पाठशाला Kishore Sharma Saraswat द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पाठशाला

पाठशाला

अंग्रेजों का जमाना था। अशिक्षा, गरीबी और मूढ़ता का बोलबाला था। गाँव में जब कभी बाहर से कोई चिट्ठी या पत्र आ जाता तो उसे बाँचने वाला कोई न था। ऐसे में फिर पुरोहित व पाधा के घर के चक्कर लगाने लाज़मी हो जाते। और अगर वो किसी कारण वश दूसरे गाँव में अपने यजमान के यहाँ होते तो शहर में पटवारी के यहाँ जाने के इलावा और कोई अन्य रास्ता न था। अज्ञानता के इस युग में लगभग एक दर्जन छोटे-बड़े गाँवों का एक समूह कुछ नया कर-दिखाने की होड़ में था। संयोग से दो-चार भले आदमी थे। तहसील-कचहरियों में जाना-आना लगा रहता था सो बाहरी दुनियाँ के हवा-पानी से वाकिफ हो गए थे। ‘भाई चैधरी, हमारे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर, परन्तु आगे आने वाली पीढ़ी के लिए तो कुछ सोचो। क्या हमारे बेटे-पोते भी हमारी तरह यूँ ही अंगूठा छाप रहेंगे। शहर का महाजन दो के चार बनाता रहेगा और खून-पसीने और गाढ़े की कमाई उसकी तिजोरी भरती रहेगी। हम अभी जवान हैं, दौड़-धूप करने के काबिल हैं। क्यों न हाकिमों से गुहार लगा कर एक पाठशाला खुलवा लें। हमारे बच्चे भी सुखी रहेंगे और इलाके में हमारा भी नाम चमक जाएगा।’ देबू हलवाई की दुकान में अर्जीनवीस की बगल में बैठा रघुनाथ पंडित, चैधरी दाताराम को समझाता हुआ बोला। पंडित के इस बोल ने मानो बंद दिमाग का दरवाजा खोल दिया हो। पुरी चौकड़ी ने अपने हाथ में पकड़ी चाय की प्यालियाँ मेज के ऊपर टिका दीं। मामला सचमुच विचार योग्य था। बिल्ली के भाग्य से छिक्का टूटने वाली बात थी। सुबह से अब तक एक भी ग्राहक नहीं फंसा था। बेचारे लाल चन्द अर्जीनवीस की तो यही रोजी-रोटी थी। अतः तपाक से बोला, ‘सयाना आदमी हमेशा दूसरों के भले की ही सोचता है। तुम्हारी बात लाख टके की है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इसलिये शुभ काम में देर नहीं होनी चाहिये। दो रूपये की तो बात है। ऐसा मज़मून तैयार करूंगा, हाकम की कलम अपने आप सीधी चलने लगेगी।’

‘दो रूपये में पाठशाला खुलती हो तो कोई घाटे का सौदा नहीं है। चार आदमी बैठे हैं, आठ-आठ आनें हिस्से के पड़ते हैं। कोई बड़ी बात नहीं है। ठीक है मुन्शी जी आप मज़मून तैयार करो।’ प्याली में बची बाकी की चाय को एक ही सांस में गटकने के पश्चात अनन्तराम गुर्जर बोला।

देबू हलवाई की दूकान राजनीति का अखाड़ा थी। शहर और गाँवों के सारे नेतागण चाय की घूंट की चुस्कियों के साथ राजनीति के सभी राज और दांव पेचों का खुलासा वहीं बैठ कर किया करते थे। आखिर उन्हें भी तो अपनी महफिल जमाने के लिए कोई जगह चाहिये थी । और देबू हलवाई की दूकान के अतिरिक्त इस कार्य के लिए दूसरा कोई उपयुक्त स्थान नहीं था। तहसील, थाना, नाज़िम और नाज़िर के कार्यालय सभी पड़ोस में जो थे। दस रूपये की बचत प्रतिदिन के अलावा, मुफ्त में नेताओं की बातें भी सुनने को मिलती थी। इन बातों ने देबू हलवाई को इतना तराश दिया था कि वह एक मंझा हुआ राजनीतिज्ञ बन चुका था। बर्तन में चाय फेंटते समय लाल चंद, अर्जीनवीस के साथ होती गुफ्तगू उसके कानों तक भी पहुँच गई थी। हर बात में टांग अड़ानी नेतागिरी का धर्म होता है। सो बिना विलम्ब किए बोला, ‘पंडित जी! पुण्य का काम है। हमारे से भी आहुति डलवा लेना। छोटे-बड़े सभी हाकिमों का मुँह मीठा मेरी दूकान से ही होता है। काम में अड़चन पड़ी तो देबू हलवाई को याद कर लेना।’

‘देबू सेठ! आप जैसे भले आदमियों की शुभकामनाएँ जब साथ हों तो काम में क्या अड़चन हो सकती है। सच पूछो तो मेरा मन गवाही देता है कि यह काम होकर रहेगा। फिर भी तुम आगे-पीछे ख्याल रखना। ऐसा न हो कि गाड़ी पटरी पर आते-आते लुढ़क जाए।’ रघुनाथ पंडित की यह बात सुनकर सभी हंसने लगे।

‘वाह! भाई वाह! पंडित जी, आपने तो वह बात कह दी कि दूध ना कटोरा, गटागट पी।’ अनंत राम गुर्जर हंसता हुआ बोला। हंसी-खुशी के इस वातावरण में लाल चंद, अर्जीनवीस ने पाठशाला खुलवाने हेतु प्रार्थना-पत्रा का जरूरी मसौदा तैयार कर लिया था। मज़मून को पंडित जी के हाथ में थमाते हुए बोला, ‘पंडित जी, गाँव में जाकर इस पर कुछ अदद लोगों के हस्ताक्षर करवा लेना।’

‘मुन्शी जी, क्यों मजाक करते हो। यदि गाँव में हस्ताक्षर करने वाले लोग होते तो पाठशाला खुलवाने की क्या जरूरत थी। पढ़ने-लिखने का तो सारा रोना है। अब यह तकलीफ भी आपको ही करनी पड़ेगी। पचास-सौ अंगूठे दस्तखत जो भी करवाने हैं, आप ही करवाओ और इस से आगे एक तकलीफ और करो। इस अर्जी को हाकिमों के पास भी आपने ही भेजना है। डाक के जो भी पैसे बनते हैं, वो खर्चा आप हम से ले लो।’ इस बात को गुजरे महीनों बीत गए। आखिर एक दिन इन लोगों की मेहनत रंग लाई। सरकार की ओर से एक प्राथमिक पाठशाला की स्वीकति मिल गई। परन्तु इस खुशी में सभी लोग शरीक नहीं हुए। कुछ लोग तो उलटे तानें मारने लगे, ‘इन सभी लोगों की तो मति मारी गई है। न सलाह, न मशविरा। दो-चार लफंगे इकट्ठे हुए और ले आए फरमान पाठशाला खुलवाने का। स्वयं को तो कोई काम-धाम है नहीं, दूसरों के बच्चों को भी खराब करेंगे पशु चराने से।’ खैर इन बातों का ज्यादा असर नहीं हुआ। यह तो आदमी की फितरत है। भले से भले आदमी में भी अवगुण निकालने की कोशिश करते हैं। स्वयं चाहे अवगुणों का भंडार क्यों न हो। विकट समस्या का सामना तो तब करना पड़ा जब पाठशाला बनवाने के लिए स्थान का चयन करने की बारी आई। सभी की यह मंशा थी कि पाठशाला का भवन उनके गाँव में ही बने। काफी सलाह मशविरा करने के पश्चात भी ऊँट किसी करवट नहीं बैठा। आखिर यह निर्णय हुआ कि इस बात का फैसला भरी पंचायत में लिया जाए। सभी गाँवों के प्रबुद्ध लोग पंचायत के चबूतरे पर इकट्ठा होने शुरू हो गए। दोपहर तक ऐसे लोगों की एक अच्छी-खासी भीड़ जमा हो गई थी। हुक्कों की गड़गड़ाहट और तम्बाकू के धुँए से जब लोगों का मन भर गया तो असली मकसद् पर चर्चा करने की बारी आई। रघुनाथ पंडित, चैधरी दाताराम, अनंतराम गुर्जर, हुकम सिंह जैलदार, देवीसिंह सफेदपोश और मस्तराम नम्बरदार, सभी ने पंचायत के सामने अपने-अपने विचार रखे। परन्तु आज इन पर वे लोग भारी पड़ रहे थे जिन्होंने अर्जी पर अपना अंगूठा तक नहीं टेका था। अंततः इस बात पर सहमति बनी कि चारों दिशाओं में जहाँ पर केन्द्रीय बिंदू बनता है, उसी स्थान पर पाठशाला का भवन बनवाया जाए। फैसला बड़ा हास्यपद और चौकाने वाला था। कारण यह था कि इस स्थान के उत्तर, पूर्व और दक्षिण में खेत थे और पश्चिम में जंगल। इसलिये मास्टर जी के ठहरने के लिए यह स्थान उपयुक्त नहीं था। परन्तु लोगों का इस समस्या से कोई लेना-देना नहीं था। क्योंकि निर्णय उनकी अंतरात्मा के अनुरूप था।

पाठशाला हेतु जमीन एक सज्जन पुरूष ने दान स्वरूप उपलब्ध करवा दी थी। भवन निर्माण हेतु गाँव-गाँव घूमकर चंदा एकत्रित किया गया। और इस प्रकार एक बड़ा कमरा, उसके आगे की ओर उतनी ही लम्बाई में एक बरामदा तथा बगल की ओर मास्टर जी के रहने के लिए एक कमरा बनवा दिया गया। सामने की कुछ जमीन खेल के मैदान के रूप में खाली छोड़ दी गई।

मास्टर जी की नियुक्ति पहले ही हो चुकी थी। वह अनंत राम गुर्जर की बैठक में बैठकर छात्रों के प्रवेश का कार्य पूर्ण करने लगे। क्योंकि उसका गाँव अन्य गाँवों की अपेक्षा पाठशाला के ज्यादा नजदीक था। मास्टर जी बहुत भले आदमी थे। साधारण पहनावा, सफेद कमीज और पायजामा, हल्के पीले या यूँ कहिये बसंती रंग की पगड़ी और पैरों में देशी जूती। देखने में बड़े सौम्य व दयालु प्रवति के लगते थे। दूर-दराज के गावों के लड़के भी उनके पास आकर अपना नाम लिखवाने लगे। लड़कों के डील-डौल, शक्ल-सूरत और चेहरे पर उगने वाली दाढ़ी और मूछों की स्याही देखकर वह भौचक रह गये। ये प्रथम श्रेणी के बालक हैं या उच्चतर विद्यालय के विद्यार्थी? इन्हें पढ़ाना तो बड़ी टेढ़ी खीर होगी। परन्तु थोड़े दिनों में ही वह उनके साथ अच्छी प्रकार घुल-मिल गए। उम्र में बेशक वे अपनी सीमा लांघ चुके थे, परन्तु शिष्टाचार के नाते वे बहुत सभ्य और आज्ञा परायण थे। सुबह समय से पाठशाला में आकर, कमरों और आंगन की सफाई करना, पीने के पानी की व्यवस्था करना इत्यादि ऐसे कार्य थे, जिन्हें वे प्रार्थना आरम्भ होने से पूर्व ही निपटा लेते थे। मास्टर जी भी उनके व्यवहार से अति संतुष्ट थे ओर उन्हें अच्छी शिक्षा प्रदान करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ते थे। यदि किसी दिन, किसी कारणवश कोई छात्रा पाठशाला से अनुपस्थित होता तो शांय छुट्टी के पश्चात मास्टर जी उसके गाँव जाकर उसके घर वालों से इसका कारण पूछते थे। इसलिये कभी भी किसी छात्र की हिम्मत नहीं हुई कि वह अकारण पाठशाला से अनुपस्थित रहे। लोगों का भी मास्टर जी से इतना अधिक स्नेह हो गया था कि नई फसल आने पर वे उन्हें इतना ज्यादा आनाज इकट्ठा करके दे देते थे कि अपने गुजारे लायक रखने के पश्चात दो ऊँट अनाज वह अपने घर भेज देते थे।

प्रारंभिक तीन वर्ष पाठशाला का महौल अति उत्तम रहा। न छात्रों की ओर से कोई शिकायत और न मास्टर जी की ओर से कोई सख्ती। एक अच्छे गुरु और आज्ञाकारी शिष्यों की भाँति एक-दूसरे के प्रति परंपरा का निर्वाह हो रहा था। परन्तु चतुर्थ वर्ष आरम्भ होते ही पाठशाला के इस स्वच्छ वातावरण को मानो ग्रहण लगना शुरू हो गया था। हुआ यूं कि रघुनाथ पंडित जी के दामाद का स्थानांतरण एक अहिन्दी भाषी राज्य में हो गया। जिसके कारण उनके इकलौते पुत्र की शिक्षा की समस्या आन पड़ी। काफी सोच विचार और मशविरे के पश्चात यह निर्णय लिया गया कि बेटे को फिलहाल नाना-नानी जी के पास गाँव में छोड़ दिया जाए। अभी तृतीय श्रेणी उतीर्ण करके चतुर्थ कक्षा में चढ़ा है। उधर गाँव में अब प्राथमिक पाठशाला है। इसलिये दो वर्ष तो आरामपूर्वक निकल जाएँगे। सम्भव है कि तब तक कुछ हाथ-पैर मारकर किसी हिन्दी भाषी राǔय में स्थानांतरण हो जाए। यह सोच समझकर पति-पत्नी एक दिन अपने जिगर के लाडले को गाँव में छोड़ आए। नाना-नानी भी अपने नाती से अपार स्नेह रखते थे। इकलौता होने के कारण माता-पिता का दुलारा था, इसलिये लालन-पालन में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी गई थी। यही कारण था कि वह अपने हमउम्र लड़कों में कुछ ज्यादा ही हृष्ट-पुष्ट नज़र आता था। इधर नाना-नानी जी की भी उस पर अपार कृपा थी। इस लाड़-दुलार ने उसे शरारती बना दिया था।

यह बात नहीं थी कि विश्वनाथ में केवल बुराई ही थी। पढ़ने-लिखने में भी उसका कोई सानी नहीं था। अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल स्थान पर ही रहता था। इसलिये पाठशाला में मास्टर जी उसकी शरारतों को हमेशा नज़र अंदाज़ कर दिया करते थे। चतुर्थ श्रेणी की वार्षिक परीक्षाओं में भी वह पूरे उप-मण्डल की पाठशालाओं में प्रथम स्थान पर आया था। उसकी इस उपलब्धि ने मास्टर जी का सीना चौड़ा कर दिया था। वह हमेशा उसकी प्रशंसा करते रहते थे।

बच्चों को कई बार उदाहरण दिया करते थे कि तुम भी पढ़ाई में विश्वनाथ की तरह बनों। मास्टर जी की इन बातों ने विश्वनाथ का कद अपने सहपाठियों में काफी हद तक बढ़ा दिया था। वे यदा-कदा उससे कठिन प्रश्नों का हल पूछते रहते थे। भोलू नाथ, प्रेम सिंह और आज्ञा राम भी उसके ननिहाल के लड़के थे और सहपाठी थे। एक दिन मास्टर जी ने गणित के कुछ प्रश्न याद करने के लिए कहा और निर्देश दिए कि कल वह इन प्रश्नों के बारे में कक्षा में पूछेंगे। भोलू नाथ बेचारा खेलने-कूदने का शौकीन था, सो घर जाकर मास्टर जी की बात भूल गया। आगामी सुबह जब पाठशाला के लिए चलने लगा तो उसे मास्टर जी के बतलाए प्रश्नों की बात याद आई। मन ही मन बहुत भयभीत हुआ कि आज मास्टर जी से डंडे पड़ेंगे। मार पड़ने का डर उसके चेहरे पर साफ झलक रहा था और वह सहमा-सहमा चल रहा था। विश्वनाथ की नज़र उस पर पड़ी तो पूछने लगा:

‘भोलू भैया, क्या बात? आज चेहरा क्यों उतरा हुआ है ? क्या घर पर मामी जी की डांट पड़ी है ? या कोई और बात है ?’

‘विश्वनाथ, जो तू सोच रहा है वह बात नहीं है। दरअसल बात यह है कि मैं गणित के प्रश्न याद करना भूल गया। अब पाठशाला में मास्टर जी से डंडे पड़ेंगे। इसी सोच में मन बहुत उदास है।’

‘भुलक्कड़ कहीं का। तभी तो तेरा नाम घर वालों ने भोलू नाथ रखा है। अरे विश्वनाथ अपने साथ जो है, तो किस बात की चिंता। इस से पूछते हुए चलते हैं।’ प्रेम सिंह शेख़ी बघारता हुआ बोला।

अब तीनों लड़के विश्वनाथ के नज़दीक होकर चलने लगे और वह उन्हें प्रश्नों के उत्तर समझाने लगा। परन्तु उसे न जाने क्या सूझी, शरारत में सब कुछ उलट-पुलट बतला दिया। तीनों लड़कों ने उस द्वारा बतलाए गए उत्तर अच्छी प्रकार से कंठस्थ कर लिए। पाठशाला में जब मास्टर जी गणित का विषय पढ़ाने लगे तो उन्हें विद्यार्थियों को दिए गए गृह कार्य की याद आई। अतः वह विद्यार्थियों की ओर मुखातिब होकर पूछने लगे, ‘कल मैंने जो प्रश्न दिए थे, कितने बच्चों ने याद किए हैं ? अपने-अपने हाथ खड़े करके बतलाना।’ यह कहकर मास्टर जी ने कक्षा में बैठे बच्चों की ओर देखा। यह क्या, भोलू नाथ का हाथ आज सब से ऊँचा ? वह हैरान हुए। कक्षा का सब से नालायक बच्चा भी अब इतना होशियार हो गया है। मास्टर जी की बाछें खिल गई। वह खुशी से उसकी ओर इशारा करते हुए बोले:

'हाँ भोलू! बतला 'पिण्ड' किसे कहते हैं?'

भोलू अपने बैठने के स्थान पर खड़ा हुआ और बिना पूर्ण विराम लगाए बोलने लगा, ‘मास्टर जी,‘पिण्ड’ पंजाबी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ होता है ‘गाँव’। इसलिये ‘पिण्ड’ गाँव को कहते हैं, जैसे कि नानकपुर, दिवानवाला, मालिकपुर और रामपुर इत्यादि। वह पूरे वाक्य एक ही सांस में बोल गया। यह सुनकर मास्टर जी आवाक रह गए। उनका चेहरा क्रोध से सुर्ख हो गया। मैंने क्या सोचा था और यह क्या हो गया ? यह पाजी तो गधे से भी बड़ा मूर्ख निकला। ‘अबे ओ उल्लू! बैठ जा। पढ़ाई-लिखाई तेरे वश का सौदा नहीं है। कल तू अपने पिता जी को पाठशाला में बुलाकर लाना। मैं उन्हें समझाऊँगा कि तुम्हारा लाल पढ़ाई में क्या चार चाँद लगा रहा है। ’मास्टर जी की इस लताड़ को सुनकर प्रेम सिंह और आज्ञा राम ने अपनी आँखें नीचे झुका लीं कि कहीं अब उनका भी नम्बर न लग जाए। मास्टर जी ने अपने कमीज़ की बगल की जेब से रूमाल निकालकर अपना चेहरा साफ किया और फिर थके हुए इंसान की भाँति कुर्सी पर बैठ गए।

‘अबे ओ अनाज के दुश्मनों! मैं बतलाता हूँ तुम्हें, ‘पिण्ड’ किसे कहते हैं ? ‘पिण्ड’ उस वस्तु को कहते हैं जिसकी, लम्बाई, चैड़ाई और मोटाई हो। जैसे कि लकड़ी का यह चकोर टुकड़ा प्रश्न का उत्तर बतलाने के पश्चात मास्टर जी ने पानी का गिलास उठाकर पानी पिया और फिर शांत मन से पूछने लगे, ‘भोलू बेटा! सच-सच बतला तूने यह उत्तर कहाँ से याद किया था ? डरने की कोई बात नहीं, मैं कुछ नहीं कहूँगा।’

मास्टर जी की मीठी आवाज सुनकर भोलू नाथ को हौंसला हुआ। उसने खड़े होकर एक बार तिरछी आँख से विश्वनाथ की ओर देखा और फिर आँखें नीची करके बोला, ‘मास्टर जी, मेरी दादी जी कहती हैं कि जो झूठ बोलता है वह नरक का भागी होता हैं, इसलिये में सच-सच कहूँगा। सुबह पाठशाला आते समय विश्वनाथ ने मुझे, प्रेमसिंह और आज्ञाराम को यही सिखाया था।’

भोलू नाथ के मुख से यह भोली बात सुनकर एक बात तो मास्टर जी की हंसी छूट पड़ी और साथ में पूरी कक्षा के बच्चे भी हंसने लगे। परन्तु दूसरे ही क्षण मास्टरजी ने अपने तेवर बदले और बोले, ‘क्यों बे प्रेम सिंह! क्या ये सच कह रहा है ?’

    ‘जी हाँ मास्टर जी, विश्वनाथ ने ही ऐसा सिखाया था हम तीनों को।’ प्रेम सिंह की बात सुनकर मास्टर जी ने घूरती नज़रों से विश्वनाथ की ओर देखा और पूछने लगे, ‘विश्वनाथ! बेटा तुमने ऐसा क्यों किया ?’

‘मास्टर जी, ये स्वयं तो पढ़ते नहीं, पूछ-पूछकर मुझे परेशान करते रहते हैं। इसलिये मैंने इनसे यों ही मज़ाक में बोल दिया था। ये सच समझ गए।’

‘अच्छा ठीक है, कोई बात नहीं। भविष्य में फिर कभी ऐसा भद्दा मज़ाक मत करना, वरना ये गधे तो और निखट्टू हो जाएंगे।’ मास्टर जी हंसते हुए बोले।

इस घटना को बीते एक पखवाड़ा हो चला था। लड़के पिछली बात की रंजिश को भूल चुके थे। आपस में हंसना-बोलना, खेलना-कूदना यथावत् आरम्भ हो गया था। बच्चों का आपस में वैर-विरोध क्षणिक होता है। समय की गति के साथ-साथ वह कमजोर पड़ता जाता है। सुबह का झगड़ा शाम होने तक मित्रता में परिवर्तित हो जाता है। हंसी-खुशी के इस माहौल में चारों लड़के पाठशाला जाने के लिए गाँव से निकल पड़े। तीनों लड़कों ने आज भी अपना गृह कार्य पूरा नहीं किया था। मास्टर जी की डांट-फटकार के भय से वे बड़ी असमंजस की स्थिति में थे। समस्या का समाधान कुछ बन नहीं पा रहा था। ऐसे में विश्वनाथ की सेवाएं लेना उनके लिए अपरिहार्य हो चला था। अतः बात को आरम्भ करते हुए आज्ञा राम बोला, ‘विश्वनाथ! तुमने पाठशाला का काम पूरा कर लिया है क्या ?’

‘हाँ तो, क्या बात है ?’ उसने प्रश्न किया।

‘हम तीनों तो रह गए। अब क्या होगा ? मास्टर जी नाराज़ होंगे। अगर घर वालों को बुलवा लिया तो अलग से फज़ीहत और होगी। तू हमारे में सयाना है, कोई तरकीब निकाल इस मुसीबत से बच निकलने की।’

विश्वनाथ समस्या का समाधान खोजने लगा। अचानक, कई दिनों से शांत, उसका चंचल मन पुनः जाग्रत हो उठा। उसे शरारत सूझी, बोला:

‘भैया घबराने की कोई बात नहीं, मैंने तुम्हारी समस्या का समाधान ढूंढ लिया है।’

‘क्या ?’ तीनों लड़के जानने के लिए उसके आगे खड़े हो गए।

‘तुम आज पाठशाला से तफरीह मार लो। घर वाले सोचेंगे तुम पाठशाला में हो और मास्टर जी समझेंगे तुम घर से नहीं आए हो। किसी को भी असलियत मालूम नहीं पड़ेगी।’

‘परन्तु जाएं कहाँ ? पूरा समय कैसे व्यतीत होगा ?’ प्रेम सिंह बोला।

‘तुम ऐसा करो, अपनी पाठशाला के पिछवाड़े जो बरगद का पेड़ है, उस पर छिप कर बैठ जाओ। ज्योंही छुट्टी की घंटी बजेगी नीचे उतर कर, लड़कों के आने से पहले, घर का रूख कर लेना। सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। किसी को भी कानों कान खबर नहीं होगी।’

‘ठीक है, ऐसा ही करते हैं। परन्तु तुम पाठशाला में किसी को मत बतलाना।’ आज्ञा राम अपने मन की बात कहता हुआ बोला।

‘मैं क्यों किसी को कहूँगा। मैं तुम्हारा नाम बिलकुल नहीं लूँगा। तुम निश्चिंत रहो।’

विश्वनाथ से आश्वासन पाकर तीनों आँख बचा कर बरगद के पेड़ पर चढ़ कर, छुप कर, बैठ गए।

पाठशाला में हाज़िरी लेते समय तीनों लड़के कक्षा में अनुपस्थित पाए गए। मास्टर जी ने विश्वनाथ से पूछा-‘विश्वनाथ, तुमने इन लड़कों को देखा है?’

‘जी हाँ मास्टर जी, मैंने उन्हें गाँव में देखा था।’ वह बोलाः

‘मेरा पूछने का मतलब यह नहीं है। मैं यह जानना चाहता हूँ कि वे आज पाठशाला क्यों नहीं आए ?’

‘यह तो मैं नहीं बतला सकता मास्टर जी।’

‘कोई बात नहीं, बैठ जाओ। मैं शाम को गाँव जाकर स्वयं मालूम कर लूंगा।’ मास्टर जी उसके कहने का आशय नहीं समझ पाए थे।

मास्टर जी छुट्टी के पश्चात गाँव जाएंगे, यह सुनकर विश्वनाथ के अंदर छुपा शैतान घबरा गया। गाँव में बात खुलेगी तो नाहक ही सब के सामने शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। इस से बेहतर तो यह है कि बात का राज यहीं पर खुल जाए। ज्यादा होगा मास्टर जी थोड़ी-बहुत नसीहत देकर चुप कर जाएंगे और बात यहीं पाठशाला में ही निपट जाएगी। इसके लिए वह अब उपयुक्त समय की तलाश में था। मास्टर जी जब सुलेख लिखने का काम देकर दूसरी कक्षा को पढ़ाने लगे तो विश्वनाथ ने चुपके से अपने सहपाठियों में यह अफवाह फैलादी कि आज बरगद के पेड़ पर बंदर बैठे हुए हैं। बच्चों को आपस में कानाफूसी करते देखकर मास्टर जी ने पूछा:

‘क्यों शोर मचा रहे हो ? क्या बात है ?’

‘मास्टर जी ! ये कहते हैं बरगद के पेड़ पर बंदर हैं।’ एक लड़का बोलाI

‘बंदर, कहाँ से आ गए। यहाँ पर कभी बंदर आए हैं क्या ? पढ़ने में मन लगता नहीं, बहाने बनाते रहते हो। कहाँ हैं बंदर ? कौन कहता है?’

    मास्टर जी की घुड़की सुनकर लड़का सहम गया और चुप कर गया। फिर मास्टर जी के मन में विचार आया कि हो सकता है कहीं से भटक कर बंदर आ गए हों। मैंने नाहक में ही बच्चे को डांट दिया है। ऐसा करने से पहले मुझे स्वयं देख लेना चाहिये था। यदि बंदरों का झुण्ड सचमुच में इधर आ गया है तो यह अच्छी बात नहीं है। शरारती प्रवृति के जानवर हैं, उत्पात मचाएंगे। यह भी सम्भव है कि बच्चों को काट लें। इसलिये इन्हें वक्त रहते ही भगा देना चाहिये। वह कुछ बड़ी उम्र के बच्चों को साथ लेकर बरगद के पेड़ की तरफ चल पड़े। मास्टर जी को अपनी ओर आते हुए देखकर बरगद के पेड़ पर बैठे बच्चों का पसीना छूटने लगा। उनके मुँह से सहसा ही निकला ? ‘हे भगवान! आज तो बुरे फंसे। सत्यानाश हो इस विश्वनाथ का, जिसने हमें गलत सलाह दी है। पहले तो केवल मास्टर जी के हाथों ही पिटते, अब घर पर भी मार पड़ेगी।’

मास्टर जी के वहाँ पर पहुँचने से पहले ही वे बंदरों की भाँति फुदकते हुए बरगद के पेड़ से नीचे उतर आए।

‘बदमाशों! अब यह क्या नया शगूफा शुरू कर दिया है तुमने। मुझे तो लगता है, तुम इस पाठशाला का जलूस निकाल कर रख दोगे। आज तक कभी भी किसी लड़के ने ऐसा दुःसाहस नहीं दिखाया है। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यह हरकत करने की । बताओ क्यों किया है ऐसा ?’ मास्टर जी गुस्से में आग बबूला होकर बोले। थप्पड़ों के भय से तीनों लड़कों ने अपने कानों को दोनों हाथों से ढाँप लिया और गर्दनें झुका लीं। एक बार तो मास्टर जी के मन में आया कि इन्हें इनकी करनी का सबक सिखा दिया जाए, परन्तु बच्चे समझ कर वह मन मार गए। मगर वह यह अवश्य जानना चाहते थे कि इनकी अल्प बुद्धि में यह फतूर आया कैसे। अतः पाठशाला में आकर वह कुर्सी पर बैठ गए और तीनों लड़कों को अपने पास बुलाकर पूछने लगे, ‘मुझे सच-सच यह बताओ कि तुम्हें यह हरकत सूझी कैसे ?’

‘मास्टर जी, हम तो रास्ते में छुपने के बारे में जानते भी नहीं थे, हमारे से तो विश्वनाथ ने कहा था कि तुम बरगद के पेड़ पर चढ़कर छुप जाओ।’ भोलू नाथ बड़ी मासूमीयत से बोला।

‘मास्टर जी। ये झूठ बोल रहा है। पढ़ने से ये स्वयं डरते हैं और अब जब पकड़े गए तो बिना बात के मेरा नाम बदनाम कर रहे हैं। मैं भला क्यों ऐसी सलाह दूंगा। मुझे क्या मिलने वाला है इससे।’ विश्वनाथ नादान बन कर बोला।

‘हाँ, विश्वनाथ ठीक कहता है। तुम्हें ऐसा कहने में इसका क्या हित था। और अगर मैं मान भी लूँ कि इसने तुमसे ऐसा करने को कहा था, तो तुम क्या दूध पीते बच्चे हो ? कद में न सही उम्र में तो इस से बड़े हो। इस बार तो मैं तुम्हें बख्श देता हूँ, परन्तु आइन्दा अगर ऐसी हरकत की तो मैं तुम तीनों को पाठशाला से निकाल दूंगा। समझे ? मास्टर जी उनकी ओर इशारा करते हुए बोले।

‘ठीक है मास्टर जी। भविष्य में हम कभी ऐसा नहीं करेंगे। वे माफी मांगते हुए बोले।

छुट्टी के पश्चात शाम को मास्टर जी उन लड़कों के गाँव गए और उनके अभिभावकों को उन्होंने उस दिन की घटना का ब्योरा दिया। बच्चों को बुला कर पूछताछ की गई और अच्छी-खासी डांट-डपट की गई। परन्तु इस घटना के पीछे विश्वनाथ का ही नाम उछल कर आया। गाँव का नाती था, सो कुछ कहना-सुनना भी ठीक नहीं समझा गया और बात आई-गई हो गई।

नाना-नानी जी के कानों तक बात पहुँची तो उन्होंने विश्वनाथ को समझाया कि बेटा इन लड़कों को ऐसी-वैसी बातें नहीं कहनी चाहियें। गाँव के बच्चे सीधे स्वभाव के होते हैं। इन्हें उलटी-सीधी बात के फरक का पता नहीं होता। इसलिये नुकसान उठा लेते हैं। विश्वनाथ ने भी आगे से कोई शरारत न करने की कसम खाई। परन्तु बच्चों का मन तो बड़ा चंचल होता है। वह किसी बंधन में नहीं बंध सकता। उन्मुक्त पक्षी की भाँति वह तो सदैव उड़ान भरने के लिए तत्पर रहता है। कुछ दिनों के अंतराल के पश्चात बच्चे पिछले किस्से को भूल गए और पुनः आरम्भ हो गया आपस में बात-चीत और खेल-कूद का सिलसिला। दोपहर पश्चात चार बजे पाठशाला से छुट्टी हुई तो बच्चों ने खेलने का मन बनाया। पाठशाला के पिछवाड़े दूर-दूर तक ज्वार के खेत थे। फसल अपने पूरे योवन पर थी। ऐसा लगता था मानो हरियाली का जंगल हो। विश्वनाथ की कुशाग्रबुद्धि चपल हो उठीI वह बोलाः

ज्वार के खेत में लुकाछिपी का खेल खेलते हैं। बड़ा आनंद आएगा। बोलो मंजूर हैं ?’

‘हाँ, ठीक है।’ कई स्वर एक साथ गूंजे।

‘पहले कौन ढूंढेगा?’ आज्ञा राम ने प्रश्न किया।

‘जो उम्र में सब से बड़ा होगाI’ विश्वनाथ ने उतर दिया।

‘फिर तो पहले भोलूनाथ भैया की बारी है। भोलू भैया तुम यहाँ पर रूको। हमारी तरफ बिलकुल भी नहीं देखना। जब हम दूर निकल जाएंगे और आवाज़ देंगे, तब तुम हमें ढूंढना शुरू करना। अब हम निकलते हैं, तुम हमारी ओर पीठ मोड़कर खड़े हो जाओ।’ बीच में से एक लड़का जिसका नाम कृष्ण चन्द्र था, बोला।

भोलू नाथ लड़कों की ओर पीठ मोड़कर खड़ा हो गया और बाकी लड़के दूसरी ओर काफी दूर तक खेत में निकल गए। विश्वनाथ ने सभी को एक जगह इकट्ठा करके उनके कान में धीरे से कुछ कहा और फिर वे आवाज लगा कर चुपके से, दूसरे रास्ते से, घर की ओर निकल गए। भोलू नाथ एक खेत से दूसरे खेत में घूम-घूमकर उन्हें ढूंढने लगा। अंधेरा हो चला था। उसके घर वालों को चिंता हुई तो गाँव में दूसरे लड़कों को पूछने लगे। सभी का रटा-रटाया एक ही उतर था कि उन्होंने उसे नहीं देखा। आखिर कहाँ पर चला गया, घर वालों की चिंता बढ़ने लगी। दो-चार लोग मास्टर जी के पास पहुँचे। उन्होंने बतलाया कि सभी लड़के छुट्टी के पश्चात पाठशाला से इकट्ठे निकले थे। भोलू नाथ के गायब होने की बात सुनकर मास्टर जी भी घबरा गए। अतः वह भी उन लोगों के साथ उसे ढूंढने के लिए निकल पड़े। ज्वार के खेत से गुजरते समय उन्हें कुछ दूरी पर भोलूनाथ के पुकारने की आवाज़ सुनाई दी। सभी उसे आवाजें लगाते हुए उसकी ओर भागे। उन्हें देखकर भोलूनाथ अपने भीतर उठे दर्द को छुपा न सका और जोर-जोर से रोने लगा।

‘क्या बात है भोलू बेटा ? तू क्यों रो रहा है ? किसने मारा है तुझे?’ उसके पिता जी उसे पुचकारते हुए बोले। परन्तु भोलू का रोना रूक ही नहीं रहा था। वह अपने मन की सारी पीड़ा आँसूओं के साथ बहा कर ही बाहर निकाल देना चाहता था।

‘बेटा तू यहाँ पर अकेला क्या कर रहा है, इस समय ? घर क्यों नहीं गया ?’ मास्टर जी उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोले।

    भोलूनाथ कुछ कहना चाहता था, परन्तु उसके गले से निकलती सिसकियाँ उसकी आवाज़ में अवरोध डाल रही थीं। वह चाह कर भी कुछ नहीं बोल पा रहा था। उसके पिता जी ने उसे गोद में उठाया और फिर वे लोग गाँव की ओर चल पड़े। कुछ समय पश्चात जब उसका मन शाँत हुआ तो उसने सारी बात बतलाई। आज पहली बार मास्टर जी को विश्वनाथ की शरारतों का आभास हुआ। उनका मन व्यथित हो उठा।

‘कितना अच्छा लड़का, परन्तु एक बुराई ने सभी अच्छाइयों पर पानी फेर दिया है। बच्चा है, समय आने पर स्वयं ही सुधर जाएगा।’ वह अपने मन ही मन सोचते हुए चले जा रहे थे।

घर पहुँचे तो आस-पड़ोस के लोग इकट्ठा हो गए। सभी बच्चे की कुशलक्षेम पूछने लगे। असलियत मालूम होने पर सभी ने बच्चों के व्यवहार को लेकर अपनी नाराज़गी व्यक्त की और साथ में मास्टर जी को भी नसीहत दे डाली कि वे बच्चों को अनुशासन में रहने की सीख दें। आज मास्टर जी पहली बार गाँव वालों के सामने अपने आप को बौना महसूस कर रहे थे। ग्लानिवश वह कुछ कह नहीं पाए, परन्तु मन ही मन यह दृढ निष्चय अवश्य कर लिया था कि भविष्य में अनुशासन को लेकर कोई समझौता नहीं करेंगे। इस बात की सुगबुगाहट विश्वनाथ के नाना-नानी के कानों तक भी पहुँच गई थी। वे सुनकर बहुत लज्जित हुए। यह लड़का खुराफात की जड़ है। नित नये बखेड़े खड़े करता रहता है। हर चीज की एक हद होती है। अब बेहतर यही होगा, इसे इसके माँ-बाप के पास छोड़ दिया जाए। उन्हें वापस आए भी तो दो महीनें हो चले हैं। हो सकता है कि माँ-बाप से अलग रहने पर ही यह ऐसी हरकतें, अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए, कर रहा हो और उनकी छाया में रहकर सामान्य व्यवहार करने लगे। यह सोचकर उन्होंने बेटी और दामाद से उनका पक्ष जानने का मन बनाया। परन्तु जब मास्टर जी से इस विषय पर चर्चा की तो उन्होंने बच्चे की पढ़ाई के हित में ऐसा न करने की सलाह दी। भोलू राम के साथ घटित घटना से हुई किरकिरी से विश्वनाथ को काफी दुःख हुआ और उसने भविष्य में पुनः शरारत न करने की प्रतिज्ञा कर डाली।

वर्षा ऋतु समाप्त हो गई थी। शरद्-ऋतु ने अपने पाँव पसार लिए थे। दिन सिकुड़ कर छोटे हो चले थे। सूर्य देव दिन प्रतिदिन अपनी दिनचर्या घटाते हुए क्षितिज के आगोश में समाने लगे थे। रोशनी विलुप्त होते ही घने अंधेरे की चादर प्रत्येक दिखलाई देने वाली वस्तु को नज़रों से ओझल करके अपने भीतर समेटने लगी थी। इसलिये पाठशाला से छुट्टी के पश्चात, दूर गाँवों से आने वाले बच्चों को अंधेरे का डर सताने लगा था।

एक दिन दोपहर, अल्प अवकाश के समय, कुछ बच्चे इस समस्या के समाधान हेतु आपस में विचार-विमर्श कर रहे थे। विश्वनाथ भी उनके पास ही खड़ा था। एक बार फिर उसके चंचल मन ने उसकी आत्मिक बोध शक्ति का परित्याग कर दिया। उसे शरारत सूझी। वह उन लड़कों से बोलाः

‘तुम्हारी समस्या का समाधान मेरे पास है।’

‘वो क्या ?’ वे उत्सुक होकर बोले।

‘पहले वचन दो कि किसी से जिक्र नहीं करोगे।’

‘तेरी कसम हम किसी से बात नहीं करेंगे।’

‘अच्छा! तो कसम भी मेरी खाते हो। अपने-अपने सिर पर हाथ रखकर कसम खाओ, वरना मैं कुछ भी नहीं बतलाऊँगा।’

‘ठीक है, जैसे तू कहता है वैसे ही करेंगे। अब बोल।’

‘मेरी बात ध्यान से सुनो। शाम को छुट्टी कितने बजे होती है?’

‘चार बजे।’

‘मास्टर जी को समय का पता कैसे चलता है ?’

‘मेज पर रखी घड़ी देख कर।’

‘बस यही तुम्हारी समस्या का समाधान है। मास्टर जी के कमरे में कोई नहीं होता। आँख बचाकर तीन के चार बजा दो।’

‘वो कैसे ?’

‘घड़ी के पिछली ओर कुछ चाबियाँ होती हैं। उन्हें आहिस्ता से घूमाकर देखना। जिससे सुइयाँ घूमने लग जाएँ उसे आगे की ओर घूमाकर छोटी सुई को चार पर रोक देना।’

विश्वनाथ से यह मंत्र पाकर वे लड़के काफी खुश हो गए। शरद्-ऋतु की वजह से सभी कक्षाएँ कमरों से बाहर धूप में बैठाई जाती थीं। समय का लाभ उठाकर एक लड़के ने घड़ी का समय बदल दिया। हलके बादलों के कारण भी मास्टर जी सूर्य की चमक का सही अंदाजा लगा पाने में असमर्थ रहे। कमरे में जाकर घड़ी देखी तो समय चार बजे से थोड़ा ऊपर हो चुका था। अतः छुट्टी का फरमान जारी कर दिया। पलक झपकते ही सभी बच्चे पिंजरे से आज़ाद पक्षियों की तरह उड़नछू हो गए। मास्टर जी कमरों को बंद करने के पश्चात अभी बाहर निकले ही थे कि अचानक खंड शिक्षा अधिकारी निरीक्षण हेतु आ धमके। उन्होंने पहले मास्टर जी की ओर देखा और फिर अपनी कलाई पर बंधी घड़ी की ओर। नमस्कार का उत्तर दिए बिना ही बोले:

‘यह क्या मास्टर जी, आज अवकाश घोषित कर रखा है क्या ?’

‘नहीं श्रीमान जी, अभी थोड़ी देर पहले ही छुट्टी की है।’ मास्टर जी का यह उत्तर सुनकर शिक्षा अधिकारी महोदय ने पुनः अपनी कलाई घड़ी का निरीक्षण किया। आश्वस्त होकर कि अभी चार बजने में समय बाकी है वह पुनः बोलेः

‘समय बदल दिया है क्या ?’

‘नहीं श्रीमान जी, मैंने तो बल्कि आज चार बजे के पश्चात ही कक्षाएँ छोड़ी हैं।’

‘देखिये मेरी घड़ी, इसमें क्या समय हुआ है ? चार बजने में अभी भी आधा घंटा शेष रहता है। मास्टर जी, जब आप स्वयं ही बहाने बनाते हो तो बǔचों को सच्चरित्र की शिक्षा क्या दोगे। यह बहुत बुरी बात है।’

‘जी श्रीमान जी, जो आप कह रहे हैं यह बात नहीं है। आप मुझे गलत समझ रहे हैं। आप मेरी बात पर यकीन कीजिये। मैं सच कह रहा हूँ। मैंने घड़ी में समय देखकर ही छुट्टी की है। हाँ यह हो सकता है घड़ी ही खराब हो गई हो, इसमें मेरा क्या दोष है।’

यह कहते हुए मास्टर जी अधिकारी महोदय को घड़ी में समय दिखाने के लिए कमरे के अंदर ले गए। घड़ी सचमुच वास्तविक समय से एक घंटा आगे का समय दर्शा रही थी।

‘आपकी घड़ी ही खराब है मास्टर जी, इसे ठीक करवाइये।’ खंड शिक्षा अधिकारी कुर्सी पर बैठते हुए बोले। निरीक्षण सम्बन्धी कुछ औपचारिकताएँ पूरी करने के पश्चात वह वापस चले गए। मास्टर जी ने उनकी घड़ी के समय अनुसार अपनी घड़ी में समय मिलाया और फिर पाठशाला बंद करके स्वयं भी गाँव चले गए। पूरी रात वह सो नहीं पाये। रह-रहकर खंड शिक्षा अधिकारी महोदय के कटु शब्द तीक्ष्ण बाणों की भाँति उनके शरीर में चुभ रहे थे। सारी उम्र मैंने पूरी लगन, ईमानदारी और मेहनत से अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। परन्तु फिर भी इस उम्र में मुझे इतने घृणित शब्दों को सुनना पड़ा। मेरी ईमानदारी पर संदेह व्यक्त किया गया है। न जाने इस प्रकार के कितने ही विचार मास्टर जी के मन में उठते रहे। किसी से अपने मन की व्यथा उजागर भी नहीं कर सकते थे। भोर हुई तो तैयार होकर जल्दी पाठशाला पहुँच गए। अकेले में कुर्सी पर बैठे पूर्व संध्या की घटना के बारे में सोच रहे थे कि दूर शहर में रेलवे वर्कशाप का हूटर बज उठा। ‘ओह! सात बज गए हैं।’ उनके मुँह से अनायास ही निकला। घड़ी के ऊपर नज़र गई तो उसमें भी सात का समय था। गहरी सोच में पड़ गए। घड़ी तो एकदम सही है, फिर कल यह एक घंटा आगे कैसे चल रही थी। लगता है किसी ने इसे छेड़ा होगा। कौन हो सकता है? विद्यार्थियों के अतिरिक्त यहाँ पर और कोई नहीं आया। उन्हीं में से किसी की शरारत हो सकती है। आज आने दो एक-एक की खबर लूंगा। इन्हीं बातों को सोचते हुए पाठशाला खुलने का समय हो गया। पाठशाला की साफ-सफाई और प्रार्थना के पश्चात जब सभी बच्चे अपनी-अपनी कक्षाओं में बैठ गए तो मास्टर जी ने सभी को एक जगह बुलाया। फिर एकटक निगाह से सभी बच्चों की ओर देखा और बोले:

‘कल घड़ी के साथ तुम में से किसने शरारत की थी ?’

कोई उत्तर न पाकर वह ऊँची आवाज़ में फिर बोले, ‘मैं पूछ रहा हूँ कल घड़ी को किसने छेड़ा था ?’

कोई उत्तर नहीं आया। मास्टर जी ने घूरकर बच्चों की ओर देखा और गुर्राये, ‘तुम ऐसे नहीं बताओगे। लातों के भूत बातों से नहीं मानते। मैं तुम्हें एक अवसर और देता हूँ। जिसने भी यह कृत्य किया है, वह खड़ा होकर बतला दे। वरना मैं एक-एक की वो हालत करूंगा, जो खेत में घुसे गधे की भी नहीं होती है।’

अपने मकसद में कामयाब न होते देखकर मास्टर जी ने अब होशियारी से काम लेना उचित समझा। वह बड़े इतमीनान से कहने लगे:

‘देखो, मुझे उस लड़के का नाम पता चल चुका है। या तो वह स्वयं खड़ा होकर अपनी गलती मान ले, नहीं तो मजबूरी वश मुझे स्वयं कार्यवाही करनी पड़ेगी जो उसे महँगी पड़ेगी।’ मास्टर जी की तरकीब रंग लाई। भय से कांपते हुए वह लड़का खड़ा हो गया। सभी लड़के उसकी ओर देखने लगे। एक बार तो उसे देखकर मास्टर जी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। परन्तु दूसरे ही क्षण उन्होंने अपने गुस्से पर काबू पाते हुए बड़े ही शांत स्वभाव से उससे पूछा:

    ‘बेटा, मैं तुम्हें कोई दंड नहीं दूंगा। मुझे बस इतना बतला दो कि तुमने यह शरारत क्यों की और किसके कहने पर की ?’

पिटाई के डर से लड़के की जुबान खुल नहीं रही थी। वह मास्टर जी की ओर ऐसे देखने लगा मानो दया की भीख मांग रहा हो।

‘शाबाश बेटा! डरो मत, सच-सच बतला दो।’ मास्टर जी उसे हौंसला देते हुए बोले।

लड़के की थोड़ी हिम्मत बंधी। वह कांपती आवाज़ में बोलने लगा:

‘मास्टर जी, शाम को घर जाने के लिए अंधेरा हो जाता है, इसलिये।’ तुमने स्वयं किया या किसी ने ऐसा करने के लिए तुमसे बोला था?’

लड़के ने कातर दृष्टि से विश्वनाथ की ओर देखा और फिर इशारा कर दिया। मास्टर जी की आँखें क्रोध से लाल हो गई। उन्होंने उस लड़के को तो कुछ नहीं कहा, परन्तु बिना आव-ताव देखे विश्वनाथ के गाल पर ताबड़तोड़ कई तमाचे जड़ दिए। ‘ऐसा सोना भी क्या, जो कानों को खाये। तैं तंग आ गया हूँ तुम्हारी रोज-रोज की शरारतों से। तुमने इन भोले-भाले बच्चों को शैतान बना दिया है। मैं तुम्हें अब इस पाठशाला में एक पल भी नहीं रखना चाहता। तुम्हारी कल की इस एक हरकत ने मेरी पूरी ज़िंदगी की नेक कमाई पर पानी फेर दिया। मुझे वो-वो बातें सुननी पड़ीं जो मैंने आज तक कभी नहीं सुनी थी।’मास्टर जी न जाने एक सांस में ही क्या-क्या कह गए।

विश्वनाथ पूरा दिन गुम-सुम बैठा रहा। उसे अपने किये पर बहुत पछतावा हो रहा था। शाम को, छुट्टी के पश्चात, मास्टर जी रघुनाथ पंडित के घर पहुँचे। अपने मन का बोझ हलका करते हुए उन्होंने पूरी बात का खुलासा पंडित जी से किया। पंडित जी थोड़ा सोच-विचार करने के बाद बोले, ‘मास्टर जी, आपके दुःख को मैं समझता हूँ। परन्तु जहाँ तक मेरा अपना विचार है, इस लड़के का भी इसमें कोई दोष नहीं है। हमारी ओर से पूरा लाड़-प्यार मिलने के बाद भी शायद ये अपने माँ-बाप से जुदाई का एहसास भूला नहीं पाया है। इसलिये मैंने अब यही उचित समझा है कि इसे उनके पास छोड़ आऊँ। आप कल, सुबह इसके पाठशाला छोड़ने के कागज़ात तैयार कर देना। मैं जाकर ले आऊँगा।’ यह बात विश्वनाथ के कानों तक भी पहुँच गई थी। वह नाना-नानी जी के पास से जाना नहीं चाहता था। पाठशाला के भोले-भाले बच्चे भी उसे बहुत प्रिय लगते थे। वह सारी रात रज़ाई में छिपकर रोता रहा। सुबह नाना जी नहा-धोकर तैयार हुए तो विश्वनाथ से बोले, ‘विश्वनाथ बेटा! चलो पाठशाला चलते हैं। मास्टर जी ने तेरे कागज़ तैयार कर दिए होंगे, उन्हें ले आते हैं।

‘नाना जी, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं शरारतें करनी छोड़ दूं और मास्टर जी मुझे पाठशाला में पढ़ाने के लिए मान जाएँ ?’

‘पता नहीं बेटा, यह तो मास्टर जी ही जानें।’ नाना जी बड़े सरल स्वभाव में बोले।

‘नाना जी, यह भी तो सम्भव है कि मास्टर जी कल की बात भूल गए हों और उन्होंने कागज़ तैयार ही न किए हों।’

‘यह कैसे हो सकता है बेटा ? मास्टर जी का दिमाग बहुत बड़ा होता है, तभी तो सरकार उन्हें बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपती है।’

‘नाना जी, आपका दिमाग भी तो बहुत बड़ा है, आप ही कोई तिकड़म लड़ाओ न।’

‘बेटा! मैं कहाँ मास्टर जी की बराबरी कर सकता हूँ। चलो फिर भी पूछ कर देख लेंगे। अगर मान गए तो ठीक है।’

‘नानी जी से पूछ लेते हैं, शायद वे ही कोई उपाय बता दें।’

‘अरे नहीं बेटा, वो क्या जाने पाठशाला क्या होती है।’ नाना जी हंसते हुए बोले।

न चाहते हुए भी विश्वनाथ, नाना जी के साथ पाठशाला के लिए चल पड़ा। पूरे रास्ते भर वह चुप रहा। पाठशाला छोड़ने का गम उसे सताये जा रहा था। वह मन ही मन प्रण कर रहा था कि यदि मास्टर जी उसे पाठशाला में रखने के लिए मान गए तो वह भविष्य में कभी भूलकर भी शरारत नहीं करेगा। इसी पसोपेश में वे पाठशाला पहुँच गए। बच्चे सुबह ही कयास लगाए बैठे थे कि विश्वनाथ को पाठशाला से निकाल दिया गया है। अतः उन्हें भी अपने एक साथी को खोने का गम सताये जा रहा था। पाठशाला पहुँच कर रघुनाथ पंडित, मास्टर जी के बगल में रखी कुर्सी पर बैठ गए। परन्तु विश्वनाथ आज किसी भी लड़के से नज़रें नहीं मिला पा रहा था। वह चुपचाप अपने नाना जी के पीछे खड़ा हो गया। मास्टर जी ने रघुनाथ पंडित की ओर मुखातिब होकर पूछा:

‘पंडित जी, आज कैसे आना हुआ ?’

‘वो मास्टर जी, विश्वनाथ के पाठशाला छोड़ने के कागज़ात तैयार कर दिए हैं क्या ? वही लेने आया हूँ।’ पंडित जी ऐसे बोले मानो नींद से जागकर उठे हों।

‘क्यों पंडित जी, इतने बुद्धिमान और होनहार छात्र को मैं अपनी पाठशाला से क्यों जाने दूंगा ? विश्वनाथ इसी पाठशाला में मेरे पास पढ़ेगा। ये बच्चे मेरी पाठशाला के चिराग हैं, जिनसे यह बीहड़ में बनी इमारत रोशन हो रही है। क्यों बच्चों ?’

‘जी हाँ, मास्टर जी, विश्वनाथ हमारे साथ इसी पाठशाला में पढ़ेगा।’ बच्चों की आवाज़ शंख ध्वनि की भाँति सभी विकारों को मिटाती हुई अनंत की ओर गूंजती हुई निकल गई।