देह के दायरे
भाग - सताईस
पूजा को तपस्या करते एक वर्ष बीत गया मगर देव बाबू का कोई समाचार उसे न मिला | इसपर भी उसका विश्वास था कि उसका पति एक दिन अवश्य ही वापस लौट आएगा | उसकी तपस्या निरर्थक नहीं होगी, यही सोचकर वह पति की प्रतीक्षा कर रही थी |
देव बाबू के चले जाने के पश्चात् पूजा अन्धविश्वासों में घिर गयी थी | पण्डितों के बहकावे में आकर वह दान-पुण्य और यज्ञ आदि भी करती थी | सप्ताह के तीन दिन तो वह तरह-तरह के उपवासों में ही व्यतीत कर देती थी |
विद्यालय के प्रत्येक भ्रमण-कार्यक्रम में वह बच्चों के साथ अवश्य जाती | हर स्थान पर उसकी दृष्टि देव बाबू को खोजती रहती | वह विरहिणी-सी एक स्थान से दुसरे स्थान पर उनकी खोज में भटकना चाहती थी | कोई साधू या तपस्वी उसे मिलता तो वह उससे देव बाबू के विषय में पूछती परन्तु प्रत्येक दिशा में उसे अब तक निराशा ही मिली थी |
बहुत दिनों के बाद आज रविवार का दिन उसने घर रहकर व्यतीत किया था | पंकज भी आज स्टूडियो नहीं गया था | करुणा बाजार गयी हुई थी | पूजा नीचे के कमरे में पलंग पर अधलेटी-सी कोई पत्रिका देख रही थी तभी सामने से उसे पंकज कहीं जाते हुए दिखाई दिया |
“कहाँ जा रहे हो पंकज?” पत्रिका को एक ओर रखकर उसने उसे पुकार लिया |
“बाजार जा रहा था, कोई काम था क्या?” पंकज ने रुकते हुए पूछा |
“उनके विषय में कुछ पता नहीं चला?”
“नहीं!” सुनकर पंकज उसके पास आ गया |
“तुम्हारा क्या विचार है पंकज?”
“पूजा, परछाई के पीछे इस तरह पागल होकर नहीं भागना चाहिए |”
“अब तो यह परछाई ही मेरे जीवन का आलम्बन है |”
“पागल मत बनो पूजा | मुझसे तुम्हारा दुःख देखा नहीं जाता | मुझे कुछ करने दो पूजा |”
“क्या करना चाहते हो?”
“मैं...मैं...” आवेश में पंकज ने उसकी दोनों बाँहों को पकड़ लिया और उसकी आँखों में झाँकतें हुए बोला, “मैं देव बाबू का सपना पूरा करना चाहता हूँ पूजा |”
“वह सपना कभी सच नहीं होगा पंकज |”
“पर क्यों; क्यों तुम स्वयं को मिटाना चाहती हो और क्यों तुमने मेरे जीवन को बाँध रहा है?” आवेश में पंकज ने कहा |
“तुम मेरी ओर से स्वतन्त्र हो पंकज |” पूजा ने शान्त स्वर में कहा और स्वयं को छुड़ाकर पलंग पर बैठ गयी |
“जानती हो पूजा, लोग हमारे बारे में क्या बोलते हैं?”
“क्या सोचते हैं?”
“हम दोनों ने मिलकर देव बाबू को घर से निकल दिया है |” पंकज एक ही साँस में कह गया |
“लोगों को सोचने दो पंकज | तुम तो पुरुष हो, इसकी चिन्ता क्यों करते हो? मैं एक स्त्री होकर भी इस तरह के आक्षेपों की परवाह नहीं करती | मुझपर भी तो ये आक्षेप किए जाते हैं पंकज | मेरे दिल में कोई बुराई नहीं है तो फिर मैं इस सबकी चिन्ता क्यों करूँ?”
“लेकिन मुझसे यह अपमान सहन नहीं होता |”
“नहीं होता तो तुम यहाँ से जाने के लिए स्वतन्त्र हो | उन्होंने तुम्हें यहाँ छोड़ा था इसलिए मैं चाहती तो नहीं कि तुम यहाँ से जाओ मगर यदि तुम इसे बन्धन महसूस करते हो तो मैं तुम्हें बाँधकर नहीं रखना चाहती |”
“मेरे यहाँ रहने में तुम्हें कोई आपति नहीं है? मैं भी एक पुरुष हूँ, क्या तुम्हें मुझसे भय अनुभव नहीं होता?” पंकज ने उसपर प्रश्न करते हुए कहा |
“नहीं पंकज | मुझसे स्वयं पर विश्वास है | तुम्हारे यहाँ रहने से तो मैं स्वयं को सुरक्षित अनुभव करती हूँ |” एक दृढ़ता के साथ पूजा ने कहा | पंकज भी उसके इस विश्वास से प्रभावित हुए बिना न रह सका |
“इतना विश्वास! मुझे क्षमा कर देना पूजा | तुम देवी हो...तुम्हारा चरित्र इतिहास में अमर हो जाएगा | मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ पूजा |” कहते हुए पंकज सचमुच ही पूजा के समक्ष झुक गया |
“मुझमें ऐसी कोई महानता नहीं है पंकज, मैं तो अपने पत्नी-धर्म का पालन मात्र कर रही हूँ | देखती हूँ, मेरी तपस्या में कितनी शक्ति है |” मुसकराते हुए शान्त स्वर में पूजा ने कहा |
“भगवान में भी इतनी शक्ति नहीं होगी जो तुम्हारी इच्छा का विरोध कर सके | देव बाबू अवश्य लौटेंगे |” कहते हुए पंकज दरवाजे से बाहर निकल गया |
अब पूजा का आत्मविश्वास धीरे-धीरे जाग्रत होने लगा था | किसी से बात करने में अब वह संकोच अनुभव नहीं करती थी | शारीरिक रूप से वह अवश्य ही क्षीण हो गयी थी मगर उसकी इच्छाशक्ति काफी दृढ़ हो गयी थी | उसके मुख पर चमक और आँखों में आत्मविश्वास झलकने लगा था |
अपने पति से अपमानित होकर उसके हृदय में उनके अनिष्ट के विचार पहले कई बार उठते थे परन्तु अब उनके चले जाने के बाद वह स्वयं को और भी अधिक दुखी अनुभव करती थी | पति कैसा भी हो, नारी के लिए सुरक्षा होता है | उसके अभाव में पूजा ने स्वयं को कई बार बहुत ही कमजोर अनुभव किया था |
वहाँ बैठे-बैठे उसका मन ऊब गया था | उठकर वह घर की सफाई में लग गयी | अपना कमरा साफ करके वह ऊपर पंकज का कमरा ठीक करने चली गयी |