Khatte Mithe Vyang : Chapter 2 Arunendra Nath Verma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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Khatte Mithe Vyang : Chapter 2

खट्टे मीठे व्यंग

(2)

व्यंग संकलन

अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

  • 6. हर कुत्ते के दिन आते हैं
  • 7. सुरक्षित है बकरे की अम्मा
  • 8. उसकी प्राथमिकता
  • 9. बाथटब में टेम्स
  • 10. लाडो का नामकरण
  • हर कुत्ते के दिन आते हैं

    सुना तो था कि हर कुत्ते के दिन आते हैं फिर भी उस कुत्ते के भाग्य से ईर्ष्या हुई जिसकी कई दिनों से दिल्ली पुलिस को तलाश थी. भला कितने कुत्तों का ये सौभाग्य होता है कि अखबारों और टी वी चैनलों पर उनकी खबर ही नहीं बाकायदा तस्वीर भी आये. तस्वीरों में तो वह बड़ा मासूम लग रहा था जब कि उस पर आरोप था कि उसने अपने मालिक अर्थात मियाँ के उकसाने से बीबी को काट खाया था. लोगों को कौतूहल था कि क्या कुत्ते के ऊपर भी पुलिस मुकदमा दायर करेगी, उधर पुलिस के सामने कई सवाल उठ खड़े हुए थे. पहले तय होना था कि काटा किसी इंसान ने था या कुत्ते ने. फिर यदि कुत्ते ने काटा तो क्या उसी ने काटा या किसी और कुत्ते ने. और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न था कि यदि उसी ने काटा तो अपने मालिक के उकसाने से या यूँ ही शौकिया, सिर्फ मुंह का स्वाद बदलने के लिए. इसके लिए ज़रूरी था कि उसके दांतों की मिलान काटने के निशान से की जाये. पर जब दान की बछिया तक के दांत गिनने का रिवाज़ नहीं है तो कुत्ता तो ज्यादा ही संवेदनशील होता है. कहीं ऐसा न हो कि फोरेंसिक लैब में अपने जबड़ों में झांकने वाले पर गुस्सा होकर वह उसे भी काट खाए. जब कुत्ते की पूंछ बरसों नली में डालकर रखने से भी सीधी नहीं होती तो फिर काटने का शौक वह आसानी से कहाँ छोड़ने वाला. फिर तो उसके ऊपर ह्त्या के प्रयास से लेकर सरकारी काम में अडंगा डालने तक की जाने कितनी धाराएं लगा दी जायेंगी. तब पता चलेगा कि लाख स्वामिभक्ति का तकाजा हो पर मियाँ बीबी के झगडे में अपना मुंह बंद ही रखना चाहिए.

    उस बेचारे कुत्ते को गेहूं के साथ घुन की तरह बेकार में थाना-कचहरी के चक्कर में फंसना पड रहा है. बड़े आदमी तो कुछ ही साल जेल में काटकर निकल आते हैं चाहे गोली मारी हो, चाहे तंदूर में किसी को फूंक दिया हो. मगर जिसकी कुल आयु ही लगभग पंद्रह साल की हो वह बेचारा तो एक बार अन्दर गया तो फिर कुत्ते की मौत ही मरेगा.

    सुरक्षित हुई बकरे की अम्मा

    जब तक बुरे दिन चले करुण स्वर में मिमियाती हुई वह अपनी जान बक्श देने की फ़रियाद करती रही. पर तब किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगी. सब को पता था कि उसकी नियति वही है जो बगिया में खिलती कलियों की होती है.कलियों के हाल पर तरस खाकर कवि ने कहा था “माली आवत देखकर कलियाँ करें पुकार , फूली फूली चुन लईं काल्ह हमारी बार.” पर नियति वही होने के बावजूद इस बेचारी के साथ किसी हमदर्दी का उल्लेख नहीं मिलता. है कोई दोहा या चौपाई जो उसे समर्पित हो? उल्टे, लोग उसे जीवन की क्षणभंगुरता की निष्ठुरता से याद दिलाते रहते हैं यह कहकर कि बकरे की अम्मा कब तक खैर मनायेगी.

    लोग कुछ भी कहें पर एक हाथ लेना, दूसरे हाथ देना उसकी जीवनपद्धति नहीं. निष्काम कर्म की मिसाल बनी वह अनासक्त भाव से इंसान को खुश करने में जुटी रहती है. अपने भरसक जितना दूध दे सकती है देने में कोताही नहीं करती. अधिक सामर्थ्य वाली उसकी बड़ी बहन को मातृवत पूजा गया तो इस निरीह को छोटी माँ का स्थान देने की किसी ने न सोची. पर उसे कोई शिकायत नहीं. भोजन में गुड खली आदि व्यंजन न मिलें कोई चिंता नहीं. हरे भरे चरागाहों की कोई कामना नहीं. वह तो कंटीली झाड़ियों में भी भोजन ढूंढ निकालती है. जिराफ जैसी लम्बी गर्दन विधाता से मिली होती तो लम्बे तनों पर घुटने टिकाकर सबसे ऊंची फुनगियों की मुलायम पत्तियों का आस्वादन करती. नहीं मिली तो कंटीली झाड़ियों पर अपने नाज़ुक घुटने मोड़ कर नन्ही पत्तियां तलाश कर वह संतुष्ट हो जाती है भले इस प्रयत्न में कोमल घुटनों और मखमली नाक में कांटे चुभ जाएँ. कद्दावर नहीं है पर हौसला उसका बुलंद रहता है. ऊंचाइयां हासिल करने के अरमान को वह अजीब अजीब जगहों पर चढ़ कर पूरा कर लेती है. कभी गाँव के उपेक्षित कोने में बने मिट्टी के घरों की खपरैल के ऊपर चढी हुई नज़र आती है तो कभी किसी टूटती गिरती दीवार के ऊपर चढ़ कर इतना खुश दिखती है जैसे एवरेस्ट की चोटी पर विजय पा ली हो!

    ऊंचाइयाँ चढ़ जाने के बाद नीचे की तरफ देखकर घबराना उसकी फितरत में नहीं. तभी पहाड़ों की खड़ी चढ़ाइयों और गहरी ढलानों पर वह बेफिक्री से घूमती है. पैर फिसल जाने की चिंता क्या. चिंता यदि उसके स्वभाव में होती तो “काल्ह हमारी बार” वाली चिंता उसे जीते जी खा जाती. जो होना है होकर रहेगा. फिर कल की चिंता क्यूँ करे वह. ‘मुद्दई सुस्त गवाह चुस्त’ वाली बात उसके सन्दर्भ में सही है. स्वयं तो वह चिंताग्रस्त नहीं रहती पर ज़माना परेशान रहता है कि बकरे की अम्मा कब तक खैर मनायेगी.

    महात्मा गांधी शायद आख़िरी महात्मा थे जिन्हें उसके दूध में कोई अच्छाई नज़र आती थी. आज के महात्माओं को जितनी मलाई रबड़ी पसंद है उतनी इस निरीह के दूध में कहाँ. गाय भैंस का दूध कितना भी पानी मिला हुआ हो लोग चुपचाप पी लेंगे पर उतना ही पतला उसका दूध मिले तो उसमे हीक की शिकायत करेंगे. पगुराना उसे भी आता है पर मजाल है कि कोई भूले से भी उसके सामने बैठकर बीन बजाये. बजाते तो वह भी अपने पगुराने का आरंगेत्रम( मंच पर पहला प्रदर्शन) करने का सुख भोग लेती. दुधारू चौपायों के बीच इस बेचारी को दलित जैसा दर्जा मिला हुआ है. चाहने वालों की भीड़ लगती भी है तो जीवन दांव पर लगा देने के बाद. फिर क्या भैंसा, क्या सूअर सबका मूल्य इससे कम आंका जाता है. कुक्कुट जी भले सुबह सुबह गला फाड़ कर चिल्ला लें पर मरणोपरांत बाज़ार इस गरीब का मूल्य उनके मूल्य के दुगुने से भी अधिक आंकता है.

    फिर भी चमत्कार होना था तो हुआ. संत लोग सही कह गए हैं कि इस संसार में “ना जाने किस भेस में नारायण मिल जाएँ” बेचारी बकरी ने कब सोचा था कि उसके हल्के, पतले, हीक वाले दूध की कीमत अचानक डेढ़ हज़ार रुपये प्रति लीटर पहुँच जायेगी. जो बेचारी खपरैल पर चढ़कर समझती है आकाश छू लिया उसके दूध का वितरण ओन लाइन करने में आकाश की तरंगों से सहयोग लेना पड़ रहा है. यह चमत्कार किया डेंग्यू के मच्छरों ने. कहीं से पता चला कि बकरी का दूध पीने से रक्त में प्लेटलेट बढ़ जाते हैं और धूम मच गयी. जो अस्पृश्य था सिंहासनारूढ़ हो गया. अब बकरियों के मालिक बकरी की अम्मा की खैर की स्थायी गारंटी देने को तय्यार हैं. डेंग्यू कोई चार दिन की चांदनी तो है नहीं. इस योनि में मरेगा तो स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, चिकनगुनिया आदि योनियों में जन्म लेगा. फिर बकरी का दूध डेढ़ हज़ार से बढ़कर पंद्रह हज़ार रुपये प्रति लीटर हो जाएगा. भाव इतना चढ़े तो कौन मासूम और निरीह बना रह सकता है. तब तो वह भी किसी कटीली झाडी पर घुटने टिका कर प्रेस कोंफरेंसी अदा से खड़ी होकर अपने नन्हे नन्हे दांत निकाल कर मुस्कराएगी जैसे कह रही हो ‘जो सबसे बाद में हंसता है वही आखीर तक हंसता रह सकता है.’

    उसकी प्राथमिकता

    रविवार को धूप निकली भी तो मरी मरी सी. फिर भी, पूरे दिन लिहाफ में घुसे रहना मुझे पसंद नहीं अतः पत्नी को साथ लेकर पास वाले पार्क में घूमने के लिए निकल पड़ा. पर पार्क सुनसान था. जिन बेंचों पर युवा युगल पासपास चिपके दीखते हैं वे खाली थीं. उन्हें वहाँ से उठाने, भगाने की धमकी देकर कुछ वसूली कर लेने वाले मालियों और पुलिसवालों के लिए बड़े घाटे वाला दिन था. बस एक बेंच पर अकेला बैठा हुआ एक जवान लड़का दिखा. कुछ चिंता निमग्न, कुछ दुखी सा. मैंने कहा बेरोजगारी इतनी बड़ी समस्या है, बेचारा उसी का सताया हुआ होगा. पर पत्नी की तेज़ निगाहें चेहरे से पहले कपड़ों पर जाती हैं. उसकी महंगे ब्रांड की तंग मोहरी की जींस, उससे भी महंगी, इम्पोर्टेड लगती जैकेट और महंगे इटैलियन शूज़ उसकी निगाहों से कहाँ छुपनेवाले थे. बोली “बेकारी की बीमारी से सताए हुए वर्ग का प्रतिनिधि वह बिलकुल नहीं लगता. काम भले न हो पर पिता अवश्य समृद्ध होगा. इतना दुखी और चिंतित लगने का कोई और सशक्त कारण होगा. संभव है कि नवीनतम औषधियों और लगातार सुधरती उपचार संबंधी सुविधाओं के चलते पिता की उम्र रबर की तरह खिंचती जाने से खिन्न होकर अकेला बैठ कर अपना ग़म ग़लत कर रहा हो.

    मैंने कहा “आज के युवा के पास समस्याओं की कमी कहाँ? अपनी नहीं, तो ज़माने की चिंता से परेशान होगा. सबसे बड़ी समस्या तो आज यही है कि देश की बागडोर किसके हाथ में दी जाए. एक राष्ट्रवादी दल देशप्रेम और विकास के मुद्दों पर जोश में आकर होश खो बैठता है तो दूसरे ने सदा के लिए भ्रष्टाचार की जड़ खोद डालने का बीड़ा उठा कर सौ बीमारियों के ताले की एक ही चाभी का विस्मयकारी आविष्कार कर लिया है. तीसरे दल के नेताओं की चौथी पीढी की सलीब पर लटका हुआ, अधेड़ होता हुआ युवक क़समें खा कर कहता है कि पुरानी बीमारियों को तिलांजलि देकर नए युग का सूत्रपात करने का उसने मन बना लिया है. बस ज़रा हाल फिलहाल जो चुनावी जुआ उसके कोमल कन्धों पर जोत दिया गया है उससे निजात पा जाए, फिर सब ठीक कर देगा.”

    पत्नी हमेशा की तरह मेरी हर बात से असहमत होने का अपना पुराना शौक इतनी आसानी से कहाँ छोड़ने वाली. कहती है “जितने बोर तुम हो गए हो उतना सभी लोग नहीं होते. ज़रूर कोई प्यार वार का चक्कर होगा. आजकल लडकियां बहुत तेज़ हो गयी हैं . इसके ब्रांडेड कपड़ों के ठाठ देखकर ज़रूर किसी लडकी ने इसके साथ पिक्चरें देखकर ,दावतें खाकर, डिस्को विसको में इसकी जेब हल्की करवाने के बाद समझाया होगा कि दोस्त तो वह हमेशा रहेगी बस शादी वादी की बातें न करे.”

    मैं असमंजस में था. पहले तो लगा कि पत्नी की बातों में दम था पर अगले ही क्षण याद आ गया कि हर समस्या, हर उलझन के पीछे उसे लड़कियों का चक्कर ही समझ में आता है. मैं स्वयं भुक्तभोगी हूँ. दफ्तर से लौटने में मुझे जब भी देर होती है तो उसे सड़कों पर ट्रैफिक जैम होने, ऑटो चालकों की हड़ताल होने या अन्य किसी ऐसी आमतौर पर हो जाने वाली दिक्कत का ध्यान नहीं आता. हमेशा बड़ा मासूम सा भाव मुंह पर लाकर पूछती है कि दफ्तर में और किस किस को देर तक रुकना पडा था. उत्तर में जब व्यंगपूर्वक मुस्कराकर उसे जता देता हूँ कि उसका प्रश्न कितना मासूम है, ये मैं समझता हूँ, तो झेंप कर बात बदल देती है. बड़ी मुश्किल से उसे किसी तरह समझा पाया हूँ कि इतने सारे कानूनों के बन जाने से अब दफ्तरों में सहकर्मियों से रोमांस लड़ाने का ख्याल किसी माई के लाल को नहीं आता. और जिसे आये, उसे शत्रु की उपस्थिति में शौर्य दिखाने पर दिया जाने वाला कोई मैडल या पुरस्कार दिया जाना चाहिए. उधर महंगाई इतनी बढ़ गयी है कि पतियों की दफ्तर के बाद दोस्तों के साथ कॉफ़ीहॉउस में बैठकर गप्पें लड़ाने जैसी समस्याएं खुद ब खुद सुलझ गयी हैं. उस बेचारे लड़के को जाने कौन सी चिंता सता रही हो! आज के माहौल में तो कम उम्र में भी समझ में आ जाता है कि और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा. उस लड़के के चेहरे पर भी किसी गहन समस्या को सोचकर परेशान होने के सारे लक्षण मौजूद थे.

    मुझे लगा कि देश एक ऐसी रक्तहीन क्रान्ति के कगार पर खडा है कि इस समय हमारे युवाओं के पास देश की समस्याओं और उनके निदान के बारे में सोचने को छोड़कर और कोई विकल्प नहीं. आखीर नई पीढी के ही हाथों में देश का भविष्य है. वही देश की तस्वीर बदल कर रख सकते हैं. यही सोच रहा था कि नज़र घूमफिरकर फिर उस पर आ टिकी. देखा, उसने हाथों में एक फोटो जतन से पकड रखी थी. इधर उधर उदास निगाहों से देखने के बाद रुक रुक कर वह उस तस्वीर को निहार लेता था. फिर उसके मासूम चेहरे पर उभर आयी वेदना की लकीरें और गहरी लगने लगती थीं.

    मुझसे रहा न गया. किसी को दुखी देखता हूँ तो मन करता है कि उसका दुःख बाँट लूं. वैसे ये भी सच है कि कोई किसी की तस्वीर बार बार देख रहा हो तो मन करता है चल कर देखा जाए आखीर क्या है उस तस्वीर में जो किसी को इतना आकर्षित कर रहा है. पत्नी इसे मेरी बेवकूफी कहती है. उसके विचार से दूसरों के जीवन में झांकने की यह आदत इसलिए है कि मैं एक छोटे शहर से ताल्लुक रखता हूँ और अभी तक महानगरों के तौर तरीकों और शिष्टाचार से अनभिज्ञं लगता हूँ. उसे असली आपत्ति मेरे अनभिज्ञ ‘लगने’ से है, ‘होने’ से नहीं. वरना खानदानी महानगर के नागरिक की पहचान ही यही है कि पड़ोसी मर भी जाए तो उसे पता न लगने पाए और पता लग भी गया हो तो अन्य लोगों को पता न लगने पाए कि उसे पता लग गया.

    ‘लगना’ वास्तव में ‘होने’ से बड़ी बात है. मैं परम देहाती ही सही, पर अपने महानगरी दोस्तों के सामने स्वयं चुप बैठकर यदि पत्नी को मोर्चा संभाल लेने दिया करता तो वह हम दोनों की इमेज बनाए रख सकती थी. पर मैं ठहरा आदत से मजबूर! नहीं ही रोक पाया अपनेआप को. उसके पास पहुँच गया .उसकी बेंच के पीछे जाकर उचक कर उसके हाथों में पकड़ी तस्वीर देखी. पर ऐसा कुछ दर्शनीय ,कम से कम मुझे, उसमे नहीं दिखा. चार पांच दिन की दाढी बढाए, बाजुओं की चमकती मछलियाँ दिखाने के लिए बिना बांहों की बनियान पहने, बाएं कान में बड़ा सा कुंडल लटकाए एक हृष्ट पुष्ट युवा की रंगीन फोटो थी. मैंने अपने देहातीपन का साक्ष्य देते हुए पूछ ही लिया “ क्यूँ भाई , क्या तुम देश के हालात से परेशान हो? क्या ये तुम्हारे प्रिय नेता या आदर्श पुरुष की तस्वीर है?”

    वह उबल पडा. मुझे आग्नेय नेत्रों से घूरता हुआ बोला “ अरे भाड़ में जाएँ नेता वेता! आप जैसे बुड्ढे लोगों को भी जाने क्यूँ हमेशा आदर्श पुरुष की ही तलाश रहती है. क्या देश में नेताओं की संख्या बहुत कम है? या उनके पीछे पीछे घूमने वालों की कमी है? ये तो मेरे ब्वाय फ्रेंड की फोटो है जिसे सर्वोच्च न्यायालय के धारा ३७७ वाले फैसले ने मुझसे छीन लिया है. अब उसे खुल कर अपना दोस्त, अपना सब कुछ, कह दूं तो एक जुर्म कर बैठूंगा. क्या मुझे अपनी तरह से ज़िंदगी जीने का हक नहीं? और देश वेश की चिंता करने के लिए हैं न आप लोग. क्या कर लिया आपने इतनी चिंता कर के? कम से कम मुझे तो जी भर कर प्यार कर लेने दीजिये.”

    बाथटब में टेम्स

    नौकरी से मुक्ति पाकर पेंशनयाफ्ता हो जाने का सारा सुख बढ़ती महंगाई और रुपये के अवमूल्यन ने छीन लिया. बहुत मालेमुफ्त उड़ा चुके . ऊंची सरकारी कुर्सी हाथ से क्या निकली कि गर्मियों में यूरोप अमेरिका का सरकारी दौरा बना लेने की सुविधा भी जाती रही. अब तो जीना यहाँ मरना यहाँ वाली बात है. सुबह से ही बदमिजाज़ बॉस के दिमाग के पारे की तरह चढ़ते सूरज के तेवर को शाम तक झेलने को छोड़कर कोई चारा नहीं है. सरकारी बंगले से अपने पुराने निजी फ़्लैट में आने के पहले श्रीमतीजी ने बेडरूम और ड्राइंग रूम में एसी लगवा लिया था. ऊंचे अधिकारियों की कोलोनी में बिजली कभी थोड़ी देर के लिए जाती थी तो हमारे तेवर चढ़ जाते थे .आम आदमियों की इस कोलोनी के निजी फ़्लैट में आकर पता चला कि पावर कटों के चलते एयर कंडिशनर महज़ दीवार या खिड़की की शोभा बढाएंगे. एसी चलाने लायक बड़ा जेनेरेटर लगाने की इस पुराने फ़्लैट में सुविधा नहीं. इसीलिये दिल्ली के उस पुराने फ़्लैट की इतनी ऊंची कीमत जब ब्रोकर ने लगाई और बदले में गुडगाँव या नोइडा की नयी चमकती दमकती कोलोनी में पॉवर बैकअप के साथ इससे बड़ा फ़्लैट दिलवाने का भरोसा दिया तो हमारी तबीयत डोल गयी.

    नया फ़्लैट लेने की इच्छा जताते ही नयी कोलोनियों के रंग बिरंगे ब्रोशर्स लेकर दलालों की फौज हम पर पिल पडी. उन बेहद खूबसूरत और प्रभावशाली तस्वीरों से पता चला कि भारत में प्रिंटिंग इंडस्ट्री गुणवत्ता की शानदार सीढियां चढ़कर वैश्विक स्तर पर पहुँच गयी है. उन ब्रोशर्स की तस्वीरें देखकर लगा कि दुबई, सिंगापुर या लोस-एंजेल्स में भी इतनी खूबसूरत ईमारतें नहीं होंगीं. उनके स्विमिंग पूल और पार्कों की तस्वीरें देखकर स्वर्ग का रचयिता भी हीन-भावना से ग्रस्त हो जाता. उनके ऊपर चंवर डुला रहे बोटलपाम के लम्बे वृक्षों और लाल, नारंगी, बैजनी फूलों से लदी गुलमोहर और जैकेरेंडा की छतनार डालियों की शीतल छाया के चित्रों से आँखें जुड़ा गयीं. चौंधियाई हुई आँखों से ब्रोशर्स के कोने में महीन अक्षरों में छपे शब्द “ऐन आर्टिस्ट्स इम्प्रैशन” अर्थात “कलाकार की कल्पना में” पढ़ने की फुर्सत और मेहनत किसके बस की बात थी.

    उन कोलोनियों के नाम पढ़कर लगा सशरीर स्वर्ग पहुँच गए. बिना पासपोर्ट, वीसा बनवाये अमेरिका की समृद्धि और सुन्दरता लिए शहरों में रह पाना कितना सुलभ हो गया था. इन सपनों में भी अनेकों विकल्प थे. दिलकश वादियों में छिपे स्विटजरलैंड के तस्वीरों जैसे छोटे छोटे गाँव, दक्षिणी फ्रांस में भूमध्यसागर के तट वाले शहर, जहां अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव होते हों, न्यूजीलैंड के हरे पन्नों जैसे दमकते दिलकश चरागाह, नीलमणि सी चमकती झीलें, कुछ भी हासिल करने के लिए इन नयी कोलोनियों के रूमानी नामो में से सबसे ज़्यादा रूमानी नाम चुनने भर की बात थी ! इन नामों में हमारी ज़मीनी सच्चाई, अर्थात भीड़- भाड, मख्खी मच्छर, धूल- धक्कड़, बिजली -पानी की कमी, सबको भुला देने का दम था. नाम-जपन से मोक्ष मिल जाता है इस मन्त्र को किसी ने ठीक से समझा है तो इन बिल्डरों ने.

    ज़मीनी सच्चाई से परे, कल्पना पर आधारित इन्द्रधनुषी तस्वीरों को इन ब्रोशर्स में छपवाने से पहले इन कोलोनियों के नाम सुझाने के लिए चोटी के कवियों और शायरों से सुझाव मांगे गए होंगे. अब पता चला कि वसंत विहार, गुलमोहर पार्क, शालीमार गार्डेन्स, शान्तिनिकेतन, मोतीबाग़, दिलशाद गार्डेन ,इन्द्र्पुरी ,मायापुरी, मधुकुंज, सुशांत लोक , सर्वप्रिय विहार और मधुवन जैसे काव्यात्मक नाम अब चुक गए हैं. सम्राटों और नेताओं के नामवाले शिवाजी पार्क , नेहरूनगर, पटेलनगर ,राजेन्द्र नगर ,नेताजी नगर , सुभाष नगर और लक्ष्मीबाई नगर जैसे नामों में नयी पीढी को सडांध आती है. अब नयी नयी स्वर्गादपि-गरीयसी कोलोनियों के लिए खूबसूरत नाम ढूंढना क्या आसान काम होगा? पर जब फ्लैटों से लेकर गगनचुम्बी ईमारतों और एयरपोर्ट से लेकर स्टेडियम तक में यूरोप और अमेरिका से चुराई या उडाई हुई डिजाइनें हों तो सिर्फ नाम चुराने में क्या लगता है. बस हो गया समस्या का समाधान. रियल एस्टेट दलालों से फ़ोन पर मिले नाम सुनकर दिल-दिमाग दोनों विदेशों के हसीन-ओ-रंगीन सपनो में खो गए.

    हमने शुरूवात की गुडगाँव से. वहाँ के प्रोजेक्ट्स के नाम सुनकर एजेंट को अपना निहायत देशी सा नाम बताने में शर्म आने लगी. पिन्नैकिल, समिट जैसे नाम सुनकर लगा कि वे जीवन की बुलंदियों को छूते लोगों के लिए बने होंगे, हमारा उनमे क्या काम. पर दूसरे नाम और भी बढ़कर थे. ट्रिनिटी टाउन, एक्ज़ोटिका, वेस्टएंड , हैमिल्टन कोर्ट, विंडसर कोर्ट, वेलिंग्टन कोर्ट, रिचमन्ड कोर्ट, कार्लटन, प्रिन्सटन, बेलमोन्ट जैसे नामो से लगा कि हम लन्दन में राजकुमार विलियम के पड़ोसी बन जायेंगे. बकिंघम पैलेस नाम अभी तक शायद नहीं रखा गया है. फिर भी श्रीमती जी घबरा गयीं. बोलीं ‘ये धनकुबेरों वाले नाम छोडो, हमें तो किसी रमणीक जगह में रहने की इच्छा है. बस नाम भी उतना ही रमणीक हो.’

    पता लगा कि रमणीक स्थानों के नाम तो बहुतेरे थे पर कश्मीर के मुग़ल उद्यानों की याद दिलानेवाले नहीं. रंगीन फूलों, हरी घास और वादियों में गिरते झरनों की याद दिलाने वाले ये नाम थे मैग्नोलियाज़, काइत्रिओना, रिजवुड ,बीवारले पार्क, आइवी, दी ब्लिस, वुडव्यू रेज़ीडेंसेज, सेंट्रल पार्क और ग्रीनविल्ले. जिस शहर में पीने के पानी की भयंकर कमी के कारण पानी के टैंकर का व्यवसाय सबसे अधिक कमाऊ व्यापार है उसमे इतनी हरियाली की याद दिलाने वाले नामों की कल्पना किसने की होगी? झीलों, सरोवरों के प्रेमियों के लिए जब पामस्प्रिंग्स और दी लैगून उपलब्ध थे तो समुद्रतट का सपना देखने में क्या जाता था. भले गुडगाँव और भिवाडी से समुद्र हज़ार मील दूर हो, भिवाडी में ‘कोरल’ भी है और ‘पाम्स’ भी. और मछली के शिकार के लिए मर्लिन भी.

    देश में गुल्ली डंडे से कहीं अधिक लोकप्रिय खेल गोल्फ है इसकी खबर सभी रियल एस्टेट वालों को है. जहां देखिये गोल्फ व्यू, गोल्फ रेज़िडेंसी, गोल्फेर्स पैराडाईज , गोल्फवैली आदि मौजूद हैं. प्रोजेक्ट में मिनी गोल्फ कोर्स देनेवालों से बहुत पूछा पर “मिनी “ का अर्थ किसी ने नहीं समझाया. पर फ्लैटों में बेडरूम की साइज़ देखी तो समझ में आया कि मिनीगोल्फकोर्स में भी बस इतनी जगह ही होगी कि हवा में उडती गोल्फ बाल आठ दस गज दूर तो जा सके. गोल्फ का पटिंग ग्रीन भी उतना ही आम था जितना कि स्विमिंग पूल और जिम्नेशियम. गोल्फकोर्स को मजबूरी में मिनी- गोल्फकोर्स कहना पड़ता है, स्विमिंग पूल को मिनी पूल कोई नहीं बताता, भले उसमे चार बाल्टी भर पानी ही हो.

    नोइडा, ग्रेटर नोइडा और नोइडा एक्सटेंशन पर नज़र डाली तो चक्कर खा गए. इन तीनो शहरों के नामकरण की आधारशिला ही अंग्रेज़ी थी. न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवेलपमेंट आथॉरिटी ने ‘नोइडा’ सा संक्षिप्त नाम क्या ओढा कि वृहत्तर के बजाय ग्रेटरनोयडा नाम रखनेवाले शहर ने और ऊंची छलांग लगाई. अपने मोहल्लों, सॉरी!, सेक्टरों के नाम अंग्रेज़ी छोड़ ‘मदर ऑफ़ वेस्टर्न लैंग्वेजेज’ अर्थात साक्षात ग्रीक और लैटिन से चुने. तभी वहाँ अल्फा, बीटा, गामा, से लेकर पाई, फाई और क्षाई सेक्टर तक सब मौजूद हैं यद्यपि कुछ लोग गामा सेक्टर को गामा पहलवान पर रखा नाम समझते हैं और कुछ लोग क्षाई को कसाई उच्चारित करते हैं. इतनी ज़बर्स्दस्त पाश्चात्य विरासत पाकर बिल्डर लोगों में नामों के पाश्चात्यीकरण की होड़ लग गयी. अथोरिटी के नहले पर दहला मारा और नाम रखे- केपटाउन, रोमाना, सुपरनोवा, पेवीलियन कोर्ट, रीगल इम्पोरिया और द हाल्ट. प्रकृतिप्रेम भी यहाँ काफी है. ग्रेटर नोइडा में गोल्डन ट्यूलिप है तो ड्रीम वैली भी है. आम अनार अमरुद जैसे देसी फल देखते ही रह गए और ओरेंज कंट्री और ओलिव काउंटी नाम चुन लिए गए. वैसे ओलिव तो ठीक है पर ओरेंजकंट्री में देसीपने की बू आती है. शायद जल्दी ही उसका नाम बदल कर पैशन-फ्रूट कंट्री या किवीफ्रूट कंट्री रख दिया जाएगा.

    हैरत तो तब हुई, जब अपना स्वयं का शुद्ध भारतीय नाम रखने वाले आम्रपाली बिल्डर्स के प्रोजेक्ट्स के नाम देखे - सिलिकोन सिटी , प्रिंसली एस्टेट और ड्रीम वैली. महागुन बिल्डर्स नाम चुनते हैं मार्वेल्ला और पारस ग्रुप को पसंद आता है टियेरा. कुछ बिल्डर हिन्दी नाम रखते रखते सकुचा गए. तभी सीधेसीधे ‘निर्वाण’ प्राप्ति के बदले उन्हें ‘निरवाना कंट्री’ की प्राप्ति हुई. एक बिल्डर ने देसी विदेशी दोनों खेमों में रहने के लिए पहले तो अथर्व, संपदा और नवोदय जैसे भारतीयता की सुगंध में डूबे नाम चुने पर बाद में अपने किये पर पछतावा होने पर ‘ दी’ जोड़कर वेदान्त को ‘दी वेदान्त’ और वेद को ‘दी वेदाज़’ बना दिया.

    सारी कोलोनियों के नाम अमरीकन अंग्रेज़ी में हैं. फिर गुडगाँव कब अपना नाम ‘ब्राउनशुगर विल्ले’ या ‘दी गुरुज हैमलेट’ कर लेगा इसका क्या ठिकाना? गुडगाँव के पड़ोसी मानेसर और भिवाडी भी शायद अपना नाम बदल कर मैनचेस्टर और बीहाइव-डी करना चाहें. नोइडा, ग्रेटर नोइडा और नोइडा एक्सटेंशन के नाम में तो खैर अंग्रेजियत पहले से ही है.

    इन विलक्षण नामों को सुन सुन कर हम चकरा गए. अपने मन की बात प्रोपर्टी एजेंट अर्थात दलाल महोदय से कही तो उन्होंने धीरज से समझाया ‘ जी नाम में क्या रखा है. रहोगे तो अपने देश में ही. अपने सगे संबंधी भी यहीं होंगे. नाम से भले केलीफोर्निया का भ्रम हो पर ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’. मैंने सोचा बेचारा अपनी बात तकल्लुफ में देसी ढंग से कह गया , वरना बिल्डरों की भाषा में कहता “ लाइफ रिमेन्स सेम जब बाथटब में हो टेम्स.”

    लाडो का नामकरण

    मित्र के घर लक्ष्मी पधारी थीं, पौत्री के रूप में. बधाई देने गया. वे पढ़े लिखे लोग हैं अतः कन्या संतान के आने से सामान्यतः जो मातम का माहौल होता है वह उनके यहाँ पाने की आशा नहीं थी. फिर भी! बात ये है कि मित्र के बेटा, बहू दोनों उच्चशिक्षा प्राप्त हैं और अच्छी नौकरियों में हैं. ऐसे लोग अब कन्यारत्न के जन्म से निराश नहीं होते. और अब तो हर जगह दीवारें कन्याआगमन पर खुशी मनाने के संदेशों से पटी पडी हैं. रेडियो ,टीवी सभी नारी शक्ति का अभिनन्दन करते रहते हैं. प्रधान मंत्री स्वयम लाडली के साथ सेल्फी लेने की सलाह देकर बेटी को उसका न्यायोचित स्थान दिलाने की बात करते हैं. ऐसे में कन्या रत्न के जन्म पर अपने मित्र परिवार को गर्मजोशी के साथ बधाई देने में संकोच कैसा? बात ये थी कि ये उनकी दूसरी कन्या थी. पहली कन्या के आगमन का पूरा स्वागत हुआ था, लड्डू बंटे थे. पर मुझे डर था कि इस दूसरी कन्या को ये लोग वह न समझें जिसे अंग्रेज़ी मुहावरे में ‘टू मच ऑफ़ ए गुड थिंग’ कहते हैं.

    इस संकोच के बावजूद मित्र के घर का माहौल देख कर मैं बहुत संतुष्ट हुआ. पूरा परिवार बहुत उल्लसित था. नवजात कन्या के माता पिता इतने प्रसन्न थे मानो मुंहमांगी मुराद पूरी हो गयी हो. बातों बातों में खुलासा हुआ कि इस कन्या के जन्म के दिन ही भारतीय प्रशासनिक सेवा और अन्य केन्द्रीय प्रथम श्रेणी की सेवाओं का परीक्षाफल संघ लोक सेवा आयोग ने जारी किया था. योग्यता क्रम में सर्वोच्च पांच स्थानों पर महिला उम्मीदवारों ने शानदार ढंग से कब्ज़ा किया था. उनमे भी तीन तो पहले ही से भारतीय राजस्व सेवा में कार्यरत थीं. महिलाओं के लिए ऐसे शानदार नक्षत्र में इस नवजात कन्या ने जन्म लिया था कि दूसरे ही दिन उत्तर प्रदेश की प्रादेशिक प्रशासनिक सेवाओं में भी महिला उम्मीदवारों ने शिखरस्थानों पर अपने परचम लहरा दिए थे.

    मैं पहुंचा तो हर्षविव्हल युवा पिता नवजात को अपने चेहरे के पास लाकर सेल्फी खींच रहे थे. उनकी पत्नी की खुशी भी उतनी ही उजागर थी. मैंने बधाई दी. आशा जताई कि यह कन्या भी एक दिन आई ए एस की परीक्षा में टॉप करेगी. पर बच्ची के पिता ने मुंह बनाकर कहा ‘कभी बहन मायावती ने स्वर्गीय कांशीराम जी से अपनी ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी तो उन्होंने कहा था “तुम्हे मैं वो बनाऊंगा जिसके सामने आई ए एस अफसर हाथ जोड़े खड़े रहेंगे.” मैं तो अपनी बिटिया को मायावती जी जैसा बनाना चाहता हूँ.’ बच्ची की दादी जो अब तक चुप थीं बोल पडीं ‘अरे फिर तो ये भी बड़े बड़े पार्कों में अपनी मूर्तियाँ लगवायेगी.’ उनके पति बोले ‘ सिर्फ लगवायेगी नहीं. बाकायदा अपनी ही मूर्ति का उदघाटन करेगी, उस पर माला भी चढ़ायेगी.’ बच्ची की माँ भी उत्साह से बोली ‘कितनी अच्छी पर्स हाथ में लेकर अपनी मूर्तियों के लिए मॉडलिंग करती हैं न?’ दादा जी हंस कर बोले ‘मैं तो पर्स की डिजाइन नहीं साइज़ देखता हूँ. उनकी निजी समृद्धि का शानदार प्रतीक है. ये बिटिया भी उतनी ही समृद्ध निकले तो हमारी सात पीढियां तर जाएँ.’

    बच्ची के पिता ने लगातार तीन चार सेल्फी क्लिक करते हुए कहा ‘अरे वो बेचारी तो इस समृद्धि का स्पष्टीकरण सी बी आई और अदालतों को देते देते गुमनामी के अँधेरे में खो गयी हैं. हमारी बिटिया तो जयललिता जैसा बनेगी जिनकी आय से अधिक संपत्ति अदालत मानकर भी मामूली कदाचार कहकर बक्श देती है. और अब तो वे फिर से मुख्य मंत्री हैं. समृद्धि हो तो ऐसी हो.’

    धन दौलत को इतनी महत्ता मिलना मुझे अच्छा नहीं लगा. मैं बोला ‘ अरे आपलोग ममता जी को क्यूँ भूल रहे हैं. न फैंसी पर्स, न हीरे जवाहरात. पैरों में बस एक सादी हवाई चप्पल. पर दम इतना कि जगह जगह बम फूटते हैं. बेचारे मार्क्सवादियों से लेकर टाटा तक सबके छक्के छुड़ा दिए.लक्ष्मी के चक्कर में शक्ति की अनदेखी ठीक है क्या?’

    इसके बाद बात नवजात के नामकरण पर आई. जो बातें हो रही थीं उनके सन्दर्भ में किसी ने रिद्धि सुझाया किसी ने सिद्धि, किसी ने संपदा तो किसी ने शक्ति. पर हर नाम पर कभी नवजात के पिता, तो कभी माँ, कहते “कुछ जमा नहीं “ थक कर मैं चुप हो गया तो वे बोले ‘आप तो लेखक हैं, चुप क्यूँ हो गए?’ मैंने थकी आवाज़ में कहा ‘मैं क्या बताऊँ, आपको तो किसी की कोई बात ही नहीं जमती’.

    अचानक बच्ची का पिता खुश होकर चिल्लाया ‘ यूरेका! मिल गया, मिल गया उसका नाम. हम उसे जमती बुलायेंगे. है न अंकल?’

    मुंह बिचकाने की बारी अब मेरी थी. ‘भला ये भी कोई नाम हुआ?’ मैंने कहा.

    पर बच्ची के पिता का उत्साह कम न हुआ. बोला ‘अंकल, इस जमती में तो जयललिता, ममता और मायावती तीनो के नाम छुपे हुए हैं. सिर्फ एक के गुण क्यूँ, अब मेरी बिटिया में इन तीनों महारथी देवियों के गुण आयेंगे. ज़माना देखेगा.’

    मेरे मुंह से अनायास निकला ‘बाप रे बाप’