इश्क और इरादे - 4 Aarti Garval द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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इश्क और इरादे - 4

कॉलेज में तीसरा दिन था।

शिवम अब धीरे-धीरे इस नए माहौल से घुलमिल रहा था। हर सुबह वह सबसे पहले प्राची को देखने की कोशिश करता—कभी लाइब्रेरी के गलियारे में, कभी कैंटीन की कतार में, और कभी-कभी क्लासरूम के कोने से चुपचाप उसकी ओर देखता हुआ।

प्राची का आत्मविश्वास उसे हैरान करता था। वो तेज़ चलती थी, तेज़ बोलती थी, लेकिन दिल से बिल्कुल साफ़ थी। हर विषय में उसकी पकड़ मज़बूत थी, और उसका नाम अब कॉलेज की चर्चाओं में आने लगा था—लेकिन सिर्फ पढ़ाई की वजह से, किसी दिखावे की वजह से नहीं।

एक दिन ब्रेक टाइम में, क्लास के बाहर की बेंच पर बैठे हुए शिवम ने हिम्मत करके पूछा—

"तुम इतने कॉन्फिडेंट कैसे हो? डर नहीं लगता तुम्हें?"

प्राची ने मुस्कराकर उसकी ओर देखा, “डर लगता है, लेकिन मैं उसे दिखाती नहीं। अगर एक बार लोग जान गए कि तुम अंदर से डरे हुए हो... तो वे तुम्हें तोड़ देंगे। इसलिए मैं बोलती हूँ—डर को मुस्कान के पीछे छिपा दो।”

शिवम ने पहली बार महसूस किया कि उसका संघर्ष अकेला नहीं था। प्राची भी अपने-अपने ढंग से दुनिया से लड़ रही थी।

उसी शाम कॉलेज की लाइब्रेरी में कुछ नया हुआ।

शिवम लाइब्रेरी में बैठा अपनी फेलोशिप एग्ज़ाम की तैयारी कर रहा था, जब अचानक किसी की फाइल उसकी किताब पर गिर गई।

“सॉरी…!” एक नरम सी आवाज़ आई।

उसने नज़र उठाई—प्राची सामने थी। लेकिन उसकी आँखें आज बुझी-बुझी सी थीं। उसका चेहरा थका हुआ था, जैसे वो कुछ सोच रही हो।

“सब ठीक है?” शिवम ने धीमे से पूछा।

प्राची कुछ पल चुप रही, फिर बोली—

"कभी-कभी लगता है, सबकुछ कर भी लें, तो भी इस समाज की सीमाएँ पीछा नहीं छोड़तीं।"

शिवम ने ध्यान से उसकी आँखों में देखा। उसमें कोई लड़की नहीं, बल्कि एक योद्धा छुपा था, जिसे थकने की इजाज़त नहीं थी।

“क्या हुआ?” उसने पूछा।

“आज एक प्रोफेसर ने कहा कि एक लड़की को पत्रकारिता में क्यों आना है? शादी करो और घर संभालो… बस।”

शिवम का चेहरा गम्भीर हो गया। "कितने साल लगेंगे इस सोच को बदलने में…"

“तब तक हम क्या करें?” प्राची ने सवाल फेंका।

शिवम ने मुस्कुराते हुए कहा, “हम वही करें जो हम करना चाहते हैं… चाहे जो भी कहे। जब तक हम झुकते नहीं, ये सोच भी धीरे-धीरे टूटेगी।”

प्राची ने पहली बार उसकी आँखों में कुछ और देखा—विश्वास। और शायद, एक छोटा सा सहारा।

उसी दिन शाम को…

रौनक कॉलेज के पार्किंग ज़ोन में अपने दोस्तों के साथ खड़ा था। उसका ध्यान बार-बार लाइब्रेरी की खिड़की की ओर जा रहा था, जहाँ से उसने शिवम और प्राची को साथ बैठे देखा था।

“भाई, ये तो लाइन पर आ गया लग रहा है…” उसके दोस्त ने ठहाका लगाते हुए कहा।

रौनक की नज़रें ठंडी पड़ गईं।

“उस किताबों के कीड़े को नहीं पता... कि मैं जो चाहता हूँ, वो किसी और को नहीं मिल सकता।”

उसने अपनी बाइक स्टार्ट की, लेकिन मन में एक नई चाल चलने की स्कीम बन चुकी थी।


अगली सुबह…

कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर एक नोट चिपका था—"कविता प्रतियोगिता: विषय – ‘सपने और समाज’, विजेता को विशेष प्रमाणपत्र और कैश रिवॉर्ड।"

प्राची की नज़र उस नोट पर गई और उसके होंठों पर हल्की मुस्कान फैल गई।

शिवम ने पास आकर पूछा, “तुम भाग लोगी?”

प्राची ने उसकी ओर देखा, “अगर तुम भी भागो, तो मैं भी।”

शिवम को हँसी आ गई, “मैंने कभी स्टेज पर नहीं बोला…”

प्राची ने उसकी आँखों में देखा, “पहली बार हर किसी के लिए डरावनी होती है। लेकिन तुम डर से जीत सकते हो… मैंने देखी है वो आग तुम्हारी आँखों में।”

शिवम उसके शब्दों में खो गया। पहली बार किसी ने उसके भीतर की लड़ाई को इस तरह समझा था। उसने मन ही मन निर्णय ले लिया—इस बार मंच उसका होगा। लेकिन जैसे ही वो दोनों नोटिस बोर्ड से हटे, पीछे से किसी की निगाहें उन पर गड़ी थीं…


साया-सा कोई, जो चुपचाप खड़ा था—मुस्कुरा रहा था…

“तो अब इरादे भी हैं… और इश्क़ भी… खेल और दिल दोनों से खेलने का वक़्त आ गया है, शिवम,” रौनक ने धीमे से बुदबुदाया।