काग़ज़ के फूल - संजीव गंगवार राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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काग़ज़ के फूल - संजीव गंगवार

ज़िंदा रहा तो मिली गालियाँमरने के बाद मिली  तालियाँदोस्तों... जाने क्या सोचकर यह टू लाइनर आज से कुछ वर्ष पहले ऐसे ही किसी धुन में लिख दिया था मगर अब अचानक यह मेरे सामने इस रूप में फ़िर सामने आ जाएगा, कभी सोचा नहीं था। तब भी शायद यही बात ज़ेहन में थी कि बहुत से लोगों के काम को उनके जीते जी वह इज़्ज़त..वह मुकाम..वह हक़ नहीं मिल पाता, जिसके वे असलियत में हक़दार होते हैं। मगर उनके इस दुनिया से रुखसत हो जाने बाद लोगों की चेतना कुछ इस तरह जागृत होती है कि उन्हें उनकी..उनके काम की अहमियत और कीमत का एहसास हुए बिना नहीं रह पाता। ऐसा किसी लेखक, कवि , चित्रकार, नग़मा निगार या किसी फ़िल्मकार के साथ भी हो सकता है। विज्ञान अथवा राजनीतिशास्त्र के लोग भी इस सबसे अछूते नहीं रह पाए हैं। साहित्य के क्षेत्र की अगर बात करें तो मेरे ख्याल से प्रेमचंद जी से बड़ा इसका कोई उदाहरण नहीं हो सकता। जिनका पूरा जीवन मुफ़लिसी और फ़ाका कशी में बीता लेकिन उनके जाने के बाद उनकी किस्मत ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि अब हिंदी साहित्य के क्षेत्र में उनका नाम एवं काम एक मिसाल बन चुका है। इसी तरह के कुछ अन्य उदाहरण विश्व साहित्य तथा फ़िल्मों के क्षेत्र में भी मिल जाएँगे। बॉलीवुड की अगर बात करें तो यहाँ भी प्रसिद्ध एक्टर, प्रोड्यूसर, डायरेक्टर राजकपूर तथा गुरुदत्त के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। राजकपूर की फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' और गुरुदत्त की फ़िल्म 'कागज़ के फूल' ऐसी ही फ़िल्मों के उदाहरण हैं। दोनों की दोनों फिल्में अपनी रिलीज़ के वक्त डिज़ास्टर साबित हो बहुत बड़ी फ़्लॉप साबित हुईं मगर इन्हीं फिल्मों ने बाद में ऐसा नाम कमाया कि हर तरफ़ इन्हीं की धूम मच गई।बॉक्सऑफिस पर 10-12 दिन भी न चलने वाली 'कागज़ के फूल' को आज संसार के लगभग 12 विश्वविद्यालयों में कोर्स के रूप में पढ़ाया जा रहा है।दोस्तों... आज मैं गुरुदत्त के जीवन और उनकी फिल्मों से जुड़ी जिस शोधपत्र रूपी किताब की मैं यहाँ बात करने जा रहा हूँ, उसे 'काग़ज़ के फूल' के नाम से लिखा है लेखक संजीव गंगवार ने। गुरुदत्त के आरंभिक जीवन से लेकर उनकी मृत्यु तक के सफ़र को कवर करती इस किताब में जहाँ एक तरफ़ उनके तंगहाली भरे बचपन और अभिनय, नृत्य एवं संगीत से उनके लगाव की बातें हैं तो दूसरी तरफ़ इसी किताब में सिनेमा के प्रति उनकी लगन... ज़ुनून एवं पैशन की बातें हैं। इसी किताब में जहाँ एक तरफ़ गीतादत्त से उनके प्रेम..विवाह और बिछोह से जुड़ी बातों पर लेखक प्रकाश डालते नज़र आते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ वे वहीदा रहमान से अकस्मात हुई उनकी मुलाक़ात के बाद उसके स्टार बनने की कहानी कहते दिखाई देते हैं। इसी किताब में कहीं वे गीतादत्त और वहीदा के बीच सैंडविच बने गुरुदत्त की मनोस्थिति पर मनन एवं चिंतन करते दिखाई पड़ते हैं तो कहीं वे प्यासा फ़िल्म के लिए दिलीप कुमार के हाँ करने के बावजूद भी शूटिंग पर ना आने और गुरुदत्त के मजबूरी में स्वयं नायक बनने की कहानी कहते नज़र आते हैं। कहीं वे गुरुदत्त की फिल्मों के सूक्ष्म निरीक्षण के बहाने उनकी कहानियों एवं एक-एक करके सभी दृश्यों की विभिन्न आयामों एवं नज़रिए से गहन पड़ताल करते नज़र आते हैं। तो कहीं वे उनकी फिल्मों में व्याप्त भ्रष्टाचार समेत अनेक मुद्दों पर पूरे समाज को ही कठघरे में खड़े करते दिखाई देते हैं। कहीं वे इस किताब के बहाने स्त्रियों के हक़ में अपनी आवाज़ उठाते दिखाई देते हैं तो बहुत सी जगहों पर वे उनकी फिल्मों में उठाए गए मुद्दों को विस्तार दे पाठकों पर अपनी सोच..अपना एजेंडा थोपते हुए से भी दिखाई देते हैं। कई बार लेखक/निर्देशक किसी वाकये या दृश्य को अपनी समझ के अनुसार लिख/फिल्मा तो लेता है मगर पढ़ने/देखने वाले उन्हीं दृश्यों या वाक्यों में से कुछ ऐसा खोज लेते हैं जिसके बारे में स्वयं लेखक/निर्देशक ने भी नहीं सोचा होता है। इन्हीं अनचीन्ही..अनछुई बातों से रु-ब-रु करवाती इस ज़रूरी किताब में पाठकों को बहुत कुछ ऐसा मिल जाता है जिस पर उन्होंने उस अलहदा नज़रिए से कभी सोचा...समझा एवं चिंतन नहीं किया होता। काग़ज़ के फूल, प्यासा और साहब बीवी गुलाम समेत उनकी सभी फिल्मों की बेहतरीन अंदाज़ में विस्तृत समीक्षा से सजी यह किताब बहुत सी जगहों पर दोहराव की भी शिकार हुई। जिससे बचा जाना चाहिए था। ■ किस तरह एक छोटी सी चूक या शब्दों के हेरफेर से अर्थ का अनर्थ होने में देर नहीं लगती, इसका उदाहरण भी इस किताब में पेज नंबर 196 में देखने को मिला।यहाँ लिखा दिखाई दिया कि..'यह फिर "काग़ज़ के फूल" को तुम्हारा वेस्ट वर्क मान लिया जाये'पहले बात तो ये कि यहाँ 'यह' की जगह 'या' आना चाहिए और दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये कि यह पूरी किताब गुरूदत्त के काम को 'कागज़ के फूल' के ज़रिए महिमामंडित किए जाने के लिए लिखी गयी है लेकिन यहाँ ग़लती से 'कागज़ के फूल' को ही उनका 'वेस्ट वर्क' यानी कि बेकार या वाहियात काम करार दिया जा रहा है। यहाँ सही वाक्य के लिए इसमें 'वेस्ट' शब्द की जगह 'बेस्ट/बैस्ट' शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए था।■ तथ्यात्मक ग़लती के रूप में मुझे पेज नंबर 29 में लिखा दिखाई दिया कि..'और फिर वर्मा शेल कंपनी में क्लर्क की नौकरी की'यहाँ ग़ौरतलब है कि कंपनी का नाम 'वर्मा शेल कंपनी' नहीं बल्कि 'बर्मा शेल कंपनी' था।पेज नंबर 80 में लिखा दिखाई दिया कि..'75000 से एक लाख की मामूली सैलरी वाले प्रशासनिक लोग महज़ कुछ वर्षों में ही करोड़ों की संपत्ति के मालिक हो जाते हैं'यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ बेरोज़गारी के अपने चरम पर होने की वजह से लोग दस-पंद्रह हज़ार रुपए महीने तक की नौकरी करने तक के लिए भी मारे-मारे फिर रहे हैं मगर उन्हें काम नहीं मिल रहा है। वहीं लेखक को जाने किस हिसाब से 75000/- से लेकर 1 लाख रुपए प्रति महीने तक का मेहनताना मामूली लग रहा है। भले ही वह किसी प्रशासनिक अधिकारी ही क्यों ना हो लेकिन उसे मामूली करार नहीं दिया जा सकता।इसी तरह पेज नंबर 124 में लिखा दिखाई दिया कि..'तुम्हारा गरम कोट कहाँ है'उसके बाद इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..'सिन्हा अपना गरम कोट उतार कर शान्ती को दे देते हैं और कहते हैं कि मैंने ब्राण्डी पी रखी है इसलिए मुझे कुछ नहीं होगा'इसके बाद आगे चलने पर यही गरम कोट जाने कैसे पेज नंबर 149 में एक रेनकोट में तब्दील हो गया।इस पेज पर लिखा दिखाई दिया कि..'एक रेनकोट से शुरू होकर एक स्वेटर तक की यात्रा करने वाली कितनी प्रेम कहानियाँ हमने देखी हैं'इसी पेज के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..'शान्ती और सिन्हा की यह प्रेम कहानी एक रेनकोट से लेकर एक स्वेटर तक का सफ़र तय करती है'इसके बाद पेज नंबर 170 में लिखा दिखाई दिया कि..'अर्थात यह जमींदार खानदान लूट के पैसे का कोई हिसाब-किताब नहीं रखता। बड़ा ही इज्जतदार घराना है और मजे की बात यह कि स्त्रियों की हालत इस इज्जतदार घराने में सोचनीय है'यहाँ पहली बात तो यह कि यहाँ 'सोचनीय' की जगह 'शोचनीय' आएगा और दूसरी बात के रूप में यहाँ मुझे बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि स्त्रियों की शोचनीय हालत किसी के भी लिए मज़े की बात कैसे हो सकती है?■ वाक्य विन्यास की दृष्टि से भी इस किताब में कुछ कमियाँ नज़र आईं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 31 में लिखा दिखाई दिया कि..'गुरुदत्त अपने कैमरे के प्रति मामा बेनीवाल की सख्ती के बाबजूद उनका कैमरा इस्तेमाल कर लेते थे'यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..''गुरुदत्त कैमरे के प्रति अपने शौक़ की वजह से मामा बेनीवाल की सख्ती के बावजूद उनका कैमरा इस्तेमाल कर लेते थे'पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..'माँ अपने बड़ो बेटों के व्यवहार से खुश नहीं थी'यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..'माँ अपने बड़े बच्चों (बेटों) के व्यवहार से ख़ुश नहीं थी। इस किताब को पढ़ते वक्त इसमें कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग की भी कमियाँ दृष्टिगोचर हुईं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 13 में लिखा दिखाई दिया कि..'उसके कपड़े और ओढ़ी हुई साल गीली हो गई थी'यहाँ 'ओढ़ी हुई साल' की जगह 'ओढ़ी हुई शॉल' आएगा। पेज नंबर 24 में लिखा दिखाई दिया कि..'गुरु ने वहीदा को 'प्यासा' में अभिनय दिया'यहाँ 'वहीदा को 'प्यासा' में अभिनय दिया' की जगह 'वहीदा को 'प्यासा' में अभिनय का मौका/अवसर दिया' आना चाहिए। पेज नंबर 60 में लिखा दिखाई दिया कि..'यह अलग बात है कि आज भी इस फ़िल्म को ठीक से समझा न गया हो'यहाँ 'आज भी इस फ़िल्म को ठीक से समझा न गया हो' की जगह 'आज भी इस फ़िल्म को ठीक से समझा नहीं गया है' आना चाहिए।पेज नंबर 90 के पहले पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..'यहां तक की उनके घर-परिवार, बच्चे, मित्र और समाज में सभी लोग प्रतिदिन नियम से उनकी आलोचना करते हैं' यहाँ 'यहां तक की उनके घर-परिवार' में 'की' की जगह 'कि' आएगा। पेज नंबर 107 में लिखा दिखाई दिया कि..'उसके निहत्थे प्रश्न समाज के प्रभु वर्ग में हलचल पैदा करते हैं'यहाँ 'प्रभु वर्ग' की जगह 'प्रबुद्ध वर्ग' आएगा। इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..'जहां उसकी बुत की पूजा हो रही है'यहाँ 'उसकी बुत की पूजा हो रही है' की जगह 'उसके बुत की पूजा हो रही है' या फ़िर यहाँ 'बुत' की जगह 'प्रतिमा' शब्द का इस्तेमाल किया जाता तो यह वाक्य सही रहता। पेज नंबर 119 में लिखा दिखाई दिया कि..'अर्थात रॉकी की भूमिका हास्य उत्पन्न करके फ़िल्म के निराशावाद को कम करना है'यहाँ 'रॉकी की भूमिका हास्य उत्पन्न करके फ़िल्म के निराशावाद को कम करना है' की जगह 'रॉकी की भूमिका ने/को हास्य उत्पन्न करके फ़िल्म के निराशावाद को कम करना है' आएगा।पेज नंबर 159 में लिखा दिखाई दिया कि..'बाकी दुनिया के दिखाबे तो ढकोसले हैं'यहाँ 'दिखाबे' की जगह 'दिखावे' आएगा। इसी तरह की एक कमी पेज नंबर 160 में भी छपी दिखाई  कि..'अब सिन्हा साहब के इस वक्तव्य का जबाब शान्ती देवी क्या देती हैं'यहाँ 'शान्ती' की जगह 'शांति' और 'जबाब' की जगह 'जवाब' आएगा। पेज नंबर 172 में लिखा दिखाई दिया कि..'पुरुष पुरुष प्रधान वर्चस्व का समाज' इस वाक्य में 'पुरुष' शब्द ग़लती से दो बार छप गया है।पेज नंबर 177 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..'छोटी बहू के मुंह में जबरन शराब की बोतल उड़ते हैं'यहाँ 'मुंह में जबरन शराब की बोतल उड़ते हैं' की जगह 'मुँह में जबरन शराब की बोतल उड़ेलते हैं' आएगा। पेज नंबर 180 में लिखा हुआ दिखाई दिया कि..'लेकिन छीनी गई संपत्ति की यही नियत होती है जैसा कि फ़िल्म में दिखाया गया है'यहाँ 'लेकिन छीनी गई संपत्ति की यही नियत होती है' की जगह 'लेकिन छीनी गई संपत्ति की यही नियति होती है' आएगा।पेज नंबर 183 के शुरू में लिखा दिखाई दिया कि..'आज सभी राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय संदर्भों में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना की फ़िल्म में'यहाँ 'जितना की फ़िल्म में' में 'की' की जगह 'कि' आएगा। पेज नंबर 194 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..'दुनिया का कोई भी बड़ा सेफ़ कोई स्त्री नहीं है'यहाँ 'सेफ़' की जगह 'शेफ़' आएगा। पेज नंबर 196 में दिखा दिखाई दिया कि..'जबकि सुरेश सिन्हा को ट्रेजडी सामाजिक ट्रेजडी थी जिसे तुमने कितने यत्न से गढ़ा था' यहाँ 'सुरेश सिन्हा को ट्रेजडी' की जगह 'सुरेश सिन्हा की ट्रेजडी' आएगा। पेज नंबर 199 में लिखा दिखाई दिया कि..'ट्रिंग-ट्रिंग की आवाज़ उसे मीरव वातावरण को कोलाहल से भर रही थी'यहाँ 'मीरव वातावरण को कोलाहल से भर रही थी' की जगह 'नीरव वातावरण को कोलाहल से भर रही थी' आएगा।• फ़्लॉफ - फ़्लॉप• ओढ़ी हुई साल - ओढ़ी हुई शॉल• शाप - श्राप • बेबड़ा - बेवड़ा• शान्ती - शांति• बाबजूद - बावजूद• खीचँता - खींचता• अंशका - आशंका• जुआँ - जुआ• आत्यन्तिक - अत्याधिक• व्यंग - व्यंग्य• हूनर - हुनर • प्रभु वर्ग - प्रबुद्ध वर्ग• आसूँ - आँसू• ऊचाइयों - ऊँचाइयों• शिगार - सिगार• सोचनीय - शोचनीय • अबरार अल्बी - अबरार अल्वी • पर्तें - परतें • दिखाबे - दिखावे• जबाब - जवाब • सड़ाँद - सड़ांध• खुद व खुद - खुद-ब-खुद• सेफ़ - शेफ़ (शेफ़)- [रसोइया] • गाडियाँ - गाड़ियाँ• मीरव - नीरव • जागिंग - जॉगिंगमहत्त्वपूर्ण विषय पर गहन शोध के साथ को लिखी गयी इस ज़रूरी किताब के 200 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधरस प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 349/- रुपए। किताब की बढ़िया क्वालिटी होने के बावजूद भी मुझे इसके दाम थोड़े ज़्यादा लगे। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक कोबहुत-बहुत शुभकामनाएं।