फरमाइश... 2 pooja द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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फरमाइश... 2

अगली सुबह जब उसकी आंख खुली तो उसे शोरगुल में वही मीठी मगर दबी सी आवाज सुनाई दी। 'पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ। कोई मजबूरी होगी' लेकिन जवान होती तेज गुस्सैल आवाज ने उसे बीच में काटकर कहा, 'जब उसे हमारी मजबूरी से कुछ लेना-देना नहीं तो हमें उसकी मजबूरी से क्या मतलब। दो साल से किराया तक नहीं बढ़ाया। किराया नहीं मिला तो इसका सामान सड़क पर रख देंगे।'

अनुज को जगा जानकर दूसरे कमरे में चुप्पी छा गई थी। अनुज को उस चिट्टी का मतलब अब समझ आया कि क्यों उसके मददगार ने उसे ये चिट्टी भेजी थी। उसके दिमाग में हुमा का नाम कौंधा। जरूर उसने ही खाने के बीच में अनुज को यह सूचना दी होगी ताकि वह मोहल्ले भर में बेइज्जती से बच सके।
 
अगली सुबह अनुज का ऑल इंडिया रेडियो में अनाउंसर का इंटरव्यू था। उस सुबह अनुज उस कमरे में ताला लगाकर जो निकला तो फिर वापिस नहीं आया।
 
नया शहर, नई नौकरी, नए लोग, नए दोस्त, नया कमरा ढूंढने की जद्दोजहद, इन सबमें वह देहरादून को लगभग भूल ही गया था। उसे बीच-बीच में पुराने मकान मालिक को छह-सात महीनों का बकाया किराया देने की बात याद आती।
 
फिर वह सोचता कि एक फोल्डिंग बेड और बिस्तर, एक पंखा, दो ट्यूबलाइट, एक स्टोव, कुछ किताबें और कपड़े मिलाकर इतना सामान तो वह छोड़कर ही आया है कि मकान मालिक का नुकसान न हो। उसे कई बार बड़ा मन होता कि वह उस मोहल्ले में जाए और उन आवाजों की खैरियत पूछे जिन्होंने बड़े गाढ़े वक्त में उसका बिना शर्त साथ दिया था। उसे आज भी यकीन नहीं होता था कि अपने हक का पैसा मांगने के लिए कोई कितना संकोची हो सकता है।
 
 
हां, वह अक्सर सोचता रहता कि पता नहीं कितनी शामों तक उसके लिए खाना परोसा गया होगा। अगर उस खाने के बीच कोई चिट्ठी आई होगी तो लेकिन चिट्ठी क्यों आई होगी, दो साल में सिर्फ एक बार ही चिट्ठी आई थी। लंबा अरसा गुजरने के बावजूद अनुज अपने ख्यालों में इन सवालों से आगे नहीं निकल सका था।
 
इन बातों को हुए भी एक लंबा अरसा गुजर गया था और अब अनुज ऑल इंडिया रेडियो के फरमाइशी गीतों के कार्यक्रम का सफल एनाउंसर बन चुका था। नए जमाने के FM और एक-दूसरे को मुर्गा या बकरा बनाते RJ के बीच उसकी अलग पहचान थी। उसकी गंभीर ठहरी हुई आवाज, अपने इलाके ही नहीं, वहां के लोगों, उनके कल्चर की अच्छी खासी जानकारी और हर उम्र के श्रोता के लिए अलग भाव-भंगिमाओं के साथ बात करना ही अनुज की खासियत थी। आवाज के दम पर किसी को जहां का तहां रोक लेना, उसकी खूबी थी। जिसे शायद अनुज ने दो साल तक देहरादून के एक मोहल्ले के एक बंद कमरे में बिना किसी खास ट्रेनिंग के केवल एक आवाज का पीछा करते सीखा था।
 
अनुज की जिंदगी भी सरकारी रेडियो के पूर्व नियोजित कार्यक्रम की तरह चल रही थी जब एक दिन उसके पास टूटी-फूटी हिंदी में एक ईमेल आया।
 
मैं हुमा। आपकी आवाज बहुत अच्छी है। पहली बार रेडियो पर ही सुनी। आपका प्रोग्राम भी बहुत अच्छा है। एक गीत की फरमाइश भेज रही हूं-
 
न जाने क्यों, होता है ये जिंदगी के साथ... फिल्म का नाम है- 'छोटी सी बात'
 
 
उस दोपहर अनुज पूरे समय इस ईमेल को बार-बार पढ़ता रहा। हो न हो यह वही देहरादून वाली हुमा थी। जिसने उसे दो साल तक खाना खिलाया था। उसी ने तो किराया न होने पर अनुज को चुपचाप निकल जाने को कहा था। उसने आखिर मुझे कैसे ढूंढ लिया? क्या वह इस शहर में ब्याह कर आई होगी? अब तो शायद उसके बच्चे भी काफी बड़े हो गए होंगे? क्या वह मेरी तरह घर से भागकर आई होगी? क्या उसने मेरा इंतजार किया होगा? लेकिन उसे कैसे पता कि मैं किस शहर में हूं और क्या करता हूं? मैंने शादी की भी है या नहीं?
 
ऐसे हजारों सवाल थे अनुज के पास, जिसका जवाब ढूंढने लायक न उसके पास दिमाग था और न ही हिम्मत ।
 
फिलहाल वह अपने रेडियो प्रोग्राम की तैयारी में लग गया था जिसकी शुरुआत वह 'छोटी सी बात' फिल्म के गाने के साथ करने जा रहा था।