन अधर्म से सफल हुआए हिंसा से ही मेरा मोक्ष हो रहा है। अब कौन मुंह लेकर मधुबन जाऊँए मैं कितनी ही पतिव्रता बनूंए किसे विश्वास आएगा घ् मैंने यहां कैसे अपना धर्म निबाहाए इसे कौन मानेगा घ् हाय ! किसकी होकर रहूँगी घ् हलधर का क्या ठिकाना घ् न जाने कितनी जानें ली होंगीए कितनों का घर लूटा होगाए कितनों के खून से हाथ रंगे होंगेए क्याघ् क्या कुकर्म किये होंगे।वह अगर मुझे पतिता और कुलटा समझते हैं तो मैं भी उन्हें नीच और अधम समझती हूँ। वह मेरी सूरत न देखना चाहते हों तो मैं उनकी परछाई भी अपने उसपर नहीं पड़ने देना चाहती। अब उनसे मेरा कोई संबंध नहीं मैं अनाथा हूँए अभागिनी हूँए संसार में कोई मेरा नहीं है।

कोई किवाड़ खटखटाता हैए लालटेन लेकर नीचे जाती हैए और किवाड़ खोलती हैए ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी रू बहिनए क्षमा करनाए तुम्हें असमय कष्ट दिया । मेरे स्वामीजी यहां हैं या नहीं घ् मुझे एक बार उनके दर्शन कर लेने दो।

राजेश्वरी रू रानीजीए सत्य कहती हूँ वह यहां नहीं आये।

ज्ञानी रू यहां नहीं आये !

राजेश्वरी रू न ! जब से गए हैं फिर नहीं आयेब

ज्ञानी रू घर पर भी नहीं हैं। अब किधर जाऊँ घ् भगवन्ए उनकी रक्षा करना। बहिनए अब मुझे उनके दर्शन न होंगे।उन्होंने कोईभयंकर काम कर डाला। शंका से मेरा ह्रदय कांप रहा है। तुमसे उन्हें प्रेम था।शायद वह एक बार फिर आएं। उनसे कह देनाए ज्ञानी तुम्हारे पदरज को शीश पर चढ़़ाने के लिए आयी थी। निराश होकर चली गयी। उनसे कह देना वह अभागिनीए भ्रष्टाए तुम्हारे प्रेम के योग्य नहीं रही।

हीरे की कनी खा लेती है।

राजेश्वरी रू रानीजीए आप देवी हैं( वह पतित हो गए होंए पर आपका चरित्र उज्ज्वल रत्न है। आप क्यों क्षोभ करती हैं !

ज्ञानी रू बहिनए कभी यह घमंड था।ए पर अब नहीं है।

उसका मुख पीला होने लगता है और पैर लड़खड़ाते

हैं।

राजेश्वरी रू रानीजीए कैसा जी है घ्

ज्ञानी रू कलेजे में आग—सी लगी हुई है। थोड़ा—सा ठंडा पानी दो। मगर नहींए रहने दो। जबान सूखी जाती है। कंठ में कांटे पड़ गए हैं। आत्मगौरव से बढ़़कर कोई चीज नहीं उसे खोकर जिये तो क्या जिये !

राजेश्वरी रू आपने कुछ खा तो नहीं लियाघ्

ज्ञानी रू तुम आज ही यहां से चली जाओ। अपने पति के चरणों पर गिरकर अपना अपराध क्षमा करा लो।वह वीरात्मा हैं। एक बार मुझे डाकुओं से बचाया था।तुम्हारे उसपर दया करेंगी। ईश्वर इस समय उनसे मेरी भेंट करवा देते तो मैं उनसे शपथ खाकर कहतीए इस देवी के साथ तुमने बड़ा अन्याय किया है। वह ऐसी पवित्र है जैसे फूल की पंखड़ियों पर पड़ी हुई ओस की बूंदें या प्रभात काल की निर्मल किरणें। मैं सिद्व करती कि इसकी आत्मा पवित्र है।

पीड़ा से विकल होकर बैठ जाती है।

राजेश्वरी रू (मन में) इन्होंने अवश्य कुछ खा लिया । आंखें पथरायी जाती हैंए पसीना निकल रहा है। निराशा और लज्जा ने अंत में इनकी जान ही लेकर छोड़ीए मैं इनकी प्राणघातिका हूँ। मेरे ही कारण इस देवी की जान जा रही है। इसे मर्यादाघ् पालन कहते हैं। एक मैं हूँ कि कष्ट और अपमान भोगने के लिए बैठी हूँ। नहीं देवीए मुझे भी साथ लेती चलो।तुम्हारे साथ मेरी भी लाज रह जाएगी। तुम्हें ईश्वर ने क्या नहीं दिया । दूध—पूतए मान—महातम सभी कुछ तो है। पर केवल पति के पतित हो जाने के कारण तुम अपने प्राण त्याग रही होए तो मैंए जिसका आंसू पोंछने वाला भी कोई नहींए कौन—सा सुख भोगने के लिए बैठी रहूँ।

ज्ञानी रू (सचेत होकर) पानीपानी

राजेश्वरी रू (कटोरे में पानी देती हुई) पी लीजिए।

ज्ञानी रू (राजेश्वरी को ध्यान से देखकर) नहींए रहने दो। पतिदेव के दर्शन कैसे पाऊँ। मेरे मरने का हाल सुनकर उन्हें बहुत दुरू ख होगा राजेश्वरीए उन्हें मुझसे बहुत प्रेम है। इधर वह मुझसे इतने लज्जित थे कि मेरी तरफ सीधी आंख से ताक भी न सकते थे।(फिर अचेत हो जाती है।)

राजेश्वरी रू (मन में) भगवन्‌ अब यह शोक देखा नहीं जाता। कोई और स्त्री होती तो मेरे खून की प्यासी हो जाती। इस देवी के ह्रदय में कितनी दया है। मुझे इतनी नीची समझती हैं कि मेरे हाथ का पानी भी नहीं पीतींए पर व्यवहार में कितनी भलमनसाहत है। मैं ऐसी दया की मूरत की घातिका हूँ। मेरा क्या अंत होगा!

ज्ञानी रू हायए पुत्र—लालसा ! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया । राजेश्वरीए साधुओं का भेस देखकर धोखे में न आना। (आंखें बंद कर लेती है।)

राजेश्वरी रू कभी किसी साधु ने इसे जट कर रास्ता लिया होगा। वही सुध आ रही है। तुम तो चलीए मेरे लिए कौन रास्ता है घ् वह डाकू ही हो गए हैं। अब तक सबलसिंह के भय से इधर न आते थे।अब वह मुझे कब जीता छोड़ेंगे घ् न जाने क्याघ् क्या दुर्गति करेंघ् मैं जीना भी तो नहीं चाहती। मनए अब संसार का मायामोह छोड़ो। संसार में तुम्हारे लिए अब जगह नहीं है। हा ! यही

करना था। तो पहले ही क्यों न किया घ् तीन प्राणियों की जान लेकर तब यह सूझी। कदाचित्‌ तब मुझे मौत से इतना डर न लगता। अब तो जमराज का ध्यान आते ही रोयें खड़े हो जाते हैं। पर यहां की दुर्दशा से वहां की दुर्दशा तो अच्छी। कोई हंसने वाला तो न होगा। (रस्सी का फंदा बना कर छत से लटका देती है।) बसए एक झटके में काम तमाम हो जाएगी। इतनी—सी जान के लिए आदमी कैसे—कैसे जतन करता है। (गले में फंदा डालती है।) दिल कांपता है। जरा—सा फंदा खींच लूं और बसब दम घुटने लगेगी। तड़प—तड़पकर जान निकलेगी। (भय से कांप उठती है) मुझे इतना डर क्यों लगता है घ् मैं अपने को इतनी कायर न समझती थी। सास के एक ताने परए पति की एक कड़ी बात पर स्त्रियां प्राण दे देती हैं। लड़कियां अपने विवाह की चिंता से माता—पिता को बचाने के लिए प्राण दे देती हैं। पहले स्त्रियां पति के साथ सती हो जाती थीं।डर क्या है घ् जो भगवान्‌ यहां हैं वही भगवान्‌ वहां हैं। मैंने कोई पाप नहीं किया है। एक आदमी मेरा धर्म बिगाड़ना चाहता था।मैं और किसी तरह उससे न बच सकती थी। मैंने कौशल से अपने धर्म की रक्षा की। यह पाप नहीं किया। मैं भोग—विलास के लोभ से यहां नहीं आई ! संसार चाहे मेरी कितनी ही निन्दा करेए ईश्वर सब जानते हैं। उनसे डरने का कोई काम नहीं

फदा खींच लेती है। तलवार लिए हुए हलधर का प्रवेश।

हलधर रू (आश्चर्य से) अरे ! यहां तो इसने फांसी लगा रखी है।

तलवार से तुरत रस्सी काट देता है और राजेश्वरी को संभालकर फर्श पर लिट देता है।

राजेश्वरी रू (सचेत होकर) वही तलवार मेरी गर्दन पर क्यों नहीं चला देते घ्

हलधर रू जो आप ही मर रही है उसे क्या मारूं घ्

राजेश्वरी रू अभी इतनी दया है घ्

हलधर रू वह तुम्हारी लाज की तरह बाजार में बेचने की चीज नहीं है।

ज्ञानी रू (होश में आकर) कौन कहता है कि इसने अपनी लाज बेच दीघ् यह आज भी उतनी ही पवित्र है जितनी अपने घर थी। इसने अपनी लाज बेचने के लिए इस मार्ग पर पग नहीं रखाए बल्कि अपनी लाज की रक्षा करने के लिए अपनीए लाज की रक्षा के लिए इसने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया । इसीलिए इसने यह कपटभेष धारण किया। एक सम्पन्न पुरूष से बचने का इसके सिवा और कौन—सा उपाय था।तुम उस पर लांछन लगाकर बड़ा अन्याय कर रहे होए उसने तुम्हारे कुल को कलंकित नहीं कियाए बल्कि उसे उज्ज्वल कर दिया । ऐसी बिरली ही कोई स्त्री ऐसी अवस्था में अपने व्रत पर अटल रह सकती थी। यह चाहती तो आजीवन सुख भोग करतीए पर इसने धर्म को स्वाद—लिप्सा की भेंट नहीं चढ़़ाया। आह ! अब नहीं बोला जाता। बहुत—सी बातें मन में थींए सिर में चक्कर आ रहा हैए स्वामी के दर्शन न कर सकी(बेहोश हो जाती है।)

हलधर रू ज्ञानी हैं क्या घ्

राजेश्वरी रू सबल का दर्शन पाने की आशा से यहां आयी थींए किंतु बेचारी की लालसा मन में रही जाती है। न जाने उनकी क्या गत हुई घ्

हलधर रू मैं अभी उन्हें लाता हूँ।

राजेश्वरी रू क्या अभी वह...

हलधर रू हांए उन्होंने प्राण देना चाहा था।ए पिस्तौल का निशाना छाती पर लगा लिया था।ए पर मैं पहुंच गया और उनके हाथ से पिस्तौल छीन ली। दोनों भाई वहीं हैं। तुम इनके मुंह पर पानी के छींटे देती रहना। गुलाबजल तो रखा ही होगाए उसे इनके मुंह में टपकानाए मैं अभी आता हूँ।

जल्दी से चला जाता है।

राजेश्वरी रू (मन में) मैं समझती थी इनका स्वरूप बदल गया होगा। दया नाम को भी न रही होगी। नित्य डाका मारते होंगेए आचरण भ्रष्ट हो गया होगा। पर इनकी आंखों में तो दया की जोत झलकती हुई दिखाई देती है। न जाने कैसे दोनों भाइयों की जान बचा ली। कोई दूसरा होता तो उनकी घात में लगा रहता और अवसर पाते ही प्राण ले लेता। पर इन्होंने उन्हें मौत के मुंह से निकाल दिया । क्या ईश्वर की लीला है कि एक हाथ से विष पिलाते हैं और दूसरे हाथ से अमृत मुझी को कौन बचाता। सोचता कि मर रही हैए मरने दो। शायद यह मुझे मारने के ही लिए यहां तलवार लेकर आए होंगे।मुझे इस दशा में देखकर दया आ गई। पर इनकी दया पर मेरा जी झुंझला रहा है। मेरी यह बदनामी यह जगहंसाई बिल्कुल निष्फल हो गई। इसमें जरूर ईश्वर का हाथ है। सबलसिंह के परोपकार ने उन्हें बचाया। कंचनसिंह की भक्ति ने उनकी रक्षा की। पर इस देवी की जान व्यर्थ जा रही है। इसका दोष मेरी गरदन पर है। इस एक देवी पर कई सबलसिंह भेंट किए जा सकते हैं ! (ज्ञानी को ध्यान से देखकर) आंखें पथरा गईए सांस उखड़ गईए पति के दर्शन न कर सकेंगीए मन की कामना मन में ही रह गयी। (गुलाबजल के छीटें देकर) छनभर और

ज्ञानी रू (आंखें खोलकर) क्या वह आ गए घ् कहां हैंए जरा मुझे उनके पैर दिखा दो।

राजेश्वरी रू (सजल नयन होकर) आते ही होंगेए अब देर नहीं है। गुलाबजल पिलाऊँघ्

ज्ञानी रू (निराशा से) न आएंगेए कह देना तुम्हारे चरणों की याद में(मूर्च्छित हो जाती है।)

चेतनदास का प्रवेश।

राजेश्वरी रू यह समय भिक्षा मांगने का नहीं है। आप यहां कैसे चले आए घ्

चेतनदास रू इस समय न आता तो जीवनपर्यन्त पछताता। क्षमा—दान मांगने आया हूँ।

राजेश्वरी रू किससेघ्

चेतनदास रू जो इस समय प्राण त्याग रही है।

ज्ञानी रू (आंखें खोलकर) क्या वह आ गएघ् कोई अचल को मेरी गोद में क्यों नहीं रख देताघ्

चेतनदास रू देवीए सब—के—सब आ रहे हैं। तुम जरा यह जड़ी मुंह में रख लो।भगवान्‌ चाहेंगे तो सब कल्याण होगा।

ज्ञानी रू कल्याण अब मेरे मरने में ही है।

चेतनदास रू मेरे अपराध क्षमा करो।

ज्ञानी के पैरों पर फिर पड़ता है।

ज्ञानी रू यह भेष त्याग दो। भगवान्‌ तुम पर दया करें।

उसके मुंह से खून निकलता है और प्राण निकल जाते हैंए अन्तिम शब्द उसके मुंह से यही निकलता हैए अचल तू अमर हो...

राजेश्वरी रू अन्त हो गया। (रोती है) मन की अभिलाषा मन में ले गई। पति और पुत्र से भेंट न हो सकी।

चेतनदास रू देवी थी।

सबलसिंहए कंचनसिंहए अचलए हलधर सब आते हैं।

राजेश्वरी रू स्वामीजीए कुछ अपनी सिद्वि दिखाइए। एक पल—भर के लिए सचेत हो जाती तो उनकी आत्मा शांत हो जाती।

चेतनदास रू अब ब्रह्मा भी आएं तो कुछ नहीं कर सकते।

अचल रोता हुआ मां के शव से लिपट जाता हैए

सबल को ज्ञानी की तरफ देखने की भी हिम्मत नहीं पड़ती।

राजेश्वरी रू आप लोग एक पल—भर पहले आ जाते तो इनकी मनो— कामना पूरी हो जाती। आपकी ही रट लगाए हुए थीं। अन्तिम शब्द जो उनके मुंह से निकला वह अचलसिंह का नाम था।

सबल रू यह मेरी दुष्टता का दंड है। हलधरए अगर तुमने मेरी प्राण रक्षा न की होती तो मुझे यह शोक न सहना पड़ता। ईश्वर बड़े न्यायी हैं। मेरे कमोऊ का इससे उचित दंड हो ही नहीं सकता था।मैं तुम्हारे घर का सर्वनाश करना चाहता था।विधाता ने मेरे घर का सर्वनाश कर दिया । आज मेरी आंखें खुल गयीं। मुझे विदित हो रहा है कि ऐश्वर्य और सम्पत्ति जिस पर मानव—समाज मिटा हुआ हैए जिसकी आराधना और भक्ति में हम अपनी आत्माओं को भी भेंट कर देते हैंए वास्तव में एक प्रचंड ज्वाला हैए जो मनुष्य के ह्रदय को जलाकर भस्म कर देती है। यह समस्त पृथ्वी किन प्राणियों के पाप—भार से दबी हुई हैघ् वह कौन से लोग हैं जो दुर्व्‌यसनों के पीछे नाना प्रकार

के पापाचार कर रहे हैंघ् वेश्याओं की अक्रालिकाएं किन लोगों के दम से रौनक पर हैंघ् किनके घरों की महिलाएं रो—रोकर अपना जीवनक्षेप कर रही हैंघ् किनकी बंदूकों से जंगल के जानवरों की जान संकट में पड़ी रहती हैघ् किन लोगों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आए दिन समर भूमि रक्तमयी होती रहती है। किनके सुख भोग करने के लिए गरीबों को आए दिन बेगारें भरनी पड़ती हैंघ् यह वही लोग हैं जिनकेके पास ऐश्वर्य हैए सम्पत्ति हैए प्रभुत्व हैए बल है। उन्हीं के भार से पृथ्वी दबी हुई हैए उन्हीं के नखों से संसार पीड़ित हो रहा है। सम्पत्ति ही पाप का मूल हैए इसी से कुवासनाएं जागृत होती हैंए इसी से दुर्व्‌यसनों की सृष्टि होती है। गरी। आदमी अगर पाप करता है तो क्षुधा की तृप्ति के लिए। धनी पुरूष पाप करता है अपनी कुवृत्तियोंए और कुवासनाओं की पूर्ति के लिए। मैं इसी व्याधि का मारा हुआ हूँ। विधाता ने मुझे निर्धन बनाया होताए मैं भी अपनी जीविका के लिए पसीना बहाता होताए अपने बाल—बच्चों के उदर—पालन के लिए मजूरी करता होता तो मुझे यह दिन न देखना पड़ताए यों रक्त के आंसू न रोने पड़ते। धनीजन पुण्य भी करते हैंए दान भी करते हैंए दुरू खी आदमियों पर दया भी करते हैं। देश में बड़ी—बड़ी धर्मशालाएंए सैकड़ों पाठशालाएंए चिकित्सालयए तालाबए कुएं उनकी कीर्ति के स्तम्भ रूप खड़े हैंए उनके दान से सदाव्रत चलते हैंए अनाथों और विधवाओं का पालन होता हैए साधुओं और अतिथियों का सत्कार होता हैए कितने ही विशाल मन्दिर सजे हुए हैंए विद्या की उन्नति हो रही हैए लेकिन उनकी अपकीर्तियों के सामने उनकी सुकीर्तियां अंधेरी रात में जुगुनू की चमक के समान हैंए जो अंधकार को और भी गहन बना देती हैं। पाप की कालिमा दान और दया से नहीं धुलती। नहींए मेरा तो यह अनुभव है कि धनी जन कभी पवित्र भावों से प्रेरित हो ही नहीं सकते। उनकी दानशीलताए उनकी भक्तिए उनकी उदारताए उनकी दीन—वत्सलता वास्तव में उनके स्वार्थ को सिद्व करने का साधन—मात्र है। इसी टट्टी की आड़ में वह शिकार खेलते हैं। हाय क्क तुम लोग मन में सोचते होगेए यह रोने और विलाप करने का समय हैए धन और सम्पदा की निंदा करने का नहीं मगर मैं क्या करूंघ् आंसुओं की अपेक्षा इन जले हुए शब्दों सेए इन फफोलों के फोड़ने सेए मेरे चित्त को अधिक शांति मिल रही है। मेरे शोक ह्दय—दाहए और आत्मग्लानि का प्रवाह केवल लोचनों द्वारा नहीं हो सकताए उसके लिए ज्यादा चौड़ेए ज्यादा स्थूल मार्ग की जरूरत है। हाय क्क इस देवी में अनेक गुण थे।मुझे याद नहीं आता कि इसने कभी एक अप्रिय शब्द भी मुझसे कहा होए वह मेरे प्रेम में मग्न थी। आमोद और विलास से उसे लेश—मात्र

भी प्रेम न था।वह संन्यासियों का जीवन व्यतीत करती थी। मेरे प्रति उनके ह्रदय में कितनी श्रद्वा थीए कितनी शुभकामना। जब तक जी मेरे लिए जी और जब मुझे सत्पथ से हटते देखा तो यह शोक उसके लिए असह्य हो गया। हाय ए मैं जानता कि वह ऐसा घातक संकल्प कर लेगी तो अपने आत्मपतन का वृत्तांत उससे न कहता ! पर उसकी सह्दयता और सहानुभूति के रसास्वादन से मैं अपने को रोक न सका। उसकी यह क्षमाए आत्मकृपा कभी न भूलेगी जो इस वृत्तांत को सुनकर उसके उदास मुख पर झलकने लगी। रोष या क्रोध का लेश—मात्र भी चिन्ह न था। वह दयामूर्ति सदा के लिए मेरे ह्दयगृह को उजाड़ कर अद्रश्य हो गई। नहींए मैंने उसे पटककर चूर—चूर कर दिया । (रोता है।) हायए उसकी याद अब मेरे दिल से कभी न निकलेगी।

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चौथा द्रश्य

स्थान रू गुलाबी का मकान।

समय रू दस बजे रातब

गुलाबी रू अब किसके बल पर कूदूं। पास जो जमापूंजी थी वह

निकल गई। तीन—चार दिन के अन्दर क्या—से—क्या हो गया। बना—बनाया घर उजड़ गया। जो राजा थे वह रंक हो गए।

जिस देवी की बदौलत इतनी उम्र सुख से कटी वह संसार से उठ गयीं। अब वहां पेट की रोटीयों के सिवा और क्या रखा

है। न उधर ही कुछ रहाए न इधर ही कुछ रहा। दोनों लोक से गई। उस कलमुंहे साधु का कहीं पता नहीं न जाने कहां लोप हो गया। रंगा हुआ सियार था।मैं भी उसके छल में आ गई। अब किसके बल पर कूदूं। बेटा—बहू यों ही बात न पूछते थेए अब तो एक बूंद पानी को तरसूंगी। अब किस दावे से कहूँगीए मेरे नहाने के लिए पानी रख देए मेरी साड़ी छांट देए मेरा बदन दाब दे। किस दावे पर धौंस जमाऊँगी। सब रूपये के मीत हैं। दोनों जानते थेए अम्मां के पास धन है। इसलिए डरते थेए मानते थेए जिस कल चाहती थी उठाती थीए जिस कल चाहती थी बैठाती थी। उस धूर्त साधु को पाऊँ तो सैकड़ों गालियां सुनाऊँए मुंह नोच लूं। अब तो मेरी दशा उस बिल्ली की—सी है जिसके पंजे कट गए होंए उस बिच्छु की—सी जिसका डंक टूट गया होए उस रानी की—सी जिसे राजा ने आखों से गिरा दिया होए

चम्पा रू अम्मांए चलोए रसोई तैयार है।

गुलाबी रू चलो बेटीए चलती हूँ। आज मुझे ठाकुर साहब के घर से आने में देर हो गई। तुम्हें बैठने का कष्ट हुआ।

चम्पा रू (मन में) अम्मां आज इतने प्यार से क्यों बातें कर रही हैंए सीधी बात मुंह से निकलती ही न थी। (प्रकट) कुछ कष्ट नहीं हुआए अम्मांए कौन अभी तो नौ बजे हैं।

गुलाबी रू भृगुनाथ ने भोजन कर लिया है नघ्

चम्पा रू (मन में) कल तक को अम्मां पहले ही खा लेती थींए बेटे

को पूछती तक न थींए आज क्यों इतनी खातिर कर रही हैंघ् (प्रकट) तुम चलकर खा लोए हम लोगों को तो सारी रात पड़ी है।

गुलाबी रसोई में जाकर अपने हाथों से पानी निकालतीहै।

चम्पा रू तुम बैठो अम्मांए मैं पानी रख देती हूँ।

गुलाबी रू नहीं बेटीए मटका भरा हुआ हैए तुम्हारी आस्तीन भीग जाएगी।

चम्पा रू (पंखा झलने लगती है।) नमक तो ज्यादा नहीं हो गयाघ्

गुलाबी रू पंखा रख दो बेटीए आज गरमी नहीं है। दाल में जरा नमक ज्यादा हो गया है। लाओए थोड़ा—सा पानी मिलाकर खा लूं।

चम्पा रू मैं बहुत अंदाज से छोड़ती हूँए मगर कभी—कभी कम—बेस हो ही जाता है।

गुलाबी रू बेटीए नमक का अंदाज बुढ़़ापे तक ठीक नहीं होताए कभी—कभी धोखा हो ही जाता है। (भृगु आता है।) आओ बेटाए खाना खा लोए देर हो रही है। क्या हुआए कंचनसिंह के यहां जवाब मिल गयाघ्

भृगु रू (मन में) आज अम्मां की बातों में कुछ प्यार भरा हुआ जान पड़ता है। (प्रकट) नहीं अम्मांए सच पूछो तो आज ही मेरी नौकरी लगी है। ठाकुरद्वारा बनवाने के लिए मसाला जुटाना मेरा काम तय हुआ है।

गुलाबी रू बेटाए यह धरम का काम हैए हाथघ् पांव संभालकर रहना।

भृगु रू दस्तूरी तो छोड़ता नहींए और कहीं हाथ मारने की गुंजाइश नहीं ठाकुर जी सीधे से दे दें तो उंगली क्यों टेढ़़ी करनी पड़े।

भोजन करने बैठता है।

चम्पा रू (भृगु से) कुछ और लेना हो तो ले लोए मैं जाती हूँ अम्मां का बिछावन बिछाने।

गुलाबी रू रहने दो बेटीए मैं आप बिछा लूंगी।

भृगु रू (चम्पा से) यह आज दाल में नमक क्यों झोंक दियाघ् नित्य यही काम करती होए फिर भी तमीज नहीं आतीघ्

चम्पा रू ज्यादा हो गयाए हाथ ही तो है।

भृगु रू शर्म नहीं आतीए उसपर से हेकड़ी करती होए

गुलाबी रू जाने दो बेटाए अंदाज न मिला होगी। मैं तो रसोई बनातेघ्

बनाते बुङ्‌ढ़ी हो गईए लेकिन कभी—कभी नमक घट—बढ़़ जाता ही है।

भृगु रू (मन में) अम्मां आज क्यों इतनी मुलायम हो गई हैं। शायद ठाकुरों का पतन देख के इनकी आंखें खुल गई हैं। यह अगर इसी तरह प्यार से बातें करें तो हम लोग तो इनके चरण धो—धोकर पियें।(प्रकट) मैं तो किसी तरह खा लूंगाए पर तुम तो न खा सकोगी।

गुलाबी रू खा लिया बेटाए एक दिन जरा नमक ज्यादा ही सही। देखो बेटीए खा—पीकर आराम से सो रहनाए मेरा बदन दाबने मत आना। रात अधिक हो गई है।

चम्पा रू (मन में) आज तो ऐसा जी चाहता है कि इनके चरण धोकर पीऊँ इसी तरह रोज रहें तो फिर यह घर स्वर्ग हो जाये। (प्रकट) जरा बदन दबा देने से कौन बड़ी रात निकल

जाएगी

गुलाबी रू (मन में) आज कितने प्रेम से बहू मेरी सेवा कर रही हैए नहीं तो जरा—जरा—सी बात पर नाकभौं सिकोड़ा करती थी (प्रकट) जी चाहे तो थोड़ी देर के लिए आ जानाए तुम्हें प्रेमसाफर सुनाऊँगी

चेतनदास का प्रवेश

गुलाबी रू (आश्चर्य से) महाराजए आप कहां चले गए थेघ् मैं दिन में कई बार आपकी कुटी पर गई

चेतनदास रू आज मैं एक कार्यवश बाहर चला गया था।अब एक महातीर्थ पर जाने का विचार है। अपना धन ले लोए गिन लेनाए कुछ—न—कुछ अधिक ही होगी। मैं वह मंत्र भूल गया जिससे धन दूना हो जाता था।।

गुलाबी रू (चेतनदास के पैरों पर गिरकर) महाराजए बैठ जाइएए आपने यहां तक आने का कष्ट किया हैए कुछ भोजन कर लीजिए। कृतार्थ हो जाऊँगी।

चेतनदास रू नहीं माताजीए मुझे विलम्ब होगी। मुझे आज्ञा दो और मेरी यह बात ध्यान से सुनो। आगे किसी साधु—महात्मा को अपना धन दूना करने के लिए मत देना नहीं तो धोखा खाओगी। (चम्पा और भृगु आकर चेतनदास के चरण छूते हैं।) माताए तेरे पुत्र और वधू बहुत सुशील दीखते हैं। परमात्मा इनकी रक्षा करें। तू भूल जा कि मेरे पास धन है। धन के बल से नहींए प्रेम के बल से अपने घर में शासन कर।

चेतनदास का प्रस्थान

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पांचवां द्रश्य

स्थान रू स्वामी चेतनदास की कुटी

समय रू रातए चेतनदास गंगा तट पर बैठे हैं।

चेतनदास रू (आप—ही—आप) मैं हत्यारा हूँए पापी हूँए धूर्त हूँ। मैंने सरल प्राणियों को ठगने के लिए यह भेष बनाया है। मैंने इसीलिए योग की क्रियाएं सीखींए इसीलिए हिप्नाटीज्म सीखीए मेरा लोग कितना सम्मानए कितनी प्रतिष्ठा करते हैं। पुरूष मुझसे धन मांगते हैंए स्त्रियां मुझसे सन्तान मांगती हैं। मैं ईश्वर नहीं कि सबकी मुरादें पूरी कर सकूं तिस पर भी लोग मेरा पिंड नहीं छोड़ते। मैंने कितने घर तबाह किएए कितनी सती स्त्रियों को जाल में फंसायाए कितने निश्छल पुरूषों को चकमा दिया । यह सब स्वांग केवल सुखभोग के लिएए मुझ पर धिक्कार है ! पहले मेरा जीवन कितना पवित्र था।मेरे आदर्श कितने ऊँचे थे।मैं संसार से विरक्त हो गया। पर स्वार्थी संसार ने मुझे खींच लिया। मेरी इतनी मान—प्रतिष्ठा थीए मैं पाखंडी हो गयाए नर से पिशाच हो गया। हांए मैं पिशाच हो गया। हां ! मेरे कुकर्म मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं। उनके स्वरूप कितने भयंकर हैं। वह मुझे निगल जाएंगी। भगवन्ए मुझे बचाओ ! वह सब अपने मुंह खोले मेरी ओर लपके चले आते हैं। (आंखें बन्द कर लेते हैं) ज्ञानी ! ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो। कितना विकराल स्वरूप है। तेरे मुख से ज्वाला निकल रही है। तेरी आंखों से आग की लपटें आ रही हैं। मैं जल जाऊँगा। भस्म हो जाऊँगा। तू कैसी सुन्दर थी। कैसी कोमलांगी थी ! तेरा यह रौद्र रूप नहींए तू वह सती नहींए वह कमल की—सी आंखेंए वह पुष्प के—से कपोल कहां हैं। नहींए यह मेरे अधर्मो काए मेरे दुष्कर्मो का मूर्तिमान स्वरूप हैए मेरे दुष्कर्मो ने यह पैशाचिक रूप धारण किया है। यह मेरे ही पापों की ज्वाला है। क्या मैं अपने ही पापों की आग में जलूंगाघ् अपने ही बनाए हुए नरक में पडूंगाघ् (आंखें बंद करके हाथों से हटाने की चेष्टा करके) नहींए मैं ईश्वर की शपथ खाता हूँए अब कभी ऐसे कर्म न करूंगा। मुझे प्राणदान दे। आहए कोई विनय नहीं सुनता। ईश्वरए मेरी क्या गति होगी ! मैं इस पिशाचिनी के मुख का ग्रास बना जा रहा हूँ। यह दया—शून्यए ह्दय—शून्य राक्षसी मुझे निगल जाएगी भगवन्‌ ! कहां जाऊँए कहां भागूंघ् अरे रे जला.....

दौड़कर नदी में कूद पड़ता हैए और एक बार फिर ऊपर आकर नीचे डूब जाता है।

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छठा द्रश्य

स्थान रू मधुबन।

समय रू सावन का महीनाए पूजा—उत्सवए ब्रह्मभोजए राजेश्वरी और सलोनी गांव की अन्य स्त्रियों के साथ गहने—कपड़े पहने पूजा करने जा रही हैं

गीत

जय जगदीश्वरी मात सरस्वतीए सरनागत प्रतिपालनहारी।

चंद्रजोत—सा बदन बिराजेए सीस मुकुट माला फलधारी।जय..

बीना बाम अंग में सोहेए सामगीत धुन मधुर पियारी।जय..

श्वेत बसन कमलासन सुन्दरए संग सखी अरू हंस सवारी।जय..

सलोनी रू (देवी की पूजा करके राजेश्वरी से) आए तेरे गले में माला डाल दूंए तेरे माथे पर भी टीका लगा दूं। तू भी हमारी देवी है। मैं जीती रही तो इस गांव में तेरा मन्दिर बनवाकर छोडूंगी।

एक वृद्वा रू साक्षात्‌ देवी है। इसके कारन हमारे भाग जाग गएए नहीं तो बेगार भरने और रो—रोकर दिन काटने के सिवा और क्या था।!

सलोनी रू (राजेश्वरी से) क्यों बेटीए तूने वह विद्या कहां पढ़़ी थी। धन्न है तेरे माई—बाप कोए जिनकेके कोख से तूने जन्म लिया। मैं तुझे नित्य कोसती थीए कुल—कलंकिनी कहती थी। क्या जानती थी कि तू वहां सबके भाग संवार रही है।

राजेश्वरी रू काकीए मैंने तो कुछ नहीं किया। जो कुछ हुआ ईश्वर की दया से हुआ। ठाकुर सबलसिंह देवता हैं। मैं तो उनसे अपने अपमान का बदला लेने गई थी। मन में ठान लिया था। कि उनके कुल का सर्वनाश करके छोड़ूगी। अगर तुम्हारे भतीजे ने उनकी जान न बचा ली होती तो आज कोई कुल में पानी देने वाला भी न रहता।

सलोनी रू ईश्वर की लीला अपार है।

राजेश्वरी रू ज्ञानीदेवी ने अपने प्राण देकर हम सभी को उबार लिया। इस शोक ने ठाकुर साहब को विरक्त कर दिया । कोई दूसरा समझताए बला से मर गईए दूसरा ब्याह कर लेंगेए संसार में कौन लड़कियों की कमी है। लेकिन उनके मन में दया और धर्म की जोत चमक रही थी। ग्लानि उत्पन्न हुई कि मैंने इस कुमार्ग पर पैर न रखा होता तो यह देवी क्यों लज्जा और शोक से आत्महत्या करती। उनके मन ने कहा — तुम्हीं हत्यारे होए तुम्हीं ने इसकी गरदन पर छुरी चलाई है। इसी ग्लानि की दशा में उनको विदित हुआ कि इन सारी विपत्तियों का मूल कारन मेरी सम्पत्ति है। यह न होती तो मेरा मन इतना चंचल न होता। ऐसी सम्पत्ति ही क्यों न त्याग दूं जिससे ऐसे—ऐसे अनर्थ होते हैं। मैं तो बखानूंगी उस दुधमुंहे अचलसिंह को जो ठाकुर साहब के मुंह से बात निकलते ही सब कोठीए महलए बाग—बगीचा त्यागने पर तैयार हो गया। उनके छोटे भाई कंचनसिंह पहले ही से भगवद्‌—भजन में मग्न रहते थे।उनकी अभिलाषा एक ठाकुरद्वारा और एक धर्मशाला बनवाने की थी। राजभवन खाली हो गया। उसी को धर्मशाला बनायेंगी। घर में सब मिलाकर कोई पचास—साठ हजार नकद रूपये थे।हवागाड़ीए गिटनए घोड़ेए लकड़ी के सामानए झाड़—फानूसए पलंगए मसहरीए कालीनए दरीए इन सब चीजों के बेचने से पच्चीस हजार मिल गएए दस हजार के ज्ञानदेवी के गहने थे।वह भी बेच दिए गए। इस तरह सब जोड़कर एक लाख रूपये ठाकुरद्वारा के लिए जमा हो गए। ठाकुरद्वारे के पास ही ज्ञानीदेवी के नाम का एक पक्का तालाब बनेगा। जब कोई लोभ ही न रह गया तो जमींदारी रखकर क्या करते। सब जमीन असामियों के नाम दर्ज कराके तीरथयात्रा करने चले गए।

सलोनी रू और अचलसिंह कहां गयाघ् मैं तो उसे देख लेती तो छाती से लगा लेती। लड़का नहीं हैए भगवान्‌ का अवतार है।

एक स्त्री रू उसके चरन धोकर पीना चाहिए ।

राजेश्वरी रू गुरूकुल में पढ़़ने चला गया। कोई नौकर भी साथ नहीं लिया। अब अकेले कंचनसिंह रह गए हैं। वह ठाकुरद्वारा बनवा रहे हैं।

सलोनी रू अच्छा अब चलोए अभी दस मन की पूरियां बेलनी हैं।

सब स्त्रियां गाती हुई लौटती हैंए लक्ष्मी की स्तुति करती हुई जाती हैं।

फत्तू रू चलोए चलोए कड़ाह की तैयारी करो। रात हुई जाती है। हलधर देखोए देर न होए मैं जाता हूँ मौलूद सरीफ का इंतजाम करने। फरस और सामियाना आ गया।

हलधर रू तुम उधर थेए इधर थानेदार आए थे ठाकुर सबलसिंह की खोज में। कहते थे उनके नाम वारंट है। मैंने कह दिया उन्हें जाकर अब स्वर्गधाम में तलाश करो। मगर यह तो आने का बहाना था।असल में आए थे नजर लेने। मैंने कहा ए नजर तो देते नहींए हां हजारों रूपये खैरात हो रहे हैंए तुम्हारा जी चाहे तुम भी ले लो।मैंने तो समझा था। कि यह सुनकर अपना—सा मुंह लेके चला जाएगा लेकिन इस महकमे वालों को हया नहीं होतीए तुरन्त हाथ फैला दिए । आखिर मैंने पच्चीस रूपये हाथ पर रख दिए ।

फत्तू रू कुछ बोला तो नहींघ्

हलधर रू बोलता क्याए चुपके से चला गया।

फत्तू रू गाने वाले आ गएघ्

हलधर रू हांए चौपाल में बैठे हैंए बुलाता हूँ।

मंगई रू (गांव की ओर से आकर) हलधर भैयाए सबकी सलाह है कि तुम्हारा विमान सजाकर निकाला जाएए वहां से लौटने पर गाना—बजाना होए

हरदास रू तुम्हारी बदौलत सब कुछ हुआ हैए तुम्हारा कुछ तो महातम होना चाहिए ।

हलधर रू मैंने कुछ नहीं किया। सब भगवान्‌ की इच्छा है। जरा गाने वालों को बुला लो!

हरदास जाता है।

मंगई रू भैयाए अब तो जमींदार को मालगुजारी न देनी पड़ेगीघ्

हलधर रू अब तो हम आप ही जमींदार हैंए मालगुजारी सरकार को देंगी।

मंगई रू तुमने कागद—पत्तर देख लिये हैंघ् रजिस्टरी हो गई हैघ्

हलधर रू मेरे सामने ही हो गई थी।

हलधर किसी काम से चला जाता हैए हरदास गाने वालों को बुला लाता हैए वह सब साज मिलाने लगते हैं।

मंगई रू (हरदास से) इसमें हलधर का कौन एहसान हैघ् इनका बस होता तो सब अपने ही नाम चढ़़वा लेते।

हरदास रू एहसान किसी का नहीं है। ईश्वर की जो इच्छा होती है वही होता है। लेकिन यह तो समझ रहे हैं कि मैं ही सबका ठाकुर हूँ। जमीन पर पांव ही नहीं रखते। चंदे के रूपये ले लियेए लेकिन हमसे कोई सलाह तक नहीं लेते। फत्तू और यह दोनों जो जी चाहता हैए करते हैं।

मंगई रू दोनों खासी रकम बना हुई। दो हजार चंदा उतरा है। खरचा वाजिबी—ही—वाजिबी हो रहा है।

गाना होता है।

जगदीश सकल जगत का तू ही अधार है

भूमिए नीरए अगिनए पवनए सूरजए चंदए शैलए गगन

तेरा किया चौदह भुवन का पसार है।जगदीश...

सुरए नरए पशुए जीवघ् जंतुए जलए थलए चर है अनंतए

तेरी रचना का नहीं अंत पार है।जगदीश...

करूनानिधिए विश्वभरणए शरणागतए तापहरणए

सत चित सुखरूप सदा निरविकार है।जगदीश...

निरगुन सब गुन—निधान निगमागम करत गानए

सेवक नमन करत बार—बार है।जगदीश

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