स्पंदन
मनोगत
अपना पुरा ब्रम्हांड चक्राकार रुप में घुमता रहता है। उसकी घुमने की प्रक्रिया बहुत ही धीरे से चलती रहती है। कभी-कभी व्यक्ति जीवन के सफर में पिसते हुए ऐसे निर्णायक मोड पर आकर रुकता है की संसार में सिर्फ दुःख, कष्ट बिमारिया ही फैली हुई है। ऐसे जगत में रहना अब हमे मंजुर नही, तब व्यक्ति साधनाद्वारा इस भवसागर से मुक्त हो सकता है। फिर वह साधना किसी भी रुप में हो। जगत में साधना विधी के अनेक प्रकार मौजुद है, जैसे जिसकी इच्छा या स्वभाव के अनुसार व्यक्ति साधना विधी को अपनाता है। यहाँ झेनयोग के बारे में कुछ बताना चाहती हूँ।
झेनयोग यह बौद्ध परंपरा का जपानी नाम है। अनेक विधीयों की तरह इस में भी जीवन का अर्थ समझाने का प्रयास किया गया है। मनुष्य अपनी आत्मिक उन्नती इस साधनाद्वारा पा सकता है। मनुष्य कोई जात-पंथ का हो, या अमीर-गरीब। अपने वकुब के अनुसार वह ईश्वर प्राप्ती की कोशिश करता रहता है। ईश्वर भक्ती के कारण अलग-अलग हो सकते है। बाह्य या अंतर्गत रुप में भक्ती की जाती है। व्यवहारीक यश, आंतरिक शांती, कुटुंब सौख्य, विश्वकल्याण, अर्थार्जन ऐसे कई पैलू हो सकते है। इस सब में नींव तो ईश्वर ही है। एक बार ईश्वर सान्निध्य के पास पहुँच गए तो बाह्य विवंचनाओं की परते वही पर गिरने लगती है ओैर मानवी मन अनुभव करता है एक नितांत निर्मम शांती की अवस्था। हर मनुष्य के कर्म के अनुसार ईश्वरीय राह पर चलते हुए कुछ अनुठे शांती के पल उसे प्राप्त होते ही है। मनुष्य की मुलभूत माँग कर्मबंधन से मुक्ती या आत्मसाक्षात्कार यही रहती है। नवविधा मार्ग के सुक्ष्म विचार, ज्ञान, इनका, झेनयोगा के माध्यम से आकलन होने लगता है। अष्टांग योग में जो आठ स्टेप्स बताए है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधी इन सबका व्यवहारिक जीवन में किस तरह से समावेश रहता है इन बातों का परिचय झेनयोगा करा देता है। इससे पता चलता है की यह अष्टांग योग अपने जीवन में किस तरह से काम करते है, इस से क्या फलप्राप्ति होती है? कौनसे महत्वपूर्ण योगदान जीवन में समाए रहते है? ओैर इस अष्टांग योग के विपरीत हम जब क्रियाएँ करते है तब जीवन कैसे बेताल हो जाता है इसका ज्ञान झेनयोग द्वारा होने लगता है। मेंदू प्रक्रिया के उपर जो ज्ञान दर्शाया गया है, एकबार वह समझ में आने लगा तो जीवन शैली की विस्तृतता, सखोलता जानकर अचरज होता है। आँखों से देखना, कानों से सुनना प्रक्रिया में से निर्माण होनेवाले विचार, फिर उसके अनुरूप होनेवाली प्रतिक्रिया इन सबका कैसा संयोजन है यह ध्यान में आने लगता है। ज्ञान के माध्यम से एकाग्रता साध्य करना यही झेनयोगा का प्रमुख उद्दिष्ट है। यह करना है, ऐसे होना ही चाहिये, इस प्रकार की कोई भी भावना के बिना सहज सरलता से यह मार्ग शुरू रहता है। पाप-पुण्य संकल्पना के परे व्यक्ती जा सकता है। कोई भी व्यक्ती, अथवा घटना अच्छी या बुरी नही होती। यह तो अपना-अपना देखने का नजरिया है। विचार है। यह बात समझ में आने लगती है। हर बात का अलग-अलग मतलब निकाले बिना जो काम कर रहे है वह मन लगाकर करते रहना, उसमें आनंद लेना यही झेनयोगा का अभ्यास है। कितनी भी बाधा, संकट जीवन में आ जाए फिर भी जीवन के प्रती अपना उत्साह, उमंग, रुचि कायम रखनी है। जीवन में सब से बडी समस्या यह है की अपने दिनचर्या के प्रति उदासिनता (बोअरडम) आना। व्यक्ती रोज जीवन में कुछ अलग बदलाव नजर आए यह ढुँढता रहता है। रोज की दिनचर्या से उब जाता है। इसमें से बाहर निकलने के लिए मनोरंजन साधनों के प्रति आकर्षित हो जाता है। लेकिन उसमें भी वह जादा देर तक जुड नही पाता क्युँ की भौतिक आनंद क्षणिक होते है। कुछ देर बाद मन को नया कुछ चाहिए होता है। कोई भी रस्ता अपनाओ बोअरडम का सामना तो करना ही पडता है। उसका सामना करते हुए अपने लक्ष की ओर चलते रहे तो मंजिल तक पहुँच ही जाते है ओैर जीवन का आनंद भी अबाधित रहता है। बिना असहजता से परिस्थिती से निकल सकते है क्या? ऐसा कौनसा काम है जो पुरा होने तक लगातार श्रम कर सकते है? मानवी भाव-भावनाओं के खेल से हम कितने दूर रह सकते है? इन सब सवालों की परीक्षा जीवन लेता रहता है। ऐसे सवालों के जबाब बिना बोअरडम के देते रहे तो जीवन से मुक्ती का मार्ग दूर नही। यही सब बाते झेनयोगा मास्टर सर पी. जे. सहरजी विस्तृत रुप से समझाते है।
उनका एक विश्लेषण तो मन को छु जाता है। कहते है “ केवल दुसरों के विचार ओैर अनुभव सुनकर जो साधना मार्ग चुनते है, उनको सामनेवाले के किए हुए अभ्यास, निरंतर परिश्रम के बारे में ज्ञान होगा ही यह संभव नही। सामनेवाले व्यक्ती को यह अनुभव आया है तो मुझे भी आ जाएगा इस आशा के बलपर साधना शुरू कर देता है ओैर थोडे काल के पश्चात निश्चित रुप में परिणाम ना पाकर निराश होते हुए पुन: मार्ग से भटक जाता है। केवल उत्साह, उमंग से भरे मन से ही जीवन सृजनात्मक हो सकता है। सृजनात्मकता से किया हुआ कोई भी काम बोअर नही होता। ऐसे काम में नाविन्य, सजीवता भरी रहती है। गहरी रुचि यही जीवन की नींव है।
इसी संदर्भ में सर पी. जे. सहरजी ने ओैर एक अच्छा विश्लेषण बताया है। अपने जीवन में व्यक्ती एक सातत्यतापूर्ण स्थिती अनुभव करता है। विचारों का तुफान जब तक नही आता तब तक मन निष्क्रिय अवस्था में रहता है। यंत्रवत जीवन चलता रहता है। जब विचारों का तुफान आता है तब एक प्रकार का मंथन होकर बाद में गहन रुची की प्राप्ती हो जाती है। इस तरह का व्दंव्द सुखावह नही रहता। जो व्यक्ती ऐसे विचारों के तुफान में अटकता है वह ऐसी संघर्षतामय स्थिती से हार मानकर उसमें से बाहर निकलने का रास्ता ही भुल जाता है। मन में अंतर्विरोधी इच्छाओं का हैदोस चलता रहता है। इस कारण उसके मन में अजिबो गरीब खयालों के भ्रमजाल फैल जाते है। इस अवस्था में अयोग्य निर्णय का खतरा मँडराता है। भ्रमित विचारों के साथ ना बहते हुए व्यक्ती अपना होश सँभालकर विचारों का परीक्षण करने के क्षमता में आ जाए तो अपने आप सब विचारों का जाल नष्ट हो जाता है। मन में एक प्रकार की शांती फैल जाती है। परिणाम स्वरूप वासनाओं ( इच्छा-आकांक्षा ) का शुद्धीकरण होकर मानसिक दृष्ट्या जीवन के प्रती नया दृष्टिकोण प्राप्त होता है। व्यक्ती सतर्क या जागरूक नही होगा, तब तो खुद झुठे सुरक्षित वातावरण के भ्रम में जिता रहेगा। पर यह सब व्यर्थ है। जीवन की क्षणभंगुरता को जितना जागरूकता से स्विकार करेंगे उतने ही फँसा देनेवाले क्षण कम होते जाएँगे। जीवन की क्षणभंगुरता मतलब मृत्यु नही। जीवन कभी भी अपनी स्थिती, रुप, विचार एक जैसे नही रखता है। हर सुबह शाम नई आती है ओैर गुजर जाती है। लगता है कल के जैसा ही आज का दिन है, पर उन दोनों में कितना अंतर है यह बात व्यक्ती स्वयं अपने विचारों का परीक्षण करते हुए जान सकती है।
डॉ. पी. जे. सहरजी इनके झेनयोगा किताबों ओैर डॉ. आशिष शुक्लाजी के व्हिडिओं को सुनकर किया हुआ अभ्यास आपके जीवन को नया दृष्टिकोन जरूर प्राप्त कर देगा।
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प्रस्तावना
झेनयोगा की कुछ किताबे पढने में आ गई, व्हिडिओ देखे गए ओैर ऐसा लगा की मानो एक अनोखी दृष्टी जीवन के प्रती प्राप्त हो गई है। वही सृष्टी, वही जीवन सालों से जी रहे थे, पर अब एक नया आयाम सामने आ गया। ऐसे लगता है की जो बात मैं जान गई हूँ वह सबको बता दुँ। यह स्वभाव का नियम है, लेकिन यह जरूरी नही लोगों को तुम्हारे बातों में कुछ दिलचसपी होगी, क्युँ की कुछ लोग इन अनुभवों से गुजर कर आगे भी जा चुके होते है, ओैर कुछ पिछे भी हो सकते है। मार्ग पर चलते दिखाई देते है। कोई बात नही, मुझे यह सब लिखने पढने में बहुत मजा आ गया। वही आनंद ले रही हूँ। इस किताब में, मैं ऐसा कोई भी दावा नही करती हूँ की यह कहानियाँ स्व-रचित है। जो अच्छा लगा, कही लोगों को अलग दृष्टिकोन पसंद आ गया, तो कई जीवन की कडियाँ सुलझ सकती है। इसी भावना से इन कहानियों पर विश्लेषण लिखा है। यह लिखते हुए एक तरह मेरी भी पढाई हो गई। यह सब कहानियाँ बचपन से लेकर बुढापे तक सुनते ही रहते है। उम्र के अनुसार तथा व्यक्ती के परिस्थितीनुसार मायने बदल जाते है। हर कोई अपना विचार इन में शामिल करते हुए कहानी को अलग रुप दे देता है ओैर दोहराता है। सब धर्म, पंथ में यही कहानियाँ बताई जाती है। भगवद्गीता कितने सालों में कितने लोगों ने अपने दृष्टिकोन से लिखी। हर एक व्यक्ती की अपनी साधना पद्धती, इतने भगवान के पास पहुँचने के द्वार है। रास्ता एक ही है एकाग्रता का। इसमें कोई गलत या सही यह बात कही ही नही जा सकती। अपने-अपने विचार से हर व्यक्ती सही ही होता है। सिर्फ एक दुसरे के साथ विचारों का मेल ना बैठने पर झगडे शुरू हो जाते है। गीता की अगाधता यही है की हर एक साधना मार्ग का उल्लेख इस में आप पा सकेंगे। ऐसे ही कथाओं पर विश्लेषण करते हुए यह सँकलित की हुई कहानियाँ आपको सोंप रही हूँ। इन कहानियों को कोई ओैर अलग दृष्टिकोन से सुनाए तो वह मुझे बहुत अच्छा लगेगा।
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१ : मन का भारीपन
फा-येन नामक झेनगुरुने एकबार अपने दो शिष्यों को बाते करते हुए सुना। वह दोनो वस्तुनिष्ठता ओैर विषयनिष्ठता पर चर्चा कर रहे थे। बातों को सुना, तो वह भी चर्चा में शामिल हो गए। चर्चा सुनने के बाद उन्होंने शिष्यों से पुछा “ यहाँ एक बडा पत्थर है। तुम्हारे विचार से यह पत्थर तुम्हारे मन के अंदर है या बाहर है ?” गुरु के सवाल पर एक शिष्य ने जबाब दिया की “ बौद्ध धर्म के दार्शनिक दृष्टी से देखा जाय तो सब वस्तु मानस स्तर पर वस्तुनिष्ठिकरण है। इस बात पर मैं इतना ही कह सकता हूँ की, यह जो पत्थर है वह मेरे मन के भीतर है।”
शिष्य के जबाब पर झेनगुरू ने कहा “ तो फिर तुम्हारा मन बहुत भारीपन महसुस करता होगा ?”
मतितार्थ, जगत में जो भी वस्तु, दृश्य, आपको दिखता है वह जैसा दिख रहा है वैसे ही देखना है ओैर वही पर उसे मन से बाहर कर देना है। बाह्य चीजे या जगत, मन में समाते रहे तो एक प्रकार का बोझ मन अनुभव करता रहता है। उन्ही इकठ्ठा हुई यादों को या दुसरों के अनुभवों की परते चढते-चढते उनकी गाँठे बन जाती है ओैर इससे बिमारियाँ हो जाती है। मेंदू को बार-बार देखे हुए ओैर सुने हुए क्रियाओं का विश्लेषण करने के बाद प्रतिक्रिया देते रहना इससे मेंदू की शक्ती क्षीण होने लगती है। दिमाग काम करना बंद कर देता है। जब जीवन में कुछ हासिल करने का इरादा मन में रखते है ओैर चाहिये-चाहिये की रट लगा रखते है तब तक मन असंतुष्टता, नाराजी से भरा रहता है। जो कुछ पाने की लालसा मन में है वह पाने के लिए अतिश्रम की गर्तता में घुमता रहता है। इसी के साथ आती है थकान, ताण-तनाव। मन की इच्छापूर्ती होने के बाद पाई हुई चीज का महत्व वही पर खत्म हो जाता है। मन वहाँ रुकता नही फिर दुसरे चीज के प्रति आकर्षित हो जाता है, फिर वही चाहिये रे, चाहिये रे की रट शुरू हो जाती है। तो क्या कभी कुछ पाने की इच्छा ही नही रखनी चाहिये? ऐसा तो कुछ नही सिर्फ सहजता से अपने परिश्रम करते रहने है। इससे मन पर ओैर शरीर पर भी तनाव महसुस नही होता। किसी तत्वता की आलोचना लोगों के सामने नही करती रहनी चाहिये। तुम क्या विचार करते हो ? कौनसा काम करते हो? कैसे, क्युँ करते हो इससे लोगों को कुछ मतलब नही होता। उनके सामने अपने भी काम होते है, सिर्फ कुछ पल के लिए वह तुम्हारे बातों में रुची दिखाते है। लोगों ने बार-बार तुम्हारे विचारों की सरहना करनी चाहिये यह बात तो गलत है। यह तो तुम्हारे मन में पडा भारी पत्थर है। अपने काम में मजा आए यही जीवन की खुशहाली है। लोगों की निंदा सुनकर तो मन पत्थर जैसा भारी हो जाता है। ऐसी बाते, लोग मन के बाहर ही रखने चाहिये। अपने में रहकर जीओ, वही असली निर्मल जिंदगी है।
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२ : खुली मुठ्ठी ओैर बंद मुठ्ठी
एक दिन झेनगुरू मोकुसेन हिकी के एक शिष्य ने गुरु को बताया की, अपने पत्नी के कंजूषी भरे व्यवहार से मैं परेशान हो गया हूँ।
मोकुसेन अपने शिष्य के साथ उसके घर चले गए। शिष्य ओैर उसकी पत्नी ने बडे आदर से गुरु का सत्कार किया। बाद में गुरु ने शिष्य की, पत्नी के सामने अपनी बंद की हुई मुठ्ठी फेर दी ओैर कहा मुझे बताओ इसका क्या मतलब है? पत्नी, गुरु के इस बात का मतलब नही समझी तो बोली “ मैं क्या जानू गुरुवर, आप क्या बताना चाहते हो ?”
“ अगर मेरी मुठ्ठी हमेशा ऐसे ही बंद रही तो तुम इस बात का क्या मतलब निकालोगी?”
“ मैं समझूंगी की आपके हाथ में दर्द है इसलिए आपने हाथ ऐसे पकड के रखा है।”
मोकुसेन ने अब अपना हाथ पसारकर उसके सामने रखा ओैर कहा “ अब यह हाथ हमेशा ऐसे ही फैलकर रखा तो इसे क्या कहोगी ?”
तो यह भी एक तरह का अनैसर्गिक कृत्य है, लकवा है।
“ अगर यह सब बाते तुम समझती हो, तो तुम एक अच्छी पत्नी हो।” इतना कहकर गुरु वहाँ से चले गए। महिला बहुत ही समजदार थी। गुरु के इस बात का मतलब वह अच्छी तरह से समझ गई ओैर कभी भी अपने पती को उसने शिकायत का मोका नही दिया।
मतितार्थ, संसार में किसी बात को जादा खिंचना अच्छी बात नही है। कभी संभालकर खर्च करना चाहिये तो कभी जीवन आनंद उपभोग के लिए अथवा जरूरत के नुसार खर्च करना चाहिये। पैसे का विनियोग यह एक कला है। कोई भी बाजू कमजोर हो गई तो सबको परेशानी उठानी पड सकती है। इसिलिए संसार में सामंजस्य ओैर धन का योग्य रिती से विनियोग करना आवश्यक है। अति निर्बंध की मात्रा सबको जाचक हो सकती है, ओैर जादा छूट से दुरुपयोग हो सकता है। बेहतर है जरुरतों को पुरा करते-करते कभी अपनी मुठ्ठी बंद रखनी है तो कभी खुली रखनी है। गुरु के इस ज्ञान का सबको फायदा ही होता है।
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