नेहरू फाइल्स - भूल-86 Rachel Abraham द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • रहनुमा

    रहनुमा आज ईद का दिन था। साहिल नमाज़ पढ़ने गए हुए थे। अंबर घर क...

  • कृष्ण–अर्जुन

    ⭐ कृष्ण–अर्जुन कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त हो चुका था।घोड़ों...

  • एक मुलाकात

    एक मुलाक़ातले : विजय शर्मा एरी(लगभग 1500 शब्दों की कहानी)---...

  • The Book of the Secrets of Enoch.... - 4

    अध्याय 16, XVI1 उन पुरूषों ने मुझे दूसरा मार्ग, अर्थात चंद्र...

  • Stranger Things in India

    भारत के एक शांत से कस्बे देवपुर में ज़िंदगी हमेशा की तरह चल...

श्रेणी
शेयर करे

नेहरू फाइल्स - भूल-86

भूल-86 
नेहरू और समान नागरिक संहिता (यू.सी.सी.) 

भारत में राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व (डी.पी.एस.पी.) का अनुच्छेद-44 समान नागरिक संहिता (यू.सी.सी.) को कार्यान्वित करना राज्य का कर्तव्य बनाता है। यू.सी.सी. का मकसद भारत में विभिन्न धार्मिक समुदायों के धर्मग्रंथों एवं रीति-रिवाजों के आधार पर बने व्यक्तिगत कानूनों को एक ऐसे कानून से बदलना है, जो देश के सभी नागरिकों के लिए समान हो। शादी, तलाक, विरासत, गोद लेने-देने और रख-रखाव इस कानून के तहत आते हैं। डी.पी.एस.पी. की अवधारणा निम्नलिखित पर आधारित और प्रेरित थी—आयरिश संविधान, रिवोल्यूशनरी फ्रांस द्वारा प्रमाणित मनुष्य के अधिकारों की घोषणा, अमेरिकी उपनिवेशों द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा और मानव अधिकारों की संयुक्त राष्ट्र सार्वभौम घोषणा। 

डी.पी.एस.पी. की भावना में एक तरफ जहाँ सन् 1950 में हिंदू कोड बिलों को पारित कर दिया गया, मुसलिम पर्सनल लॉ में संशोधन की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया, जबकि कई प्रभावशाली मुसलमान ऐसा करने की वकालत कर रहे थे (मुल्ला और कुछ मुसलमान संगठन प्रत्याशित तौर पर इसके विरोध में थे), जिनमें से एक थे—महोम्मेदाली करीम छागला (एम.सी. छागला), एक भारतीय न्यायविद्, राजनयिक, कैबिनेट मंत्री और वर्ष 1948 से 1958 तक बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे, जिन्होंने यू.सी.सी. के पक्ष में याचिका दायर की थी। 

एम.सी. छागला ने लिखा— 
“समान नागरिक संहिता के सवाल पर सरकार के रवैए का आकलन करें। हालाँकि, राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व ऐसे कोड की आज्ञा देते हैं, सरकार ने दलील पर इस बारे में कुछ भी करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि इसे थोपने के किसी भी प्रयास से अल्पसंख्यक नाराज हो सकते हैं। जब तक वे सहमत न हों, तब तक उस कानून को उनके लिए लागू करना पर्याप्त और उचित नहीं होगा। मैं पूरी तरह से और पूरे जोर के साथ इस दृष्टिकोण से असहमत हूँ। बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक, संविधान सभी के लिए बाध्यकारी है। अगर संविधान में कोई आदेश है तो उस आदेश को स्वीकार किया और लागू किया जाना चाहिए। जवाहरलाल ने हिंदू कोड बिल पारित करवाने में बहुत शक्ति और साहस दिखाया; लेकिन बात जब मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की आई तो उन्होंने हस्तक्षेप न करने की नीति को अपना लिया। मैं यह देखकर काफी डरा हुआ हूँ कि एक तरफ तो हमारे देश में हिंदुओं के लिए एक विवाह को कानून बना दिया गया है, मुसलमान अभी भी बहु-विवाह का फायदा उठा सकते हैं। यह नारीत्व का अपमान है। मुझे पता है कि मुसलमान महिलाएँ हिंदू महिलाओं और मुसलमान महिलाओं के बीच के इस भेदभाव पर नाराज हैं।” (एम.सी.सी./85) 

नेहरू के लिए सत्ता अति पवित्र थी। सत्ता के लिए निर्वाचित होना आवश्यक था और उसके लिए वोट जरूरी थे। खेल को क्यों बिगाड़ा जाए? अगर यू.सी.सी. लागू करने से मुसलमान वोट प्रभावित होते हैं तो उसे क्यों लाएँ? मुसलमान महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता इंतजार कर सकते हैं—अनिश्चित काल के लिए। उन्हें भुगतने दें। नेहरू ‘अच्छी चीजों’ की परवाह नहीं करते थे, जब तक वे वोटों को प्रभावित न करें। 

मलेशिया व इंडोनेशिया जैसे इसलामिक और मुसलमान बहुल देशों ने अपने निजी कानूनों में सुधार किया है; लेकिन ‘धर्मनिरपेक्ष’ भारत ने नहीं। यहाँ तक कि नेहरूवादी दौर में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खाँ और ट्‍यूनीशिया के राष्ट्रपति हबीब ने भी अपने-अपने देशों में मुसलिम पर्सनल लॉ को बदला था। 

ब्रिगेडियर बी.एन. शर्मा ने लिखा— 
“उनके (नेहरू के) काम, जानबूझकर या अनजाने में, ने भारतीय राज्य-व्यवस्था में मुसलमानों की एक अलग पहचान को बढ़ावा दिया, जिनके विचार और काम हमेशा भारतीय लोकाचार के साथ नहीं मिलते थे। मुसलमानों के मस्तिष्क की असुरक्षा की एक भावना को पैदा करने के साथ और ऐसा करते हुए उनमें अपने रहने के लिए एक अलग क्षेत्र की मानसिकता को बढ़ावा देते हुए और खुद को उनका सबसे बड़ा रहनुमा साबित करते हुए उन्होंने इस उम्मीद में तथाकथित हिंदू बहुसंख्यकों को ‘सांप्रदायिक’ कहकर प्रचारित किया और उनका अपमान किया कि ऐसा करने से हिंदू-मुसलमानों के बीच एक स्थायी अलगाव की भावना पैदा हो जाएगी, साथ ही कांग्रेस के लिए एक वोट बैंक भी। उनके उत्तराधिकारियों ने भी इस खेल को खेलना जारी रखा।” (बी.एन.एस./264) 

अपनी वोट बैंक की राजनीति को और अधिक बढ़ाने के फेर में नेहरू ने ‘उदार’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने की आड़ लेने की कोशिश की कि भारत जैसा हिंदू बहुल राष्ट्र अल्पसंख्यकों के व्यक्तिगत कानूनों को छूना नहीं चाहेगा, जब तक कि अल्पसंख्यक खुद ऐसा न चाहें। अब सवाल यह उठता है—क्या मुल्ला मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते थे? क्या नेहरू ने मुसलमान महिलाओं की इच्छाओं के बारे में जान लिया था? अगर नेहरू वास्तव में एक उदार और धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे तो उन्होंने यह कहा होता, “हम सभी संबंधित पक्षों को शामिल करते हुए यू.सी.सी. का मसौदा तैयार करेंगे। हम सभी भारतीयों को यू.सी.सी. के फायदों के बारे में जानकारी देंगे। हम मुसलमानों को इसलामिक देशों में हुए सुधारों के बारे में भी जानकारी देंगे। हम व्यापक विचार-विमर्श को प्रोत्साहित करेंगे। इसके बाद हम मुसलमानों सहित प्रत्येक धार्मिक समुदाय में प्रत्येक लिंग की इच्छाओं को जानना सुनिश्चित करेंगे, वह भी एक गुप्त मतदान के जरिए।” 

इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि 10 मई, 1965 के अपने एक फैसले में भारत के सर्वोच्‍च न्यायालय ने समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर बल दिया था और यह कहा था कि अब तक की क्रमिक सरकारें निर्देशक तत्त्वों में प्रदान किए गए संवैधानिक जनादेश को लागू करने के अपने काम के प्रति बेपरवाह रही हैं; और दृढ़ता से कहा कि शोषितों की सुरक्षा एवं राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए एक यू.सी.सी. बेहद जरूरी था। 

*************
संयोग से, गोवा राज्य में लिंग, धर्म एवं जाति की परवाह किए बिना यू.सी.सी. लागू है और गोवा के हिंदू, मुसलमान व ईसाई शादी, तलाक और उत्तराधिकार से संबंधित एक ही कानून का पालन करने को बाध्य हैं। अगर भारत का एक राज्य यू.सी.सी. लागू कर सकता है तो बाकी क्यों नहीं, विशेषकर तब, जब यह महिलाओं को लाभ पहुँचाएगा? 
*************