पथरीले कंटीले रास्ते - 28 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

पथरीले कंटीले रास्ते - 28

 

28

 

 

28

 

कलाई पर तुरंत की बंधी राखी और हाथों में मिठाई की डिब्बी लिए सभी कैदी जेलर के दफ्तर से बाहर आ गए ।

बाहर आकर उन्होंने देखा , भीतर ऱाखी बांधने के लिए आई महिलाएँ अब जेल परिसर में खङी हुई फोटोग्राफर से अलग अलग एंगल में फोटो खिंचवाने में लगी थी । कभी समूह में तो कभी अकेले ही धङाधङ फोटो खिंच रहे थे । अलग अलग अखबारों में ये फोटो राइट अप के साथ छपेंगे तभी तो लोगों को पता चलेगा कि किसी महिला क्लब ने इस अनोखे अंदाज में राखी मनाई है । कल लोग यह खबर अखबार में पढेंगे तो सवेरे से ही बधाइयों के संदेश आने लगेंगे । कुछ लोग घर भी आ सकते हैं । कोई समाचार पत्र इंटरव्यू के लिए भी अप्रोच कर सकता है पर किसी फोटो से उन्हें संतुष्टि नहीं मिल रही थी । पास से गुजरते हुए एक कैदी ने जोर से पुकार कर कहा - थैंकू मैडम जी ।

पर किसी भी महिला ने न तो पलट कर देखा, न कोई जवाब दिया । लाखन सिंह गरजा – चलो चलो रुको नहीं । जल्दी जल्दी चलो । तुम्हें बैरक तक पहुँचाकर हमें वापिस आकर रिपोर्टिंग भी करनी है ।

और वे सारे लाईन बना कर जेल परिसर की ओर चल दिये । उस दिन दोपहर ढले जेल में बालीबाल का मैच रखा गया था । लोग दो टोलियों में बँटकर मैच खेले । इस बीच इन लोगों के मिलने जुलने वाले सारा दिन आते रहे । जिसके नाम की पुकार होती , वह आदमी बाहर मुलाकात कक्ष में मुलाकात के लिए चला जाता । दूसरा व्यक्ति मुलाकात करके लौटता तो मिठाई और फलों से लदा हुआ लौटता । फिर वह मिठाई सबके बीच बँट जाती । सब लोग मिल कर मिठाई का मजा लेते । इस तरह पूरा दिन जेल में त्योहार का माहौल बना रहा ।

रात में बैरक में लेटा तो रविंद्र को गुणगीत की बहुत याद आई । कोई समय था जब गुणगीत के पिता श्यामलाल बग्गा सिंह के पङोसी हुआ करते थे । दोनों एक ही गली में रहा करते थे । उनकी पत्नी कौशल्या और रानी अच्छी सहेलियाँ थी । सहेलियाँ क्या , अच्छा खासा बहनापा था । किसी एक परिवार में मेहमान आते तो दूसरे के परिवार से सब्जी की बाटी आ जाती । कहीं खीर सिवैयां या हलवा बनी होती तो साथ में वह भी कटोरा भर कर आता । हर मेहमान दोनों घरों का साझा होता । दोनों घरों के बच्चे एक ही आँगन में घंटों खेलते रहते । अगर भूख लगती तो जिस घर में होते , वहीं खाना खा लेते । जहाँ नींद आ जाती वहीं सो जाते । दोनों सहेलियाँ सगी माँ की तरह बच्चों से प्यार करती । किसी तरह का भेदभाव कभी उनके दिल में एक पल के लिए भी आय़ा ही नहीं ।

दोनों परिवारों के कुल मिलाकर पाँच बच्चे थे । तीन बेटे बग्गा सिंह के और एक बेटा और एक बेटी श्यामलाल के । सरताज और रविंद्र एक ही उम्र के थे । रविंद्र से चार साल छोटा राना और राने से तीन साल छोटा  छिंदर । गुणगीत राने से एक साल छोटी और छिंदर से दो साल बङी थी । ये पाँचों बच्चे एक ही स्कूल में पढते थे तो एक साथ तैयार होते । एक साथ स्कूल जाते और एक दूसरे का हाथ पकङे हुए एक साथ स्कूल से घर लौटते । गुणगीत और छिंदर सबसे छोटे थे तो रविंद्र के दाएँ हाथ की उंगली छिंदर पकङे रहता , गुणगीत रविंद्र का बांयां हाथ थामे रहती । एक स्कूल बैग रविंद्र के कंधे पर लटका होता तो एक राने के । छिंदर और गुणगीत बंदर की तरह साथ फुदकते हुए चलते ।

 रविंद्र के आँगन में अमरूद और आम के दरख्त लगे थे तो गुणगीत के आँगन में जामुन और अनार के । राना फुरतीला था । वह गिलहरी की तरह दौङ कर पेङ पर चढ जाता और पके पके फल तोङ तोङ कर नीचे फेंकता जाता । गुणगीत अपनी फ्राक का घेर फैला कर दोनों कोनों से कस कर पकङे रहती । रविंद्र जमीन पर गिरे हुए फल उठा कर उसकी झोली में डालता जाता । जब ये फल काफी हो जाते तो राना पेङ से छलांग लगा देता । गुणगीत डर कर रविंद्र से चिपक जाती । राना खिलखिला कर हँसता - अरे बुद्धु , आँखें खोल । मैं  तो यहाँ जमीन पर खङा हूँ । पर वह काफी देर यूँ ही चिपकी रहती फिर धीरे धीरे आँखें खोलती । राना और सरताज  के साथ कभी कभी छिंदर भी उसे चिढाता – डरपोक कहीं की ।  तो वह शिकायत करती – देख चीटू इसने मुझे चिढाया । वह नकली गुस्सा करता – हटो बदमाशों , इतनी सोहनी कुङी को परेशान न करो ।

गुणगीत इतना सुनते ही खुश हो जाती तो वे कानों को हाथ लगाकर माफी मांगते पर अगले ही मिनट जीभ चिढाते हुए दूर भाग जाते । फिर वे सारे मिल कर किसी पेङ के तने से सटकर उन फलों की दावत उङाते ।

इसी तरह हँसते खेलते दिन बीत रहे थे कि एक दिन दारजी बीमार पङ गये । उनके पेट में कोई इंनफैक्शन हो गयी थी । हरङ , अजवाइन और सौंफ से जब कोई फरक नहीं पङा तो गाँव के एक आर एम पी डाक्टर को बुलाया गया । उसने पाँच पुङियां दी । पर चौथी पुङिया तक ही दार जी खा पाए कि उनकी हालत बिगङ गयी । दार जी होनी को समझ गये थे उन्होंने तुरंत दोनों बेटों को बुला कर सारी जायदाद का बँटवारा कर दिया । उन्होंने  घर रविंद्र के चाचा को दिया । और खेत बग्गा सिंह के हिस्से आया । चाचा मेहर सिंह इस फैसले से खुश हो गया । उसकी पहले ही बठिंडा में बीज और खाद की दुकान थी । खेती उसके बस की कभी न थी । दोनों भाई इसी घर में रहते जरूर थे पर चूल्हे अलग थे । बग्गा सिंह ने दार जी से पूछा था – पर दार जी घर बनने में तो कम से कम साल लग जाएगा ।

तब तक तू यहीं इसी घर में रहना । जिस दिन तेरा घर बन गया तू वहाँ आराम से रहना ।

मेहर को इस व्यवस्था से भला क्या ऐतराज होता . उसने हामी भर ली । दार ने संतोष की सांस ली । उनके माथे से एक बङा बोझ उतर गया था । वह रात सब पर बहुत भारी गुजरी । रात भर दारजी बहुत कष्ट में थे । सुबह भोर की बेला में दारजी ने अंतिम सांस ली । सब क्रियाकर्म अच्छे से सम्पन्न हुए । तेरहवीं होते ही बग्गा सिंह ने खेत में मकान की नींव रख ली । मकान बनने का काम तेजी से चलने लगा । और ग्यारह महीने बीतते ही मकान तैयार हो गया । दार जी की बरसी के एक सप्ताह बाद ही बग्गा सिंह अपने नये मकान में रहने चले गये । उस दिन दोनों परिवारों के सभी सदस्यों के चेहरे उदास थे फिर भी वे सब एक दूसरे को हौंसला देने में लगे हुए थे कि घबराते क्यों हो । खेत कौन सा दूर हैं । हमेशा आते जाते रहेंगे । मिलते रहेंगे ।  गुणगीत गुमसुम हो गयी थी ।

 

 

बाकी फिर ...