पहाड़ की उस सूखी, धूप में तपती चट्टान पर एक आदमी बैठा था—चुप, स्थिर, जैसे अपनी ही साँसों की आवाज़ को भी रोक रखा हो।
नीचे दूर कहीं गाँव की धूसर परछाइयाँ तैर रही थीं, और ऊपर आकाश एक अजीब-सी सुनसान नीलाई में फैलता जाता था।
उस खामोशी में अक्सर एक नाम गूँजता था—
“अरे ओ सांबा…!”
सांबा—शोले की दुनिया का वह किरदार
जो बोलता नहीं था,
पर समझ सब लेता था।
जो अपनी चुप्पी से इतना गहरा था कि कई बार वह फिल्म के केंद्र से ज़्यादा प्रभावशाली लगता था
एक ऐसा आदमी जो आवाज़ नहीं, नज़र था
हर गिरोह में दो तरह के लोग होते हैं—
एक, जो शोर से दुनिया को बताते हैं कि वे कौन हैं।
दूसरे, जो चुप रहकर अपने महत्व को साबित करते हैं।
सांबा दूसरा आदमी था।
लोग गब्बर के डायलॉग याद रखते हैं,
वीरू की मस्ती याद रखते हैं,
ठाकुर के अपमान का दर्द याद रखते हैं—
लेकिन चट्टान पर बैठा वह आदमी
कहानी के भीतर नहीं,
कहानी के ऊपर दिखाई देता है।
वह बोलता नहीं था,
बस देखता था—
और उसकी यही नज़र पूरी कहानी का संतुलन बनाए रखती थी।
ऊँचाई सिर्फ़ जगह नहीं होती,
कभी-कभी जिम्मेदारी की कसौटी भी होती है।
सांबा उसी ऊँचाई का आदमी था।
गब्बर की आवाज़—और सांबा की चुप्पी का आतंक
एक दूसरे में घुल जाते थे।
गब्बर सिंह का आतंक उसकी भाषा में था।
सांबा का आतंक उसकी चुप्पी में।
उसके चेहरे की हल्की-सी हरकत भी डर पैदा कर सकती थी।
उसमें वह घबराहट या बेचैनी नहीं थी
जो आम आदमी में होती है—
वह जैसे पत्थर पर उकेरा हुआ एक प्रहरी था।
ऊपर बैठा हुआ वह आदमी
जंगल के हर रास्ते, हर सरसराहट, हर खतरे को सबसे पहले महसूस करता था।
दुनिया कर्कश आवाज़ों को याद रखती है,
पर असली शक्ति कभी-कभी उन लोगों में होती है
जो बिना बोले सब संभालते हैं।
जिसने कुछ नहीं कहा… उसने सबसे अधिक कहा
और ये सही भी था
दहशत होती है तो सन्नाटा चाहिए
सांबा के संवाद लगभग न के बराबर हैं,
फिर भी वह दर्शकों की स्मृति में उतना ही स्थायी है
जितना फिल्म का कोई बड़ा किरदार।
क्यों?
क्योंकि कुछ पात्र अपने शब्दों से नहीं,
अपने होने से असर छोड़ते हैं।
जब गब्बर चिल्लाकर पूछता है—
“कितने आदमी थे?”
तो वह सवाल सांबा से ज़्यादा
कहानी के अंधेरे से पूछा गया लगता है।
सांबा उन्हीं अँधेरों का मोनोलिथ है—
सीधा, शांत और कठोर।
रोशनी से दूर खड़ी सबसे स्पष्ट आकृति थी सांबा
सिनेमा अक्सर उजाले के किरदारों को पूजा देता है,
पर शोले जैसी क्लासिक फिल्में बताती हैं
कि छाया भी कभी-कभी उजाले जितनी ही ज़रूरी होती है।
सांबा वही छाया है—
जिसके बिना गब्बर का आतंक अधूरा होता,
जिसके बिना गिरोह की आँखें अंधी होतीं।
न कोई हँसी,
न कोई चीख,
न कोई लंबा संवाद—
बस ऊँचाई पर बैठा एक अडिग आदमी
जो कहानी को दूर से, पर बड़ी बारीकी से देखता रहता है।
वह केंद्र में नहीं था,
पर कहानी के ढाँचे की चुपचाप रक्षा उसी की निगाहें करती थीं।
अंत में…
हर बड़ी कहानी में एक ऐसा पात्र ज़रूर होता है
जो खुद कम बोलता है,
पर बाकी सबकी आवाज़ों को अर्थ देता है।
सांबा वही पात्र है—
कहानियों का शांत प्रहरी,
ऊँचाई पर बैठा वह मौन,
जो दिखाई तो कम देता है
पर याद सबसे अधिक रहता है।
पहाड़ की चट्टान हो,
आकाश की नीलिमा हो,
या हमारी यादों की कोई धुंधली परत—
सांबा वहाँ आज भी बैठा है,
अपने मौन के सबसे ऊँचे पहरे के साथ।
कहानियों में कई लोग चीखते हैं, पर इतिहास उन्हीं को थामकर रखता है जिनकी खामोशी पहाड़ की तरह अडिग होती है—सांबा उन्हीं में से एक है।
सांबा उस सन्नाटे का हिस्सा नहीं था; वह दरार था जहाँ सन्नाटा जन्म लेता है।
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