वो पहली बारिश Ashutosh Moharana द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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वो पहली बारिश

दिल्ली की गर्मी अपने चरम पर थी। चारों तरफ़ तपती सड़कों और धुएँ से भरी हवा ने लोगों की मुस्कानें भी जैसे सुखा दी थीं। लेकिन उस दिन शाम को मौसम ने करवट ली—आसमान में काले बादल उमड़ आए, और अचानक ही तेज़ बारिश शुरू हो गई।

आरव भागते हुए मेट्रो स्टेशन की सीढ़ियों की ओर दौड़ा। छतरी तो उसने हमेशा की तरह आज भी नहीं ली थी। सीढ़ियों के नीचे थोड़ा सूखा हिस्सा मिला, वहीं खड़ा हो गया। उसके कानों में अब भी ऑफिस की झंझटें गूंज रही थीं, और दिल में एक अजीब सी थकान थी—जैसे कुछ छूट रहा हो, या कुछ अधूरा सा हो।

तभी उसकी नज़र पड़ी—वहीं पास ही एक लड़की भी बारिश से बचती हुई खड़ी थी। सादे सलवार-कुर्ते में, भीगे बालों को झटकती, पर्स को बचाती… लेकिन उसकी आँखों में एक ठहराव था। वो बस बारिश को देख रही थी, जैसे हर बूँद में कोई पुरानी याद खोज रही हो।

आरव की नज़रें खिंचती चली गईं। उसे अजीब सा लगा—वो सिया थी, पर ये आरव को तब पता नहीं था।

“बड़ी ज़बरदस्त बारिश हो रही है,” आरव ने खुद को सामान्य दिखाने के लिए कहा।

लड़की ने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा, “हाँ, वैसे तो मैं बारिश से डरती हूँ… लेकिन आज अच्छा लग रहा है।”

आरव ने हौले से कहा, “कभी-कभी डर भी अच्छा लगता है, अगर कोई साथ हो तो।”

सिया ने उसकी ओर देखा, थोड़ी देर चुप रही, फिर मुस्कराते हुए बोली, “आप शायर लगते हैं।”

“नहीं, सिर्फ़ दिल से टूटा हुआ इंसान हूँ… जो बारिश में खुद को जोड़ने की कोशिश कर रहा है।”

कुछ पल चुप्पी छाई रही। सिया की आँखों में हल्की नमी थी, शायद बारिश की या बीते कल की।

“और आप?” आरव ने पूछा।

“मैं? मैं भी बस… भाग रही हूँ।”

“किससे?”

“खुद से। यादों से। किसी की बातों से… जो अब बस आवाज़ बनकर रह गई हैं।”

बरसात और भी तेज़ हो गई थी। लोगों की भीड़ मेट्रो स्टेशन में घुस रही थी। लेकिन आरव और सिया वहीं खड़े रहे—दो अजनबी, जिनकी आत्माएँ एक-दूसरे को सुन रही थीं।

“चलो, एक कॉफ़ी हो जाए?” आरव ने हिम्मत करके कहा।

“कॉफ़ी भीग जाएगी,” सिया ने मुस्कुराते हुए कहा।

“तो हम भीगेंगे साथ… शायद कुछ सूखा दिल फिर से भीग जाए।”

सिया ने पहली बार खुलकर हँसते हुए कहा, “ठीक है… लेकिन मैं चीनी कम पीती हूँ।”

कॉफ़ी शॉप पास ही थी। दोनों भीगे हुए, बालों से टपकती बूँदों के बीच, एक-दूसरे के साथ चल दिए।

शॉप के कोने वाली टेबल पर बैठते ही सिया ने खिड़की से बाहर झाँका। “बचपन में जब बारिश होती थी, मैं माँ के साथ छत पर जाकर नाचती थी। फिर पापा डाँटते थे, कि बीमार हो जाओगी। अब न माँ रही, न पापा… और न ही वो छत।”

आरव ने ध्यान से उसकी बातें सुनीं। “मैं भी बारिश में बचपन को ढूँढता हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ, क्या हम सब अपने अतीत को ही जीते रहते हैं?”

सिया ने धीरे से कहा, “या शायद कोई नया अतीत बनाने की कोशिश करते हैं, किसी नए के साथ…”

कॉफ़ी खत्म हो चुकी थी। बाहर बारिश अब हल्की हो गई थी, लेकिन दोनों का मन अब भी भीगा था।

आरव ने पर्स से एक पुराना रूमाल निकाला और सिया की ओर बढ़ाया, “लो, चेहरा पोछ लो… नहीं तो लोग समझेंगे तुम रोई हो।”

सिया ने हल्का सा मुस्कुराते हुए रूमाल लिया, “और अगर मैं सच में रो रही होती?”

“तो मैं तुम्हारी हर बूँद को सहेज लेता,” आरव ने कहा।

कुछ पलों के लिए सिया का चेहरा भावुक हो गया। उसकी आँखें गीली थीं, पर उनमें अब दर्द नहीं, अपनापन था।

"आरव," सिया ने पहली बार उसका नाम लिया, "क्या तुम फिर मिलोगे मुझसे?"

आरव ने बिना एक पल की देरी के कहा, "अगर ये बारिश दोबारा हुई… मैं यहीं मिलूंगा। ठीक इसी टेबल पर।"

सिया ने कहा, "ठीक है… लेकिन अगली बार मैं कॉफ़ी बनाऊँगी।"

दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा। वहाँ शब्द नहीं थे, सिर्फ़ एक वादा था।


छह दिन बाद…

दिल्ली में फिर बारिश हुई।

कॉफ़ी शॉप के उसी कोने में आरव बैठा था—उसी मेनू के पीछे छिपे इंतज़ार के साथ।

और फिर दरवाज़ा खुला।

भीगी हुई सिया, हाथ में दो कॉफ़ी कप, और मुस्कराता चेहरा।

“मैं आई,” उसने कहा।

आरव ने कॉफ़ी ली, और बोला, “अब डर अच्छा लगने लगा है… क्योंकि तुम साथ हो।”


अंत नहीं… क्योंकि कुछ कहानियाँ चलती रहती हैं, हर पहली बारिश के साथ।