लड़के कभी रोते नहीं Dev Srivastava Divyam द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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लड़के कभी रोते नहीं


आया था मैं जब दुनिया में,

मां बाप मेरे थे मुस्करा उठे ।

इकलौता ऐसा दिन था जब रोता देख मुझे,

वो दोनों थे खुश हो रहे ।

क्योंकि उसके बाद फिर कभी आई नहीं,

आंखों में आंसू की धार मेरे ।

चलने की कोशिश में जब गिरता था मैं,

आंसू की बूंदें आईं आंखों में मेरे ।


लेकिन मेरे रोने से पहले ही,

एक आवाज पड़ी कानों में मेरे ।

लड़की नहीं हो तुम फिर,

ये आदत किसने लगाई तुम्हें !

फिर ये बात सिखाई, 

मिल कर मुझको सभी ने । 

लड़का हो तुम और,

लड़के कभी नहीं हैं रोते ।


छोटा था मैं इतना कि,

समझ इतनी नहीं थी मुझमें ।

फिर चोट लगने पर भी सदा,

आंसू अपने लगा रोकने ।

बड़ा हुआ फिर धीरे धीरे ,

ये बात बिठा कर अपने मन में ।

कुछ भी हो जाए, आंसू कभी भी,

नहीं आ सकते इन आंखों में ।


बचपन से ही टॉपर था मैं,

डिगा आकर के नौवीं में ।

क्योंकि उस वक्त मिला था धोखा,

मुझको अपनी दोस्ती में ।

सबसे अच्छा दोस्त था छूटा,

एक छोटी सी गलतफहमी से ।

रोना भी आता था मुझको पर,

रोक लेता था आंसू इन आंखों में ।


फिर खुद ही संभाला खुद को,

आगे बढ़ा इस जिंदगी में ।

क्योंकि ये सब सोचने का,

समय नहीं था मेरे जीवन में ।

सपना था कि फौजी बनूं मैं,

देश का रक्षक बन करके ।

पर मेरे इस सपने से,

मेरी मां डरती थीं ऐसे ।


लडूंगा सीमा पर खड़े हो,

एक मैं ही अकेला जैसे ।

खैर, छोड़ दिया इस सपने को,

और ख्वाब नया देखा मैंने ।

वैज्ञानिक मैं बनूंगा और,

आविष्कार करूंगा नए नए । 

पर इसी वक्त पिता भी मेरे,

साथ हमारा छोड़ गए ।


कांधे पर लेकर अर्थी उनकी,

शमशान घाट पहुंचा था मैं ।

किसी ने ना पूछा हाल मेरा,

कि अंदर से कैसा हूं मैं ।

तब भी मैं रो ना सका था,

इस धारणा के कारण समाज के ।

इस छोटी सी उम्र में थी आ गई,

परिवार की जिम्मेदारियां मुझ पे ।


सपने सारे छोड़ कर अपने,

काम करने चल पड़ा मैं ।

ख्वाबों कर अपने जला कर अर्थी,

जिम्मेदारियां पूरी करने लगा मैं ।

तकलीफ तब भी बहुत हुई थी,

पर रो नहीं सकता था मैं ।

कहने को था बहुत कुछ पर,

किसी को कुछ बता नहीं सकता था मैं ।


धीरे धीरे ये समय भी बीता,

और वो आई मेरे वीरान जहां में ।

लगा था कि संगिनी होगी मेरी,

वो इस जालिम दुनिया में ।

खोल कर दिल के दरवाजों को, 

इसमें उसे बसाया था मैंने ।

पर जब मुझको छोड़ गई वो,

तब भी रो नहीं सका था मैं ।


उससे भी कुछ बोल न पाया,

जिस लड़की से शादी की मैंने ।

आखिर वो भी आई थी अपना,

घर छोड़, मेरे मकान को घर बनाने ।

जब बेटी फूल सी मेरी आई, 

पहली बार इन हाथों में मेरे ।

आंखें तब भी भर थीं आईं,

जिन्हें बहने से रोका था मैंने ।


लेकिन सब सोचा सब कुछ,

मैंने अपने बुद्धि विवेक से ।

तब जाकर पहुंचा था मैं,

इस सही निष्कर्ष पे ।

किसने ये निर्णय लिए और,

किसने ये ऐसे नियम बनाए ।

मर्द को दर्द नहीं होता,

हमें ये संभाषण दिए ।


इन्हीं विचारों के चलते,

बाहर से मजबूत बना रहा मैं ।

लेकिन अंदर ही अंदर था,

पूरी तरह से टूट रहा मैं ।

जिस बात का कोई अर्थ नहीं,

उसको था लेकर चल रहा मैं ।

हो गया बहुत अब खुद को,

और प्रताड़ित नहीं करूंगा मैं ।


रोए थें कृष्ण भी तब जब,

राधा का वियोग हुआ था उनसे ।

और तब भी रोए थे जब द्रौपदी का,

हुआ था चीरहरण बीच सभा में ।

रोए थे मेरे राम लला भी, 

माता सीता के वियोग में ।

जब क्रोधित होकर इस संसार से,

समा गई थीं वो धरा में ।


इस समाज के आदर्श है जो,

उनके भी आंसू बहे थे ।

फिर हम लड़के आखिर,

क्यों नहीं रो हैं सकते ।

क्यों जब कोई लड़का रोए,

तो हम उसे लड़की हैं बोलते ।

क्या सिर्फ लड़कियों को हक है रोने का,

हम लड़के क्यों नहीं रो सकते ।


बस बहुत हुआ अब ये सब नहीं,

सिखाऊंगा मैं बच्चों को अपने ।

छूट दूंगा उनको कि वो,

पूरे करें अपने सारे सपने ।

भेद कोई नहीं रखूंगा,

अपने बेटी और बेटे में ।

सारे हक बेटी को दूंगा तो बेटे को भी,

अधिकार होगा कि वो भी रो सके । 


पूरा जीवन लग गया मेरा,

केवल ये बात समझने में ।

लेकिन नहीं आने दूंगा,

ये सवाल मेरे बेटे के मन में । 

अधिकार होंगे उसको कि वो भी,

अपने दिल की बात कह सके ।

जरूरत पड़े तो आंसू बहा कर,

अपने दिल को हल्का कर सके ।


जो कुछ भी सह है मैंने अब, 

उनको नहीं सहने दूंगा मैं ।

गलत धारणाओं को खत्म कर,

बदलाव ये करूंगा मैं ।

और अब ये परिवर्तन जरूरी है,

केवल मुझमें ही नही, बल्कि इस समाज में ।

समझना होगा लोगों को भी कि,

लड़कों के दुख पर भी ध्यान दें ।


~ देव श्रीवास्तव " दिव्यम "✍️