सरकार और सेसर Yashvant Kothari द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

सरकार और सेसर

 

ताज़ा व्यंग्य 

                         सरकार और सेंसर 

सरकार हे  और सरकार का   सेंसर  बोर्ड  हें. जो सरकार के हिसाब से चलता हें. नहीं  तो इस्तीफे की गंगा में बह जाता हैं मेरा सवाल हैं की केवल फिल्मों के लिए ही सेंसर बोर्ड क्यों. ? जब दुनिया भर के चैनलों पर  बिना सेंसर के अश्लील धारावाहिक  प्रसारित हो रहे हैं , तो फिर फिल्मों को सेंसर करने का क्या मतलब रह जाता हैं, समाचारों के चैनलों को छोड़ कर सभी चैनलों को सेंसर के दायरे में नहीं लाया जासकता तो फिल्मों पर से  भी सेंसर के प्रमाणीकरण की   क्या जरूरत हें. लेकिन सरकार जानती हैं की सेंसर बोर्ड में काम अटकने से बहुत से काम   सधते हैं। बोर्ड  को स्वायत्तता हैं लेकिन नियुक्ति सरकार के हाथ में हैं। बोर्ड  की साख खत्म हैं, भ्रस्टाचार का  बोलबलाहें, अक्सर सवाल उठते  हैं, लीकेज   सिपेज की ख़बरें आती रहती हैं और सरकार का बोर्ड कछुए की गति से चलता रहता हें. 

सेंसर  के करता धर्ता  क्या करते हैं, कैसे करते   हैं यह किसी से छिपा नहीं हें. सेंसर के नाम पर  दलीले होती हे, दलाल होते हें., दलाली होती हैं, वहां वो सब हैं जो ऐसे कामों में होता हें. 

सामाजिक जिम्मेदारी के नाम पर  क्या क्या नहीं होता, ए  को यू  कमें  बदलना   यू  को ए  में  बदलना , और अपना उल्लू सीधा करना। 

१९१८ में बना यह बोर्ड प्रासंगिकता खो चूका हैं  इसे भी योजना आयोग के रस्ते पर भेज दिया जाना चाहिए. भारतीय सिनेमा के भी अच्छे दिन आने चाहिए. सेंसर केकाटे  गए सीन तक बाद में जोड़ दिए जाते हैं , फिर सेंसर का क्या औचित्य हैं , वैसे फिल्मों से ज्यादा बोल्ड तो सीरियल्स हो गए हैं वो कल्चर खत्म हो गया हैं जिसमे पूरा परिवार एक साथ फिल्म देखता था, फिर महीनों फिल्म की चर्चा होती थि.  अब फ़िल्में शुकरवार से शुकरवार  तक चलती हैं , करोडो अरबों का व्यापार  हैं और सेंसर बोर्ड की पांचों उँगलियाँ घी में व् सर   कड़ाही में। 

 पकडे जाते हैं, फिर बोर्ड में घुस जातें हैं नीति आयोग की तरह ही सेंसर बोर्ड के स्थान  पर एक फिल्म नीति आयोग की जरूरत हें. वैसे भी सरकार करे तो संपादन जनता करे तो   सेंसर। एक बार एक सरकार ने सेंसर शिप लगाई थी जनता ने सरकार को ही नकार दिया. बोर्ड को विचार औरराजनीती   दूर रखा  जाना चाहिए.  सरकारों को विचार    की राज नीति    के स्थान पर जन समस्याओ की , विकास की राजनीती करनी  चाहिए. 

सेंसर और संपादन की बहस पुरानी हैं , आगे भी चलती रहेगीं मगर क्या सेंसर बोर्ड की कोई जरूरत हें. जब   जरूरत ही नहीं हैं तो जनता के पैसे की बर्बादी क्यों। 

अक्सर फिल्म देखने का कारण  ही सेंसर बोर्ड होता हे, यदि सेंसर का  हल्ला न होतो आदमी फिल्म देखने क्यों जाये, क्या देखे, क्या चर्चा करे?

 सेंसर बोर्ड के कारण  ही डाइरेक्टर, हिरो. होरोइन फिनेन्सेर  सब की किस्मत खुलती हे, या फिर फिल्म डब्बे में बंद रह जाती हें.  दोस्तों फिल्म देखे-ने का एक मात्र कारण  सेंसर बोर्ड हैं इसे मार  दिया जाये या छोड़ दिया जाये 

  

फिल्मों में मारधाड़, हिंसा, सेक्स के अलावा कुछ नहीं  होता यदि सेंसर बोर्डचाहे  तो  दफ्तर पर ही एक फिल्म बना सकता हैं यह फिल्म सुपर-डुपेर हिट होंगी. क्या ख्याल हैं आपका .?

०००००००००००००००००००

 यशवंत कोठारी ८६ , लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बहार, जयपूर ३०२००२ मो-०९४१४४६१२०७