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इतिहास के पन्नों से - 15

                                                     इतिहास के पन्नों से 15


भाग 15  चीन विशेषांक 


नोट - ‘ वैसे तो इतिहास अनंत है ‘शृंखला लेख में इतिहास की कुछ घटनाओं के बारे में पहले प्रकाशित भागों में  उल्लेख है, अब आगे चीन विशेषांक पढ़ें        


अफीम युद्ध 
The Opium War 


अफीम  बड़े युद्ध  का कारण भी बन चुका  है . इसके चलते इतिहास में दो बड़े युद्ध के उदाहरण है 

अफीम , जैसा कि सब जानते हैं , एक मादक द्रव्य है  . अफीम के पौधे को पोस्ता या खसखस ( अंग्रेजी में poppy ) कहते हैं  . दरअसल अफीम को ‘ पोस्त का दूध ‘ भी कहा जाता है . अफीम के कच्चे फल को काट कर जो दूध निकलता है उसे सुखा लिया जाता  है जिससे यह और गाढ़ा हो जाता है जिसे अफीम कहते हैं . अफीम में मॉर्फिन जैसे एल्कलॉइड ( alkaloid ) होता है जो दर्द निवारक दवा बनाने में काम आता है . इसके अतिरिक्त इससे हेरोइन और अन्य सिंथेटिक ओपिओइड ( Opioid ) भी बनते हैं .  

 अफीम युद्ध - 
प्रथम अफीम युद्ध  ( First Opium War ) - इस युद्ध को प्रथम चीन युद्ध के नाम से भी जाना जाता है  . इसका आरंभ ब्रिटिश और चीनी ‘ क्विंग ‘‘ ( Qing ) राजवंश के बीच एक व्यापारिक संघर्ष के रूप में हुआ था  . 19 वीं शताब्दी में 1839 - 42 में उनके बीच पहला अफीम  युद्ध हुआ था और 1856 - 60 में दूसरा अफीम युद्ध हुआ था . 
प्रथम अफीम युद्ध का मुख्य कारण चीन का  ब्रिटेन द्वारा अफीम के व्यापार पर प्रतिबंध लगाना था  . चीन ने राजकीय आदेश से 1798 में ही अफीम के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया था  . इसके बावजूद ब्रिटिश व्यापारी अवैध रूप से अफीम का व्यापार कर रहे थे  .  अफीम गैर कानूनी रूप से ब्रिटिश भारत से तस्करी द्वारा चीन भेजते थे  . इसके अतिरिक्त भी चीन के साथ ब्रिटेन को व्यापारिक घाटा हो रहा था  . चीन से आयातित रेशम , चाय , पोर्सिलेन आदि के भुगतान के लिए अफीम एक अच्छा विकल्प था क्योंकि चीनी जनता में अफीम की मांग बढ़ रही थी  . दूसरी तरफ अफीम  के नशीले प्रभाव के चलते चीनी शासक अफीम व्यापार से बहुत गुस्से में थे  . शुरू में राजनयिक संघर्ष हुआ जो व्यर्थ साबित हुआ और बाद में सैनिक संघर्ष में बदल गया  . 


एक बार ब्रिटिश शिप से चीन ने 2000 टन अफीम जब्त कर समुद्र में बहा दिया था  . इससे ब्रिटेन बहुत नाराज हुआ  . बाद में एक अन्य ब्रिटिश शिप ‘ नेमसिस ‘  पर  चीन ने सैनिक कार्यवाही कर उसे रोकना चाहा था पर इस बार ब्रिटिश सैनिक आधुनिक जहाज और  हथियारों से लैस थे  . दोनों में युद्ध हुआ जिसमें हजारों चीनी  सैनिक मारे गए थे  . इसके बाद पुनः 1841 में ब्रिटेन ने  कैंटोन ( गुआंगझू राज्य ) , नानजिंग  और शंघाई  पर आक्रमण किया जिसमें करीब 20000 सैनिकों की मौत हुई थी जबकि ब्रिटेन को कुछ सौ सैनिक ही मरे थे  . 


नानजिंग संधि - 1842 में चीन को मजबूर होकर ब्रिटेन के  साथ एक संधि पर हस्ताक्षर करना पड़ा  था  . इस संधि के अंतर्गत मुख्य बातें ये थीं -


चीन को हांगकांग 1997 तक के लिए ब्रिटेन को सौंपना पड़ा . इसके अतिरिक्त चीन को यूरोप से व्यापार के लिए  चार अन्य बंदरगाहों   ( port ) को भी खोलना पड़ा  . इसके पहले  चीन ने केवल कैंटोन ( Canton ) पोर्ट से व्यापार की अनुमति दी थी . 


चीन  को एक मोटी रकम हर्जाने में देना पड़ा   . 

ब्रिटेन अब सीधे चीनी व्यापारियों  से व्यापार कर सकता था  . 

अंग्रेजों पर मुकदमे अंग्रेजों के कानून के अनुसार उन्हीं के अदालतों में चलेंगे  .  

द्वितीय अफीम युद्ध ( Second Opium War ) - पहले अफीम युद्ध में मिली शर्मनाक हार के चलते चीनी जनता में ब्रिटेन और ब्रिटिश नागरिकों के प्रति बहुत रोष और घृणा थी  . वे ब्रिटिश और ब्रिटिश सैनिकों ( जिनमें ज्यादातर भारतीय थे ) से बुरा बर्ताव करते थे  . नानजिंग संधि के बाद भी  दोनों के बीच तनाव बना रहा था  . फिर 1856 में द्वितीय अफीम युद्ध आरम्भ हुआ , इस युद्ध में ब्रिटेन के साथ फ्रांस भी था  . एक बार फिर से चीन को हार का सामना करना पड़ा था  और मजबूर होकर अक्टूबर 1860 में बीजिंग( तब पेकिंग )  संधि पर हस्ताक्षर करना पड़ा  था . इसके फलस्वरूप चीन को ब्रिटेन और फ्रांस को व्यापार में पहले से ज्यादा रियायतें देनी पड़ीं थी  . 
दोनों अफीम युद्ध का संक्षिप्त प्रभाव - दोनों बार चीन को हार कर अपमानित होना पड़ा था   . चीन में विदेशी शक्तियों का असर ज्यादा होने लगा था  . इन संधियों के चलते चीन को देश की संप्रभुता स्वायत्तता से समझौता करना पड़ा था  . इसके कारण चीन में 19 वीं  सदी को ‘ अपमान का सदी ‘  ( Century of Humiliation ) के रूप में भी जाना जाता है  . 


चीन की महान दीवार ( The Great Wall of China ) - चीन की  महान दीवार दुनिया के सात आश्चर्यों ( Wonders of World ) में एक है  . इसके अतिरिक्त यह UNESCO का एक प्रमुख वैश्विक धरोहर ( world heritage ) भी है  . चीन का यह विशाल दीवार को अंतरिक्ष से भी देखा जा सकता   है  . यह  दीवार चीन  संस्कृति और इतिहास का अहम प्रतीक है  . 


चीन की इस दीवार को चीन के किसी एक शासक या राजवंश ने नहीं बनवाया था बल्कि इसका निर्माण  कई सदियों में अलग अलग राजवंशों के शासकों ने किया था  . यह सामरिक दृष्टि से चीन की सुरक्षा के लिए बहुत महत्व रखता था  .इसे खास कर उत्तरी सीमा  से चीन को आक्रांताओं और कबीलों  से सुरक्षा की दृष्टि से , बनाया गया था  .  उस समय हूण , तुर्क , ख़ितान , टटर , किरात और जुरचन से चीन को खतरा था  . दीवार का कुछ भाग व्यापार के काम भी आता था  .  अनेक राज्यों और उनके अलग अलग राजवंश के शासकों ने दीवार को और लम्बी बनवाया  . 


चीन की महान दीवार मानव द्वारा निर्मित विश्व की सबसे लम्बी दीवार है   . दीवारों के बीच अनेक वाच टावर और किले हैं  . इसके निर्माण में लगभग 2300  वर्ष लगे थे  . इसका निर्माण ईसा पूर्व सातवीं  शताब्दी में  शुरू हुआ था और 1700 AD में  पूरा हुआ  . इसके निर्माण में मुख्यतः मिट्टी , पत्थर , लकड़ी और चिपचिपा चावल का प्रयोग हुआ था  . आरम्भ में  दीवार की लम्बाई लगभग 5000 Km थी जो आगे चलकर करीब 21000 Km हुई  .

सिल्क रूट - सिल्क रूट या रेशम मार्ग प्राचीन और मध्यकाल युग में पूर्व और पश्चिम , खास कर यूरोप , के बीच व्यापार , विचार , कला , धर्म और सांस्कृतिक परम्परा के आदान प्रदान के लिए एक मशहूर मार्ग था  . यह भारत , चीन ,मध्य एशिया के ईरान , इराक , सीरिया आदि देशों और यूरोप के बीच एक मार्ग था  . भारत और चीन से विशेष कर रेशम ( सिल्क ) का व्यापार होने के कारण ही इस मार्ग का नाम सिल्क रूट पड़ा था  . वैसे रेशम के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं  ( मसाले , लग्जरी गुड्स , कीमती रत्न और पत्थर आदि )  का व्यापार इसी मार्ग से होता था  . यह सिर्फ सड़क मार्ग न होकर इस रूट में जलमार्ग भी शामिल थे  . इसका समुद्री मार्ग चीन को भारत सहित साउथ ईस्ट एशिया , अफ्रीका को भी जोड़ता था  .  यह कोई एक मार्ग नहीं था बल्कि अनेक मार्गों का एक नेटवर्क था  . 


यह मार्ग भारत के उत्तर पूर्व से चीन , बर्मा ( अब म्यांमार ) और आगे समुद्र के रास्ते यह मध्य एशिया होते हुए यूरोप तक जाता था  . सिल्क रूट से व्यापार ईसा पूर्व दूसरी सदी से लेकर 15  वीं सदी AD के मध्य तक होता रहा था  . उसके बाद अनेक कारणों से यह मार्ग धीरे धीरे बंद हो गया था  . 1453 में तुर्क ओटोमन द्वारा पश्चिम से व्यापार बंद करने , रूट में स्थानियों  शासकों का दबदबा  होने , मंगोल साम्राज्य के पतन और समुद्री मार्ग से बड़े जहाजों से सुलभ व्यापार के विकल्प के कारण यह मार्ग बंद हो गया था  . 


स्वर्ग का आदेश ( Mandate of Heaven ) -  ‘ स्वर्ग का आदेश ‘ एक प्राचीन चीनी राजनीतिक  , दार्शनिक और धार्मिक अवधारणा थी  . चीन की जनता को  शासकों के राज्याधिकार को सही ठहराने और स्वर्ग या आकाश से आये दैवीय आदेश बताने के लिए राजा इसे प्रयोग में लाते थे , अर्थात स्वर्ग ने राजा को शासन करने का अधिकार दिया था . इसके अंतर्गत यदि राजा भ्रष्ट हो जाए या  ठीक से शासन नहीं चला सकता था तो उसे भी स्वर्ग के आदेश से  अपदस्थ किया जा सकता था  . 


राजा के शासन काल में बाढ़ , सूखा या अन्य प्रकितिक आपदायें उसके शासन के पतन का सूचक होता था और उसे  अपदस्थ किया जा सकता था  . राजवंश में परिवर्तन या विद्रोह को अक्सर स्वर्ग के आदेश की अवमानना समझा जाता था  . 

यह प्रथा ईसा पूर्व 1046 से चीन में झाउ ( Zhou ) राजवंश से लेकर साम्राज्यवाद के अंत , क्विंग  राजवंश ( लगभग 1911 AD ) तक प्रचलित थी  .   


क्रमशः 

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