शबनम' या 'शोला Sun द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शबनम' या 'शोला

भूमिका –

कुछ मोहब्बतें वक़्त से आज़ाद होती हैं।
न समाज से डरती हैं, न नाम से जुड़ती हैं।
ये कहानी भी वैसी ही है दो रूहों की, दो लड़कियों की जिन्होंने सिर्फ़ एक-दूसरे को चुना... एक ऐसे दौर में जब मोहब्बत, गुनाह समझी जाती थी।
ये कहानी किसी सिखाने के लिए नहीं है 
बस सुनाने के लिए है,
उन सभी दिलों तक पहुँचाने के लिए,
जो अब भी धड़कते हैं,
किसी 'शबनम' या 'शोला' के इंतज़ार में।”


शबनम और शोला जहाँ पहली नज़र का जादू चलता है'

साल था 1911। दिल्ली अपने पूरे शाही रंग में डूबी थी। विक्टोरिया टर्मिनस से लेकर लाल किले की दीवारों तक, सबकुछ जैसे रोशनी और रेशमी परचियों से सजा हुआ था। अंग्रेज़ी हुकूमत ने राजधानी में वायसराय लार्ड हार्डिंग का भव्य स्वागत आयोजित किया था। लेकिन असली शो रोक देने वाली रात थी 'दिल्ली दरबार की महफ़िल', जो सिर्फ़ राजाओं और महाराजाओं के लिए थी। और उस रात का ताज था 'नर्तकियों का विशेष नृत्य-प्रदर्शन', जहाँ पुराने लखनऊ, अवध और बनारस की सर्वश्रेष्ठ तवायफों को आमंत्रित किया गया था।

दरबार में सुनहरी झूमर लटके हुए थे, मेहमानों के हाथों में क्रिस्टल के जाम थे, और हवाओं में गुलाब और केवड़ा की मिली-जुली खुशबू थी।

इसी महफ़िल में पहली बार सबकी नजर पड़ी उस पर गुलाबी रेशमी लहंगे में, झुमकों की खनक के साथ मंच पर आई एक नई नर्तकी 'शबनम'।

उसकी चाल में एक अजीब ठहराव था, मानो वो हर कदम पर अपना अतीत छोड़ रही हो। उसके हाथों की हर हरकत, जैसे किसी भूली हुई कहानी की पंक्तियाँ हों। मगर जो बात सबसे अलग थी, वो थी उसकी आँखें गहरी, गंभीर, और जलती हुई। शबनम नाच नहीं रही थी, वो जैसे किसी अदृश्य दुश्मन से लड़ रही थी।

और उस दरबार के पीछे, सुनहरे सिंहासन के पास, बैठी थी 'राजकुमारी ईशिता सिंह' राजघराने की वह इकलौती संतान, जिसे राजनीति की ऊब और महलों की बंदिशें घुटन देती थीं। उसका मन कहीं और भटकता था किताबों में, कविताओं में, और अब... उस अजनबी नर्तकी की आँखों में।

"ये कौन है?" ईशिता ने अपनी सहायिका से पूछा।

"शबनम। लखनऊ की मशहूर कोठी 'बेगम अलीज़ा' की शिष्या। कहा जाता है कि उसकी माँ कभी नवाब की रखैल थी," सहायिका ने धीमे स्वर में जवाब दिया।

शबनम के पायल की आवाज़ जैसे सीधे ईशिता की धड़कनों से टकरा रही थी। जब शबनम ने अपने घूंघट से बाहर झाँका, तो उसकी नज़र राजकुमारी से टकराई और उस पल वक़्त जैसे रुक गया।

दोनों के बीच दूरियाँ थीं सामाजिक, राजनैतिक, और नैतिक। मगर उस पहली नज़र में कुछ ऐसा था, जिसने उन फासलों को हवा में घोल दिया।

''महफ़िल खत्म हुई।''

मेहमान चले गए। राजा-महाराजा अपने रथों में लौटे। मगर राजकुमारी ईशिता वहीं रुकी रही।

धीरे-धीरे वह नाचघर के पिछले हिस्से में पहुँची, जहाँ नर्तकियाँ अपने श्रृंगार उतार रही थीं। वहाँ शबनम अकेली बैठी थी, एक कटोरी में मेहंदी छुड़ा रही थी, और हल्के सुरों में 'ठुमरी' गुनगुना रही थी।

"तुम नाचती नहीं हो," ईशिता ने कहा। "तुम किसी से बदला लेती हो हर कदम पर।"

शबनम ने बिना घबराए उसकी ओर देखा। "और तुम बोलती नहीं हो... ढूँढती हो। क्या ढूँढ रही हो, राजकुमारी?"

ईशिता का गला सूख गया। मगर होंठ बोले “शायद तुम्हें।”

एक पल की खामोशी रही। फिर शबनम उठ खड़ी हुई। उसके पैरों से पायल ने फिर एक साज छेड़ा।

"राजकुमारी के होंठों से ऐसा सच? ये दरबार के क़ाबिल नहीं," उसने कहा।

"तो चलो... कहीं और चलें," ईशिता ने जवाब दिया।

उस रात के बाद सब कुछ वैसे ही था महलों की चकाचौंध, वेशभूषा, रस्में और रिवाज़ लेकिन ईशिता के भीतर कुछ बदल चुका था। वह रोज़ महल की बालकनी से बाहर देखती, जैसे किसी का इंतज़ार हो। शबनम का चेहरा उसकी आँखों में बस चुका था, और दिल की गहराइयों में कुछ ऐसा खिंचाव था जो उसने पहले कभी नहीं जाना था।

एक सप्ताह बीत चुका था। दिल्ली दरबार अब खत्म हो चुका था, लेकिन ईशिता ने पिता से जिद कर ली “मुझे दिल्ली में कुछ और दिन रुकना है, पेंटिंग सीखनी है।”

महाराजा हँस पड़े, “इतनी कला प्रिय हो गई हो कि दिल्ली की हवा भी छोड़नी नहीं चाहती?”

ईशिता मुस्कराई “कला में जो बात है, वो सत्ता में कहाँ।”

उधर, शबनम को भी बेगम अलीज़ा ने टोका, “वो राजकुमारी क्या है तेरे लिए? जरा संभल के! तवायफों को रानियों की तरफ देखना मना है।”

“मैं उसकी तरफ़ नहीं देखती, बेगम साहिबा,” शबनम ने नज़रे झुकाते हुए कहा, “मैं खुद को उसमें देखती हूँ।”

कुछ दिनों बाद, पुरानी दिल्ली के शाहबाज़ चौक की एक वीरान हवेली में, एक महफ़िल हुई वो भी चोरी-छुपे, बंद दरवाज़ों के पीछे। ईशिता के लिए निजी तौर पर रखी गई यह छोटी महफ़िल, सिर्फ शबनम के नृत्य और गायन के लिए थी।

दीवारों पर पुराने उर्दू शेरों के चित्र बने थे 
"तेरे आने की जब भी खबर आई है,
ज़ख्म ही साथ लाए हैं बहारों के साथ..."

शबनम ने नृत्य नहीं किया उस रात, सिर्फ़ बैठकर गाया 
“मोहे भूल गए सांवरिया…”
उसकी हर तान में एक सवाल था, एक पुकार।

ईशिता बस उसे देखती रही। फिर धीरे से बोली, “तुम्हारे सुर मेरी साँसों से बंध गए हैं।”

शबनम उसकी ओर बढ़ी, फिर रुक गई। “यह दुनिया हमारे बीच दीवारें खड़ी करती है।”

“तो दीवारों को पिघलाना होगा।”

वहीं, हवेली के पीछे से किसी की छाया गुजरती है एक अजनबी सुन रहा था ये मुलाकात।

शाम ढल रही थी। लालकिले के पास यमुना घाट पर शबनम अकेली बैठी थी, जब किसी ने उसके पास आकर चुपचाप एक रुमाल रखा सफेद, किनारे पर सोने की कढ़ाई राजघराने का निशान।

“चलो,” ईशिता बोली। “जहाँ कोई दीवार न हो।”

“और अगर दुनिया पीछे पड़ जाए तो?”

“तो हम दोनों शोला बन जाएंगे... और सब कुछ राख कर देंगे।”

दिल्ली की सर्दियाँ अब अपने पूरे शबाब पर थीं। धुंध में लिपटी गलियाँ, हवाओं में रुई जैसे उड़ते कण, और शाम की रोशनियाँ जैसे किसी पुराने चित्र की तरह शहर को ढक लेती थीं।

शबनम अब नाचघर में नहीं थी, और ईशिता अब महल के उत्सवों से दूर हो गई थी। मगर दोनों के बीच जो था वो रोज़ाना चुपचाप फलता-फूलता रहा।

उनकी शुरू हो चुकी थी चोरी-छिपी मुलाकातें।

पहली मुलाकात जामा मस्जिद की पिछली गली में, जहाँ एक पुरानी किताबों की दुकान थी।
शबनम को किताबें पसंद थीं, लेकिन उसे पढ़ना ठीक से नहीं आता था।
ईशिता वहीं बैठकर उसे ग़ालिब की ग़ज़लें पढ़ना सिखाने लगी।

“हजारों ख्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश पे दम निकले...”
शबनम ने कहा, “हर ख्वाहिश पे दम नहीं, यहाँ तो एक पे ही सारा शहर जल सकता है।”

और दोनों हँस पड़ीं लेकिन आँखों में थोड़ी नमी थी।

दूसरी मुलाकात हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह की रात।
शबनम ने सफेद दुपट्टा ओढ़ रखा था, और ईशिता ने घूँघट।

कव्वाल गा रहे थे 
“मोहे अपना बना ले श्याम...”

उनके बीच कोई शब्द नहीं था उस रात, लेकिन दोनों की उंगलियाँ धीरे से एक-दूसरे में उलझ गईं। और उस भीड़ में भी उन्हें जैसे सिर्फ़ एक-दूसरे की मौजूदगी महसूस हो रही थी।

तीसरी मुलाकात यमुना किनारे, शाम के समय, जब नदी चुप थी और आसमान पर गुलाबी धूप उतर रही थी।

ईशिता ने शबनम से पूछा, “क्या तुम कभी डरती नहीं?”

शबनम बोली, “डर तो तब था जब अकेली थी... अब तो साथ है न, तो डर भी तुम्हारा हो गया।”

इन मुलाकातों के दौरान, उनके बीच कई छोटी-छोटी बातें हुईं।
ईशिता ने पहली बार गुलाब के फूल किसी को दिए शबनम को।
शबनम ने पहली बार बिना घूँघट के किसी के सामने नृत्य किया ईशिता के लिए।

शबनम ने ईशिता को बाज़ार से लाल चूड़ियाँ लाकर दीं।
“किसी और के नाम की नहीं हैं ये,” शबनम ने कहा, “ये मेरे नाम की हैं, तुझ पर।”

और ईशिता ने पहली बार अपना नाम किसी दीवार पर उकेरा 
“ई+श”
चूने से, लाल रंग से।

कई हफ़्ते बीत गए। दरबार में ईशिता की ग़ैरहाज़िरी पर सवाल उठने लगे, लेकिन महाराज को लगा, बेटी शायद पढ़ाई और कला में डूबी है।

मगर हर जगह कुछ आँखें होती हैं और कुछ कान।

एक नौकरानी, जो ईशिता के साथ हर जगह जाती थी, उसने शबनम और राजकुमारी को बाग़ में हाथ थामे देखा। वो दृश्य उसने दरबार के दीवान को बता दिया।

पर तब तक, ईशिता और शबनम अपनी एक अलग दुनिया में जीने लगे थे 
छोटे-छोटे पलों में, बिना किसी भविष्य की गारंटी के।'

एक रात, चाँदनी चौक के एक पुराने हवेली की छत पर जहाँ से आधी दिल्ली दिखाई देती थी शबनम ने पूछा:

“अगर तुम्हें मेरे साथ सच में रहना हो, तो क्या करोगी?”

ईशिता बोली, “अपनी पगड़ी उतार दूँगी, और तेरी चूड़ियाँ पहन लूंगी।”

“और अगर तेरे पिता ने तुझे कैद कर लिया?”

“तो मैं हवा बन जाऊँगी, और तेरे बालों में उलझ जाऊँगी।”

इसी तरह, एक महीने बीत गया।

दोनों ने एक कोठरी किराए पर ले ली, एक पुरानी मुस्लिम दाई की मदद से जो कभी बेगम अलीज़ा की खानसामा थी।
वहीं मिलते, वहीं ख्वाब बुनते।
शबनम अब घुंघरू नहीं बांधती थी वो अब चित्र बनाना सीख रही थी।
ईशिता ने अपनी डायरी में रोज़ शबनम के लिए शेर लिखने शुरू कर दिए थे।

“वो न थी कोई रानी, पर दिल पर राज करती थी
घूंघट में नहीं, मेरे ख्वाबों में साज करती थी।”

लेकिन दुनिया चुप नहीं रहती।

'''

सर्दियों की एक गहरी रात थी। दिल्ली की हवाएं जैसे किसी राज की तरह शांत थीं, मगर कोठरी के भीतर दीयों की हल्की रौशनी में दो साये एक-दूसरे में लिपटे खड़े थे।

शबनम ने लाल रंग का पतला दुपट्टा ओढ़ा हुआ था वो अब उस रौशनी में सुनहरा सा दिख रहा था। उसके माथे पर एक छोटी बिंदी थी, कानों में छोटी बालियाँ और जब ईशिता ने उसे देखा, तो उसकी सांसें रुक गईं।

“तू जानती है न, तू क्या करती है मुझसे?” ईशिता ने धीमे स्वर में कहा।

शबनम ने उसकी आँखों में देखा, जैसे भीतर उतर जाना चाहती हो   
“अगर जान जाऊँ, तो क्या तुझे खो दूँगी?”

ईशिता ने बिना जवाब दिए उसका चेहरा अपने हाथों में ले लिया। अंगूठों से उसकी पलकों को छुआ, फिर गालों को, और फिर उसकी नाक की पुल पर धीरे से अपनी नाक टिकाई।

उस पल, कमरे में कोई शब्द नहीं था सिर्फ़ सांसें थीं, और उनमें मिलते दो जिस्म।

शबनम की उंगलियाँ ईशिता के बालों में उलझीं। वो धीमे-धीमे उसे अपनी ओर खींच रही थी, जैसे कोई राग बिना सुर के ही बजता चला जा रहा हो।

“मैं तुझमें छुप जाना चाहती हूँ,” उसने कहा, “ऐसे कि जब तू आईना देखे, तो खुद को नहीं, मुझे देखे।”

ईशिता की उंगलियाँ अब उसकी पीठ पर थीं, कपड़े की हल्की परत से नीचे जाती हुईं, और हर जगह, जहाँ वो छूती, शबनम की सांसें तेज़ हो जातीं।

धीरे-धीरे दोनों ज़मीन पर बैठीं। कमरा एक दीया और कुछ चादरों की मुलायम गर्मी से भर गया था। बाहर ठंडी हवा खिड़की से सरसराकर आ रही थी, लेकिन भीतर हर चीज़ में एक आग लगी थी।

ईशिता ने अपनी ओढ़नी हटाई, और शबनम ने पहली बार उसके गले के उस हिस्से को देखा जहाँ उसकी धड़कनों की थरथराहट साफ सुनाई देती थी।

“मैं यहाँ अपना नाम लिखना चाहती हूँ,” शबनम ने कहा।

ईशिता हँसी “रूह पर लिख, जिस्म तो दुनिया चुरा सकती है।”

शबनम ने उसकी गर्दन को चूमा बेहद नर्मी से, जैसे मंदिर की घंटी को छूती हो। फिर उसकी कलाई पर होठ रखे, और उसके कंधे पर अपना सिर टिकाया।

उनके बीच अब कोई पर्दा नहीं था न जिस्म का, न मन का।

हर स्पर्श में एक कसम थी।  
हर चुम्बन में एक इतिहास।  
हर आहट में एक इबादत।

शबनम ने पूछा “अगर ये रात कभी न खत्म हो?”

ईशिता ने उसकी कमर थामते हुए कहा “तो मैं सूरज से कहूँगी, कि तू इस शहर पर कभी न उगे।”

''

वो पूरी रात एक-दूसरे के आगोश में रहीं।

न कोई शर्म, न कोई डर।  
सिर्फ़ धड़कनों की भाषा, और देह की कविता।

ईशिता ने उसके बालों को सुलझाया, फिर ज़ुल्फों को चूमा।  
शबनम ने उसकी पीठ पर उंगलियों से हल्की-सी आकृति बनाई   
“ये क्या है?” ईशिता ने पूछा।

“हम,” शबनम ने कहा, “एक दूजे की पीठ पर बने, और दुनिया की आँखों से छिपे हुए।”

''

सुबह की हल्की रौशनी जैसे किसी चुपचाप वादा निभाने आई हो।

शबनम ईशिता के सीने पर सिर रखकर सोई हुई थी उसकी साँसें अब धीमी, संतुष्ट थीं। ईशिता उसकी पीठ को सहला रही थी जैसे कोई किताब पढ़ रही हो।

“तू मेरा घर है,” उसने धीमे से कहा, “जिसे मैंने छूकर नहीं, जीकर चुना है।”

''

और उस सुबह, पहली बार, उन्होंने एक-दूसरे को “जान” कहा।

न राजकुमारी रही, न तवायफ।  
न कोई नाम, न पहचान।

सिर्फ़ दो औरतें थीं एक-दूसरे में पूरी, और सारी दुनिया से परे।

बिल्कुल! इश्क़ में जहाँ दीवानगी होती है, वहाँ जलन और ग़ुस्सा भी उतनी ही शिद्दत से होता है क्योंकि मोहब्बत जितनी गहरी होती है, उतनी ही संवेदनशील भी।

तो चलो, अब हम उस पड़ाव पर चलते हैं जहाँ ईशिता और शबनम के रिश्ते में पहली बार कुछ दरारें उभरती हैं वो भी बिना टूटे, बस थोड़ी कसक, थोड़ी तड़प, और एक भाव… 'कि कहीं तू मुझे खो न दे।'

'''

सर्द हवाओं का रुख अब बदल रहा था।  
शबनम की कोठरी में आज अकेलापन कुछ ज़्यादा भारी लग रहा था।  
ईशिता तीन दिन से नहीं आई थी।

शबनम बैठी थी मिट्टी के दीये को ताकते हुए, जैसे उस लौ से सवाल कर रही हो:  
“कहाँ है वो? किसके साथ है?”

और फिर दरवाज़ा खुला।

ईशिता भीतर दाखिल हुई राजघराने के कमख़ाब के लिबास में, आँखों में थकावट और चेहरा थोड़ा घबराया हुआ।

शबनम खड़ी हो गई।

“तीन दिन... तीन दिन से तू गायब है। और अब ऐसे चली आई जैसे कुछ हुआ ही नहीं?”

ईशिता ने धीरे से कहा, “दरबार में रियासतों की बैठक थी, सब कुछ अचानक हुआ”

“और तू इतनी भी नहीं कह सकी कि ज़िंदा है?”

शबनम की आँखों में आँसू नहीं थे वहाँ गुस्सा था, वो जलन थी जो सिर्फ़ मोहब्बत के सीने से फूटती है।

ईशिता पास आई, मगर शबनम ने पीछे हटते हुए कहा:

“तेरे कपड़ों से इतर महक आ रही है... किसी और की?”

ईशिता सन्न रह गई।

“क्या तू मुझे शक कर रही है?” उसने दर्द से पूछा।

“शक नहीं, डर... कि तू कहीं इतनी रानी बन गई है कि अब तुझे तवायफ से प्यार करना शोभा नहीं देता!”

अब ईशिता का चेहरा भी तमतमा गया।

“तू मेरी मोहब्बत को मेरे दर्जे से तौल रही है?”

“नहीं, मैं अपनी मोहब्बत को तेरी खामोशी से तौल रही हूँ।”

कमरे में अब बस उन दोनों की तेज़ साँसों की आवाज़ थी।

शबनम आगे बढ़ी ईशिता के पास आकर उसकी आँखों में झाँका:

“क्या वहाँ किसी और ने तुझे छुआ?”

ईशिता ने उसकी ठोड़ी थामी और कसम सी खाई:

“अगर किसी ने मुझे छुआ भी, तो मेरी रूह में तू ही थी।”

शबनम की आवाज़ धीमी पड़ी, मगर आँखें अभी भी सुलग रही थीं।

“तो फिर लौटने में इतना वक़्त क्यों लगा?”

ईशिता ने उसकी हथेलियाँ पकड़ लीं।

“क्योंकि मैं डर गई थी... इस रिश्ते से नहीं, दुनिया से।  
वहाँ हर किसी की नज़र में मैं राजकुमारी हूँ लेकिन तेरी नज़र में सिर्फ़ एक औरत... और मैं बस वहीं जीना चाहती हूँ।”

शबनम ने धीरे से उसकी हथेली को चूमा   
“मुझे गुस्सा इसीलिए आता है, क्योंकि जब तू नहीं होती, तो मेरी साँसें भी आधी रह जाती हैं।”

ईशिता ने कहा “और मुझे जलन तब होती है जब कोई और तुझसे मुस्करा कर बात करता है... जैसे वो तुझे मुझसे चुरा लेगा।”

“तो चल,” शबनम बोली, “हम दोनों अपनी जलन को एक चादर के नीचे दबा दें... और उस आग में कुछ नया जला दें।”

उस रात न चुम्बन थे, न देह की तलाश।

बस दो औरतें थीं एक-दूसरे के गुस्से में भी प्यार ढूँढती हुईं।  
हाथों की पकड़ थोड़ी कस गई थी, और आँखों में आँसू अब बहने को थे, मगर होंठों पर एक ही बात थी '“मुझे मत छोड़ना।”'

ईशिता ने कहा   
“अगर तू मुझसे कभी नाराज़ हुई, तो गुस्सा करना, चीखना... लेकिन खामोश मत हो जाना।”

शबनम ने सिर झुकाया   
“और अगर तू मुझे कभी भूले, तो याद रखना... मैं तुझे हर चुभती सांस में आवाज़ देती रहूंगी।”

एक शाम ढल चुकी थी।  
महल के झरोखों पर सुनहरी रोशनी उतर आई थी   
पर ईशिता के कमरे में अंधेरा पसरा हुआ था।

आइनों से सजे इस कमरे में कितनी ही बार उसने खुद को देखा था   
मगर आज...  
वो खुद को नहीं पहचान पाई।''

दर्पण के सामने बैठी, उसने अपने गहने एक-एक कर उतारे।  
कान की बालियाँ, गले का हार, कमर की करधनी   
सब ज़मीन पर रखते हुए जैसे बोझ उतार रही हो।

फिर अपनी कलाई पर देखा जहाँ अब भी शबनम के लगाए मेंहदी के हल्के निशान थे।

“क्या मैं उसके लायक हूँ?”  
उसने खुद से फुसफुसाकर पूछा।

उस दिन की बात याद आई...  
जब वो कोठरी से लौट रही थी, और किसी नौकरानी ने पीछे से कहा था   
“रजवाड़ी होकर तवायफ की चौखट पर जाती है... शर्म नहीं आती।”

ईशिता ने कुछ नहीं कहा था...  
मगर उस दिन से उसकी नींदें कम हो गई थीं।

शबनम को खोने का डर अब उसकी रगों में दौड़ता था   
क्योंकि वो जानती थी,  
उसके पास 'पद' था, 'शान' थी...  
मगर 'वक़्त' और 'आजादी' नहीं।
महल के गलियारे सन्नाटे से भरे थे।

ईशिता अपने कमरे से निकली और छत पर जा बैठी।

चाँद बिल्कुल वैसा ही था जैसे कोठरी की खिड़की से दिखाई देता था,  
जहाँ वो शबनम के साथ अक्सर चुपचाप उसे देखा करती थी।

“शबनम…”

उसने धीरे से नाम लिया जैसे नाम लेने से वो पास आ जाएगी।

“क्या तू समझ पाएगी कभी,  
कि जब तू गुस्से में थी, तो मैं डर रही थी   
कि कहीं तू मुझसे थक तो नहीं गई?”

ईशिता की आँखें भर आईं।  
उसने अपनी हथेली पर वो पुरानी अंगूठी देखी जो शबनम ने पहनाई थी।

“तेरा प्यार मिला है मुझे   
मगर मैं उसे पूरी तरह जी नहीं पा रही।”

'''

राजमहल में सब कुछ था   
सोना, कपड़े, नौकर, ताक़त...

पर जब रातें आती थीं,  
ईशिता बस एक चीज़ चाहती थी   
'शबनम की गोद में सिर रखकर कहना,'  
“डर लग रहा है।”

मगर वो जानती थी   
वो डर शब्दों से नहीं, सिर्फ़ स्पर्श से समझा सकता है।

कभी-कभी जब कोई दरबारी शबनम का नाम भी लेता था   
किसी और साज़ के साथ उसका नाम जोड़ता   
तो ईशिता की रगों में जलन दौड़ जाती।

“अगर कभी कोई और उसकी मुस्कान का हक़दार बन गया तो?”  
“अगर कभी उसकी आँखें किसी और को वैसे देख लें, जैसे मुझे देखा करती थीं?”

वो सोचती...  
“क्या मैं भी अब बस एक नाम बनकर रह जाऊँगी उसके लिए?”

ईशिता ने चिट्ठी लिखी मगर भेजी नहीं।

 _"शबनम,_  
 _आज तेरी उँगलियाँ मेरी हथेलियों पर नहीं थीं,_  
 _तो मेरा दिल काँपता रहा।_  
 _तू नहीं जानती, जब तुझसे दूर होती हूँ,_  
 _तो खुद से भी दूर हो जाती हूँ।_  
 _कभी अगर कोई और तुझे मुस्कराता देखे,_  
 _तो मुझसे पहले उसकी मुस्कान मिटा दूँगी _  
 _क्योंकि मैं तुझसे नहीं, खुद से मोहब्बत करती हूँ जब तू पास होती है।_  
 _– तेरी, ईशिता"_

उसने चिट्ठी मोड़कर अपने तकिए के नीचे रख दी।  
उसका सिर भारी हो रहा था।

'''

रात के तीसरे पहर तक जागती रही   
हर आहट पर लगता, जैसे शबनम चली आई हो।

फिर एक सपना देखा   
शबनम किसी और की बाँहों में थी।  
हँस रही थी...  
और उस हँसी में ईशिता की सांसें थम गईं।

वो जाग उठी, पसीने में भीगी हुई।  
और पहली बार,  
'राजकुमारी ईशिता' की जगह बस एक आम औरत थी   
जिसे सिर्फ़ अपनी प्रेमिका को खोने का डर था।

'''
उसने खुद को आईने में देखा   
बिखरे बाल, भीगी आँखें और काँपती उंगलियाँ।

“मैं किसी रियासत की वारिस नहीं,”  
उसने फुसफुसाया   
“मैं बस शबनम की हूँ।”

****

बारिश की पहली फुहारें कोठरी की छत से टपक रही थीं।  
शबनम खामोशी से दीवार से टेक लगाए बैठी थी।  
उसकी आँखें झुकी थीं, और उसकी गोद में एक रेशमी दुपट्टा था वो जो ईशिता छोड़ गई थी पिछली बार।

उसने उसे सहलाते हुए खुद से कहा   
“क्या मैं कुछ ज़्यादा कह गई थी?”  
“या उसने ही कम समझा?”

उधर, महल के गलियारे में ईशिता नंगे पाँव भाग रही थी।

बारिश में भीगती, पहरेदारों से बचती, वो बस उसी एक जगह जा रही थी   
जहाँ उसकी मोहब्बत इंतज़ार में बैठी थी।

उसे अब कुछ नहीं चाहिए था   
न रियासत, न सत्ता...  
बस एक बार शबनम की आँखों में झाँककर माफ़ी माँगनी थी।

''

दरवाज़ा खुला।

शबनम उठी, और कुछ कहने से पहले ईशिता ने उसके सामने घुटनों पर बैठकर हाथ पकड़ लिया।

“माफ़ कर दे मुझे... तुझे इंतज़ार करवा कर,  
तेरे सवालों से डरकर,  
तेरी मोहब्बत की हद न समझकर...  
मैं बस... डर गई थी।”

शबनम की आँखें भर आईं।

“मैं भी डर गई थी...  
कि कहीं तू लौटे ही न।  
कि मैं इतनी ही थी एक कोठरी की याद, एक तवायफ़ की ख्वाहिश।”

ईशिता ने उसका हाथ अपने दिल पर रखा।

“अगर तू तवायफ़ है,  
तो मैं वो बाज़ार हूँ जहाँ तेरे अलावा कोई रक़ीब नहीं।  
तू मेरी इबादत है और मैंने खुदा के सामने बस तुझे माँगा है।”

''

शबनम ने अपनी उंगलियाँ उसकी गीली ज़ुल्फों में फँसाई,  
और धीरे से उसे उठाया।

“तू भीग गई है...”  
“तू सूख जाएगी,” ईशिता मुस्कराई,  
“पर तू न मिली, तो मैं हमेशा भीगा रहूँगा आँसूओं से।”

शबनम ने उसे बाँहों में भर लिया।

बरसात की बूँदें अब उनकी देह पर नहीं   
उनके रिश्ते पर गिर रही थीं।

''

वो चुपचाप खड़ी रहीं   
गले लगीं, धड़कनों में डूबी हुईं।

कोई शब्द नहीं बोले गए   
मगर हर साँस कह रही थी:  
'“मैं वापस आ गई हूँ... और अब कभी नहीं जाऊँगी।”'

''

बिस्तर पर बैठते ही ईशिता ने अपना तकिया उसकी गोद में रख दिया और लेट गई।  
“बोल ना, गुस्सा है क्या?”

शबनम ने उसकी नाक मरोड़ दी।

“बहुत।”

“तो सज़ा दे... पर दूर मत कर।”

“सज़ा यही है,” शबनम ने कहा,  
“कि तू हमेशा मेरे पास रहे ताकि मैं हर रोज़ तुझे छूकर यकीन कर सकूँ कि तू मेरा है।”

ईशिता की आँखें भर आईं।  
“मैं तुझसे डरती हूँ, शबनम...  
क्योंकि तू मेरी सबसे बड़ी ताक़त है, और सबसे बड़ा कमज़ोरी भी।”

''

शबनम ने उसका माथा चूमा।

“अब तू थक गई है,  
रूह को सुला...  
कल से जो भी हो, हम साथ लड़ेंगे।”

“और हार गए तो?” ईशिता ने पूछा।

“तो तेरे आँचल में सिर रखकर रो लूँगी,  
पर दूर नहीं जाऊँगी।”

''

बिजली कड़की, दीया बुझ गया।

पर उनके बीच जो रौशनी थी वो अब बुझने वाली नहीं थी।

उस रात दोनों सोई नहीं।

सिर्फ़ धड़कनें गिनीं,  
सपने सीने से लगाए,  
और हर ग़लती को माफ़ किया जैसे सच्चे प्रेमी करते हैं।

''

सुबह हुई,  
और साथ ही दुनिया की नज़रों से भी इनका सामना होना तय था।

पर अब...

इनके बीच कोई शक़ नहीं था,  
कोई दूरी नहीं,  
बस एक इकरार था 

'“हम साथ हैं अब जो होगा, साथ होगा।”'

****

सुबह की पहली किरण ने जब कोठरी की खिड़की पर दस्तक दी,  
शबनम की आँखें पहले ही खुली हुई थीं।  
उसकी बाँहों में ईशिता गहरी नींद में थी उसकी ज़ुल्फ़ें उसके चेहरे पर लहर सी गिर रही थीं।

शबनम उसे देख रही थी जैसे कोई ताज़ा ख्वाब।

ईशिता की आँखें खुलीं।

“देख रही है क्या?”  
“हर रोज़,” शबनम मुस्कराई, “लेकिन आज और भी ज़्यादा... क्योंकि आज से सब बदल जाएगा।”

ईशिता उठी, और कोठरी की खिड़की से बाहर झाँका।

“क्या तुझे लगता है... हम बच पाएंगे?”

शबनम ने पीछे से उसका हाथ थाम लिया   
“अब बचना नहीं है... अब जीना है जैसे हम हैं।”

महल में उसी वक्त कोहराम मच चुका था।

रानी माँ के हाथ में एक पुर्जा था   
एक नौकरानी की लिखी चिट्ठी:

 “राजकुमारी ईशिता एक तवायफ के साथ रात्रि बिताती हैं।  
 वे महल की मर्यादा को कलंकित कर रही हैं।  
 यदि अभी रोका न गया, तो रियासत की इज़्ज़त चूर हो जाएगी।”

रानी माँ का चेहरा सख्त हो गया।

“राजा साहब को सूचित करो।  
अब ये सिर्फ़ इश्क़ नहीं   
ये बग़ावत है।”

उधर, ईशिता ने पहली बार अपने कपड़े नहीं छुपाए।

वो कोठरी से निकली रेशमी आँचल को हवा में लहराती हुई,  
और शबनम उसके पीछे-पीछे।

बाज़ार में लोग देख रहे थे   
कुछ हैरान, कुछ नाराज़, और कुछ... 'खामोश सराहना' करते।

दो औरतें एक रियासत की वारिस, एक कोठे की मल्लिका   
बिना झुके, बिना छिपे एक-दूसरे का हाथ थामे चल रही थीं।

महल पहुँची तो रक्षक दरवाज़े पर खड़े हो गए।

“राजकुमारी, आपको अकेले अंदर जाना होगा।”

ईशिता ने उनका सामना किया   
“या तो हम दोनों जाएंगे,  
या मैं भी नहीं जाऊँगी।”

कुछ पलों की खामोशी के बाद दरवाज़ा खुला।

सभा बुला ली गई थी।

राजा, रानी, दीवान, सेनापति...  
सब के सब सिंहासन हॉल में बैठे थे।

ईशिता, शबनम का हाथ थामे आगे बढ़ी।

चारों ओर फुसफुसाहट   
“तवायफ है ये।”  
“राजकुमारी की संगिनी?”  
“कलयुग!”

राजा ने गुस्से से पूछा   
“ये क्या अपमान है रियासत का?”

ईशिता बिना डरे बोली   
“अगर किसी और से प्रेम करती, तो सबको स्वीकार होता।  
पर क्योंकि ये एक औरत है और वो भी तवायफ   
इसलिए इसे अपमान कहा जा रहा है?”

शबनम चुप थी उसकी आँखें सिर्फ़ ईशिता पर थीं।

रानी माँ उठ खड़ी हुईं।

“क्या तू जानती है, तेरे इस फैसले से तू राजगद्दी से हाथ धो सकती है?”

ईशिता ने एक गहरी साँस ली,  
फिर शबनम का हाथ अपने होंठों से लगाया   
और सभा के सामने बोली:

“अगर राजगद्दी के लिए मुझे इस हाथ को छोड़ना पड़े   
तो मैं हज़ार बार उस सिंहासन को ठोकर मारूँगी।”
सभा में सन्नाटा।

कुछ स्त्रियाँ दबी मुस्कान में थीं   
जैसे उन्हें पहली बार कोई बोलता दिखा हो जो 'प्यार से डरता नहीं।'

रजा ने ग़ुस्से में कहा:

“तू राजकुमार से विवाह करने वाली थी   
रिश्ते तय हो चुके थे!”

ईशिता ने कहा   
“पर दिल ने रिश्ता नहीं माना था।  
और मैं वो बेटी हूँ, जिसने तलवार से दुश्मन काटे हैं   
अपने प्यार के लिए पूरी दुनिया से लड़ी तो क्या?”

राजा ने सेनापति को आदेश दिया:

“इस तवायफ को नगर से बाहर कर दो।  
और ईशिता को कक्ष में बंद जब तक उसका दिमाग़ ठिकाने न आ जाए।”

शबनम के हाथ पर ईशिता की पकड़ कस गई।

“कोई छुएगा तो मैं राजा की बेटी नहीं,  
एक प्रेमिका बन जाऊँगी और तब मैं अपनी जान भी दे सकती हूँ।”

सभा में खलबली मच गई।

कुछ मंत्री उठ खड़े हुए   
“महाराज, जनता राजकुमारी से प्रेम करती है   
अगर उन्हें कैद किया गया, तो बग़ावत हो सकती है।”

ईशिता आगे बढ़ी   
“आप मुझसे सब ले सकते हैं पर मेरा दिल नहीं।  
और ये जो लड़की है   
ये रियासत के बाहर की है,  
पर मेरी रूह के भीतर की रानी है।”'

वो शबनम की ओर मुड़ी   
धीरे से कहा, “अगर तू चाहे, तो पीछे हट सकती है...  
तेरी कोई गलती नहीं। मैं अकेले लड़ लूँगी।”

शबनम मुस्कराई।

“तू रानी बन गई है अब मैं कैसे तेरा साथ छोड़ दूँ?”

सभा में पहली बार किसी तवायफ की आवाज़ गूँजी   
बिलकुल उसी आत्मविश्वास के साथ,  
जैसे वो महल की साज़िशों की भी साज़न थी।

“मैं तवायफ हूँ   
सिर्फ़ शरीर बेचती आई थी,  
पर आज रूह देकर आई हूँ   
इस रानी को अपना बना कर।”

अब ईशिता और शबनम सभा के सामने एक-दूसरे की आँखों में देख रही थीं   
कोई डर नहीं, कोई शर्म नहीं।

बस दो इश्क़ में डूबी औरतें   
जिन्होंने पहली बार पूरी दुनिया को बता दिया:

'“हम हैं। हम थीं। और हम रहेंगी।”'

****

रात थी, लेकिन कोठरी की दीवारें जैसे किसी और ही वक़्त में थीं।  
बाहर महल में पहरे थे,  
अंदर रूहें एक-दूसरे के सामने बिना कवच, बिना झूठ, बिना पर्दे के खड़ी थीं।

ईशिता चुपचाप बैठी थी पीठ दीवार से लगी, आँखें शबनम पर टिकीं।

शबनम ने धीमे-धीमे उसकी ओर कदम बढ़ाए   
उसके पाँव की पायल हर कदम पर जैसे ईशिता की धड़कन गिनती जाती।

“तू चुप क्यों है?”  
ईशिता ने पूछा।

“क्योंकि कुछ रातें इतनी ख़ूबसूरत होती हैं कि आवाज़ें उन्हें तोड़ देती हैं...”  
शबनम ने उसके बालों में उंगलियाँ फिराते हुए कहा।

ईशिता ने उसका हाथ पकड़ लिया।

“आज तू दूर न होना...  
कल क्या होगा, मैं नहीं जानती   
पर ये रात... ये सिर्फ़ मेरी है, और तू इसमें सिर्फ़ मेरी।'

शबनम धीरे से बैठी   
उसके कंधे से लगकर, उसकी गर्दन पर होंठ टिकाते हुए।

“जब तू पास होती है न,” उसने फुसफुसाया,  
“तो मैं खुद को भूल जाती हूँ।  
जैसे रूह सिर्फ़ तेरे इर्द-गिर्द घूमती है।”

ईशिता ने उसके माथे को चूमा।

“तो भूल जा सब कुछ...  
आज मैं तेरी हूँ तेरे नाम की, तेरे वजूद की।”

धीरे-धीरे वो एक-दूसरे में सिमटने लगे।

कपड़े खामोशी से सरकते गए   
जैसे हर परत के साथ कोई डर, कोई दूरी उतरती जा रही थी।

शबनम ने उसकी पीठ पर उँगलियों से कुछ लिखा।

“क्या लिखा?” ईशिता ने पूछा।

“तेरा नाम...  
ताकि जब तू चले भी जाए, तो तेरा एहसास मेरे जिस्म पर रहे।”

ईशिता काँप गई   
ना ठंड से, ना डर से   
बल्कि उस इश्क़ की गर्मी से, जो शबनम की साँसों में था।

उस रात दीया बुझा नहीं   
पर ज़रूरत भी नहीं थी।  
उनकी साँसें ही रौशनी थीं।

बिस्तर, चादर, दीवारें, सब गवाह बन गईं   
एक मोहब्बत की, जो रूह से शुरू हुई और जिस्म से गुज़री,  
मगर कभी ज़मीनी नहीं हुई सिर्फ़ 'खालिस' रही।

कुछ देर बाद,  
ईशिता शबनम के सीने पर लेटी, उसकी उँगलियाँ थामे।

“अगर ये आख़िरी रात हो...?”  
उसने पूछा।

शबनम ने मुस्कराकर कहा   
“तो हम इसे ऐसा जिएँ,  
कि आख़िरी साँस भी तुझमें ही अटकी हो।”

ईशिता ने उसकी आँखों में देखा   
“तू न मिली होती, तो मैं रानी तो बन जाती...  
पर अधूरी रहती।”

शबनम ने उसके होंठ चूमे।

“अब तू पूरी है।  
अब हम पूरी हैं।”

रात लंबी थी।  
लेकिन उस पल में, वक़्त थम गया।

ये मोहब्बत अब नाजुक नहीं थी।  
ये तेज़ाब थी जो हर बंदिश को पिघला देगी।

सुबह होते ही महल के बाहर भीड़ जमा थी।

किसी ने बात फैला दी थी   
'“राजकुमारी एक तवायफ से प्रेम करती है।”'  
'“महल अपवित्र हो गया है!”'

औरतें, बूढ़े, सेनापति के आदमियों से भरी गलियाँ   
शोर से गूंज रहीं थीं।  
नारे लग रहे थे '“शराफ़त का गला घोंटा जा रहा है!”'

ईशिता बालकनी पर आई   
शबनम उसके साथ।

लोगों ने उँगलियाँ उठाईं।  
कुछ ने पत्थर भी।  
एक पत्थर शबनम के पैर से टकराया।

ईशिता ने तुंरत उसका हाथ पकड़ा   
“अब बहुत हो गया।”

उसने महल के रक्षक से कहा,  
“सभा बुलाओ 'महासभा।'  
आज मैं हर जवाब खुद दूँगी।”
महल की महासभा में आज सिर्फ़ राजा या रानी नहीं   
हर तबके के लोग बुलाए गए थे।  
कसाई, सुनार, रक्षकों के परिवार, तवायफ़ों की बस्ती, महल के नौकर, सब।

ईशिता सामने खड़ी थी   
शबनम उसके साथ, अब भी वही रेशमी दुपट्टा लिए,  
पर अब सिर झुका नहीं था।

राजा ने गरजकर कहा,  
“क्या तूने जनता को इतना गिरा हुआ समझा कि वे तुझे और एक तवायफ को स्वीकार करेंगे?”

ईशिता ने कहा   
“गिरा हुआ वो समाज है, जो औरत को सिर्फ़ देह में बाँटता है   
तवायफ कहकर उसकी रूह को मिटा देता है।”

सभा में कुछ स्त्रियाँ सिर हिलाने लगीं   
तवायफों में उम्मीद की चिंगारी जलने लगी।

रानी माँ उठीं।

“राजकुमारी, तुम इस महल को कलंकित कर रही हो।  
तुम्हें राजगद्दी से हाथ धोना पड़ेगा।”

ईशिता ने शबनम की ओर देखा।

फिर सभा में घोषणा की   
“मैं राजगद्दी छोड़ती हूँ।  
अगर उसे पकड़ने के लिए मुझे अपने प्रेम को ठुकराना पड़े   
तो वो गद्दी मेरे लायक नहीं।”

सभा में सन्नाटा।

कोई राजा की ओर देख रहा था,  
कोई रानी की ओर।  
पर अब भीड़ दो हिस्सों में बँटी नहीं 'वो हिल गई थी।'

तभी पीछे से आवाज़ आई   
“राजकुमारी का प्यार अगर पाप है,  
तो हमें भी पापी कहिए   
हम भी प्यार करते हैं, बिना जेंडर देखे, बिना जात पूछे!”

ये आवाज़ थी महल के रसोईघर के लड़के की।

फिर एक और।

फिर कई।

भीड़ अब चुप नहीं थी   
अब बोल रही थी।

“किसी से प्रेम करने की सज़ा नहीं हो सकती!”

“शबनम जैसी औरतें अगर मोहब्बत करती हैं,  
तो रियासत को फिर से जीने की वजह मिलती है।”

राजा हक्का-बक्का   
रानी माँ स्तब्ध।

किसी ने नहीं सोचा था कि लोग राजपरिवार के ख़िलाफ़  
'मोहब्बत के लिए खड़े हो जाएंगे।'

ईशिता आगे बढ़ी   
“आप चाहते थे कि मैं सत्ता की मूर्ति बनूं,  
मैंने इश्क़ का चिराग़ चुन लिया।”

शबनम ने हाथ जोड़कर सभा को देखा।

“मैंने अपने जीवन में कभी इज़्ज़त नहीं मांगी,  
पर आज...  
आज मैं सिर्फ़ एक औरत के रूप में खड़ी हूँ   
अपने प्यार के साथ।”

सभा ने पहली बार किसी तवायफ को ताली दी।

धीरे-धीरे पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।

शाम को रानी माँ ने ईशिता को अकेले बुलाया।

“क्या तू सच में इसे अपना जीवनसाथी मानती है?”  
रानी ने पूछा।

ईशिता ने कहा,  
“उसने मेरी आत्मा देखी थी रानी नहीं, औरत।  
तो अब मैं वही बनूँगी सिर्फ़ एक औरत, जो उससे प्यार करती है।”

रानी माँ ने कुछ नहीं कहा।

पर जब ईशिता चलने लगी,  
तो उन्होंने शबनम को देखा   
और धीमे से कहा:  
“अगर तू उसे कभी दुखी करेगी... तो मैं खुद तुझे महल से बाहर निकाल दूँगी।”

शबनम ने सिर झुकाया, मुस्कुराई,  
और बस एक शब्द कहा   
“कभी नहीं।”

रात को महल की छत पर  
ईशिता और शबनम साथ बैठी थीं।

नीचे चाँदनी फैली थी,  
ऊपर खुला आसमान और कहीं कोई डर नहीं।

ईशिता ने पूछा,  
“सोचा था कभी कि एक दिन पूरा महल तेरे लिए तालियाँ बजाएगा?”

शबनम ने कहा,  
“मैंने बस इतना सोचा था... कि तू साथ हो।  
बाकी सब बोनस है।”

ईशिता हँस पड़ी।

“तू अब मेरी रानी है, शबनम।”

शबनम ने कहा   
“और तू मेरी शोला...  
जिसने इस दुनिया को जलाकर, मुझे मेरी जगह दिलाई।”

बहुत खूब   
अब आएगी वो कहानी का हिस्सा  
जहाँ हर आँसू, हर जलन, हर रात की तड़प...  
एक 'घर' बन जाती है, एक 'सपना' जो अब सच है।

''ये है उनका “हमेशा”...''

महल से विदाई हुए दो महीने बीत चुके थे।

ईशिता और शबनम ने रियासत की उत्तरी सीमा से बाहर एक पुराना हवेलीनुमा मकान लिया था   
झील के किनारे, जहां पेड़ों की शाखें झील में गिरती थीं,  
और सुबहें खामोश होकर प्यार की बातों को सुनती थीं।

रियासत में उथल-पुथल के बाद भी,  
कोई उनका पीछा नहीं कर सका।

क्योंकि जब जनता इश्क़ के साथ खड़ी हो   
तो सत्ताएं भी हथियार रख देती हैं।

शबनम झील किनारे बैठी थी,  
और ईशिता उसकी गोद में सिर रखे सोई हुई।

हर दिन अब कोई 'छिपी हुई आग नहीं' था   
बल्कि एक मीठी सी आँच थी,  
जो 'हर छुअन' को ज़िंदा करती थी।

शबनम उसके बालों में उंगलियाँ फेर रही थी,  
जब ईशिता ने आँखें खोलीं।

“कभी डर नहीं लगता?”  
उसने पूछा।

“डर अब भी लगता है,” शबनम ने कहा,  
“पर अब तू साथ है तो डर भी थोड़ी देर ठहरता है... फिर लौट जाता है।”

ईशिता मुस्कराई   
वो मुस्कान जो अब किसी जंग से नहीं,  
सिर्फ़ 'इश्क़ से जीती गई थी।'

उन दोनों ने मिलकर वो हवेली सजाई थी।

एक कमरा किताबों से भरा था   
जहाँ ईशिता दिन में पढ़ती, और शबनम उससे सुना करती।

एक कोना रेशमी साड़ियों और सुरमे की डिब्बियों से   
जहाँ शबनम शाम को तैयार होती,  
और ईशिता उसे देखती रहती जैसे पहली बार देख रही हो।

रातें अब चुप नहीं थीं।

वो बिस्तर अब सिर्फ़ जिस्म की गर्मी से नहीं   
'दिलों की सिहरन' से भरा होता।

कभी ईशिता ज़ोर से हँसती,  
तो शबनम उसे चुप कराते हुए कहती   
“तेरी हँसी से भी मोहब्बत होती है... लेकिन पड़ोसियों को मत पता चलने दे।”

ईशिता जवाब देती   
“अब मोहब्बत छुपाऊँ भी तो कैसे ये तो तेरी आँखों से झलक जाती है।”

एक दिन, झील के किनारे,  
ईशिता ने अपने पिटारे से एक सुनहरी चूड़ी निकाली।

शबनम चौंकी   
“ये तो रानी माँ की है!”

“हाँ,” ईशिता ने कहा,  
“उन्होंने दी थी कहा था, ‘जब लगे कि अब तू रानी बन चुकी है इसे उसे पहना देना।’”

शबनम की आँखें भीग गईं।

ईशिता ने वो चूड़ी उसके हाथ में पहनाई   
बिलकुल उसी तरह जैसे किसी देसी शादी में सिंदूर भरा जाता है   
नज़रों से, रूह से, और वादे से।

फिर दोनों ने एक छोटा-सा रस्म रखा   
कोई पंडित नहीं, कोई फेरे नहीं   
बस एक वादा:

 “तेरे हर डर का जवाब बनूँगी,  
 तेरी हर रात की रौशनी,  
 और हर सुबह की वजह।”
उस रात चाँद ने उन पर नज़रें झुकाईं   
और हवेली की छत पर दोनों एक-दूसरे में समा गईं।

उस स्पर्श में कोई अधीरता नहीं थी   
बल्कि एक 'मकसद' था,  
कि अब कोई भी दुनिया उन्हें अलग नहीं कर सकती।

कुछ महीनों बाद, एक संदेश आया   
रानी माँ का।

 “तुम्हारे पिता नहीं रहे।  
 लेकिन आखिरी समय में उन्होंने कहा था   
 ‘उससे कहना, मैं गलत था।  
 उसका इश्क़, उसकी हिम्मत... रियासत के काबिल थी।’”

शबनम ने खत पढ़ा,  
और देखा कि ईशिता की आँखें भीग गई थीं।

ईशिता बोली,  
“काश एक बार वो हमें साथ देख पाते...”

शबनम ने कहा,  
“अब जब उन्होंने तुझे समझ लिया   
तो मैं जीत गई।”

साल बीते।

अब हवेली में सुबहें संगीत से शुरू होती थीं   
शबनम सितार बजाती, और ईशिता गुनगुनाती।

पास के गाँव में वो बच्चों को पढ़ाना शुरू कर चुकी थीं।  
लोग उन्हें “शबनम बी” और “ईशि दीदी” कहने लगे।

अब मोहब्बत सिर्फ़ कोठरी की दीवारों में नहीं,  
बल्कि गाँव की मिट्टी में भी गूँजने लगी थी।

कई और लड़कियाँ, जो चुप थीं, अब बोलने लगी थीं।

एक बार एक लड़की ने पूछा   
“दीदी, आप दोनों में कौन मर्द है?”

ईशिता मुस्कराई और बोली   
“जब मोहब्बत होती है न...  
तो मर्द, औरत सब पीछे छूट जाते हैं।  
बस दो इंसान रह जाते हैं जो एक-दूसरे के लिए सब कुछ होते हैं।”

बरसों बाद, शबनम बीमार पड़ी।

कमज़ोर, लेकिन अब भी वही मुस्कान।

ईशिता ने उसका सिर गोद में रखा।

“थक गई हूँ...” शबनम ने कहा।

“थोड़ा और रुक जा,” ईशिता बोली, “मैंने आज भी तुझे देखने के लिए बिंदी लगाई है।”

शबनम हँसी।

“तू तो अब भी शोला है...  
और मैं अब भी उस आग में सुकून तलाशती हूँ।”

ईशिता ने उसके माथे पर लंबा चुम्बन दिया   
“मेरे बाद भी तू मेरे भीतर रहेगी...  
तेरी आवाज़ मेरी साँसों में, तेरे किस्से मेरी कहानी में।”

शबनम की आँखें बंद हुईं   
और उसकी साँसें ईशिता की हथेली में थम गईं।

अब झील किनारे वही हवेली है।  
और उसकी छत पर रोज़ एक दिया जलता है   
हर उस लड़की के नाम, जिसने प्यार किया,  
भले ही वो “क़ाबिल” न मानी गई हो।

ईशिता अब अकेली है,  
पर अधूरी नहीं।

हर सुबह वो उसी जगह बैठती है जहाँ शबनम सितार बजाती थी,  
और गुनगुनाती है वही धुन   
जो कभी सिर्फ़ उनकी थी।

''“शबनम और शोला” अब सिर्फ़ दो नाम नहीं   
बल्कि एक इतिहास हैं,  
जो हर प्रेमी के सीने में धड़कता है...  
चाहे वो किसी भी ज़माने का क्यों न हो।''

   ''(समाप्त)''