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संग्राम अंक 4

संग्राम

प्रेमचंद

अंक 4

पहला दृश्य

स्थान: मधुबन। थानेदार, इंस्पेक्टर और कई सिपाहियों का प्रवेश।

इंस्पेक्टर : एक हजार की रकम एक चीज होती है।

थानेदार : बेशक !

इंस्पेक्टर : और करना कुछ नहीं दो-चार शहादतें बनाकर खाना तलाशी कर लेनी है।

थानेदार : गांव वाले तो सबलसिंह ही के खिलाफ होंगे।

इंस्पेक्टर : आजकल बड़े-से-बड़े आदमी को जब चाहें गांस लें। कोई कितना ही मुआफिज हो, अफसरों के यहां उसकी कितनी ही रसाई हो, इतना कह दीजिए कि हुजूर, यह तो सुराज का हामी है, बस सारे हुक्काम उसके जानी दुश्मन हो जाते हैं। फिर वह गरी। अपनी कितनी ही सगाई दिया करे, अपनी वफादारी के कितने ही सबूत पेश करता फिरे, कोई उसकी नहीं सुनता। सबलसिंह की इज्जत हुक्काम की नजरों में कम नहीं थी। उनके साथ दावतें खाते थे, घुड़दौड़ में शरीक होते थे, हर एक जलसे में शरीक किए जाते थे, पर मेरे एक फिकरे ने हजरत का सारा रंग फीका कर दिया । साहब ने फौरन हुक्म दिया कि जाकर उसकी तलाशी लो और कोई सबूत दस्तया। हो तो गिरफ्तारी का वारंट ले जाओ !

थानेदार : आपने क्या फिकरा जमाया था। ?

इंस्पेक्टर : अजी कुछ नहीं, महज इतना कहा था। कि आजकल यहां सुराज की बड़ी धूम है। ठाकुर सबलसिंह पंचायतें कायम कर रहे हैं। इतना सुनना था। कि साहब का चेहरा सुर्ख हो गया। बोले: दगाबाज आदमी है। मिलकर वार करना चाहता है, फौरन उसके खिलाफ सबूत पैदा करो। इसके कब्ल मैंने कहा था।, हुजूर, यह बड़ा जिनाकार आदमी है, अपने एक असामी की औरत को निकाल लाया है। इस पर सिर्फ मुस्कराए, तीवरों पर जरा भी मैल नहीं आयी। तब मैंने यह चाल चली। यह लो, गांव के मुखिया आ गए, जरा रोब जमा दूं।

मंगई, हरदास, फत्तू आदि का प्रवेश। सलोनी भी पीछे-पीछे आती है और अलग खड़ी हो जाती है।

इंस्पेक्टर : आइए शेख जी, कहिए खैरियत तो है ?

फत्तू : (मन में) सबलसिंह के नेक और दयावान होने में कोई संदेह नहीं कभी हमारे उसपर सख्ती नहीं की। हमेशा रिआयत ही करते रहे, पर आंख का लगना बुरा होता है। पुलिस वाले न जाने उन्हें किस-किस तरह सताएंगी। कहीं जेहल न भिजवा देंब राजेश्वरी को वह जबरदस्ती थोड़े ही ले गए। वह तो अपने मन से गई। मैंने चेतनदास बाबा को नाहक इस बुरे काम में मदद दी। किसी तरह सबलसिंह को बचाना चाहिए । (प्रकट) सब अल्लाह का करम है।

इंस्पेक्टर : तुम्हारे जमींदार साहब तो खूब रंग लाये। कहां तो वह पारसाई और कहां यह हरकत।

फत्तू : हुजूर, हमको तो कुछ मालूम नहीं।

इंस्पेक्टर : तुम्हारे बचाने से अब वह नहीं बच सकते। अब तो आ गए शेर के पंजे में। अपना बयान दीजिए। यहां गांव में पंचायत किसने कायम की ?

फत्तू : हुजूर, गांव के लोगों ने मिलकर कायम की, जिसमें छोटी-छोटी बातों के पीछे अदालत की ठोकरें न खानी पड़ें।

इंस्पेक्टर : सबलसिंह ने यह कहा कि अदालतों में जाना गुनाह है ?

फत्तू : हुजूर, उन्होंने ऐसी बात तो नहीं कही, हां पंचायत के फायदे बताये थे।

इंस्पेक्टर : उन्होंने तुम लोगों को बेगार बंद करने की ताकीद नहीं की ? सच बोलना, खुदा तुम्हारे सामने है।

फत्तू : (बगलें झांकते हुए) हुजूर, उन्होंने यह तो नहीं कहा । हां, यह जरूर कहा कि जो चीज दो उसका मुनासिब दाम लो।

इंस्पेक्टर : वह एक ही बात हुई अच्छा, उस गांव में शराब की दुकान थी वह किसने बंद करायी ?

फत्तू : हुजूर, ठीकेदार ने आप ही बंद कर दी, उसकी बिक्री न होती थी।

इंस्पेक्टर : सबलसिंह ने सबसे यह नहीं कहा कि जो उस दुकान पर जाये उसे पंचायत में सजा मिलनी चाहिए ।

फत्तू : (मन में) इसको जरा-जरा-सी बातों की खबर है। (प्रकट) हुजूर, मुझे याद नहीं।

इंस्पेक्टर : शेखजी, तुम कन्नी काट रहे हो, इसका नतीजा अच्छा नहीं है। दारोगा जी ने तुम्हारा जो बयान लिखा है उस पर चुपके से दस्तखत कर दो, वरना जमींदार तो न बचेंगे, तुम अलबत्ता गेहूँ के साथ घुन की तरह पिस जाओगे।

फत्तू : हुजूर का अखतियार है, जो चाहें करें, पर मैं तो वही कहूँगा जो जानता हूँ।

इंस्पेक्टर : तुम्हारा क्या नाम है ?

मंगई : (सामने आकर) मंगई।

इंस्पेक्टर : जो पूछा जाये उसका साफ-साफ जवाब देना । इधर-उधर किया तो तुम जानोगे। पुलिस का मारा पानी नहीं मांगता। यहां गांव में पंचायत किसने कायम की ?

मंगई : (मन में) मैं तो जो यह चाहेंगे वही कहूँगा। पीछे देखी जाएगी। गालियां देने लगें या पिटवाने ही लगें तो इनका क्या बना लूंगा? सबलसिंह तो मुझे बचा न देंगे। (प्रकट) ठाकुर सबलसिंह ने।

इंस्पेक्टर : उन्होंने तुम लोगों से कहा था न कि सरकारी अदालत में जाना पाप है। जो सरकारी अदालत में जाये उसका हुक्का-पानी बंद कर दो।

मंगई : (मन में) यह तो नहीं कहा था। खाली अदालतों के खर्च से बचने के लिए पंचायत खोलने की ताकीद की थी। पर ऐसा कह दूं तो अभी यह जामे से बाहर हो जाए। (प्रकट) हां हुजूर, कहा था, बात सच्ची कहूँगा। जमींदार आकबत में थोड़े ही साथ देंगे।

इंस्पेक्टर : सबलसिंह ने यह नहीं कहा था कि किसी हाकिम को बेगार मत दो ?

मंगई : (मन में) उन्होंने तो इतना ही कहा था कि मुनासिब दाम लेकर दो। (प्रकट) हां हुजूर, कहा था, कहा था।सच्ची बात कहने में क्या डर ?

इंस्पेक्टर : शराब और गांजे की दुकान तोड़वाने की तहरीर उनकी तरफ से हुई थी न ?

मंगई : बराबर हुई थी। जो शराब गांजा पिए उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता था।

इंस्पेक्टर : अच्छा, अपने बयान पर अंगूठे का निशान दो। तुम्हारा क्या नाम है जी ? इधर आओ।

हरदास : (सामने आकर) हरदास।

इंस्पेक्टर : सच्चा बयान देना जैसा मंगई ने दिया है, वरना तुम जानोगे।

हरदास : (मन में) सबलसिंह तो अब बचते नहीं, मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं ? यह जो कुछ कहलाना चाहते हैं मैं उससे चार बात ज्यादा ही कहूँगा। यह हाकिम हैं, खुश होकर मुखिया बना दें तो साल में सौ-दो सौ रूपये अनायास ही हाथ लगते रहैं। (प्रकट) हुजूर, जो कुछ जानता हूँ वह रत्ती-रत्ती कह दूंगा।

इंस्पेक्टर : तुम समझदार आदमी मालूम होते हो, अपना नफा-नुकसान समझते हो, यहां पंचायत के बारे में क्या जानते हो ?

हरदास : हुजूर, ठाकुर सबलसिंह ने खुलवायी थी। रोज यही कहा करें कि कोई आदमी सरकारी अदालत में न जाये। सरकार के इसटाम क्यों खरीदो। अपने झगड़े आप चुका लो।फिर न तुम्हें पुलिस का डर रहेगा न सरकार का। एक तरह से तुम अदालतों को छोड़ देने से ही सुराज पा जाओगे। यह भी हुक्म दिया था। कि जो आदमी अदालत जाये उसका हुक्का-पानी बंद कर देना चाहिए ।

इंस्पेक्टर : बयान ऐसा होना चाहिए । अच्छा, सबलसिंह ने बेगार के बारे में तुमसे क्या कहा था। ?

हरदास : हुजूर, वह तो खुल्लमखुल्ला कहते थे कि किसी को बेगार मत दो, चाहे बादशाह ही क्यों न हो, अगर कोई जबरदस्ती करे तो अपना और उसका खून एक कर दो।

इंस्पेक्टर : ठीक है। शराब गांजे की दुकान कैसे बंद हुई ?

हरदास : हुजूर, बंद न होती तो क्या करती, कोई वहां खड़ा नहीं होने पाता था।ठाकुर साहब ने हुक्म दे दिया था। कि जिसे वहां खड़े, बैठे, या खरीदते पाओ उसके मुंह में कालिख लगाकर सिर पर सौ जूते लगाओ।

इंस्पेक्टर : बहुत अच्छा। अंगूठे का निशान कर दो। हम तुमसे बहुत खुश हुए।

सलोनी गाती है:

सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का

इंस्पेक्टर : यह पगली क्या गा रही है ? अरी पगली इधर आ।

सलोनी : (सामने आकर) सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का ?

इंस्पेक्टर : दारोगा जी, इसका बयान भी लिख लीजिए।

सलोनी : हां, लिख लो।ठाकुर सबलसिंह मेरी बहू को घर से भगा ले गए और पोते को जेहल भिजवा दिया ।

इंस्पेक्टर : यह फजूल बातें मैं नहीं पूछता। बता यहां उन्होंने पंचायत खोली है न ?

सलोनी : यह फजूल बातें मैं क्या जानूं ? मुझे पंचायत से क्या लेना-देना है। जहां चार आदमी रहते हैं वहां पंचायत रहती ही है। सनातन से चली आती है, कोई नयी बात है ? इन बातों से पुलिस से क्या मतलब ? तुम्हें तो देखना चाहिए, सरकार के राज में भले आदमियों की आबरू रहती है कि लुटती है। सो तो नहीं, पंचायत और बेगार का रोना ले बैठे। बेगार बंद करने को सभी कहते हैं। गांव के लोगों को आप ही अखरता है। सबलसिंह ने कह दिया तो क्या अंधेर हो गया। शराब, ताड़ी, गांजा, भांग पीने को सभी मना करते हैं। पुरान, भागवत, साधु-संत सभी इसको निखिद्व कहते हैं। सबलसिंह ने कहा- ' तो क्या नयी बात कही ? जो तुम्हारा काम है वह करो, ऊटपटांग बातों में क्यों पड़ते हो ?

इंस्पेक्टर : बुढ़िया शैतान की खाला मालूम होती है।

थानेदार : तो इन गवाहों को अब जाने दूं ?

इंस्पेक्टर : जी नहीं, अभी रिहर्सल तो बाकी है। देखो जी, तुमने मेरे रू-ब-रू जो बयान दिया है वही तुम्हें बड़े साहब के इजलास पर देना होगी। ऐसा न हो, कोई कुछ कहे, कोई कुछ, मुकदमा भी बिगड़ जाये और तुम लोग भी गलतबयानी के इल्जाम में धर लिये जाओ। दारोगाजी शुरू कीजिए। तुम लोग सब साथ-साथ वही बातें कहो जो दारोगाजी की जबान से निकलें।

दारोगा : ठाकुर सबलसिंह कहते थे कि सरकारी अदालतों की जड़ खोद डालो, भूलकर भी वहां न जाओ। सरकार का राज अदालतों पर कायम है । अदालत को तर्क कर देने से राज की बुनियाद हिल जाएगी।

सब-के-सब यही बात दुहराते हैं।

दारोगा : अपने मुआमले पंचायतों में तै कर लो।

सब-के-सब : अपने मुआमले पंचायतों में तै कर लो।

दारोगा : उन्होंने हुक्म दिया था। कि किसी अफसर को बेगार मत दो।

सब-के-सब : उन्होंने हुक्म दिया था। कि किसी अफसर को बेगार मत दो।

दारोगा : बेगार न मिलेगी तो कोई दौरा करने न आएगी। तुम लोग जो चाहना, करना। यह सुराज की दूसरी सीढ़ी है।

सब-के-सब : बेगार न मिलेगी तो कोई दौरा करने न आएगी। यह सुराज की दूसरी सीढ़ी है।

दारोगा : यह और कहो, तुम लोग जो जी चाहे करना।

इंस्पेक्टर : यही जुमला तो जान है।

सब-के-सब : तुम लोग जो जी चाहे करना।

दारोगा : उन्होंने हुक्म दिया था। कि जो नशे की चीजें खरीदे उसका हुक्का-पानी बंद कर दो।

सब-के-सब : उन्होंने हुक्म दिया था। कि जो नशे की चीजें खरीदे उसका हुक्का-पानी बंद कर दो।

दारोगा : अगर इतने पर भी न माने तो उसके घर में आग लगा दो।

सब-के-सब : अगर इतने पर भी न माने तो उसके घर में आग लगा दो।

दारोगा : उसके मुंह में कालिख लगाकर सौ जूते लगाओ

सब-के-सब : उसके मुंह में कालिख लगाकर सौ जूते लगाओ

दारोगा : जो आदमी विलायती कपड़े खरीदे उसे गधे पर सवार कराके गांव-भर में घुमाओ।

सब-के-सब : जो आदमी विलायती कपड़े खरीदे उसे गधे पर सवार कराके गांव-भर में घुमाओ।

दारोगा : जो पंचायत का हुक्म न माने उसे उल्टे लटकाकर पचास बेंत लगाओ

सब-के-सब : जो पंचायत का हुक्म न माने उसे उल्टे लटकाकर पचास बेंत लगाओ।

दारोगा : (इंस्पेक्टर से) इतना तो काफी होगा।

इंस्पेक्टर : इतना उन्हें जहन्नुम भेजने के लिए काफी है। तुम लोग देखो, खबरदार, इसमें एक हर्फ का भी उलटफेर न हो, अच्छा अब चलना चाहिए । (कानिसटिब्लों से) देखो, बकरे हों तो दो पकड़ लो।

सिपाही : बहुत अच्छा हुजूर, दो नहीं चार।

दारोगा : एक पांच सेर घी भी लेते चलो।

सिपाही : अभी लीजिए, सरकार!

दारोगा और इंस्पेक्टर का प्रस्थान। सलोनी गाती है।

सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का।

अब तो मैं पहनूं अतलस का लहंगा

और चबाऊँ पान।

द्वारे बैठ नजारा मारूं।

सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का।

फत्तू : काकी, गाती ही रहेगी ?

सलोनी : जा तुझसे नहीं बोलती। तू भी डर गया।

फत्तू : काकी, इन सभी से कौन लड़ता ? इजलास पर जाकर जो सच्ची बात है, वह कह दूंगा।

मंगई : पुलिस के सामने जमींदार कोई चीज नहीं ।

हरदास : पुलिस के सामने सरकार कोई चीज नहीं ।

सलोनी : सच्चाई के सामने जमींदार-सरकार कोई चीज नहीं ।

मंगई : सच बोलने में निबाह नहीं है।

हरदास : सच्चे की गर्दन सभी जगह मारी जाती है।

सलोनी : अपना धर्म तो नहीं बिगड़ता। तुम कायर हो, तुम्हारा मुंह देखना पाप है। मेरे सामने से हट जाओ।

प्रस्थान।

दूसरा दृश्य

स्थान: सबलसिंह का कमरा।

समय: दस बजे दिन।

सबल : (घड़ी की तरफ देखकर) दस बज गए। हलधर ने अपना काम पूरा कर लिया। वह नौ बजे तक गंगा से लौट आते थे।कभी इतनी देर न होती थी। अब राजेश्वरी फिर मेरी हुई चाहे ओढूं, बिछाऊँ या गले का हार बनाऊँ। प्रेम के हाथों यह दिन देखने की नौबत आएगी, इसकी मुझे जरा भी शंका न थी। भाई की हत्या की कल्पना मात्र से ही रोयें खड़े हो जाते हैं। इस कुल का सर्वनाश होने वाला है। कुछ ऐसे ही लक्षण दिखाई देते हैं। कितना उदार, कितना सच्चा ! मुझसे कितना प्रेम, कितनी श्रद्वा थी। पर हो ही क्या सकता था। ? एक म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती थीं ? संसार में प्रेम ही वह वस्तु है, जिसके हिस्से नहीं हो सकते। यह अनौचित्य की पराकाष्ठा थी कि मेरा छोटा भाई, जिसे मैंने सदैव अपना पुत्र समझा, मेरे साथ यह पैशाचिक व्यवहार करे। कोई देचता भी यह अमर्यादा नहीं कर सकता था।यह घोर अपमान ! इसका परिणाम और क्या होता ? यही आपत्ति-धर्म था।इसके लिए पछताना व्यर्थ है (एक क्षण के बाद) जी नहीं मानता, वही बातें याद आती हैं। मैंने कंचन की हत्या क्यों कराई ? मुझे स्वयं अपने प्राण देने चाहिए थे।मैं तो दुनिया का सुख भोग चुका था। ! स्त्री-पुत्र सबका सुख पा चुका था।उसे तो अभी दुनिया की हवा तक न लगी थी। उपासना और आराधना ही उसका एकमात्र जीवनाधार थी। मैंने बड़ा अत्याचार किया।

अचलसिंह का प्रवेश।

अचल : बाबूजी, अब तक चाचाजी गंगास्नान करके नहीं आये ?

सबल : हां, देर तो हुई अब तक तो आ जाते थे।

अचल : किसी को भेजिए, जाकर देख आए।

सबल : किसी से मिलने चले गए होंगे।

अचल : मुझे तो जाने क्यों डर लग रहा है । आजकल गंगाजी बढ़ रही हैं।

सबलसिंह कुछ जवाब नहीं देते।

अचल : वह तैरने दूर निकल जाते थे।

सबल चुप रहते हैं।

अचल : आज जब वह नहाने जाते थे तो न जाने क्यों मुझे देखकर उनकी आंखें भर गयी थीं।मुझे प्यार करके कहा था।, ईश्वर तुम्हें चिरंजीवी करे। इस तरह तो कभी आशीष नहीं देते थे।

सबल रो पड़ते हैं और वहां से उठकर बाहर बरामदे में चले जाते हैं। अचल कंचनसिंह के कमरे की ओर जाता है।

सबल : (मन में) अब पछताने से क्या फायदा ? जो कुछ होना था।, हो चुका । मालूम हो गया कि काम के आवेग में बुद्वि, विद्या, विवेक सब साथ छोड़ देते हैं। यही भावी थी, यही होनहार था।, यही विधाता की इच्छा थी। राजेश्वरी, तुझे ईश्वर ने क्यों इतनी रूप-गुणशीला बनाया ? पहले पहले जब मैंने तुझसे बात की थी, तूने मेरा तिरस्कार क्यों न किया, मुझे कटु शब्द क्यों न सुनाये ? मुझे कुत्ते की भांति दुत्कार क्यों न दिया ? मैं अपने को बड़ा सत्यवादी समझा करता था।पर पहले ही झोंके में उखड़ गया, जड़ से उखड़ गया। मुलम्मे को मैं असली रंग समझ रहा था।पहली ही आंच में मुलम्मा उड़ गया। अपनी जान बचाने के लिए मैंने कितनी घोर धूर्तता से काम लिया। मेरी लज्जा, मेरा आत्माभिमान, सबकी क्षति हो गयी ! ईश्वर करे, हलधर अपना वार न कर सका हो और मैं कंचन को जीता जागता आते देखूं। मैं राजेश्वरी से सदैव के लिए नाता तोड़ लूंगा। उसका मुंह तक न देखूंगा। दिल पर जो कुछ बीतेगी झेल लूंगा।

अधीर होकर बरामदे में निकल आते हैं और रास्ते की ओर टकटकी लगाकर देखते हैं। (ज्ञानी का प्रवेश)

ज्ञानी : अभी बाबूजी नहीं आये। ग्यारह बज गए। भोजन ठंडा हो रहा है। कुछ कह नहीं गए, कब तक आयेंगे ?

सबल : (कमरे में आकर) मुझसे तो कुछ नहीं कहा ।

ज्ञानी : तो आप चलकर भोजन कर लीजिए।

सबल : उन्हें भी आ जाने दो। तब तक तुम लोग भोजन करो।

ज्ञानी : हरज ही क्या है, आप चलकर खा लें। उनका भोजन अलग रखवा दूंगी। दोपहर तो हुआ।

सबल : (मन में) आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने घर पर अकेले भोजन किया हो, ऐसे भोजन करने पर धिक्कार है। भाई का वध करके मैं भोजन करने जाऊँ और स्वादिष्ट पदार्थों का आनंद उठाऊँ। ऐसे भोजन करने पर लानत है। (प्रकट) अकेले मुझसे भोजन न किया जायेगी।

ज्ञानी : तो किसी को गंगाजी भेज दो। पता लगाये कि क्या बात है। कहां चले गए ? मुझे तो याद नहीं आता कि उन्होंने कभी इतनी देर लगायी हो, जरा जाकर उनके कमरे में देखूं, मामूली कपड़े पहनकर गए हैं या अचकन-पजामा भी पहना है।

जाती है और एक क्षण में लौट आती है।

ज्ञानी : कपड़े तो साधारण ही पहनकर गए हैं, पर कमरा न जाने क्यों भांय-भांय कर रहा है, वहां खड़े होते एक भय-सा लगता था।ऐसी शंका होती है कि वह अपनी मसनद पर बैठे हुए हैं, पर दिखाई नहीं देते। न जाने क्यों मेरे तो रोयें खड़े हो गए और रोना आ गया। किसी को भेजकर पता लगवाइए।

सबल दोनों हाथों से मुंह छिपाकर रोने लगता है।

ज्ञानी : हाय, यह आप क्या करते हैं ! इस तरह जी छोटा न कीजियेब वह अबोध बालक थोड़े ही हैं। आते ही होंगे ।

सबल : (रोते हुए) आह, ज्ञानी ! अब वह घर न आयेंगी। अब हम उनका मुंह फिर न देखेंगी।

ज्ञानी : किसी ने कोई बुरी खबर कही है क्या ? (सिसकियां लेती है।)

सबल : (मन में) अब मन में बात नहीं रह सकती। किसी तरह नहीं वह आप ही बाहर निकली पड़ती है। ज्ञानी से मुझे इतना प्रेम कभी न हुआ था।मेरा मन उसकी ओर खिंचा जाता है। (प्रकट) जो कुछ किया है मैंने ही किया है। मैं ही विष की गांठ हूँ। मैंने ईर्ष्या के वश होकर यह अनर्थ किया है। ज्ञानी, मैं पापी हूँ, राक्षस हूँ, मेरे हाथ अपने भाई के खून से रंगे हुए हैं, मेरे सिर पर भाई का खून सवार है। मेरी आत्मा की जगह अब केवल कालिमा की रेखा है ! ह्रदय के स्थान पर केवल पैशाचिक निर्दयता। मैंने तुम्हारे साथ दगा की है। तुम और सारा संसार मुझे एक विचारशील, उदार, पुण्यात्मा पुरूष समझते थे, पर मैं महान् पानी, नराधम, धूर्त हूँ। मैंने अपने असली स्वरूप को सदैव तुमसे छिपाया । देवता के रूप में मैं राक्षस था।मैं तुम्हारा पति बनने योग्य न था। मैंने एक पति-परायणा स्त्री को कपट चालों से निकाला, उसे लाकर शहर में रखा। कंचनसिंह को भी मैंने वहां दो-तीन बार बैठे देखा । बस, उसी क्षण से मैं ईर्ष्या की आग में जलने लगा और अंत में मैंने एक हत्यारे के हाथों(रोकर) भैया को कैसे पाऊँ ? ज्ञानी, इन तिरस्कार के नेत्रों से न देखो। मैं ईश्वर से कहता हूँ, तुम कल मेरा मुंह न देखोगी। मैं अपनी आत्मा को कलुषित करने के लिए अब और नहीं जीना चाहता। मैं अपने पापों का प्रायश्चित एक ही दिन में समाप्त कर दूंगा। मैंने तुम्हारे साथ दगा की, क्षमा करना।

ज्ञानी : (मन में) भगवन्! पुरूष इतने ईर्ष्यालु, इतने विश्वासघाती, इतने क्रूर, वज्र-ह्रदय होते हैं! अगर मैंने स्वामी चेतनदास की बात पर विश्वास किया होता तो यह नौबत न आने पाती। पर मैंने तो उनकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया । यह उसी अश्रद्वा का दण्ड है। (प्रकट) मैं आपको इससे ज्यादा विचारशील समझती थी। किसी दूसरे के मुंह से ये बातें सुनकर मैं कभी विश्वास न करती।

सबल : ज्ञानी, मुझे सच्चे दिल से क्षमा करो। मैं स्वयं इतना दु: खी हूँ कि उस पर एक जौ का बोझ भी मेरी कमर तोड़ देगी। मेरी बुद्वि इस समय भ्रष्ट हो गई है। न जाने क्या कर बैठूंब मैं आपे में नहीं हूँ। तरह-तरह के आवेग मन में उठते हैं। मुझमें उनको दबाने की सामर्थ्य नहीं है। कंचन के नाम से एक धर्मशाला और ठाकुरद्वारा अवश्य बनवाना। मैं तुमसे यह अनुरोध करता हूँ, यह मेरी अंतिम प्रार्थना है। विधाता की यह वीभत्स लीला, यह पैशाचिक तांडव जल्द समाप्त होने वाला है। कंचन की यही जीवन-लालसा थी। इन्हीं लालसाओं पर उसने जीवन के सब आनंदों, सभी पार्थिव सुखों को अर्पण कर दिया था।अपनी लालसाओं को पूरा होते देखकर उसकी आत्मा प्रसन्न होगी और इस कुटिल निर्दय आघात को क्षमा कर देगी।

अचलसिंह का प्रवेश।

ज्ञानी : (आंखें पोंछकर) बेटा, क्या अभी तुमने भी भोजन नहीं किया?

अचल : अभी चाचाजी तो आए ही नहीं आज उनके कमरे में जाते हुए न जाने क्यों भय लगता है। ऐसा मालूम होता है कि वह कहीं छिपे बैठे हैं और दिखाई नहीं देते। उनकी छाया कमरे में छिपी हुई जान पड़ती है।

सबल : (मन में) इसे देखकर चित्त कातर हो रहा है। इसे फलते-फूलते देखना मेरे जीवन की सबसे बड़ी लालसा थी। कैसा चतुर, सुशील, हंसमुख लड़का है। चेहरे से प्रतिभा टपक पड़ती है। मन में क्या-क्या इरादे थे। इसे जर्मनी भेजना चाहता था।संसार-यात्रा कराके इसकी शिक्षा को समाप्त करना चाहता था।इसकी शक्तियों का पूरा विकास करना चाहता था।, पर सारी आशाएं धूल में मिल गई।(अचल को गोद में लेकर) बेटा, तुम जाकर भोजन कर लो, मैं तुम्हारे चाचाजी को देखने जाता हूँ।

अचल : आप लोग आ जाएंगे तो साथ ही मैं भी खाऊँगी। अभी भूख नहीं है।

सबल : और जो मैं शाम तक न आऊँ ?

अचल : आधी रात तक आपकी राह देखकर तब खा लूंगा, मगर आप ऐसा प्रश्न क्यों करते हैं ?

सबल : कुछ नहीं, यों ही। अच्छा बताओ, मैं आज मर जाऊँ तो तुम क्या करोगे ?

ज्ञानी : कैसे असगुन मुंह से निकालते हो!

अचल : (सबलसिंह की गर्दन में हाथ डालकर) आप तो अभी जवान हैं, स्वस्थ हैं, ऐसी बातें क्यों सोचते हैं ?

सबल : कुछ नहीं, तुम्हारी परीक्षा करना चाहता हूँ।

अचल : (सबल की गोद में सिर रखकर) नहीं, कोई और ही कारण है। (रोकर) बाबूजी, मुझसे छिपाइए न, बताइए। आप क्यों इतने उदास हैं, अम्मां क्यों रो रही हैं ? मुझे भय लग रहा है। जिधर देखता हूँ उधर ही बेरौनकी-सी मालूम होती है, जैसे पिंजरे में से चिड़िया उड़ गई हो,

कई सिपाही और चौकीदार बंदूकें और लाठियां लिए हाते में घुस आते हैं, और थानेदार तथा। इंस्पेक्टर और सुपरिंटेंडेंट घोड़ों से उतरकर बरामदे में खड़े हो जाते हैं। ज्ञानी भीतर चली जाती है। और सबल बाहर निकल आते हैं।

इंस्पेक्टर : ठाकुर साहब, आपकी खानातलाशी होगी। यह वारंट है।

सबल : शौक से लीजिए।

सुपरिंटेंडेंट : हम तुम्हारा रियासत छीन लेगी। हम तुमको रियासत दिया है, तब तुम इतना बड़ा आदमी बना है और मोटर में बैठा घूमता है। तुम हमारा बनाया हुआ है। हम तुमको अपने काम के लिए रियासत दिया है और तुम सरकार से दुश्मनी करता है। तुम दोस्त बनकर तलवार मारना चाहता है। दगाबाज है। हमारे साथ पोलो खेलता है, क्लब में बैठता है, दावत खाता है और हमीं से दुश्मनी रखता है। यह रियासत तुमको किसने दिया ?

सबल : (सरोष होकर) मुगल बादशाहों ने। हमारे खानदान में पच्चीस पुश्तों से यह रियासत चली आती है।

सुपरिंटेंडेंट : झूठ बोलता है। मुगल लोग जिसको चाहता था। जागीर देता था।, जिससे नाराज हो जाता था। उससे जागीर छीन लेता था।जागीरदार मौरूसी नहीं होता था।तुम्हारा बुजुर्ग लोग मुगल बादशाहों से ऐसा बदखाही करता जैसा तुम हमारे साथ कर रहा है, तो जागीर छिन गया होता। हम तुमको असामियों से लगान वसूल करने के लिए कमीसन देता है और तुम हमारा जड़ खोदना चाहता है। गांव में पंचायत बनाता है, लोगों को ताड़ी-शराब पीने से रोकता है, हमारा रसद-बेगार बंद करता है। हमारा गुलाम होकर हमको आंखें दिखाता है। जिस बर्तन में पानी पीता है उसी में छेद करता है। सरकार चाहे तो एक घड़ी में तुमको मिट्टी में मिला दे सकता है। (दोनों हाथ से चुटकी बजाता है।)

सबल : आप जो काम करने आए हैं वह काम कीजिए और अपनी राह लीजिए। मैं आपसे सिविक्स और पालिटिक्स के लेक्चर नहीं सुनना चाहता।

सुपरिंटेंडेंट : हम न रहें तो तुम एक दिन भी अपनी रियासत पर काबू नहीं पा सकता।

सबल : मैं आपसे डिसकशन (बहस) नहीं करना चाहता। पर यह समझ रखिए कि अगर मान लिया जाय, सरकार ने ही हमको बनाया तो उसने अपनी रक्षा और स्वार्थ-सिद्वि के ही लिए यह पालिसी कायम की। जमींदारों की बदौलत सरकार का राज कायम है। जब-जब सरकार पर कोई संकट पड़ा है, जमींदारों ने ही उसकी मदद की है। अगर आपका खयाल है कि जमींदारों को मिटाकर आप राज्य कर सकते हैं तो भूल है। आपकी हस्ती जमींदारों पर निर्भर है।

सुपरिंटेंडेंट : हमने अभी किसानों के हमले से तुमको बचाया, नहीं तो तुम्हारा निशान भी न रहता।

सबल : मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता।

सुपरिंटेंडेंट : हम तुमसे चाहता है कि जब रैयत के दिल में बदखाही पैदा हो तो तुम हमारा मदद करे। सरकार से पहले वही लोग बदखाही करेगा जिसके पास जायदाद नहीं है, जिसका सरकार से कोई कनेक्शन (संबंध) नहीं है। हम ऐसे आदमियों का तोड़ करने के लिए ऐसे लोगों को मजबूत करना चाहता है जो जायदाद वाला है और जिसका हस्ती सरकार पर है। हम तुमसे रैयत को दबाने का काम लेना चाहता है।

सबल : और लोग आपको इस काम में मदद दे सकते हैं, मैं नहीं दे सकता। मैं रैयत का मित्र बनकर रहना चाहता हूँ, शत्रु बनकर नहीं अगर रैयत को गुलामी में जकड़े और अंधकार में डाले रखने के लिए जमींदारों की सृष्टि की गई है तो मैं इस अत्याचार का पुरस्कार न लूंगा चाहे वह रियासत ही क्यों न हो, मैं अपने देश-बंधुओं के मानसिक और आत्मिक विकास का इच्छुक हूँ। दूसरों को मूर्ख और अशक्त रखकर अपना ऐश्वर्य नहीं चाहता।

सुपरिंटेंडेंट : तुम सरकार से बगावत करता है।

सबल : अगर इसे बगावत कहा जाता है तो मैं बागी ही हूँ।

सुपरिंटेंडेंट : हां, यही बगावत है। देहातों में पंचायत खोलना बगावत है, लोगों को शराब पीने से रोकना बगावत है, लोगों को अदालतों में जाने से रोकना बगावत है। सरकारी आदमियों का रसद बेगार बंद करना बगावत है।

सबल : तो फिर मैं बागी हूँ।

अचल : मैं भी बागी हूँ ।

सुपरिंटेंडेंट : गुस्ताख लड़का।

इंस्पेक्टर : हुजूर, कमरे में चलें, वहां मैंने बहुत-से कागजात जमा कर रखे हैं।

सुपरिंटेंडेंट : चलो।

इंस्पेक्टर : देखिए, यह पंचायतों की फेहरिस्त है और पंचों के नाम हैं।

सुपरिंटेंडेंट : बहुत काम का चीज है।

इंस्पेक्टर : यह पंचायतों पर एक मजमून है।

सुपरिंटेंडेंट : बहुत काम का चीज है।

इंस्पेक्टर : यह कौम के लीडरों की तस्वीरों का अल्बम है।

सुपरिंटेंडेंट : बहुत काम का चीज है।

इंस्पेक्टर : यह चंद किताबें हैं, मैजिनी के मजामीन, वीर हारडी का हिन्दुस्तान का सफरनामा, भक्त प्रफ्लाद का वृतान्त, टारुल्स्टाय की कहा - 'नियांब

सुपरिंटेंडेंट : सब बड़े काम का चीज है।

इंस्पेक्टर : यह मिसमेरिजिम की किता। है।

सुपरिंटेंडेंट : ओह, यह बड़े काम का चीज है।

इंस्पेक्टर : यह दवाइयों का बक्स है।

सुपरिंटेंडेंट : देहातियों को बस में करने के लिए ! यह भी बहुत काम का चीज है।

इंस्पेक्टर : यह मैजिक लालटेन है।

सुपरिंटेंडेंट : बहुत ही काम का चीज है।

इंस्पेक्टर : यह लेन-देन का बही है।

सुपरिंटेंडेंट : मोस्ट इम्पार्टेंट ! बड़े काम का चीज। इतना सबूत काफी है। अब चलना चाहिए ।

एक कानिस्टिबल : हुजूर, बगीचे में एक अखाड़ा भी है।

सुपरिंटेंडेंट : बहुत बड़ा सबूत है।

दूसरा कानिस्टिबल : हुजूर, अखाड़े के आगे एक गऊशाला भी है। कई गायें-भैंसें बंधी हुई हैं।

सुपरिंटेंडेंट : दूध पीता है जिसमें बगावत करने के लिए ताकत हो जाए। बहुत बड़ा सबूत है। वेल सबलसिंह, हम तुमको गिरफ्तारी करता है।

सबल : आपको अधिकार है।

चेतनदास का प्रवेश।

इंस्पेक्टर : आइए स्वामीजी, तशरीफ लाइए।

चेतनदास : मैं जमानत देता हूँ।

इंस्पेक्टर : आप ! यह क्योंकर!

सबल : मैं जमानत नहीं देना चाहता। मुझे गिरफ्तारी कीजिए।

चेतनदास : नहीं, मैं जमानत दे रहा हूँ।

सबल : स्वामीजी, आप दया के स्वरूप हैं, पर मुझे क्षमा कीजिएगा, मैं जमानत नहीं देना चाहता।

चेतनदास : ईश्वर की इच्छा है कि मैं तुम्हारी जमानत करूं।

सुपरिंटेंडेंट : वेल इंस्पेक्टर, आपकी क्या राय है ? जमानत लेनी चाहिए या नहीं ?

इंस्पेक्टर : हुजूर, स्वामीजी बड़े मोतबर, सरकार के बड़े खैरख्वाह हैं। इनकी जमानत मंजूर कर लेने में कोई हर्ज नहीं है।

सुपरिंटेंडेंट : हम पांच हजार से कम न लेगी।

चेतनदास : मैं स्वीकार करता हूँ।

सबल : स्वामीजी, मेरे सिद्वांत भंग हो रहे हैं।

चेतनदास : ईश्वर की यही इच्छा है।

पुलिस के कर्मचारियों का प्रस्थान। ज्ञानी अंदर से निकलकर चेतनदास के पैरों पर फिर पड़ती है।

चेतनदास : माई, तेरा कल्याण हो,

ज्ञानी : आपने आज मेरा उद्वार कर दिया ।

चेतनदास : सब कुछ ईश्वर करता है।

प्रस्थान।

तीसरा दृश्य

स्थान: स्वामी चेतनदास की कुटी।

समय: संध्या।

चेतनदास : (मन में) यह चाल मुझे खूब सूझी। पुलिस वाले अधिक-से-अधिक कोई अभियोग चलाते। सबलसिंह ऐसे कांटों से डरने वाला मनुष्य नहीं है। पहले मैंने समझा था। उस चाल से यहां उसका खूब अपमान होगी। पर वह अनुमान ठीक न निकला। दो घंटे पहले शहर में सबल की जितनी प्रतिष्ठा थी, अब उससे सतगुनी है। अधिकारियों की दृष्टि में चाहे वह फिर गया हो, पर नगरवासियों की दृष्टि में अब वह देव-तुल्य है। यह काम हलधर ही पूरा करेगी। मुझे उसके पीछे का रास्ता साफ करना चाहिए ।

ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी : महाराज, आप उस समय इतनी जल्दी चले आए कि मुझे आपसे कुछ कहने का अवसर ही न मिला। आप यदि सहाय न होते तो आज मैं कहीं की न रहती। पुलिस वाले किसी दूसरे व्यक्ति की जमानत न लेते। आपके योगबल ने उन्हें परास्त कर दिया ।

चेतनदास : माई, सब ईश्वर की महिमा है। मैं तो केवल उसका तुच्छ सेवक हूँ।

ज्ञानी : आपके सम्मुख इस समय मैं बहुत निर्लज्ज बनकर आई हूँ।

मैं अपराधिनी हूँ, मेरा अपराध क्षमा कीजिए। आपने मेरे

पतिदेव के विषय में जो बातें कहीं थीं वह एक-एक अक्षर सच निकलीं। मैंने आप पर अविश्वास किया। मुझसे यह घोर अपराध हुआ। मैं अपने पति को देव-तुल्य समझती थी।

मुझे अनुमान हुआ कि आपको किसी ने भ्रम में डाल दिया है। मैं नहीं जानती थी कि आप अंतर्यामी हैं। मेरा अपराध क्षमा कीजिए।

चेतनदास : तुझे मालूम नहीं है, आज तेरे पति ने कैसा पैशाचिक काम कर डाला है। मुझे इसके पहले कहने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ।

ज्ञानी : नहीं महाराज, मुझे मालूम है। उन्होंने स्वयं मुझसे सारा वृत्तांत कह सुनाया। भगवान् यदि मैंने पहले ही आपकी चेतावनी पर ध्यान दिया होता तो आज इस हत्याकांड की नौबत न आती। यह सब मेरी अश्रद्वा का दुष्परिणाम है। मैंने आप जैसे महात्मा पुरूष का अविश्वास किया, उसी का यह दंड है। अब मेरा उद्वार आपके सिवा और कौन कर सकता है। आपकी दासी हूँ, आपकी चेरी हूँ। मेरे अवगुणों को न देखिए। अपनी विशाल दया से मेरा बेड़ा पार लगाइए।

चेतनदास : अब मेरे वश की बात नहीं मैंने तेरे कल्याण के लिए, तेरी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए बड़े-बड़े अनुष्ठान किए थे।मुझे निश्चय था। कि तेरा मनोरथ सिद्व होगी। पर इस पापाभिनय ने मेरे समस्त अनुष्ठानों को विफल कर दिया । मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह कुकर्म तेरे कुल का सर्वनाश कर देगी।

ज्ञानी : भगवान्, मुझे भी यही शंका हो रही है। मुझे भय है कि मेरे पतिदेव स्वयं पश्चात्ताप के आवेग में अपना प्राणांत न कर देंब उन्हें इस समय अपनी दुष्कृति पर अत्यंत ग्लानि हो रही है। आज वह बैठे-बैठे देर तक रोते रहै। इस दु:ख और निराशा की दशा में उन्होंने प्राणों का अंत कर दिया तो कुल का सर्वनाश हो जाएगी। इस सर्वनाश से मेरी रक्षा आपके सिवा और कौन कर सकता है ? आप जैसा दयालु स्वामी पाकर अब किसकी शरण जाऊँ ? ऐसा कोई यत्न कीजिए कि उनका चित्त शांत हो जाए। मैं अपने देवर का जितना आदर और प्रेम करती थी वह मेरा ह्रदय ही जानता है। मेरे पति भी अपने भाई को पुत्र के समान समझते थे।वैमनस्य का लेश भी न था।पर अब तो जो कुछ होना था।, हो चुका। उसका शोक जीवन-पर्यंत रहेगी। अब कुल की रक्षा कीजिए। मेरी आपसे यही याचना है।

चेतनदास : पाप का दण्ड ईश्वरीय नियम है। उसे कौन भंग कर सकता है?

ज्ञानी : योगीजन चाहें तो ईश्वरीय नियमों को भी झुका सकते हैं।

चेतनदास : इसका तुझे विश्वास है ?

ज्ञानी : हां, महाराज ! मुझे पूरा विश्वास है।

चेतनदास : श्रद्वा है ?

ज्ञानी : हां, महाराज, पूरी श्रद्वा है।

चेतनदास : भक्त को अपने गुरू के सामने अपना तन-मन-धन सभी समर्पण करना पड़ता है। वही अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के प्राप्त करने का एकमात्र साधन है। भक्त गुरू की बातों पर, उपदेशों पर, व्यवहारों पर कोई शंका नहीं करता। वह अपने गुरू को ईश्वर-तुल्य समझता है। जैसे कोई रोगी अपने को वैद्य के हाथों में छोड़ देता है, उसी भांति भक्त भी अपने शरीर को, अपनी बुद्वि को और आत्मा को गुरू के हाथों में छोड़ देता है। तू अपना कल्याण चाहती है तो तुझे भक्तों के धर्म का पालन करना पड़ेगा।

ज्ञानी : महाराज, मैं अपना तन-मन-धन सब आपके चरणों पर समर्पित करती हूँ।

चेतनदास : शिष्य का अपने गुरू के साथ आत्मिक संबंध होता है। उसके और सभी संबंध पार्थिव होते हैं। आत्मिक संबंध के सामने पार्थिव संबंधों का कुछ भी मूल्य नहीं होता। मोक्ष के सामने सांसारिक सुखों का कुछ भी मूल्य नहीं है। मोक्षपद-प्राप्ति ही मानव-जीवन का उद्देश्य है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए प्राणी को ममत्व का त्याग करना चाहिए । पिता-माता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, शत्रु-मित्र यह सभी संबंध पार्थिव हैं। यह सब मोक्षमार्ग की बाधाएं हैं। इनसे निवृत्त होकर ही मोक्ष-पद प्राप्त हो सकता है। केवल गुरू की कृपा-दृष्टि ही उस महान् पद पर पहुंचा सकती है। तू अभी तक भ्रांति में पड़ी हुई है। तू अपने पति और पुत्र, धन और संपत्ति को ही जीवन सर्वस्व समझ रही है। यही भ्रांति तेरे दु: ख और शोक का मूल कारण है। जिस दिन तुझे इस भ्रांति से निवृत्ति होगी उसी दिन तुझे मोक्ष मार्ग दिखाई देने लगेगी। तब इन सासांरिक सुखों से तेरा मन आप-ही-आप हट जाएगा। तुझे इनकी असारता प्रकट होने लगेगी। मेरा पहला उपदेश यह है कि गुरू ही तेरा सर्वस्व है। मैं ही तेरा सब कुछ हूँ।

ज्ञानी : महाराज, आपकी अमृतवाणी से मेरे चित्त को बड़ी शांति मिल रही है।

चेतनदास : मैं तेरा सर्वस्व हूँ। मैं तेरी संपत्ति हूँ, तेरी प्रतिष्ठा हूँ, तेरा पति हूँ, तेरा पुत्र हूँ, तेरी माता हूँ, तेरा पिता हूँ, तेरा स्वामी हूँ, तेरा सेवक हूँ, तेरा दान हूँ, तेरा व्रत हूँ। हां, मैं तेरा स्वामी हूँ और तेरा ईश्वर हूँ। तू राधिका है, मैं तेरा कन्हैया हूँ,तू सती है, मैं तेरा शिव हूँ,तू पत्नी है, मैं तेरा पति हूँ,तू प्रकृति है, मैं तेरा पुरूष हूँ,तू जीव है, मैं आत्मा हूँ, तू स्वर है, मैं उसका लालित्य हूँ, तू पुष्प है, मैं उसकी सुगंध हूँ।

ज्ञानी : भगवन्, मैं आपके चरणों की रज हूँ। आपकी सुधा-वर्षा से मेरी आत्मा तृप्त हो गई।

चेतनदास : तेरा पति तेरा शत्रु है, जो तुझे अपने कुकृत्यों का भागी बनाकर तेरी आत्मा का सर्वनाश कर रहा है।

ज्ञानी : (मन में) वास्तव में उनके पीछे मेरी आत्मा कलुषित हो रही है। उनके लिए मैं अपनी मुक्ति क्यों बिगाडूं। अब उन्होंने अधर्म-पथ पर पग रखा है, मैं उनकी सहगामिनी क्यों बनूं ? (प्रकट) स्वामीजी, अब मैं आपकी शरण आई हूँ, मुझे उबारिए।

चेतनदास : प्रिये, हम और तुम एक हैं, कोई चिंता मत करो। ईश्वर ने तुम्हें मंझधार में डूबने से बचा लिया। वह देखो सामने ताक पर बोतल है। उसमें महाप्रसाद रखा हुआ है। उसे उतारकर अपने कोमल हाथों से मुझे पिलाओ और प्रसाद-स्वरूप स्वयं पान करो। तुम्हारा अंत: करण आलोकमय हो जाएगी। सांसारिकता की कालिमा एक क्षण में कट जाएगी और भक्ति का उज्ज्वल प्रकाश प्रस्फुटित हो जाएगा। यह वह सोमरस है जोर ऋषिगण पान करके योगबल प्राप्त किया करते थे।

ज्ञानी बोतल उतारकर चेतनदास के कमंडल में उंड़ेलती है, चेतनदास पी जाते हैं।

चेतनदास : यह प्रसाद तुम भी पान करो।

ज्ञानी : भगवन्, मुझे क्षमा कीजिए।

चेतनदास : प्रिये, यह तुम्हारी पहली परीक्षा है।

ज्ञानी : (कमंडल मुंह से लगाकर पीती है। तुरंत उसे अपने शरीर में एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव होता है।) स्वामी, यह तो कोई अलौकिक वस्तु है।

चेतनदास : प्रिये, यह ऋषियोंका पेय पदार्थ है। इसे पीकर वह चिरकाल तक तरूण बने रहते थे।उनकी शक्तियां कभी क्षीण न होती थीं।थोड़ा-सा और दो। आज बहुत दिनों के बाद यह शुभअवसर प्राप्त हुआ है।

ज्ञानी बोतल उठाकर कमंडल में ड़ड़ेलती है। चेतनदास पी जाते हैं। ज्ञानी स्वयं थोड़ा-सा निकालकर पीती है।

चेतनदास : (ज्ञानी के हाथों को पकड़कर) प्रिये, तुम्हारे हाथ कितने कोमल हैं, ऐसा जान पड़ता है मानो फूलकी पंखड़ियां हैं। (ज्ञानी झिझककर हाथ खींच लेती है) प्रिये, झिझको नहीं, यह वासनाजनित प्रेम नहीं है। यह शुद्व, पवित्र प्रेम है। यह तुम्हारी दूसरी परीक्षा है।

ज्ञानी : मेरे ह्रदय में बड़े वेग से धड़कन हो रही है।

चेतनदास : यह धड़कन नहीं है, विमल प्रेम की तरंगें हैं जो वक्ष के किनारों से टकरा रही हैं। तुम्हारा शरीर फूल की भांति कोमल है। उस वेग को सहन नहीं कर सकता। इन हाथों के स्पर्श से मुझे वह आनंद मिल रहा है जिसमें चंद्र का निर्मल प्रकाश, पुष्पों की मनोहर सुगंध, समीर के शीतल मंद झोंके और जल-प्रवाह का मधुर गान सभी समाविष्ट हो गए हैं।

ज्ञानी : मुझे चक्कर-सा आ रहा है। जान पड़ता है लहरों में बही जाती हूँ।

चेतनदास : थोड़ा-सा सोमरस और निकालो।संजीवनी है।

ज्ञानी बोतल से कमंडल में उंड़ेलती है, चेतनदास पी जाता है, ज्ञानी भी दो-तीन घूंट पीती है।

चेतनदास : आज जीवन सफल हो गया। ऐसे सुख के एक क्षण पर समग्र जीवन भेंट कर सकता हूँ (ज्ञानी के गले में बांहें डालकर आलिंगन करना चाहता है, ज्ञानी झिझककर पीछे हट जाती है।) प्रिये, यह भक्ति मार्ग की तीसरी परीक्षा है !

ज्ञानी अलग खड़ी होकर रोती है।

चेतनदास : प्रिये!

ज्ञानी : (उच्च स्वर से) कोचवान, गाड़ी लाओ।

चेतनदास : इतनी अधीर क्यों हो रही हो ? क्या मोक्षपद के निकट पहुंचकर फिर उसी मायावी संसार में लिप्त होना चाहती हो ? यह तुम्हारे लिए कल्याणकारी न होगा।

ज्ञानी : मुझे मोक्षपद प्राप्त हो या न हो, यह ज्ञान अवश्य प्राप्त हो गया कि तुम धूर्त, कुटिल, भ्रष्ट, दुष्ट, पापी हो, तुम्हारे इस भेष का अपमान नहीं करना चाहती, पर यह समझ रखो कि तुम सरला स्त्रियों को इस भांति दगा देकर अपनी आत्मा को नर्क की ओर ले जा रहे हो, तुमने मेरे शरीर को अपने कलुषित हाथों से स्पर्श करके सदा के लिए विकृत कर दिया । तुम्हारे मनोविकारों के संपर्क से मेरी आत्मा सदा के लिए दूषित हो गई। तुमने मेरे व्रत की हत्या कर डाली। अब मैं अपने ही को अपना मुंह नहीं दिखा सकती। सतीत्व जैसी अमूल्य वस्तु खोकर मुझे ज्ञात हुआ कि मानव-चरित्र का कितना पतन हो सकता है। अगर तुम्हारे ह्रदय में मनुष्यत्व का कुछ भी अंश शेष है तो मैं उसी को संबोधित करके विनय करती हूँ कि अपनी आत्मा पर दया करो और इस दुष्टाचरण को त्याग कर सद्वृत्तियों का आवाफ्न करो।

कुटी से बाहर निकलकर गाड़ी में बैठ जाती है।

कोचवान : किधर से चलूं ?

ज्ञानी : सीधे घर चलो।

चौथा दृश्य

स्थान: राजेश्वरी का मकान।

समय: दस बजे रात।

राजेश्वरी : (मन में) मेरे ही लिए जीवन का निर्वाह करना क्यों इतना कठिन हो रहा है ? संसार में इतने आदमी पड़े हुए हैं। सब अपने-अपने धंधों में लगे हुए हैं। मैं ही क्यों इस चक्कर में डाली गई हूँ ? मेरा क्या दोष है ? मैंने कभी अच्छा खाने, पहनने या आराम से रहने की इच्छा की, जिसके बदले में मुझे यह दंड मिला है? जबरदस्ती इस कारागार में बंद की गई हूँ। यह सब विलास की चीजें जबरदस्ती मेरे गले मढ़ी गई हैं। एक धनी पुरूष मुझे अपने इशारों पर नचा रहा है। मेरा दोष इतना ही है कि मैं रूपवती हूँ और निर्बल हूँ। इसी अपराध की यह सजा मुझे मिल रही है। जिसे ईश्वर धन दे, उसे इतना सामर्थ्य भी दे कि धन की रक्षा कर सके निर्बल प्राणियों को रत्न देना उन पर अन्याय करना है। हा ! कंचनसिंह पर आज न जाने क्या बीती ! सबलसिंह ने अवश्य ही उनको मार डाला होगी। मैंने उन पर कभी क्रोध चढ़ते नहीं देखा था।क्रोध में तो मानो उन पर भूत सवार हो जाता है। मर्दों को उत्तेजित करना सरल है। उनकी नाड़ियों में रक्त की जगह रोष और ईर्ष्या का प्रवाह होता है। ईर्ष्या की ही मिट्टी से उनकी सृष्टि हुई है। यह सब विधाता की विषम लीला है। (गाती है।)

दयानिधि तेरी गति लखि न परी।

सबलसिंह का प्रवेश।

राजेश्वरी : आइए, आपकी ही बाट जोह रही थी। उधर ही मन लगा हुआ था।आपकी बातें याद करके शंका और भय से चित्त बहुत व्याकुल हो रहा था।पूछते डरती हूँ

सबल : (मलिन स्वर से) जिस बात की तुम्हें शंका थी वह हो गई।

राजेश्वरी : अपने ही हाथों ?

सबल : नहीं मैंने क्रोध के आवेग में चाहे मुंह से जो बक डाला हो पर अपने भाई पर मेरे हाथ नहीं उठ सके पर इससे मैं अपने पाप का समर्थन नहीं करना चाहता। मैंने स्वयं हत्या की और उसका सारा भार मुझ पर है। पुरूष कड़े-से कड़े आघात सह सकता है, बड़ी-से बड़ी मुसीबतें झेल सकता है, पर यह चोट नहीं सह सकता, यही उसका मर्मस्थान है। एक ताले में दो कुंजियां साथ-साथ चली जाएं, एक म्यान में दो तलवारें साथ-साथ रहें, एक कुल्हाड़ी में दो बेंट साथ लगें, पर एक स्त्री के दो चाहने वाले नहीं रह सकते, असंभव है।

राजेश्वरी : एक पुरूष को चाहने वाली तो कई स्त्रियां होती हैं।

सबल : यह उनके अपंग होने के कारण हैं। एक ही भाव दोनों के मन में उठते हैं। पुरूष शक्तिशाली है, वह अपने क्रोध को व्यक्त कर सकता है,स्त्री मन में ऐंठकर रह जाती है।

राजेश्वरी : क्या आप समझते थे कि मैं कंचनसिंह को मुंह लगा रही हूँ। उन्हें केवल यहां बैठे देखकर आपको इतना उबलना न चाहिए था।

सबल : तुम्हारे मुंह से यह तिरस्कार कुछ शोभा नहीं देता। तुमने

अगर सिरे से ही उसे यहां न घुसने दिया होता तो आज यह नौबत न आती। तुम अपने को इस इल्जाम से मुक्त नहीं कर सकती।

राजेश्वरी : एक तो आपने मुझ पर संदेह करके मेरा अपमान किया, अबआप इस हत्या का भार भी मुझ पर रखना चाहते हैं। मैंने आपके साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया था। कि आप इतना अविश्वास करते।

सबल : राजेश्वरी, इन बातों से दिल न जलाओ। मैं दु: खी हूँ, मुझे तस्कीन दो¼ मैं घायल हूँ, मेरे घाव पर मरहम रखो। मैंने वह रत्न हाथ से खो दिया जिसका जोड़ अब संसार में मुझे न मिलेगी। कंचन आदर्श भाई था।मेरा इशारा उसके लिए हुक्म था।मैंने जरा-सा इशारा कर दिया होता तो वह भूलकर भी इधर पग न रखता। पर मैं अंधा हो रहा था, उन्मत्त हो रहा था।मेरे ह्रदय की जो दशा हो रही है वह तुम देख सकतीं तो कदाचित् तुम्हें मुझ पर दया आती। ईश्वर के लिए मेरे घावों पर नमक न छिड़को। अब तुम्हीं मेरे जीवन का आधार हो, तुम्हारे लिए मैंने इतना बड़ा बलिदान किया। अब तुम मुझे पहले से कहीं अधिक प्रिय हो, मैंने पहले सोचा था।, केवल तुम्हारे दर्शनों से, तुम्हारी तिरछी चितवनों से मैं तृप्त हो जाऊँगी। मैं केवल तुम्हारा सहवास चाहता था।पर अब मुझे अनुभव हो रहा है कि मैं गुड़ खाना

और गुलगुलों से परहेज करना चाहता था। मैं भरे प्याले को उछालकर भी चाहता था। कि उसका पानी न छलके नदी में जाकर भी चाहता था। कि दामन न भीगे। पर अब मैं तुमको पूर्णरूप से चाहता हूँ। मैं तुम्हारा सर्वस्व चाहता हूँ। मेरी विकल आत्मा के लिए संतोष का केवल यही एक आधार है। अपने कोमल हाथों को मेरी दहकती हुई छाती पर रखकर शीतल कर दो।

राजेश्वरी : मुझे अब आपके समीप बैठते हुए भय होता है। आपके मुख पर नम्रता और प्रेम की जगह अब क्रूरता और कपट की झलक है।

सबल : तुम अपने प्रेम से मेरे ह्रदय को शांत कर दो। इसीलिए इस समय तुम्हारे पास आया हूँ। मुझे शांति दो। मैं निर्जन पार्क और नीरव नदी से निराश लौटा आता हूँ। वहां शांति नहीं मिली। तुम्हें यह मुंह नहीं दिखाना चाहता था।हत्यारा बनकर तुम्हारे सम्मुख आते लज्जा आती थी। किसी को मुंह नहीं दिखाना चाहता। केवल तुम्हारे प्रेम की आशा मुझे तुम्हारी शरण लाई। मुझे आशा थी, तुम्हें मुझ पर दया आएगी, पर देखता हूँ तो मेरा दुर्भाग्य वहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता। राजेश्वरी, प्रिये, एक बार मेरी तरफ प्रेम की चितवनों से देखो। मैं दु: खी हूँ। मुझसे ज्यादा दु: खी कोई प्राणी संसार में न होगी। एक बार मुझे प्रेम से गले लगा लो, एक बार अपनी कोमल बाहें मेरी गर्दन में डाल दो, एक बार मेरे सिर को अपनी जांघों पर रख लो।प्रिये, मेरी यह अंतिम लालसा है। मुझे दुनिया से नामुराद मत जाने दो। मुझे चंद घंटों का मेहमान समझो।

राजेश्वरी : (सजल नयन होकर) ऐसी बातें करके दिल न दुखाइए।

सबल : अगर इन बातों से तुम्हारा दिल दुखता है तो न करूंगा। पर राजेश्वरी, मुझे तुमसे इस निर्दयता की आशा न थी। सौंदर्य और दया में विरोध है¼ इसका मुझे अनुमान न था।मगर इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। यह अवस्था ही ऐसी है। हत्यारे पर कौन दया करेगा ? जिस प्राणी ने सगे भाई को ईर्ष्या और दंभ के वश होकर वध करा दिया, वह इसी योग्य है कि चारों ओर उसे धिक्कार मिले। उसे कहीं मुंह दिखाने का ठिकाना न रहै। उसके पुत्र और स्त्री भी उसकी ओर से आंखें फेर लें, उसके मुंह में कालिमा पोत दी जाए और उसे हाथी के पैरों सेकुचलवा दिया जाए। उसके पाप का यही दंड है। राजेश्वरी, मनुष्य कितना दीन, कितना परवश प्राणी है। अभी एक सप्ताह पहले मेरा जीवन कितना सुखमय था।अपनी नौका में बैठा हुआ धीमी-धीमी लहरों पर बहता, समीर की शीतल, मंद तरंगों का आनंद उठाता चला जाता था।क्या जानता था कि एक ही क्षण में वे मंद तरंगें इतनी भयंकर हो जाएंगी, शीतल झोंके इतने प्रबल हो जाएंगे कि नाव को उलट देंगे। सुख और दु: ख, हर्ष और शोक में उससे कहीं कम अंतर है जितना हम समझते हैं। आंखों को एक जरा-सा इशारा, मुंह का एक जरा-सा शब्द हर्ष का शोक और सुख को दु: ख बना सकता है। लेकिन हम यह सब जानते हुए भी सुख पर लौ लगाए रहते हैं। यहां तक कि गांसी पर चढ़ने से एक क्षण पहले तक हमें सुख की लालसा घेरे रहती है। ठीक वही दशा मेरी है। जानता हूँ कि चंद घंटों

का और मेहमान हूँ, निश्चय है कि फिर ये आंखें सूर्य और आकाश को न देखेंगी¼ पर तुम्हारे प्रेम की लालसा ह्रदय से नहीं निकलती।

राजेश्वरी : (मन में) इस समय यह वास्तव में बहुत दु: खी हैं। इन्हें जितना दंड मिलना चाहिए था। उससे ज्यादा मिल गया। भाई के शोक में इन्होंने आत्मघात करने की ठानी है। मेरा जीवन तो नष्ट हो ही गया, अब इन्हें मौत के मुंह में झोंकने की चेष्टा क्यों करूं ? इनकी दशा देखकर दया आती है। मेरे मन के घातक भाव लुप्त हो रहे हैं। (प्रकट) आप इतने निराश क्यों हो रहे हैं ? संसार में ऐसी बातें आए दिन होती रहती हैं। अब दिल को संभालिए। ईश्वर ने आपको पुत्र दिया है, सती स्त्री दी है। क्या आप उन्हें मंझधार में छोड़ देंगे ? मेरे अवलंब भी आप ही हैं। मुझे द्वार-द्वार की ठोकर खाने के लिए छोड़ दीजिएगा ? इस शोक को दिल से निकाल डालिए।

सबल : (खुश होकर) तुम भूल जाओगी कि मैं पापी-हत्यारा हूँ ?

राजेश्वरी : आप बार-बार इसकी चर्चा क्यों करते हैं!

सबल : तुम भूल जाओगी कि इसने अपने भाई को मरवाया है ?

राजेश्वरी : (भयभीत होकर) प्रेम दोषों पर ध्यान नहीं देता। वह गुणों ही पर

मुग्ध होता है। आज मैं अंधी हो जाऊँ तो क्या आप मुझे त्याग

देंगे ?

सबल : प्रिये, ईश्वर न करे, पर मैं तुमसे सच्चे दिल से कहता हूँ कि काल की कोई गति, विधाता की कोई पिशाच लीला, तापों का कोई प्रकोप मेरे ह्रदय से तुम्हारे प्रेम को नहीं निकाल सकता, हां, नहीं निकाल सकता।

गाता है।

दूर करने ले चले थे जब मेरे घर से मुझे

काश, तुम भी झांक लेते रौ -ए दर से मुझे।

सांस पूरी हो चुकी, दुनिया से रूखसत हो चुका

तुम अब आए हो उठाने मेरे बिस्तर से मुझे।

क्यों उठाता है मुझे मेरी तमन्ना को निकाल

तेरे दर तक खींच लाई थी वही घर से मुझे।

हिज्र की शब कुछ यही मूनिस था। मेरा, ऐ कजा

रूक जरा रो लेने दे मिल-मिलके बिस्तर से मुझे।

राजेश्वरी : मेरे दिल में आपका वही प्रेम है।

सबल : तुम मेरी हो जाओगी ?

राजेश्वरी : और अब किसकी हूँ ?

सबल : तुम पूर्ण रूप से मेरी हो जाओगी ?

राजेश्वरी : आपके सिवा अब मेरा कौन है ?

सबल : तो प्रिये, मैं अभी मौत को कुछ दिनों के लिए द्वार से टाल दूंगा। अभी न मरूंगा। पर हम सब यहां नहीं रह सकते। हमें कहीं बाहर चलना पड़ेगा, जहां अपना परिचित प्राणी न हो, चलो, आबू चलें, जी चाहे कश्मीर चलो, दो-चार महीने रहेंगे, फिर जैसी अवस्था होगी वैसा करेंगी। पर इस नगर में मैं नहीं रह सकता। यहां की एक-एक पत्ती मेरी दुश्मन है।

राजेश्वरी : घर के लोगों को किस पर छोड़िएगा ?

सबल : ईश्वर पर ! अब मालूम हो गया कि जो कुछ करता है, ईश्वर करता है। मनुष्य के किए कुछ नहीं हो सकता।

राजेश्वरी : यह समस्या कठिन है। मैं आपके साथ बाहर नहीं जा सकती।

सबल : प्रेम तो स्थान के बंधनों में नहीं रहता।

राजेश्वरी : इसका यह कारण नहीं है। अभी आपका चित्त अस्थिर है, न जाने क्या रंग पकड़े। वहां परदेश में कौन अपना हितैषी होगा,

कौन विपत्ति में अपना सहायक होगा? मैं गंवारिन, परदेश करना क्या जानूं ? ऐसा ही है तो आप कुछ दिनों के लिए बाहर चले जाएं।

सबल : प्रिये, यहां से जाकर फिर आना नहीं चाहता, किसी से बताना भी नहीं चाहता कि मैं कहां जा रहा हूँ। मैं तुम्हारे सिवा और सारे संसार के लिए मर जाना चाहता हूँ।

गाता है।

किसी को देके दिल कोई नवा संजे फुगां क्यों हो,

न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुंह में जबां क्यों हो,

वफा कैसी, कहां का इश्क, जब सिर फोड़ना ठहरा,

तो फिर ऐ संग दिल तेरा ही संगे आस्तां क्यों हो,

कफस में मुझसे रूदादे चमन कहते न डर हमदम,

गिरी है जिस पै कल बिजली वह मेरा आशियां क्यों हो,

यह फितना आदमी की खानावीरानी को क्या कम है,

हुए तुम दोस्त जिसके उसका दुश्मन आसमां क्यों हो,

कहा तुमने कि क्यों हो गैर के मिलने में रूसवाई,

बजा कहते हो, सच कहते हो, फिर कहियो कि हां क्यों हो,

राजेश्वरी : (मन में) यहां हूँ तो कभी-न-कभी नसीब जागेंगे ही। मालूम नहीं वह (हलधर) आजकल कहां हैं, कैसे हैं, क्या करते हैं, मुझे अपने मन में क्या समझ रहे हैं। कुछ भी हो, जब मैं जाकर सारी रामकहानी सुनाऊँगी तो उन्हें मेरे निरपराध होने का विश्वास हो जाएगी। इनके साथ जाना अपना सर्वनाश कर लेना है। मैं इनकी रक्षा करना चाहती हूँ, पर अपना सत खोकर नहीं,इनको बचाना चाहती हूँ, पर अपने को डुबाकर नहीं अगर मैं इस काम में सफल न हो सकूं तो मेरा दोष नहीं है। (प्रकट) मैं आपके घर को उजाड़ने का अपराध अपने सिर नहीं लेना चाहती।

सबल : प्रिये, मेरा घर मेरे रहने से ही उजड़ेगा, मेरे अंतर्धान होने से वह बच जाएगी। इसमें मुझे जरा भी संदेह नहीं है।

राजेश्वरी : फिर अब मैं आपसे डरती हूँ, आप शक्की आदमी हैं। न जानs किस वक्त आपको मुझ पर शक हो जाए। जब आपने जरा-से शक पर

सबल : (शोकातुर होकर) राजेश्वरी, उसकी चर्चा न करो। उसका प्रायश्चित कुछ हो सकता है तो वह यही है कि अब शक और भ्रम को अपने पास फटकने भी न दूं। इस बलिदान से मैंने समस्त शंकाओं को जीत लिया है। अब फिर भ्रम में पडूं, तो मैं मनुष्य नहीं पशु हूँगी।

राजेश्वरी : आप मेरे सतीत्व की रक्षा करेंगे ? आपने मुझे वचन दिया था। कि मैं केवल तुम्हारा सहवास चाहता हूँ।

सबल : प्रिये, प्रेम को बिना पाए संतोष नहीं होता। जब तक मैं गृहस्थी के बंधनों में जकड़ा था।, जब तक भाई, पुत्र, बहिन का मेरे प्रेम के एक अंश पर अधिकार था। तब मैं तुम्हें न पूरा प्रेम दे सकता था। और न तुमसे सर्वस्व मांगने का साहस कर सकता था। पर अब मैं संसार में अकेला हूँ, मेरा सर्वस्व तुम्हारे अर्पण है। प्रेम अपना पूरा मूल्य चाहता है, आधे पर संतुष्ट नहीं हो सकता।

राजेश्वरी : मैं अपने सत को नहीं खो सकती।

सबल : प्रिये, प्रेम के आगे सत, व्रत, नियम, धर्म सब उन तिनकों के समान हैं जो हवा से उड़ जाते हैं। प्रेम पवन नहीं, आंधी है। उसके सामने मान-मर्यादा, शर्म-हया की कोई हस्ती नहीं

राजेश्वरी : यह प्रेम परमात्मा की देन है। उसे आप धन और रोब से नहीं पा सकते।

सबल : राजेश्वरी, इन बातों से मेरा ह्रदय चूर-चूर हुआ जाता है। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहता हूँ कि मुझे तुमसे जितना अटल प्रेम है उसे मैं शब्दों में प्रकट नहीं कर सकता। मेरा सत्यानाश हो जाए अगर धन और संपत्ति का ध्यान भी मुझे आया हो, मैं यह मानता हूँ कि मैंने तुम्हें पाने के लिए बेजा दबाव से काम लिया, पर इसका कारण यही था। कि मेरे पास और कोई साधन न था।मैं विरह की आग में जल रहा था।, मेरा ह्रदय ङ्ढंका जाता था।, ऐसी अवस्था में यदि मैं धर्म-अधर्म का विचार न करके किसी व्यक्ति के भरे हुए पानी के डोल की ओर लपका तो तुम्हें उसको क्षम्य समझना चाहिए ।

राजेश्वरी : वह डोल किसी भक्त ने अपने इष्टदेव को चढ़ाने के लिए एक हाथ से भरा था।जिसे आप प्रेम कहते हैं वह काम-लिप्सा थी। आपने अपनी लालसा को शांत करने के लिए एक बसे-बसाये घर को उजाड़ दिया, उसको तितर-बितर कर दिया । यह सब अनर्थ आपने अधिकार के बल पर किया। पर याद रखिए, ईश्वर भी आपको इस पाप का दंड भोगने से नहीं बचा सकता। आपने मुझसे उस बात की आशा रखी जो कुलटाएं ही कर सकती हैं। मेरी यह इज्जत आपने की। आंख की पुतली निकल जाए तो उसमें सुरमा क्या शोभा देगा ? पौधे की जड़ काटकर फिर आप दूध और शहद से सींचें तो क्या फायदा ? स्त्री का सत हर कर आप उसे विलास और भोग में डुबा ही दें तो क्या होता है ! मैं अगर यह घोर अपमान चुपचाप सह लेती तो मेरी आत्मा का पतन हो जाता। मैं यहां उस अपमान का बदला लेने आई हूँ। आप चौंकें नहीं, मैं मन में यही संकल्प करके आई थी।

ज्ञानी का प्रवेश।

ज्ञानी : देवी, तुझे धन्य है। तेरे पैरों पर शीश नवाती हूँ।

सबल : ज्ञानी ! तुम यहां ?

ज्ञानी : क्षमा कीजिए। मैं किसी और विचार से नहीं आई। आपको घर पर न देखकर मेरा चित्त व्याकुल हो गया।

सबल : यहां का पता कैसे मालूम हुआ ?

ज्ञानी : कोचवान की खुशामद करने से।

सबल : राजेश्वरी, तुमने मेरी आंखें खोल दीं ! मैं भ्रम में पड़ा हुआ था।तुम्हारा संकल्प पूरा होगी। तुम सती हो, तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी। मैं पापी हूँ, मुझे क्षमा करना

नीचे की ओर जाता है।

ज्ञानी : मैं भी चलती हूँ। राजेश्वरी, तुम्हारे दर्शन पाकर कृतार्थ हो गई। (धीरे से) बहिन, किसी तरह इनकी जान बचाओ। तुम्हीं इनकी रक्षा कर सकती हो,

राजेश्वरी के पैरों पर फिर पड़ती है।

राजेश्वरी : रानी जी, ईश्वर ने चाहा तो सब कुशल होगी।

ज्ञानी : तुम्हारे आशीर्वाद का भरोसा है।

प्रस्थान।

पांचवां दृश्य

स्थान: गंगा के करार पर एक बड़ा पुराना मकान।

समय: बारह बजे रात, हलधर और उसके साथी डाकू बैठे हुए हैं।

हलधर : अब समय आ गया, मुझे चलना चाहिए ।

एक डाकू रंगी : हम लोग भी तैयार हो जाएं न ? शिकारी आदमी है, कहीं पिस्तौल चला बैठे तो ?

हलधर : देखी जाएगी। मैं जाऊँगा अकेले।

कंचन का प्रवेश।

हलधर : अरे, आप अभी तक सोए नहीं ?

कंचन : तुम लोग भैया को मारने पर तैयार हो, मुझे नींद कैसे आए ?

हलधर : मुझे आपकी बातें सुनकर अचरज होता है। आप ऐसे पापी आदमी की रक्षा करना चाहते हैं जो अपने भाई की जान लेने पर तुल जाए।

कंचन : तुम नहीं जानते, वह मेरे भाई नहीं, मेरे पिता के तुल्य हैं। उन्होंने भी सदैव मुझे अपना पुत्र समझा है। उन्होंने मेरे प्रति जो कुछ किया, उचित किया। उसके सिवा मेरे विश्वासघात का और कोई दंड न था। उन्होंने वही किया जो मैं आप करने जाता था।अपराध सब मेरा है। तुमने मुझ पर दया की है। इतनी दया और करो। इसके बदले में तुम जो कुछ कहो करने को तैयार हूँ। मैं अपनी सारी कमाई जो बीस हजार से कम नहीं है, तुम्हें भेंट कर दूंगा। मैंने यह रूपये एक धर्मशाला और देवालय बनवाने के लिए संचित कर रखे थे।पर भैया के प्राणों का मूल्य धर्मशाला और देवालय से कहीं अधिक है।

हलधर : ठाकुर साहब,ऐसा कभी न होगी। मैंने धन के लोभ से यह भेष नहीं लिया है। मैं अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूँ। मेरा मर्याद इतना सस्ता नहीं है।

कंचन : मेरे यहां जितनी दस्तावेजें हैं वह सब तुम्हें दे दूंगा।

हलधर : आप व्यर्थ ही मुझे लोभ दिखा रहे हैं। मेरी इज्जत बिगड़ गई। मेरे कुल में दाग लग गया। बाप-दादों के मुंह में कालिख पुत गई। इज्जत का बदला जान है, धन नहीं जब तक सबलसिंह की लाश को अपनी आंखों से तड़पते न देखूंगा, मेरे ह्रदय की ज्वाला शांत न होगी।

कंचन : तो फिर सबेरे तक मुझे भी जीता न पाओगी।

प्रस्थान।

हलधर : भाई पर जान देते हैं।

रंगी : तुम भी तो हक-नाहक की जिद कर रहे हो, बीस हजार नकद मिल रहा है। दस्तावेज भी इतने की ही होगी। इतना धन तो ऐसा ही भाग जागे तो हाथ लग सकता है। आधा तुम ले लो। आधा हम लोगों को दे दो। बीस हजार में तो ऐसी-ऐसी बीस औरतें मिल जाएंगी।

हलधर : कैसी बेगैरतों की-सी बात करते हो ! स्त्री चाहे सुंदर हो, चाहे कुरूप, कुल-मरजाद की देवी है। मरजाद रूपयों पर नहीं बिकती।

रंगी : ऐसा ही है तो उसी को क्यों नहीं मार डालते। न रहे बांस न बजे बंसुरी।

हलधर : उसे क्यों मारूं ? स्त्री पर हाथ उठाने में क्या जवांमरदी है ?

रंगी : तो क्या उसे फिर रखोगे ?

हलधर : मुझे क्या तुमने ऐसा बेगैरत समझ लिया है। घर में रखने की बात ही क्या, अब उसका मुंह भी नहीं देख सकता। वह कुलटा है, हरजाई है। मैंने पता लगा लिया है। वह अपने-आप घर से निकल खड़ी हुई है। मैंने कब का उसे दिल से निकाल दिया । अब उसकी याद भी नहीं करता। उसकी याद आते ही शरीर में ज्वाला उठने लगती है। अगर उसे मारकर कलेजा ठंडा हो सकता तो इतने दिनों चिंता और क्रोध की आग में जलता ही क्यों ?

रंगी : मैं तो रूपयों का इतना बड़ा ढेर कभी हाथ से न जाने देता। मान-मर्यादा सब ढकोसला है। दुनिया में ऐसी बातें आए दिन होती रहती हैं। लोग औरत को घर से निकाल देते हैं। बस।

हलधर : क्या कायरों की-सी बातें करते हो, रामचन्द्र ने सीताजी के लिए लंका का राज विध्वंस कर दिया । द्रोपदी की मानहानि करने के लिए पांडवों ने कौरवों को निरबंस कर दिया । जिस आदमी के दिल में इतना अपमान होने पर भी क्रोध न आए, मरने-मारने पर तैयार न हो जाए, उसका खून न खौलने लगे, वह मर्द नहीं हिजड़ा है। हमारी इतनी दुर्गत क्यों हो रही है ? जिसे देखो वही हमें चार गालियां सुनाता है, ठोकर मारता है। क्या अहलकार, क्या जमींदार सभी कुत्तों से नीच समझते हैं। इसका कारण यही है कि हम बेहया हो गए हैं। अपनी चमड़ी को प्यार करने लगे हैं। हममें भी गैरत होती, अपने मान?अपमान का विचार होता तो मजाल थी कि कोई हमें तिरछी आंखों से देख सकता। दूसरे देशों में सुनते हैं गालियों पर लोग मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं। वहां कोई किसी को गाली नहीं दे सकता। किसी देवता का अपमान कर दो तो जान न बचेब यहां तक कि कोई किसी को ला-सखुन नहीं कह सकता, नहीं तो, खून की नदी बहने लगे। यहां क्या है, लात खाते हैं, जूते खाते हैं, घिनौनी गालियां सुनते हैं, धर्म का नाश अपनी आंखों से देखते हैं, पर कानों पर जूं नहीं रेंगती, खून जरा भी गर्म नहीं होता। चमड़ी के पीछे सब तरह की दुर्गत सहते

हैं। जान इतनी प्यारी हो गई है। मैं ऐसे जीने से मौत को हजार दर्जे अच्छा समझता हूँ। बस यही समझ लो कि जो आदमी प्रान को जितना ही प्यारा समझता है वह उतना ही नीच है। जो औरत हमारे घर में रहती थी, हमसे हंसती थी, हमसे बोलती थी, हमारे खाट पर सोती थी वह अब भी(क्रोध से उन्मत्त होकर) तुम लोग मेरे लौटने तक यहीं रहो, कंचनसिंह को देखते रहना।

चला जाता है।

छठा दृश्य

स्थान: सबलसिंह का कमरा।

समय: एक बजे रात।

सबल : (ज्ञानी से) अब जाकर सो रहो, रात कम है।

ज्ञानी : आप लेटें, मैं चली जाऊँगी। अभी नींद नहीं आती।

सबल : तुम अपने दिल में मुझे बहुत नीच समझ रही होगी ?

ज्ञानी : मैं आपको अपना इष्टदेव समझती हूँ।

सबल : क्या इतना पतित हो जाने पर भी ?

ज्ञानी : मैली वस्तुओं के मिलने से गंगा का माहात्म्य कम नहीं

होता।

सबल : मैं इस योग्य भी नहीं हूँ कि तुम्हें स्पर्श कर सकूं। पर मेरे ह्रदय में इस समय तुमसे गले मिलने की प्रबल उत्कंठा है। याद ही नहीं आता कि कभी मेरा मन इतना अधीर हुआ हो, जी चाहता है तुम्हें प्रिये कहूँ, आलिंगन करूं पर हिम्मत नहीं पड़ती। अपनी ही आंखों में इतना गिर गया हूँ। (ज्ञानी रोती हुई जाने लगती है, सबल रास्ते में खड़ा हो जाता है।) प्रिये, इतनी निर्दयता न करो। मेरा ह्रदय टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता है। (रास्ते से हटकर) जाओ ! मुझे तुम्हें रोकने का कोई अधिकार नहीं है। मैं पतित हूँ, पापी हूँ, दुष्टाचारी हूँ। न जाने क्यों पिछले दिनों की याद आ गई, जब मेरे और तुम्हारे बीच में यह विच्छेद न था।, जब हम-तुम प्रेम-सरोवर के तट पर विहार करते थे, उसकी तरंगों के साथ झूमते थे।वह कैसे आनंद के दिन थे ? अब वह दिन फिर न आएंगी। जाओ, न रोयंगा, पर मुझे बिल्कुल नजरों से न गिरा दिया हो तो प्रेम की चितवन से मेरी तरफ देख लो।मेरा संतप्त ह्रदय उस प्रेम की फुहार से तृप्त हो जाएगी। इतना भी नहीं कर सकतीं ? न सही। मैं तो तुमसे कुछ कहने के योग्य ही नहीं हूँ। तुम्हारे सम्मुख खड़े होते, तुम्हें यह काला मुंह दिखाते, मुझे लज्जा आनी चाहिए थी। पर मेरी आत्मा का पतन हो गया है। हां, तुम्हें मेरी एक बात अवश्य माननी पड़ेगी, उसे मैं जबरदस्ती मनवाऊँगा, जब तक न मानोगी जाने न दूंगा। मुझे एक बार अपने चरणों पर सिर झुकाने दो।

ज्ञानी रोती हुई अंदर के द्वार की तरफ बढ़ती है।

सबल : क्या मैं अब इस योग्य भी नहीं रहा ? हां, मैं अब घृणित प्राणी हूँ, जिसकी आत्मा का अपहरण हो चुका है। पूजी जाने वाली प्रतिमा टूटकर पत्थर का टुकड़ा हो जाती है, उसे किसी खंडहर में फेंक दिया जाता है। मैं वही टूटी हुई प्रतिमा हूँ और इसी योग्य हूँ कि ठुकरा दिया जाऊँ। तुमसे कुछ कहने का, तुम्हारी दया-याचना करने के योग्य मेरा मुंह ही नहीं रहा। जाओ। हम तुम बहुत दिनों तक साथ रहे। अगर मेरे किसी व्यवहार से, किसी शब्द से, किसी आक्षेप से तुम्हें दु: ख हुआ हो तो क्षमा करना। मुझ-सा अभागा संसार में न होगा जो तुम जैसी देवी पाकर उसकी कद्र न कर सका।

ज्ञानी हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से ताकती है, कंठ से शब्द नहीं निकलता। सबल तुरंत मेज पर से पिस्तौल उठाकर बाहर निकल जाता है।

ज्ञानी : (मन में) हताश होकर चले गए। मैं तस्कीन दे सकती, उन्हें प्रेम के बंधन से रोक सकती तो शायद न जाते। मैं किस मुंह से कहूँ कि यह अभागिनी पतिता तुम्हारे चरणों का स्पर्श करने योग्य नहीं है। वह समझते हैं, मैं उनका तिरस्कार कर रही हूँ, उनसे घृणा कर रही हूँ। उनके इरादे में अगर कुछ कमजोरी थी तो वह मैंने पूरी कर दी। इस यज्ञ की पूर्णाहुति मुझे करनी पड़ी। हा विधाता, तेरी लीला अपरम्पार है। जिस पुरूष पर इस समय मुझे अपना प्राण अर्पण करना चाहिए था। आज मैं उसकी घातिका हो रही हूँ। हा अर्थलोलुपता ! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया । मैंने संतान-लालसा के पीछे कुल को कलंक लगा दिया, कुल को धूल में मिला दिया । पूर्वजन्म में न जाने मैंने कौन-सा पाप किया था। चेतनदास, तुमने मेरी सोने की लंका दहन कर दी। मैंने तुम्हें देवता समझकर तुम्हारी आराधना की थी। तुम राक्षस निकले। जिस रूखार को मैंने बाग समझा था। वह बीहड़ निकला। मैंने कमल का फूलतोड़ने के लिए पैर बढ़ाए थे, दलदल में फंस गई, जहां से अब निकलना दुस्तर है। पतिदेव ने चलते समय मेज पर से कुछ उठाया था।न जाने कौन-सी चीज थी। काली घटा छाई हुई है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। वहां कहां गए ? भगवन्, कहां जाऊँ ? किससे पूछूं, क्या करूं ? कैसे उनकी प्राण-रक्षा करूं ? हो न हो राजेश्वरी के पास गए हों ! वहीं इस लीला का अंत होगी। उसके प्रेम में विह्वल हो रहे हैं। अभी उनकी आशा वह लगी हुई है। मृग-तृष्णा है। वह नीच जाति की स्त्री है, पर सती है। अकेली इस अंधेरी रात में वहां कैसे पहुंचूंगी। कुछ भी हो, यहां नहीं रहा जाता। बग्घी पर गई थी। रास्ता कुछ-कुछ याद है। ईश्वर के भरोसे पर चलती हूँ। या तो वहां पहुंच ही जाऊँगी या इसी टोह में प्राण दे दूंगी। एक बार मुझे उनके दर्शन हो जाते तो जीवन सफल हो जाता। मैं उनके चरणों पर प्राण त्याग देती। यही अंतिम लालसा है। दयानिधि, मेरी अभिलाषा पूरी करो। हा, जननी धरती, तुम क्यों मुझे अपनी गोद में नहीं ले लेतीं ! दीपक का ज्वाला-शिखर क्यों मेरे शरीर को भस्म नहीं कर डालता ! यह भयंकर अंधकार क्यों किसी जल-जंतु की भांति मुझे अपने उदर में शरण नहीं देता!

प्रस्थान।

सातवां दृश्य

स्थान: सबलसिंह का मकान।

समय: ढाई बजे रात। सबलसिंह अपने बाग में हौज के किनारे बैठे हुए हैं।

सबल : (मन में) इस जिंदगी पर धिक्कार है। चारों तरफ अंधेरा है, कहीं प्रकाश की झलक तक नहीं सारे मनसूबे, सारे इरादे खाक में मिल गए। अपने जीवन को आदर्श बनाना चाहता था।, अपने कुल को मर्यादा के शिखर पर पहुंचाना चाहता था।, देश और राष्ट' की सेवा करना चाहता था।, समग्र देश में अपनी कीर्ति फैलाना चाहता था।देश को उन्नति के परम स्थान पर देखना चाहता था।उन बड़े-बड़े इरादों का कैसा करूणाजनक अंत हो रहा है। फले-फूले वृक्ष की जड़ में कितनी बेदर्दी से आरा चलाया जा रहा है। कामलोलुप होकर मैंने अपनी जिदंगी तबाह कर दीब मेरी दशा उस मांझी की-सी है जो नाव को बोझने के बाद शराब पी ले और नशे में नाव को भंवर में डाल दे। भाई की हत्या करके भी अभीष्ट न पूरा हुआ। जिसके लिए इस पापकुंड में कूदा, वह भी अब मुझसे घृणा करती है। कितनी घोर निर्दयता है। हाय ! मैं क्या जानता था। कि राजेश्वरी मन में मेरे अनिष्ट का दृढ़ संकल्प करके यहां आई है। मैं क्या जानता था। कि वह मेरे साथ त्रियाचरित्र खेल रही है। एक अमूल्य अनुभव प्राप्त हुआ। स्त्री अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए, अपने अपमान का बदला लेने के लिए, कितना भयंकर रूप धारण कर सकती है। गऊ कितनी सीधी होती है, पर किसी को अपने बछड़े के पास आते देखकर कितनी सतर्क हो जाती है। सती स्त्रियां भी अपने व्रत पर आघात होते देखकर जान पर खेल जाती हैं। कैसी प्रेम में सनी हुई बातें करती थी। जान पड़ता था।, प्रेम के हाथों बिक गई हो, ऐसी सुंदरी, ऐसी सरला, मृदुप्रकृति, ऐसी विनयशीला, ऐसी कोमलह्रदया रमणियां भी छलकौशल में इतनी निपुण हो सकती हैं ! उसकी निठुरता मैं सह सकता था।किंतु ज्ञानी की घृणा नहीं सही जाती, उसकी उपेक्षासूचक दृष्टि के सम्मुख खड़ा नहीं हो सकता। जिस स्त्री का अब तक आराध्य देव था।, जिसकी मुझ पर अखंड भक्ति थी, जिसका सर्वस्व मुझ पर अर्पण था।, वही स्त्री अब मुझे इतना नीच और पतित समझ रही है। ऐसे जीने पर धिक्कार है ! एक बार प्यारे अचल को भी देख लूं। बेटा, तुम्हारे प्रति मेरे दिल में बड़े-बड़े अरमान थे।मैं तुम्हारा चरित्र आर्दश बनाना चाहता था।, पर कोई अरमान न निकला। अब न जाने तुम्हारे उसपर क्या पड़ेगी। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें ! लोग कहते हैं प्राण बड़ी प्रिय वस्तु है। उसे देते

हुए बड़ा कष्ट होता है। मुझे तो जरा भी शंका, जरा भी भय नहीं है। मुझे तो प्राण देना खेल-सा मालूम हो रहा है। वास्तव में जीवन ही खेल है, विधाता का क्रीड़ा-क्षेत्र ! (पिस्तौल निकालकर) हां, दोनों गोलियां हैं, काम हो जाएगी। मेरे मरने की सूचना जब राजेश्वरी को मिलेगी तो एक क्षण के लिए उसे शोक तो होगा ही, चाहे फिर हर्ष हो, आंखों में आंसू भर आएंगी। अभी मुझे पापी, अत्याचारी, विषयी समझ रही है, सब ऐब-ही-ऐब दिखाई दे रहे हैं। मरने पर कुछ तो गुणों की याद आएगी। मेरी कोई बात तो उसके कलेजे में चुटकियां लेगी। इतना तो जरूर ही कहेगी कि उसे मुझसे सच्चा प्रेम था।शहर में मेरी सार्वजनिक सेवाओं की प्रशंसा होगी। लेकिन कहीं यह रहस्य खुल गया तो मेरी सारी कीर्ति पर पानी फिर जाएगी। यह ऐब सारे गुणों को छिपा लेगा, जैसे सफेद चादर पर काला धब्बा, या स्वर्ग सुंदर चित्र पर एक छींटा। बेचारी ज्ञानी तो यह समाचार पाते ही मूच्र्छित होकर फिर पड़ेगी, फिर शायद कभी न सचेत हो, यह उसके लिए वज्राघात होगी। चाहे वह मुझसे कितनी ही घृणा करे, मुझे कितना ही दुरात्मा समझे, पर उसे मुझसे प्रेम है, अटल प्रेम है, वह मेरा अकल्याण नहीं देख सकती। जब से मैंने उसे अपना वृत्तांत सुनाया है, वह कितनी चिंतित, कितनी सशंक हो गई है। प्रेम के सिवा और कोई शक्ति न थी जो उसे राजेश्वरी के घर खींच ले जाती।

हलधर चारदीवारी कूदकर बाग में आता है और धीरे-धीरे इधर-उधर ताकता हुआ सबल के कमरे की तरफ जाता है।

हलधर : (मन में) यहां किसी की आवाज आ रही है। (भाला संभालकर) यहां कौन बैठा हुआ है। अरे ! यह तो सबलसिंह ही है। साफ उसी की आवाज है। इस वक्त यहां बैठा क्या कर रहा है ? अच्छा है यहीं काम तमाम कर दूंगा। कमरे में न जाना पड़ेगा। इसी हौज में फेंक दूंगा। सुनूं क्या कह रहा है।

सबल : बस अब बहुत सोच चुका। मन इस तरह बहाना ढूंढ रहा है। ईश्वर, तुम दया के साफर हो, क्षमा की मूर्ति हो, मुझे क्षमा करना। अपनी दीनवत्सलता से मुझे वंचित न करना। कहां निशाना लगाऊँ ? सिर में लगाने से तुरत अचेत हो जाऊँगी। कुछ न मालूम होगा, प्राण कैसे निकलते हैं। सुनता हूँ प्राण निकलने में कष्ट नहीं होता। बस छाती पर निशाना मारूं।

पिस्तौल का मुंह छाती की तरफ फेरता है। सहसा हलधर भाला फेंककर झपटता है और सबलसिंह के हाथ से पिस्तौल छीन लेता है।

सबल : (अचंभे में) कौन ?

हलधर : मैं हूं हलधर।

सबल : तुम्हारा काम तो मैं ही किए देता था।तुम हत्या से बच जाते। उठा लो पिस्तौल।

हलधर : आपके उसपर मुझे दया आती है।

सबल : मैं पापी हूँ, कपटी हूँ। मेरे ही हाथों तुम्हारा घर सत्यानाश हुआ। मैंने तुम्हारा अपमान किया, तुम्हारी इज्जत लूटी, अपने सगे भाई का वध कराया। मैं दया के योग्य नहीं हूँ।

हलधर : कंचनसिंह को मैंने नहीं मारा।

सबल : (उछलकर) सच कहते हो ?

हलधर : वह आप ही गंगा में कूदने जा रहे थे।मुझे उन पर भी दया आ गई। मैंने समझा था।, आप मेरा सर्वनाश करके भोग-विलास में मस्त हैं। तब मैं आपके खून का प्यासा हो गया था।पर अब देखता हूँ तो आप अपने किए पर लज्जित हैं, पछता रहे हैं, इतने दु: खी हैं कि प्राण तक देने को तैयार हैं। ऐसा आदमी दया के योग्य है। उस पर क्या हाथ उठाऊँ !

सबल : (हलधर के पैरों पर गिरकर) तुमने कंचन की जान बचा ली, इसके लिए मैं मरते दम तक तुम्हारा यश मानूंगा। मैं न जानता था। कि तुम्हारा ह्रदय इतना कोमल और उदार है। तुम पुण्यात्मा हो, देवता हो, मुझे ले चलो।कंचन को देख लूं। हलधर, मेरे पास अगर कुबेर का धन होता तो तुम्हारी भेंट कर देता। तुमने मेरे कुल को सर्वनाश से बचा लिया।

हलधर : मैं सबेरे उन्हें साथ लाऊँगा।

सबल : नहीं, मैं इसी वक्त तुम्हारे साथ चलूंगा। अब सब्र नहीं है।

हलधर : चलिए।

दोनों फाटक खोलकर चले जाते हैं।

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