ज्वार या भाटा - भाग 1 Lalit Kishor Aka Shitiz द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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ज्वार या भाटा - भाग 1

"ज्वार या भाटा" 


भूमिका

कहानी ज्वार या भाटा हमारे उन वयोवृद्ध योद्धाओं की है जो अपने जीवन में अथाह अनुभव लेके उसे साकार करने हेतु एवं अपनी कुंठाए दूर करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील है। यह कहानी रिटायरमेंट के बाद वृद्ध जनों के सामाजिक जीवन को दर्शाती है कि किस प्रकार कुछ उम्रदराज दोस्त एक दूसरे के साथ होते ही बीस साल जवान हो जाते हैं। यह कहानी हमारे वरिष्ठ जन से वृद्ध जनों के बीच के अंतराल की कहानी है। तथा यह एक परिवार से घर बनने की कहानी है।



पात्र परिचय : 

1 संजीव मिश्रा =  प्रोफेसर ( मुख्य पात्र )

2 सिद्धार्थ = संजीव का पुत्र 

3 रामेश्वर = संजीव का मित्र

4 जाकिर अंसारी = आपसी मित्र (संजीव व रामेश्वर )

5 अनामिका = सिद्धार्थ की धर्मपत्नी

6 दिग्विजय सिंह = चैयरमैन

7 दिपक शर्मा = क्लर्क  

8 जसविंदर सिंह = गाडी ड्राइवर




हरे राम हरे रामा, रामा राम हरे हरे....हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्ण कृष्ण हरे हरे...........। प्रभात फेरी का ये कुंजल गान पूरे मोहल्ले में गूंज रहा था। फेरी की अगवाई कर रहे थे रिटायर्ड प्रोफेसर संजीव मिश्रा। मिश्रा जी रिटायर्ड समाज शास्त्र के प्रोफेसर है, उनके साथ उन्हीं के हमउम्र लंगोटिया यार रामेश्वर और ज़ाकिर अंसारी झाझर बजा रहे हैं। प्रातः काल ये मंडली श्री चरणों में अपने मधुर आलाप से शुरू कर नाद तक की यात्रा करती है। ये  वसंत से शुरू हो कर ग्रीष्म के लपटों में से वर्षा के फव्वारों के साथ शरद के ठिठोले खा कर  शिशिर के साथ मिल शीत तक सफर कर पुनः वसंत को प्रणाम करते हैं।


प्रोफेसर संजीव के एक विवाहित पुत्र है, जिनका अभिधान सिद्धार्थ संजीव मिश्रा है तथा उनकी सुमंगली भार्या श्री अनामिका सिद्धार्थ मिश्रा के साथ ये तीनों एक ही कुंज में वास करते हैं, जो रक्षाद्वीप नाम से प्रख्यात है। रक्षाद्वीप के ठीक सामने रामेश्वर का निवास है, संभवतः वे पड़ोसी और मित्र दोनों है। रामेश्वर के निवास पर काली तख्ती में सफेद स्याही से "एडवोकेट" लिखा हुआ है। तथा नीचे उनके दफ़्तर का पता और उनका मोबाईल नंबर। दोनों के मकान की छत से ठीक सौ कदम दूर, सदर मस्जिद के सामने सफेद रंग का मकान दिखता है, वह है उनके बचपन के खास दोस्त जनाब ज़ाकिर मुस्ताक अंसारी का। 


ये तीनों एक ही स्कूल में पढ़े हुए है, तथा इनकी तालीम राजकीय नेहरू विद्यालय से हुई है। बचपन का यह याराना इतना पक्का था कि ज़ाकिर साहब इनके चलते शहर छोड़ कर विदेश नौकरी करने नहीं गए। ज़ाकिर साहब अपने को सनातनी मुस्लिम कहते हैं, माने कि वह पैदा मुस्लिम हुए पर अपनाया सनातन को। और तीनों आज भी साथ होते हैं तो एक ही थाली में दाल का हलवा और आलू मटर की सब्जी पूड़ी लपेटते हैं। अब चाहे किसी को मधुमेह हो या फिर रक्तचाप परन्तु जिव्हा के आगे सभी मर्ज भूला देते हैं। 


प्रभात फेरी से लौट कर मंडली समर बाग में इक्कठी होती है और वहाँ शुरू होता है असली भजन। जब संग मिले कुछ पुराने यार तो भूल जाते जिंदगी के दुख चार। यहाँ समर बाग में उनके बाकी सहपाठी इंतजार करते हैं और शुरू होता है ठहाको का सिलसिला ......



आगे जारी .............