हंसा: नन्ही आंखों का सच, सपना और समाज
रंगमंच पर अभिनेता-लेखक-निर्देशक के तौर परा कार्यरत मानव कौल की फिल्म ‘हंसा’ २०१२ में रिलीज हुई और कई फिल्म फेस्टीवल प्रदर्शित होकर काफी पुरस्कार कर चुकी हैं..। २००३ में हिंदी फिल्म ‘जजंतरम ममंतरम’ से फ़िल्मी केरियर की शुरुआत करनेवाले मानव कौल मुंबई थिएटर में काफी सालो तक सक्रिय रहे..। चेतन भगत के मशहूर उपन्यास ‘३ मिस्टेक्स ऑफ़ माय लाइफ’ के आधार पर २०१३ में बनी हिंदी फिल्म ‘कायपो छे’ मैं राजनेता की प्रभावशाली भूमिका अदा करनेवाले मानव कौल की यह पहली फिल्म है..।
निर्देशन के अलावा ‘हंसा’ के संवाद और पटकथा भी उन्हों ने लिखे है..। पहाड़ पर रहने वाली छोटी बच्ची चीकु, छोटे भाई हंसा उसके दोस्त राकू और उसके परिवार के इर्दगिर्द घुमती फिल्म की कहानी का मध्यबिंदु खोये पिता की तलाश है..। कर्जे के कारण गाँव-घर छोड़ चुके पिता पैसो की परेशानी और लेनदार की जमीन हड़पने की कवायत उनके सर छोड़ गए है..। छोटे बच्चों के द्रष्टिकोण से कही गई कहानी निर्देशक की कथनकला, केमरामेन की द्र्श्यकला और कलाकारों की सहज अभिनयकला के त्रिवेणी संगम में दर्शकों को स्नान करने की क्षमता रखती है..।
तार पर सीधी बेठी चिड़िया के द्रश्य से शुरू होती फिल्म का शीर्षक ‘हंसा’ तार के समान्तर प्रतिपादित होता है..। क्षणभर के लिए चिड़िया का सीधा होना और फूर से उड़ जाने के साथ शीर्षक का भी ओझल हो जाना प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है..। आरंभ से ही द्रश्यानुभूति कराती यह फिल्म हर बात बोलकर बताने में नहीं दिखाने में विश्वास करती है..। पाठशाला के हर कमरे में हंसा को ढूंढती चीकु अंत में थक हारकर बैठ जाती है..। हंसा पुकारती है..। मगर हंसा वहां नहीं है..। तब उसे गुमशुदा पिता की याद आती है..। कर्ज में डूबा मनोहर घर-गाँव छोड़कर भाग चूका है..। निर्देशक ने यह बात संवाद से नहीं कही..। हंसा नहीं मिलने पर स्कुल के दिनों में खोई चीकु पीठ पर बक्सा बांधकर ले जा रहे आदमी की तस्वीर बनाकर उस पर प्यार से हाथ फेरकर जब वो बहार आती है, तब पिता को पीठ पर बक्सा बांधे जाता हुआ महेसुस करती है..। इस तरह निर्देशक घर-गाँव छोड़कर जा चुके मनोहर को और उस बीच बह चुके कुछ समय को प्रतिपादित करते है..।
हंसा पाठशाला जाने की बजाय दोस्त राकू की लाल गेंद से खेलने की मस्ती में जुटा है..। गुम जानेके डर से राकु गेंद देने को तैयार नहीं..। मगर हंसा गेंद को गुमने से बचने का तरीका बताकर उसे राजी करा लेता है..। गेंद को धागे से बांधकर पैड परा टांगकर खेलने का कारस्तान करते वक्त ज्यादा खींच जाने के कारण धागा उलजता है और गेंद पैड पर ही टंगी रह जाती है..। आरंभ से अंत तक पैड पर टंगी लाला गेंद को रूपक (Metaphor) बनाकर निर्देशक ने अपनी बात कही है..। अनेक प्रयासों के बावजूद पैड पर से न गिरनेवाली गेंद अंत में अपने आप गिरती है..। हंसा और राकू के बीच के इस खेल के समांतर एक दूसरा खेल चलता है..। चीकु और हंसा के पिता का घर-जमीन हथियाने का खेल..! वकील लोहानी कोर्ट आर्डर लाकर मनोहर के घर के आसपास की जमीन नापना शुरू करवाता है..। चीकु को कागज़-पत्र दिखाकर एक हप्ते के समय की बात करता है..।
दरअसल पूरी कारगुजारी के पीछे गाँव के बज्जू दा का हाथ है..। ना सिर्फ जमीन मगर वो जवानी की दहेलीज परा khadiखड़ी चीकु को भी पाना चाहते है..। चीकु की बिमार माँ की पूछताछ और हमदर्दी जताने के नाम पर घर आये बिज्जू दा मौका पाते ही चीकु के गाल खींचना, हाथ पकड़ना और शरीर पर हाथ फेरना नहीं चुकते..! बज्जू दा और वकील लोहनी की पहली मुलाक़ात भी सूचक है..। बज्जू दा को मिलने आ रहे लोहानी के पाछे ढोल बजाता गाँव का पागल ठोंठा..। कहानी यह है की बज्जू दा ने उसकी जमीन हड़प ली है और उसीकि वजह से वो पागल हो गया है..। ढोल बजाकर आयना दिखा रहे ठोंठा को हड़काना, बज्जू दा के बेटे बंटी से पिटवाना और अंत में अक्स्मातावश हुई उसकी मौत को छुपाना जैसे प्रसंग अप्रत्यक्ष रूप से उन लोगों की कारगुजारी को बयां करते है..।
एकसाथ दो-तीन स्तर पर चल रही कहानीयां एकदूसरे का अभिवादन करती है..। एकदूसरे को सहारा देती है..। फिर भी सभी कहानीयों का अपना एक सुर और ताल है..। सभी कहानीयों की अपनी एक कहानी है..। सभी कहानीयां अपने आप में एक कहानी है..। और यही निर्देशक और लेखक की कहानी है..। अविकसित मगर विकास की द्रष्टि से कमाऊ विस्तारों को हथियाने की चाल चल रहे बड़े लोगों की बात को नन्ही आँखों से देखने का यत्न किया गया है..। बड़े यह सब समजते है, मगर मजबूर है या बोलने की हिम्मत खो चुके है..। बच्चों के खेल के समांतर चल रहा बड़ों का खेल आख़िरकार तो गेंद रूपी जमीन को पाना ही है..। बच्चों के खेल मै जो निर्दोष भाव है वो बड़ों के खेलमें इतना निर्दयी हो जाता है की इंसान जानवर से भी बदतर हो जाता है..। पागल ठोंठा को लहू-लुहान करने तक पीटना, मासुम चीकु का शारीरिक शोषण देखते हुए भी अनदेखा करना, अपने पांच रुपये के सिक्के के लिए आफत मचानेवाले बंटी को अपने बाप की करतूत पर गुस्सा न आना और बज्जू दा की नियत जानकर भी चीकु को उनके घर पैसे लेने भेजना जैसे प्रसंग, इंसानी रुपमे बैठे भेडियों की मानसिक और चैतसिक हिंसा का प्रतीक है..। निर्देशक ने ऐसे नाजुक पल और प्रसंगों को बड़े सहज रूप से फिल्माया और प्रस्तुत किया है..।
हंसा और राकु के खेल मैं अटकी या लटकी लाल गेंद इंसानी लालच का प्रतीक है..। फल है..। चाहत है..। बच्चे खेलवश अटकी-लटकी गेंद गिराने के लिए निर्दोष प्रयत्न करते है, मगर बड़े उसे पाने के लिए कितना गिर जाते है..? उस बात को बड़े महीन तरीके से प्रस्तुत किया है..। तो दूसरी ओर लाल गेंद को बालगीत के माध्यम से भी अभिव्यक्त किया है..।
लाल गेंद है खूब चटक, चटक-चटक चटक-चटक
पैड पे जाकर गई लटक, लटक-लटक लटक-लटक
मारा इंटा पत्थर फैंका पत्तों का गत्थर
पर गेंद वो सब कुछ सटक गई
झुरमुठ में सचमुच अटक गई
मेरी लाल गेंद है...
काव्यात्मक अभिव्यक्ति सिर्फ बालगीत के माध्यम से नहीं, पर कुछ अव्यक्त शब्दों से भी की गई है..। एक ओर चीकु बाबा की खोज में गाँव और शहर की खाक छानती है, तो दूसरी ओर हंसा गाँव से शहर जानेवाली ट्रक के निचे घुसकर पिछले पहिये के ऊपर लगे सुरक्षा गार्ड पर चोक से अपना संदेश लिखकर भेजता है..। और अंत में जवाब भी आता है..। तैय मुदत पूरी होने पर बिज्जू दा के लोग घर-जमीन पर कब्ज़ा कर नया निर्माणकार्य शुरू करते है..। निराश हंसा शहर जा रही ट्रक के निचे संदेश लिखने घुसता है तब वहां संदेश लिखा पाता है: “दोस्त, चिन्ता नहीं। सब ठीक होगा।”
इतनी मुसीबत और लाचारी के बावजूद हकारात्मक शब्द पर फिल्म का अंत उम्मीद पर दुनिया कायम है वाला मंत्र सुनाता है..। बाप घर और गाँव छोड़कर भाग गया है, माँ बिमार है, बच्चे को जन्म देनेवाली है, भाई (हंसा) किसीकी एक नहीं सुनता, गाँव का सशक्त आदमी बिज्जू दा उनकी जमीन-मकान तो हड़प करनेवाला ही है मगर वो उसकी (चीकु) मासूमियत को भी अपनी हवस तले कुचलना चाहता है..! यह सब जानते हुए भी माँ और पडोशन उसे बिज्जू दा के पास पैसे लेने भेजती है..। वहां बिज्जू उसके साथ शारीरिक खिलवाड़ करता है..। चीकु वहां से भागती है..। विरोधाभासी परिस्थिति और प्रतिकूल माहोल के बावजूद चीकु की कोशिश जारी रहती है..। हंसा अपने हिसाब से उसे मदद भी करता है और परेशानी भी बढाता है..। फिर भी Positive Note पर फिल्म का अंत बहुत कुछ कह जाता है..। निर्देशक की सोच दर्शाता है..। बाल-मानस को अभिव्यक्त करता है..। दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर उस अंत के प्रभाव तले Exit करवाता है..।
जहाँ अभी भी विकास नहीं पहुंचा है, वहां भी विकास के नाम पर आकार ले चुके दुष्परिणाम को अघोषित तरीके से कहती यह फिल्म नन्ही आँखों ने देखे सच, सपना और समाज को दर्शाती है..। उसे कहने निर्देशक ने जो औजार (Tool) इस्तमाल किये है वो कहानी, पटकथा, चरित्र चित्रण, चलचित्रीकरण (Cinematography) और रोज-बरोज के ध्वनी का पुनर्निर्माण (Foley Sound) है..।
मानव कौल का निर्देशन और कहानी सीधी-सरल है, मगर पटकथा कहीं-कहीं उलझी और असंगत लगती है..। फिल्म को फ़िल्मी चक्करों से दूर रखकर वास्तविक चित्रण फिल्म की USP है..। निर्देशक का यही अंदाज फिल्म को दर्शनीय बनाता है..। बाल-कलाकारों से अनाटकीय अभिनय करवाना भी फिल्म की पहेचन बनी है..। पटकथा मैं बुने गए कुछ किरदार और उनका चरित्र चित्रण लाजवाब है..। खास कर बहुत छोटा मगर प्रभावशाली और कथावाहक किरदार ठोंठा सबा को प्रभावित करता है..। उस छोटे से किरदार के माध्यम से बीजू दा और गाँव के शकिशाली लोगों की असलियत बयां करवाई है..। घोडा चलानेवाला बुबु का किरदार भी ध्यानाकर्षक है..। अपने काम के प्रति अटल वफ़ादारी के बावजूद मेहनताना उसे नहीं मिलाता..! निर्देशक ऐसे किरदारों के माध्यम से अन्य पत्रों की लाक्षणिकता और कहानी का सुर बयां करवाते है..। दूसरी ओर चीकु और हंसा की माँ, दुकानदार और पडोशन का ढीला और लचर किरदार बेमतलब सा लगता है..!
सचिन कबीर का चलचित्रीकरण काबिल-ए-तारीफ है..! पहाड़ी प्रदेश और उसके सौन्दर्य को सहज तरीके से प्रस्तुत करने के साथ उसे फिल्म का एक सशक्त किरदार बनाया है..! बहुत द्रश्य ऐसे है जहाँ निर्देशक की सोच को सचिन कबीर ने न सिर्फ चार गुना आगे बढाया है, मगर उसे नया अर्थ और मुकाम भी दिया है..! सचिन कबीर का चलचित्रीकरण ‘हंसा’ का प्रमुख अंग है, उसी तरह रोज-बरोज के ध्वनी के पुनर्निर्माण में करन अर्जुन सिंघने मधुर सुर लगाया है..! फिल्म ‘हंसा’ में Foley Sound एक किरदार बनकर उभरा है जिसे सुनने में महसूस करने में बड़ा आनंद आता है..!
अभिनय के पलड़े में चीकु (त्रिमाला अधिकारी) सबसे आगे दिखती है..! तो बिज्जू दा (कुमुद मिश्रा) और लोहानी (अभय जोषी) का अभिनय प्रभावशाली है..! शीर्षक पात्र हंसा (मास्टर सूरज नेगी) और राकु (योगेश कबाड़वाल) मन को भाते है..! पागल ठोंठा याद रह जाता है..!
फिल्म देखकर एक बात सताती है..! आम तौर पर हंसा लड़की का नाम और चीकु लडके का नाम होता है..! फिल्म में उसे उलटाकर निर्देशक कुछ कहना चाहते है..? प्रमुख पात्र चीकु होने के बावजूद फिल्म का नाम चीकु क्यों नहीं रखा गया..? क्या वो लड़की है इसलिए..? या फिर निर्देशक कुछ और कहना चाहते है..? जवाब अपनी अपनी समाज पर निर्धारित है..!
Tarun Banker: Filmmaker, Writer & Actor
Undergoing Ph. D. On Feature Films Based on Literature
(M) 8866175900 / 9228208619 Email:
Blog : http://taruncinema.wordpress.com