अन्तरसंस्कृतिक विवाह saksham dwivedi द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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अन्तरसंस्कृतिक विवाह

अन्तरसंस्कृतिक विवाह,प्रवासन तथा हिन्दी ।

सक्षम द्विवेदी।

जहां सनातन धर्म में विवाह सोलह संस्कारों में से एक है वहीं सामाजिक रूप से सामान्य तौर पर यह दो लोगों को एक साथ पति-पत्नी के रूप में रहने की सार्वजनिक मान्यता पर आधारित विषयवस्तु है।

आज के दौर में जब विवाह जातीय और धार्मिक समानता की बाध्यताओं को तोड़ता नजर आ रहा है वहीं भाषाई दृष्टी से यह एक विशिष्ट परिवर्तन के कारण के रूप में स्थापित हो रहा है।

सन 2009 के आंकड़ों के अनुसार इस समय 6909 भाषाएं हैं। डेविड हर्मन के अनुसार भाषाएं तेजी से समाप्त भी हो रहीं हैं, भाषाओं की समाप्ति को ‘लिंग्वस्टिक एत्थ्नोसाइट’ का नाम दिया गया है।

वर्तमान में जब भाषाई विलुप्तिकरण की समस्या गहरा रही है और तमाम देश इस को लेकर चिंतित भी दिख रहें हैं। पापुआ न्यू गिनी 470 भाषाओं में पाठ्यपुस्तकों को प्रकाशित कर रहा है तथा भारत में विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन किया गया।ऐसे में इस विषय पर विचार करना और भी जरूरी हो जाता है कि अन्तरसंस्कृतिक विवाह किस प्रकार से भौगोलिक प्रवासन का कारण बन रहें है और किस प्रकार से भाषा को प्रभावित कर रहें हैं।

जब हम भारत के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार के विवाह और उसके भाषाई प्रभाव पर नजर डालते हैं तो कुछ दिलचस्प मामले हमारे सामने इस प्र्रकार से आतें हैं-

मेखला भारद्वाज- मेखला श्री कांत भारद्वाज एक हिन्दी भाषी क्षेत्र उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से हैं परन्तु इनका विवाह सुदुर दक्षिण क्षेत्र कर्नाटक के मंगलौर में कन्नड़ भाषी अध्यापक श्री कांत भारद्वाज से होता है।

(मेखला भारद्वाज पति श्री कांत व पुत्र अनन्त के साथ)

आज विवाह के चार से अधिक वर्ष हो जाने पर मेखला न सिर्फ कन्नड़ में बात करतीं हैं अपितु उनका पुत्र अनन्तकृष्ण भी इसी भाषा केा अग्रसारित कर रहा है। मेखला से यह प्रश्न पूछने पर कि आप अपने पुत्र को हिन्दी बोलने और लिखने के लिए प्रेरित नहीं करतीं हैं? पर जवाब देतीं हैं कि हम अपने पुत्र को हिन्दी सिखाना तो चाहतें हैं पर यह इस परिस्थिति में न ही उसके लिए उपयोगी है और न ही इससे कोई लाभ है। हां यह जरूर है कि अनन्त को अंग्रेजी सिखाने का प्रयास किया जा रहा है। मेखला का कहना है कि उनके ससुराल पक्ष से कई लोगों का प्रवासन मघ्य एशियाई देशों के लिए होता है और आज कई लोग वहीं रहने लगे हैं ऐसे में अनन्त के लिए हिन्दी से कहीं अधिक उपयोगी भाषा अंग्रेजी है जो कि संधि भाषा के रूप में भारत में स्थापित हो चुकी है।

सूरीनाम में हिन्दी -इसी प्रकार सुदूर दक्षिणी अमेरिकी देश में भी उत्तर प्रदेश के कुछ लोग विवाह के कारण प्रवासित हुए हैं। सूरीनाम में हिन्दी ‘सरनामी’ के रूप में बोली जाती है। सरनामी में भारतीय क्षेत्रीय बोलियां भोजपुरी आदि का प्रभाव अधिक है इसीलिए आज के दौर में प्रवासित होने वाले भारतीय युवा इसको अपनाने से कतराते नजर आतें हैं उनका मानना है कि भारतीय शिक्षा पद्धति में इन क्षेत्रीय भाषाओं को उचित स्थान प्राप्त नहीं है अतः उनका सरोकार इससे कभी नहीं रहा अतः सूरीनाम में क्षेत्रीय लोगों से संवाद करने के लिए ये अंग्रेजी को ही माघ्यम बनाते हैं।

उदाहरण के तौर पर ‘‘वो देखा’’ केा सरनामी हिन्दी में ‘‘उ देखस’’ कहा जाता है।

हांलाकि सूरीनाम में हिन्दी और भारतीयों की की स्थिती अपेक्षाकृत बेहतर है, यहां की आबादी 5 लाख 73 हजार से कुछ अधिक है जिसमें 40 प्रतिशत मुलाटोज हैं जो कि यूरोपीय और भारतीयों की मिश्रित प्रजाति हैं जिसका सीधा अर्थ हिन्दी और डच के ज्ञान से लिया जा सकता है।

सूरीनाम में भारतीय प्रवासन 5 जून 1873 से माना जाता है जबकि ‘‘लल्ला रूह’’ नामक जहाज 452 भारतीयों को लेकर सूरीनाम जाता है। अगर सूरीनाम में भारतीयों की संख्या पर नजर डाली जाए तो इस प्रकार के आंकड़े प्राप्त होतें हैं-

साल भारतीयों की संख्या

1925 28807

1935 36331

1945 51530

1965 121162

1970 142049

इस आंकड़े के साथ एक बात और गौर करने वाली है कि ‘‘नीदरलैण्ड के दोहरा अधिवास’’ नियम के कारण सूरीनाम से भारतीयेा की एक बड़ी संख्या नीदरलैण्ड गयी आज नीदरलैण्ड में 1 लाख 60 हजार सूरीनामी भारतीय रह रहें हैं।

सूरीनाम में हिन्दी को लेकर भी अनेक कार्य किए गयें हैं इनको इस प्रकार से देखा जा सकता है।

  • यहां पर ‘सूरीनाम हिन्दी परिषद’ हिन्दी प्रचार की प्रमुख संस्था है।
  • बाबू महातम सिंह ने हिन्दी के विकास पर महत्वपूर्ण कार्य किये। रामायण को अपने नजरिये से लिखा।
  • सभी धार्मिक संस्थाओं ( आर्य समाज,सनातन धर्म महासभा,सूरीनाम साहित्य मित्र) ने हिन्दी के प्रचार प्रसार में योगदान दिया।
  • हरि देव सहतू तथा मुंशी रहमान खान के काव्य यहां प्रचलित है। रहमान खान ने हजरत नबी मुहम्मद रसूलिल्लाह के जीवन चरित्र को तुलसीदास कृत रामचरित मानस की शैली में रचना की ।
  • परन्तु आज जो सूरीनाम में भारतीयों की चौथी व पांचवी पीढ़ी रह रही है जो कि परंपरागत मूल्यों की अपेक्षा आधुनिकता की ओर अग्रसर है। इसीलिए आज विवाह के कारण सूरीनाम प्रवासित तमाम भारतीय युवा चाहकर भी व्यहवारिक तौर हिन्दी को अधिक वरीयता नहीं दे पा रहें है।

    तीसरा मामला 60वर्षीय अशोक नारायण चौधरी का है जो कि कलकत्ता मूल से हैं परन्तु अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में बीतने के कारण बांग्ला जानने के बावजूद हिन्दी का ही प्रयोग करते थे परन्तु पांच वर्ष पूर्व जर्मनी की मालविका से विवाह के पश्चात जर्मनी के निवासी हो गये तथा आज कोलोन शहर में अपनी पत्नी तथा पुत्र युस्तुस के साथ जीवनयापन कर रहें हैं। अशोक चौधरी आज गहरे भाषाई संकट से जूझ रहें हैं जर्मन का ज्ञान सरकार के मानक के अनुरूप न होने के कारण जर्मनी में कार्य करने में अत्यधिक परेशानी का सामना कर रहें हैं। इनका कहना है कि मात्र अंग्रेजी को जानने से यहां पर कार्य कर पाना असंभव है,जर्मनी के निवासी व सरकार अपनी भाषा को लेकर काफी संवेदनशील है तथा यहां पर हर

    (अशोक नारायण चौधरी और उनका पुत्र युस्तुस)

    सरकार व प्रशासन से जुड़ा कार्य जर्मन भाषा में ही होता है। यहां तक कि उनका पुत्र युस्तुस भी उन्हे ‘वाटर’ (जर्मन में पिता को कहते हैं) ही कहकर संबोधित करता है। जर्मन सरकार ऐसे नागरिकों के लिए जर्मन अध्ययन का एक कार्यक्रम चलाती है जिन्हे वहां की नागरिकता तो प्राप्त हो गयी है परन्तु जर्मन भाषा का ज्ञान नहीं है। चैधरी जी बताते हैं कि वह इस जर्मन पाठ्यक्रम का प्राथमिक चरण भी बमुश्किल उत्तीर्ण कर पाएं हैं। इस उम्र में नई भाषा सीखना भी समस्या का एक सबब कहा जा सकता है।

    जर्मनी में 2003 के आंकड़ों के अनुसार 43,566 भारतीय नागरिक और 17,500 भारतीय मूल के लोग रह रहें हैं। और आज यह संख्या निश्चित रूप से और अधिक हो गयी है।

    डा0मुन्ना लाल गुप्ता का प्रकरण- डा0मुन्ना लाल गुप्ता महात्मा गांधी इंटरनेशनल यूनीवर्सिटी वर्धा में सहायक प्रोफेसर हैं तथा महाराष्ट्र की बलबीर से विवाह करके वर्धा जिले में निवास कर रहें हैं। आज इनका पुत्र अर्थव मराठी में बात कर रहा है तथा स्वयं डा0 मुन्नालाल भी दैनिक बोलचाल में मराठी के कई शब्द आत्मसात कर चुकें हैं।

    ‘डा0 मुन्ना लाल अपने परिवार के साथ’

    मारीशस में हिन्दी - डा0 उदय नारायण गंगू का मानना है कि मारीशस में हिन्दी की यात्रा को एक सौ अस्सी वर्षों की है। यहां पर हिन्दी का इतिहास तीन भागों आप्रवासन काल,स्वतंत्रता के पूर्व का काल और स्वतंत्रता के बाद का काल।

    यहां पर पंडित काशीनाथ,गीता मंडल और हिन्दू महासभा,वेणी माधव सतीराम,अभिमन्यु अनत,मोहन लाल मोहित आदि ने हिन्दी पर उत्कृष्ठ कार्य किये।

    अभिमन्यु अनत ने ‘‘लाल पसीना’’ में मारीशस में भारतीयों के जीवन का चित्रण किया है तथा ‘‘गांधी जी बोले थे’’ में मारीशस में गांधी जी के संबोधन को आधार बनाकर लिखा है।

    ( मारीशस की शिक्षामंत्री श्रीमती लीला लछुमन का इंटरव्यू लेते हुए )

    विश्व हिन्दी सम्मेलन में आयीं मारीशस की शिक्षा मंत्री श्री मती लीला दुखन लछुमन ने मारीशस और विश्व में हिन्दी के विकास के लिए मारीशस में स्थित विश्व हिन्दी सचिवालय को और मजबूत बनाने,विश्व में हिन्दी शिक्षा के प्रसार को बढ़ाने आदि अनेक संस्तुतियां प्रस्तुत कीं।

    मारीशस ‘हिन्दी प्रचारिणी सभा’’ और ‘‘हिन्दी स्पीकिंग यूनियन’’ जैसी संस्थाएं हिन्दी को संरक्षित व सवंर्धित करने का प्रयास कर रहीं हैं।

    मारीशस मे हिन्दी के उच्चारण को समझने के लिए इस प्रकार समझा जा सकता है।

    यहां पर ‘‘उसने देखा’’ को ‘‘उ देखलस’’ बोला जाता है।

    फिजी में हिन्दी - फिजी में तोताराम सनाढ्य,पंडित कमला प्रसाद मिश्र,कुंवर सिंह,जोगेन्द्र सिंह कुवल,पं0अमीचंद,डा0सुब्रमनी आदि हिन्दी में उल्लेखनीय नाम हैं।

    इसमें तोताराम सनाढ्य की कृति फिजी द्वीप में मेरे इक्कीस वर्ष उनकी खुद की कहानी बयां करती है तथा सुब्रमनी की डउका पुराण चर्चित कृति है।

    फिजी में हिन्दी इस प्रकार से प्रयोग में लाई जा रही है।

    यहां पर ‘‘उसने देखा’’ को ‘‘ उ देखउ’’ बोला जाता है।

    ऐसे में इन मामलों को देखते हुये विलुप्त होती भाषाओं के विकास और उसे क्रियान्वित करने की व्यहवारिक समस्याओं पर भी गौर करना होगा। अन्यथा यह प्रयास सम्मेलनों और कागजों तक ही सीमित रह जाएंगे।

    सक्षम द्विवेदी। रिसर्च आन इंडियन डायस्पोरा एण्ड माइग्रेशन,महात्मा गांधी इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी।मो0 7588107164