BAGHA AUR BHARMALI - 4 Sagar Joshi द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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BAGHA AUR BHARMALI - 4



Chapter 4 — उम्मादे का जोधपुर आगमन और भारमाली का साथ जाना 

विवाह समाप्त होने के बाद, जैसलमेर किले में एक अनोखी खामोशी उतर आई थी।
एक तरफ़ ढोल-नगाड़ों की हल्की प्रतिध्वनि, दूसरी तरफ़ रानी उम्मादे की विदाई की तैयारी।
राजघराने में यह पल हमेशा मिलेजुले भाव लेकर आता है—खुशी भी, दुख भी।

सूरज की पहली किरणों ने किले की ऊँची दीवारों को छुआ ही था कि बाहर शाही कारवाँ की हलचल शुरू हो गई।
घोड़ों की टापें, ऊँटों की गरदन हिलाने की आवाज़ें, और सैनिकों की कवचों की खनक—सब कुछ यह बता रहा था कि जैसलमेर की बेटी अब मारवाड़ की रानी बनकर जा रही है।

उम्मादे पालकी में बैठने से पहले एक पल ठहरती है।
अपना घर—वो कंगूरे, वो गलियारे, वो आँगन जहाँ वह पली—सब उसकी आँखों के सामने जैसे आख़िरी बार उमड़ आते हैं।
उसकी माँ आँखें भरे हुए हाथ पकड़ती है—
पर शाही परंपरा में आँसू दिखाना अपशकुन माना जाता है, इसलिए भीतर का दर्द ही बाहर का संयम बनकर रह जाता है।

उसके पीछे आती है भारमाली वही दासी जिसकी परवरिश उम्मादे के साथ ही हुई थी।
राजमहल में कई दासियाँ थीं, पर भर्माली अलग थी—
बात कम करती, आँखों में चमक, और रानी के प्रति अटूट निष्ठा।

उम्मादे ने जल्दी में कहा—

“भारमाली, तुझे मेरे साथ ही चलना है।
तू नहीं होगी तो मैं वहाँ बिल्कुल अकेली पड़ जाऊँगी।”

भारमाली ने सिर झुकाकर उत्तर दिया—

“जहाँ आप होंगी, वही मेरा घर होगा, रानी साहिबा।”

उसके स्वर में सच्चाई थी—
और साथ ही एक हल्का-सा डर भी, जिसे शायद वह खुद भी ठीक से समझ नहीं पा रही थी।

जैसलमेर की दीवारों के बाहर जमा शाही कारवाँ

जब दोनों किले के मुख्य फाटक तक पहुँचीं, तो बाहर का दृश्य देखने लायक था—

पचास से ज़्यादा राजपूत घोड़े आगे-आगे

उनके पीछे हाथियों की कतार, जिन पर चाँदी और सोने की नक्काशी वाली हौदें थीं

ऊँटों पर सामान और शाही झंडे

ध्वज हवा में लहरा रहे थे—लाल, पीले, केसरिया रंगों के

ढोलची लगातार ताल दे रहे थे

भाट “मालदेव राठौड़” का जस गा रहे थे


यह वैसी ही शान थी जैसे विवाह के समय आई बारात।
जैसलमेर के लोग अभी भी छतों पर खड़े थे,
कई औरतें बच्चियों को गोद में उठाकर कह रही थीं—
“देखो, यह है नई रानी की विदाई।”

उम्मादे ने एक बार फिर पीछे देखा—
और उस क्षण उसने महसूस किया कि उसका पुराना जीवन अब केवल स्मृति बन चुका है।

यात्रा लंबी थी—रेत के टीले, हवा की सनसनाहट, और शानदार जुलूस।

लेकिन उसकी आँखें लगातार बदलते दृश्य पर टिकी थीं।
हर पड़ाव पर जोधपुर के सैनिक आगे बढ़कर कारवां की रक्षा करते,
और मालदेव समय-समय पर उम्मादे की पालकी के पास आकर हाल पूछ लेते।

पहाड़ बदलते हैं—जोधपुर की धरती नज़र आती है

जैसे ही रेत के टीले पीछे छूटने लगे,
और पत्थरीली ज़मीन दिखाई देने लगी,
भर्माली की उत्सुकता और बढ़ गई।

मारवाड़ की भूमि का अपना रंग था—

नीले पत्थरों की कटाई

काछियाँ और चरवाहे

सूखी ज़मीन पर चलती हवा

दूर-दूर तक फैले टीले और झाड़ियाँ



जोधपुर किला नजर आया।
मेहरानगढ़—जिसकी ऊँचाई ही बताती थी कि यह किसी साधारण राज्य का प्रतीक नहीं था।

उम्मादे ने हल्का सा परदा उठाकर किले की तरफ देखा।
उसके चेहरे पर पहली बार आश्चर्य की चमक आई।

“ये तो आसमान को छूता है…”
उसके होंठों से धीमे से निकला।

भारमाली ने फुसफुसाकर कहा—
“रानी साहिबा, अब से यही हमारा घर है।”

शहर के प्रवेश द्वार पर सैकड़ों लोग खड़े थे।
औरतें छतों से फूल बरसा रही थीं।
भूपति नृत्य करने वाले कलाकार रास्ते में नाचते हुए आगे बढ़ रहे थे।
राजपूत सैनिकों ने तलवारें उठाकर सम्मान-पथ बनाया।

ढोलों की आवाज़ तेज़ होती गई—
और मालदेव ने आगे बढ़कर खुद उम्मादे की पालकी के सामने आकर स्वागत किया।

भारमाली की पहली नज़र मालदेव पर

जब रानी को नीचे उतराया जा रहा था,
भारमाली पीछे खड़ी थी, हाथ में सामान लिए।

उसी समय एक पायल उसके पैर से खुलकर जमीन पर गिर गई।
वह झुककर उसे उठाने लगी—
लेकिन भार ज़्यादा होने से उसका हाथ डगमगाया और कंगन बजते हुए नीचे गिर पड़े।

मालदेव पीछे मुड़कर बोले—

“धीरे, दासी। यहाँ के गलियारे पत्थर के हैं, चोट लग जाएगी।”

स्वर साधारण था, पर भर्माली को इतना ही काफी लगा।
उसने सिर झुकाया—
लेकिन मालदेव आगे बढ़ चुके थे।

उम्मादे ने यह दृश्य देखा।
उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी—
उसे लगा कि राजा दयालु और विनम्र हैं।
उसने इसे किसी और अर्थ में नहीं लिया।

उम्मादे ने जब मेहरानगढ़ के अंदर कदम रखा,
सजावट, कला, और व्यवस्था देखकर स्तब्ध रह गई।

लंबे गलियारे

चित्रों से भरी दीवारें

झरोखे जिनसे शहर दिखता था

चंदन की खुशबू

हर कदम पर दासियाँ झुककर अभिवादन करतीं


भारमाली रानी के पीछे-पीछे सब देख रही थी,
और उसकी आँखों में अब भी वही उत्सुकता थी।