मंटो की दिलचस्प कहानियाँ

(666)
  • 493.5k
  • 149
  • 159.6k

मैं आज आप को चंद शिकारी औरतों के क़िस्से सुनाऊंगा। मेरा ख़याल है कि आप को भी कभी उन से वास्ता पड़ा होगा। मैं बंबई में था। फिल्मिस्तान से आम तौर पर बर्क़ी ट्रेन से छः बजे घर पहुंच जाया करता था। लेकिन उस रोज़ मुझे देर होगई। इस लिए किशिकारी की कहानी पर बहस ओ मुबाहिसा होता रहा। मैं जब बंबई सैंटर्ल के स्टेशन पर उतरा, तो मैंने एक लड़की को देखा जो थर्ड क्लास कम्पार्टमंट से बाहर निकली। उस का रंग गहिरा साँवला था। नाक नक़्शा ठीक था। उस की चाल बड़ी अनोखी सी थी। ऐसा लगता था कि वो फ़िल्म का मंज़र नामा लिख रही है। में स्टेशन से बाहर आया और पोल पर विक्टोरिया गाड़ी का इंतिज़ार करने लगा। मैं तेज़ चलने का आदी हूँ इस लिए में दूसरे मुसाफ़िरों से बहुत पहले बाहर निकल आया था।

Full Novel

1

नया क़ानून

मंगू कोचवान अपने अड्डे में बहुत अक़लमंद आदमी समझा जाता था। गो उस की तालीमी हैसियत सिफ़र के बराबर और उस ने कभी स्कूल का मुँह भी नहीं देखा था लेकिन इस के बावजूद उसे दुनिया भर की चीज़ों का इल्म था। अड्डे के वो तमाम कोचवान जिन को ये जानने की ख़्वाहिश होती थी कि दुनिया के अंदर क्या हो रहा है उस्ताद मंगू की वसीअमालूमात से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। ...और पढ़े

2

नया साल

कैलिंडर का आख़िरी पता जिस पर मोटे हुरूफ़ में31 दिसंबर छपा हुआ था, एक लम्हा के अंदर उसकी पतली की गिरिफ़त में था। अब कैलिंडर एक टिंड मंड दरख़्त सा नज़र आने लगा। जिसकी टहनियों पर से सारे पत्ते ख़िज़ां की फूंकों ने उड़ा दिए हों। दीवार पर आवेज़ां क्लाक टिक टुक कर रहा था। कैलिंडर का आख़िरी पत्ता जो डेढ़ मुरब्बा इंच काग़ज़ का एक टुकड़ा था, उस की पतली उंगलियों में यूं काँप रहा था गोया सज़ाए मौत का क़ैदी फांसी के सामने खड़ा है। ...और पढ़े

3

नवाब सलीमुल्लाह ख़ान

नवाब सलीम अल्लाह ख़ां बड़े ठाट के आदमी थे। अपने शहर में इन का शुमार बहुत बड़े रईसों में था। मगर वो ओबाश नहीं थे, ना ऐश-परस्त, बड़ी ख़ामोश और संजीदा ज़िंदगी बसर करते थे। गिनती के चंद आदमियों से मिलना और बस वो भी जो उन की पसंद के हैं। दावतें आम होती थीं। शराब के दौर भी चलते थे मगर हद-ए-एतिदाल तक। वो ज़िंदगी के हर शोबे में एतिदाल के क़ाइल थे। ...और पढ़े

4

ना मुकम्मल तहरीर

मैं जब कभी ज़ेल का वाक़िया याद करता हूँ, मेरे होंटों में सोईयां सी चुभने लगती हैं। सारी रात होती रही थी। जिस के बाइस मौसम ख़ुनुक होगया था। जब मैं सुबह सवेरे ग़ुसल के लिए होटल से बाहर निकला तो धुली हुई पहाड़ियों और नहाए हुए हरे भरे चीड़ों की ताज़गी देख कर तबीयत पर वही कैफ़ीयत पैदा हुई जो ख़ूबसूरत कुंवारियों के झुरमुट में बैठने से पैदा होती है। बारिश बंद थी अलबत्ता नन्ही नन्ही फ़ुवार पड़ रही थी। पहाड़ीयों के ऊंचे ऊंचे दरख़्तों पर आवारा बदलियां ऊँघ रही थीं गोया रात भर बरसने के बाद थक कर चूर चूर होगई हैं। ...और पढ़े

5

नारा

उसे यूं महसूस हुआ कि इस संगीन इमारत की सातों मंज़िलें उस के काँधों पर धर दी गई हैं। सातवें मंज़िल से एक एक सीढ़ी करके नीचे उतरा और तमाम मंज़िलों का बोझ उस के चौड़े मगर दुबले कांधे पर सवार होता गया। जब वो मकान के मालिक से मिलने के लिए ऊपर चढ़ रहा था। तो उसे महसूस हुआ था कि उस का कुछ बोझ हल्का हो गया है और कुछ हल्का हो जाएगा। इस लिए कि उस ने अपने दिल में सोचा था। मालिक मकान जिसे सब सेठ के नाम से पुकारते हैं उस की बिप्ता ज़रूर सुनेगा। और किराया चुकाने के लिए उसे एक महीने की और मोहलत बख़्श देगा..... बख़्श देगा!...... ये सोचते हुए उस के ग़रूर को ठेस लगी थी लेकिन फ़ौरन ही उस को असलीयत भी मालूम हो गई थी.... वो भीक मांगने ही तो जा रहा था। और भीक हाथ फैला कर, आँखों में आँसू भर के, अपने दुख दर्द सुना कर और अपने घाओ दिखा कर ही मांगी जाती है......! ...और पढ़े

6

निक्की

तलाक़ लेने के बाद वो बिलकुल नचनत होगई थी। अब वो हर रोज़ की वानिता कुल कुल और मार नहीं थे। निक्की बड़े आराम-ओ-इत्मिनान से अपना गुज़र औक़ात कर रही थी। ये तलाक़ पूरे दस बरस के बाद हुई थी। निक्की का शौहर बहुत ज़ालिम था। प्रले दर्जे का निखट्टू् और शराबी कबाबी। भंग चरस की भी लत थी। कई कई दिन भंगड़ ख़ानों में और तकीयों में पड़ा रहता था। एक लड़का हुआ था। वो पैदा होते ही मर गया। बरस के बाद एक लड़की हुई जो ज़िंदा थी और अब नौ बरस की थी। ...और पढ़े

7

नुत्फ़ा

मालूम नहीं बाबू गोपी नाथ की शख़्सियत दर-हक़ीक़त ऐसी ही थी जैसी आप ने अफ़्साने में पेश की है, महज़ आप के दिमाग़ की पैदावार है, पर मैं इतना जानता हूँ कि ऐसे अजीब-ओ-ग़रीब आदमी आम मिलते हैं....... मैं ने जब आप का अफ़्साना पढ़ा तो मेरा दिमाग़ फ़ौरन ही अपने एक दोस्त की तरफ़ मुंतक़िल हो गया.......सादिक़े की तरफ़....... आप के बाबू गोपी नाथ और उस में बज़ाहिर कोई मुमासिलत नहीं है....... लेकिन मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि उन दोनों का ख़मीर एक ही मिट्टी से उठा है....... आप के बाबू गोपी नाथ को दौलत विरासत में मिली है। मेरे सादिक़े को अपनी मेहनत-ओ-मशक़्क़त और ज़हानत के सिले में। दोनों शाह ख़र्च थे। आप का बाबू गोपी नाथ बज़ाहिर बुद्धू था। लेकिन दर-अस्ल बहुत होशियार और बाख़बर आदमी था। ...और पढ़े

8

पढ़े कलिमा

ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह...... आप मुस्लमान हैं यक़ीन करें मैं जो कुछ कहूंगा, सच्च कहूंगा। पाकिस्तान का इस मुआमले कोई तअल्लुक़ नहीं। क़ाइद-ए-आज़म जिन्नाह के लिए मैं जान देने के लिए तैय्यार हूँ। लेकिन मैं सच्च कहता हूँ इस मुआमले से पाकिस्तान का कोई तअल्लुक़ नहीं। आप इतनी जल्दी न कीजीए...... मानता हूँ। इन दिनों हुल्लड़ के ज़माने में आप को फ़ुर्सत नहीं, लेकिन आप ख़ुदा के लिए मेरी पूरी बात तो सुन लीजीए...... मैंने तुकाराम को ज़रूर मारा है, और जैसा कि आप कहते हैं तेज़ छुरी से उस का पेट चाक किया है, मगर इस लिए नहीं कि वो हिंदू था। अब आप पूछेंगे कि तुम ने इस लिए नहीं मारा तो फिर किस लिए मारा...... लीजीए मैं सारी दास्तान ही आप को सुना देता हूँ। ...और पढ़े

9

परी

कश्मीरी गेट दिल्ली के एक फ़्लैट में अनवर की मुलाक़ात परवेज़ से हुई। वो क़तअन मुतअस्सिर न हुआ। परवेज़ ही बेजान चीज़ थी। अनवर ने जब उस की तरफ़ देखा और उस को आदाब अर्ज़ कहा तो उस ने सोचा “ये क्या है औरत है या मूली” परवेज़ इतनी सफ़ैद थी कि उस की सफेदी बेजान सी होगई थी जिस तरह मूली ठंडी होती है इसी तरह इस का सफ़ैद रंग भी ठंडा था। कमर में हल्का सा ख़म था जैसा कि अक्सर मूलियों में होता है। अनवर ने जब उस को देखा तो उस ने सबज़ दुपट्टा ओढ़ा हुआ था। ग़ालिबन यही वजह है कि उस को परवेज़ हूबहू मूली नज़र आई जिस के साथ सबज़ पत्ते लगे हों। ...और पढ़े

10

परेशानी का सबब

नईम मेरे कमरे में दाख़िल हुआ और ख़ामोशी से कुर्सी पर बैठ गया। मैंने उस की तरफ़ नज़र उठा देखा और अख़बार की आख़िरी कापी के लिए जो मज़मून लिख रहा था उसको जारी रखने ही वाला था कि मअन मुझे नईम के चेहरे पर एक ग़ैरमामूली तबदीली का एहसास हुआ मैं ने चश्मा उतार कर उस की तरफ़ फिर देखा और कहा। “क्या बात है नईम। मालूम होता है तुम्हारी तबीयत नासाज़ है।” ...और पढ़े

11

पसीना

“मेरे अल्लाह!........ आप तो पसीने में शराबोर हो रहे हैं।” “नहीं। कोई इतना ज़्यादा तो पसीना नहीं आया।” “ठहरिए तौलिया ले कर आऊं।” “तौलिए तो सारे धोबी के हाँ गए हुए हैं।” “तो मैं अपने दोपट्टे ही से आप का पसीना पोंछ देती हूँ।” “तुम्हारा दुपट्टा रेशमीं है। पसीना जज़्ब नहीं कर सकेगा।” ...और पढ़े

12

पहचान -

एक निहायत ही थर्ड क्लास होटल में देसी विस्की की बोतल ख़त्म करने के बाद तय हुआ कि बाहर जाये और एक ऐसी औरत तलाश की जाये जो होटल और विस्की के पैदा करदा तकद्दुर को दूर कर सके। कोई ऐसी औरत ढूँडी जाये जो होटल की कसाफ़त के मुक़ाबले में नफ़ासत-पसंद और बदज़ाइक़ा विस्की के मुक़ाबला में लज़ीज़ हो। ...और पढ़े

13

पाँच दिन

जम्मू तवी के रास्ते कश्मीर जाईए तो कद के आगे एक छोटा सा पहाड़ी गांव बटोत आता है। बड़ी जगह है। यहां दिक़ के मरीज़ों के लिए एक छोटा सा सीने टोरीम है। यूं तो आज से आठ नौ बरस पहले बटोत में पूरे तीन महीने गुज़ार चुका हूँ, और इस सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम से मेरी जवानी का एक नापुख़्ता रोमान भी वाबस्ता है मगर इस कहानी से मेरी किसी भी कमज़ोरी का तअल्लुक़ नहीं। ...और पढ़े

14

पीरन

ये उस ज़माने की बात है जब मैं बेहद मुफ़लिस था। बंबई में नौ रुपये माहवार की एक खोली रहता था जिस में पानी का नल था न बिजली। एक निहायत ही ग़लीज़ कोठड़ी थी जिस की छत पर से हज़ारहा खटमल मेरे ऊपर गिरा करते थे। चूहों की भी काफ़ी बोहतात थी...... इतने बड़े चूहे मैंने फिर कभी नहीं देखे। बिल्लियां उन से डरती थीं। ...और पढ़े

15

पेशावर से लाहौर तक

वो इंटर क्लास के ज़नाना डिब्बे से निकली उस के हाथ में छोटा सा अटैची केस था। जावेद पेशावर उसे देखता चला आ रहा था। रावलपिंडी के स्टेशन पर गाड़ी काफ़ी देर ठहरी तो वो साथ वाले ज़नाना डिब्बे के पास से कई मर्तबा गुज़रा। लड़की हसीन थी जावेद उस की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गया उस की नाक की फ़िनिंग पर छूटा सा तिल था गालों में नन्हे नन्हे गढ़े थे जो उस के चेहरे पर बहुत भले लगते थे। ...और पढ़े

16

फ़रिश्ता

सुर्ख़ खुरदरे कम्बल में अताउल्लाह ने बड़ी मुश्किल से करवट बदली और अपनी मुंदी हुई आँखें आहिस्ता आहिस्ता खोलीं। की दबीज़ चादर में कई चीज़ें लिपटी हुई थीं जिन के सही ख़द्द-ओ-ख़ाल नज़र नहीं आते थे। एक लंबा, बहुत ही लंबा, ना ख़त्म होने वाला दालान था या शायद कमरा था जिस में धुँदली धुँदली रोशनी फैली हुई थी। ऐसी रोशनी जो जगह जगह मैली हो रही थी। ...और पढ़े

17

फ़ातो

तेज़ बुख़ार की हालत में उसे अपनी छाती पर कोई ठंडी चीज़ रेंगती महसूस हुई। उस के ख़्यालात का टूट गया। जब वो मुकम्मल तौर पर बेदार हुआ तो उस का चेहरा बुख़ार की शिद्दत के बाइस तिमतिमा रहा था। उस ने आँखें खोलीं और देखा फातो फ़र्श पर बैठी, पानी में कपड़ा भिगो कर उस के माथे पर लगा रही है। ...और पढ़े

18

शिकारी औरतें

मैं आज आप को चंद शिकारी औरतों के क़िस्से सुनाऊंगा। मेरा ख़याल है कि आप को भी कभी उन वास्ता पड़ा होगा। मैं बंबई में था। फिल्मिस्तान से आम तौर पर बर्क़ी ट्रेन से छः बजे घर पहुंच जाया करता था। लेकिन उस रोज़ मुझे देर होगई। इस लिए किशिकारी की कहानी पर बहस ओ मुबाहिसा होता रहा। मैं जब बंबई सैंटर्ल के स्टेशन पर उतरा, तो मैंने एक लड़की को देखा जो थर्ड क्लास कम्पार्टमंट से बाहर निकली। उस का रंग गहिरा साँवला था। नाक नक़्शा ठीक था। उस की चाल बड़ी अनोखी सी थी। ऐसा लगता था कि वो फ़िल्म का मंज़र नामा लिख रही है। ...और पढ़े

19

शुग़ल

हम में से कुछ किसान थे और कुछ मज़दूरी पेशा, चूँकि पहाड़ी देहातों में रुपय का मुँह देखना बहुत नसीब होता है। इस लिए हम सब ख़ुशी से छः आने रोज़ाना पर सारा दिन पत्थर हटाते रहते थे। जो बारिशों के ज़ोर से साथ वाली पहाड़ियों से लुढ़क कर सड़क पर आ गिरते थे। पत्थरों को सड़क पर से परे हटाना तो ख़ैर इक मामूली बात थी। हम तो इस उजरत पर इन पहाड़ियों को ढाने पर भी तैय्यार थे। जो हमारे गिर्द-ओ-पेश स्याह और डरावने देवओं की तरह अकड़ी खड़ी थीं। दरअसल हमारे बाज़ू सख़्त से सख़्त मशक़्क़त के आदी थे। ...और पढ़े

20

शेर आया शेर आया दौड़ना

ऊंचे टीले पर गडरिए का लड़का खड़ा, दूर घने जंगलों की तरफ़ मुँह किए चिल्ला रहा था। “शेर आया आया दौड़ना।” बहुत देर तक वो अपना गला फाड़ता रहा। उस की जवाँ-बुलंद आवाज़ बहुत देर तक फ़िज़ाओं में गूंजती रही। जब चिल्ला चिल्ला कर उस का हलक़ सूख गया तो बस्ती से दो तीन बुढ्ढे लाठियां टेकते हुए आए और गडरिए के लड़के को कान से पकड़ कर ले गए। ...और पढ़े

21

शेरू

चीड़ और देवदार के ना-हमवार तख़्तों का बना हुआ एक छोटा सा मकान था जिसे चोबी झोंपड़ा कहना बजा दो मंज़िलें थीं। नीचे भटियार ख़ाना था जहां खाना पकाया और खाया जाता था। और बालाई मंज़िल मुसाफ़िरों की रिहायश के लिए मख़सूस थी। ये मंज़िल दो कमरों पर मुश्तमिल थी। इन में से एक काफ़ी कुशादा था। जिस का दरवाज़ा सड़क की दूसरी तरफ़ खुलता था। दूसरा कमरा जो तूल-ओ-अर्ज़ में उस से निस्फ़ था भटियार ख़ाने के ऐन ऊपर वाक़्य था। ये मैंने कुछ अर्से के लिए किराया पर ले रखा था। चूँकि साथ वाले हलवाई के मकान की साख़्त भी बिलकुल इसी मकान जैसी थी और इन दोनों जगहों के लिए एक ही सीढ़ी बनाई गई थी। इस लिए अक्सर औक़ात हलवाई की कुतिया अपने घर जाने के बजाय मेरे कमरे में चली आती थी। ...और पढ़े

22

शैदा

शैदे के मुतअल्लिक़ अमृतसर में ये मशहूर था कि वो चट्टान से भी टक्कर ले सकता है उस में की फुर्ती और ताक़त थी गो तन-ओ-तोश के लिहाज़ से वो एक कमज़ोर इंसान दिखाई देता था लेकिन अमृतसर के सारे गुंडे उस से ख़ौफ़ खाते और उस को एहतिराम की नज़रों से देखते थे। फ़रीद का चौक, मालूम नहीं फ़सादात के बाद उस की क्या हालत है अजीब-ओ-ग़रीब जगह थी यहां शायर भी थे। डाक्टर और हकीम भी मोची और जुलाहे, जुवारी और बदमाश, नेक और परहेज़गार सभी यहां बस्ते थे। हर वक़्त गहमा गहमी रहती थी। ...और पढ़े

23

शो शो

घर में बड़ी चहल पहल थी। तमाम कमरे लड़के लड़कियों, बच्चे बच्चियों और औरतों से भरे थे। और वो बरपा हो रहा था। कि कान पड़ी आवाज़ सुनाई ना देती थी। अगर उस कमरे में दो तीन बच्चे अपनी माओं से लिपटे दूध पीने के लिए बिलबिला रहे हैं। तो दूसरे कमरे में छोटी छोटी लड़कियां ढोलकी से बे-सुरी तानें उड़ा रही हैं। न ताल की ख़बर है न लै की। बस गाय जा रही हैं। नीचे डेयुढ़ी से लेकर बालाई मंज़िल के शह-नशीनों तक मकान मेहमानों से खचाखच भरा था। क्यों ना हो। एक मकान में दो ब्याह रचे थे। मेरे दोनों भाई अपनी चांद सी दुल्हनें ब्याह कर लाए थे। ...और पढ़े

24

संतर पन्च

मैं लाहौर के एक स्टूडियो में मुलाज़िम हुआ जिस का मालिक मेरा बंबई का दोस्त था उस ने मेरा क्या मैं उस की गाड़ी में स्टूडियो पहुंचा था बग़लगीर होने के बाद उस ने अपनी शराफ़त भरी मोंछों को जो ग़ालिबन कई दिनों से ना-तराशीदा थीं थिरका कर कहा: ...और पढ़े

25

सजदा

गिलास पर बोतल झुकी तो एक दम हमीद की तबीयत पर बोझ सा पड़ गया। मलिक जो उसके सामने पैग पी रहा था फ़ौरन ताड़ गया कि हमीद के अंदर रुहानी कश्मकश पैदा होगई है। वो हमीद को सात बरस से जानता था, और इन सात बरसों में कई बार हमीद पर ऐसे दौरे पड़ चुके थे जिन का मतलब उस की समझ से हमेशा बालातर रहा था, लेकिन वो इतना ज़रूर समझता था कि उस के लागर दोस्त के सीने पर कोई बोझ है ऐसा बोझ जिस का एहसास शराब पीने के दौरान में कभी कभी हमीद के अंदर यूं पैदा होता है जैसे बे-ध्यान बैठे हुए आदमी की पिस्लियों में कोई ज़ोर से ठोका देदे। ...और पढ़े

26

सड़क के किनारे

“यही दिन थे..... आसमान उस की आँखों की तरह ऐसा ही नीला था जैसा कि आज है। धुला हुआ, हुआ.... और धूप भी ऐसी ही कनकनी थी... सुहाने ख़्वाबों की तरह। मिट्टी की बॉस भी ऐसी ही थी जैसी कि इस वक़्त मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में रच रही है..... और मैं ने इसी तरह लेटे लेटे अपनी फड़फड़ाती हुई रूह उस के हवाले कर दी थी।” ...और पढ़े

27

सब्ज़ सैंडिल

“आप से अब मेरा निबाह बहुत मुश्किल है मुझे तलाक़ दे दीजिए” “लाहौल वला कैसी बातें मुँह से निकाल रही तुम में सब से बड़ा ऐब एक यही है कि वक़तन फ़वक़तन तुम पर ऐसे दौरे पड़ते हैं कि होश-ओ-हवास खो देती हो” “आप तो बड़े होश-ओ-हवास के मालिक हैं चौबीस घंटे शराब के नशे में धुत रहते हैं” “मैं शराब ज़रूर पीता हूँ लेकिन तुम्हारी तरह बिन पिए मदहोश नहीं रहता। वाही तबाही नहीं बकता।” “गोया मैं वाही तबाही बक रही थी” ...और पढ़े

28

सरकण्डों के पीछे

कौन सा शहर था, इस के मुतअल्लिक़ जहां तक में समझता हूँ, आप को मालूम करने और मुझे बताने कोई ज़रूरत नहीं ।बस इतना ही कह देना काफ़ी है कि वो जगह जो इस कहानी से मुतअल्लिक़ है, पेशावर के मुज़ाफ़ात में थी। सरहद के क़रीब। और जहां वो औरत थी, उस का घर झोंपड़ा नुमा था……सरकण्डों के पीछे। घनी बाढ़ थी, जिस के पीछे उस औरत का मकान था, कच्ची मिट्टी का बना हुआ, चूँकि ये बाढ़ से कुछ फ़ासले पर था, इस लिए सरकण्डों के पीछे छिप सा गया था कि बाहर कच्ची सड़क पर से गुज़रने वाला कोई भी उसे देख नहीं सकता था। ...और पढ़े

29

सहाय

“ये मत कहो कि एक लाख हिंदू और एक लाख मुस्लमान मरे हैं...... ये कहो कि दो लाख इंसान हैं...... और ये इतनी बड़ी ट्रेजडी नहीं कि दो लाख इंसान मरे हैं, ट्रेजडी अस्ल में ये है कि मारने और मरने वाले किसी भी खाते में नहीं गए। एक लाख हिंदू मार कर मुस्लमानों ने ये समझा होगा कि हिंदू मज़हब मर गया है, लेकिन वो ज़िंदा है और ज़िंदा रहेगा। ...और पढ़े

30

साढ़े तीन आने

“मैंने क़तल क्यूँ किया। एक इंसान के ख़ून में अपने हाथ क्यूँ रंगे, ये एक लंबी दास्तान है । तक मैं उस के तमाम अवाक़िब ओ अवातिफ़ से आप को आगाह नहीं करूंगा, आप को कुछ पता नहीं चलेगा...... मगर उस वक़्त आप लोगों की गुफ़्तगु का मौज़ू जुर्म और सज़ा है। इंसान और जेल है...... चूँकि मैं जेल में रह चुका हूँ, इस लिए मेरी राय नादुरुस्त नहीं हो सकती। मुझे मंटो साहब से पूरा इत्तिफ़ाक़ है कि जेल, मुजरिम की इस्लाह नहीं कर सकती। मगर ये हक़ीक़त इतनी बार दुहराई जा चुकी है कि उस पर ज़ोर देने से आदमी को यूं महसूस होता है जैसे वो किसी महफ़िल में हज़ार बार सुनाया हुआ लतीफ़ा बयान कर रहा है....... और ये लतीफ़ा नहीं कि इस हक़ीक़त को जानते पहचानते हुए भी हज़ारहा जेल ख़ाने मौजूद हैं। ...और पढ़े

31

सोने कि अंगूठी

“छत्ते का छत्ता होगया आप के सर पर मेरी समझ में नहीं आता कि बाल न कटवाना कहाँ का है ” “फ़ैशन वेशन कुछ नहीं तुम्हें अगर बाल कटवाने पड़ें तो क़दर-ए-आफ़ियत मालूम हो जाये ” “”मैं क्यों बाल कटवाऊँ” “क्या औरतें कटवाती नहीं हज़ारों बल्कि लाखों ऐसी मौजूद हैं जो अपने बाल कटवाती हैं बल्कि अब तो ये फ़ैशन भी चल निकला है कि औरतें मर्दों की तरह छोटे छोटे बाल रखती हैं ” “लानत है उन पर ” “किस की ” ...और पढ़े

32

सौ कैंडल पॉवर का बल्ब

वो चौक में क़ैसर पार्क के बाहर जहां टांगे खड़े रहते हैं। बिजली के एक खंबे के साथ ख़ामोश था और दिल ही दिल में सोच रहा था। कोई वीरानी सी वीरानी है! यही पार्क जो सिर्फ़ दो बरस पहले इतनी पुर-रौनक़ जगह थी अब उजड़ी पचड़ी दिखाई थी। जहां पहले औरत और मर्द शोख़-ओ-शंग फ़ैशन के लिबासों में चलते फिरते थे। वहां अब बेहद मैले कुचैले कपड़ों में लोग इधर उधर बीम-क़सद फिर रहे थे। बाज़ार में काफ़ी भीड़ थी मगर इस में वो रंग नहीं था जो एक मैले ठेले का हुआ करता था। आस पास की सीमेंट से बनी हुई बिल्डिंगें अपना रूप खो चुकी थीं। सरझाड़ मुँह फाड़ एक दूसरे की तरफ़ फटी फटी आँखों से देख रही थीं। जैसे बेवा औरतें। ...और पढ़े

33

हारता चला गया

लोगों को सिर्फ़ जीतने में मज़ा आता है। लेकिन उसे जीत कर हार देने में लुत्फ़ आता है। जीतने में कभी इतनी दिक़्क़त महसूस नहीं हुई। लेकिन हारने में अलबत्ता उसे कई दफ़ा काफ़ी तग-ओ-दो करना पड़ी। शुरू शुरू में बैंक की मुलाज़मत करते हुए जब उसे ख़याल आया कि उस के पास भी दौलत के अंबार होने चाहिऐं तो उस के अज़ीज़-ओ-अका़रिब और दोस्तों ने इस ख़याल का मज़हका उड़ाया था मगर जब वो बैंक की मुलाज़मत छोड़ कर बंबई चला गया तो थोड़े ही अर्सा के बाद उस ने अपने दोस्तों और अज़ीज़ों की रुपय पैसे से मदद करना शुरू कर दी। ...और पढ़े

अन्य रसप्रद विकल्प