बजरंग विजय चालीसा- समीक्षा एवं पद्य - 3 Ram Bharose Mishra द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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बजरंग विजय चालीसा- समीक्षा एवं पद्य - 3

बजरंग विजय चालीसा- समीक्षा एवं पद्य 3

 

 

"बजरंग विजय चालीसा" नामक ग्रँथ हनुमानजी की प्रार्थना में  चालीस छन्द और लगभग 8 दोहों व सोरठा में लिखा गया है। इसके रचयिता भगवान दास थे। जिन्होंने अंत मे  ग्रँथ का रचना काल इस दोहै में कहा है-

होरी पूनै भौम संवत उन इस सौ साठ।

चालीशा बजरंग यह पूरण भयो सुपाठ।।

बाद में इसकी प्रतिलिपि तैयार करते समय तिथि और लेखक कवि का उल्लेख किया गया है-

समर विजय बजरंग के कौउ बरन न पावे पार।

कहें दास भगवान किमि अति मतिमन्द गंवार। (दोहा क्रमांक 8)

 

श्रुभग साठ की साल, चैत्र कृष्ण एकादसी।

वणिक धवाकर लाल, लिखी दास भगवान यह।।( चालीसा के अंत का सोरठा)

इस ग्रंथ की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह चालीसा हिंदी के छंद शास्त्र के सबसे कठिन छन्द में से एक किरवान  छन्द  में लिखा गया है , जो वीर रस के ग्रँथों में उपयोग किया जाता था। किरवान छन्द  में चार-चार मात्राओं के चार हिस्से एक पंक्ति में आते हैं। पँक्ति के अंतिम शब्द से हर पंक्ति के अंत  की तुक मिलती है। इस परकार यह दुर्लभ कठिन छन्द है। इसे धुन के साथ बोलना भी जटिल है । इसके अलावा इस पुस्तक में लगभग 11 है दोहै भी लिखे गए हैं । कुछ दोहे प्रार्थना में चालीसा के अंत में लिखे गए हैं। उनको अलग क्रमांक दिया गया है।   संवत 1960 यानी 122 वर्ष पहले इस ग्रंथ की रचना की गई थी। उस समय काव्यशास्त्र में ब्रजभाषा का प्राधान्य था। इस ग्रंथ की भाषा ब्रज है। कुछ शब्द बुंदेली के भी मिल जाते हैं । कवि  किस ग्राम सड़  रहने वाले थे, इसके बारे में ग्रंथ में कोई उल्लेख नहीं है, वे हनुमान जी से प्रार्थ्ना करर्ते हैं कि सड़ गांव मे प्लेग न फैले, वे मूल चंद बुध लाल पर क्रुपा करनेकी भी स्तुति करते हैं  ।  हां, नागरी प्रचारिणी सभा में जो अभिलेख रखा गया है, पूर्व में जो पोथियाँ  गांव गांव में खोजी गई हैं उसमें भगवान दास नाम के कवि हो सकते हैं । अगर ऐसा ज्ञात होता है तो उनके बारे में अलग से नोट लिखा जाएगा ।फिलहाल यह दुर्लभ ग्रंथ हमको खोजने के बाद प्राप्त हुआ है। जिसमें हनुमान जी की स्तुति बहुत ही नए प्रकार से की गई है। मूल कथा गोस्वामी तुलसीदास जी के सुंदरकांड की तरह ही है लेकिन कई जगह अपने नए प्रयोग हैं जैसे लंका जलाते समय हनुमान जी से कुंभकरण की पत्नी का यह कहना कि मेरा पति सो रहा है उसे न जलाइए । लंका को हवन कुंड मानकर एक रूपक भी खड़ा किया है जिसमें पूछ को शुरुआत नर नारी को निशाचारों को समिधा मानकर हनुमान जी द्वारा यज्ञ करना बताया गया है । इस तरह तमाम अलंकारों, तमाम रस इसमे हें। मुख्य तौर पर वीर रस में लिखा गया यह ग्रंथ साहित्यिक मित्रों को भी, साहित्य प्रेमियों को भी अच्छा लगेगा और हनुमान जी के भक्तों को तो यह वरदान की तरह प्रतीत होता है। इस ग्रंथ के छंद भी संलग्न किए जा रहे हैं-

 

 

 

जासु बल ब्रह्म सृष्ट, सृजें पालें विष्णु इष्ट, करें शंकर हु नष्ट, जासु बल तेज भान ।।

जासुबल सीश शेष , धरे धरनी अशेष, जासु बल तूने लेश, जीते देश मघवान ॥

तासु दूत हों सुरारि , जा की सूनी  हरी नारि,अब चेत रे गमार, होत सीश भुज हान ।

रामचंद्र जू कौ दूत, महावीर मजबूत, भट समर सपूत बजरंग हनूमान ॥ २१।।

 

जानौं तोहि में लवारि, गयौ हैहय ते हारि,थाइ बालि ने पछार,स्वेत द्वीप ते परान।

मद मान को तयाग, राम भजरे अभाग,कहि बीस भुज बाग, ज्ञानी  गुरु मिलौ आन ।।

 दै निदेश राकसान,हरौ मूढ के पिरान, रोको विभीषण आन, नीति मानिये सुजान ।।

रामचंद्र जू कौ दूत, महावीर मजबूत, भट समर सपूत बजरंग हनूमान ।।२२।।

 

दूत मारिये न राज, आन दंड दीजै आज, पूँछ जार छोडौ साज, जाय अंग भंग थान ।।

चट-चाव सो चपेट, पट पूँछ सों लपेट, सट लावत ललेट अग्नि जार  दीन आन ।।

 होय बीर सान शील , करके सु लघु डील, निवके कै के पास ढील, धीर वीर सावधान।

रामचंद्र जू कौ दूत, महावीर मजबूत, भट समर सपूत बजरंग हनूमान ॥२३॥

 

दोहा

 

निवक पास तेवर तल्ख अनल बढ़त कपिराय ।

दशमुख के महलन प्रथम चढे कंगूरन आय ॥६।।

 

किरवान

 

कपि वपुष बढाय, लामी लूम को लफाय फेर फेर के फिराय, जारे सकल मकान ॥

प्रहलाद के समान, गृह विभीषण को आन, राखलीन भगवान, निज भक्त पहिचान ॥

 वहीं पौन उनचाश, ज्वाल बाढ़ के अकाश, गई देख मान त्राश, लागे असुर परान ॥

कीन्ही जानकी हुलास, दीनी राक्षसन त्राश, लंकजार की विनाश, बजरंग हनुमान ॥ २४॥

 

 

अति कठिन कराल, लख,ज्वाल विकराल, भई राक्षसी विहाल, अतिशय अकुलान ॥

 कहे मंदोदरी रानी, सुनो बात री अयानी, लाज छोड़ के नदानी, भजो ले ले निज प्रान ।।

 रे अकंप नातिकाय, बाल बाल कीन लाय, पूत नाती ले बचाय, तजें देत नतुजान ॥

कीन्ही जानकी हुलास, दीनी राक्षसन त्राश, लंकजार की विनाश, बजरंग हनुमान

 ॥२५।।

 

एकेँ जरें सुकुमारीं,नारी चढ़ी चित्र सारीं,  मनो सती सत्य धारी,  बैठी चेटिका में आन ।।

रोवें बाल बाल कींन,रटें बानी अति दीन, तात मात सुध लीन,नहि  कैसे बचे प्रान।

खर ऊँट गजराज, बृष महिषहु  बाज, बहु बूढ़े सब साज, जरे जात वे प्रमान ॥

कीन्ही जानकी हुलास, दीनी राक्षसन त्राश, लंकजार की विनाश, बजरंग हनुमान ॥ २६॥

 

कुंभ करण की नारी, रोवै दीन हो पुकारी, महाबीर असुरारी, मेरे पति के पिरान ॥

दीजे बगस कृपाल, हुजे दीन पै दयाल, सूतौ मारिये न हाल, कहै जोर जुगपान ।।

सुन दीनबच सोर, लीन्ह बाल धी सकोर, तब लै गए एक ढोर, डारो सिंधु तीर आन ।

गारे गरभ गुमान, नहि पावत परान, जारे ढेर जातुधान, बजरंग हनुमान ।। २७।।

 

सब वीर समुदाय, दशकंधर बुलाय, चले आयसु को पाय,अत्र शस्त्र गहि पान।

 कर सिंह सम नाद, सब दौरे मनुजाद, करी जय की मुराद, देख कीश मुश्क्यान ॥

दीन्ही बाल धी घुमाय,  भगे कूर  समुदाय, कोउ जरे गिरे धाय, काहु छोड़ दीनै प्रान।

 गारे गरभ गुमान, नहि पावत परान, जारे ढेर जातुधान बजरंग हनुमान ।।२८।।

 

मेघ  प्रलै के बुलाय, दीन्ह हुकुम रिसाय, कीट बोर के बहाय, मारौ पावे नहि जान  ।।

चले कहि भले नाथ, छोड़े जाय पुंज पाथ, खड़ों  देखै  दशमाथ , नीर घीव के समान ।।

पाये चौ गुनी कृशान,बाढ़  लागि आसमान, जरें  जात गात जान लगने मेघ भहरान ॥

गारे गरभ गुमान, नहि पावत परान, जारे ढेर जातुधान बजरंग हनुमान।।२९।।

 

लंक कुंड  के समान, भये  समधें मकान, जातुधानी जातूधान, सोई जव तिल धान ॥

जम्बुमाली रणधीर, पंच महारथी बीर, पान पुंगीफल खीर, नारिकेल के समान ॥

पूछ स्रुवा कीन्ह आन, हाँक स्वाहा सम जान, कियौ अक्ष बलिदान, करी यज्ञ हनुमान ।।

गारे गरभ गुमान, नहि पावत परान, जारे ढेर जातुधान बजरंग हनुमान ॥ ३०।।