बिखर गया धुआँ...! VIJAY THAKKAR द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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बिखर गया धुआँ...!

बिखर गया धुआँ....!!!!


आँखें मूंद करके कब से बिस्तरमें लेटे रहे थे हम.. नींद तो बहुत ही कम आई पूरी रात... अरे आई ही कहाँ..? और नींद आति भी कैसे..?? शराब और शबाब दोनों का हैंगओवर था.. बदनमें काफी सुस्ती महसूस होती थी.. बिस्तर से उठा ही नहीं जाता था I आंखें ख़ोली, सामने ही घड़ी में टाईम देखा.. आठ बज चूके थे.. सामने कैलंडर में देखा.... छह सितम्बर.....इतवार...
कुछ याद आया और फट से बिस्तरमे से जम्प लगा कर हम उठ खड़े हुए.. सीधे बाथरूम में गए, वहां टंगी हमारी पेन्टमें से एक परची निकाली.. उससे लेकर हमारी रिक्लाइनिंग चेयर पर जाकर बैठ गए... परची पढ़ी और हमारी नज़र फिर से घडी की और गई.. फिर से एक बार परची देखी और बस आँखों के सामने कल रात का नजारा आ गया..!!!

बड़ी लम्बी चली थी महफ़िल भी कल रात.....!!
कल.., हाँ... गया हुआ कल, हमारी जिंदगी सबसे बेहतरीन दिन था.. हमारी मुराद पूरी कर ही दी उपरवालेने.... कहाँ पता था, ऐसे ही बस याँ ही अचानक हमारी लकीलेडीका सामना हो जाएगा... ! अरि सामना तो हुआ ही.. पर शायद उपरवाला कल हम पर ज्यादा मेहरबान था...कल का दिन शायद हमारे लिए ही बनाया था I हमें मिलवाया उनसे... अरि मिलवाया कहाँ...? हमने तो पा ही लिया ना उनको..!!

जब पैगाम आया था महफ़िल में शिरकत करने का, तब तो हमने साफ़ इनकार कर दिया था, पर क्या पता फिर कैसे चले गए..! और चले गए तो...!!! वाह, हमारी तो किस्मत ही खुल गई... कैसे सज़ा के रखा था एक नायाब तोहफ़ा हमारे लिए उपरवाले ने.. भई वाह..कमाल हो गया...!!!
हम तो काफी देर से पहूँचे थे होटल सिल्वर क्लाउड के टैरेस पर, जहाँ पार्टी सजाई गई थी...! पांच सितारा यह होटल का टैरेस भी बेनमून था.. झगमगाती हुई रोशनी के

बिच पूरा टैरेस, बेहद खूबसूरतीसे सजाया गया था I चकाचौंध कर देनेवाला रिवरफ्रंट का नजारा और टैरेस पर से दिखाई पड़ती स्कायलाइन न्यूयोर्क की याद दिलाने के लिए काफी थी I
अभी तो दरवाजे से हम एंटर ही हुए थे, की लोगों ने हमारा नाम चिल्लाना शुरू कर दिया.. अरि भई... वह सब, लोग कहाँ थे....?? वह तो सब हमारी चाहनेवाली लड़कियां...हमारी फैन ही तो थी..I हमें अंदर जातेजाते तो काफी सारे लोगों ने घेर लिया...सबसे दुआ-सलाम करते करते आगे बढ़ रहे थे और सामने से मेज़बान आए, हमें वैल्कम किया और कहने लगे “आप ही का तो इंतजार हो रहा हैं महेफिलमे...!!
बड़ी जानदार महफिल सजाई थी.. चारों और मदहोश कर देने वाली ख़ूबसूरती जैसे मजमा लगा था.. लोग अपना अपना ड्रिंक लिए यार दोस्त बातें कर रहे थे.. परफ्यूम्स, शराब और जगह जगह पर लगाए गए फूल, ये तीनों की कोकटैली खुशबु ने दिल को नशे मन कर दिया.. अजीब माहौल था महफिल का.. एक रूमानी एहसास हो रहा था... उसी दौरान सद्र ए महफिल कि और से हमारा नाम पुकारा गया और आदेश हुआ की उस रंगीन महेफ़ीलमें हम कुछ पेश करें .......
हमने ये बिलकुल नई गज़लकी पेशकश की :


मेरी हर हरकत-हलचल में तू ही तू I
मेरे सारे गीत-ग़ज़ल में तू ही तू II

काँच-काँच की परत-परत में क्या रखा ?
मेरे पूरे शीशमहल में तू ही तू II

जिसमें मेरी साँसें तुझ से महक उठीं,

उस बहार की सुर्ख फसल में तू ही तू

दाखिल होते ही सन्नाटा गायब था
ऐसी तेरी किसी दख़ल में तू ही तू II

जिस पर तेरे अश्क मोतियों से ठहरे,
खिले-खिले उस दिली कवल में तू ही तू “

महफिल तो बहुत लम्बी चली....हम देख रहे थे वहां मौजूद बेहद ख़ूबसूरत चहेरोंको..., और हाँ ! उसी दौरान हमने पाया की दो आँखें, हमारी और हिप्नोटिक फोर्स से देख रही हैं..! “ओह माय गॉड...क्या हुस्न पाया हैं...!” हमारे जहेनमें से किसी का एक शेर ज़ुबाँ तक आ गया...

उस हुस्न-ए-बेमिसाल को देखा ना आज तक,
जिस के तसव्वुर ने हमें जीना सीखा दिया!!”

बस हमारी भी आँखें वंही ठहर गई...हमने भी सलाम भेज कर उनको नवाज़ा... यह रंगीन रात और खुशनुमा चहेरों की भीड़में, सब अपनी मस्तीमे मस्त थे..हम, स्कोच औन ध रोक्स, धीरेधीरे हलक से नीचे उतार रहे थे.... वहीं तिन-चार हसिनाओंने आ के हमें घेर लिया और हुस्न का जादू बिखेर ने लगे...स्कोचभी अपना जलवाह बिखेरनेकी कोशिश में थी.. उन हसिनाओं की हर एक की अलग खुशबू थीं, एक और स्कोचकी तल्ख़ खुशबु..... मदहोशी बढ़ती जा रही थी.. और अचानक हमने देखा तो वह ख़ूबसूरत चेहराकई दिखाई नहीं दे रहा.....गायब हो गया अचानक !!

“हम म.... हाँ, शायद इन हसिनाओं से हमें घिरा हुआ देख कर, हो सकता हैं नाराज़ हुई हो..!” इतने सारे लोगों के बिच काफी लोगों से घेरे हुए होने के बावजूद भी, हमारी आँखों को एक नया काम मिल गया.. सबसे मिलते-झूलते थे और फिर भी हमारी आँखें तो बस इधर-उधर उन्हीको ढूंढ ने में लगी थी...I आखिर उन्हें ढूंढ ही निकाला हमारी आँखों ने..!!
अंदाज़ा हमारा बिलकुल सही निकला.. सामने अंधेरे कमरे में खिड़की के पास खड़ी, वह बाहर कानजारा देख रही थी.. हम भी लोगो के बीचमें से सरकते-सरकते धीरे-धीरे बिलकुल, उनके पीछे जा कर खड़े हो गए...I कमरे में ख़ास उजाला भी नहीं था और महफिल की जगह से यह कमरा कुछ फासले पर था तो वहां लोगों की आवाजाही भी कम ही थी...I
“अरि..! कौन खड़ा हैं यहाँ, सारी महेफ़िलकी रोशनी चूरा कर ???” हमने उनके कान मे फुसफूसाया..
कोई आवाज़ नहीं आई.. वहां हमारी मौजूदगी से जैसे वह अनजान थीं.. सरासर बेपरवाह..I कोई तवज्जोह नही दी हमें...! तो भई हम भी कहाँ पीछे रहनेवाले थे..!
हमने फिर से कहा ..”महोतरमा, हम आपसे बात कर रहे हैं..” खामोश.., फिर भी खामोश थी वह..!
फिर हमने पूछा “ आपकी तारीफ़.. ! आपका कोई नाम तो होगा ...??“
काफ़ी कोशिश की नाम जानने की, लेकिन, नाकामयाब रहे हम..

हम भी उनकी इस हरकतोंका मज़ा ले रहे थे... हम बराबर उनके सामने जाकर खड़े हो गए और हमारे दोनों हाथ फैला दिये उनके सामने, और आँखें मुंद ली.. दो क्षण ही बीते होंगे की हमारी हथेलिओंमे उन्हों ने अपनी हथेलियाँ रख दी थी..
कुछ क्षण कैसे बीते यह ना हम जानते हैं ना वे.......
हमारे मुंह से यूँही निकल गया “कहाँ खो गई थी आप अब तक, हाँ ?? कब से ढूँढ रहे थे हम आपको ???”
तुरंत उसने आँखें उठाई, हमारे सामने ताक कर कुछ बोलना चाहा, पर, सिर्फ उसने होंठ फडफडाए, आवाज़ ना निकली... फिर भी हमने तो सून ही लिया...”
में भी तो ढूढ़ती थी आपको... कब से...!”
हम कुछ समझें.. कुछ सोचे, उतनेमे तो पीछे मुड़ कर वह चलने लगी.. हमने कहा “ रुको...हेलो....रुको, अरि भई हमारी बात तो सुनति जाओ..! ” वहां महेफिलमें तो लोगों का मजमा लगा था, इस लिए ज़ोर से चिल्ला भी तो नहीं सकते थे... हम ज़रा सी ऊँची आवाज़में बोलते बोलते उनके पीछे गए... किसी ने हमारी इस हरकत को शायद देख लिया, और उसी वजह से वहां मौजूद काफी लोग भी हमें देखने लगे... कहो घूरने लगे..I बड़ी शरमिन्दगी महसूस हुई हमें, पर क्या करते..?? यही तो एक मौक़ा था..I हम गए तो सही उनके पीछे... और वह चलते चलते अचानक रुक गई... तब तक तो हम पहुंच गए उनके पास...वह कुछ ना बोली और हमारे हाथमें परची पकड़ा दी और तुरंत वहां से वह निकल गई...I

हमारे सैलफोन की घंटी बजी और हम खयालों की आंधीमेसे बाहर आए...
दोपहर ठीक हम परचिमे बताए गए पते पर सही टाइम पर पहुँच गए..डोरबैल बजाई और तत्क्षण किसी ने दरवाज़ा खोलाI घर के अन्दर लिविंग रूममें हमें ले गएI शानदार घर था.. हम सौफे पर बैठ कर इधर उधर देखने लगे..और वह सामने कमरे से हंसते-हंसते बाहर आए..हम खड़े हो गए तो उन्हों ने हाथ से इशारा करके हमें बैठने को कहा.. वह भी बैठ गए सामनेकी सीट पर और एक पर्चा हमें पकड़ा दिया.. एक ही सेंटेंस लिखा था.. “माफ़ी चाहते हैं हम आपसे कल के वाकिएके लिए और यहाँ आने का तकल्लुफ़ देने के लिए... हम वहां कुछ नहीं बता सकते थे इस लिए आपको परेशानि मे डाला...
हमने उनके सामने देखा... वह होंठ दबाये नीचे ज़मींकी और देख रही थीं..
हम अभि भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे..
“हमें उपरवाले ने जुबानसे महेफुज़ रखा हैं... हो सके तो हमें मुआफ कर देना..!!!!!


विजय ठक्कर