मेनका - भाग 2 Raj Phulware द्वारा नाटक में हिंदी पीडीएफ

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मेनका - भाग 2



मेनका भाग 2 



लेखक: राज फुलवरे









अध्याय तीन — गाँव के लोग और मेनका का जाल



गाँव के चौपाल पर अब हर शाम मेनका का दरबार लगता था.

लाल चुनरी ओढे, चंदन की खुशबू में भीगी हुई,

वो ऊँचे आसन पर बैठती और उसके चारों ओर गाँववाले जुट जाते.



>“ मेनका देवी, मेरे बेटे का व्यापार ठप पडा है.

मेनका दीदी, मेरी बेटी की शादी में बरकत नहीं है.







हर कोई उसके पास किसी न किसी उम्मीद के साथ आता.

और मेनका, अपने मीठे शब्दों से सबका दर्द बाँटती.

वो हर समस्या का हल बताती —

कभी तावीज, कभी जल चढाने का उपाय, तो कभी“ निवेश योजना” में और धन लगाने की सलाह.



लोगों के लिए वो अब इंसान नहीं रही थी,

वो“ देवी” बन चुकी थी —

मेनका देवी.









गाँव में बदलाव



रामगढ की गलियों में अब सुनहरी चमक दिखाई देती थी.

हर घर के बाहर मेनका की तस्वीर टंगी थी —

चमकते हुए चेहरे पर हल्की मुस्कान,

और नीचे लिखा था —



>“ जिसने मेनका पर भरोसा किया, उसकी किस्मत चमकी।







हरिप्रसाद ने अपनी आधी जमीन गिरवी रख दी,

मोतीराम ने अपने गहनों का सारा सोना निकाल दिया,

धनराज ने अपने बेटे की पढाई का पैसा मेनका की“ योजना” में डाल दिया.



सभी को यकीन था कि कुछ ही दिनों में उनका पैसा दोगुना हो जाएगा.

और इस बीच बलवंतराव दिन- ब- दिन और भी लालची होता जा रहा था.









बलवंतराव का विस्तार



बलवंतराव अब खुद को राजा समझने लगा था.

गाँववाले उसे“ मेनका देवी का दूत” कहते.

वो चौपाल पर खडा होकर गर्व से कहता —



>“ आपण सारे भाग्यवान आहोत!

अशी स्त्री पुन्हा या गावात येणार नाही.

तिच्या आशीर्वादानं रामगड सोन्याचं होणार आहे!







मेनका मुस्कुराती,

और धीरे से बलवंतराव के कान में कहती —



>“ राजकारण और विश्वास — दोनों तब तक टिकते हैं जब तक झूठ मीठा लगे।







बलवंतराव समझता नहीं था,

पर वो उस मुस्कान पर अंधा भरोसा करता था.









मेनका का असली रूप



रात को जब सब सो जाते,

मेनका अकेली अपने कमरे में बैठती.

वो सामने शीशे में देखती और खुद से फुसफुसाती —



>“ हर गाँव में वही कहानी, वही चेहरे, वही लालच.

लोग कभी नहीं बदलते — बस भगवान के नाम से मूर्ख बनते रहते हैं।







वो अपने बक्से खोलती —

सोने के हार, नोटों के बंडल, चाँदी के सिक्के.

हर चीज को छूकर वो मुस्कुराती.

पर उसकी आँखों में कोई खुशी नहीं थी —

सिर्फ ठंडा हिसाब था.









लक्ष्मीबाई की शंका



बलवंतराव की पत्नी लक्ष्मीबाई का शक अब और गहराने लगा था.

वो हर दिन मेनका को देखती —

कभी गाँववालों के बीच, कभी अपने पति के साथ बंद कमरे में.



एक रात वो चुपचाप बरामदे के पास पहुँची.

अंदर से आवाजें आ रही थीं —



>“ बलवंतरावजी, अब वक्त आ गया है सोनपुर जाने का.

वहाँ की जमीनें बहुत सस्ती हैं. अगर हम वही पैसा लगाएँगे, तो सारा सोना हमारा होगा।







>“ पण लोकांना काय सांगायचं? बलवंतराव ने पूछा.

कह दो कि वहाँ भी योजना शुरू कर रहे हैं.

पैसा लाओ, भरोसा रखो — बस यही मंत्र है।







लक्ष्मीबाई के पैरों तले जमीन खिसक गई.

उसे समझ आ गया कि ये सब“ भलाई” नहीं, एक बडा खेल है.









गाँव की नई पूजा



कुछ हफ्तों बाद मेनका ने“ धन पूजा” का आयोजन किया.

पूरा गाँव सजा हुआ था.

लोगों ने सोने- चाँदी के बर्तन लाए, धूप- दीप जलाए.

मेनका ने सफेद साडी पहनी, माथे पर बडा लाल तिलक लगाया,

और बोली —



>“ आज का दिन है समृद्धि का.

जो आज यहाँ धन अर्पण करेगा, उसका घर सुख- शांति से भर जाएगा।







लोग पंक्तिबद्ध होकर आने लगे —

हर कोई कुछ न कुछ चढावा चढा रहा था.

किसी ने पैसा, किसी ने गहने, किसी ने जमीन के कागज तक.



बलवंतराव के चेहरे पर गर्व था,

और मेनका की आँखों में जीत.









परछाइयों में वापसी



उसी रात, जब सब सो गए,

गाँव की सीमा पर एक घोडा रुका.

उस पर सवार था यशवंत पाटील — बलवंतराव का बेटा.



चार साल शहर में रहकर लौटा था.

अभी- अभी उसे खबर मिली थी —



>“ पिता किसी मेनका नाम की औरत के साथ गाँव चला रहे हैं।







वो चुपचाप अपने घर की ओर बढा.

दरवाजे के बाहर भीड देखी,

दीवारों पर मेनका की तस्वीरें और“ धन योजना” के पोस्टर लगे थे.



>“ हे काय चाललंय इथे? उसने खुद से कहा.

माझं गाव सोनं झालंय की फसवणूक?







अंदर से ढोलक की आवाज और मेनका की पूजा के गीत आ रहे थे.

यशवंत की नजर उस औरत पर पडी —

सफेद साडी में लिपटी,

भीड के बीच चमकती हुई — मेनका.



उसकी आँखों में कुछ अजीब था —

ना पूरी भलाई, ना पूरी बुराई —

बस एक गहराई. जो किसी को भी डुबो दे.



यशवंत वहीं खडा रह गया,

पर उसके मन में अब सवाल जल उठा था —



>“ ही बाई कोण आहे? आणि माझ्या वडलांवर हिचं एवढं राज्य का आहे?













मौन की रात



उस रात यशवंत ने किसी से कुछ नहीं कहा.

बस बरामदे में बैठा, दीपक की लौ को देखता रहा.

वो लौ काँप रही थी — जैसे आने वाले तूफान का संकेत दे रही हो.



और यशवंत के भीतर वही तूफान उठ रहा था —

सवालों, गुस्से और सच्चाई की तलाश का.













अध्याय चार — यशवंत की टक्कर और सच्चाई की पहली दरार



रामगढ के गांव में अब मेनका का नाम हर जुबान पर था.

हर घर, हर चौपाल और हर गलियों में उसकी छवि बसी थी.

गाँववाले उसके जाल में फँसे हुए थे,

और बलवंतराव का गर्व आसमान छू रहा था.



लेकिन अब यशवंत पाटील ने कदम रखा था.

शहर में पढाई और अनुभव लेकर लौटा यह युवा,

बस एक ही सोचता था —“ मेरे पिता को इस चाल में फँसने नहीं देना. और मेनका की असली मंशा सबके सामने लानी है।









यशवंत की योजना



यशवंत ने सबसे पहले अपने भरोसेमंद दोस्त सागर को बुलाया.

सागर गांव का ही था,

पर अब शहर में कई सालों तक सरकारी और वित्तीय काम सीख चुका था.



>“ सागर, मुझे मदद चाहिए. यह मेनका कोई साधारण महिला नहीं है.

उसने गाँववालों को फँसा रखा है, और मेरे पिता की आँखों में धूल डाल दी है।







सागर मुस्कुराया —



>“ ठीक है यशवंत, तुम्हारी बात समझ में आई. हम इसे समझदारी से संभालेंगे.

मैं तुम्हारे लिए ‘इनकम टैक्स वाला’ बनकर जाँच की भूमिका निभाऊँगा।







यशवंत ने उसे पूरी योजना समझाई —

मेनका और बलवंतराव के बीच छिपे सौदों और धन के लेन- देन को पकडना.



>“ लेकिन ध्यान रखना, ये काम बिना शोर- शराबे के होगा.

अगर गांव वाले या पिता को पता चला, तो मेनका और बलवंतराव सख्त हो जाएंगे।







सागर ने सिर हिलाया —



>“ सच और चालाकी — यही इस खेल में हमारी जीत की कुंजी है।













मेनका का खेल जारी



मेनका अब और भी निपुण हो रही थी.

वो अब सिर्फ लोगों को फँसाती नहीं थी,

बल्कि उनके दिल और सोच पर भी राज कर रही थी.



एक दिन उसने गाँववालों के लिए बडा आयोजन रखा.

सभी को बुलाया, हर घर से धन, सोना और गहने जमा किए.

बलवंतराव गर्व से कहता —



>“ आपण इतिहास घडवत आहोत!

मेनका देवीच्या आशीर्वादाने रामगड सोनं होणार आहे!







लेकिन यशवंत की नजरें इस सब पर थीं.

वो देख रहा था —

कैसे मेनका लोगों को मोहब्बत और विश्वास के जाल में फँसाती है.









पहली टक्कर



यशवंत ने तय किया —



>“ अब समय आ गया है. मुझे सीधे मेनका के पास जाकर उसकी चाल को चुनौती देनी होगी।







वो उस दिन शाम को, मेनका के दरबार में गया.

गाँववालों की भीड उसके पीछे थी.

मेनका मुस्कुराई —



>“ कौन है यह युवक? लगता है मेरे जाल को पहचानने वाला है।







यशवंत ने साहस दिखाया —



>“ मेनका, मुझे सब पता है. यह खेल अब और नहीं चलेगा.

गाँववालों को मूर्ख मत बनाओ. और मेरे पिता को भी धोखा मत दो।







मेनका की मुस्कान गहरी हो गई.



>“ ओह! यह तो छोटा लडका लग रहा था.

लगता है, इसमें थोडी हिम्मत है. पर खेल अभी शुरू भी नहीं हुआ।







गाँववालों में हलचल मच गई.

कई लोग यशवंत की ओर देख रहे थे,

तो कई लोग डर के मारे अपने घरों में छुप गए.









सागर का समर्थन



यशवंत ने पीछे खडे सागर की ओर देखा.

सागर ने सिर हिलाकर हाँ कहा.

दोनों ने मिलकर निर्णय लिया —



>“ मेनका को साबित करना है कि अब उसके जाल का समय खत्म हो गया है.

उसके सारे धंधे और सौदे अब उजागर होंगे।







सागर ने अपने मोबाइल और छुपे हुए उपकरण तैयार किए.

यशवंत ने गाँववालों की भीड को धीरे- धीरे अलग किया.

उनकी योजना थी —



>“ पहले पिता को समझाना, फिर मेनका का खेल बेनकाब करना।













मेनका की प्रतिक्रिया



मेनका ने महसूस किया कि उसे चुनौती दी जा रही है.

वो शांत रही, पर उसके भीतर आग भडक रही थी.



>“ छोटा लडका, तुम सोचते हो कि तुम मुझे हरा सकते हो?

यह खेल लंबा है, और मैं हमेशा आगे रहती हूँ।







उसने अपने सहायक बलवंतराव को संकेत दिया —



>“ सावधान रहो. यह लडका और उसका साथी कुछ कोशिश कर सकते हैं.

मुझे रोकने की कोई कीमत नहीं चुकानी होगी।













अगले दिन का संकेत



अगली सुबह, गाँव की गलियों में अजीब सन्नाटा था.

सभी जान रहे थे कि यशवंत ने कुछ किया है,

लेकिन कोई नहीं जानता था क्या.



यशवंत और सागर अब धीरे- धीरे मेनका के खेल को समझ रहे थे.

और मेनका भी —



>“ ये लडका खतरनाक है. मुझे अपनी चाल बदलनी होगी।







इस तरह, रामगढ में पहली बार मेनका की जीत पर सवाल उठने लगे थे.

और यशवंत का साहस गाँववालों के लिए उम्मीद की किरण बन गया.